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युगवीर-निबन्धावली जिनप्रतिमाके सन्मुख चढ़ाते हैं, वह सब नित्यपूजन कहलाता है। नित्यपूजनके लिये यह कोई नियम नहीं है कि वह अष्टद्रव्यसे ही किया जावे या कोई खास द्रव्यसे या किसी खास सख्या तक पूजाएँ की जावे, बल्कि यह सब अपनी श्रद्धा, शक्ति और रुचिपर निर्भर है कोई एक द्रव्यसे पूजन करता है, कोई दोसे और कोई आठोसे, कोई थोडा पूजन करता और थोडा समय लगाता है, कोई अधिक पूजन करता और अधिक समय लगाता है, एक समय जो एक द्रव्यसे पूजन करता है वा थोडा पूजन करता है दूसरे समय वही अष्टद्रव्यसे पजन करने लगता है और बहतसा समय लगाकर अधिक पजन करता है। इसीप्रकार यह भी कोई नियम नहीं है कि मदिरजीके उपकरणोमे और मदिरजीमें रक्खे हुए वस्त्रोको पहिनकर ही नित्य पूजन किया जावे। हम अपने घरसे शुद्ध वस्त्र पहिनकर और शुद्ध बर्तनोमे सामग्री बनाकर मदिरजीमे ला सकते हैं और खुशीके साथ पूजन कर सकते हैं। जो लोग ऐसा करनेके लिये असमर्थ हैं या कभी किसी कारणसे ऐसा नहीं कर सकते हैं. वे मदिरजीके उपकरण
आदिसे अपना काम निकाल सकते हैं इसीलिये मदिरोमे उनका प्रबंध रहता है। बहुतसे स्थानोपर श्रावकोंके घर विद्यमान होते हुए भी कमसे कम दो चार पूजाप्रोके यथासभव नित्य किये जानेके लिये, मदिरोंमें पूजन सामग्रीके रक्खे जानेकी जो प्रथा जारी है उसको भी आज कलके जैनियोके प्रमाद. शक्तिन्यूनता और उत्साहाभाव आदिके कारण एक प्रकारका जातीय प्रबध कह सकते है, अन्यथा, शास्त्रोमे इस प्रकारके पूजन सबधमे, आमतौरपर अपने घरसे सामग्री लेजाकर पूजन करनेका ही विधान पाया जाता है। जैसा कि ब्रह्मसूरिकृत् त्रिवर्णाचारके निम्नलिखित वाक्यसे भी प्रगट है -
ततश्चैत्यालयं गच्छेत्सर्वभव्यप्रपूजितम् । जिनादिपूजायोग्यानि द्रव्यारयादाय भक्तित.।।
-अ. ४-१६० ।