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विवाह-समुद्देश्य
१३५ दन करना भी विवाहका मुख्य उद्देश्य है । जिस मैथुनसे प्रजा या सतान उत्पन्न नही होती उसको विद्वानोंने नामका मेथुन, निष्फल मेथुन और धिक्कारयोग्य मैथुन कहा है ('धिग्मेथुनमप्रजम् )।
और उनके उदाहरणोसे शास्त्र भरे हुए हैं । अब भी कितनी ही जातियोमे अथवा स्थानोपर ऐसे विवाह होते हैं और इसीलिये सोमदेवमूरिने लिखा है कि 'देश-कुलापेक्षो मातुल-सम्बन्ध'-अर्थात् मामाकी पुत्रीसे विवाह देश तथा कुलकी अपेक्षा रखता है । प्रत वह सार्वदेशिक नही है।
(७) आदिपुराणमे, विवाह-विधानोमे स्वय वर-विधिको सबसे श्रेष्ठ बतलाया है और उसे सनातन मार्ग लिखा है। यथा --
सनातनोऽस्ति मार्गोऽय श्रुति-स्मृतिषु भाषित ।
विवाह-विधि-भेदेषु वरिष्ठो हि स्वयवर ॥ परन्तु स्वय वरमे कन्या अपनी इच्छानुसार वरको वरण करती है। उसमे कुलीन या अकुलीनका कोई विचार अथवा क्रम नही होता; जैसा कि ब्रह्मजिनदासकृत हरिवशपुराणके निम्न वाक्यसे प्रकट है
कन्या वृणीते रुचित स्वयवरगता वर ।
कुलीनमकुलीन वा क्रमो नास्ति स्वयवरे ॥ ऐसी हालतमे विवाह के लिए वर्ण, जाति और कुल-गोत्रका कुछ भी नियम नहीं रहता।
(८) सोमदेवसूरि आदि कितने ही विद्वानोने, गृहस्थोके लिये लौकिक और पारलौकिक ऐसे दो प्रकारके धर्मोंका विधान करते हुए लौकिकधर्मको लोकाश्रित-अर्थात् लौकिक जनोकी देशकालानुसारिणी प्रवृत्तिके अधीन-और पारलौकिकको मागमाश्रित अथवा प्राप्तप्रणीत शास्त्रोके अधीन बतलाया है। सासारिक व्यवहारोके लिये आगमका प्राश्रय लेना भी व्यर्थ ठहराया है। और साथ ही, यह प्रतिपादन किया है कि जैनियोके लिये वे सपूर्ण लौकिक विधियाँ प्रमाण हैं