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जिन-पूजाधिकार-मीमासा संयमी (अणुवती हो), जिनागमस्य वेत्ता (जिनसंहिता आदि जैनशास्त्रोंका जाननेवाला हो), अनालस्य. (पालस्य वा तन्द्रारहित हो), वाग्मी (चतुर हो), विनयान्वितः (मानकवायके अभावरूप विनयसहित हो ), शौचाचमनसोत्साह (शौच और चिमन करनेमें उत्साहवान हो), सांगोपांगयुत (ठीक अंगोपागका धारक हो) शुद्ध (पवित्र हो), लक्ष्यलक्षणविसुधीः (लक्ष्य और लक्षणका जाननेवाला बुद्धिमान् हो), स्वदारी ब्रह्मचारी वा। स्वदारसतोषी हो या अपनी स्त्रीका भी त्यागी हो अर्थात् ब्रह्मचर्याणुव्रतके जो दो भेद हैं उनमेंसे किसी भेदका धारक हो।, नीरोग ( रोग रहित हो.), सक्रिया. रत ( नीची क्रियाके प्रतिकूल उची और श्रेष्ठ क्रिया करनेवाला हो), पारिमंत्रव्रतस्नात ( जलस्नान, मत्रस्नान और व्रतस्नामसे पवित्र हो ), निरभिमानी (अमिमानरहित ही), न होनांगः ( अगहीन न हो) नाऽधिकांग (अधिक अगका धारक न हो), न प्रलम्ब. ( लम्बे कदका न हो), न वामनः (छोटे कदका न हो), न कुरूपी । बदसूरत न हो), न मुढात्मा ( मूर्ख न हो ), न वृद्ध (बूढा न हो), नाऽतिबालक (अति बालक न हो), न क्रोधादिकषायाच्य (क्रोध, मान, माया, लोभ, इन कषायोमेसे किसी कषायका धारक न हो), न च व्य मनो ( और पापाचारी न हो),"-इत्यादि विशेषणपद पाये है, उनसे प्रगट है कि उपयुक्त जिनसंहितामे जो विशेषण पूजकके दिये हैं वे सब यहाँपर साफ तौरसे पूजकाचार्य के वर्णन किये हैं । बल्कि श्लो० न० १५१ तो जिनमहिमाके श्लोक न ४ से प्राय यहाँतक मिलता जुलता है कि एकको दूसरेका रूपान्तर कहना चाहिये । इसीप्रकार निम्नलिखित तीन श्लोकोंमे जो ऐसे पूजकके द्वारा कियेहुए पूजनका फल वर्णन किया है वह भी जिनसहिताके श्लोक न० ६ और ८ से बिल्कुल मिलता जुलता है।
ईग्दोषभदाचार्यः प्रतिष्ठां कुरुतेऽत्र चेत् । तदा राष्ट्र पुरं राज्यं रामाविः प्रनय ब्रजेत् ।। १५३ ।।