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विवाह-समुदस्य
१४६ तवः" "आपका मूलकारणम्" इत्यादि वाक्योंके द्वारा गृहस्थोंको 'धर्मका हेतु' और 'मुनिधर्मका मूल कारण बतलाया है। परन्तु गृहस्थाश्रमको व्यवस्था ठीक न होनेसे-समाजके अव्यवस्थित और निर्बल होनेसे---यह सब कुछ भी नहीं हो सकता । इसलिए अन्तरंग
और बहिरंग दोनो दृष्टियोंसे समाज-संगठनकी बहुत बड़ी जरूरत है । इसी खास उद्देश्यको लेकर विवाह होना चाहिए और उसको पूरा करनेके लिये प्रत्येक स्त्री-पुरुषकोउन दस कर्तव्योका पूरी तौरसे पालन करना चाहिये जो कुटुम्बोको सुव्यवस्थित बनानेके लिए बतलाये गये हैं और जिन पर समाजका सगठन अवलम्बित है। धर्मशास्त्रोकीदृष्टिसे विवाहके ये ही सब उद्देश्य हैं। अन्य सब छोटीमोटी बाते इन्हीं में समाजाती हैं।
उद्देश्यसिद्धिके लिये जरूरत विवाहके इन सब उद्देश्योको पूरा करने अथवा सिद्ध करनेके
१ 'मनु' आदिने भी गृहस्थाश्रमको प्रधानता दी है और लिखा है कि 'शेष तीनो पाश्रमोका उसीके द्वारा भरण-पोषण होता हैं और वे उमके आश्रित हैं'। यथा -
सर्वेषामपि चैतेषा वेद-स्मृति-विधानत ।। गृहस्थ उच्यते श्रेष्ठ स त्रीनेतान्विति हि ।। तथैवाश्रमिरण सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् ॥ -मनुस्मृतिः २ श्रीसोमदेवसूरिने, नीतिवाक्यामृतके निम्न वाक्यमे, दारकर्म (विवाह) के जो पाँच फल बतलाये हैं उनमेसे कोई भी फल ऐसा नही है जो इन उद्देश्योसे भिन्न हो अथवा इनके द्वारा साध्य न हो.
धर्मसततिरनुपहतारति हवार्तानुविहितत्वमामिजात्याचारविशुद्धिदेव-द्विजाऽतिथि-बान्धव-सत्कारानवद्यत्व दारकर्मणः फलम् ।