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विवाह-समुद्देश्य
१४१ कहलाता है।
एक कुटुम्बके किसी व्यक्ति पर जब कोई अत्याचार करता है तो उस कुटुम्बके सभी लोगोको एकदम जोश प्राजाता है और वे उस अत्याचारीको उसके अत्याचारका मजा ( फल ) चखानेके लिए तैयार हो जाते है, इसीको 'एक प्रारण होना' कहते हैं। इसी तरह जब कुटुम्बका कोई मनुष्य कुटुम्बके उद्देश्यके विरुद्ध प्रवर्तता है-अन्यायमार्ग पर चलता है तो उससे भी कुटुम्बके लोगोके हृदय पर चोट लगती है और वे,शरीरके किसी अगमे उत्पन्न हुए विकारके समान, उसका प्रतिशोध करनेके लिये तैयार हो जाते हैं, इसको भी 'एक प्राण होना' कहते है। साथ ही,यह सब उनके 'एक उद्देश्य' होनेको भी सूचित करता है।
इस प्रकार एक प्राण और एक उद्देश्य होकर जितनी भी अधिक व्यक्तियां मिलकर एक साथ काम करती हैं उतनी ही अधिक विघ्नवाधाओंसे सुरक्षित रहकर वे शीघ्र सफल मनोरथ होती हैं। यही समाज-सगठनका मुख्य उद्देश्य है और इसी खास उद्देश्यको लेकर विवाहकी सृष्टि की गई है । इसमे पूरा ‘रक्षा-तत्व' भरा हुआ है।
एक विवाह होने पर दोनो पक्षकी कितनी शक्तियाँ परस्पर मिलती हैं, एक दूसरेके सुख-दुखमे कितनी सहानुभूति बढती है और कितनी समवेदना प्रकट होती है, इसका अनुभव वे सब लोग भले प्रकार कर सकते हैं जो एक सुव्यवस्थित कुटुम्बमे रहते हो। युद्धमे दो राजशक्तियोंके परस्पर मिलनेसे-एक सूत्रमे बंधनेसे- जिस प्रकार आनन्द मनाया जाता है, उसी प्रकार विवाहमे वर और वधू दोनो पक्षकी शक्तियोके मिलापसे आनन्द का पार नहीं रहता। इस सम्मिलित शक्तिसे जीवन-युद्ध अनेक प्रशोमे सुगम होजाता है। विवाहके द्वारा कुटुम्बोंकी रचना होती है और कुटुम्बोसे 'समाज' बनता है । कुटुम्बोके संगठित,बलान्य और सुव्यवस्थित होनेपर समाज सहजमे ही संगठित, बलान्य और सुव्यवस्थित होजाता है । और समाजके