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युगवीर-निबन्धावली
साधन अवश्य चाहिये। दूसरे ऊंचे दर्जेके प्राचरणसे किंचित् भी स्खलित होनेसे स्वत. ही नीचे दर्जेका श्राचरण हो जाता है । ससारी जीवोंकी प्रवृत्ति और उनके संस्कार ही प्राय उनको नीचेवी ओर ले जाते हैं, उसके लिये नियमित रूपसे किसी विशेष उपदेशकी जरूरत नहीं। तीमरे, ऊँचे दर्जेको छोडकर अक्रमरूपसे नीचे दर्जे का ही उपदेश देनेवालेको जैनशासनमे दुर्बुद्धि और दडनीय कहा है, जैसा कि श्री अमृतचद्र आचार्य के निम्न लिखित वाक्योंसे ध्वनित है.
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यो मुनिर्मम कथयन्नुपदिशति गृहस्थ वर्ममल्पमति । तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शित निग्रहस्थानम् ॥ १८ ॥ श्रक्रमकथनेन यत्त प्रोत्महमान' ऽतिदूरमपि शिष्य | पदेऽपि तृप्त प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ॥ १६ ॥ - पुरुषार्थी द्धयुपाय यह शासन-दड भी सक्षेप और सामान्य लिखनेवालोको उत्कृष्टकी अपेक्षासे कथन करनेमे कुछ कम प्रेरक नही है । इन्हीं समस्त कारणोंसे आचरण-सबघी कथनशैलीका प्राय उत्कृष्टाऽपेक्षासे होना पाया जाता है। किसी किसी ग्रन्थमे तो यह उत्कृष्टता यहाँतक बढी हुई है कि साधारण पूजकका स्वरूप वर्णन करना तो दूर रहा, उ दर्जे के नित्यपूजकका भी स्वरूप वर्णन नही किया है, बल्कि पूजकाचार्यका ही स्वरूप लिखा है । जैसा कि बसुनन्दिश्रावकाचार मे नित्यपूजकका स्वरूप न लिखकर पूजकाचार्य ( प्रतष्ठाचार्य ) का ही स्वरूप लिखा है । इसीप्रक र एकमभिट्टारकत जिनमहिनामें पूजकाचार्य का ही स्वरूप वर्शन दिया है । परन्तु इस सहितामे इतनी
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भी यही नतीजा निकलता है कि, जघन्य चारित्रका धारक भी कोई तबही कहलाया जा सकता है जब ऊ चे दर्जे काचरणका अनुरागी हो और शक्ति प्रादिकी न्यूनतासे, उर को धारण न कर सक्ता हो ।
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