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विवाह-समुद्देश्य हो सकती । इसलिये विवाह करके गृहस्थाश्रममे प्रवेश करनेवाले पुरुष और स्त्री दोनोंको धर्म, अर्थ मौर काम तीनो पुरुषार्थोंका 'अविरोधरूपसे' या 'समानरूपसे सेवन करना चाहिए । 'धर्म' को घात करके दूसरे पुरुषार्थोंका सेवन करनेवाला मनुष्य उस किसान (कृषक) के समान है जो बीज न रखकर अपने खेतकी सब पैदावार (उपज) खा जाता है और अन्तमें दुखी होता है। असलमें सुखी वही कहलाता है जो आगामी सुखका विरोध न करके वर्तमान सुखको भोगता है। 'अर्थ' पुरुषार्थको घात करनेवाला गृहस्थ विपत्तिमें पड़ता है, क्योकि उसके धर्म और कामका साधन अर्थ ही है ( "धर्म-कामयोरर्थमूलत्वात्')। और 'काम' पुरुषार्थको घात करनेवाला गृहस्थ ही नही कहला सकता-गृहस्थीमे रहते इन्द्रियविषयोका सेवन जरूरी है। इसी तरह पर जो गृहस्थ 'केवल काम' पुरुषार्थका ही सेवन करता है उसके धन, धर्म और शरीर तीनो नष्ट हो जाते हैं। उसे इस लोक और परलोकमें सभी जगह कष्ट उठाना पडता है। जो केवल धन' ही कमाता है, न उसे परोपकारादि धर्मकार्यों में लगाता है और न अपने विषयभोगोमे, उसके बराबर कोई मूर्ख नही हो सकता, वह केबल बोझा ढोनेवाला है-वह अपने दोनों लोक बिगाडता है । और जो 'केवल धर्म ही धर्म' का सेवन करता है वह गृहस्थ नही हो सकता, उसे मुनि या साधु कहना चाहिए । इन सब बातोंको ध्यानमे रखकर और इनके पालनके लिए तैयार होकर ही मनुष्योंको 'गृहस्थाश्रम' में प्रवेश करना चाहिए, अर्थात विवाह कराना चाहिये । तब ही विवाहसे यथेष्ट लाभ-जैसा चाहिए वैसा फायदा हो सकता है और तब ही उनका गृहस्थाश्रम सुखाश्रम बन सकता है।
१ "सम वा त्रिवर्ग सेवेत" इति सोमदेव ।