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युगवीर-निबन्धावली परन्तु संक्षेपसे पूजनके नित्य और मैमित्तिक, ऐसे दो भेद हैं। अन्य समस्त भेदोंका इन्हीमें अन्तर्भाव है । 'अष्टान्हिक' आदिक चार प्रकारका पूजन नैमित्तिक पूजन कहलाता है और नामादिक छह प्रकारके पूजनोंमें कुछ नित्य कुछ नैमित्तिक और कुछ दोनो प्रकारके होते हैं। प्रतिष्ठा भी नैमित्तिक पूजनका ही एक प्रधान भेद है । तथापि नैमित्तिक पूजनोमे बहुतसे ऐसे भी भेद हैं जिनमें पूजनकी विधि प्राय नित्य पूजनके ही समान होती है और दोनोंके पूजकमे भी कोई भेद नही होता, जैसे अष्टान्हिक पूजन और काल पूजनादिक । इसलिये पूजनकी विधि आदिकी मुख्यतासे नित्यपूजन और प्रतिष्ठादिविधान, ऐसे भी दो भेद कहे जाते हैं और इन्ही भेदोकी प्रधानतासे पूजकके भी दो ही भेद वर्णन किये गये हैं-एक नित्य पूजन करनेवाला जिसको पूजक कहते हैं और दूसरा प्रतिष्ठा आदि विधान करनेवाला जिसको पूजकाचार्य कहते हैं । जैसा कि पूजासार और धर्मसग्रहश्रावकाचारके निम्नलिखित श्लोकोसे प्रगट है -
पूजक पूजकाचार्य इति द्वेधा स पूजक. ।। श्राद्यो नित्यार्चकोऽन्यस्तु प्रतिष्ठादिविधायकः ।। १६।।
- पूजासार
नित्यपूजा-विधायी य पूजक स हि कथ्यते । द्वितीय पूजकाचार्य प्रतिष्ठादिविधानकृत् ॥६-१४२।।
-धर्म म ग्रहश्रावकाचार चतुर्मुखादिक पूजन तथा प्रतिष्ठादि विधान सदा काल नहीं बन सकते और न सब गृहस्थ जैनियोंसे इनका अनुष्ठान हो सकता की जाती है, उसको तथा शक्तिपूर्वक पचपरमेष्ठिके जाप वा स्तवनको और पिडस्थ, पवस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यामको भावपूजन कहते हैं । ( पिंडस्थादिक ध्यानोका स्वरूप ज्ञानार्णवादिक ग्रन्थोमे विस्तारके साथ वर्णन किया है, कहाँसे जानना चाहिये ।)