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षट् द्रव्य निरूपमा
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वहां भी दया' शब्द से चारित्र का ही अर्थ अभीष्ट है। अतएव 'दवाविहूणो' का .. अर्थ है-चारित्र से हीन । अभिप्राय यह हुआ कि जिसका चारित्र शुद्ध नहीं है श्रर्थात जो श्रव भी बारिश का पालन नहीं करता है वह पाप कर्मों को बुरा समझ . कर पश्चात्ताप नहीं करता किन्तु केवल श्रागामी दुखों के भय के मारे पछताता है । दुःखों से भयभीत होकर ही पश्चात्ताप करने वाला व्यक्ति आर्तध्यान के वशीभूत है और वह उल्टे पापकमाँ का उपार्जन करता है।
यही बात एक उदाहरण द्वारा समझनी चाहिए। कल्पना कीजिए-दो व्यक्ति एक साथ मिलकर किसी मनुष्य की हत्या करते हैं । दोनों पर न्यायालय में मुकद्दमा चलता है। इस बीच में एक व्याक्ति श्रावेश उतर जाने के कारण हिंसा को घोर कुकर्म समझ कर अपने कृत्य पर पश्चाताप करता है कि 'धिक्कार है मेरे विवेकहीन भावेश को, जिलके वश होकार में भीषण पाप करके अपनी प्रात्मा का अहित कर बैठा।" दूसरा व्यक्ति भी पश्चाताप करता है कि-'हाय क्यों मुझे एला भावेश श्रागया कि जिसके फल-स्वरूप मुझे अब फाँसी पर लटकना पड़ेगा। यहां यद्यपि दोनों व्यक्ति पश्चाताप करते है किन्तु दोनों के पश्चाताप में आकाश-पाताल का अन्तर है। एक चारित्र का मूल्य समझता है, दूसरा फाँसी रूप फल ले भयभीत है। यह दूसरा व्यक्ति दया-विहीन अर्थात् चारित्र से पतित है अतः उसका पश्चाताप सविष्य में भी लाभ दायक नहीं है। यही नहीं, उसका पश्चात्ताप आत ध्यान रूप होने के कारण पाप-बन्ध का कारण है।
इसी प्रकार निर्दय पुरूप जय मृत्यु के मुख में प्रविष्ट होता है तब वह सोचने लगता है-'हाय ! मैंने जीवन भर पाप कर्म का भाचरण करके, नीति-अनीति का भेद भुलाकर, 'असीम धन संचित किया था एर खेद है कि आज उसमें से अल्प अंश भी मेरे साथ नहीं जा रहा है। मैंने अपनी जीवित अवस्था में अनेक कुकर्म किये हैं, श्रव न जाने उनका कितना, कैसा दुष्परिणाम भुगतना पड़ेगा, इत्यादि । यह सब पश्चाताप यात्मिक मलीनता की वृद्धि करता है, इससे यात्म शुद्धि नहीं होती। श्रतएव विवेकी जनों का कर्तव्य है कि वे शास्त्र प्रति-पादित मार्ग का अनुसरण करें । कभी शाल-विरुद्ध प्रवृत्ति न करें। जीवन को अस्थिर लमझकर अधिक लावधान रहकर शात्महित की प्रवृत्ति करें, जिस से जीवन के अंतिम समय में शान्ति एवं . संतोप बना रहे और पश्चाताप करने का अवसर उपस्थित न हो । कभी प्रमाद के वश होकर यदि पाप से प्रवृत्ति हो भी जाय तो किये हुए पापों को अहित. समझकर, पुनः पापों के भाचरण से बचने के लिए पश्चात्ताप करें, सिर्फ पापों के फल से भयभीत होकर नहीं ॥ ४ ॥ मूल:-अप्पा चेव दमेयव्यो, अप्पा हु खलु दुद्दमौ ।
अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सि लोए परस्थ य ॥ ५ ॥