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विवाह-समुद्देश्य
१३६ या अन्तरग और बहिरंग दोनो ही दृष्टियोसे इसे युद्ध समझना चाहिए-और यह संसार 'युद्धक्षेत्र' है। युदमें जिस प्रकार अनेक शक्तियोंका मुकाबला करनेके लिये सैन्य-संगठनकी जरूरत होती है उसी प्रकार जीवन-युद्ध में अनेक प्रापदामोसे पार पानेके लिए समाजसंगठनकी आवश्यकता है।
हम चारो ओरसे इस ससारमे इतनी आपत्तियो-द्वारा घिरे हुए हैं कि यदि हमारे पास उनसे बचनेका कोई साधन नहीं है तो हम एक दिन क्या, घडी भर भी जीवित नही रह सकते । बाह्य जगत पर दृष्टि डालनेसे मालूम होता है कि एक शक्ति बडी सरगर्मी ( तत्परता ) के साथ दूसरी शक्ति पर अपना स्वत्व ( स्वामित्व )
और प्राबल्य स्थापित करना चाहती है, अपने स्वार्थके सामने दूसरी को बिलकुल तुच्छ और नाचीज़ समझती है, चैतन्य होते हुए भी उससे जड-जैसा व्यवहार करती है और यदि अवसर मिले तो उसे कुचल डालती है-हडप कर जाती है। रात दिन प्राय इस प्रकारकी घटनाएँ देखनेमे आती हैं। निर्बलो पर खूब अत्याचार होते हैं। न्यायालय खुले हए है, परन्तु वे सब उनके लिये व्यथ हैं। उनकी कोई सुनाई नहीं होती। इसीलिए न कि, उनका कोई रक्षक या सहायक नहीं है, उनमे कौटुम्बिक बल नही है, जिस समाजके वे अग हैं वह सुव्यवस्थित नहीं है, पैसा उनके पास नहीं है, उन्हे कोई साक्षी उपलब्ध नहीं होता- कोई गवाह मयस्सर नहीं पाता। जो लोग प्रत्यक्षमें उनपर होते हुए अत्याचारोको देखते हैं वे भी अत्याचारीके भयसे या अपने स्वार्थमे कुछ बाधा पडनेके भयसे बेचारे गरीबोकी कोई मदद नहीं करते, उन्हे 'न्याय-भिक्षा' दिलानेमे समर्थ नहीं होते। और इस तरह बेचारे पारिवारिक और सामाजिक शक्ति-विहीनोको रात-दिन चुपचाप घोर सकट और दुख सहन करने पड़ते हैं।
ससारमें अविवेक और स्वार्थकी मात्रा इतनी बढी हुई है कि