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युगवीर-निबन्धावली का सिद्धान्त है- और जो आत्मासे परमात्मा बनना नहीं मानते, यदि वे लोग शूद्रोको या अन्य नीच मनुष्योको पूजनके अधिकारसे वचित रक्खे तो कुछ आश्चर्य नही, क्योकि उनको यह भय हो सकता है कि, कही नीचे दर्जेके मनुष्योके पूजन कर लेनेसे या उनको पूजन करने देनेसे परमात्मा कूपित न हो जावे और उन सभीको फिर उसके कोपका प्रसाद न चखना पडे । परन्तु जैनियोका ऐसा सिद्धान्त नहीं है। जैनी लोग परमात्माको परम वीतरागी शान्तस्वरूप और कर्ममलसे रहित मानते है। उनके इष्ट परमात्मामे राग, द्वेष, मोह और काम-क्रोधादिक दोषोका सर्वथा अभाव है। किसीकी निन्दास्तुतिसे उस परमात्मामे कोई विकार उत्पन्न नहीं होता और न उसकी वीतरागता या शान्ततामे किसी भी कारणमे कोई बाधा उपस्थित हो सकती है। इसलिये किसी क्षुद्र या नीचे दजेके मनुष्यके पूजन कर लेनेसे परमात्माकी आत्मामे कुछ मलिनता आ जायगी, उसकी प्रतिमा अपूज्य हो जायगी अथवा पूजन करनेवालेको कुछ पाप-बन्ध हो जायगा, इस प्रकारका कोई भय ज्ञानवान् जैनियोके हृदयमे उत्पन्न नही हो सकता । जैनियोंके यहा इस समय भी चादनपुर महावीरजी प्रादि अनेक स्थानोपर ऐसी प्रतिमाअोके प्रत्यक्ष दृष्टान्त मौजूद हैं, जो शूद्र या बहुत नीचे दर्जे के मनुष्योद्वारा भूगर्भसे निकाली गई,स्पर्शी गई, पूजी गई और पूजी जाती है, परन्तु इससे उनके स्वरूपमे कोई परिवर्तन नहीं हुआ, न उनकी पूज्यतामे कोई फर्क (भेद) पडा और न जैनसमाजको ही उमके कारण किसी अनिष्टका सामना करना पडा,प्रत्युत वे बरावर जैनियोमेही नही किन्तु अजैनियोंसे भी पूजी जाती हैं और उनके द्वारा सभी पूजकोका हितसाधन होनेके साथ साथ धर्मकी भी अच्छी प्रभावना होती है । अत जैनसिद्धान्तके अनुमार किसी भी मनुष्यके लिये नित्यपूजनका निषेध नहीं हो सकता । दस्सा, अपध्वसज या व्यभिचारजात सबको इस पूजनका पूर्ण अधिकार प्राप्त है । यह दूसरी बात है कि-अपने आन्तरिक