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युगवीर-निबन्धावली है। चारों ही वर्णके सभी मनुष्योको पूजनका अधिकार प्राप्त होनेसे उनको भी वह अधिकार प्राप्त है । वैश्य जातिके दस्सोंका वर्ण वैश्य ही होताहै। वे वैश्य होनेके कारण शूद्रोंसे ऊँचा दर्जा रखते हैं और शद्र लोग मनुष्य होनेके कारण तियंचोसे ऊँचा दर्जा रखते हैं। जब शूद्र तो शूद्र, तिथंच भी पूजनके अधिकारी वर्णन किये गये हैं और तियंच भी कैसे ? मेढक जैसे तब वैश्यजातिके दस्से पूजनके अधिकारी कैसे नहीं ? क्या वे जैनगृहस्थ या श्रावक नहीं होते ? अथवा श्रावकके बारह व्रतोको धारण नहीं कर सकते ? जब दस्से लोग यह सब कुछ होते है और यह सब कुछ अधिकार उनको प्राप्त है, तब वे पूजन के अधिकारसे कैसे वचित रक्खे जा सकते हैं ? पूजन करना गृहस्थ जैनियोका परमावश्यक कर्म है। उसके साथ अग्रवाल, खंडेलवाल या परवार आदि जातियोका कोई बन्धन नही है-सबके लिये समान उपदेश है-जैसा कि ऊपर उल्लेख किये हुये आचार्योंके वाक्यो से प्रगट है। परमोपकारी आचार्योंने तो ऐसे मनुष्योको भी पूजनाधिकारसे वचित नहीं रक्खा जो आकठ पापमे मग्न हैं और पापीसे पापी कहलाते हैं । फिर वैश्य जातिके दस्सोंकी तो बात ही क्या हो सकती है ? श्रीकुन्दकुन्द मुनिराजका तो वचन ही यह है कि विना पूजनके कोई श्रावक हो ही नहीं मक्ता । दस्से लोग श्रावक होते ही हैं, इससे उनको पूजनका अधिकार स्वत. सिद्ध है और वे बराबर पूजनके अधिकारी है।
शोलापुरमे दस्से जैनियोके बनाये हुए तीन शिखरबन्द मदिर और अनेक चैत्यालय मौजूदहै । ग्वालियरमे भी दस्सोका एक मदिर है, सिवनीकी तरफ दस्से भाइयोके बहुतसे जैनमदिरहें । श्रीसम्मेदशिखर शत्रु जय, मागीतु गी और कुन्थलगिरि तीर्थों पर शोलापुर वाले
* वैश्य जातिक दस्साको छोटीसरण (श्रेणि) या 'छोटीसेन' के बनिये अथवा 'विनैकया' भी कहते है ।