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जैनियोमे दयाका प्रभाव बडा दुख तथा शोक होता है और निःसकोच-भावसे कहना पड़ता है कि प्राजकलके जैनियोंमें प्राय दयाधर्मका अभाव होगया है। जैनी प्राय इतने हीन, स्वार्थी और संकीर्णहृदय बन गये हैं कि, स्वप्नमे भी कभी दूसरोका उपकार करनेकी तरग इनके हृदयमें नहीं उठती है, जैनियोंके सामने ही कोई किसीको सतायो, किसीका दिल दुखायो, अन्याय करो, अत्याचार करो और कैसा ही पापका काम क्यो न करो, परन्तु इससे उन्हे क्या ? जैनियोंके हृदय पर इससे कुछ भी चोट नहीं लगती है। लौकिक स्वार्थने इन लोगोको इतना अधा बना दिया है कि दूसरोके दुखको ये दुख ही नहीं समझते हैं, दुखियोंके दु खमे अपनी सहानुभूति दर्शाना और समवेदना प्रगट करना तो मानो इनकी प्रकृतिके विरुद्ध ही हो गया है । शायद इस प्रकारकी उदासीनताको ही ये लोग वीतरागता मान बैठे हो और इसी सुगम रीतिसे इन्होने वीतगग पदवीका सर्टिफिकेट मिलना समझ रक्खा हो । अफसोस । और शोक || जो लोग सबसे ऊंचे चढे थे,वे आज ऐसे नीचे आ पडे । अाज जैनियोने अपना कर्तव्य भुलाकर अपने वश-गौरव को मिटा दिया । जैनियोकी वर्तमान हालतको देख कर कौन कह सकता है कि कभी जैनी भी ऐसे परोपकारी और दयावान थे कि, जो जीवमात्रका कल्याण करनेके लिये सदैव आकुलित रहते थे और उनके रोम-रोम और नस नसमे प्रतिक्षण परोपकारमय उत्साह की दामिनि दमकती थी। कौन समझ सकता है कि इनके पूवज ऐसे स्वार्थत्यागी, उदारचेता, समदृष्टि और निनिमित्त बन्धु हो गये है कि जिन्होने भील, चाण्डाल, म्लेच्छ और पापीसे पापी मनुष्य ही को नहीं, बल्कि सिह, व्याघ्र, शूकर, कूकर गृद्ध आदि पशु पक्षियो तक पर दया करके उनको धर्मकी शिक्षा दी थी और उनको जैनधर्म धारण करा कर कल्याणके मार्ग पर लगाया था।
जैनियोके अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामीके समवशरणमे