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विवाह- समुद्देश्य
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या और तौरपर वैसा करनेके लिये असमर्थ न हों श्रौर वह समय भी कोई पर्वादि वर्ण्य काल न हो तो, परस्पर काम सेवन करना लिखा है । यथा
सतानार्थमृतावेव कामसेवां मिथो भजेत् ।
शक्तिकालव्यपेक्षोऽय कमोऽशक्तेष्वतोऽन्यथा ।।३८ - १३५॥ इसी ग्रन्थके १५ वे पर्वमे उक्त प्राचार्य महोदयने ये वाक्य भी दिये हैं-
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त्वामाऽऽदिपूरुषं दृष्ट्वा लोकोऽप्येवं प्रवर्त्तताम् । महतां मार्गवर्तिन्य प्रजा सुप्रजसो ह्यः ॥ ६५॥ तत कलत्रमत्रेष्ट परिणेतु मन कुरु । प्रजा संततिरेव हि नोच्छेत्स्यति विदांवर ॥ ६२ ॥ प्रजा सतत्यविच्छेदे तनुते धर्म - सततिः । मनुष्व मानव धर्म ततो देवैनमच्युत ||६३|| देवेमं गृहिणा धर्मं विद्धि-दारपरिमम् । सतानरक्षणे यत्न कार्यो हि गृहमेधिनाम् ||४६ । इन वाक्योमे विवाहकी उस प्रार्थनाका वर्णन है जो युगकी प्रादिमेनाभिराजाने भगवान् वृषभदेवसे की थी और जिसके अनुसार वृषभदेवने विवाह कराना स्वीकार किया था । प्रार्थनामे बतलाया गया है कि 'विवाह करना गृहस्थोका धर्म है' । गृहस्थोको सतान
१ जैन- विवाह पद्धतिमे भी लिखा है कि 'अन्य स्त्रीका त्याग और निजस्त्री-मात्रमे प्रवृत्तिरूप जो यह विवाहकर्म है वह गृहस्थोका धर्म है और सततिका योग्य रीतिसे पालन करनेके लिये अनादि- प्रवाहसे चला आता है । इस गृहस्थ-धर्मका यथेष्ट रीतिसे धारण और पालन होनेपर मुनि धर्म मे प्रदर उत्पन्न होता है अथवा यो कहिये कि मुनिधर्मकी भोर लोगोकी प्रवृत्ति होती है ।' यथा
अन्याङ्गनापरिहृतिनिजदारवृत्ति
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