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घुगवीर निवन्धावली संगठनको बहुत बड़ी हानि पहुंक्ती है और स्त्री-पुरुषोका जीवन भी नीरस तथा दुखमय बन जाता है। शरीर-शास्त्रके वेत्ता प्राचार्य वाग्भट्ट लिखते हैं कि, 'पुरुषकी अवस्था पूरे २० वर्षकी और स्त्रीकी अवस्था पूरे १६ वर्षकी हो जाने पर गर्भाशय-मार्ग, रक्त, शुक्र (वीर्य), शरीरस्थ-वायु और हृदय शुद्ध हो जाते हैं-अपना कार्य यथेष्ट रीतिसे करने लगते हैं-उस समय परस्पर जो मैथुन किया जाता है उससे बलवान् सन्तान उत्पन्न होती है, और इससे कम अवस्थाप्रोमे जो मैथुन किया जाता है उससे रोगी, अल्पायु या दीन-दुखित और भाग्यहीन सन्तान पैदा होती है अथवा गर्भ ही नहीं रहता । यथा -
पूर्णषोडशवर्षा स्त्री पूर्णविशेन सगता । शुद्धे गर्भाशये मार्गे रक्ते शुक्रेनिले हृदि । वीर्यवन्तं सुतं सूते ततो न्यूनाऽब्दयो. पुन ।
रोग्यल्पायुरधन्यो वा गर्भो भवति नैव वा ।। इससे साफ जाहिर है कि 'पुरुषका २० वर्षसे और स्त्रीका १६ वर्षसे कम उम्रमें विवाह न होना चाहिए', ऐसा कम उम्रका विवाह बहुतही हानिकारक होता है और समाजके संगठनको बिगाडता है। छोटी उम्र में विवाह करके बादको जो 'गौना' या 'द्विरागमन' की प्रथा है वह बिल्कुल विवाहके उद्देश्यको घात करनेवाली प्रथा है। सोते हुए सिहको जगाकर उसे थपकी देनेके समान है। किसी भी माननीय प्राचीन जैनशास्त्रमें उसका उल्लेख या विधान नहीं है। उसके द्वारा व्यर्थ ही दो व्यक्तियोका जीवन खतरेमें (जोखममे) डाला जाता है। इसलिए बुद्धिमानोके द्वारा यह प्रथा कदापि आदररणीय नही हो सकती। उपसंहार
जो लोग विवाहके इन सब उद्देश्योको न समझकर, शरीरशास्त्रके वचनोंको न मानकर अपने बच्चोंका विवाह छोटी उम्र में