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इध
करने को भी नित्यपूजन कहते हैं। यथा
युगवीर-निबन्धावली
प्रोका नित्य महोऽन्वहं निजगृहान्नीतेन गन्धादिना । पूजा चैत्यगृहेऽर्हत' स्वविभव श्वत्यादिनिमोपणम् ॥ भक्त्या प्रामगृहादिशासनविधादान त्रिर्मध्याश्रया । सेवा स्वैपि गृहेऽर्चन च यमिना नित्यप्रदानानुगम् ॥। २-२५
धर्मसंग्रहश्रावकाचार मे भी 'त्रिसंध्यं देववनम्' इस पदके द्वारा वे अधिकारके श्लोक न २६ में, त्रिकाल देवव दनाको नियपूजन वर्णन किया है । और त्रिकाल देववन्दना ही क्या, 'बलि, अभिषेक (न्हवन) गीत, नृत्य वादित्र भारती और रथयात्रादिक जो कुछ भी नि य और नैमत्तिकपूजनके विशेष हैं और जिनको भक्त पुरुष सम्पादन करते हैं, उन सबका नि याद पच प्रकारके पूजनमे अन्तर्भाव निर्दिष्ट होनेसे, उनमेंसे जो नि य किये जाते है या निय किये जानेको है, वे भी नि यपूजन मे समाविष्ट हैं। जैसा कि निम्नलिखित प्रमाणोसे प्रगट है
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बलिस्नपन्ना याद नित्य नैमित्तिक च यत् । भक्ता कुर्वन्ति तेष्वेव तद्यथास्व विकल्पयेत् ॥
- सागारधर्मा० २ -२०
बलिस्नपनमित्यन्यस्त्रिमध्या सेवया ममम् । उक्त वेव विकल्पेषु ज्ञेयमन्यच तादृशम् || - श्रादिपुराण ३८-३३
ऊपर के इस वथनसे यह भी स्पष्टरूपसे प्रभा एत होता है कि अपने पूज्य के प्रति आदर-सत्काररूप प्रवर्त्तनका नाम ही पूजन है । पूजा भक्ति, उपासना और सेवा इत्यादि शब्द भी प्रायः एकाथवाची है और उसी एक प्राशय और भावके द्योतक है। इसप्रकार पूजनका
श्लोक न. ३३ मे त्रिकाल - देववन्दनाका वर्णन 'त्रिसघ्यावया समम्' इस पद के द्वारा किया है ।