________________
सुगबीर-निबन्धावली बस्था ) में ही होती है। बल्कि दूसरे शब्दोमे यो कहना चाहिये कि जितमा जितना कोई नीचे दर्जे में है, उतना उतना ही जियादा उसको मूर्ति पूजनकी या मूर्तिका अवलम्बन लेनेकी जरूरत है । यही कारण है कि हमारे प्राचार्योने गृहस्थोंके लिये इसकी खास जरूरत रक्खी है और नित्य पूजन करना गृहस्थोका मुख्य धर्म वर्णन किया है। सर्वमाधारणाऽधिकार भगवज्जिनसेनाचार्यने श्रीअादिपुराणमे लिखा है - दान पूजा च शील च दिने पर्वण्युपोषितम् ।
धर्मश्चतुर्विध सोऽयमाम्नातो गृहमेधिनाम् ।। ४१-१०४ अर्थात्-दान, पूजन, व्रतोका पालन (व्रतानुपालन शील ) और पर्वके दिन उपवास करना, यह चार प्रकारका गृहस्थोका धर्म है । ___ अमितगतिश्रावकाचारमे श्रीअमितगति प्राचार्यने भी ऐसा ही वर्णन किया है। यथा -
दान पूजा जिनै शीलमुपवामश्चतुर्विध ।।
श्रावकाणा मतो धर्म संसारारण्यपावक ।। ६-१ श्रीपद्मनन्दि आचार्य, पद्मनन्दिपचविंशतिकामे, श्रावकधर्मका वर्णन करते हुए लिखते हैं__देवपूजा गुरूपास्ति स्वाध्याय सयमस्तप ।
दानं चेति गृहस्थाना षट्कर्माणि दिने दिने । ६-७ अर्थात्-देवपूजा, गुरुसेवा, स्वाध्याय, सयम, तप और दान, ये षट् कर्म गृहस्थोको प्रतिदिन करने योग्य हैं । भावार्थ-धार्मिकदृष्टिसे गृहस्थों के ये सर्वसाधारण नित्यकर्म हैं।
श्रीसोमदेवसूरि भी यशस्तिलकमें वरिणत उपासकाध्ययनमे इन्ही षट् कर्मोका, प्राय इन्ही ( उपयुल्लिखित ) शब्दोमे गृहस्थोको उपदेश देते हैं -