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जिन-पूजाधिकार-मीमांसा लिये पूजनकी खास जरूरत वर्णन की है और उसपर जोर दिया है, परन्तु पूजन और पूजकके भेदोका कुछ वर्णन नहीं किया। वसुनन्दिाचार्यने पसुनन्तिश्रावकाचार में, भगवजिनसेनाचार्यने पादिपुराणमें इसका कुछ कुछ विशेष वर्णन किया है। इसीप्रकार सागारधर्मामृत, धर्ममग्रहश्रावकाचार और पूजामार वगैरह ग्रन्थोमें भी इसका कुछ कुछ विशेष वर्णन पाया जाता है, परन्तु पूरा कथन किसी भी एक ग्रन्थमें नही मिलता । कोई बात किसीमें अधिक है और कोई किसीमें। इसीप्रकार म्यारह प्रतिमानोंके कथनको लीजिये, बहुतसे ग्रन्थोमें इनका कुछ वर्णन नही किया. केवल नाम मात्र कथन कर दिया या प्रतिमाका भेद न कहकर सामा य रूपसे श्रावकके १२व्रतोका वर्णन कर दिया है। रत्नकरडश्रावकाचारमें इनका बहुत मामान्यरूपसे कथन किया गया है । वसुनन्दिश्रावकाचारमें उससे कछ अधिक वर्णन किया गया है। परन्तु मागचर्मामृतमें अपेक्षाकृत प्राय अच्छा खुलासा मिलता है। ऐसी ही अवस्था अन्य और मी विषयोकी समझ लेनी चाहिए। ____ अब यहाँपर यह प्रश्न उठ सकता है कि, ग्रन्थकार जिस विषयको गौरण करके उसका सामान्य कथन करता हे वह उसका उ कृष्टकी अपेक्षासे क्यों कथन करता है, जघन्यकी अपेक्षासे क्यो नही करता? इसका उत्तर यह है कि, प्रथम तो उत्कृष्ट आचरणकी प्रधानता है। जबतक उत्कृष्ट दर्जेके आचरणमे अनुराग नहीं होता तबतक नीचे दर्जेके आचरणको आचरण ही नही कहते हैं, इससे उसके लिये
* सागारधर्मामृतके प्रथम श्लोकको टोकामे लिखा है,-"यतिधर्मानुरागरहितानामागारिणा देशविरतेरप्यसम्यकरूपत्वात् । सर्व विरतिलालस. खलु देशविरतिपरिणाम.।" अर्थात् यतिधर्म मे अनुराम रहितग्रहस्थियोका 'देशव्रत' भी मिथ्या है। सकलविरतिमे जिसकी लालसा है वही देविरतिके परिणामका धारक हो सकता है। इससे