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विवाह-समुद्देश्य
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कहा है -
नाल्पसत्वैर्न नि शीलेन दीनैर्नाऽक्षनिर्जितै. । स्वप्नेऽपि चरितु शक्यं ब्रह्मचर्यमिद नरैः ।। ११-५॥
अर्थात्-ब्रह्मचर्य उन लोगोंसे स्वप्नमे भी आचरण किये जानेके योग्य नही है जो अल्पशक्तिके धारक हैं, शील-रहित हैं, दीन हैं और जिनकी इन्द्रियाँ उनके वशमे नही हैं।
ऐसो हालतमे शरीर और विचार-बल-रहित निर्बल व्यक्तियोंको पूर्ण ब्रह्मचर्यके लिए मजबूर करना कभी न्यायसगत नहीं हो सकता और न उससे कुछ लाभ ही उठाया जा सकता है। इसलिए उनके लिए भी कोई विधान बतलानेकी जरूरत पैदा हुई।
तृषा-रोगके निर्बल रोगीको, इच्छानुसार घडो पानी पिला देनेके समान, पानीका बिल्कुल न देना भी जिस प्रकार हानिकर (नुकसानदेनेवाला) होता है और इसलिए उसके वास्ते कोई हलका पेय ( अर्क-शर्बतादि) पदार्थ तजवीज़ किया जाता है, जिससे उसका रोग शनै शनै दूर होजाय, उसी प्रकार कामतृष्णातुर निर्बल आत्माप्रोको, उनकी इच्छानुसार विषय-सेवन करानेकी तरह, सर्वथा विषयोसे वचित रखना भी-उनसे पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन कराना भी-अनिष्टकर होता है । और इसलिए उनके लिए 'गृहस्थाश्रम' या 'गृहस्थधर्म' नामका 'लघु पेय' तजवीज किया गया है, जिससे उनकी कामतृष्णा धीरे-धीरे शान्त होजाय।
इस पेयमे तीन चीजे मिली हुई हैं-धर्म, अर्थ और कामजिनको 'त्रिवर्ग' भी कहते है। काम-सेवन पानीके समान है, धर्म काम-तृष्णाको दूर करनेवाली औषधि है और अर्थ (धन) दोनोका साधन है-उन्हे यथास्थान (ठोक ठिकाने पर ) पहुँचानेवाला है । इन तीनोकी मात्रा आदिक भी निर्दिष्ट (तजवीज) की गई है, जिससे परस्पर विरोध होकर किसी प्रकारका अनिष्ट न हो सके । अविरोधरूपसे सेवन किया हुमा ही 'त्रिवर्ग' अभीष्ट फलको देनेवाला हो