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जिन-पूजाधिकार-मीमांसा पंच पापोंके त्यागरूप पंच अणुव्रत, इसप्रकार श्रावकके बारह व्रतोंका पूर्णतया पालन दूसरी (वत) प्र.तमामें ही होता है और वर्तमान जौनयोमे इस प्रतिमाके धारक दो चार त्यागियोको छोडकर शायद कोई बिरले ही निकले। इसके सिवाय जैनसिद्धान्तोंसे बडा भारी विरोध आता है। क्योंकि जनशास्त्रोमें मुख्यरूपसे श्रावक्के तीन भेद वणन किये हैं:
१ पाक्षिक, २ नैष्ठिक और ३ साधक । श्रावकधम जिसका पक्ष और प्रतिज्ञाका विषय है, श्रावकधर्मको जिसने स्वीकार कर रखा है और उसपर आचरण करना भी प्रारम कर दिया है, परन्तु उस धर्मका निर्वाह जिससे यथेष्ट नहीं होता, उस प्रारब्ध देशसयमीको 'पाक्षिक कहते हैं । जो निरतिचार आवकधर्मका निर्वाह करनेमें तत्पर है उसको नैष्ठिक' कहते हैं और जो प्रात्मध्यानमें तत्पर हुमा समाधिपूर्वक मरण साधन करता है उसको 'साधक' कहते हैं। नैष्ठिक श्रावकके दक्ष नक व्रतिक आदिक ११ भेद हैं जिनको १५ प्रतिमा भी कहते हैं दूसरी प्रतिमावाले प्रतिक श्रावकसे पहली प्रतिमावाला और पहिली प्रतिमावालेसे पाक्षिक श्रावक नीचे दर्जेपर होता है। दूसरे शब्दोमें यो कहिये कि पाक्षिभावक, मूल भेदोकी अपेक्षा, दर्शनिकसे एक और व्रतिकसे दो दर्जे नीचे होता है अथवा उसको सबसे घ.टया दर्जेका श्रावक कहते हैं। परन्तु शास्त्रोमें जातकके समान, दर्शानक हीकोनही, किन्तु पाक्षिकको भी पूजनका अधिकारी वर्णन किया है, जैसा कि धर्मसग्रहश्रावकाचार (अ०५) में निम्नलिखित श्लोको-द्वारा उनके स्वरूप-कथनसे प्रगट है:
सम्यम्हाष्ट मातिचारमूलाणुव्रतपालक । * "पाक्षिकादिभिदा रेषा श्रावकस्तत्र पाक्षिक । तबर्मगृह्यस्तनिष्ठो नैष्ठिकः साधक. स्वयुक।। २० ।।
-सागारपर्मामृत