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युगवीर - निबन्धावली
पर इससे कुछ भी चोट नहीं लगी । इन्होंने आजतक मी उन सबोंके शुद्ध करने का अपने बिछुड़े हुए भाइयोंको फिरसे गले लगानेका — कोई उपाय नही किया । ऐसा कोई अपराध नही जिसका प्रायश्चित्त न हो सके । भगवज्जिनसेनाचार्य के निम्नलिखित वाक्यसे भी प्रगट हैं कि - 'यदि किसी मनुष्य के कुलमें किसी भी कारण से कभी कोई दूषण लग गया हो तो वह राजा या पंच प्रादिकी सम्मति से अपनी कुलशुद्धि कर सकता है। और यदि उसके पूर्वज - जिन्होंने दोष लगाया हो -- दीक्षायोग्य कुलमे उत्पन्न हुए हो तो उस कुलशुद्धि करनेवालेका और उसके पुत्र-पौत्रादिक सतानका यज्ञोपवीत संस्कार भी हो सकता है।' वह वाक्य इस प्रकार है कुतश्चित्कारणाद्यस्य कुल सम्प्राप्तदूषणम् । सोऽपि राजादिसम्मत्या शोधयेत्स्व यदा कुलम् ॥ तदास्योपनयात्वं पुत्रपौत्रादि सततौ ।
न निषिद्ध हि दीक्षा कुले वेदस्य पूर्वजा' ||
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- आदिपुराण, पत्र ४० इससे दस और हिन्दू से मुसलमान या ईसाई बने हुए मनुष्योकी शुद्धिका खासा अधिकार पाया जाता है। बल्कि शास्त्रोमें उन म्लेच्छोकी भी शुद्धिका विधान देखा जाता है जो मूलसे ही शुद्ध हैं । आदिपुराण में यह उपदेश स्पष्ट शब्दों में दिया गया है कि, 'प्रजाको बाधा पहुँचानेवाले अक्षर ( अनपढ ) म्लेच्छोंको कुलशुद्धि श्रादिके द्वारा अपने बना लेने चाहिएँ । यथा
स्वदेशेऽनक्षरम्लेच्छान्प्रजाबाधा विधायिन । कुजशुद्धिप्रदानाचं स्वसात्कुयदुिपक्रमै ।।
- श्रादिपुराण, पर्व ४२ परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी जैनियोंके संकीर्ण हृदयने महामात्र के इन उदार और दयामय उपदेशोंको ग्रहण नहीं किया । सच की है, सेरभरके पात्रमें मनमर कैसे समा सकता है ? अपात्र