________________
१४२
युगवीर-निबन्धावली संगठित, बलान्य और सुव्यवथित होने पर उन सब लौकिक तथा धार्मिक स्वत्वोको-अधिकारोकी- पूर्णतया रक्षा होती है, जिनकी रक्षा प्रत्येक व्यक्ति या कुटुम्ब अलग अलग नही कर सकता।
दूसरे शब्दोमें यो कहना चाहिए कि सब कुटुम्ब समाज शरीरके अङ्ग हैं । एक भी प्रङ्गकी व्यवस्था बिगड जानेपर जिस प्रकार शरीरके काममें बाधा पड़ जाती है उसी प्रकार किसी भी कुटुम्बकी व्यवस्था बिगड जाने पर समाजके काममें हानि पहुंचती है। और जिस प्रकार सब अङ्गोंके ठीक होनेपर शरीर स्वस्थ और नीरोग होकर भले प्रकार सब कार्योका सम्पादन करनेमे समर्थ हो सकता है, उसी प्रकार समाज भी सब कुटुम्बोकी व्यवस्था ठीक होनेपर यथेष्ट रीतिसे धर्मकर्म आदिको व्यवस्था कर सकता है और प्रत्येक कुटुम्ब तथा व्यक्तिके स्वत्वोकी रक्षा और उसकी आवश्यकताओकी पूर्तिका समुचित प्रबध कर सकता है। इससे कहना होगा कि 'समाजका सगठन कुटुम्बोके मगठनपर अवलम्बित है और कुटुम्बके सगठनका भार कुटुम्बके प्रधान व्यक्तियो पर-- गृहिणी और गृपति' पर होता है। इसलिए विवाहके इस उद्देश्यको पूरा करनेके लिये विवाहित और विवाहके लिए प्रस्तुत स्त्री-पुरुषोको इस ओर खास ध्यान देनेकी ज़रूरत है। उन्हे अपनी जिम्मेदारियोको खूब समझ लेना चाहिये । उनके द्वारा कोई भी ऐसा काम न होना चाहिए जिससे समाजसगठन मे बाधा पड़ती हो । साथ ही, उन्हे यह भी जान लेना चाहिए कि जबतक परिस्थिति नहीं सुधरेगी- वातावरण ठीक नही होगा-तब तक हम अपनी स्थितिको भी जैसा चाहिए वैसा नही सुधार सकते। इसलिये समाजसंगठनके अभिप्रायसे- वायुमंडलको सुधारनेकी दृष्टिसे- उन्हे अपने कुटुम्बको सुव्यवस्थित करनेमे कोई बात उठा न रखनी चाहिये । इस प्रकारके प्रयत्नसे सब कुटुम्बोके सुव्यवस्थित हो जाने पर जो स्वच्छ वायु-धारा बहेगी वह सभीके लिये स्वास्थ्यप्रद होगी और उसमे रहकर सभी लोग अपना कल्याण कर सकेंगे।