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जिन-पूजाधिकार-मीमासा संबंध होनेसे कोई जातिच्युत नही किया जाता । हमारी भारतवर्षीय दिगम्बरजैनमहासभाके सभापति, जैनकुलभूषण श्रीमान् सेठ माणकचंदजी जे.पी बम्बईके भाई पानाचदजीका विवाह भी एक दस्सेकी कन्यासे हुआ था, परन्तु इससे उनपर कोई कलक नही पाया और कलक पानेकी कोई बात भी न थी। प्राचीन और समीचीन प्रवृत्ति भी, शास्त्रोमे, ऐसी ही देखी जाती है, जिससे ऐसे विवाह सम्बन्धो पर कोई दोषारोपण नही हो सकता। अधिक दूर जानेकी. जरूरत नहीं है । श्रीनेमिनाथजी तीर्थकरके चचा वसुदेवजीको ही लीजिये। उन्होंने एक व्यभिचारजातकी पुत्रीसे, जिसका नाम प्रियगुमुन्दरी था, विवाह किया था। प्रियगुसुन्दरीके पिताका अर्थात् उस व्यभिचारजातका नाम एणीपुत्र था । वह एक तापसीकी कन्या ऋषिदत्तासे, जिससे श्रावस्ती नगरीके राजा शीलायुधने व्यभिचार किया था और उस व्यभिचारसे उक्त कन्याको गर्भ रह गया था, उत्पन्न हया था। यह कथा श्रीजिनसेनाचार्यकृत हरिवशपुराणमे लिखी है । इस विवाहसे वसुदेवजी पर, जो बडे भारी जैनधर्मी थे, कोई कलक नहीं आया । न कही पर वे पूजनाधिकारसे वचित रक्खे गये। बल्कि उन्होने श्रीनेमिनाथजीके समवसरणमे जाकर साक्षात् श्रीजिनेद्रदेवका पूजन किया है और उनकी उक्त 'प्रियगुसुन्दरी' राणीने जिनदीक्षा धारणxकी है। इससे प्रगट है कि व्यभिचारजातका ही नाम दस्सा नहीं है और न कोई व्यभिचारजात (अपध्वसज) पूजनाऽधिकारसे वचित है। 'शदाणा तु सधर्माण सर्वेऽपध्वंसजा. स्मृता "-समस्त अपध्वसज (व्यभिचारसे उत्पन्न हुए मनुष्य) शूद्रोंके समानधर्मी हैं-यह वाक्य यद्यपि मनुस्मृतिका है, परन्तु यदि इस वाक्यको सत्य भी मान लिया जाय और अपध्वसजोको ही दस्से समझ लिया जाय, तो भी वे पूजनाधिकारसे वचित नहीं हो सकते।
x व्यभिचारजात भी दस्सा होता है ऐसा कह सकते हैं ।