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लेश्या का यह सिद्धांत भगवान महावीर की दार्शनिक जगत को एक बहुत बड़ी देन है । लेश्या का सिद्धांत वैज्ञानिक जगत् में प्रतिष्ठित होता जा रहा है।
सूर्य की प्रभा शुभ है, सूर्य की छाया शुभ है, सूर्य की लेश्या शुभ है।'
प्रशस्त लेश्या-स्थान जब अविशुद्धि को प्राप्त होते हैं, तब वे संक्लिश्यमान कहलाते हैं और अप्रशस्त लेश्या-स्थान जब विशुद्धि को प्राप्त होते हैं, तब वे विशुद्धमान कहलाते है। अतः प्रशस्त व अप्रशस्त लेश्याओं की प्राप्ति में यथा योग्य संक्लिश्यमानता व विशुद्धमानता समझनी चाहिए ।
अभीचिकुमार श्रमणोपासक था । उदायन राजा का पुत्र था । श्रमणोपासक होने पर भी उदायन राजर्षि के वैर के अनुबंध से युक्त था । उदायन राजा ने अभीचिकुमार को छोड़ कर भाणेज केशीकुमार को राज्य स्थापित करके श्रमणभगवान के समीप प्रव्रज्या ग्रहण की । अभीचिकुमार श्रमणोपासक होते हुए भी वैर के अनुबंध से अप्रशस्त लेश्या में कालकर-मिथ्यात्व को प्राप्त कर असुरकुमार देवों में उत्पन्न हुआ।
परितापना के प्रकार बतलाते हुए भगवती सूत्र में कहा-लेसेइ-बाण मार्गवर्ती जीवों को संत्रस्त करता है अर्थात् बाण के प्रहार से वे जीव अत्यन्त सिकुड़ जाते हैं। टीकाकार ने कहा है-श्लेषयति आत्मनि श्लिष्टान, करोति जीव के प्रदेश शरीर में संकोच पाकर घन (पिंड ) बन जाते हैं। इस सन्तापकारक स्थिति में उसे चार क्रियाए लगती है। यदि प्राणातिपात हो जाय तो पांच । ठीक यही क्रम तेजो लेश्या का है। उसमें भी तीन, चार व पांच क्रियाओं का विधान है। अतः तेजू के साथ प्रयुक्त लेश्या शब्द का अर्थ 'लेसेइ' करना न्याय संगत लगता है। दशवकालिक सूत्र में धर्माराधना के संदर्भ में कहा है
जरा जाव न पीलेइ, वाही जाव न वड्डई।
जाविदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे॥ अर्थात् जब तक वृद्धावस्था विवश नहीं करती है, व्याधियों का आक्रमण नहीं होता है और इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं हो जाती है तब तक धर्म की साधना अधिक संभव है।
१. भग० श १४ । उ ह । सू १३३ से १३५ २. भग० श २ । उ ५
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