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युगवीर-निबन्धावली क्योंकि शूद्रोंको साफ़ तौरसे पूजनका अधिकार दिया गया है, जिसका कथन ऊपर विस्तारके साथ प्राचुका है । जब शुद्धोंको पूजनका अधिकार प्राप्त है, तब उनके समान धर्मियोको उस अधिकारका प्राप्त होना स्वत सिद्ध है।
प्रजनका अधिकार ही क्या ? जैनशास्त्रोके देखनेसे तो मालूम होता है कि अपध्वसज लोग जिनदीक्षा तक धारण कर सकते हैं, जिसकी अधिकार-प्राप्ति शूद्रोको भी प्राय नहीं कही जाती। उदाहरणके तौरपर राजा कर्णको ही लीजिये। राजा कर्ण एक कुवारी कन्यासे व्यभिचार-द्वारा उत्पन्न हुआ था और इसलिये वह अपध्वसज' और 'कामीन' कहलाता है । श्रीजिनसेनाचार्यकृत हरिवशपुराणमे लिखा है कि महाराजा जरासिंधके मारे जानेपर राजा कर्णने सदर्शन नामके उद्यानमे जाकर दमवर नामके दिगम्बर मुनिके निकट जिनेश्वरी दीक्षा धारण की । श्रीजिनदास ब्रह्मचारिकृत हरिवंशपुराणमे भी ऐसा ही लिखा है, जैसा कि उसके निम्नलिखित श्लोकसे प्रगट है -
विजितोऽप्यरिभि कर्णो निविएणो मोक्षसौख्यदाम् । दीक्षा सुदर्शनोद्यानेऽग्रहीहमवरान्तिके ॥ २६-२८८ ।।
अर्थात्-शत्रुओंसे विजित होनेपर राजा कर्णको वैराग्य उत्पन्न होगया और तब उन्होने सुदर्शन नामके उद्यानमे जाकर श्रीदमवर नामके मुनिके निकट, मोक्षका सुख प्राप्त करानेवाली, जिनदीक्षा धारण की।
इससे यह भी प्रगट हुआ कि 'अपध्वसज' लोग अपने वर्णको छोडकर 'शूद्र' नहीं हो जाते, बल्कि वे शूद्रोंमे कचित् ऊचा दर्जा रखते है और इसलिये दीक्षा धारण कर सकते है । ऐसी अवस्थामे उनका पूजनाऽधिकार और भी निर्विवाद हो जाता है।
यदि थोडी देरके लिये व्यभिचारजातको पू. नाऽधिकारसे वचित रक्खाजावे तोकु ड, गोलक, कानीन और सहोढादिक सभी प्रकारके