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प्रथम अध्याय
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ने उस शक्ति को तिरोहित करके उसे अपने स्वरूप ले च्युत करदिया है। आत्मा एकदम परावलम्बी बन गया है । इसी कारण सूत्रकार कहते हैं:-'अप्पा हु खलु दुदमो' अर्थात् आत्मा का निश्चित रूप से बड़ी कठिनाई ले दमन किया जा सकता है। क्योंकि अनादिकाल से वह इन्द्रियों के सिकंजे में फँसी है। जैसे बच्चे को लड्डू का लालच देकर चोर उसका मूल्यवान् श्राभूषण हरण कर लेता है उसी प्रकार इन्द्रियों ने पराश्रित, विषयजन्य, अल्प और क्षणिक सुख का प्रलोभन देकर उसके अनन्त, स्वाभाविक और अक्षय सुख का अपहरण करलिया है। सिंह का बच्चा जैसे जन्म-काल ले भेड़ों के बीच रहकर अपने पराक्रम को थूल जाता है उसी प्रकार आत्मा इन्द्रियों के संसर्ग में रहकर अपने अनन्त वार्य को भूल रहा है। यही कारण है कि श्रात्मा स्वधर्म का परित्याग कर पर-धर्म में रमण कर रहा है और परिणाम स्वरूप ना-ना गतियों में चक्कर लगाता हुमा असह्य यातनाएँ सहन कर रहा है । अतएव सूत्रकार कहते हैंअगर तुम सच्चा सुख चाहते हो तो आत्मा का दमन करो अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सरता आदि के कुसंस्कार, जो आत्मा की विभाव-परिणति के कारण हैंउनका परित्याग करो । ऐसा करने से तुझे स्वाभाविक सुत्र प्राप्त होगा। मूल-वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवण य ।
माहं परेहिं दम्मतो, बंधणेहि वहहिं य॥ ६ ॥ छाया-वरं से श्रात्मा दान्तः, संयमेन तपसा च । माऽहं परेर्दमितः, 'बन्धनैर्वधैश्च ॥ ६ ॥
शब्दार्थ:--दूसरों के द्वारा बंधन और बंध करके दमे जाने की अपेक्षा संयम और तपस्या द्वारा अपने आत्मा का-आप ही दमन करना अच्छा है ।
भाज्य:-श्रात्मा का दमन करने से इसलोक में और परलोक में सुख की प्राप्ति होती है. यह उपदेश सुनकर शिष्य उसे प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करता हुआ कहता है-अपनी आत्मा का दमन करना ही श्रेयस्कर है । अनर्थों को दूर करने के लिए अनर्थों के मूल को ही नष्ट करना उचित है । लोक में कहावत भी है-चोर को पकड़ने की अपेक्षा चोर की मां को ही पकड़ना अधिक अच्छा है, जिससे चोर उत्पन्न ही न हो।
प्रात्य दमन का सिद्धान्त स्वीकार कर लेने पर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि श्रात्मा के दमन का क्या उपाय है ? वह लाठियों से, बंदूकों से या लात-धूंसों से तो पीटा नहीं जा सकता, फिर उसे किस प्रकार काबू में किया जा सकता है ?
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए. जूनकार कहते हैं:- लजमेण तवेण य ।' अर्थात् संयम और तप के द्वारा आत्मा का दमन होता है । प्राणियों और इन्द्रियों में अशुभ प्रवृत्ति का परित्याग करना संयम कहलाता है। तात्पर्य यह है कि प्राणियों के विषय में अशुभ प्रवृत्ति न होने देना प्राणी-संयम कहलाता है और इन्द्रियों की अशुभ प्रवृत्ति न होने देना इन्द्रिय-संयम कहलाता है। अर्थात् हिंसा आदि पापों से विरत