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युगवीर-निबन्धावली विजय' करना सीखें और "विरुखकामप्रवृत्ति' (बे-कायदे कामसेवन करनेवाले ) न बने । साथ ही, उन्हें 'धर्म' और 'अर्थ' पुरुषार्थोंका योग्य-रीतिसे सम्पादन करते हुए, स्त्रीका सेवन इस तरह पर करना चाहिए जिस तरह पर शरीर और मनका माताप मेटनेके लिए भोजनका सेवन किया जाता है । अन्यथा, अधिक स्त्रीसेवनसे उन्हें अपने धन, धर्म और शरीर तीनोंकी हानि उठानी पडेगी। इसी अभिप्रायको लेकर विद्वद्वर पडित आशाधरजी ने लिखा है -
भजेदहमनस्तापशमान्त स्त्रियमन्नवत् ।
क्षोयन्ते खलु धर्मार्थकायास्तदतिसेवया ।। (सागारधर्मामृत ) सोमदेवसूरिने भी 'यशस्तिलक' और 'नीतिवाक्यामृत' मे ऐसा ही प्रतिपादन किया है -
ऐदपर्यमतो मुक्त्वा भोगानाऽऽहारबद्भजेत् । देह दाहोपशान्त्यर्थमभिध्यान-विहानये ॥ ( यशस्तिलक) न तस्य धनं धर्मः शरीरं वा यस्य स्त्रीष्वत्यासक्ति (नीतिवा०)
वास्तवमे गृहस्थाश्रम एक 'रसायन' है । रसायनके तैयार करनेमे किसी औषधिके छूट जानेसे, औषधियोका वजन कमती बढती हो जानेसे या उनकी प्रक्रिया ठीक न बैठनेसे जिस प्रकार इष्टफल घटित नही होता, उसी प्रकार गृहस्थाश्रममे धर्म, अर्थ और काम इन तीनो पुरुषार्थोंमेंसे किसीके छूट जाने या जानबूझ कर छोड दिये जाने पर पुरुषार्थोंकी मात्रामे कमी-बेशी हो जाने पर या और प्रकारसे उनकी प्रक्रिया और सेवन-विधि ठीक न बैठने पर इष्ट-फलकी प्राप्ति नही
१ इष्ट-पदार्थमे आसक्तिका और विरुद्धमे प्रवृत्तिका न होना 'इद्रिय-जय' कहलाता है, जैसा कि श्रीसोमदेवसूरिके निम्न वाक्यसे प्रकट है
इष्टेऽर्थेऽनासक्तिविरुद्ध चाऽप्रवत्तिरिन्द्रियजय ।