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विवाह- समुद्देश्य
सबसे प्रधान उद्देश्य
समाज-संगठन
अब विवाहका सबसे प्रधान उद्देश्य बतलाया जाता है, जिसका नाम है 'समाज - सगठन' - अर्थात्, समाजका सुव्यवस्थित, बलाढ्य
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नही है
(१) भगवज्जिनसेनाचार्य और श्रीसोमदेवसूरिने अनुलोम्यरूपसे ब्राह्मणो के लिए चारो, क्षत्रियोके लिए तीन, और वैश्योके लिये सिर्फ दो वर्णोंकी स्त्रियोसे विवाह करनेका विधान किया है- अर्थात् तीनो वर्णों के लिए शूद्रा स्त्रीसे विवाह करना भी उचित ठहराया है । परन्तु प्रतिलोम विवाहकी अपने से ऊपर के वर्ण की स्त्रीसे विवाह करनेकी - आज्ञा नही दी । जैसा कि उनके निम्न वाक्योसे प्रकट हैशूद्रा शूद्रेण वोढव्या नान्या स्वा ता च नेगमः ।
वहेत्स्वा ते च राजन्य स्वा द्विजन्मा क्वचिञ्च ता ॥ - श्रादिपुराण प्रानुलोम्येन चतुस्त्रिद्विवर्णकन्याभाजना ब्राह्मणक्षत्रियविशः । - नीतिवाक्यामृत
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( २ ) 'धर्म स ग्रहश्रावकाचार' मे प्रथम तीन वर्णोंके लिये परस्पर विवाह करनेका विधान किया गया है और शूद्रोके साथ विवाहसम्बधका सर्वथा निषेध किया है । यथा
परस्पर त्रिवर्णाना विवाह पक्तिभोजन । कर्त्तव्यं न च शूद्रस्तु शूद्रारणा शूद्रके सह ||
इससे सवर्ण विवाह के साथ साथ प्रतिलोम विवाहकी भी साफ तौरसे ध्वनि निकलती है। और प्रथमानुयोगके ग्रन्थोमे तो प्रतिलोम विवाह कितने ही उदाहरण पाये जाते हैं । स्वयं राजा श्रेणिकने, जो क्षत्रिय था, अपने पुरोहित सोमशर्मा ब्राह्मणकी पुत्रीसे विवाह किया था ।