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युगवीर-निबन्धावली जंजीरोंमें बांधकर,प्रलम्बित किया था। जिस समय भरतजी इन द्वारोमसे होकर बाहर निकलते थे या इनमें प्रवेश करते थे उस समय वे तुरन्त अर्हन्तोका स्मरण करके, इन घटोमे स्थित अर्हत्पतिमाओंकी वन्दना और उनका पूजन करते थे। नगरके लोगों तथा अन्य प्रजाजनोने भरतजीके इस कृत्यको बहुत पसद किया, वे सब उन घटोका आदर-सत्कार करने लगे और उसके पश्चात् पुरजनोने भी अपनी अपनी शक्ति और विभवके अनुसार उसी प्रकारके घटे अपने अपने घरोके तोरणद्वारोपर लटकाये *। भरतजीका यह उदारचरित बडा ही चित्तको आकर्षित करनेवाला है और इस (प्रकृत) विषयकी बहुत कुछ शिक्षा प्रदान करनेवाला है। उनके अन्य उदार और चरितोका बहुत कुछ परिचय आदिपुराणके देखनेसे मिल सकता है। इसीप्रकार और भी सैंकडो और हजारो महात्मानोका नामोल्लेख
* उपयुक्त प्राशयको प्रगट करने वाले प्रादिपुराण (प- ४१) के वे पार्षवाक्य इस प्रकार है - निर्मापितास्ततो घटा जिनबिम्बैरलकृता । परायरत्ननिर्माणा सम्बद्धा हेमरज्जुभि ।।८७ ॥ लम्बिताश्च बहिरि ताश्चतुर्विशतिप्रमा । राजवेश्म-महाद्वार-गोपुरध्वप्यनुक्रमात् ।। ८८।। यदा किल विनियति प्रविशत्यप्यय प्रभु । तदा मौलापलग्नाभिरस्य स्यादर्हता स्मृति ॥८॥ स्मृत्वा ततोऽहंदर्चानां भक्त्या कृत्वाऽभिवन्दनाम् । पूजयत्यभिनिष्कामन् प्रविशश्च स पुण्यधी ॥१०॥ रत्नतोरणविन्यासे स्थापितास्ता निधोशिना । दृष्ट्वाऽहंद्वन्दनाहेतोर्लोकोऽप्यासीत्कृतादर ॥ ३ ॥ पौरनैरत स्वेषु वेश्म-खोरण-दामसु । यथाविभवमाबद्धा घंटास्ताः सपरिच्छदा ॥ १४ ॥