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प्रज्ञापना सूत्र में कहा है
कति णं भंते ! लेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा! छल्लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-कण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा, तेउलेस्सा, पम्हलेसा, सुकलेस्सा।
--पण्ण ० पद १७ । सू ३६ अर्थात् लेश्या के छः प्रकार हैं-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या ।
समान जाति वाले पुद्गल स्कंध को वर्गणा कहते हैं उनके अनेक भेद हैंयथा-मनोवर्गणा, भाषावर्गणा, शरीरवर्गणा, औदारिकवर्गणा, वैक्रियवर्गणा, आहारकवर्गणा, तेजसवर्गणा, कार्मणवर्गणा व श्वासोच्छ्वासवर्गणा ।
लेश्या भी वर्गणा है । तेजस शरीर के अन्तर्गत इस लेश्यावर्गणा का समावेश है । लेश्या-शब्द मीमांसा
लेश्या हमारी चेतना की एक रश्मि है। लेश्या का अर्थ किया गया हैज्योति-रश्मि । नंदी की चूणि में कहा है-रस्सी से बना लस्सी और उससे बन गया लेस्सा-लेश्या। रस्सी रज्जु का भी एक नाम है। वक्रता, नृशंसता व करता-ये मन से नहीं, भाव से आती है।
__ कृष्णलेश्या का एक परिणाम बतलाया गया है-नृशंसता। इसी प्रकार जो व्यक्ति पांच आस्रवों में प्रवृत्त है, तीव्र आरम्भ में संलग्न है, षटकाय में अविरत है, क्षुद्र व अजितेन्द्रिय है, बिना विचारे काम करने वाला है, वह कृष्णलेश्या में परिणत होता है। प्रमत्तता, आसक्ति, रस-लोलुपता, मुर्छा आदि से युक्त जो प्रवृत्ति है, वह मन का काम नहीं है, यह भावना के स्तर पर घटित होने वाली क्रिया है। दर्पण और लेश्या
लेश्या आभामण्डल हमारा एक दर्पण है, जिसमें व्यक्ति अपने आपको देख सकता है, अपने विचारों और भावनाओं को देख सकता है, अपने आचार व व्यवहार को देख सकता है। नई सम्भावनाएं
लेश्या का सिद्धांत हमारे सामने एक ऐसा दर्पण है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपना चेहरा देख सकता है। आचार, विचार व व्यवहार-सबका प्रतिबिम्ब लेश्या के दर्पण में देखा जा सकता है।
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