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बथम अध्याय
... 'छायाः-यात्मा चैव दमितव्यः. प्रसारमा हि खलु दुर्दनः ।
श्रात्मा दान्तः सुखी भवति, अस्मिल्लोके परत्र च ॥ ५ ॥ शब्दार्थ:-आत्मा का ही दमन करना चाहिए । अात्मा दुर्दान्त है-उसका दमन करना बड़ा कठिन है । दमन किया हुआ आत्मा इस लोक में और एरलोक में सुखी होता है । (५)
. माष्य-पूर्व माधा में यह प्रतिपादन किया गया है कि दुरात्मा प्राण हारी शत्रु से भी अधिक अनर्थ का कारण होती है, इस गाथा में ऐसा न होने देने का उपाय बताया गया है। यहां यह प्रतिपादन किया गया है आत्मा का दमन करने से उभय लोक में सुख की प्राप्ति होती है। - आत्म-दमन का अर्थ है-कपाय श्रादि कुरासनाओं से वासित अन्तःकरण की प्रवृत्ति का निरोध करना । आत्मा, कशय से मुक्त होकर कुसंस्कारों की और गमन करता है, उसका निरोध करना सरल नहीं है । जो संयमी अत्यन्त अप्रमत्त आव ले अपनी चित्तवृत्ति की चौकली करते हैं, जो सत् और असत् प्रवृत्ति के विवेक से विभूपित है वे भात्म-दमन करके वर्तमान जीवन को भी सुखी बनाते हैं और भावी जीवन को सुखमय बनाते हैं।
अज्ञानी जीव संसार के भोगोपलोगों में सुख की कल्पना करके सुखी बनने के लिए सांसारिक पदार्थों का संयोग जुटाने से ही निरन्तर व्यस्त रहते हैं। उन पदार्थो की प्राप्ति में जो पुरुष बाधक प्रतीत होते हैं उनका दमन करने में, उन्हें संकोच नहीं होता । एक राजा, अपने प्राप्त राज्य से पर्याप्त सुख का अनुभव न करके अधिक राज्य-विस्तार के लिए दूसरे राजा का दमन करता है और एक व्यापारी दूसरे व्या. पारी का दमन करता है। अन्त में यह सव पदार्थ सुख के बदले दुःख का कारण बनते हैं। अतः भगवान् कहते हैं कि दूसरों का दमन करने से नहीं किन्तु अपनी श्रात्मा का दमन करने से ही सुख की प्राप्ति होती है।
मुक्ति-लाभ के लिए प्रवृत्त पुरुषों में भी अनेक नम घुसे हुए है। कई लोगों का विचार है कि दुःख का कारण यह शरीर ही है अतएव शरीर का दमन करने ले मुक्ति प्राप्त होगी। ऐसा विचार कर वे श्रात्म-संशोधन के लक्ष्य को भूलकर शरीर को ही कष्ट पहुंचाने का मार्ग स्वीकार करते हैं। कोई तीखे कांटों पर सोते है, कोई ग्रीष्म काल में पंचाग्नि तप तपते हैं । कोई त्रिशूल की नोंक पर लटक जाते हैं, कोई शीतकाल में जल में पड़े रहते हैं, कोई सूर्य की आतापना लेते हैं, कोई-कोई जल या अलि में पहकर अपने शरीर का अन्त कर देते हैं और अज्ञानवश यह समझ लेते हैं कि ऐसा करने से हमारे दुःखों का भी अन्त हो जायमा । इन सब प्रान्तियों का निवारण करने के लिए गाथा में एव' का प्रयोग किया गया है। उसका अर्थ यह है कि
आत्मिक सुख प्राप्त करने के लिए प्रात्मा का ही दमल करना चाहिए । सो अशुचि पदार्थों से भरे हुए घट पर पानी डालने से घट शुचि नहीं हो सकता, इसी प्रकार