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रित प्रजाधिकार-सीमासा प्रकार वर्मन किया है :
बामणादि चतुर्वर्य प्राध शीलवतान्धित । मत्यशोचहाचारो हिमायवनदूरगः ॥ १४३ ।। जात्या कुलेन पूनारमा शुचिर्वन्धु मुहम्जनः । गुरूपदिष्टमत्रप युक्तः स्यादेष पूजक ।। १४४ ।। अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चारों वरामसे किसी भी वर्णका धारक, जो दिग्विति, देशविरति, अनथदड वरति, सामायक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपारमाण और प्रातथिस.वभाग, इसप्रकार सप्तशील व्रतसे युक्त हा, सत्य पर शोचका दृढतापूर्वक (निरातचार ) आचरण करनवाला · सत्यवान्, शौचवान् श्रीर हढाचारी हो हिसा, भूठ, चोरी, कुशील और पारग्रह, इन पाँच अवतो ( पापो ) से रहित हो, जाति और कुलसे पवित्र हो, बन्धुमित्रादिकसे शुद्ध हो और गुरु उपदेशित मत्रसे युक्त हो या ऐसे मत्रसे जिसका सस्कार हुमा हो, वह उत्तम पूजक कहलाता है।।
इसीप्रकार पूनामार ग्रन्थमें भी पूजकके उपयुक्त दोनो भेदोंका कथन करके, निम्न लिखित दो श्लोकोमें नि-यपूजकका, उत्कृष्टापेक्षासे प्राय समस्त यही स्वरूप वर्णन किया है -
ब्राह्मण क्षत्रियो वैश्य शदो नाऽऽद्य. मुशालावान् । हडवता हाचार मत्य गौवनमन्दिन ।। १७ ।। कुले न जात्या सशुद्धा मित्रबन्ध्यादिभि शुचि.। गुरूादिष्टमबाढय प्राविधादिदग।। १८॥
ऊपरके इन दोनो ग्रन्थोके प्रमाणोसे भली भांति स्पष्ट है कि, भद्रोको भी श्रीजिनेंद्रदेवके पूजनका अधिकार प्राप्त है और वे भी निल्य-पूजक होते हैं। साथ ही इसके यह भी प्रगट है कि शूद्र लोग साधारण पूजक ही नहीं, बल्कि उचे दर्जे के नि यपूजक भी होते हैं।
..यहाँपर यह प्रश्न उठ सकता है कि, ऊपर जो पूजन का स्वरूप वर्णन किया गया है वह पूजक मात्रका स्वरूप न होकर, ऊचे दर्जक