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युगवीर-निबन्धावली नाम मुक्ति है। उसीमें वास्तविक सुख है और वही सब जीवोका अन्तिम ध्येय बतलाया जाता है । साथ ही,महानसे महान् प्राचार्योंका-धर्मगुरुप्रोंका-यह भी कथन है कि 'मैयुन करना पाप है' - पच पापोमे उसकी गणना है। अमृतचन्द्रसूरिने, तिलोसे पूर्ण नलीमें तप्त-लोह-शलाकाके प्रवेशका उदाहरण देकर, मैथुनमें पापकी-- द्रव्यहिंसाकी-मात्राको और भी अधिकताके साथ प्रदर्शित किया है । यथा -
हिंस्यन्ते तिलनाल्या सप्तायसि विनिहिते तिला यद्वन । बहयो जीवायोनौ हिंस्यन्त मैथुने तद्वत् ।।
-पुरुषार्थमिद्धयुपाय परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी, आज एक, कल दूसरा और परसो तीसरा नवयुवक खुशीसे इम स्त्री-बन्धनको स्वीकार करता है, एक अपरिचित व्यक्तिको-एक अजनबी शख्शको-अपना हृदय देता है, कुटुम्बके भरण-पोषरगादिकी समस्त जिम्मेदारियोको अपने ऊपर लेता है और धनके उपार्जन करने-बढाने-रक्षा करनेके द्वारा तथा रोग-शोकादिकके कारण नित्य नई आनेवाली गृहस्थकी चिन्ताप्रो और विपत्तियोमे पडनेके लिए तैयार होता है। साथही, पचो द्वारा बिना किसी मकोचके उमके इस स्त्री-सम्बन्धकी रजिष्ट्रीकी जाती है और इस प्रकार विवाह द्वारा दम्पतिको निष्क
१ वात्स्यायन ऋषिने भी योनिमे जीवोको स्वीकार किया है,जैसा कि सागारधर्मामृत मे उधृत उसके निम्न वाक्यमे प्रकट है -
रक्तजा कृमय. सूक्ष्मा मृदुमध्यादिशक्तय ।
जन्मवत्मसु कति जनयन्ति तथाविधम् ।। २ विवाह उस सम्बन्ध-विशेषका ही नाम है जिसके द्वारा, मानवसमाजमे, स्त्री-पुरुषोको परस्पर काम-क्रीडाका द्रव्यादिको अपेक्षा र हित स्वतत्र और खुला अधिकार प्राप्त होता है।