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जिन-पूजाधिकार-मीमासा १०३ के पूजन और दानमें अन्तराय (विघ्न)करनेसे जन्मजन्मान्तरमें क्षय, कुष्ट, शूल, रक्तविकार, भगदर, जलोदर, नेत्रपीडा शिरोवेदना आदिक रोग तथा शीत-उष्णके माताप और (कुयोनियोमें) परिभ्रमरण आदि अनेक दु खोकी प्राप्ति होती है -
खयकुटसूलमूलो लोयभगदरजलोदरक्खिसिरो।
सीदुण्डवह्मराह पूजादाणंतरायकम्मफल ।। ३३ ।। इसलिये पापोसे डरना चाहिये और किसीको दडादिक देकर पूजनसे वचित करना तो दूर रहा, भूल कर भी ऐसा कार्य नही करना चाहिये जिससे दूसरोके पूजनादिक धर्मकार्योंमे किसी प्रकारसे कोई बाधा उपस्थित हो। बल्कि
उपसंहार
उचित तो यह है कि, दूसरोको हरतरहसे धर्मसाधनका अवसर दिया जाय और दूसरोकी हितकामनासे ऐसे अनेक साधन तैयार किये जॉय जिनसे सभी मनुष्य जिनेन्द्रदेवके शरणागत हो सके और जैनधर्ममे श्रद्धा तथा भक्ति रखते हुए खुशीसे जिनेन्द्रदेवका नित्यपूजनादि करके अपनी पा-माका कल्याण कर सके। __ इसके लिये जैनियोको अपने हृदयकी सकीर्णता दूरकर उसको बहुत कुछ उदार बनानेकी जरूरत है। अपने पूर्वजोके उदार-चरितोंको पढकर, जैनियोको उनसे तद्विषयक शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये और उनके अनुकरणद्वारा अपना और जगतके अन्य जीवोका हितसाधन करना चाहिए। ___ भगवजिनसेनाचार्यप्रणीत आदिपुराणको देखनेसे मालूम होता है कि आदीश्वर भगवानके सुपुत्र भरत महाराज प्रथम चक्रवर्तीने अपनी राजधानी अयोध्यामे रत्नखचित जिनबिम्बोंसे अलकृत चौबीस चौबीस घटे तय्यार कराकर उनको, नगरके बाहरी दरवाजो और राजमहलोंके तोरणद्वारो तथा अन्य महाद्वारोपर, सोनेकी