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युगबीर-निबन्धावली को खिलाया; माता गलती है या सडती, जीती है या मरती, इसकी इन्होंने कुछ भी पर्वाह नही की । हजारो जैनग्रन्थोकी मिट्टी हो गई, हजारो शास्त्र चूहों और दीमकोके पेटमे चले गये, लाखो और करोडो मनुष्य मातृवियोग दु खसे पीडित रहे, परन्तु इन समस्त दृश्योंसे जैनियोके वज्रहृदय पर कुछ भी चोट नही लगी । माता पर इस प्रकारके अत्याचार करते हुए जैनियोका हृदय जरा भी कम्पायमान नही हुआ और इन्हे कुछ भी लज्जा या शर्म नही आई। इन्होने उलटी यहाँ तक निर्लज्जता धारण की कि अपने इन अत्याचारोका नाम विनय' रख छोडा । वास्तवमे इनका नाम विनय नहीं है, ये घोर अत्याचार है-और न ढाई हाथ दूरसे हाथ जोडने या चावलके दाने चढा देनेका नाम ही विनय है । जिनवारणीका विनय है-जैनशास्त्रोंका पढना-पढ़ाना, उनके मुताबिक उनकी शिक्षाप्रोके अनुसारचलना और उनका सर्वत्र प्रचार करना। इस वास्तविक विनयसे जैनी प्राय कोसो दूर रहे और इसलिए इन्होने माताका घोर अविनय ही नहीं किया, बल्कि कितने ही जैनशास्त्रोका लोप भी किया है। उसीका फल है जो आज बहुतसे शास्त्र नहीं मिलते। इनकी इस विलक्षण विनयवृत्तिको देखकर ही एक दुखित हृदय कविने कहा है -
बस्ते बॅधे पडे हैं अलूमोफनूनके ।
चावल चढ़ावे उनको बस इतने है कामके ।। इसीप्रकार जैनियोने स्त्रीसमाज पर जो अत्याचार किया है वह भी कुछ कम नहीं है । इन्होने लडकियोको बेचा, धनके लालचसे अपनी सुकुमार बालिकाओको यमके यजमानोके गले बाध उन्हे हमेशाके लिये पापमय जीवन व्यतीत करनेको मजबूर किया, अनमेल सम्बन्ध करके स्त्रियोका जीवन दुखमय बनाया और उन्हे अनेक प्रकारका दुःख और कष्ट पहुँचाया,पर इन सब अत्याचारोको रहने दीजिए।
..x विद्यायो-विज्ञानो तथा कला-कौशलके ।