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युगवीर-निबन्धावली पाहु-पक्षी भी धर्मोपदेश सुननेके लिए पाते थे। समवशरणकी बारह समानीमें पशु-पक्षियोंकी भी एक सभा थी, जिनको महावीर जिनेन्द्र धर्मका उपदेश देते थे। जैनियोकी वर्तमान ८४ खापे इस बातको प्रगट कर रही हैं कि जैन महर्षि कैसे दयाल नि सीम परोपकारी और धर्मप्रचारक पे कि, जिन्होने नीच ऊच किसीभी वकि मनुष्यको जेनी बनानेसे नही छोडा और किसी भी जीवका हित करनेसे मुंह नही मोडा।
जिन परोपकारी महात्मा श्रीअकलकदेवने मृतमास-भोजी बौद्धसमूहको वादमे परास्त कर राजा हिमशीतल-सहित हजारो बौद्धोको जैनी बनाया, उनको आज जैनी अपना पूज्य गुरु मानते हैं और अपनेको उनका अनुयायी बतलाते है। परन्तु उनको ऐसा मानते
और बतलाते हुए कुछ लज्जा नही आती है | क्या जैनियोकी तरफसे श्री अकलकदेवके अनुयायीपनका सूचक कोई प्रयत्न जारी है ? गुरुकी अनुकूलता-प्रदर्शक कोई काम हो रहा है ? और किसी भी मनुष्यको जैनधर्मका श्रद्धानी बनाने या सर्व साधारणमे जैनधर्मका प्रचार करनेकी कोई खास चेष्टा की जाती है ? यदि यह सब कुछ भी नही, तो फिर ऐसे अनुयायीपनसे क्या ? खाली गाल बजाने, शेखी मारने और अपनेको उच्च धर्मानुयायी प्रगट करनेसे कुछ भी नतीजा नही है । निस्सन्देह 'अकलकस्तोत्र' के "नाहकार वशीकृतन मनसा'' इत्यादि वाक्य मे श्री अकलकदेवकी जिस कारुण्य-बुद्धिका उल्लेख है, उसका आज जैनियोमे अभाव है। जैनी इस बातको
* यह पूरा वाक्य इस प्रकार हे --- नाऽहकार-वशीकृतेन मनसा न द्वेषिणा केवल नैरात्म्य प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्यबुद्धथा मया राज्ञ श्रीहिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मना। बौद्धोधान् सकलान्विजित्य स घट पादेन विस्फालित ।।