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युगवीर निबन्धावली
आज तक कभी इन विषय-भोगोंसे किसीको भी तृप्तिकी प्राप्ति नहीं हुई और न हो सकती है। ईन्धन और घृताहुति से जिस प्रकार अग्नि तृप्त नही होती और घडो पानी पी लेनेसे जिस प्रकार तृषारोगके रोगीकी प्यास नहीं बुझती, उसी प्रकार ससारी जीवकी हालत है । उसे भी इन विषय-भोगोसे कोई तृप्ति नही मिलती । विषयोकी ऐसी हालत होते हुए, प्रात्मकल्याणार्थी कुछ महात्माओके. हृदयमे यह विचार उत्पन्न हुआ कि, जब विषय-भोगोसे कुछ तृप्ति नही होती और न इनके सेवनसे आत्माका कुछ लाभ होता है, वल्कि उल्टा पापबघ जरूर होता है और नाना प्रकारके दुख तथा कष्ट उठाने पडते हैं, तब ऐसे व्यथके कामोमे फँसकर अपने आत्माका अनिष्ट करना कौन बुद्धिमानीकी बात है ? इसलिए उन्होने विषयोके सर्वथा त्यागका उपदेश दिया और इस तरह विषयोके विरोधकी सृष्टि हुई । इस विरोधसे जैन -प्रजैन सभी ग्रन्थ भरे हुए हैं, जिनमें विषयोका वास्तविक स्वरूप, उनकी अनुपयोगिता (निरर्थकता ) और उनसे होनेवाली हानि प्रादिका हृदय-हारी वर्णन करते हुए उनके त्यागकी प्रेरणा की गई है। साथ ही, ब्रह्मचर्य की महिमा, उसकी उपयोगिता और उसके द्वारा सपूर्ण सुखोकी प्राप्ति प्रादिका वर्णन भी बडे कौशल के साथ किया गया है । और अन्तमे पूर्ण ब्रह्मचर्य धारण करने और पालनेकी जोरके साथ प्रेरणा की गई है
इसमें कोई सन्देह नही कि पूरणं ब्रह्मचर्य का पालन करना बहुत ही उत्तम, श्रेष्ठ और कल्याणकारी धर्म है । इसके द्वारा आत्मा उत्तरोत्तर अपनी शक्तियोको बढाकर कर्मशत्रुनोको निर्मूल करनेके लिये समर्थ हो सकता है । परन्तु कामदेवकी प्रबल शक्तिका मुकाबला करके पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना खेल नही और न हरएक व्यक्तिका काम है, बिरले ही मनुष्य इसको धारण कर सकते हैं। इसके लिये बड़े बलवान आत्माकी जरूरत होती है। निर्बलोका इसमें अधिकार नही हो सकता। जैसा कि श्रीशुभचन्द्राचार्य ने 'ज्ञानार्णव' में