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जैनियोंमें दयाका अभाव
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दयाकी विशेष प्रीतिसे लोगोंके हृदय हिंसाके दुष्कर्मोंसे दुखने लगे श्रीर उन्होंने प्रावेशयश स्पष्ट कह दिया कि, जिस बेदमें हिंसाकी प्राज्ञा है वह वेद हमको मान्य नही, जो देव हिंसासे प्रसन्न होते हैं उनकी हमको प्रावश्यकता नही, घोर जिन क्र्न्थोमे हिसाका विधान हो, वे हमसे दूर रहें । दया और श्रहिसाकी ऐसी ही प्रशसनीय प्रीतिने traर्मको उत्पन्न किया है, स्थिर रक्खा है और इसीसे वह चिरकाल तक स्थिर रहेगा । इस अहिसाधर्मकी छाप जब ब्राह्मणधर्मपर पडी और हिन्दुप्रोको अहिसा पालनकी आवश्यकता हुई तब यज्ञमे पिष्टपशुका (टेके पशुका) विधान किया गया ।"
श्रीयुत प० मरगीलाल नभ्रू भाई द्विवेदी बी ए ने 'सिद्धान्तसार' नामक पुस्तकमे लिखा है
" आश्चर्य की बात है कि आज जो गौ बहुत पवित्र गिनी जाती है, उसका प्राचीन समय मे यज्ञके लिये मारनेका रिवाज था | ब्राह्मणोंके धर्मको, वेदमार्गको और यज्ञकी हिसाको खरा धक्का इसी (जैन) धमने लगाया है, बुद्धके धर्मको ग्रहिसाका आग्रह नही था । उसने केवल वेदमार्गको ही अस्वीकृत किया था । परन्तु जैन धर्मने महा दयारूप - प्रेमरूप धर्मका प्रचार किया ।"
इसी प्रकार विलसन कालेज भडकमकर महोदय ने अपने एक कुछ कहा है उसका सार यह है
"यह स्पष्ट है कि वैदिक कालमे यज्ञ-यागादिक काय बड़ी क्र रता से होते थे और यज्ञमे पशुप्रोका हवन किया जाता था, और यह भी पता लगता है कि उस समय इन क्र र कर्मोकी प्रोरसे लोगोको विरक्त करनेका भी उद्योग होता था। जिसका फल यह हुआ कि जीवके प्रतिनिधि स्वरूप दूसरे पदार्थ हवन करके यज्ञ - क्रिया सम्पादन
* जनमित्र वर्ष ६ क ३ से उद्धृत ।
बम्बईके संस्कृत प्रोफेसर श्रीयुत व्याख्यानमे जैनधर्मके विषयमे जो