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सुगबीर-निबन्धावली यदि मामूली विद्या पढी भी-कुछ अक्षरोका अभ्यास किया भी--सो इसका नाम शिक्षा नहीं है । जैन बालकोको जैसी चाहिएँ वैसी विद्याएँ नहीं पढ़ाई गई। यदि उन्हे बराबर विद्याएँ पढ़ाई जाती तो आज उन हजारो विद्यायोका लोप न होता, जिनका उल्लेख जनशास्त्रोमे मिलता है। दिव्य विमानोकी रचनाको जाने दीजिये, प्राज कोई जैनी उस मयूरयत्रके बनानेकी विधि भी नहीं जानता, जिसको जीव धरके पिता सत्यधरने बनाया था और उसमे अपनी गर्भवती स्त्रीको बिठलाकर, गर्भस्थ पुत्रको रक्षाके लिए, उसे दूर देशान्तरमे पहुँचाया था । इसी प्रकार सैकडो विद्याप्रोका नामोल्लेख किया जा सकता है। जैनियोने शिक्षा और खासकर स्त्री-शिक्षासे द्वेष रखकर इन समस्त विद्याप्रोके लोप करनेका पाप अपने सिर लिया है और इसलिए जैनी समस्त जगतके अपराधी है।
जैनियोका एक भारी अत्याचार और भी है और वह अपनी सतानकी छोटी उम्रमे शादी करना है। इसके विषयमे मुझे कुछ विशेष लिखनेकी जरूरत नहीं है । हाँ, इतना जरूर कहूँगा कि इस राक्षसी कृत्यके द्वारा आजतक लाखो ही नहीं किन्तु करोडो दुधमुंही बालिकाएं विधवा हो चुकी है--वैधव्यकी भयकर चमे भुन चुकी हैं--, हजारोने अपने शीलश गारको उतार दिया, व्यभिचारका आश्रय लिया दोनो कुलोको क्लक्ति किया और भ्रणहत्याये तक कर डाली। इसके सिवाय, बाल्यावस्थामे स्त्री-पुरुषका ससर्ग हो जानेसे जो शारीरिक और मानसिक निर्बलताएँ इनकी सतानको उत्तरोत्तर प्राप्त हुई उनका कुछ भी पारावार और हिसाब नही है। निर्बल मनुष्यका जीवन बडाही वबाले-जान और सकटमय होता है। रोगोका उसपर अाक्रमण हो जाना तो एक मामूलीसी बात है। जैनियोंके इस अत्याचारसे उनकी सतान बड़ी ही पीडित रही। उससे हिम्मत, साहस धैर्य, पुरुषार्थ और वीरता आदि सद्गुणोकी सृष्टि ही एकदम उठ खडी हुई । जेनी निर्बल होकर तन्दुल मच्छकी तरह