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युगवीर-निबन्धावली इसी भ्रमको दूर करने अर्थात् श्रीजिनेन्द्रदेवके पूजनका किस किसको अधिकार है, इस विषयकी मीमासा और विवेचना करनेके लिये यह निबन्ध लिखा जाता है। पूजन-सिद्धान्त
* जैनधर्मका यह सिद्धान्त है कि यह आत्मा जो अनादि कर्ममलसे मलिन हो रहा और विभावपरिणतिरूप परिणम रहा है, वही उन्नति करते करते कर्ममलको दूर करके परमात्मा बन जाता है। प्रात्मासे भिन्न और पृथक कोई एक ईश्वर या परमात्मा नहीं है। आत्माकी परमविशुद्ध अवस्थाका नाम ही परमात्मा है-अरहत जिनेन्द्र,जिनदेव, तीर्थकर, सिद्ध, सार्व, सर्वज्ञ, वीतराग, परमेष्ठि, परमज्योति, शुद्ध, बुद्ध, निरजन, निर्विकार, प्राप्त, ईश्वर परब्रह्म, इत्यादि उसी परमात्मा या परमात्मपदके नामान्तर हैं-या दूसरे शब्दोमे यो कहिये कि परमात्मा आत्मीय अनन्त गुणोका समुदाय है । उसके अनन्त गुणोकी अपेक्षा अनन्त नाम हैं। वह परमात्मा परम वीतरागी और शान्तस्वरूप है, उसको किसीसे राग या द्वेष नहीं है, किसीकी स्तति, भक्ति और पूजासे वह प्रसन्न नही होता और न किसीकी निन्दा, अवज्ञा या कटु शब्दोंसे अप्रसन्न होता है, धनिक श्रीमानो, विद्वानो और उच्च श्रेणी या वरणके मनुष्योको वह प्रेमकी दृष्टिसे नही देखता और न निधन-कगालो, मूखों तथा निम्नश्रेषीके मनुष्योको घृणाकी दृष्टिसे अवलोकन करता है, न सम्यग्दृष्टि उसके कुपापात्र हैं और न मिथ्यादृष्टि उसके कोपभाजन, बह परमानदमय और कुवकृत्य है सांसारिक झगडोंसे उसका कोई प्रयोजन नहीं । इसलिये जैनियोकी
मासनमा, भक्ति और पूजा हिन्दू मुसलमान और ईसाइयोकी तरह परमात्माको प्रसन्न करनेके लिये नही होती । उसका एक दूसरा ही उद्देश्य है जिसके कारण वे ऐसा करना अपना कर्तव्य समझते हैं और वह संक्षिप्तरूपसे इस प्रकार है :