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जिन पूजाधिकार मीमांसा
विशिष्टता और है कि, पूजक शब्दसे ही पूजकाचार्यका कथन किया
। यद्यपि 'पूजक' शब्दसे पूजक ( नित्यपूजक ) और पूजकाचार्य ( प्रतिष्ठा दावधान करनेवाला पूजक) दोनोका ग्रहण होता हैजैसा कि ऊपर उल्लेख किये पूजासार ग्रन्थके, 'पूजक पूजकाचार्य:
इति द्वा स पूजक इस वाक्यसे प्रगट है - तथापि साधारण ज्ञान
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वाले मनुष्यो को इससे भ्रम होना सभव है। अतः यहाँपर यह बतला देना जरूरी है कि उक्त जिनसंहिता मे जो पूजकका स्वरूप वर्णन किया है वह वास्तव में पूनाचा आर्यका काही स्वरूप है । वह स्वरूप इस संहिता के तीसरे परिच्छेद में इसप्रकार दिया है अथ वक्ष्यामि भूपाल | शृणु पूजकल क्षणम् । लक्षित भगव व्यवच खिलगोचरे ॥ १ ॥ कोऽभिरूपाङ्ग सम्यग्दष्टिरव्रती ।
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चतुर. शौचान्विद्वान् योग्य स्याज्जिनपूजने ॥ २ ॥ न स्थान पापाचार पण्डित. ।
न निकृष्ट किया वृनितिक परिदूषित ॥ ३ ॥ नाडा को नहानाङ्गा नातिदीर्घो न वामनः ।
ग्वा न तन्द्रालुनऽतिवृद्धो न बालक ॥४॥ नवो न दुष्टात्मा नाडातमानो न मायिक | नाचन विरुङ्गा नाऽजानन् जिनमहिताम् ||५|| निषिद्ध पुरुषा व यद्यर्चेत् त्रिजगत्प्रभुम् । राजराष्ट्रानाश स्यात्कट कारक योग ||६|| तस्माद्यरतन गुडोबात्जक त्रि
। उक्तलक्षणमे वाऽऽर्थः कदाचिदपि नाररम् ॥७॥ यदीन्द्रवृन्दाऽतिपादपंकज जिनेश्वर पोखगुगाः ममर्थयेत् । नाश्च राष्ट्र व सुखास्पन भवेत् तथैव वर्त्ता च जनश्व कारकः || भावाय इसका यह है कि 'हे राजन् | मैं अब श्री जनमगवानके वचनानुसार पूजकका लक्षण कहता हूँ, उसको तुम सुनो