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प्रधम अध्याय
पहुँचाती है।
अशान का माहात्म्य अपरम्पार है। प्रत्येक प्राणी अपने जीवन का निश्चित रूप से अन्त जानता है । भोले से भोला व्यक्ति भी यह नहीं समझता कि उसका जीवन अक्षय है-वह कभी काल के गाल में नहीं समावेगा। इतना भान होने पर भी जीवों की बुद्धि पर एक ऐसा पर्दा पड़ा रहता है जिस से वे अपने भविष्य को सुधारने के लिए आगे नहीं बढ़ते । कोई कोई मनुष्य अपने उदर की पूर्ति के लिए अतिशय कर कर्म करते हैं, कोई धनवानों की श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त करने की जघन्य लालसा से अनीति का आश्रय लेते हैं, कोई अपने क्षणिक मनोरंजन के लिए या जिह्वा-लोलुपता के वश में होकर अनार्योचित कार्य करते हैं, कोई अन्य इन्द्रियों के दास होकर घोर पाप करने में नहीं झिझकते । जीवन भर उनका इसी प्रकार पापमय व्यापार चलता रहता है, किन्तु जब अनिवार्य रूप से मृत्यु के मुख में प्रवेश करते हैं, और खाली हाथ शरीर को भी यहीं छोड़ कर महाप्रस्थान करने को उद्यत होते हैं, तर उनके नेत्र खुलते हैं। उस समय उन्हें अपने जीवन सर के पाप स्मरण होते हैं। पश्चात्ताप की भीषण अग्नि में उनका अन्तःकरण भस्म होने लगता है, किन्तु 'समय चूकि पुनिः का पछताने ' इस कहावत के अनुसार उनका पश्चात्ताप वृथा जाता है अर्थात् पश्चात्ताप करने मात्र से पूर्वकृत कमों के फल से उन्हें छुटकारा नहीं मिल सकता। जैसे विप-भक्षण करने के पश्चात् पश्चात्ताप करने वाला व्यक्ति विप भक्षण के फल से मुक्त नहीं हो सकता उसी प्रकार पाप कर्मों के फल से बचने के लिए पश्चात्ताप करने वाला पुरुष उन कमों के फल से सुस्त नहीं हो सकता।
यहां यह आशंका हो सकती है कि पश्चात्ताप करने से यदि पूर्वकृत कर्मों ले मुक्ति नहीं मिलती तो प्रतिक्रमण आदि करने से क्या लाभ है ? इसका समाधान यह है कि प्रतिक्रमण करने का उद्देश्य प्रात्मिक अशुद्धि को हटा कर फिर शुद्धता प्राप्त करना है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है-प्रतिक्रमण करने से व्रतों के छिद्र ढंक जाते हैं अर्थात् व्रतों में दोष लगाने वाली प्रवृत्ति दूर हो जाती है. नवीन कर्मों का पालन रुक जाता है और निर्दोष चारित्र पालन करके समिति-गुप्ति में सावधानी आती है। तात्पर्य यह है कि हृदय से-भाव प्रतिक्रमण करने वाला श्रावक या श्रमण भविष्य में सूल नहीं करता है, उसका आगामी चारित्र निरतिचार हो सकता है। शास्त्र में स्पष्ट उल्लेख है कि 'कडाण कस्माण ण मोक्ख अस्थि अर्थात् किये हुए कर्मों का फल भोगे विना उनसे छुटकारा नहीं हो सकता।
इसके अतिरिक्त यहां गाथा में ' दयाविरुणो ' पद विशेष ध्यान देने योग्य है। 'या' शब्द यहां उपलक्षण से चारित्र अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। देखना, बिल्ली दही न खा जाए ' इस चाक्य में यद्यपि बिल्ली का ही उल्लेख किया गया है पर इसका अभिप्राय यह नहीं है कि कौवा या कुत्ता पाए तो उसे दही खाने देना । वल्कि दही खाने वाले सभी प्राणियों का बिल्ली शब्द ले कथन किया गया है, इसी प्रकार 'दया' शब्द से यहां चारित्र मात्र का अर्थ ग्रहण किया गया है। ' पढ़मं नाणं तो दया '