________________
जिन-पूजाधिकार-मीमासा दौड़ती-भागती वस्तुप्रीका भी चित्र बड़ी सफ़ाईके साथ बातकी बातमें खीचकर रख देता है और चित्र-नायकको न देखकर, केवल व्यवस्था और हाल ही मालूम करके उसका साक्षात् जीता-जागता चित्र भी अंकित कर देता है। उसी प्रकारयह संसारी जीव भी एकदम परमात्मस्वरूपका ध्यान नहीं कर सकता अर्थात् परमात्माका फोटू अपने हृदयपर नही खीच सकता, वह परमात्माकी परम वीतराग
और शान्त मूर्तिपरसे ही अपने अभ्यासको बढ़ाता है। मूर्तिके निरन्तर दर्शनादि अभ्याससे जब उस मूर्तिकी वीतरागछवि और ध्यानमुद्रासे वह परिचित हो जाता है, तब शन. शनै एकान्तमें बैठकर उस मूर्तिका फोटू अपने हृदयमे खीचने लगता है और फिर कुछ देर तक उसको स्थिर रखनेके लिये भी समर्थ होने लगता है। ऐसा करने पर उसका मनोबल और प्रात्मबल बढ़ जाता है और वह फिर इस योग्य हो जाता है कि उस मूर्तिके मूर्तिमान् श्रीधरहतदेवका समवसरणादि विभूति-सहित साक्षात् चित्र अपने हृदयमे खीचने लगता है । इस प्रकारके ध्यानका नाम रूपस्थध्यान है और यह ध्यान प्राय. मुनि-अवस्थामे ही होता है।
आत्मीय बलके इतना उन्नत हो जानेकी अवस्थामें फिर उसको धातु-पाषाणकी मूर्तिके पूजनादिकी या दूसरे शब्दोमे यो कहिये कि परमात्माके ध्यानादिके लिये मूर्तिका अवलम्बन लेनेकी ज़रूरत बाकी नही रहती, बल्कि वह रूपस्थध्यानके अभ्यासमे परिपक्व होकर और अधिक उन्नति करता है और साक्षात् सिद्धोंका चित्र भी खीचने लगता है, जिसको रूपातीतध्यान कहते हैं। इस प्रकार ध्यानके बलसे वह अपनी आत्मासे कर्ममलको छाटता रहता है और फिर उन्नतिके सोपानपर चढता हुमा शुक्लण्यान लगाकर समस्त कर्मोको क्षय कर देता है और इस प्रकार प्रात्मत्वको प्राप्त कर लेता है । अभिप्राय इसका यह है कि मूर्तिपूजन आत्मदर्शनका प्रथम सोपान है और उसको आवश्यकता प्रथमावस्था (गृहस्था