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युगवीर-निबन्धावली कांपता था। यह जैनधर्मके प्रचारका ही माहात्म्य है कि अब भारतका कोई भी धर्म उक्त घोर पापोको करनेका अनुमोदन नहीं करता है। वैदिक धर्मके शास्त्रोंमे भी अहिंसा वा दया धर्मका उपदेश प्रक्षिप्त हो गया है और इस तरह जैनधर्मके प्रभावसे अहिसा भारतकी सर्वप्रिय वस्तु बन गई है।
सुप्रसिद्ध ब्राह्मण विद्वान् प० बालगगाधर तिलकने बडोदा जैन कान्फन्समें ३० नवम्बर सन् १९०४ को एक सारगर्भित व्याख्यान दिया था। उसमे उन्होने कहा था
जैनियोंके 'अहिसा परमो धर्म' इस उदार सिद्धान्तने ब्राह्मण धर्म पर चिर स्मरणीय छाप ( मुहर ) मारी है । यज्ञ यागादिकोमे पशुओका वध होकर जो यज्ञार्थ पशु-हिसा की जाती थी वह आजकल नही होती है, यही एक बड़ी भारी छाप जैनधर्मने ब्राह्मण धर्म पर मारी है । पूर्वकालमे यज्ञके लिये असख्य पशुप्रोकी हिसा की जाती थी। इसके प्रमारण कालिदासके मेघदूत काव्यसे * तथा और भी अनेका ग्रन्थोसे मिलते है । रन्तिदेव नामके राजाने जो यज्ञ किया था, उसमे इतना प्रचुर पशुवध हुआ था कि नदीका जल खूनसे लाल हो गया था । उसी समयसे उस नदीका नाम चर्मरावती (चम्बल) प्रसिद्ध है । पशुवधसे स्वर्ग मिलता है, इस विश्वासके विषयमे उक्त कथा साक्षी है। इस घोर हिसाकी ब्राह्मणधमसे विदाई हो जानेका श्रेय जैनधर्मके हिस्सेमे है । ब्राह्मरण और हिन्दूधर्ममे मास-भक्षरण और मदिरापान बन्द हो गया, " " यह भी जैनधर्मका प्रभाव है। अहिसाकी और
* मेघदूतके 'आराध्यन शरवणभव' आदि ४७वे श्लोकको सजीवनी टीकामे इस बातका खुलामा यो किया गया है ---
पुरा किल राज्ञो रन्तिदेवस्य ( दशपुरपतेर्महाराज्यस्य ) गवालम्मेष्वेकत्र संभूताद्रक्तनिष्पन्दाचर्मराशे काचिन्नदी सस्पन्दे। सा चर्मरावतीत्याख्यायते इति।