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युगवीर - निबन्धावली
और धक्का दिया जावे । बिरादरी या जातिका यह कर्तव्य नही है कि वह किसीसे धर्मके कार्य छुड़ाकर उसको पाप-कार्योंके करनेका अवसर देवे ।
इसके सिवा जो धर्माधिकार किसीको स्वाभाविक रीतिसे प्राप्त है उसके छीन लेनेका किसी बिरादरी या पचायतको अधिकार ही क्या है ? बिरादरीके किसी भाईसे यदि बिरादरी के किसी नियमका उल्लघन हो जावे या कोई अपराध बन जावे तो उसके लिये बिरादरीका केवल इतना ही कर्तव्य हो सकता है कि वह उस भाई पर कुछ प्रार्थिक दड कर देवे या उसको अपने अपराधका प्रायश्चित्त लेनेके लिये बाधित करे और जब तक वह अपने अपराधका योग्य प्रायश्चित्त न ले ले तब तक बिरादरी उसको बिरादरीके कामोमे अर्थात् विवाह-शादी आदिक लौकिक कार्योंमे शामिल न करे और न बिरादरी उसके यहाँ ऐसे कार्योंमे सम्मिलित हो। इसी प्रकार वह उससे खाने पीने लेने देने और रिश्तेनातेका सम्बन्ध भी छोड सकती है । परन्तु इससे अधिक, धर्ममे हस्तक्षेप करना बिरादरी के अधिकारसे बाह्य है और किसी बिरादरीके द्वारा ऐसा किये जानेका फलितार्थ यही हो सकता है कि वह बिरादरो, एक प्रकारसे, अपने पूज्य धर्मगुरुप्रोकी अवज्ञा - प्रवहेलना करती है ।
जिन लोगो ( जैनियो ) के हृदयमे ऐसे दविधानका विकल्प उत्पन्न हो उनको यह भी समझना चाहिये कि किसीके धर्मसाधन मे विघ्न करना बडा भारी पाप है। अजनासुन्दरीने अपने पूर्वजन्ममे थोडेही कालके लिये, जिनप्रतिमाको छिपाकर, अपनी सौतनके दर्शनपूजनमे अतराय डाला था । उसका परिणाम यहाँ तक कटुक हुआ कि उसको अपने इस जन्ममे २२ वर्षतक पतिका दुसह वियोग सहना पडा और अनेक सकट तथा श्रापदाप्रोका सामना करना पडा, जिनका पूर्ण विवरण श्रीपद्मपुराणके देखनेसे मालूम हो सकता है ।
रयणसार ग्रन्थमें श्रीकुन्दकुन्द मुनिराजने लिखा है कि-दूसरों