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जैनियोंमें दयाका प्रभाव जानते और मानते हैं कि मिथ्यात्व (प्रतत्त्वश्रद्धान) के समान और कोई इस जीवारमाका अहित पोर अनिष्ट करनेवाला विशिष्ट शत्रु नहीं है। इसी प्रतत्त्वश्रद्धानके कारण यह जीव संसारमें नाना प्रकार के कष्ट, दुःख और सन्ताप भोगता हुआ चतुर्गतिमें भ्रमण करता फिरता है । न कही इसको शान्ति मिलती है, न कही सुखकी प्राप्ति होती है । वे प्रत्यक्ष इस बातका अनुभव भी कर रहे हैं कि इसी मिथ्याश्रद्धानके कारण ससारमें घोर पापोकी प्रवृत्ति हो रही है
और जगतके जीव अपने पापकर्मोके फलस्वरूप नाना प्रकारकी दुःखावस्थाप्रोसे घिरे हुए सविलाप कष्ट भोग रहे हैं। परन्तु फिर भी उन करुणा-पात्रोपर इन जैनियोको तनिकभी करुणा नही पाती है। जैनी किसीभी जीवका मिथ्यात्वादि छुडाकर उसको सम्यक् श्रद्धानी, सम्यक्ज्ञानी और सम्यगाचरणी बनानेका कुछ भी प्रयल नही करते हैं, इससे अधिक कठोर चित्तवृत्ति और क्या हो सकती है ? अफसोस। जैनी लोग अपने घरोमे चिल्ला चिल्लाकर यह बात कहते हैं कि जैनधर्म ही जगतके जीवोका उद्धार करनेवाला है, परन्तु फिर भी वे किसीको जैनधर्मसे अपना उद्धार करनेका अवसर नहीं देते हैं। न तो वे दूसरोको जैनधर्म बतलाते हैं, न सर्वदेशोंकी सर्वभाषाओं में अनेक रीतियों और युक्तियोले अपने धर्म-पन्थोको प्रकाशित करके, सर्व साधारणके लिये जैनधर्मकी शिक्षा प्राप्त करनेका मार्ग सुगम करते हैं। इससे प्रगट है कि इनके हृदयोंमे दयाका संचार मही है और इसीलिए यह कहना बिल्कुल सत्य है कि आजकल जैनियोंमें दयाका प्रायः प्रभाव है।
शायद हमारे बहुतसे भोले जेनी केवल हरी मोर कन्दमूलका त्याग करनेसे ही अपनेको बयावान समझो हो । परन्तु माद हे उनका यह लोक-प्रचारसे प्रेरित हुमा प्राकम त्याग केवल मागासम्बर
और लोकदिखावाके सिवाय और कुछ मी अर्थ नही रखता । मला जिन लोगोंको पंचेन्द्रिय प्राणियों पर दया नहीं पाती, पापियोंका