________________
१५०
युगवीर - निबन्धावली
लिये और गृहस्थाश्रमका भार समुचित-रीतिसे उठानेके लिये इस बातकी बहुत बडी ज़रूरत है कि 'स्त्री और पुरुष दोनों योग्य हो, समर्थ हो, युवावस्थाको प्राप्त हो और विवाहके उद्देश्योको मले प्रकार समझते हों । बाल्यावस्था से ही उनके शरीरका सगठन अच्छी रीति
हुआ हो, वे खोटे सस्कारोसे दूर रक्खे गये हो और उनकी शिक्षादीक्षाका योग्य प्रबन्ध किया गया हो। साथ ही, विवाह-संस्कार होने तक उन्होंने पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन किया हो और लौकिक तथा पारमार्थिक ग्रन्थका अध्ययन करके उनमे दक्षता प्राप्त की होअच्छी लियाकत हासिल की हो ।' बिना इन सब बातोंकी पूर्ति हुए विवाहके उद्देश्योका पूरे तौरसे पालन नही हो सकता, न गृहस्थाश्रमका भार समुचित रीति से उठाया जा सकता है और न वह गृहस्थाश्रम सुखाश्रम ही बन सकता है । इसीलिए गृहस्थाश्रम से पहले श्राचार्योंने एक दूसरे आश्रमका विधान किया है, जिसका नाम है 'ब्रह्मचारी प्राश्रम' - अर्थात्, ब्रह्मचारी रहकर विद्याभ्यास करते हुए शारीरिक और मानसिक शक्तियोको केन्द्रित करना । इस श्राश्रम
~~
MMMAAAAAANTAAN
१ मुनि रत्नचदजीने भी 'कर्त्तव्य-कौमुदी' मे लिखा है यावन्नार्जयते धन सुविपुल दारादिरक्षाकर यावन्नेव समाप्यते दृढतरा विद्या कला वाऽश्रिता । यावन्नो वपुषो धियश्च रचना प्राप्नोति दाढ्यं पर तावन्नो सुखद वदन्ति विबुधा ग्राह्य गृहस्थाश्रम |
अर्थातजब तक इतना प्रचुर धन पैदा न कर लिया जाय अथवा पासमे न हो जिससे अपनी तथा स्त्री-पुत्रादिककी यथेष्ट रक्षा होसके- घरका खर्च चल सके, जब तक विद्या श्रौर कलाका अभ्यास अच्छी तरहसे पूरा न हो जाय और शरीरके भगोकी रचना तथा बुद्धिका विकास अच्छी तरहसे होकर उनमे पूर्ण दृढता न पा जाय तब तक गृहस्थाश्रमका ग्रहण करना सुखदायी नही हो सकता, ऐसा बुद्धिमानोका मत है ।