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जिन-पूजाधिकार मीमासा
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है कि नित्यपूजनके लिये जनेऊ का होना जरूरी नही समझा जाता, क्योकि स्थान-स्थानपर नित्यपूजन करनेवाले तो बहुत हैं परंतु यज्ञोपवीत्तसस्कारसे संस्कृत (जनेऊधारक) बिरले ही जैनी देखनेने श्राते हैं। और उनमें भी बहुतसे ऐसे पाये जाते हैं जिन्होने नाममात्र कन्धेपर सूत्र ( तागा ) डाल लिया है, वैसे यज्ञोपवीत संबधी क्रियाकर्मसे वे कोसो दूर हैं । दक्षिरण देशको छोडकर अन्य देशों में तथा खासकर पश्चिमोत्तर प्रदेश अर्थात् युक्तप्रात और पजाबदेशमे तो यज्ञोपवीतसस्कारकी प्रथा ही, एक प्रकारसे, जैनियोंसे उठ गई है, परन्तु नित्यपूजन सर्वत्र बराबर होता है । इससे भी प्रगट है कि नित्यपूजनके लिये जनेऊ का होना प्रावश्यक कर्म नही है और इसलिये जनेऊ का न होना शूद्रोंको निस्यपूजन करनेमे किसी प्रकार भी बाधक नही हो सकता । उनको मित्यपूजन का पूरा पूरा अधिकार प्राप्त है ।
यह दूसरी बात है कि कोई अस्पृश्य शूद्र, अपनी अस्पृश्यताके कारण, किसी मदिरमे प्रवेश न कर सके और मूर्तिको न छू सके, परन्तु इससे उसका पूजनाधिकार खडित नही हो जाता । वह अपने घरपर त्रिकाल - देववन्दना कर सकता है, जो पूजनमे दाखिल है । तथा तीर्थस्थानो, अतिशयक्षेत्र और अन्य ऐसे पर्वतो पर - जहाँ खुले मे - दानमे जिनप्रतिमाएँ विराजमान है और जहाँ भील चाण्डाल तथा म्लेच्छ तक भी बिना रोकटोक जाते हैं--जाकर दर्शन और पूजन कर सकता है । इसी प्रकार वह बाहर से भी मंदिर के शिखरादिकमे स्थित प्रतिमाओ का दर्शन और पूजन कर सकता है । प्राचीन समय मे प्राय जो जिनमंदिर बनवाये जाते थे उनके शिखर या द्वार ग्रादिक अन्य किसी ऐसे उच्च स्थानपर, जहाँ सर्वसाधारणकी दृष्टि पड़ सके, कमसेकम एक जिनप्रतिमा जरूर विराजमान की जाती थी, ताकि ( जिससे ) वे जातियाँ भी. जो अस्पृश्य होनेके कारण, मदिरमे प्रवेश नही कर सकती, बाहरसे ही दर्शनादिक कर सके । यद्यपि आजकल ऐसे मंदिरो बनवानेकी वह प्रशंसनीय प्रथा जाती रही है-- जिसका