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युगवीर-निबन्धावली फिर उन्हें 'वानप्रस्थ' या 'संन्यस्त (मुनि ) पाश्रम धारण करना चाहिए, और इस प्रकार कर्माका बल घटाते हुए अन्तके माश्रम द्वारा उन्हे सर्वथा निसूल करके बन्धनसे छूट जाना चाहिए । यही मुक्तिकी सुसरता युक्ति है। और इसके उपयुक्त दिग्दर्शनसे पाठक स्वय समझ सकते हैं कि गृहस्थाश्रम अथवा गृहस्थधर्मका यह प्रणयन कितना अधिक युक्ति और चतुराईको लिये हुए है'। और उस पर पूरा पूरा अमल होनेसे मुक्ति कितनी सन्निकट हो जाती है।
परन्तु इन समस्त आश्रमोके धर्मका पूरी तौरसे पालन तब ही हो सकता है जब 'समाजका सगठन अच्छा हो। बिना समाज-सगउनके कोई भी काम यथेष्ट रीतिसे नहीं हो सकता। बाह्यसाधन न होनेसे सब विचार हृदयके हृदयमे ही विलीन हो जाते हैं, बन्धमोक्षकी सारी कथनी ग्रन्थोमें ही रक्खी रह जाती है और अमली सूरत कुछ भी बन नही पडती । जैनियोका सामाजिक संगठन बिगड जानेसे ही अफसोस । आज वस्तुत मुनिधर्म उठ गया ।। और इसीसे जैनियोकी प्रगति रुक गई। मुनियोका धर्म प्राय गृहस्थोंके आश्रय होता है । इसीलिए श्रीपद्मनन्दी आदि प्राचार्योने "गृहस्था धर्महे
१ विवाह-पद्धतिमे भी, भगवान 'वृषभ' देवका स्तवन करते हुए, यह बतलाया गया है कि 'उन्होने युगको आदिमे कल्याणकारी गृहस्थधर्मको प्रवर्तित करके उसके द्वारा युक्तिके साथ निर्वाण-मार्गको प्रवर्तित किया था। यथा :प्रावर्तयजन-हित खलु कर्मभूमौ षट्कर्मणा गृहिवृष परिवर्त्य युक्त्या । निरिण-मार्गमनवद्यमज स्वयम्भू श्रीनाभिसूनुजिनपो जयतात्स पूज्य ।।
जो लोग विवाहको सर्वथा ससारका कारण मानकर निवृत्तिप्रधान धर्मोके साथ उसको असम्बद्ध समझते हैं, यह उनकी बड़ी भूल है। उन्होने विवाहके वास्तविक उद्देश्यको नही समझा और न धर्मका रहस्य ही मालूम किया है।