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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचित
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम्
द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ पर्वाणि
सम्पादक:
मुनिराज श्रीपुण्यविजयजी महाराज
ENITATTIIIIIIIIIIIIIIIITS.
શ્રી હેમચંદ્ગાચાર્ચ
प्रकाशक
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति
शिक्षण-सरकारनिधि
अहमदाबाद
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचित त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् द्वितीय - तृतीय - चतुर्थ पर्वाणि
सम्पादकः
आगमप्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजयजी महाराज
mwO0Eoo
-
શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય
प्रकाशक:
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति
शिक्षण - संस्कार निधि, अमदावाद आर्थिक सहयोग : श्रीजैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक बोडिंग, अमदाबाद
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ पर्वात्मको द्वितीयो विभागः ।
आद्यसम्पादकः मुनिराज श्रीपुण्यविजयजी महाराजः ।
परिशिष्टादिना समलङ्कृत्य पुनः सम्पादकः
पूज्यपादाचार्यप्रवर श्रीविजयसूर्योदसूरिवर-शिष्य पं. शीलचन्द्रविजय गणी ।
प्रकाशक : क. स. श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति शिक्षण
संस्कारनिधि, अमदावाद.
प्रतयः ५००
वि. सं. २०४६
ई. स. १९९०
मूल्यम् :
प्राप्ति स्थान : (१) श्रीविजयनेमिसरि ज्ञानाशाला पांजरापोळ, रिलीफ
रोड, अमदावाद-३८०००१ (२) सरस्वती पुस्तक भण्डार
हाथीखाना, रतनपोळ अमदावाद-३८०००१
परिशिष्टादि मुद्रक : क्रिश्ना प्रिन्टरी
हरजीभाई पटेल जूना नारायणपुरा गाम अमदावाद-३८००१३
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समर्पण
शान्ति अने समतानी मंगी छतां प्रचंड शक्तिना स्वामी, संवमनी नरवी साधना द्वारा प्राप्तसहज प्रसन्नताना भंडार, परमवत्सल छतां परमनिरीह परमपूज्य आचार्य भगवन्त श्रीविजयविज्ञानसूरीश्वरजी महाराजनी पावनकारी स्मृतिमा......
- शीलचन्द्रविजय
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प्रकाशकीय निवेदन
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचायनी नवमी जन्म शताब्दीना उपलक्ष्यमां तेमनी महान काव्य रचना स्वरूप त्रिषधिशलाका. पुरुषचरित्र नामक ग्रंथनु पुनमुद्रण करतां अमे अपार हर्षनी लागणी अनुभवीए छीए.
छत्रीश हजार श्लोकोमा पथरायेला अने २४ तीर्थंकर भगवन्तो तथा अन्य शलाकापुरुषोनां विशद अने विस्तृत चरित्रो वर्णवतो आ नथ जैन संघना संस्कृत तेमज ऐतिहासिक साहित्यमां अपूर्व अलंकार स्वरूप ग्रंथ छे. आ ग्रंथनु पठन पाठन तेनी रचना थइ त्वारथी मांडीने आज पर्यंत जैन संघमा अविरतपणे चाल्या ज कयु" छे अने हजी पण ए ज प्रकारे ते प र रहेशे ते निःसन्देह छे.
आ नयनी एक करतां वधु आवृत्तिओ, जुदा जुदा स्थलेथी प्रगट थइ छे. अने आजना फोटोस्टेट के भोफसेट मुद्रण पद्धतिना झडपी समयमां तो अत्यन्त झडपी तेनी नकलो छपाइ रही छे, जे आ ग्रन्थनी मांग अने उपयोगितान द्योतन करे परन्तु आ महामन्थनु जुदी जुदी प्राचीन ताडपत्रीय तथा अन्य हायपोथीओनां आधारे संशोधन करी, तेनी शुद्ध वाचना तथा उपलब्ध पाठांतरोनी नोंध तथा विशिष्ट टिप्पणी वगेरे तैयार करवापूर्वक आ ग्रन्थ प्रगट थाय ते अत्यन्त जरूरी इत' केसर आ ग्रन्थ मात्र जैन साधु साध्वीओमां ज नहि, पण जैनेतर समाजमा तेम ज विदेशी विद्वज्जगतमां पण खूब जिज्ञासापर्वको रह्यो छे अने आ ग्रन्थमा गुजराती-हिंदी जनहि, पण विदेशी विद्वाने करेल अंग्रेजी अनुवादो पण प्रगट थया . आयोगमा आ ग्रन्थनी समीक्षित-संशोधित-शुद्ध वाचना तैयार करवी अत्यन्त अनिवार्य गणाय.
आ वात आजथी छ दायका अगाउ न्यायांभो निधि परमपूज्य जैनाचार्य श्री आत्मारामजी महाराजना पट्टधर पंजाबी परमपूज्य आचार्य श्री विजयवल्लभसूरीश्वरजी म. ना प्रशिष्य विद्वत्प्रवर परमपूज्य मुनिराज श्री चरणविजयजी म. ना ध्यान पर आवी हती, अने सम्पूर्ण त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्रना सम्पादननु महान कार्य तेओझे आरंभ्यु हतु, जेना फलस्वरूपे वि.सं. १९९२ (ई. १९३६) मां आ महाग्रन्थनो प्रथम पर्वात्मक प्रथम भाग, पुस्तकाकारे तेम ज प्रताकारे, भावनगरनी श्री जैन आत्मानन्द सभा तरफथी प्रगट थयो हतो.
दुर्भाग्ये आ पछी थोडा ज समयमा सम्पादक मुनिराज कालधर्म पामी जतां, बीजा भागनु शरू थयेलु काम अधरू रघु, जे त्यार पछी आगमप्रभाकर पूज्य मुनिराज श्रीपुण्यविजयजी महाराजे पूरु करी आप्यु, अने ते बीजो भाग वि. स. २००६मां (ई. १९५०) ते ज सभा तरफथी प्रगट थयो हतो. आ बीजा भागमां २-३-४ पर्वोनो समावेश थयो छे.
सं. २०४५ ना वर्षे श्री कलिकालसर्वज्ञनी नवमी शताब्दीनुं निमित्त पामीने अत्यारे अलभ्यप्राय आ बन्ने भागोन पुनर्मद्रण करवानी तेमज आगलना अवशिष्ट पर्वात्मक भागोनु सम्पादन-प्रकाशन करवानी भावना प.पू. आचार्यमहाराज श्रीविजयसूर्योदय सूरीश्वरजी महाराज तथा तेमना शिष्य प. श्री शीलचन्द्रविजयजी गणीने थतां तेओश्रीए अमोने प्रेरणा करतां अमोए ते स्वीकारी लोधी, अने प्रथम तबकामां आजे तद्दन अप्राप्य एवा प्रथम-द्वितीय भागोनुं पुनर्मुद्रण करवानुनक्की कयु", जेना फलरूपे प्रस्तुत ग्रन्थ आपना हाथमां छे.
आ बन्ने भागोना पुनर्मुद्रण माटे सम्मति आपवा बदल श्री जैन आत्मानन्द सभा-भावनगरनो अमे घणो वणो आभार मानीए छीए. अने आ बन्ने भागोनु झडपी पुनमुद्रण करी आपवा बदल श्री सरस्वती पुस्तक भण्डार अमदावादना संचालकोना पण अमे ऋणी छीए.
पस्तकरूपे प्रगट यतां आ बे भागो आम तो जूनी आवृत्तिनुं ओफसेट पद्धतिथी करेलु पुनर्मुद्रण जछे. तेम छतां आ आवृसिमां थोडांक परिशिष्टोनो उमेरो करवामां आव्यो छे, ते आ प्रमाणे
परिशि १ मां श्लोकोनो अकोरादिक्रम मूकबोमां आव्यो छे, बीजा परिशिष्टमां ग्रन्थगत विशेष नामोनी सूचि आपी छे, श्रीजा परिशिष्टमी ग्रन्थगत सूक्ति-कण्डिकाओनु सकलन छे. आ उपरांत प्रथम आवृत्तिमा क्यांक स्यांक अशुद्धिओ रही गयेली जणातां तेनी नेध करी तेनु शुद्धिपत्रक पण भा मुद्रणमां मूकेल छे.
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आ वां परिशिष्टो वगेरे तैयार करवामां प. पू. मुनिराज श्री नन्दिघोषविजयजी, मुनिराज श्री जिनसेनविषयनी, मुनिराज श्री विमलकीर्तिविजयजी आदिए घणो श्रम लीधो छे.
आ ग्रन्थोना सम्पादन माटे उपयुक्त पद्धति तेमज हस्तप्रतिओ आदि विषे जाणकारी जिज्ञासुमोने मली रहे ते हेतुथी मूल आवृत्तिना सम्पादकोनां निवेदनो यथावत् पुनमुद्रित करेल छे.
प्रथम वे भागोना पुनर्मुद्रण पछी तबक्कावार बाकीनां पर्वोनी सम्पादित वाचनानुं प्रकाशन करवानी पण अमारी भावना छे, अने अमोने आनन्द छे के बाकीनां पर्वोनु प्राचीन प्रतिओना आधारे सम्पादन कार्य प. श्री शीलचन्द्रविजयजी करी रह्या होवाथी रक समयमां अमारी आ भावना अवश्य साकार बनशे.
प्रस्तुत कार्यमां श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक बोडिंग अमदावाद तरफथी अमोने पूर्ण आर्थिक सहयोग प्राप्त थयो छे, ते बदल ते संस्थाना संचालकोनो अमे हृदयपूर्वक आभार मानीऐ छीए.
अन्तमां, घरदीवडा जेवी अमारी नानकडी संस्थाना माध्यमथी श्री हेमचन्द्राचार्यना महान अने उपकारक साहित्यनो प्रसारप्रचार करवानो आवो अवसर अमने वारंवार मलतो रहे तेवी शुभ कामना.
ठे. लालभाई दलपतभाईनो वंडो
पानकोर नाका अमदावाद-१
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्म शताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षण निधि, अमदावाद
ना ट्रस्टीओ
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प्रासंगिक
आ बौका भागना [संपादननी प्रस्तावनामा
विशेष कसली शकु एवी परिस्थितिमा नथी. मात्र एटलु ज कहीश के मा "त्रिपटि शलाकापुरुष चरित्र" ग्रंथ संपादन कार्य पू. पा. आचार्य भगवान श्री विषयवस्तभसूरिजी महाराजना शिष्य मुनिश्री चरणविजयजीए शक कहतु तेनो प्रथम भाग सन् १९३६ मा पत्राकारे भने पुस्तकाकारे एम बन्ने स्वरूपे प्रकाशित ई चुक्यो छे से पढ़ी बीजो भाग पण तरत प्रकाशित करवानेो इरादो हतो म. पण भीमा भागनुं थोड काम थवा पछी मुनि चरणविजयी [काची उमरे कालधर्म पाया. एवा विद्वान साधुने। देहांत ए भमारा बधा माटे भगा व दुखनी बात मनाई छे. एमना स्वर्गवास पछी आ संपादन कार्य मारी पासे आम्
मारी पासे भी कामो हतां ण छतांय में ए स्वीकारी ली. पण ए पछीना वर्षोनों समय मारा माटे संघर्षण का पूरवार थयो के अने बणी भगचिंतनी पटनाओ ए समयमां बनी के.
•
प्रथम तो मारी बीमारी ज शरु पई जे पण वर्षो सुची वाली, ते दरम्यान पाटन भी हेमचन्द्राचार्य ज्ञानमंदिरतु काम शरथयुं तेने व्यवस्थित करवामां केलांक वर्षो गया. ते पछी पू. पा. श्रीमान चतुरविजयजी महाराज कालधर्म पाया. ते पछी पू. पा. श्रीमान प्रवर्तकजी महाराज कालधर्म पाम्या एटले बीजी जबाबदारीमो पण आवी. एवामा प्रकाशननु काम शक थयुं भने विहार पण शरु थया.
आ घटनाओ एवी सतत रीते बनती रही के प्रस्तुत ग्रंथना संपादननु काम ठंडु पडतु गयुं अने ठेला ग. पणः क्यारे आगम संपादन काम शरु थयुं त्यारे आ काम तरफ कांईक उपेक्षा पण आवी. पण एं जवाबदारीनेा भार मन उपर सतत रह्या करतो हतो एटले तेनेा केटलोक अंश तो में तैयार कर्यो पण पाछलथी अवशिष्ट भागनु ख़ुदी व्यक्तिओने सोंप पढ तेना पाठांतरो कोईए लीधा, तो टिप्पणो वही बीजाए कर्या तो मुक पाठांत पाटणवासी पं. अमृतलाल मोहनलाले सीमा टिप्पणो पं. मदेचरदासजीए तैयार कर्या, बाकी
यु एटले मारी तो एमो उपलक दृहिनी नजर ज रही शकी छे.
.
✓
आ रीते आ बीजा भागना संपादन काम अनेक हाये तैयार अथवा एने माटे मने प्रसन्नता के के विवाद छे एक व्यक्त करी बीजा मागने वाचको समक्ष रज् करी संतोष अनुभवाना प्रयत्न करू .
यथेली रसोई जेवु छे, वे स्वादिष्ट छे के अस्वादिष्ट छेशकतो नथी, तो पण भाटलां वर्षो पछीय प्रस्तुत मंचना
काम एक पछी एक जुदी
रिडींग बली श्रीभार क",
काम पं. भंगालाल शा
आ संपादन मारी स्वीकारेली जवाबदारी छे तेने मारा ढंगे पूरी रीते अश नथी करी शक्यो ए माटे सद्गतना क्षमाप्रार्थी छु.
मुनि पुण्यविजय, ( सं. २००६)
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प्रथम आवृत्तिनुं प्रकाशकर्नु निवेदन कलिकाल सर्वज्ञ परमपूज्य श्रीहेमचन्द्राचार्यकृत श्रीत्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र मूल ग्रंथनु बीजु', त्रीजु, अने चोथु (त्रण पर्व) बीजो प्रथ (विभाग) प्रताकारे अने 'पुस्तककारे श्री जैन आत्मानंद शताम्दिना आठमा पुष्प तरीके आ प्रगट करवामां आवेल छे
न्यायांभोनिधि श्रीमद्विजयानद सूरीश्वरजी (आत्मारामजी) महाराजनी जन्मजयंति श्री बडोदरा शहेरमा भाचार्य महाराजश्री विजयवल्लभसूरीश्वरजी महाराज साहेबना अध्यक्षपणा नीचे समारोहपूर्वक उजवाणी हती; ते परम गुरुभक्ति अने शतान्दिनु चिरस्मरण जलवाई रहे ते माटे पूज्य आचार्य महाराजना विद्वान प्रशिष्य श्री चरणविजयजी महाराजने ते कार्य सुप्रत करवामां आवेलु हतुं. अने क्रमे क्रमे आत्मानंद शताब्दि सिरिझना पाछल आपवामां आवेल सात ग्रंथों प्रकट यया हता. दरम्यान विद्वान मुनिराजश्री चरणविजयजी महाराजनो अचानक स्वर्गवास थयां. आवा विद्वान मुनिवर माटे आखा परिवारनी जेम ज आ सभाने पण ते दुःखनां विषय बनेल छे.
त्यारवाद आ कार्य केटलाक बखत सुधी मुलतवी रहयु हतु', परन्तु त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र जेवा महामूला व्याख्यान कथा अने काव्य साहित्यना अपूर्व प्रयनु बाकीनु प्रकाशन कार्य पूर्ण थबु जाईए, तेम आचार्यश्री विजयवल्लभसूरीश्वरजी महाराजनी इच्छा थतां साक्षर शिरोमणि पूज्य श्री पुण्यविजयजी महाराजने ते कार्य सुप्रत कयु. परम पूज्यश्री पुण्यविजयनी महाराजश्रीए पाटण ज्ञानमदिर अने भंडारोनी व्यवस्था कर्या पछी आगमो वगेरेना संपादननु महान् कार्य तेओ घणा परिश्रमबहे करी रह्या इता. समय पण बीजा कार्यों माटे नहोतो तेम छतां हाथमां लीधु अने तेओ कृपालुश्रीए आ ग्रंथमा आपेल प्रासंगिक 'विवेचनमा बणाच्या प्रमाणे आ ग्रथनु सुंदर संशोधन करी आ सभाने प्रकाशन कार्य सुप्रत कयुजे माटे विद्वान मनिशसभी पुण्यविजयनो महाराजनो आ सभा परम उपकार माने छे.
___ कृपालु श्री पुण्यविजयनी महाराजे आ कार्य हाथमां लेवाथी ज आ बीजु पुस्तक आटला वखते पण प्रकाशन थवा पाम्यु छे. जे माटे सभा पाताना आनंद व्यक्त करे छे. श्री आत्मानंद भवन-भावनगर.
धनतेरस सं. २००६
गांधी वल्लभदास त्रिभुवनदास . (साहित्य भूषण) सेक्रेटरी श्रीमैन आत्मानंद सभा भावनगर
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति शिक्षण संस्कारनिधि (ट्रस्ट ) ना
उपक्रमे पुनर्मुद्रित के प्रसिद्ध थयेला प्रकाशनानी यादी
१. प्रमाणमीमांसा,
कर्ता : पीहेमचन्द्राचार्य सं. पं. सुखलालजी संघवी
२. हेमसमीक्षा
ले. मधुसूदन मोदी
३. हैम खाध्याय पोथी.
सं. पं. शीलचन्द्र विजय गणी
४. त्रिपष्टिशलाकापुरुष चरितमहाकाव्यम्
प्रथम - द्वितीय विभाग
हवे पछी प्रकाशित थनारा ग्रन्थो :
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित महाकाव्य
पर्व ५ थी १० तथा परिशिष्टपर्वनी, विभिन्न भण्डारोनी प्राचीन हस्तप्रतिओना
आधारे शुद्ध रीते सम्पादित वाचनावाळी आवृत्ति
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ॐ अर्ह नमः ॥
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितस्य
१५८
द्वि-त्रि-चतुर्थपर्वणाम् विषयानुक्रमणिका।
द्वितीयम् पर्व प्रथमः सर्गः। विषयः
पृष्ठम् विमलवाहनस्य परिषहसहनं तीर्थकृत्कर्मोविषयः
पृष्ठम्
पार्जनश्च । ... ... वत्सविजयवर्णनम्। १५७
...
विजयविमाने अमरो जातः । सुसीमानगरीस्वरूपम्। ... .... १५७ पूर्वभवे प्रथमश्रीविमलवाहनभवः ।
द्वितीयः सर्गः। विमलवाहनस्य वैराग्यवासना ।
अजितप्रभोः च्यवनम् । .... ...
१६७ अरिन्दमसूरिवंदनार्थ विमलवाहनस्य
चतुर्दश स्वप्नाः । उद्यानगमनम् । ...
अजितप्रभोर्गर्भावतरणं, विजयादेव्याः विमलवाहनस्य सूरिम् वैराग्यकारणस्य पृच्छा १६० स्वप्नदर्शनश्च । ... ... अरिन्दमसूरेः आत्मवृत्तान्तः ।
स्वप्नलक्षणपाठकाः
१६९ विमलवाहनस्य दीक्षाग्रहणेच्छा ।
१६१ अजितप्रभोजन्म.... मंत्रिभिः परामर्शः।
१६१ दिक्कुमारिकाकृतो जिनजन्मोत्सवः । ... १७१ कुमारसंबोधनम् ।
१६२ सौधर्मेन्द्रागमनम् । कुमारस्य प्रत्युत्तरः। ....
सौधर्मेन्द्रेण पञ्चरूपेण प्रभोर्मेरौ नयनम् । १७७ मंत्रिणः कुमारं प्रति शिक्षाप्रदानम् । १६३ ईशानेन्द्रागमनम् । .... .... कुमारस्य राज्याभिषेकः ।
१६३ जिनजन्मोत्सवार्थ चतुःषष्टेरिन्द्राणामाकुमारं उद्दिश्य विमलवाहनस्य शिक्षावचनम्। १६३ गमनम्। .... ... ... विमलवाहन-प्रत्रज्या-महोत्सवः।
१६४ | मेरुशिरसि अच्युतेन्द्रविहिताजितजिनविमलवाहनस्य पञ्चमुष्टिलोचः। १६५ | पूजनम् । ....
१८० सरियस्य देशना । ....
१६५ | मेरुशिरसि सौधर्मेन्द्रविहिताजितजिनपूजनम्। १८१ विमलवाहनस्य विशुद्धचारित्रपालनम् । ....: १६५ | सौधर्मन्द्रेणाजितप्रभोः मातुः समीपे नयनम् । १८२
१६८
१६०
१७०
१६२
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पृष्ठम् २०० २००
२०० २०१
२०१ २०२ २०२ २०३ २०३ २०४ २०४ २०४ २०५
विषयः अजितजिन-सगरचक्रिजन्मोत्सवः । ... जितशत्रुराजनिर्मितो नामकरणोत्सवः ।
तृतीयः सर्गः। अजित जिन-सगरचक्रिणोर्खाल्यलीला । सगरचक्रिणो विद्याभ्यासः। ... .... अजितजिन-सगरचक्रिणोर्यौवनं पाणि- .... ___ ग्रहणश्च । ... ... ... अजितजिनराज्याभिषेकः तप्तितुर्दीक्षा च । अजितप्रभो राज्यवैभवः। ... अजितजिनस्य दीक्षासङ्कल्पः। सगरस्य प्रार्थना । .... .... सगरस्य राज्याभिषेकः। ... जिनस्य वार्षिकं दानम् । .... अजितजिनप्रव्रज्यामहोत्सवः । अजितप्रभोः प्रव्रज्या । पञ्च दिव्यानि .... .... अजितजिनस्योगविहारिता। .... अजितप्रभोस्तपः । .... अजितजिनस्योग्रचर्या । .. अजितप्रभोः केवलोत्पत्तिः, देवेन्द्राणामा
गमनं च। ... ... ..... समवसरणम् । ... ... भगवतो द्वादशपर्पदा, समवसरणान्तर्गमनश्च । कर्मक्षयजास्तीर्थकृदतिशयाः । प्रभोर्वन्दनार्थ सगरस्य गमनम् । ... अजितप्रभोर्देशना । चतुर्विधं धर्मध्यानम् . आज्ञाविचयमपाय.
_ विचय च । .... ... ... विपाकविचयम् , विपाकः, अष्टौ कर्माणि । संस्थानविचयम लोकस्वरूपं च। ...
पृष्ठम् । विषयः १८३ । अधोलोकः, नरकाः, नरकावासा वलयाश्व। १८४ भवनपतयस्तश्चिह्नानि तदिन्द्राश्च । ....
व्यन्तरा वानव्यन्तरस्तचिह्नानि तदिन्द्राश्च । ज्योतिष्काः । .... ... .... तिर्यग्लोकः, मेरुश्च। ... ... जम्बूद्वीपस्तद्वर्षाणि वर्षधराश्च । ... जम्बूद्वीपहदाः, महानद्यः, विदेहक्षेत्रम् च । विजयाः। ... .... ... जम्बूद्वीपस्य जगती वैतादयगिरयश्च । .... लवणाब्धिः, पातालकलशा वेलन्धरदेवाश्च । धातकी पुष्कराद्धं तद्गता मेरवश्च । .... मानुषोत्तरः। ... ... आर्यानार्यदेशा मनुष्याश्च । ..... अन्तरद्वीपाः। ... .... नन्दीश्वरः। .... कर्मभूमयः, ऊर्ध्वलोकश्च । ... वैमानिकाः। .... .... गणभृतां स्थापना । ... बलिः, गणभृद्देशना च । ...... शासनाधिष्ठायक-देव-देव्यो।
द्विजन्मना सह भगवतः संकेतवार्ता । .. १९५
सुलक्षणा-शुद्धभट्टयाः कथानकम् । ... १९६
सम्यक्त्व-मिथ्यात्वयोर्देवगुरुधर्मणां च .... १९७
स्वरूपम् । .... ... १९७
सम्यक्त्वस्य लक्षणादि। .... १९८
शुद्धभट्टस्य केवलोपार्जनम् । ... .... १९८
चतुर्थः सर्गः। १९८ | सगरस्य चक्ररत्नोत्पत्तिः, तत्पूजा च । ... १९९ दिग्विजयाय प्रयाणकम्। ... १९९ / सगरस्य दिग्विजयः। ... ...
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२२४ ।
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२२७
२२९ २३०
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विषयः
विषयः
पृष्ठम् सगरस्य स्त्रीरत्नप्राप्तिः । ....
सामन्तादीनां शोचनम् । .... ... २३२ सगरस्य विनीतायां प्रवेशः।....
सगरपुत्रान्तःपुरीप्रभृतीनामयोध्यां प्रति सगरस्य चक्रिपदाभिषेकः। ...
२२५ प्रस्थानम् । ... .... .... २३३
मुमर्षणां तेषां अपरिचितेन द्विजेन संस्थापनम्। २३३ पञ्चमः सर्गः।
अपरिचितेन द्विजेन स्वपुत्रमरणमिषेण ... पूर्णमेघसुलोचनयोः पूर्वभवसम्बन्धः । ...
२२६ सगरप्रतिबोधनम् । ....
२३४ मेघवाहनसहस्राक्षयोः पूर्वभवः । .... २२६
सगरस्य विलापः। राक्षसवंशः। .... .... ....
२२६
अपरिचितेन द्विजेन सगरस्याश्वासनम् ।.... २३८ सगरपुत्राणां देशदर्शनाय प्रस्थानम् ,
सुबुद्धिमन्व्युक्तं तान्त्रिको दाहरपम् । ... २३८ ___अपशकुनानि च। ....
द्वितीयमन्युक्तं अपरमिन्द्रजालिकोदादरणम्। २३९ सगरपुत्रैः अष्टापदगिरेर्दर्शनम् । .... २२८
गङ्गाप्रवाहस्खलनाय भगीरथस्य गमनम् । २४८ अष्टापदे जिनार्चनम् । ..
जहनुप्रभृतीनां सगरपुत्राणां भगीरथस्य च सगरपुत्रैः अष्टापदगिरेः परिखाविधानम् ।
पूर्वभवाः । .... सगरात्मजानां नागराजेन भस्मीकरणम् ।
.... २३१ सगरस्य प्रव्रज्या । .... .... ....
२५१ षष्ठः सर्गः । सगरस्यज्ञा केवलनं।
२५२ सगरपुत्रमरणे तत्सैन्यानां विलापः। .... २३२ अजितस्वामिसगरयोनिर्वाणम् ।
२५२ सगरपुत्राणां मरणे तदन्तःपुरीणां परिदेवनम् । २३२ अजितप्रभुनिर्वाण महोत्सवः ।
२५३ तृतीयम् पर्व विषयः
पृष्ठम् विषयः
पृष्ठम् प्रथमः सर्गः। सम्भवनामस्थापनम्।
२६२ सम्भवजिनपूर्वभवचरितम्। ..... ... २५५ पित्रा राज्यसमर्पणम् ... .... २६३ दुर्भिक्षः।
सम्भवजिनवार्षिकदानं दीक्षा च।
२६४ संसारविरागता ।
शक्रस्तुतिः। ... ...
२६५ सम्भव जिनस्य गर्भावतरणम् ।
सम्भवजिनपारणम् , पञ्च दिव्यानि, पीठं चतुर्दश स्वप्नाः । .
केवलज्ञानश्च ।
२६५ सम्भवजिनजन्म दिक्कुमारीकृतो महोत्सवश्च । २६०
समवसरणरचना ।
२६६ चतुष्षष्टीन्द्रविहितः सम्भवजिनजन्मोत्सवः । २६० चतुःषष्टिः इन्द्राः ... .... ... २६१
अनित्यभावनागर्भिता सम्भवजिनदेशना । २६७ शक्रेन्द्रेण कृता प्रार्थना
२६२ | त्रिमुखो यक्षः, दुरितारिश्च यक्षिणी । .... २६८
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पृष्ठम्
२६८
२८४ २८५ २८५ २८६ २८६
२७२ ।
२८७
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२७३
२८७ २८८ २८९ २९० २५०
विषयः सम्भवजिनपरिवारादिकम् ।.... प्रभोर्निर्वाणम्। ... .... ....
द्वितीयः सर्गः। अभिनन्दनजिनपूर्वभवचरितम् । ... अभिनन्दनजिनजन्मनगरी पितरौ च। ... चतुर्दश स्वप्नाः, जन्मोत्सवश्च । जिनेश्वराय राज्यसमर्पणम् ।.... .... वार्षिकदानं, दीक्षा च । ... जिनकेवलज्ञानम् । अशरणभावनागर्भा देशना । यक्ष-यक्षिण्यौ। ... जिनपरिवारादिकम् । अभिनंदनजिननिर्वाणम् ।
तृतीयः सर्गः। निष्पुत्रताया दुःखम् । कुलदेवीवरदानम् । पुरुषसिंहनामस्थापनम् । दशधा यतिधर्मः। ... प्रव्रज्याया दुष्करत्वम् । .... चातुर्गनिकभवपासजं दुःखम् । सुमतिस्वामिजन्मपुरी पितरौ च । जिनमात्रा विवादभञ्जनम् । ... जिनजन्मादिकम् । ... ... सुमतिजिनदीक्षा । ... केवलज्ञानम् । ... .... अष्टप्रातिहार्यगर्भिता स्तुतिः । एकत्वभावनागर्भिता जिनदेशना सुमतिजिनशासनदेवदेव्यौ। जिनपरिवारः। ... जिननिर्वाणम् । ...
पृष्ठम् विषयः
चतुर्थः सर्गः। २६८
पद्मप्रभजिनपूर्वभवचरितम् ।
जन्मपुरी पितरौ च । २६९ जिनजन्मोत्सवः । ... २७० पद्मप्रभजिनस्य प्रव्रज्या। २७१ पद्मप्रभजिनदेशना
नरकगतिक्लेशस्वरूपम् । तिर्यग्गतिदुःखस्वरूपम्। ...
मनुष्यगतिदुःखस्वरूपम्। ...
| देवगतिक्लेशवर्णनम्। .... २७४ पद्मप्रभस्वामिशासनदेवदेव्यौ । २७४ पद्मप्रभजिनपरिवारः। .... पद्मप्रभजिननिर्वाणम् । ...
पञ्चमः सर्गः। सुपार्श्वजिनपूर्वजन्मसम्बन्धः । २७६
सुपार्श्वजिनजन्मादि। ... २७६
जिनस्य दीक्षा केवलज्ञानं च । सुपार्श्वजिनदेशना । ... जिनस्य यक्ष-यक्षिण्यौ। ....
सुपार्श्वजिनपरिवारः। २७९
जिननिर्वाणम् । ... २८०
षष्ठः सर्गः। २८१ २८१
चन्द्रप्रभजिनपूर्वभवसम्बन्धः... २८१
चन्द्रप्रभजिनजन्म। .. २८२ चन्द्रप्रभजिनस्य प्रव्रज्यादि ।... २८२
चन्द्रप्रभजिनस्य देशना । ...
चन्द्रप्रभजिनयक्ष-यक्षिण्यौ। २८३ चन्द्रप्रभपरिवारः। २८३ चन्द्रप्रभनिवाणम् । ...
२९१ २९२
२७७
२७८
२९३ २९४ २९४ २९४
२७८
२९६
0
२९७ २९८
२९९ २९९
२८३
३००
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३०३
३०८
اس سد
३०३
सप्तमः सर्गः। विषयः
पृष्ठम् विषयः
सुविधिजिननिर्वाणम् ।
पृष्ठम् सुविधिजिनपूर्वभवसम्बन्धः ।
३०१ अष्टजिनान्तरे तीर्थोच्छेदश्च
.. ३०६
अष्टमः सर्गः। सविधिजिनजन्मादि। ... .... ३०२ शीतलजिनपूर्वभवसम्बन्धः ।
३०७ सुविधिजिनदीक्षादि।
शीतलजिनजन्मादि । .. अष्टकर्मोत्तरप्रकृत्याश्रवस्वरूपज्ञापिका सुविधि
शीतलजिनप्रव्रज्यादि । .... स्वामिदेशना।
आश्रव-संवरस्वरूपगर्भा शीतलजिनदेशना। ३१० सुविधिजिनशासन-देव-देव्यो। .... ३०५ शीतलजिनयक्ष-यक्षिण्यौ परिवारादि च । सुविधिजिनपरिवारः।
३०५ शीतलजिननिर्वाणम् । ... ... ३१०
चतुर्थ पर्व विषयः पृष्ठम् । विषयः
पृष्ठम् प्रथमः सर्गः। शक्रस्तुतिः ।
३४५ श्रेयांसजिनपूर्वभवसम्बन्धः।
पाणिग्रहणार्थ पितुराज्ञा ।
३४७ श्रेयांसबिनगर्भावतारः।
३१४ वासुपूज्यस्य प्रत्युत्तरः। ..... श्रेयांसजिनजन्मादि ।
३४८ जिनप्रव्रज्यादि ।
द्विपृष्ठवासुदेवस्य विजयबलदेवस्य च वृत्तान्तः। ३४८ त्रिपृष्ठवासुदेव-अचलबलदेवादीनां चरितम् । वासुपूज्यस्य समवसरणम् । ...
३५३ श्रेयांसजिनस्य केवलज्ञानम् ।
३३९ जिनस्य देवताकृतस्तुतिः ।
३५३ समवसरणम् । ....
वासुपूज्यजिनस्य देशना ।
३५३ जिनस्य देवताकृतस्तुतिः। ...
जिनस्य परिवारादि । श्रेयांसजिनस्य देशना । ..
३४०
निर्वाणम् । निर्जरास्वरूपगर्भा श्रेयांसजिनदेशना । ३४१
तृतीयः सर्गः। जिनस्य परिवारादि ।
विमलनाथजिनपूर्वभवसम्बन्धः। ... ३५६ जिनस्य निर्वाणम् । त्रिपृष्ठस्य नरकगमनम् ।
विमलनाथजिनजन्म । अचलबलदेवस्य सिद्धिगमनम् ।
३४३
विमलनाथजिनप्रव्रज्यादि। .... .... ३५८ द्वितीयः सर्गः।
स्वयम्भूवासुदेवस्य रुद्रबलदेवस्य च वृत्तान्तः। ३५८ श्रीवासुपूज्यपूर्वभवसम्बन्धः। ... ३४४
विमलानाथजिनस्य कैवल्यं समवसरणं । ३६१ वासुपूज्यजिनजन्मोत्संववर्णनम् । ... ३४४ | विमलजिनस्य धर्मदेशना। .... ... ३६२
... ३१६ बासुपूज्यस्य दीक्षा।
३३९
५०
३४१
سه
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पृष्ठम्
३७७
विषयः
पृष्ठम् । विषयः विमलजिनस्य परिवारादि। ...
| धर्मनाथजिनजन्म। विमलजिनस्य निर्वाणम् । .....
३६३ जिनप्रव्रज्या। ... चतुर्थः सगः।
पुरुषसिंहवासुदेवस्य सुदर्शनबलदेवस्य च ...
वृत्तान्तः । .... अनन्तनाथपूर्वभवसम्बन्धः । ....
धर्मनाथजिनस्य कैवल्यं समवसरणं च । ... जिनजन्म। ... ....
धर्मनाथ जिनस्य धर्मदेशना। ... .... अनन्तजिनप्रव्रज्यादि।
३६६
धर्मनाथ जिनस्य परिवारः। ... .... पुरुषोत्तमवासुदेवस्य सुप्रभबलदेवस्य वृत्तान्तः ।
प्रभोः निर्वाणम् । ... .... .. अनन्तनाथजिनस्य केवलज्ञानं समवसरणं च ।। ३७० जिनस्य धर्मदेशना । ....
षष्ठः सर्गः। अनन्तनाथजिनस्य परिवारादि ।
मघवचक्रवर्तिचरितम् । ३७४
....
....... जिनस्य निर्वाणम् । .... ... ३७४
सप्तमः सर्गः। पञ्चमः सर्गः।
सनत्कुमारचक्रिचरितम् । ... धर्मनाथ जिनस्य पूर्वभवसम्बन्धः । ... ३७५
३८१ ३८२ ३८६ ३८६
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३८७
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॥ अर्हम् ॥
॥ नमः प्रथमानुयोगप्रणेतृभ्यः श्रीकालकार्येभ्यः ॥
कलिकालसर्वज्ञश्री हेमचन्द्राचार्यविनिर्मितं
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
*cedes
अजितस्वामि- सगरचक्रवर्त्तिप्रतिबद्धं द्वितीयं पर्व ।
प्रथमः सर्गः
जयन्त्यजितनाथस्य, जितशोर्णमणिश्रियः । नम्रेन्द्रवदनादर्शाः, पादपद्मद्वयीनखाः ॥ १ ॥ कर्माहिपाशनिर्णाशजाङ्गुलीमन्त्रसन्निभम् । अजितखामिदेवस्य, चरितं प्रस्तत्रम्यतः ॥ २ ॥
trenacarai, जम्बूद्वीपस्य मध्यगम् । दुःषमसुषमाप्रायं, विदेहक्षेत्रमस्ति तत् ॥ ३ ॥ अस्ति तत्र महानद्याः, सीताया दक्षिणे तटे । विजयो वत्स इत्याख्याविख्यातो विपुलर्द्धिकः ॥ ४ ॥ एकदेश इव स्वर्गप्रदेशस्य भुवं गतः । अभ्राजिष्ट स विभ्राणो, रामणीयकमद्भुतम् ॥ ५ ॥ तत्रोपर्युपरि ग्रामं, ग्रामैरथ पुरं पुरैः । निवसद्भिर्यदि परं, नभस्येवं हि शून्यता ।। ६ ।। सम्पदा निर्विशेषाणां, परस्परमतुच्छया । पूग्रमाणां तत्र भेदो, राजाश्रयकृतो यदि ॥ ७ ॥ स्वच्छखादुजलास्तत्र, महावाप्यः पदे पदे । क्षीराम्भोनिधिनिर्गच्छत्सिराभिरिव पूरिताः ॥ ८ ॥ तत्र चाऽलब्धमध्यानि, स्वच्छानि च महान्ति च । स्थाने स्थाने तडागानि, मनांसीव महात्मनाम् ॥ ९ ॥ तत्राऽऽर्द्रवल्लीबहला, आरामाच पदे पदे । तन्वन्ति मेदिनीदेव्याश्चित्रपत्रलता भ्रमम् ॥ १० ॥ ग्रामे ग्रामे वाटास्तत्र पान्थतृषाच्छिदः । महेक्षुभिः शोभमाना, रसाम्भस्कुम्भसन्निभैः ॥ ११ ॥ तत्राऽनुगोकुलं गावः, प्लावयन्ति महीतलम् । क्षीरनद्य इवाऽङ्गिन्यः, प्रक्षरत्क्षीरनिर्झराः ॥ १२ ॥ तत्राssसीनैः पथि पथि, पान्थद्वन्द्वैः फलद्रुमाः । विराजन्ते युगलिभिः, कुरुकल्पद्रुमा इव ॥ १३ ॥
10
तस्मिन्नवन्यास्तिंलकसनाभिः सम्पदां निधिः । यथार्थनामा नगरी, सुसीमेत्यस्ति विश्रुता ॥ १४ ॥ असाधारणया ऋद्धया, पुरीरत्नं चकास्ति तत् । आविर्भूतं भुवो मध्यात्, किञ्चित् पुरमिवाऽऽसुरम् ॥ १५ ॥ 15 तत्रैकाकिन्योऽपि नार्यः, सञ्चरन्त्यो गृहान्तरे । सत्सखीका इवाऽऽभान्ति, सङ्क्रान्ता रत्नभित्तिषु ॥ १६ ॥ परिखाम्भोधिपरिधिश्चित्ररत्नशिलामयः । जगत्यां जगतीवोच्चैः, प्राकारस्तत्र शोभते ॥ १७ ॥ †सञ्चरद्भिर्गजैस्तत्र, प्रक्षरन्मदवारिभिः । प्रशान्तपांसवो रथ्या, नित्यं वर्षाजलैरिव ॥ १८ ॥ नीरङ्गीषु कुलस्त्रीणां, कुमुदिन्युदरेष्विव । लभन्ते यंत्र सूर्योत्रा, नाऽवकाशं मनागपि ॥ १९ ॥
।
१ पद्मरागमणिः । २ कर्मनागपाशनाशे जाङ्गुली मासमम् । * °म्यहम् ल ॥ ३ नाभिसदृशस्य । + वाऽस्ति शू' खंता ॥ ४ इक्षुक्षेत्राणि । ५ तिलकसदृशः । ६ असुरसम्बन्धि । संवहद्भिर्ग खंता ॥ ७ लज्जावस्त्रेषु । ९ तत्र पा ॥ ८ सूर्यकिरणाः ।
त्रिषष्टि, २१
5.
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१५८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीत
[द्वितीयं पर राजन्ते तत्र चैत्येषु, चलद्धजपटाञ्चलाः । मा गाश्चैत्योपरीत्यर्क, निषेधन्त इवाऽसकृत् ॥ २०॥ श्यामीकृतनभांस्यम्भाप्लुतभूमीनि भूरिशः । उद्यानानि महीलग्नमेघसध्यश्चि तत्र च ॥ २१ ॥ खर्णरत्नमयास्तत्र, क्रीडाशैलाः सहस्रशः । आरामरम्यकटका, मेरोरिव कुमारकाः ॥ २२ ॥ सा च धर्मार्थकामानां, युगपत् सुहृदामिव । क्रीडार्थमेकसङ्केतनिकेतनमिवोचकैः ॥ २३ ॥ भोगावत्यमरावत्योरधऊर्ध्वस्थयोः पुरोः । सोयेवाऽन्तरे जाता, सा संधीची महर्द्धिभिः ॥ २४ ॥
नगर्यामभवत् तस्यां, राजा विमलवाहनः । *विमलात्माऽतिविमलैर्गुणोस्त्रैश्चन्द्रमा इव ॥ २५ ॥ प्रपुष्णन् लालयन् वृद्धि, प्रापयन् लम्भयन् गुणैः । स प्रजाः पालयामास, खापत्यानीव वत्सलः ॥२६॥ अन्यायं स निजस्याऽपि, न सेहे न्यायनिष्ठुरः । चिकित्स्यते हि निपुणैरङ्गोद्भवमपि व्रणम् ॥ २७ ॥ लीलयैव महौजस्कः, स विश्वेगवनीभुजाम् । शिरांसि नमयामास, समीर इव भूरुहाम् ॥ २८ ॥ त्रिवर्ग पालयामास, परस्परमबाधितम् । नानाविधं प्राणिगणं, महात्मेव तपोधनः ॥ २९॥ औदार्य-धैर्य-गाम्भीर्य-क्षान्तिप्रभृतयो गुणाः । तस्याऽन्योऽन्यमभूष्यन्तोपवनस्सेव पादपाः ॥ ३०॥ पर्यन्तो गणास्तस्य, सौभाग्यैकधरन्धराः । कस्य न हलगन कण्ठे, चिरायातवयस्यवत?॥३१॥ पर्वतारण्यदुर्गादिदेशेष्वपि महौजसः । सँदागतेरिख गतिः, शासनं तस नाऽस्खलत् ॥ ३२ ॥
आक्रान्ताशेषदिक्कस्य, प्रसरचण्डतेजसः । लुलुठुर्भूभृतां मूर्ध्नि, पादास्तस्य वेरिव ॥ ३३ ॥ 15 सर्वज्ञो भगवान् स्वामी, यथा तस्य महामतेः । भूभुजामपि सर्वेषां, स एवैकस्तथाऽभवत् ॥ ३४ ॥
विसत्रितामित्रबलः, सुत्रामेवैकविक्रमः । साधुभ्य एव स शिरो, नमयामास बाल्यतः ॥ ३५॥ यथा तस्याऽतुला शक्तिबर्बाह्यानां द्विषतां जये । आन्तराणामपि तथा, बभूवैकविवेकिनः ॥ ३६॥ दुर्दमं दमयामास, बलादुत्पथगत्वरम् । यथेभ-वाजिप्रभृति, स इन्द्रियगणं तथा ॥ ३७॥
स ददौ दानशीलोऽपि, पात्र एव यथाविधि । पात्रे बहुफलं तद्धि, शुक्तावम्भोदवारिवत् ॥ ३८॥ 20 विदधानः परपुरप्रवेशमिव सर्वतः । प्रजाः प्रवर्तयामास, धर्मेऽध्वनि स धर्मवित् ॥ ३९ ॥
चरित्रेण पवित्रेण, सोऽवासयदिदं जगत् । मलयोवी परिमलेनेव चन्दनपादपः ॥ ४०॥ द्विजयादातुरत्राणादर्थिसम्प्रीणनादपि । युद्धवीरो दयावीरस्त्यागवीरश्च सोऽभवत् ॥४१॥ स एवं राजधर्मस्थः, स्थिरधीरप्रेमद्वरः । चिरं ररक्ष वसुधा, सुधामिव फणीश्वरः ॥ ४२ ॥ कृत्याकृत्यविदस्तस्य, सारासारं विविश्चतः । अन्येधुरेवमुत्पेदे, भववैराग्यवासना ॥ ४३ ॥
योनिलक्षमहावर्त्तनिपातक्लेशभीषणः । पारावार इवाऽपारः, संसारो धिगसावहो। ॥४४॥ इहेन्द्रजालवत् स्वमजालवच्च भवे हहा! । क्षणाद् दृष्टैः क्षणानष्टैरर्थैर्मुह्यन्ति जन्तवः ॥ ४५ ॥ यौवनं पवनोद्भूतपताकाञ्चलचञ्चलम् । आयुः कुशाग्रविश्रान्तजलविन्दुचलाचलम् ॥ ४६॥ अमुष्याऽप्यायुषो गर्भवासे नरकवासवत् । अत्यन्तदुःखाद् गच्छन्ति, मासाः पल्योपमोपमाः॥४७॥ अथ जातस्य बालत्वेऽप्यायुर्भागः कियानपि । परप्रणेयस्य सतो, मुधाऽन्धस्येव गच्छति ॥ ४८ ॥ इन्द्रियार्थरसस्वादुरसास्वादेन यौवने । मत्तस्यैव वृथा गच्छत्यायुरंशः कियानपि ॥ ४९ ॥ त्रिवर्गसाधनाशक्तवपुषश्च वपुष्मतः । आयुः शेषं वृथा याति, प्रसुप्तस्येव वार्द्धके ॥ ५० ॥ इत्थं विदन्नपि भवी. भवायैव विचेष्टते। कामं रोगीव रोगाय, विषयास्वादलम्पटः ॥५१॥ यौवने विषयेभ्योऽसौ, यथा द्युत्तिष्ठते भवी । तथोत्तिष्ठेत चेन्मुक्त्यै, किं हि न्यूनं तदा भवेत् १ ॥५२॥ वयवृतैः कर्मपाशैः, खं भवी वेष्टयत्यहो। । स्खलालातन्तुसन्तत्या, जालकार इव कृमिः ॥५३॥
सरशानि । २ समो मध्यप्रदेशः। ३ भगिनीव । ४ तुल्या । * विमलाकोऽतिल ॥ ५ सर्वत्र । ६ पवनस्य । इन्द्रः। क्रोधादीनाम् । ९ परकायप्रवेशमिव । १० अरिजयात् । परापेक्षारहितः । १२ समुद्रः । १३ पराधीनस्य । ५ भात्मानम् ।
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प्रथमः सर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१५९ अम्भोधौ युगशमिलाप्रवेशन्यायतो भवे । कथश्चिन्मानुषं जन्म, लभ्यते पुण्ययोगतः ॥५४ ॥ तत्रापि चाऽऽयंदेशेषु, जन्मिनो जन्म जायते । महतश्च कुलस्याऽऽप्तिः, सेवा गुरुकुलस्य च ॥ ५५ ॥ इति प्राप्याऽपि सामग्री, शिवाय यतते न यः । सम्पन्नायां रसवत्यां, स तिष्ठति बुभुक्षितः ॥५६॥ उभयोरपि चोर्ध्वाऽधोगत्योः स्वायत्तयोरिह । धावत्यधोमुखं प्रायो, जडधीजलवज्जनः ॥ ५७॥ समये साधयिष्यामि, स्वार्थमित्याशयं वहन् । प्राप्यतेऽर्वाग यमदूतैररण्ये तस्करैरिव ॥ ५८॥ कृत्वाऽघमपि यान पुष्येत्, तेषामुत्पश्यतामपि । अत्राणो रङ्कवजन्तुः, कृष्ट्वा कालेन नीयते ॥ ५९॥ ततश्च नीतो नरके, लभतेऽनन्तवेदनाः। जन्मान्तरानुधावीनि, कर्माणि ऋणवन्त्रणाम ॥६॥ माताऽसौ मे पिता चाऽसौ, भ्राताऽसावभूरसौ । इति स्वबुद्धिर्मिथ्यैव, शरीरमपि न स्वकम् ॥ ६१॥ एषां पृथक पृथक स्थानादेयुषामिह केवलम् । एकत्राऽवस्थितिः स्थाने, पक्षिणामिव पादपे ॥ ६२॥ ततोऽप्यन्यत्र गच्छन्ति, पृथक् स्थानेषु देहिनः । नक्तमेकत्र शयिताः, पान्था इव निशात्यये ॥ ६३ ॥ 10 अरघट्टघटीन्यायेनैहिरेयाहिरामिह । कुर्वतां देहिनां हन्त!, कः स्वकः? कः परोऽथवा ? ॥ ६४॥ तत् त्यक्तव्यं कुटुम्बादि, त्यक्तव्यं पुरतोऽप्यदः । स्वार्थायैव यतितव्यं, स्वार्थभ्रंशो हि मूर्खता ॥६५॥ एकान्तानन्तसुखदः, सार्थो निर्वाणलक्षणः । मूलोत्तरगुणैः स स्यात्, प्रकाशोर्ककरैरिव ॥६६॥
इति चिन्तयतो राज्ञश्चिन्तामणिरिव स्वयम् । श्रीमानरिन्दमो नामोद्याने सूरिः समाययौ ॥ ६७॥ तदागमनवाता च, समाकर्ण्य महीपतिः। पीतपीयूषगण्डूष, इव हर्ष समासदत् ॥ ६८॥ 15 तं वन्दितुमथाऽऽनन्दादचालीदचलापतिः । मायूरपत्रातपत्रैः, कुर्वन् साब्दमिवाऽम्बरम् ॥ ६९ ॥ लक्ष्मीदेव्या निपतयां, कटाक्षाभ्यामिवोच्चकैः । स्पृश्यमानश्चामराभ्यामुभयोरपि पार्श्वयोः ॥ ७० ॥ तुरङ्गैः वर्णसन्नाहैः, वर्णपक्षैः खगैरिव । वेगिभिर्विजितश्वासै, रुन्धानः ककुभोऽखिलाः ॥ ७१ ॥ अञ्जनाचलचूलाभिर्जङ्गमाभिरिवामितः । महास्तम्बेरमै रान्यञ्चयन्नवनीतलम् ॥ ७२ ॥ खयं समन्तात् सामन्तैभक्तितः परिवारितः । निजस्वामिमनोज्ञानान्मनःपैर्ययिकैरिव ॥ ७३ ॥ 20 बन्दिकोलाहलस्पर्द्धादिव प्रसृमरैर्दिवि । नादैर्मङ्गलतूर्याणां, दूरात् पिशुनितागमः ॥ ७४ ॥ करेणुकाधिरूढाभिर्वारस्त्रीभिः सहस्रशः । शृङ्गाररसवापीभिः, परितः परिवारितः ॥ ७५ ॥ सिन्धुरस्कन्धमारूढश्छायाकुलनिकेतनम् । उद्यानं नन्दनप्रायं, पाप तद् भूमिवासवः ॥ ७६ ॥
[सप्तभिः कुलकम् ] उत्तीर्य कुञ्जरस्कन्धादवनीपतिकुञ्जरः । प्रविवेश तदुद्यानं, सिंहो गिरिगुहामिव ॥ ७७ ॥ वज्रसंवर्मितमिवाऽभेद्यं मन्मथपत्रिणाम् । रागरोगागंदेकारं, द्वेषद्वेषिद्विषन्तपम् ॥ ७८॥ क्रोधानलनवाम्भोदं, मानगुममहागजम् । मायोरगीगरुत्मन्तं, लोभशैलमहाशनिम् ॥ ७९ ॥ मोहान्धकारतरणिं, तपस्तेजोऽनलारणिम् । क्षमासर्वस्वधरणिं, बोधिवीजाम्बुसारणिम् ॥ ८॥ आराममिव धर्मद्रोरात्मारामं महामुनिम् । आरादरिन्दमाचार्यमद्राक्षीत् तत्र पार्थिवः ॥ ८१॥
[चतुर्भिः कलापकम् ] 30 कांश्चिदुत्कटिकासीनान्, कांश्चित् पद्मासनस्थितान् । गोदोहिकासनान् कांश्चित, कांचिद् वीरासनासितान् ॥ वज्रासनजुषः कांश्चित, कांश्चिद् भद्रासनस्थितान् । कांश्चिद् दण्डासनासीनान्, कांश्चिद् वल्गुलिकासनान् ।। कांश्चित् क्रौञ्चनिषदनान्, कांश्चिद्धसासनस्थितान् । पर्यङ्कासनिनः कांश्चित्, कांश्चिदुष्ट्रासनस्थितान् ॥८॥
स्वाधीनयोः। २ बन्धूनाम् । * °रानुबन्धीनि खंता॥ ३ पुत्रः । ४ आगतानाम् । ५ गमनागमनम् । मोक्ष. साक्षणः। ७ राजा। ८ मेघसहितम् । ९ महागजैः। १० नम्रीकुर्वन् । १५ मनःपर्यायज्ञानिभिः । १२ सूचितागमनः ।
वाग्यासस्थानम् । १५कामबाणानाम् । १५ वैद्यम् । १६सर्यम् ।
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१६०
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीयं पर्व कांश्चित् ताासनान् कांश्चित्, कपालीकरणस्थितान् । आम्रकुब्जासनान् कांश्चित्, कांचन स्वस्तिकासनान् ॥ दण्डपद्मासनान् कांश्चित्, कांश्चित् सोपाश्रयासनान् । कायोत्सर्गस्थितान् कांश्चित, कांश्चिदुक्षासनस्थितान्॥ निरपेक्षान् शरीरेऽपि, नियूंढस्वप्रतिश्रवान् । विविधेपूपसर्गेपु, समरेषु भटानिव ॥ ८७ ॥ अन्तरङ्गानरीन जिष्णून् , सहिष्णूंश्च परीपहान् । तपोध्यानैरलम्भूष्णून् , साधूनपि ददर्श सः ॥ ८८ ॥ उपेत्याऽरिन्दमाचार्यान् , ववन्दे मेदिनीपतिः । विभ्राणः पुलकव्याजाद्, भक्तिमङ्कुरितामिव ॥८९॥ सूरिवर्योऽप्युपमुखं, विन्यस्तमुखवत्रिकः । धर्मलाभाशिपमदात् , सर्वकल्याणमातरम् ॥ ९ ॥ नरेश्वरोऽपि विनयात् , तनुं सङ्कोच्य कूर्मवत् । अवग्रह भुवं मुक्त्वा, निषसाद कृताञ्जलिः ॥ ९१ ॥ शुश्राव देशनां तस्मादाचार्यादवनीपतिः । एकतानमनास्तीर्थकरादिव पुरन्दरः ॥ ९२ ॥
राज्ञस्तद्भववैराग्यं, धर्मदेशनया तया । व्यशिष्यताऽवदातत्वं, शरदेव हिमश्रुतेः ॥ ९३ ॥ 10 आचार्यपादान् वन्दित्वा, रचिताञ्जलिसम्पुटः । गिरा विनयगर्भिण्येत्यभ्यधाद् वसुधाधवः ॥ ९४ ॥
अनन्तदुःखरूपाणि, फलान्यनुभवन्नपि । संसारविपवृक्षस्य, जनो वैराग्यभाग न हि ॥ ९५ ॥ कथं संसारवैराग्यं, जातं भगवतामिह ? । आलम्बनविभावेन, भवितव्यं हि केनचित् ॥ ९६ ॥ ___ दन्तांशुज्योत्स्नया व्योमतलं धवलयनथ । एवमाचार्यचन्द्रोऽपि, सप्रसादमभापत ॥ ९७ ॥
संसारे धीमतां सर्वमपि वैराग्यकारणम | विशेषतस्तु वैराग्यहेतः कस्यापि कश्चन ॥९८॥ 15 अहं हि गृहवासस्थः, पुरा दिग्जयहेतवे । हस्त्यश्व-रथ-पादातचमूभिः सहितोऽच ठम् ॥ १९॥
मार्गान्तराले सततस्निग्धच्छायामनोरमम । जगद्धमणखिन्नाया, विश्रामौक इव श्रियः॥१०॥ नृत्यन्तमिव कङ्केल्लिलोलपल्लवपाणिभिः । हसन्तमिव विहसन्मल्लिकास्तवकोत्करैः ॥ १०१॥ रोमाञ्चितमिवोदश्चत्कदम्बकुसुमोच्चयैः । वीक्ष्यमाणमिव स्मेरकेतकीकुसुमेक्षणैः ॥ १०२॥ सन्तापिनस्तपनांशून् , दूरादापततोऽपि हि । साल-तालद्रुमभुजैनिधन्तमिवोच्छ्रितैः ॥ १०३ ॥ दत्तगुप्यद्गुरुमिवाऽध्वगार्थं वटपादपैः । सजीकृतपाद्यमिव, सारणीभिः पदे पदे ॥ १०४ ॥ शृङ्खलिताम्भोदमिव, महद्भिररघट्टकैः । गुञ्जन्मधुकरारावैराह्वयन्तमिवाऽध्वगान् ॥ १०५ ॥ तमाल-ताल-हिन्ताल-चन्दनैर्मध्यवर्तिभिः । दिवाकरकरत्रासात् , तिमिरैरिव सेवितम् ॥ १०६ ॥ चूत-चम्पक-पुन्नाग-नाग-केसरकेसरैः । जगत्येकातपत्रत्वं, तन्वानं सौरभैश्रियः ॥ १०७ ॥
ताम्बूली-लवली-द्राक्षावितानैरतिसन्ततैः । पान्थयूनां विना यत्नं, तन्वन्तं रतिमण्डपान् ॥ १०८ ॥ 25 भद्रशालमिवाऽऽयातं, मेरुशैलतलावनेः । भृशाभिराममारामं, तदाऽद्राक्षमहं वजन् ॥ १०९॥
चिरेण दिग्जयं कृत्वा, निवृत्तः पुनरप्यहम् । आरामस्याऽन्तिके तस्य, सह चम्वा समागमम् ॥ ११० ॥ उत्तीर्य वाहनेभ्योऽहं, कौतुकात् सपरिच्छदः । तदन्तः प्रविशन्नन्यादृक्षमद्राक्षमग्रतः ॥ १११ ॥ __ इति चाऽचिन्तयमहं, भ्रान्तोऽन्यत्र किमागमम् ? । इदं किं वा परावृत्तमिन्द्रजालमथेदृशम् १ ॥११२॥
यत् क्व पत्रलता साऽर्ककरप्रसरवारणी? । क वाऽसावातपस्सैकातपत्रत्वमपत्रता ॥ ११३ ॥ 30 क्क सा कुञ्जेषु विश्रान्तरमणीरमणीयता ? । निद्रायमाणाजगरदारुणत्वमिदं क्व च ॥ ११४ ॥
कलापिकलकण्ठादिमधुरालापिता क्व सा । विलोलकाकोलकुलरो व्याकुलता क्व च ? ॥ ११५ ॥ प्रलम्बलम्बमानाशिम्बीबहलता व सा? । क्व चैषा शुष्कशाखाग्रदोलायितभुजङ्गता ॥ ११६ ॥ क च सा कुसुमामोदसुरभीकृतदिक्कता ? । चिल्ली-कपोत-ध्वासादिविष्टादुर्गन्धता क्व च ॥ ११७ ॥
निर्वाहितस्वप्रतिज्ञान् । २ एकाग्रचित्तः। ३ इन्द्रः। * °याऽनया ल॥ ४ विशेष जातम् । ५ उजवलत्वम् । पचन्द्रस्य । ७विश्रामस्थानम्। ८ उन्नतैः। ९ क्षुद्रनदीभिः। १० सुगन्धलक्ष्याः । ११ पत्रराहित्यम् । १२ मयूरकोकिलादि। १३ काकपक्षिविशेषः। १४ कठोरध्वनिः। १५ काकः।
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१६१
प्रथमः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । प्रसूनरसनिस्सन्दस्तीमितावनिता व सा? । क ज्वलद्धाष्ट्रसिकतातुल्यसन्तापपांसुता ? ॥ ११८ ॥ फलप्राग्भारभारावनम्रपादपता कसा? । मूलोपेदेहिकाग्रस्तपतितद्रुमता क च ॥ ११९ ।। अनेकवल्लीवलयलटभा वृतयः क ताः । क्व चैताः सपेनिमुक्तास्तोकनिर्माकदारुणाः ॥ १२०॥ तले तरूणां प्रचुरः, प्रसूनप्रकरः क्व सः? । उद्भूतस्थलेशृङ्गाटकण्टका उत्कटाः क्व च ॥ १२१॥ मन्ये यथाऽयमारामो, जज्ञे सम्प्रत्यतादृशः । तथा संसारिणः सर्वे, संसारस्थितिरीदृशी ॥ १२२ ॥ 5 सौन्दर्येण स्वकीयेन, य एव मदनायते । यस्तो रोगेण घोरेण, कङ्कालति स एव हि ॥ १२३ ॥ य एव छेकताभाजा, वाचा वाचस्पतीयते । कालान्मुहुःस्खलजिह्वः, सोऽपि मूकायतेतराम् ॥ १२४ ॥ चारुचङ्क्रमणशक्त्या, यो जात्यतुरगायते । वातादिभग्नगमनः, पयूयते स एव हि ॥ १२५ ॥ हस्तेनौजायमानेन, हस्तिमल्लायते च यः । रोगाद्यक्षमहस्तत्वात् , स एव हि कुणीयते ॥ १२६ ॥ दूरदर्शनशक्त्या च, गृध्रायेत य एव हि । पुरोऽपि दर्शनाशक्तेरन्धायेत स एव हि ॥ १२७ ॥ 10 क्षणाद् रम्यमरम्यं च, क्षणाच्च क्षममक्षमम् । क्षणाद् दृष्टमदृष्टं च, प्राणिनां वपुरप्यहो। ॥ १२८॥ इति चिन्तयतो धाराधिरूढमभवत् तदा । मम संसारवैराग्यं, जपतो मत्रशक्तिवत् ॥ १२९ ॥ महामुनीनामभ्यणे, कर्मकक्षहुताशनम् । निर्वाणचिन्तामाणिक्य, ततोऽहं व्रतमात्तवान् ॥ १३० ॥
पुनः प्रणम्य शिरसाऽऽचार्यवर्यमरिन्दमम् । विवेकवान् महीपालो, भक्तिमानभ्यधादिति ॥ १३१॥ निरीहा निर्ममाः सन्तः, पूज्यपादा अमी इमाम् । पुण्यैरसादृशामेव, विहरन्ते वसुन्धराम् ॥ १३२॥ 15 इहाऽतिघोरे संसारे, जनो वैषयिकैः सुखैः । अन्धकूपे तटतृणैश्छन्ने पतति गौरिव ॥ १३३ ॥ तस्साच प्राणिनस्त्रातुं, विधत्ते भगवानिह । कारुण्यवानहरह?षणामिव देशनाम् ॥ १३४ ॥ न श्रियो न कलत्राणि, न पुत्रा न च बान्धवाः । अस्मिन्नसारे संसारे, सारं गुरुगिरः परम् ॥ १३५ ॥ पर्याप्तं सम्पदा तन्मे, विद्युल्लेखाविलोलया । कृतमापातमधुरैर्विषयैर्विषसन्निभैः ॥ १३६ ॥ कलत्र-पुत्र-मित्राद्यैरिहलोकसखैरलम् । भवाब्धितारणतरी, देहि दीक्षां प्रसीद मे ॥ १३७ ॥ 20 यावत कुमारं खे राज्ये, स्थापयित्वाऽभ्युपैम्यहम् । अलङ्कार्यमिदं स्थानं, तावत् पूज्यैः कृपापरैः ॥१३८॥ ___ आचार्योऽप्याललापैवं, प्रोत्साहनकृता गिरा । इच्छा तव महेच्छस्य, भूपते ! साधु साध्वसौ ॥१३९॥ राजन्! प्राग्जन्मसंस्काराज्ज्ञाततत्त्वः पुराऽप्यसि । हस्तालम्बो दृढस्येव, हेतुमात्रं तु देशना ॥ १४० ॥ प्रव्रज्या त्वादृशैरात्ता, फलत्यातीर्थकृच्छ्रियः । गौः पालकविशेषेण, कामं दुग्धे विशिष्यते ॥ १४१ ॥ स्थास्यामो वयमत्रैव, त्वदीहितचिकीर्षया । विहरामो वयं भव्योपकारायैव केवलम् ॥ १४२ ॥ 25
उदीरिते सरिणैवं, नृपसूरः प्रणम्य तम् । उत्तस्थौ निश्चिते कार्ये, नालसन्ति मनखिनः ॥ १४३ ॥ पार्थिवोऽरिन्दमाचार्यपादलग्नस्य चेतसः । हठादपि ययौ वेश्म, दुर्भगां गृहिणीमिव ॥ १४४ ॥ सिंहासने निषद्याऽथ, समाहूय च मत्रिणः । खराज्यभवनस्तम्भानित्यभाषिष्ट भूपतिः ॥ १४५ ॥ भो भो! गृहेऽत्र राजानो, वयमाम्नायतो यथा । मत्रिणोऽपि तथा यूयं, स्वाम्यर्थेकमहाव्रताः॥१४६ युष्मन्मत्रबलेनैषाऽसाधि विद्येव मेदिनी । निमित्तमात्रं तत्राऽभूद् , दोर्बलोपक्रमस्तु नः ॥१४७॥ 30 भवन्तो बिभराञ्चक्रुर्भूमिभारं पुराऽपि मे । घनवात-घनाम्भोधि-तनुवाता इवाभितः ॥१४८ ॥ अहं तु विविधक्रीडारसमग्नो दिवानिशम् । अतिष्ठं विषयासक्त्या, सुपर्वेव प्रेमद्वरः ॥ १४९॥ मयाऽद्य तु प्रमादोऽयमनन्तभवदुःखदः । गुरुप्रसादेनाऽज्ञायि, निशि दीपेन गर्त्तवत् ॥ १५०॥
१ आर्द्रभूमिता। २ कीटविशेषः। ३ मनोहराः। ४ सर्पकञ्चकः। ५ कण्टकवृक्षविशेषः। ६ अस्थिपञ्जरशेषवपुरिव भवति । ७ चातुर्ययुक्तया । ८ वातरोगनष्टपादः। ९ कुण्ठितकरो भवति । १० कर्मवनेषु वह्निसमम् । निरन्तरम् । १२ राजा। १३ कुलपरम्परातः। १४ देवः। १५प्रमत्तः ।
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१६२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीयं पर्व अज्ञानाद् वञ्चितोऽसाभिश्विरमात्माऽऽत्मनैव हि । चक्षुष्मानपि किं कुर्यादन्धकारे प्रसृत्वरे ? ॥१५१॥ अहो! वयमियत्कालमदान्तैरेभिरिन्द्रियैः । उत्पथेनैव नीताः सः, शूकलैरिव वाजिभिः ॥ १५२ ॥ मया विषयसेवेयं, परिणत्यामनर्थदा । कृता विभीतकतरुच्छायासेवेव दुर्धिया ॥ १५३॥ मया दिग्जययात्रायामन्यवीर्यासहिष्णुना । गजा गन्धगजेनेव, हताः क्षमापा निरागसः ॥ १५४ ॥ मम सन्ध्यादिषागुण्यं, प्रयुञ्जानस्य राजसु । कियत्यवितथा वाणी, छाया तालतरोरिव ॥ १५५ ॥ आच्छिन्दता च राज्यानि, प्रसह्याऽन्यमहीभुजाम् । अदत्तादानमेवैकमाजन्माऽऽचरितं मया ॥ १५६ ॥ रतिसागरमध्यावगाढेन च निरन्तरम् । शिष्येणेव मन्मथस्याऽब्रह्मैवाऽनुष्ठितं मया ॥ १५७ ॥ प्राप्तैरथै रतृप्तस्याप्राप्यानर्थान् जिघृक्षतः । इयत्कालमहो ! मोहान्मूर्छा मेऽभूद् बलीयसी ॥ १५८ ॥
हिंसादीनामेकतमोऽपि हि दुर्गतिकारणम् । स्पृष्ट एकोऽपि चण्डालः, स्यादस्पृश्यत्वकारकः ॥ १५९ ॥ 10 ततः प्राणातिपातादिपञ्चकात् सकलादपि । विरतिं प्रतिपत्स्येऽद्य, वैराग्याद् गुरुसन्निधौ ॥ १६० ।।
कुमारे कवचहरे, राज्यभारमिमं पुनः । निधास्यामि निजं तेजो, वह्नौ सायमिवाऽयमा ॥ १६१॥ भाव्यं मयीव युष्माभिः, कुमारेऽप्युरुभक्तिभिः । अनया शिक्षयाऽलं वा, जात्यानां शीलमप्यदः ॥१६२॥ ___ अथैवं मत्रिणोऽप्यूचुः, स्वामिन्नेवंविधा धियः। न ह्यनासन्नमोक्षाणां, भवन्ति भविनां क्वचित् ॥१६३॥ युष्माकं पूर्वजन्मानोऽप्याजन्माखण्डशासनाः । अवनीं साधयामासुर्बिडौजेंस इवौजसा ॥ १६४ ॥ राज्यमुत्सृज्य निष्ठ्यूतमिवाऽनिष्ठितशक्तयः । व्रतमाददिरे सर्वे, रत्नत्रयपवित्रितम् ॥ १६५ ॥ इमं देवोऽपि भूभारं, बभार स्वभुजौजप्ता । शोभाभूता वयं तत्र, रम्भास्तम्भा इवौकसि ॥ १६६ ॥ इदं देवस्य साम्राज्यं, यथाक्रमसमागतम् । सावदानं निर्निदान, व्रतादानमिदं तथा ॥ १६७ ॥ लीलाकमलवद् वोढुं, क्षमाभारमसौ क्षमः । कुमारोऽपि हि देवस्य, द्वितीय इव चैतनः ॥ १६८ ॥ यदि गृह्णाति गृह्णातु, दीक्षां मोक्षफलां विभुः । आरोहत्युच्चकैः काष्ठां, स्वामिन्यस्माकमुत्सवः ॥ १६९ ॥ निशातन्यायनिष्ठेन, सत्वशौण्डीर्यशालिना । देवेनेव कुमारेणाऽप्यस्तु राजन्वती मही ॥ १७०॥
अनुज्ञावचनैस्तेषां, मुदितो मेदिनीपतिः । शीघ्रमाह्वाययामास, कुमारं वेत्रधारिणा ॥ १७१ ॥ सलीलचरणन्यासं, कुर्वाणो राजहंसवत् । मूर्त्या देवो मार इव, कुमारोऽपि समाययौ ॥१७२॥ प्रणम्य नृपतिं भक्त्या, स पत्तिपरमाणुवत् । निषसाद यथास्थानं, तस्थौ च रचिताञ्जलिः ॥ १७३ ।। अभिषिञ्चभिव दृशा, पीयुषरससारया । पश्यन् कुमारं सानन्दं, व्याजहारेति भूपतिः ॥१७४ ॥ ___ असदश्या नृपाः पूर्वेऽप्युर्वीमेतामपालयन् । अगृनवो दयाबुद्ध्या, गामिवैकाकिनी वने ॥ १७५ ॥ क्षमीभूतेषु पुत्रेषु, क्षमाभारं क्रमेण ते । स्वयमारोपयामासुधौरेयवृषभेष्विव ॥ १७६ ॥ आतिष्ठमानाः सकलमप्यनित्यं जगत्रये । उत्तस्थिरे स्वयं तस्मै, शाश्वताय पदाय ते ॥ १७७ ॥ इयत्कालं न कोऽप्यस्थाद् , गृहवासेऽसदादिमः । अहो ! गार्हस्थ्यमूढस्य, प्रमादोऽभूत् कियान्मम ॥१७८॥ राज्यभारं गृहाणेमं, ग्रहीष्यामो वयं व्रतम् । भवाम्भोधि तरिष्यामो, निर्भारा भवता कृताः ॥ १७९ ॥
तया नृपगिरा म्लायन् , हिमेनाऽम्भोजकोशवत् । उदस्रनेत्रकमलः, कुमारोऽप्येवमब्रवीत् ॥ १८॥ अकाण्डेऽप्यप्रसादोऽयं, देव ! केनाऽऽगसा मम । पदातिमानिनि मयि, स्वामिन् ! यदिदमादिशः॥१८॥ अपराधः कृतः कोऽपि, किं वा वसुधयाऽनया ?। चिरत्राताऽपि तृणवद् , यदियं त्यज्यतेऽधुना ॥१८२॥ तातपादैविना तात !, राज्येनाऽपि कृतं मम । पूर्णेनाऽप्यजहीनेन, सरसा भ्रमरस्य किम् ? ॥१८॥ प्रतिकूलमहो! दैवमहो! मे मन्दभाग्यता । तातो यदादिशत्येवं, त्यजन् मामिह लोष्ठवत् ॥ १८४ ॥
भवशीकृतैः । २ उद्धृतः। ३ सूर्यः। ४ पूर्वजाः। ५ इन्द्राः । ६ सपराक्रमम् । ७ निदानरहितम् । ८ भारमा। ९ तीक्ष्णः। १० कामदेवः । १५ अनासक्ताः ।
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प्रथमा सर्ग]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । अहमेतां ग्रहीष्यामि, कथञ्चिदपि नो महीम् । प्रायश्चित्तं चरिष्यामि, गुर्वादेशव्यतिक्रमे ॥ १८५॥
सूनोर्गिरा तया खाशालोपिन्या सवसारया । विषण्णश्च प्रसनश्च, जगादेति महीपतिः ॥ १८६ ।। मत्पुत्रोऽसि समर्थोऽसि, विद्वानसि विवेक्यसि । किन्त्वज्ञानात् स्नेहमूलादविचार्यैवमभ्यधाः ॥ १८७ ॥ गुर्वाज्ञा हि कुलीनानां, विचारमपि नाऽर्हति । युक्तियुक्तेति मद्वाणी, विचार्यापि विधीयताम् ॥१८८॥ भारं वोढुं क्षमे पुत्रे, निराभारः पिता ननु । बालेऽपि हि सुते हन्त!, सिंही स्वपिति निर्भरम् ॥१८९ ॥ 5 किश्च त्वामप्यनापृच्छथ, मोक्षकामः क्षमामिमाम् । मोक्ष्यामि यदहं वत्स, परतन्त्रस्त्वया न हि ॥१९०॥ विलुलन्तीमनाथां मां, ततोऽपि त्वं धरिष्यसि । अतिरिक्तं तु ते भावि, मदाज्ञालङ्घनादघम् ॥ १९१॥ एवं वत्स! विचारेणाऽविचारेणापि मद्वचः। अनुष्ठेयं त्वया भक्तिनिष्ठेन सुखदं मम ॥ १९२ ॥
जगदुर्मत्रिणोऽप्येवं, निसर्गेण विवेकिनः । देवकीयकुमारस्य, समीचीनमिदं वचः ॥ १९३ ॥ तथापि देवपादा यदादिशन्ति तदाचर । गुर्वाज्ञाकरणं सर्वगुणेभ्यो ह्यतिरिच्यते ॥ १९४॥ 10 देवेनाऽपि पितृवचः, कृतं जानीमहे वयम् । पितृतः कः परो लोकेऽनुल्लवथवचनो भवेत् ? ॥ १९५ ॥
एवं मत्रिभिरप्युक्तः, कुमारो गद्गदस्वरम् । वाम्यादेशो मे प्रमाणमित्यूचे नैतकन्धरः ॥ १९६ ॥ कुमुदं कौमुदीनाथेनेवाऽब्देनेवे बहिणः । कुमारेणाऽऽदेशका, महीपतिरमोदत ॥ १९७॥
अथ भूमिपतिः प्रीतः, स्वयमादाय पाणिना । कुमारमासयामासाभिषेकाहे निजासने ॥ १९८॥ पवित्राणि पवित्राणि, धरित्रीभर्तुराज्ञया । आनिन्यिरे तीर्थपाथांस्यन्दैरिव नियोगिभिः ॥ १९९ ॥ 15 वाधमानेषु मङ्गल्यतूर्येपूच्चैःस्वरेष्वथ । मूर्ध्नि मूर्धाभिषिक्तेन, कुमारः सिषिचे वयम् ॥ २००॥ उत्पत्योत्पत्य राजानोऽभ्यषिश्चन्नपरेऽपि तम् । नवोदयमिवाऽऽदित्यं, नमश्चक्रुश्च भक्तितः॥२०१॥ नृपादेशेन सेदशान्यंशुकानि स पर्यधात् । तैश्वाऽदत्रैः शारदाझैः, शुभ्रर्गिरिरिवाऽऽबभौ ॥ २०२॥ गोशीर्षचन्दनैस्तस्याऽङ्गरागं वारयोषितः । सर्वाङ्गीणं विदधिरे, ज्योत्स्नापूरैरिवाऽमलैः ॥ २०३ ॥ मुक्तामयानि सर्वाङ्ग, भूषणानि स पर्यधात् । निर्मितानि दिवः कृष्ट्वा, प्रोतैरुडुंगणैरिव ॥ २०४॥ 20 ज्वलन्माणिक्यतेजस्कं, किरीटं तस्य मूर्धनि । स्वयं न्यवेशयद् राजा, खं प्रतापमिवोर्जितम् ॥ २०५॥ तस्य मूर्ध्नि धराधीशो, धारयामास निर्मलम् । सितच्छत्रं यश इव, प्रादुर्भूतं क्षणादपि ॥२०६ ॥ पार्श्वतो वारनारीभिरवीज्यत स चामरैः । राज्यसम्पल्लतोतद्भूप्रसूनस्तबकैरिव ॥ २०७॥ चन्दनेन स्वयं भूपस्तद्भाले तिलकं व्यधात् । उदयाचलचूलास्थनिशाकरविडम्बिनम् ॥ २०८॥ राजा राज्ये निवेश्यैवं, कुमारं परया मुदा । लक्ष्म्या रक्षामन्त्रमिव, सम्यक् शिक्षा ददाविति ।। २०९ ॥ 25
क्षितेरसि त्वमाधारस्तवाऽऽधारो न कोऽपि तत् । त्यक्त्वा प्रमादमात्मानमात्मना वत्स! धारयेः ॥२१०॥ भ्रश्यत्याधारशैथिल्यादाधेयं ननु सर्वथा। विषयातिप्रसङ्गोत्थं, शैथिल्यं तस्य रक्ष तत् ॥ २११ ॥ यौवनं विभवो रूपं, स्वाम्यमेकैकमप्यतः । प्रमादकारणं विद्धि, बुद्धिमत्कार्यसिद्धिभित् ॥ २१२ ॥ कुलक्रमागताऽप्येषा, लक्ष्मीश्छलगवेषिणी । दुराराधा छलयति, राक्षसीव प्रमद्वैरम् ॥ २१३ ॥ चिरवासभवस्नेहो, नाऽस्याः स्थैर्याय किन्त्वसौ । प्रयाति लब्धावसरा, शारिकेवाऽन्यतो द्रुतम् ॥२१४ ॥ 30 कुलटेवाऽपवादेभ्यो, भीरुतामदधत्यसौ । सुप्तवजाग्रतमपि, प्रमत्तं पतिमुज्झति ॥ २१५ ॥ दाक्षिण्यं रक्षणभवं, नैतस्या जातु जायते । किन्तु क्षणात् प्लवङ्गीवोत्प्लुत्य यात्याश्रयान्तरम् ॥ २१६ ॥ निर्लजता चपलता, निःस्नेहत्वमथाऽपरे । दोषाः प्रकृतिरेवाऽस्या, नीचैर्यानमिवाऽम्भसः ॥ २१७ ॥
गुर्वाज्ञाया उल्लङ्कने । २ स्वभावेन । ३ नम्रग्रीवः। चन्द्रेण । ५ मेघेन । ६तीर्थजलानि । अधिकारिभिः। ८ राज्ञा। ९ वस्त्रप्रान्तसहितानि । १० सर्वाङ्गव्याप्तम् । नक्षत्रसमूहै। १२ स्वामिता। १३ छिद्रान्वेषिणी। १५ प्रमादिनम्। १५ वानरीव । १६ अधोगमनम् ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ द्वितीयं पर्वः
निःशेषदोषमय्याऽपि, सर्वः कोऽपि श्रियैधते । शक्रोऽपि हि श्रिया शक्तः, किं पुनर्मानवो जनः १ ॥२१८॥ तस्याः प्रहेरिक इव, स्थिरीकरणकर्मणि । नय - विक्रमसम्पन्नो, जागरूकः सदा भवेः ।। २१९ ॥ श्रीकाङ्क्षिणाऽपि भवता, भूः पाल्येयमगृधुना । अगृनोरनुंगा लक्ष्म्यः, सुभगस्येव योषितः ॥ २२० ॥ अतिचण्डत्वमालम्ब्य, निदाघस्थ इवामा । त्वं दुःसहकराक्रान्तां पृथिवीं जातु मा कृथाः ।। २२१ ॥ एकदाऽपि कृतान्यायं जनं निजमपि त्यजेः । त्यज्यते वैश्वासोऽपि, मनागप्यग्निदूषितम् ॥ २२२ ॥ मृगया- द्यूत- पानानि वारयेः सर्वतोऽपि यत् । तत्पापानां नृपो भागी, तपखितपसामिव ।। २२३ ॥ अन्तरङ्गान् जयेः शत्रूंस्तेषामविजये सति । जिता अप्यजिता एव, शत्रवो यद् बहिर्भवाः ॥ २२४ ॥ धर्ममर्थं च कामं च परस्परमवाधया । यथाकालं निषेवेथाः, पत्नीनेतेवे दक्षिणः ॥ २२५ ॥ तथा भजेत्रीन् पुमर्थान्, यथा हि समये सति । पुरुषार्थे चतुर्थेऽपि, नोत्साहो हीयते तव ॥ २२६ ॥ अभिधायेति तूष्णीकीभूते विमलवाहने । बद्धाञ्जलिः कुमारस्तत्, तथेति प्रत्यपद्यत ॥ २२७ ॥ सिंहासनादथोत्थाय, विनीतः प्राग्वदेव सः । उत्तिष्ठासोबत कृते, हस्तालम्बं ददौ पितुः ॥ २२८ ॥ दत्तहस्तः स पुत्रेण, वेत्रितोऽप्यल्पमानिना । जगाम सपनागारं भूरिभृङ्गारभूषितम् ।। २२९ ॥ मकराननसौवर्णभृङ्गारलुठदम्बुभिः । जीमूतधाराभिरिव, ससस्त्रौ भूभृतां वरः ।। २३० ॥ कोमलेन दुकूलेनोन्मृष्टाङ्गो नृपतिस्ततः । सर्वाङ्गमपि गोशीर्षचन्दनेन व्यलिप्यत ॥ २३९ ॥ 15 नीलोत्पलदलश्यामः, शशिगर्भ इवाम्बुदः । पुष्पगर्भः केशपाशो, राज्ञस्तज्ज्ञैररच्यत ॥ २३२ ॥ विशाले निर्मले स्वच्छे, मनोहरगुणे स्ववत् । संविव्यायाऽथ भूनाथो, मङ्गल्ये दिव्यवाससी ॥ २३३ ॥ ततः पुत्रेोपनीतंस, नरेन्द्रमुकुटायितः । माणिक्यस्वर्ण मुकुटं धारयामास मूर्धनि ॥ २३४ ॥ हार-केयूर-ताडङ्कप्रभृतीन्यपराण्यपि । स सर्वाङ्गं भूषणानि, पर्यधाद् गुणभूषणः ।। २३५ ।। रत्नकाञ्चनरूप्याणि, वस्त्राण्यन्यदपीप्सितम् । अर्थिभ्यः स ददौ तत्र, कल्पद्रुम इवापरः ।। २३६ ॥ 20 ततो नरशतोद्वाह्यां, शिविकां नरकुञ्जरः । आरोहत् पुष्पकमित्र, विमानं नरवाहनः ॥ २३७ ॥ राजन् श्वेतातपत्रेण, चामराभ्यां च तत्क्षणात् । साक्षाद् रत्नत्रयेणेवाऽभ्यागतेन निषेवितः ॥ २३८ ॥ बन्दिकोलाहले नोच्चैस्तारतूर्यरवेण च । सुहृद्भ्यामिव मिलयां, मुदमुद्बोधयन् नृणाम् ॥ २३९ ॥ श्रीमद्भिर्नृपसामन्तैः पृष्ठतः पार्श्वतोऽग्रतः । आपतद्भिः शोभमानो, ग्रहरोंजो ग्रहैरिव ॥ २४० ॥ आवृत्तवृन्तपद्माभवलग्रीवेण सूनुना । आदेशकाङ्क्षिणा द्वास्थेनेवाऽग्रस्थेन शोभितः ॥ २४९ ॥ 25 सम्पूर्णपात्रकुम्भाभिर्नागरीभिः पदे पदे । मङ्गलानि क्रियमाणानीक्षमाणो यथाक्रमम् ॥ २४२ ॥ चित्रमश्ञ्चशताकीर्ण, पताकामालसारिणम् । पवित्रयन् राजमार्ग, यक्षकर्दमपङ्किलम् || २४३ ॥ मञ्चे मश्चे च गन्धर्ववर्गसङ्गीतपूर्वकम् । प्रतीच्छन् पण्यवनिताकृतारात्रिकमङ्गलम् ॥ २४४ ॥ अदृष्टपूर्ववद् दूरात् परैरुत्फुल्ललोचनैः । आलोक्यमानो निस्पन्दैरालेख्य लिखितैरिव ॥ २४५ ॥ लोकैर्मन्त्रबलाकृष्टैरिव कार्मणितैरिव । वाग्बद्वैरिव परितोऽन्वीयमानो भृशयितैः ॥ २४६ ॥ 30 उद्यानेऽरिन्दमाचार्यपादपद्मपवित्रिते । जगाम धाम पुण्यानां, राजा विमलवाहनः || २४७ ॥ [ दशभिः कुलकम् ] शिविकातः समुत्तीर्य, पादाभ्यां मेदिनीपतिः । तत्र प्राविशदुद्याने, मनसीव तपस्विनाम् ॥ २४८ ॥ अथाऽऽभरणसम्भारं विश्वं विश्वम्भरापतिः । अङ्गादुत्तारयामास, धराभारं भुजादिव ॥ २४९ ॥
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१६४
१ यामिकः । २ अनुसारिण्यः । ३ श्रेष्ठवस्त्रम् । ४ सुरापानम् । ५ नायक इव । ६ विनयवान् । ७ उत्थातुमिच्छो: । ८ बहुकलश भूषितम् । ९ मेघः । १० केशपाशविधिज्ञैः । ११ आत्मवत् । १२ शोभमानः । १३ सूर्यः । १४ सुगन्धिद्रव्यविशेषः । १५ गृह्णन् । * अयमर्द्ध श्लोकः संतापुस्तके पतितः ॥ १६ अतिशयेन सम्मिलितैः ।
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प्रथमः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । कन्दर्पशासनमिव, चिराय शिरसा धृतम् । उज्झाञ्चकार स्रग्दाम, सद्यो वसुमतीपतिः ॥ २५० ।। आचार्यवामपार्श्वस्थः, स कृत्वा चैत्यवन्दनाम् । तद्दत्तमादत्त रजोहरणादि ऋषिध्वजम् ॥ २५१ ॥ केशानुत्पाटयामास, मुष्टिभिः पञ्चभिर्नृपः । सावद्यं सकलं योगं, प्रत्याख्यामीत्युदीरयन् ॥ २५२ ॥ तत्कालमप्युपात्तेन, प्रतिलिङ्गेन तेन तु । आबाल्यव्रतधारीव, शुशुभे स महामनाः ॥ २५३ ॥ प्रदक्षिणात्रयीपूर्व, विधाय गुरुवन्दनाम् । स्थिते तस्मिन् गुरुरेवं, विदधे धर्मदेशनाम् ॥ २५४ ॥ 5
अस्मिन्नपारे संसारे, कथञ्चिजन्म मानुषम् । अवाप्यते पयोराशी, दक्षिणावर्तशङ्खवत् ॥ २५५ ॥ मानुष्यकेऽपि सम्प्राप्ते, बोधिबीजं सुदुर्लभम् । तत्रापि पुण्ययोगेन, परिव्रज्योपलभ्यते ॥ २५६ ॥ तावद् भुवोऽर्कसन्तापो, न यावत् प्रावृडम्बुदः । भङ्गो वनस्य हस्तिभ्यस्तावद् यावन्न केसरी ॥ २५७ ॥ तमोभिरान्ध्यं जगतस्तावद् यावन्न भास्करः । देहिनां पन्नगभयं, तावद् यावन्न पक्षिराद् ॥ २५८ ॥ दारियं प्राणिनां तावन्न यावत् कल्पपादपः। भविनां भवभीस्तावद् , यावन्नवाऽऽप्यते व्रतम् ॥ २५९ ॥10 आरोग्यं रूपलावण्ये, दीर्घायुष्यं महर्द्धिता । आज्ञैश्वर्य प्रतापित्वं, साम्राज्यं चक्रवर्तिता ॥ २६० ॥ सुरत्वं सामानिकत्वमिन्द्रत्वमहमिन्द्रता । सिद्धत्वं तीर्थनाथत्वं, सर्व व्रतफलं ह्यदः ॥ २६१ ॥ एकाहमपि निर्मोहः, प्रग्रज्यापरिपालकः । न चेन्मोक्षमवामोति, तथापि स्वर्गभाग भवेत् ॥ २६२ ।। किं पुनः स महाभागस्त्यक्त्वा तृणमिव श्रियम् । यो गृह्णाति परिव्रज्यां, सुचिरं पालयत्यपि ॥२६३॥ विधाय देशनामेवमरिन्दममहामुनिः। विहर्तुमन्यतोऽचालीत, तिष्ठन्त्येकत्र नर्षयः ॥ २६४॥ 15 ___ ततो ग्राम-पुरारण्याकर-द्रोणमुखादिषु । स व्यहार्षीदविच्छिन्नं, छायेव गुरुणा सह ॥ २६५ ॥ लोकाक्रान्तेऽर्कभास्पृष्टे, जन्तुरक्षाकृते पथि । युगमात्रदत्तदृष्टिः, सोऽगादीविचक्षणः ॥ २६६ ॥ निरवद्यां मितां सर्वजनीनां भारती च सः । महामुनिरभाषिष्ट, भाषासमितिकोविदः ॥ २६७ ॥ द्विचत्वारिंशता भिक्षादोषैरपरिदृषितम् । पारणेष्वाददे पिण्डमेषणानिपुणो हि सः॥ २६८ ॥ आसनादीनि संवीक्ष्य, यत्नतः प्रतिलिख्य च । अग्रहीन्यक्षिपच्चापि, स आदानविशारदः ॥ २६९ ॥ 20 कफ-मूत्र-मलप्रायं, निर्जन्तुजगतीतले । उत्ससर्ज महासाधुः, स प्राणिकरुणापरः ॥ २७० ॥ विमुक्तकल्पनाजालं, समत्वे सुप्रतिष्ठितम् । स गुंणक्षमारुहाराम, आत्मारामं मनो व्यधात् ॥ २७१॥ मौनेन तस्थौ स प्रायः, संज्ञादिपरिहारतः । अनुग्राह्योपरोधेन, यद्यवोचत् तदा मितम् ॥ २७२ ॥ स्तम्भबुद्ध्या महिषाद्यैः, स्कन्धकण्डूयनेच्छुभिः । बाढमुद्धृष्यमाणोऽपि, कायोत्सर्ग जहौ न सः ॥ २७३ ॥ शयनासननिक्षेपादानचङ्गमणादिषु । स्थाने च चेष्टानियम, स चकार महामनाः ॥ २७४ ॥ 25 इत्थं चारित्रगात्रस्य, जननत्राणशोधनैः । मातृभूताः स समितिगुप्तीरष्टाऽप्यधारयत् ॥ २७५ ॥ क्षुधातः शक्तिसम्पन्न, एषणामविलयन् । सोऽदीनोऽविह्वलो विद्वान्, यात्रामात्रोद्यतोऽचरत् ॥२७६॥ पिपासितः पथिस्थोऽपि, तत्त्वविद् दैन्यवर्जितः । नैच्छच्छीतोदकं किन्तु, जग्राह प्रासुकोदकम् ॥ २७७॥ बाध्यमानोऽपि शीतेन, त्वग्वस्त्रत्राणवर्जितः । *वासोऽकल्प्यं नाऽऽददे सोज्वालयज्वलनं न च ॥२७८॥ उष्णेन तप्तो नाऽनिन्ददुष्णं छायां च नाऽमरत् । वीजनं मजनं गात्राभिषेकादि च नाऽकरोत् ।। २७९ ॥ 30 दष्टोऽपि दंशैर्मशकैः, सर्वेषां भोज्यलौल्यवित् । त्रास द्वेषं निरासं स, न चक्रेऽस्थादुपेक्षया ॥ २८० ॥ नाऽस्ति वासोऽशुभं चैतन्नेयेषोभयथाऽपि तत् । स नान्यबाधितो जानन् , लाभालाभविचित्रताम् ॥२८॥
कदाप्यरतिं चक्रे, धर्मारामरतियतिः । गच्छंस्तिष्ठन्नथाऽऽसीनः, स्वास्थ्यमेव स शिश्रिये ॥ २८२ ॥ दुर्धावसङ्गपाश्च, मोक्षद्वारार्गलाः स्त्रियः । नाचिन्तयदसौ ता हि, धर्मनाशाय चिन्तिताः ॥ २८३ ॥
१ सूर्यकिरणैः स्पृष्टे । २ सर्वजनहिताम् । ३ आदाननिक्षेपणासमितिविशारदः । ४ गुणवृक्षोधानः। ५ पञ्च समितयः तिम्रो गुप्तयः मिलित्वा अष्टौ भवन्ति । * वासोऽकल्पं खंता, ल ॥ ६ अग्निम् । ७ मानम् । दुर्वारस खंता॥ ८ दुःक्षालसंसर्गकर्दमाः।
त्रिषष्टि, २२
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१६६ कलिकालसर्पज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीय ग्रामाद्यनियतस्थायी, स्थानाबन्धविवर्जितः । चर्यामेकोऽपि चक्र स, विविधाभिग्रहैर्युतः ॥ २८४ ॥ आसनादौ निषद्यायां, स्यादिकण्टकवर्जिते । इष्टानिष्टानुपसर्गान् , स सेहे निःस्पृहोऽभयः ॥ २८५ ।। शुभाशुभायां शय्यायां, स विषेहे सुखासुखे । रागद्वेषावकुर्वाणः, प्रातस्त्याज्येति चिन्तयन् ॥ २८६ ॥ आक्रुष्टोऽपि स नाऽक्रोशत् , क्षमाश्रमणतां विदन् । किन्तु प्रत्युत मेनेऽसावाक्रोष्टर्युपकारिताम् ॥ २८७॥ विषेहे हन्यमानोऽपि, न तु प्रतिजघान सः । जीवानाशात् क्रुधो दौष्ट्यात् , क्षमया च गुणार्जनात् ॥२८८॥ नाऽयाचितं यतीनां यत्, परदत्तोपजीविनाम् । याजादुःखं न चक्रे तन्नेयेष गृहितां च सः ॥२८९ ॥ परात् परार्थं स्वार्थ वा, स लेभेन्नादिकं न वा । लाभेऽमाधन नाऽलाभेऽनिन्दत् स्वमथवा परम् ।।२९०॥ स रोगेभ्यो नोद्विविजे, न चकाङ्क्ष चिकित्सितम् । शरीरादात्मभेदज्ञोऽसहताऽदीनमानसः ॥ २९१ ॥
अभूताल्पाणुचेलत्वे, संस्तृतेषु तृणादिषु । सेहे तत्स्पर्शजं दुःखमियेष न च तान् मृदुन् ॥ २९२ ॥ 10 ग्रीष्मातपपरिक्लिन्नात् , सर्वाङ्गीणमलादपि । न स उद्विविजे स्नातुं, नैच्छनाऽप्युदवर्त्तयत् ॥ २९३ ॥ __ अभ्युत्थानेऽर्चने दाने, न सोऽभूदभिलाषुकः । न व्यषीददसत्कारे, सत्कारेऽपि जहर्ष न ॥ २९४ ॥
प्रज्ञा प्रज्ञावतां पश्यन्नात्मन्यप्रज्ञतां विदन् । न व्यषीदन्न चाऽमाद्यत् , प्रज्ञोत्कर्षमुपागतः ॥ २९५ ।। ज्ञान-चारित्रयुक्तोऽस्मि, च्छमस्थोऽहं तथाऽपि हि । इत्यज्ञानं विषेहे स, ज्ञानस्य क्रमलाभवित् ।। २९६ ॥
जिनास्तदुक्तं जीवो वा, धर्माधर्मों भवान्तरम् । परोक्षत्वान्मृषा नैव, स मेने शुद्धदर्शनः ॥ २९७ ।। 15 शारीरान् मानसानेवं, स्वपरप्रेरितान् मुनिः । परीषहान् विषेहे स, वाकायमनसां वशी ॥ २९८ ॥
ध्यानैकतानः सततं, स्वामिनां श्रीमदर्हताम् । चक्रे चैत्यायमानं स, चेतः स्थिरतरं निजम् ।। २९९ ॥ सिद्धेषु गुरुषु बहुश्रुतेषु स्थविरेषु च । तपखिषु श्रुतज्ञाने, सङ्घ चाऽभूत् स भक्तिमान् ॥ ३००। एवं च तीर्थकृत्कर्मोपार्जनान्यपराण्यपि । स्थानकानि सिषेवेऽसौ, दुर्लभान्यमहात्मनाम् ॥ ३०१ ॥
तप एकावलिं रत्नावलिं च कनकावलिम् । सिंहनिःक्रीडितं ज्येष्ठं, कनिष्ठं च चकार सः ॥३०२॥ 20 मासोपवासादारभ्य, स कर्तुं कर्मनिर्जराम् । अष्टमासोपवासान्तमुपवासतपो व्यधात् ॥ ३०३ ॥
एवं तीनं तपस्तत्वा, कृत्वा संलेखनाद्वयम् । चकाराऽनशनं प्रान्ते, समतैकपरायणः ॥ ३०४ ॥ सरन् पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारं समाहितः । स देहत्यागमकरोनिलयत्यागलीलया ॥३०५॥
अनुत्तरविमानेषु, विमाने विजयाभिधे । त्रयस्त्रिंशत्सागरायुः, सोऽमरः समजायत ।। ३०६ ॥ हस्तमात्रतनुस्तत्र, निशाकरकरोज्वलः । अहमिन्द्रोऽनहङ्कारश्चारुभूषणभूषितः ॥ ३०७ ॥ 25 सर्वदा निःप्रतीकारः, सुखशय्यामधिष्ठितः । स्थानान्तरमगामी चानिर्मितोत्तरवैक्रियः ॥ ३०८ ॥ आलोकयल्लोकनालिमवधिज्ञानसम्पदा । निर्वाणसुखदेशीयं, सोऽन्वभूत् सुखमुत्तमम् ॥ ३०९ ॥
[विभिर्विशेषकर ] आयुःसागरसयैः स, पक्षनिःश्वसितं व्यधात् । समासहस्रस्तावद्भिर्विदधे भक्ष्यकामनाम् ॥ ३१॥ आयुःशेषे मासषट्के, न मोहोऽपरदेववत् । प्रत्युतासन्नपुण्यत्वात् , तस्य तेजो व्यवर्धत ॥ ३११ ३३
स एवमद्वैतसुखप्रपञ्चे, सुधाइदे हंस इबाऽवगाढः।
आयुस्त्रयस्त्रिंशतमम्बुराशीनेकाहवनिर्गमयाम्बभूव ।। ३१२ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये द्वितीये पर्वणि
श्रीअजितस्वामिपूर्वभववर्णनो नाम प्रथमः सर्गः॥
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१ मोक्षायुखादीपस्यूनम् ।त्रयस्त्रिंशता पक्षः। ३ त्रयस्त्रिंशद्वर्षसहस्मैः । ४ भोजमेच्छाम् । ५ एकदिनवर।
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कि सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१६७ द्वितीयः सर्गः। इतोऽस्य जम्बूद्वीपस्य, द्वीपस्य भरते पुरी । अस्ति नाम्ना विनीतेति, शिरोमणिरिवाऽवनेः॥१॥ तस्यां च त्रिजगद्भर्तुरादितीर्थकृतः प्रभोः । ऋषभस्वामिदेवस्य, मोक्षकालादनन्तरम् ॥ २॥ सिद्धिं सर्वार्थसिद्धं च, निरवच्छिन्नभावतः । गतेष्विक्ष्वाकुवंश्येषु, सङ्ख्यातीतेषु राजसु ॥३॥ अभूदिक्ष्वाकुवंशस्य, विततच्छत्रसन्निभः। विश्वसन्तापहरणो, जितशत्रुर्महीपतिः॥४॥
[त्रिभिर्विशेषकम् ] 5 यशसा विशदेनोच्चैस्तस्योत्साहादयो गुणाः । प्रपेदिरे सनाथत्वं, धिष्ण्यानीव हिमांशुना ॥५॥ सोऽलब्धमध्योऽब्धिरिव, शशीवाऽऽप्यायको दृशाम् । वज्रौकः शरणेच्छूनां, श्रीवल्लीमण्डपोऽभवत् ॥६॥ स सर्वनरदेवानां, हृदयेषु पदं दधत् । एकोऽप्यनेकतां प्राप, जलेष्विव निशाकरः ॥७॥ अभूदाक्रान्तदिक्चक्रेस्तेजोभिरतिदुःसहैः । जगतोऽपि स मूर्धन्यो, माध्याह्निक इवार्यमा ॥८॥ वसुधां शासतस्तस्य, शासनं वसुधाधवाः । अनिशं धारयामासुः, किरीटमिव मूर्धनि ॥९॥ 10 वसुधाया वसन्युच्चैराददे च ददे च सः । विश्वलोकोपकाराय, सलिलानीव वारिदः ॥१०॥ धर्मायाऽचिन्तयन्नित्यं, स धर्माय जगाद च । धर्माय व्यचरत् तस्य, सर्व धर्मनिबन्धनम् ॥ ११ ॥ तसाऽनुजन्मा नृपतेरसाधारणविक्रमः । सुमित्रविजयो नाम, यौवराज्यधरोऽभवत् ॥ १२ ॥
सधर्मचारिणी चाऽऽसीजितशत्रुमहीपतेः । श्रीमती विजयादेवी, देवीव भुवमागता ॥ १३ ॥ पाणिभ्यां चरणाभ्यां च, नेत्राभ्यां च मुखेन च । चकासामास विकचाम्भोजखण्डमयीव सा ॥ १४ ॥15 पृथिव्या भूषणं साऽभूत् , तस्याः शीलं तु भूषणम् । अन्यभूषणभारस्तु, प्रक्रियामात्रहेतुकः ॥१५॥ कलाकलापकलनाद्, विश्वशोभानिवन्धनात् । देवी सरस्वती वा साऽवतीर्णा कमलाऽथवा ॥ १६ ॥ स नरेघूत्तमो राजा, सा नारीषु शिरोमणिः । सदृग्योगस्तयोरासीद् , गङ्गासागरयोरिव ॥ १७ ॥
इतश्च विजयाच्युत्वा, जीवो विमलभूभुजः। तस्याः श्रीविजयादेव्याः, कुक्षौ रत्नखनाविव ॥१८॥ राधेशुक्लत्रयोदश्यां, रोहिणीधिष्ण्यंगे विधौ । ज्ञानत्रयधरः पुत्ररत्नत्वेनोदपद्यत ॥ १९ ॥ 20 प्रभावात् स्वामिनस्तस्य, गर्भवासमुपेयुषः । क्षणं सुखं समुत्पेदे, नारकप्राणिनामपि ॥ २० ॥ तस्या एव हि यामिन्यास्तुर्ये यामेतिपावने । देव्या विजयया खना, अदृश्यन्त चतुर्दश ॥ २१॥ ___ आदौ तत्र मदामोदभ्रमद्भमरमण्डलः । गर्जितेनाऽतिपर्जन्यो, गजः सुरगजोपमः ॥ २२ ॥ उत्तुङ्गशृङ्गरुचिरः, शरदम्भोदपाण्डुरः । रम्यपादोऽथ वृषभः, कैलास इव जङ्गमः ॥२३॥ नखैरिन्दुकलावरतिकुङ्कुमकेसरैः। केसरैश्च भ्राजमानः, पश्चाननयुवाऽपि च ॥ २४ ॥
25 उदस्तपूर्णकुम्भाभ्यां, कुम्भिभ्यां पार्श्वयोर्द्वयोः । क्रियमाणाभिषेका च, कमला कमलासना ॥ २५ ॥ विकासिकुसुमामोदाधिवासितदिगन्तरम् । दिवो ग्रैवेयकमिव, पुष्पदाम दिवि स्थितम् ॥ २६ ॥ सम्पूर्णमण्डलत्वेनाऽकाण्डे रोकां प्रदर्शयन् । ज्योत्स्नातरङ्गितव्योमा, शीतधामा ततः परम् ॥ २७॥ ध्वस्सान्धकारपटलः, प्रसरद्भिर्मरीचिभिः । रजन्यामपि तन्वानो, दिनं दिनमणिस्ततः ॥२८॥ शाखा कल्पद्रुमस्येव, शृङ्गं रत्नगिरेरिव । अभ्रंलिहपताकाङ्कस्तथा रत्नमयध्वजः॥ २९॥ विकस्वरनवश्वेतसरोजपिहिताननः । मङ्गलस्सैकनिलयः, पूर्णकुम्भोऽतिशोभनः ॥ ३०॥ पङ्कजैरङ्कितो विश्वक्, श्रीदेव्या विष्टरैरिव । पद्माकरोऽथ स्वच्छाम्भोलहरीभिर्मनोहरः ॥३१॥
नक्षत्राणीव । २ आझादकः। ३ पनी। *वाऽसावुत्तीर्णा संता, पात.॥ वैशाखः। ५ रोहिणीनक्षपस्थिते। बराः। सिंहः। ८ हस्तिभ्याम् । १ पूर्णिमाम्। १० भासनैरिव ।
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१६८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीयं पर्व उपर्युपरि कल्लोलं, कल्लोलैरम्बुधिस्तथा । नैभास्थितं चन्द्रमसमालिङ्गितुमना इव ॥ ३२ ॥ अनुत्तरविमानेभ्य, इबैकतमदागतम् । विचित्ररत्नरचितं, विमानप्रवरं तथा ॥ ३३ ॥ खरत्नसर्वस्वमिव, प्रसूतं रत्नगर्भया । अत्यद्भुतप्रभापुञ्जो, रत्नपुञ्जस्तथोच्चकैः ॥ ३४ ॥
तेजखिनामशेषाणां, त्रैलोक्योदरवर्तिनाम् । तेजःपुञ्ज इवैकत्राऽऽहतो निधूमपावकः ॥ ३५ ॥ 5 एते च विजयादेव्या, परिपाट्याऽनया निजे । प्रविशन्तो मुखाम्भोजेऽदृश्यन्त भ्रमरा इव ॥३६॥
सिंहासनप्रकम्पोऽभूत् , तदानीं च दिवस्पतेः । चक्षुःसहस्रादधिकं, चक्षुः प्रायुत सोऽवधिम् ॥ ३७ ॥ अवधिज्ञानतोऽज्ञासीत् , तीर्थकृद्गर्भसम्भवम् । रोमाञ्चितवपुश्चैवं, चिन्तयामास वासवः ॥३८॥ असाविदानी विजयादनुत्तरविमानतः । अच्योष्ट जगदानन्दनिदानं परमेश्वरः ॥ ३९ ॥ ततश्च जम्बूद्वीपाभिधाने द्वीपवरेऽधुना । योम्यभारतवर्षार्धमध्यखण्डस्य मध्यतः॥४०॥ विनीतायां महापुर्या, जितशत्रोर्महीपतेः । भार्याया विजयादेव्याः, कुक्षौ समवतीर्णवान् ॥४१॥ एतस्यामवसर्पिण्यां, करुणारससागरः । भगवांस्तीर्थनाथोऽयं, 'द्वैतीयीको भविष्यति ॥ ४२ ॥ चेतसा चिन्तयित्वैवं, शुंनासीरः ससम्भ्रमम् । सिंहासनं पादपीठं, पादुके अपि चाऽत्यजत् ॥ ४३ ॥ गत्वा पदानि सप्ताऽष्टान्युन्मुखं तीर्थकृद्दिशः । सद्यः कृतोत्तरासङ्गो, देवराजस्ततो भुवि ॥ ४४ ॥
विन्यस्य दक्षिणं जानु, वामं च न्यश्य किञ्चन । नमश्चक्रे शिरःपाणिसंस्पृष्टवसुधातलः ॥४५॥ [युग्मम्] 15 अवन्दिष्ट जिनं शक्रः, शक्रस्तवपुरःसरम् । जगाम च विनीतायां, जितशत्रुनृपौकसि ॥४६॥
ज्ञात्वाऽर्हतोऽवतारं च, तदैवाऽऽसनकम्पतः । भक्त्या समाययुस्तत्राऽपरेऽपि हि पुरन्दराः॥४७॥ तत्र चाऽऽमलकस्थूलैरमलैः समवर्तुलैः । अनध्यमौक्तिकगणैर्विन्यस्तस्वस्तिकाजिरम् ॥ ४८ ॥ शातकुम्भमयैः स्तम्भैर्नीलपाश्चालिकाङ्कितैः । पत्रैमरकतमयैरे रचिततोरणम् ॥ ४९ ॥
परितो रचितोल्लोचमखण्डैः सूक्ष्मतन्तुभिः । दिव्यांशुकैः पञ्चवर्णैः, सन्ध्यामेधैरिवाऽम्बरम् ॥५०॥ 20 सुवर्णधूपघटिकायत्रोद्यद्भूमवर्तिभिः । स्थापत्ययष्टिभिरिवोद्यताभिः परिशोभितम् ॥५१॥ स्वामिन्या विजयादेव्याः, शय्यासदनमुच्चकैः । कल्याणीभक्तयोऽभ्येयुरिन्द्राः शक्रादयोऽथ ते ॥५२॥
... [पञ्चभिः कुलकम् ] उन्नते पार्श्वतः किश्चित् , किश्चिनिने च मध्यतः । हंसरोमलतातूलपूर्णोच्छीर्षकशालिनि ॥ ५३ ॥ विशदाच्छादनास्तीर्णे, तत्र तल्पे मनोरमे । ददृशुः स्वामिनी गङ्गापुलिने हंसिकामिव ॥५४॥ [ युग्मम् ] आत्मानं ज्ञापयित्वा ते, नत्वा च व्याचचक्षिरे । विजयायै स्वमफलं, तीर्थजन्मलक्षणम् ॥ ५५ ॥
आदिदेश ततः शक्रो, धनदं यदियं त्वया । ऋषभखामिराज्यादौ, रत्नाद्यैः पूरपूर्यत ॥ ५६ ॥ नवीकुरु पुरीमेतां, नूतनैस्तगृहादिभिः । मधुमास इवोद्यानं, प्रत्यग्रैः पल्लवादिभिः ॥ ५७ ॥ रत्नैः स्वर्णैर्धनैर्धान्यैर्वासोभिश्च समन्ततः । पूरयेमां पुरीं पृथ्वी, जलैरिव बलाहकः ॥ ५८ ॥ इत्युक्त्वा सोऽपरेऽपीन्द्रा, मध्येनन्दीश्वरं ततः। गत्वा चक्रुः शाश्वतार्हत्प्रतिमाष्टाह्निकोत्सवम् ॥ ५९ ॥ ततो निजनिजं स्थानं, ययुः सर्वेऽपि वासवाः । यक्षोऽपि कृत्वेन्द्रादिष्टं, तत्पुर्याः स्वपुरीं ययौ ॥ ६० ॥ स्वर्णराशिभिरुत्तुङ्गः, शृङ्गैर्मेरुगिरेरिव । कलधौतोच्चयैरुच्चैर्वैतात्यशिखररिव ॥ ६१ ॥ रत्नाकरस्य सर्वस्वेनेव रत्नोत्करैरपि । धान्यैश्च सप्तदशभिर्वीजैरिव जगन्मुदः॥ ६२॥ वासोभिः कल्पवृक्षेभ्यः, सर्वतोऽप्याहृतैरिव । ज्योतिष्काणामिव रथैर्वाहनैश्चाऽतिसुन्दरैः ॥ ६३ ॥
* इत आरभ्य ३३ पर्यन्तं पाठः खंतापुस्तके पतितः ॥ १ इन्द्रस्य । २ दक्षिणम् । f द्विती खंता ॥ + ° त्वेति ल ॥ ३ इन्द्रः। “ सुवर्णमयैः । ५ पुत्तलिका । ६ अन्तःपुररक्षकः । कलधूतो खंता ॥ ७ रूप्यराशिमिः।
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द्वितीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१६९ नवीकृता प्रतिगृहं, प्रत्यापणचतुष्पथम् । अलकापतिना पूर्णा, साऽलकेव पुरी बभौ ॥ ६४ ॥
[चतुर्भिः कलापकम् ] सुमित्रस्याऽपि गृहिणी, स्वमांस्तानेव तनिशि । वैजयन्ती निरैक्षिष्ट, यशोमत्यपराभिधा ॥६५॥ ततस्तद्रजनीशेष, कुमुदिन्याविवोन्मुदौ । विजया-वैजयन्त्यौ ते, जाग्रत्यावेव निन्यतुः ॥ ६६ ॥ विजया स्वामिनी प्रातस्तान् स्वमान् जितशत्रवे। आचचक्षे वैजयन्ती, सुमित्रविजयाय तु ॥६७॥ 5 तान् स्वमान् विजयादेव्या, विचार्य मनसर्जुना । आख्याति म खमफलमेवं वसुमतीपतिः ॥ ६८॥ एभिः स्वप्नैर्महादेवि!, यशोवृद्धिर्गुणैरिव । विशेषज्ञानसम्पत्तिरागमाभ्यसनैरिव ॥ ६९ ॥ जगदुझ्योतनमिव, प्रद्योतनमरीचिभिः । तव त्रिजगदुत्कृष्टो, नूनं सूनुर्भविष्यति ॥ ७० ॥ एवं स्वमफलं राज्ञो, यथाप्रज्ञं विविञ्चतः । सुमित्रविजयोऽभ्यागात् , प्रतीहारीनिवेदितः ॥ ७१ ॥ नृदेवं देववन्नत्वा, पञ्चाङ्गस्पृष्टभूतलः । निषसाद यथास्थानं, सुमित्रविजयस्ततः ॥ ७२ ॥
10 क्षणं स्थित्वा पुनर्नत्वा, भक्तितो वसुधापतिम् । एवं विज्ञपयामास, कुमारो रचिताञ्जलिः ॥ ७३ ॥
युष्मद्वध्वा वैजयन्त्या, प्रहरेऽद्य निशोऽन्तिमे । निरीक्षाश्चक्रिरे स्वमेऽमी मुखाब्जप्रवेशिनः ॥ ७४ ॥ तत्राऽऽदौ गज ऊर्जस्वी, गर्जिनिर्जितदिग्गजः । नदन्नुत्तुङ्गककुदः, कैकुमान् विशदाकृतिः ।। ७५ ॥ उत्केसरततिात्ताननः पञ्चाननोऽपि च । क्रियमाणाभिषेका श्रीहस्तिभ्यां पार्श्वयोर्द्वयोः ॥ ७६ ॥ पञ्चवर्णं च सुमनोदामैन्द्रमिव कार्मुकम् । सुधाकुण्डमिवाऽऽपूर्ण, शशी सम्पूर्णमण्डलः ॥ ७७॥ 15 विश्वस्याऽप्याहृत इव, प्रतापस्तपनस्ततः । दिव्यरत्नमयः प्रेसत्पताकश्च महाध्वजः॥ ७८॥ पूर्णकुम्भो नवश्वेताम्भोरुहच्छादिताननः । सहस्राक्षमिव मेरैः, पद्मः पद्मसरोऽपि च ॥ ७९ ॥ आपिप्लायिपुरिव, ग्रामप्यूमिभिरम्बुधिः । सामानिकविमानाभं, विमानं च महर्द्धिकम् ॥ ८॥ सारं रत्नाचलस्येव, रत्नपुञ्जः स्फुरत्प्रभः । धूमध्वजश्व निर्धूमः, शिखापल्लविताम्बरः ॥ ८१॥ एते ददृशिरे स्वप्नाः, फलमेषां तु तत्वतः । देव एव हि जानाति, फलभाग देव एव च ॥ ८२॥ 20
राजाऽप्युवाचाऽमी स्वप्ना, देव्या विजययाऽपि हि । अद्यैव यामे यामिन्यास्तुर्ये ददृशिरे स्फुटाः।।८३॥ यद्यप्येते महास्वमाः, सामान्येन महाफलाः । आनन्दकारिणो राकानिशाकरकरा इव ॥ ८४ ॥ तथापि तज्ज्ञाः प्रष्टव्याः, फलं ज्ञातुं विशेषतः । अमीषां कुमुदानन्दकृत्त्वं शशिरुचामिव ॥ ८५॥ आमित्युक्ते कुमारेण, राज्ञा सादरमीरितः । आजुहाव प्रतीहारः, स्वमशास्त्रविचक्षणान् ॥ ८६ ॥
ते धौतश्वेतवसनावृताः स्नानामलत्विषः । पार्वणोडुपतिज्योत्स्नाच्छादितास्तारका इव ॥ ८७॥ 25 दूर्वाङ्कुरैः शिरोन्यस्तैरवतंसधरा इव । सपुष्पकेशा नद्योघाः, सहसेन्दीवरा इव ॥ ८८ ॥ गोरोचनाचूर्णकृतैस्तिलकैरलिकस्थितैः । अविम्लानज्ञानदीपशिखाभिरिव शोभिताः ॥ ८९ ॥ अनय॑स्वल्परुचिरालङ्काराङ्कितविग्रहाः । सुगन्धिस्तोककुसुमा, इव चैत्रमुखद्रुमाः ॥९० ॥ नैमित्तिकाः पुरो राज्ञो, विज्ञप्ता वेत्रधारिणा । साक्षादिव ज्ञानशास्त्ररहस्सानि समाययुः ॥ ९१ ॥ ते मत्रानार्यवेदोक्तान् , विश्वकल्याणकारकान् । प्रत्येकं युगपदपि, पेठुरग्रे महीपतेः ॥ ९२॥ 30 क्षेमङ्करं क्षितिपतेर्ध्नि दुर्वाक्षतादिकम् । प्रचिक्षिपुस्ते कुसुमान्युद्यानपवना इव ॥ ९३ ॥ भद्रासनेषु रम्येषु, द्वाःस्थसन्दर्शितेषु ते । अथाऽऽसाञ्चक्रिरे हंसाः, पद्मिनीच्छदनेष्विव ॥ ९४ ॥
जायां वधूं च तदनु, राजा यवनिकान्तरे । आसयामास शशंभृल्लेखामिव घनान्तरे ॥ ९५ ॥ साक्षात् स्वमफलमिवाऽञ्जलौ पुष्पफले दधत् । जायावध्वोर्महास्वमांस्तेषामकथयन्नृपः ॥ ९६ ॥
* इदं नास्ति पात, खंतापुस्तके ॥ १ सूर्यकिरणैः। २ मम पक्या । ३ वृषभः। ४ प्लावयितुमिच्छः। प्रेरितः। पूर्णिमाचन्द्रः । ७हंस-कमलसहिताः। ८ललारस्थितः। ९ कमलिनीदलेषु।१०चन्द्रलेखामिव ।
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१..
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं जन्ान्तिकेन तत्रैव, पर्यालोच्य परस्परम् । स्वमशास्त्रानुसारात् ते, स्वमार्थ व्याचचक्षिरे ॥९॥ देव! द्वासप्ततिः स्वमाः, स्वमशास्त्रे प्रकीर्तिताः । तेषु च त्रिंशदुत्कृष्टा, ज्योतिष्केषु ग्रहा इव ॥ ९८ ॥ खमानां त्रिंशतस्तेषां, मध्यादेते चतुर्दश । उदीयन्ते महास्वमाः, स्वमशास्त्रविशारदैः॥ ९९॥
एतान् मर्मस्थिते तीर्थकरे चक्रधरेऽपि च । तन्माता क्रमशो रात्रितुर्ययामे निरीक्षते ॥ १० ॥ 5 मध्यादमीषां स्वप्नानां, सप्त मातेक्षते हेरेः । चतुरः सीरिणो माता, मातैकं मण्डलेशितुः ॥१०१ ॥
न द्वौ युगपदर्हन्तौ, युगपञ्चक्रिणौ न च । एकस्यास्तीर्थकृत् सूनुस्न्यस्याश्चक्रभृत् ततः॥ १०२ ॥ ऋषभे भरतश्चक्री, सौमित्रिः सगरोऽजिते । जितशत्रुसुते तीर्थङ्कर इत्यहंदागमात् ॥ १०३ ॥ ज्ञातव्यो विजयादेव्याः, सूनुस्तीर्थकरः खलु । षट्खण्ड भरताधीशो, वैजयन्त्यास्तु नन्दनः।।१०४॥
परितुष्टस्ततस्तेषां, नृपतिः पारितोषिकम् । प्रददौ ग्रामखेटादि, वस्त्रालङ्करणादि च ॥ १०५॥ 10 आजन्मदौस्थ्यमगमत् , तेषां तञ्जन्मशंसनात् । महापुमांसो गर्भस्था, अपि लोकोपकारिणः ॥ १०६ ॥
वस्त्रालङ्करणैः कल्पद्रुमा इव विराजिनः । ते राजानुज्ञया जग्मुस्ततः खं खं निकेतनम् ॥ १०७ ॥ विजया-वैजयन्त्यौ च, वासागारं निजं निजम् । जग्मतुर्मुदिते गङ्गा-सिन्धू इव पयोनिधिम् ॥१०८॥
ततः पुरन्दरादेशान्नित्यं देवासुरस्त्रियः । सेवितुं विजयादेवीमेवमारेभिरे भृशम् ॥ १०९ ॥
खामिनीसदनात् पांसुतृणकाष्ठादि सर्वतः । सदाऽपनिन्यिरे वायुकुमाररमणीजनाः ॥ ११०॥ 15 गन्धोदकेन सिषिचुस्तद्वेश्माङ्गणभूमिकाम् । अजिष्याजनवन्मेषकुमारकमृगीदृशः ॥ १११ ॥
ववृषुः पञ्चवर्णानि, पुष्पाणि ऋतुदेवताः। प्रभोगस्थितस्यापि, दातुमर्घमिवोद्यताः ॥११२॥ प्रकाशमुपनिन्युश्च, ज्योतिष्काणां पुरन्ध्रयः । यथासुखं यथाकालं, स्वामिन्या भाववेदिकाः ॥ ११३ ॥ वनदेव्यो दास्स इव, चक्रिरे तोरणादिकम् । ता मागधस्त्रिय इव, तुष्टुयुश्च सुरस्त्रियः ॥ ११४ ॥ देवताभिरिति स्वाधिदेवतेव ततोऽपि वा । अधिकेव प्रतिदिनं, विजयादेव्यसेव्यत ॥ ११५ ॥
कालिकेवाशुमद्विम्बं, निधानमिव मेदिनी । विजया वैजयन्ती च, देवी गर्भमधारयत् ॥११६॥ निसर्गेणापि राजन्त्यौ, ते गर्भेणाऽतिरेजतुः । सरस्थाविव सम्पूर्णे, मध्ये स्वर्णाम्बुजन्मना ।। ११७ ॥ स्वर्णप्रभागौरमपि, तयोर्वदनपङ्कजम् । पाण्डिमानं दधौ दन्तिदन्तच्छेदच्छविस्पृशम् ॥ ११८ ॥ तयोः कर्णान्तविश्रान्ते, स्वभावादपि लोचने । अधिकं सविकासे चाऽजायेतां शरदब्जक्त् ॥ ११९ ॥
तयोर्लवणिमा ताहगवर्धिष्टाऽधिकाधिकम् । सद्यो मार्जितयोः कान्ति,म्योरिव शलाकयोः ॥ १२० । 38 अग्रेऽपि मन्थरं यान्त्यौ, विशेषादतिमन्थरम् । देव्यौ सञ्चेरतू राजहंस्याविव मदालसे ॥ १२१ ॥
अतिगूढं ववृधाते, तयोर्गौं सुखप्रदौ । नलिनीनालवन्नयोः, शुक्त्योमौक्तिकरववत् ॥ १२२॥
ततो नवसु मासेषु, दिनेष्वर्धाष्टमेषु च । गतेषु माघमासस्य, शुक्लाष्टम्यां शुभे क्षणे ॥ १२३ ।। ग्रहेपूचस्थितेष्यक्षे, रोहिण्यां गजलाञ्छनम् । असूत विजया सूनुं, पुण्यं सूनृतवागिव ॥ १२४॥
प्रसूतिदुःखं नो देव्या, न सुनोरप्यजायत । स एप तीर्थनाथानां, प्रभावो हि स्वभावजः ॥ १२५ ॥ __ अज्ञे तदानीमुद्द्योतः, क्षणं त्रिभुवनेऽपि हि । अकाण्डोद्भूतनिर्मेघविद्युदुयोतसोदरः ॥ १२६ ।।
नारकाणामपि सुखं, तदा क्षणमजायत । अभ्रच्छायासुखमिव, पान्धानां शरदागमे ।। १२७ ॥ शरद्यपामिव तदा, प्रसादः ककुभामभूत् । अत्युल्लासश्च लोकानां, कमलानामिवोषसि ।। १२८॥ प्रदक्षिणोऽनुकूलश्च, भूमिसी च मारुतः । मन्दं मन्दं ववौ सयो, भूतलादुद्भवभिव ॥ १२९ ॥ सञ्जज्ञिरे समन्ताच्च, शकुनाः शुभसूचकाः । सर्व हि शुभमेव स्थाजन्मतोऽपि शुभात्मनाम् ॥ १३॥
एकान्ते । २ वासुदेवस्य । ३ बलदेवस्य । ५ आजन्मदारियम् । ५ वासीजनवत् । ६ मेममाला। ७ लावण्यम् । *तु ल.पा ॥ ८ नक्षत्रे।
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ीियः सर्गः ]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१७१
सदा च दिकुमारीणामासनानि चकम्पिरे । उन्मनांसीवोत्पतितुं, जिनोन्तिकयियासया ॥ १३१ ॥ चारुचूडामणिरुचिप्रसरव्यपदेशतः । रचितोदात्तकौसुम्भवस्त्रनीरङ्गिका इव ।। १३२ ॥ शोभिताः स्वप्रभापूर्णान्तरैमौक्तिककुण्डलैः । सुधाकुण्डैरिव झलझलायितसुधोर्मिभिः ॥ १३३ ॥ ग्रैवेयकैः शोभमाना, विचित्रमणिनिर्मितैः । कुण्डलीकृत सुत्रामैकोदण्ड श्रीविडम्बिभिः ॥ १३४ ॥ अधिस्तनतटामुक्तैर्मुक्ताहारैर्मनोहराः । रत्नशैलतटीचञ्चन्निर्झरश्रीमलिम्लुचैः ।। १३५ ।। माणिक्यचूडावलयैर्विराजद्भुजवल्लयः । न्यासीकृतैरनङ्गेन, निषेङ्गैरिव चारुभिः ॥ १३६ ॥ अवरत्नरचितां दधाना रसनालताम् । जगजिगीषोः पञ्चषोः, कृते ज्यामिव सञ्जिताम् ॥ १३७ ॥ अङ्गांशुनिर्जितैः सर्वज्योतिष्काणामिवाऽंशुभिः । लग्नैश्चरणपद्मेषु, शोभिता रत्ननूपुरैः ॥ १३८ ॥ काश्विनीलाङ्गरुचयः, प्रियङ्गुलतिका इव । काश्चित् स्वभाभिस्तन्वन्त्यस्तालीवनमिवाऽम्बरे ॥ १३९ ॥ विकिरन्त्यो रुचीः काश्चिद्, बालारुणरुचीरिव । स्नपयन्त्यो रुचा काश्चित्, सितया ज्योत्स्नयेच खम् ॥ १४० ।। 10 काश्चिद् ददत्यः कनकसूत्राणीव दिशां रुचा । काश्चिश्च कान्त्या वैडूर्यरत्नपाञ्चालिका इव ॥ १४१ ॥ सर्वाः कुचाभ्यां वृत्ताभ्यां संचक्रा इव निम्नगाः । सर्वाः सलीलगामिन्यो, राजहंसाङ्गना इव ॥ १४२ ॥ सपल्लवा इत्र लताः सर्वाः कोमलपाणयः । उन्निद्रपद्माः पद्मिन्य इव सर्वाः सुलोचनाः ॥ १४३ ॥ सर्षा लावण्यपूरेण, सजला इव दीर्घिकाः । सर्वाः सौन्दर्यशालिन्यो, मन्मथस्येव देवताः ॥ १४४ ॥ सञ्जाssसनकम्पेन, किमेतदिति सम्भ्रमात् । षट्पञ्चाशदपि हि ताः, सद्यः प्रायुञ्जताऽवधिम् || १४५ ।। 15 [ पञ्चदशभिः कुलकस् ] तत्कालमवधिज्ञानाद्, युगपद् दिक्कुमारिकाः । विविदुर्विजयादेव्यौं, तीर्थकृजन्म पावनम् ॥ १४६ ॥ एवं च चिन्तयामासुर्जम्बूद्वीप इहैव हि । याम्यभारतवर्षार्धमध्यखण्डस्य मध्यतः ॥ १४७ ॥ विनीतायां महापुर्यामिक्ष्वाकुकुलजन्मनः । विजयायां धर्मपत्यां, जितशत्रुमहीपतेः ॥ १४८ ॥ एतस्यामवसर्पिण्यां, भगवानेष तीर्थकृत् । ज्ञानत्रयधरः श्रीमान्, द्वितीय उदपद्यत ॥ १४९ ॥ विमृश्यैचं समुत्थायाssसनेभ्यस्ताः ससम्मदाः । ददुः पदानि सप्ताऽष्टान्युन्मुखं तीर्थकुद्दिशः ॥ १५० ॥ पुरस्कृत्येव मनसा, नमस्कृत्य जिनेश्वरम् । शक्रस्तवेन ताः सर्वा, अवन्दन्तोरुभक्तयः ॥ १५१ ॥ वलित्वा पुनरभ्यास्य, रत्नसिंहासनानि ताः । इत्यादिशन्निजनिजानमरानाभियोगिकान् ।। १५२ ।। हो ! गन्तव्यमस्माभिर्भरतार्थेऽद्य दक्षिणे । समुत्पन्नद्वितीयार्हत्सूतिकाकर्महेतवे ।। १५३ ।। ततो विसंतगर्भाणि, नानामणिमयानि च । विकुरुध्वं विमानानि, महामानानि नः कृते ॥ १५४ ॥ दन्तुराणि ततः कुम्भैः, शातकौम्भैः सहस्रशः । वैमानिकविमानानामुत्पत्राणीव केतुभिः ॥ १५५ ॥ रुचिराणि मणिस्तम्भैः, शालभञ्जीविराजितैः । ताण्डवश्रमविश्रान्तनर्त्तकीनिचयैरिव ॥ १५६ ॥ स्तंभ्रमानुकारीणि, घण्टानिर्घोषडम्बरैः । प्रक्वणत्किङ्किणीजालैर्वाचालानि निरन्तरम् ॥ १५७ ॥ रम्याणि बज्रथेदीभिः श्रियामिव महासनैः । रुक्सहस्रैः सहस्रांशुबिम्बानीव प्रसारिभिः ॥ १५८ ॥ ईहामृगै रत्नमयैर्ऋपभैस्तुरगैर्नरैः । रुरुभिर्मकरैर्हसैः, शैरभैश्वमरैर्गजैः ।। १५९ ॥ किन्नरैर्घमलताभिस्तथा पद्मलोच्चयैः । अङ्कितान्यभितो भित्तििवलभीस्तम्भमूर्धसु ॥ १६० ॥ आदेशेन समं तासां, ते देवा अभियोगिकाः । विकृत्य दर्शयामासुर्विमानान्युरुशक्तयः ।। १६१ ।। [ सप्तभिः कुलकर ]
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देवस्य ।
१ उत्सुकानीव । २ जिनसमीपं जिगमिषया । ३ इन्द्रधनुः । ४ करकङ्कणैः । ५ तूणीरैः । ६ कंटिमेखलाम् । ७ काम८ चक्रवाकसहिताः । * देव्यास्ती खंता ॥ ९ विस्तृतमध्यभागानि । १० हस्तिशामि । ११ रुपमैः । १३ अष्टापदैः ।
१२ मृगैः ।
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१७२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीयं पर्व अथाऽधोलोकवास्तव्यास्तास्वष्टौ दिकुमारिकाः । देवदूष्यनिवसनाः, पुष्पालतकुन्तलाः ॥ १६२ ॥ भोगङ्करा भोगवती, सुभोगा भोगमालिनी। तोयधारा विचित्राच, पुष्पमालाऽप्यनिन्दिता प्रत्येकं च सामानिकीचत्वारिंशच्छतावृताः। महत्तराभिः प्रत्येकं, तथा चतसृभिर्युताः ॥ १६४ ॥ प्रत्येकं च महानीकैः, सप्तभिः परिवारिताः । अनीकाधिपतिभिश्च, प्रत्येकमपि सप्तभिः ॥ १६५ ॥ आत्मरक्षीसहस्रैश्चैकैका षोडशभिर्युताः । अन्यैश्च व्यन्तरैर्देवैर्देवीभिश्च महर्द्धिभिः ॥ १६६ ॥ विमानानि समारुह्य, गीतनृत्तमनोहरम् । प्रति पूर्वोत्तरदिशं, सोत्कण्ठमुपचक्रमुः॥१६७ ॥ अथ कृत्वा समुद्धातं, वैक्रियं ताः क्षणादपि । योजनान्यपैसङ्ख्यानि, यावद् दण्डं विचक्रिरे ॥ १६८ ॥ रत्न-वैडूर्य-वज्राणां. लोहिताक्षायोरपि । अञ्जनाञ्जनपलक-पलकानां तथैव च ॥ १६९॥
ज्योतीरस-सौगन्धिक-रिष्टानां स्फटिकाश्मनाम् । जातरूपहंसगर्भरत्नानामपि सर्वतः ॥ १७० ॥ 10 __ तथा मसारगल्लानां, मणीनां स्थूलपुद्गलान् । परितः शातयामासुर्जगृहुश्चाऽणुपुद्गलान् ॥ १७१ ॥
ततश्च चक्रिरे खं खं, रूपमुत्तरवैक्रियम् । देवतानां जन्मसिद्धाः, खलु वैक्रियलब्धयः ॥ १७२ ॥ उत्कृष्टया त्वरितया, चलया चण्डयाऽपि च । सिंहोद्धताभ्यां पतनाच्छेकाभ्यामथ दिव्यया ॥ १७३ ॥ देवगत्या तथा सर्वऋध्या सर्वबलेन च । ययुः पुर्यामयोध्यायां, जितशत्रुनृपौकसि ॥ १७४ ॥
ततो महाविमानैः खैर्योतीपीवाऽमराचलम् । तास्त्रिः प्रदक्षिणीचक्रुस्तीर्थकृत्सूतिकागृहम् ॥ १७५ ॥ 15 चतुरङ्गुलमात्रेणाऽसंस्पृशन्त्यो महीतलम् । अस्थापयन् विमानानि, पूर्वोदीच्यां ततश्च ताः ॥ १७६ ॥
प्रविश्य सूतिकागारं, जिनेन्द्रं जिनमातरम् । त्रिस्ताः प्रदक्षिणीकृत्य, बद्धाञ्जल्येवमूचिरे ॥ १७७ ॥ ___ नमस्तुभ्यं जगन्मातः!, कुक्षिणा रत्नधारिणि । सर्वनारीसारभूते, जगद्दीपप्रदायिनि! ॥ १७८ ॥ त्वं धन्याऽसि पवित्राऽसि, त्वं चाऽसि जगदुत्तमा । मनुष्यलोके चैतस्मिन् , जन्मेदं सफलं तव ॥ १७९ ॥
यत् त्वं पुरुषरत्नस्य, कारुण्यक्षीरनीरधेः । त्रैलोक्यवन्दनीयस्य, स्वामिनो धर्मचक्रिणः ॥ १८० ॥ 20 जगद्गुरोर्जगद्वन्धोर्विश्वानुग्रहकारिणः । द्वितीयस्याऽवसर्पिण्यां, जिनेन्द्रस्य जनन्यसि ॥ १८१॥
मातर्वयमधोलोकवास्तव्या दिक्कुमारिकाः । कर्तुं तीर्थकृतो जन्ममहिमानमिहाऽऽगताः ॥ १८२ ॥ तद् युष्माभिर्न भेतव्यमित्युदीर्य प्रणम्य च । पूर्वोत्तरस्यां ककुभि, तत्र ता व्यपचक्रमुः ॥१८३॥ वैक्रियेण समुद्धातेनाऽथ ताः शक्तिसम्पदा । वातं संवर्तकं नाम, क्षणेनाऽपि विचक्रिरे ॥ १८४ ॥
शिवेन मृदुशीतेन, तेन तिर्यक्प्रवायिना । सर्वर्तुकुसुमाभोगगन्धसर्वखवाहिना ॥ १८५ ॥ 25
मरुता सूतिकागारं, परितो योजनावधि । अपनीय तृणाधुच्चैश्चोक्षीचक्रुः क्षमातलम् ॥ १८६ ॥ भगवद्भगवन्मात्रोरर्दैवीयसि तास्ततः । मङ्गल्यगीतं गायन्त्यो, हर्षवत्योऽवतस्थिरे ॥ १८७ ॥ ___ अथोर्ध्वरुचकसंस्था, नन्दनोद्यानकूटगाः। दिव्यालङ्कारधारिण्य, इत्यष्टौ दिक्कुमारिकाः ॥ १८८॥ मेघङ्करा मेघवती, सुमेघा मेघमालिनी । सुवत्सा वत्समित्रा च, वारिषेणा बलाहका ॥१८९॥
महत्तराभिः सामानिक्यङ्गरक्षीभिरेव च । अनीकानीकपतिभिः, पूर्ववत् परिवारिताः ॥ १९०॥ 30 एयुस्तत् सूतिकावेश्म, स्वामिजन्मपवित्रितम् । त्रिश्च प्रदक्षिणीचक्रुर्जिनेन्द्र-जिनमातरौ ॥ १९१॥
पूर्ववज्ज्ञापयित्वा खं, विजयायै प्रणम्य च । अभिष्टुत्य च तत्रोच्चैर्विचक्रुर्मेघदुर्दिनम् ॥ १९२ ॥ ततश्च भगवजन्मभवनाद् योजनावधि । नातिस्तोकां नातिबह्वीं, वृष्टिं गन्धोदकैर्व्यधुः ॥ १९३ ॥ तपसेवाऽहंसां राकाज्योत्स्नया तमसामिव । तया च रजसां शान्तिाग् वृष्टया समजायत ॥ १९४ ॥
ततो विचित्रमुन्निद्रं, पुष्पप्रकरमाशु ताः। तत्र रङ्गावनौ रङ्गाचार्या इव विचक्रिरे ॥ १९५॥ 35 घनसारागुरुपायधूपधूमेन चोच्चकैः । तां भुवं वासयामासुर्वासागारमिव श्रियः ॥ १९६ ॥
१ ऐशानीम् । २ असङ्ख्यातानि । ३ मेरुम् । . ४ अनतिदूरे । ५ पापानाम् । ६ विकसितम् । ७ सूत्रधाराः ।
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द्वितीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१७३ तीर्थकृतीर्थकृन्मानोरनत्यासन्न-दूरतः । अथाऽमलान् स्वामिगुणांस्ता गायन्त्योऽवतस्थिरे ॥ १९७ ॥ ___ अथ पूर्वरुचकाद्रिवास्तव्या दिक्कुमारिकाः । सहिताः सर्वया ऋद्ध्या, सकलेन बलेन च ॥ १९८ ॥ तत्र नन्दोत्तरानन्दे, आनन्दा-नन्दिवर्धने । विजया वैजयन्ती'च, जयन्ती चाऽपराजिता॥१९९ पूर्ववत् सपरीवारास्तदेयुः सूतिकागृहम् । त्रिश्च प्रदक्षिणीचकुस्ताः स्वामि-स्वामिमातरौ ॥ २० ॥ खं ज्ञापयित्वा स्वामिन्यै, नत्वा स्तुत्वा च पूर्ववत् । तत्पूर्वतोऽस्थुर्गायन्त्यो, रत्नदर्पणपाणयः ॥ २०१॥ 5 ___ अंपाच्यरुचशैलवास्तव्याश्चारुभूपणाः । स्रग्विण्यो दिव्यवसना, इत्यष्टौ दिक्कुमारिकाः ॥ २०२॥ समहारा सुप्रदत्ता, सुप्रबुद्धा यशोधरा । लक्ष्मीवती शेषवती, चित्रगुप्ता वसुन्धरा ॥२०३॥ प्राग्वत् परिच्छदभृतस्तमिन्नभ्येत्य वेश्मनि । नत्वा प्रदक्षिणापूर्व, स्वामिन्यै खमजिज्ञपन् ॥ २०४ ॥ जिनेन्द्र-जिनजनन्योर्दक्षिणेन कलस्वनाः । ता मङ्गलानि गायन्त्यस्तस्थुर्भृङ्गारपाणयः ॥ २०५॥
तथा प्रत्यग्रुचकादिवास्तव्या दिकुमारिकाः । पूर्ववज्ज्ञापयित्वा स्वं, तावन्मात्रपरिच्छदाः॥२०६॥10 इलादेवी सरादेवी, पृथिवी पद्मवत्यपि । एकनासा नवमिका, भद्रा सीता च नामतः॥२०७॥ कत्वा प्रदक्षिणापूर्व. नर्ति जिन-जिनाम्बयोः । गायन्त्यः पश्चिमेनाऽस्थुश्चारुव्यजनपाणयः ॥२०८॥
तथोदग्रुचकशैलवास्तव्या दिकुमारिकाः । निवेद्य प्राग्वदात्मानं, तथैव सपरिच्छदाः ॥ २०९ ॥ अलम्वुसा मिश्रकेशी, पुण्डरीका च वारुणी। हासा सर्वप्रभा चैव, ही श्रीरिति च नामतः॥२१० नत्वा प्रदक्षिणापूर्व, पादान् जिन-जिनाम्बयोः । गायन्त्य उत्तरेणाऽस्थुश्चारुचामरपाणयः ॥२११ ॥ 15 विदिग्रुचकवास्तव्याश्चतस्रो दिक्कुमारिकाः । चित्रा चित्रकनका सतेरा सौत्रामणी तथा ॥२१२॥ एत्य प्रदक्षिणापूर्व, नमस्कारं विधाय च । जिनस्य जिनमातुश्च, स्वमायातं न्यवेदयन् ॥ २१३ ॥ स्वामिनः स्वामिमातुश्च, गायन्त्यो विपुलान् गुणान् । दीपिकापाणयस्तस्थुरैशान्यादिविदिक्षु ताः॥२१४॥ __ रुचकद्वीपमध्यस्थाश्चतस्रो दिकुमारिकाः । रूपा रूपांशिका चैव, सुरूपा रूपकावती॥२१५॥ प्रत्येकं पूर्ववत् सर्वपरिवारविराजिताः । महाविमानान्यारुह्याऽर्हजन्मगृहमाययुः ॥ २१६ ॥ 20 तत् त्रिः प्रदक्षिणीचक्रुर्विमानेष्वेव ताः स्थिताः । अस्थापयन् विमानानि, देशे समुचिते ततः ॥२१७ ॥ ततश्चरणचारिण्यो, जिनेन्द्र-जिनमातरौ । भक्त्या प्रदक्षिणीकृत्य, नत्वा चैवं बभापिरे ॥२१८ ॥ जय जीव चिरं नन्द, विश्वानन्दननन्दने! । सुमुहूर्त जगन्मातरद्य त्वदर्शनेन नः ॥ २१९ ।। रत्नाकरो रत्नशैलो, रत्नगर्भा मुधा ह्यमी । त्वमेका रत्नभूः पुत्ररत्नं यत् सूतवत्यदः ॥ २२०॥ वयं हि रुचकद्वीपमध्यस्था दिक्कुमारिकाः । अर्हतो जन्मकृत्यानि, कर्तुमत्र समागताः॥२२१॥ 25 भवत्या तन्न भेतव्यमित्युक्त्वा परमेशितुः । चतुरङ्गुलवर्ज ता, नाभिनालमकल्पयन् ॥ २२२ ॥ खनित्वा विद॑रं तत्र, नालं निधिमिव न्यधुः । विदरं पूरयामा , रत्नैर्वत्रैश्च तं ततः ॥ २२३ ॥ बबन्धुस्तत्र पीठं ताः, सद्यः प्रोद्भूतदूर्वया । अप्युद्यानान्युद्भवन्ति, देवतानां प्रभावतः ॥ २२४ ॥ सूतिकावेश्मनस्तस्य, ककुप्सु तिसृषु क्षणात् । विकुर्वन्ति स कदलीगृहाणि श्रीगृहाणि ताः ॥ २२५ ॥ प्रत्येकमेकं तन्मध्ये, चतुःशालं विचक्रिरे । मध्ये च तेषामेकैकं, रत्नसिंहासनं महत् ॥ २२६ ॥ 30 ततश्च जगृहुस्तीर्थकरं करतलेन ताः । स्वामिनी.च भुजे निन्युश्चाऽपायंकदलीगृहे ॥ २२७ ॥ तत्र चाऽन्तश्चतुःशालं, रत्नसिंहासनोत्तमे । ताः सुखं खामिनं स्वामिमातरं च न्यवेशयन् ॥ २२८ ॥ स्वयं संवाहिकीभ्य, पाणिन्यासैर्यथासुखैः । शतपाकादिभिस्तैलैरभ्यङ्गं च तयोर्व्यधुः ॥ २२९ ॥ गन्धद्रव्यैः सुरभिभिः, सूक्ष्मपिष्टैः क्षणेन ताः । उद्वर्त्तनं विदधिरे, रत्नदर्पणवत् तयोः ॥ २३०॥
१ दाक्षिणात्यः। २ मधुरस्वराः। ३ नमस्कारम् । विवरं ल, पात ॥ ४ गतम् । विवरं पात ॥ ५ विक्ष। ६ दक्षिणकदलीगृहे। ७दासीभूय ।
त्रिषष्टि, २३
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१७४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीय पर्व जिनेन्द्रं करतलेन, जिनेन्द्रजननीं भुजे । गृहीत्वा निन्यिरे ताश्च, पौरस्त्ये कदलीगृहे ॥ २३१॥ तत्र मध्येचतुःशालं, रत्नसिंहासनोत्तमे । आसयामासुरथ ता, जिनेन्द्र-जिनमातरौ ॥ २३२ ॥ ताश्च गन्धोदकैः पुष्पोदकैः शुद्धोदकैरपि । द्वावपि स्नपयामासुस्तदिवाऽऽजन्मशिक्षिताः ॥ २३३ ॥ विचित्ररत्नालङ्कारांस्तास्ताभ्यां पयेधापयन् । चिरात् स्वशक्तेस्तादृश्या, मन्यमानाः कृतार्थताम् ॥ २३४ जिनेन्द्र-विजयादेव्यौ, देव्योऽथाऽऽदाय पूर्ववत् । मनोहारिणि ता जग्मुरुदीच्ये कदलीगृहे ॥ २३५ ॥ तत्राऽऽसयंश्चतुःशालमध्यसिंहासने च ताः । तौ गृह्णन्तौ नगासीनसिंही-तत्सुतयोः श्रियम् ॥ २३६ ॥ क्षणादानाययामासुस्त्रिदशैराभियोगिकैः । गोशीर्षचन्दनैधांसि, ताः क्षुद्रहिमवगिरेः ॥ २३७ ॥ पावकं पातयामासुर्मथित्वाऽरणिदारुणी । जायते घृष्यमाणाद्धि, दहनश्चन्दनादपि ॥ २३८ ॥ समिधीकृत्य गोशीर्षचन्दनानि समन्ततः । एधयामासुरग्निं तं, देव्यस्ता आहिताग्निवत् ॥ २३९ ॥ ततस्तेनाऽग्निहोमेन, भूतिकर्म विधाय ताः । रक्षाग्रन्थि जिनेन्द्रस्य, बबन्धुभक्तिवन्धुराः ॥ २४० ॥ पर्वतायुर्भवेत्युच्चैर्वदन्त्यो जिनकर्णयोः । मिथ आस्फालयामासू , रत्नपाषाणगोलकौ ॥ २४१ ॥ तीर्थङ्करं करतलेनाऽऽदाय विजयां भुजे । ताः सूतिकागृहे निन्युः, शय्यायां चाऽध्यरोपयन् ॥२४२ ॥ ततश्च स्वामिनः स्वामिजनन्याश्चोज्ज्वलान् गुणान् । गायन्त्यो मञ्जु तास्तस्थुरनत्यासन्न-दूरतः॥२४३ ॥
__ तदानीमेव सौधर्मे, कल्पेऽल्पेतरवैभवः । आवृतो देवकोटीभिरप्सरोभिश्च कोटिशः ॥ २४४ ॥ 15 कोटिशश्चारणवरैः, स्तूयमानपराक्रमः । गन्धर्ववर्गेणाऽखवं, गीयमानगुणोच्चयः ॥ २४५ ॥
पार्श्वतो वारनारीभिर्वीज्यमानश्च चामरैः । मूर्ध्नि श्वेतातपत्रेण, राजमानोऽतिहारिणा ॥ २४६ ॥ दत्तास्थानः सुधर्मायामाथान्यां प्रामुखः सुखम् । शको यावन्निषण्णोऽस्थाचकम्पे तावदासनम् ॥२४७॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ तेन चाऽऽसनकम्पेन, कोपाटोपविसंस्थुलः । कम्पमानाधरदलः, स्फुरज्वाल इवाऽनलः ॥ २४८ ॥ 20 उत्कटभ्रकुटीभीमो, व्योमेवोभूमकेतुकम् । आताम्रीभूतवदनो, मदाविष्ट इव द्विपः ॥ २४९ ॥ उत्तरङ्ग इवाऽम्भोधिस्त्रिवलीलाञ्छितालिँकः । वनमालोकयामास, वज्रभृद् वैरिघातकम् ॥ २५०॥
॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ तत्कोपमुपलक्ष्येत्थमुत्थायाऽग्रे कृताञ्जलिः । चमूपतिर्नेगमेषी, प्रोचे प्राचीनवर्हिषम् ॥ २५१॥ के प्रति स्वयमावेशो, मय्यप्यादेशकारिणि । सुरा-२सुर-मनुष्येषु, नाऽधिको न समश्च ते ॥ २५२ ॥ हेतुरासनकम्पस्य, यस्ते सम्प्रत्यजायत । विमृश्याऽऽज्ञापय स्वामिस्तत्र मां दण्डकारिणम् ॥ २५३ ॥
एवं च सेनापतिनाऽभिहितो दिविषत्पतिः । कृत्वाऽवधानमवधिज्ञानं प्रायुक्त तत्क्षणात् ॥ २५४ ॥ जैनप्रवचनेनेव, धर्म दीपेन वस्त्विव । द्वितीयतीर्थकुञ्जन्माऽज्ञासीदवधिना हरिः॥ २५५ ॥ स दध्यौ चेत्यहो ! जम्बूद्वीपे वर्षे च भारते । विनीतायां महापुर्या, जितशत्रोर्महीपतेः॥२५६ ॥
जायाया विजयादेव्याः, सम्प्रत्ययमजायत । एतस्यामवसर्पिण्यां, द्वैतीयीको जिनेश्वरः॥२५७॥ युग्मम् ॥ 30 तेन चाऽऽसनकम्पोऽयं, धिर धिग दुश्चिन्तितं मया। ऐश्वर्येणोन्मदिष्णोर्मे, मिथ्यादुष्कृतमस्तु तत् ॥२५८॥
चेतसा चिन्तयित्वैवं, रत्नसिंहासनं निजम् । पादपीठं पादुके च, त्यक्त्वोत्तस्थौ पुरन्दरः ॥ २५९ ॥ ससम्भ्रमः शतमखोऽभिमुखं तीर्थकृद्दिशः। ददौ पदानि कतिचित, प्रस्थानमिव साधयन् ॥ २६० ॥ न्यस्योव्या दक्षिणं जानुमन्यं न्यश्य च किञ्चन। मां स्पृशन् पाणि-शीर्पण, ननाम स्वामिने हरिः॥२६१ शक्रस्तवेन वन्दित्वा, स्वामिनं पाकशासनः । वेलानिवृत्तोऽब्धिरिव, भेजे भूयः स्वभूमिकाम् ॥२६२॥
१ पूर्वदिक्सम्बन्धिनि । २ जन्मत आरभ्य शिक्षिता इव । ३ पर्वतोपविष्टसिंही-तत्पुत्रयोः। ४ अग्निः। ५ प्रभूतवैभवः। ६ सभायाम् । ७ ललाटम् । ८ इन्द्रम् । ९ दण्डकारकम् । १० इन्द्रः। ११ मत्तस्य । १२ इन्द्रः।
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द्वितीयः सर्गः ]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । अथ तत् तीर्थकृजन्म, सर्वान् ज्ञापयितुं सुरान् । तदुत्सवाय चाऽऽह्वातुं, गृहस्थः स्वजनानिव ॥ २६३ ॥ सद्यो रोमाश्चितवपुर्वपुष्मानिव सम्मदः । आदिदेश शुनासीरः, सेनान्यं नैगमेषिणम् ॥२६४॥ युग्मम् ॥
सादरं शिरसाऽऽदाय, पाकशासनशासनम् । सेनानीरपचक्राम, पीत्वेवाऽम्भः पिपासितः ॥ २६५ ॥ सुधर्मापरिषद्गव्याः, कण्ठघण्टामिवोद्भटाम् । सोऽताडयत् सुघोषां त्रिघण्टां योजनमण्डलाम् ॥२६६॥ तस्याश्च ताड्यमानाया, विश्वकर्णपथातिथिः । समुत्तस्थौ महान् नादो, मध्यमानाम्बुधेरिव ॥ २६७ ॥ 5 एकोनद्वात्रिंशल्लक्षा, घण्टा अन्या अपि स्फुटम् । प्रणेदुरथ तन्नादाद्, गोनादादिव तर्णकाः ॥ २६८ ॥ तासां शब्देन घण्टानां, जृम्भमाणेन भूयसा । सौधर्मकल्पः सर्वोऽपि, शब्दाद्वैतमयोऽभवत् ॥२६९ ॥ नित्यप्रमादिनस्तेषु, विमानेषु दिवौकसः । नादेन तेनाऽबुध्यन्त, सिंहा इव गुहाशयाः ॥ २७० ॥ आज्ञया द्युसदांराज्ञो, मन्ये केनाऽपि नाकिना। घोषणानाट्यनान्दीयं, सुघोषा वादिताऽधुना ॥२७१ ।। श्रोतव्या घोषणाऽवश्यं, वासवाज्ञाप्रकाशिनी। इत्याशयाद् दत्तकर्णमवातिष्ठन्त नाकिनः ॥२७२॥ युग्मम् ।। 10 शान्ते सुघोषानि|क्षे, कण्ठनादेन भूयसा । पुरन्दरस्य सेनानीश्वकाराऽऽघोषणामिति ॥ २७३ ॥ भो भोः! शृण्वन्तु गीर्वाणाः!, सौधर्मवर्गवासिनः!। समादिशति वः सर्वानसौ दिविषदांपतिः ॥२७४॥ जम्बूद्वीपस्य भरतेऽयोध्यायां पुरि भूपतेः। जितशत्रोः सधर्मिण्यां, विजयायां जगद्गुरुः ॥२७५॥ भाग्योदयेन विश्वस्य, विश्वानुग्रहकारकः । द्वितीयस्तीर्थनाथोऽद्य, प्रभुः समुदपद्यत ॥ २७६ ॥ तत् पावयितुमात्मानमसाभिः सपरिच्छदैः । जिनजन्माभिषेकाय, गन्तव्यं तत्र सम्प्रति ॥ २७७॥ 15 भवद्भिरपि सर्वद्ध्या, सर्वैः सर्वबलेन च । तत्र गन्तुं मया सार्द्धमागन्तव्यमिह द्रुतम् ॥ २७८ ॥ तस्यैवमाघोषणया, स्तनितेनेव केकिनः । कलयामासुरानन्दममन्दं त्रिदिवौकसः ॥ २७९ ॥ सयो विमानान्यारुह्य,पोतानिव दिवौकसः । आक्रामन्तो नभोम्भोधिमाजग्मुः शक्रसन्निधौ ॥ २८०॥
अन्तिके स्वामिनो गन्तुं, विमानं क्रियतामिति । आदिशत् पालकं नामाऽऽभियोगिकसुरं हरिः ॥२८१ उद्विद्रुममिवाऽम्भोधि, रत्नभित्तिमरीचिभिः । शातकुम्भमयैः कुम्भैरुत्पद्ममिव मानसम् ॥ २८२ ॥ 20 सर्वाङ्गीणं तिलकितमिव दीधैर्ध्वजांशुकैः । विचित्रै रत्नशिखरैरुच्छेखरमिवोच्छ्रितैः ॥ २८३ ॥ रत्नस्तम्भैः श्रीकरेणोरिवाऽऽलानैमनोरमम् । शालभञ्जीभिरन्याभिरप्सरोभिरिवाऽऽश्रितम् ॥ २८४ ॥ आत्ततालं नटमिव, *किङ्कणीजालमण्डितम् । सनक्षत्रं वियदिव, मौक्तिकखस्तिकाङ्कितम् ॥ २८५ ॥ ईहामृगा-ऽश्व-वृषभैनर-किन्नर-कुञ्जरैः । हंसैर्वनलता-पमलताभिश्च मनोरमम् ॥ २८६ ॥ लक्षयोजनविस्तीर्ण, जम्बूद्वीपमिवाऽपरम् । पञ्चयोजनशत्युचं, विमानं विचकार सः ॥ २८७॥ 25
॥षड्भिः कुलकम् ॥ तिसुष्वाशासु तस्याऽऽसंस्तिस्रः सोपानपतयः । महागिरेवतरन्निझरोर्म्य इवाऽऽयताः ॥ २८८ ॥ अग्रे सोपानपतीनामभूवन रत्नतोरणाः । अखण्डाखण्डलधनुःश्रेणिश्रीसोदरा इव ॥ २८९ ॥ आलिङ्गिपुष्करमुखादर्शदीपकमल्लिवत् । मध्यभागः समतलस्तस्य मौसृण्यभागभूत् ॥ २९० ॥ सुस्पर्शः सुप्रभैः पञ्चवर्णैश्चित्रैर्विचित्रितः । केकिपरिवाऽऽस्तीर्णो, भूमिभागो रराज सः ॥ २९१॥ 30 अभवन्मध्यतस्तस्यैकः प्रेक्षागृहमण्डपः । क्रीडावेश्म श्रियामन्तर्नगर्या राजवेश्मवत् ॥ २९२ ॥ मध्ये च तस्य विष्कम्भा-ऽऽयामाभ्यामष्टयोजना । चतुर्योजनबाहल्या, बभूव मणिपीठिका ॥ २९३ ॥ तस्सा उपर्येकमासीद् , रत्नसिंहासनोत्तमम् । महन्महत्यङ्गुलीये, माणिक्यमिव पावनम् ॥ २९४ ॥
सुधर्माख्यसभागव्याः। २ वत्साः। ३ हे देवाः!। ४ मेघगर्जिसेन। ५ मयूराः। ६ यानपात्राणि । ७ सुवर्णमयैः। ८ लक्ष्मीहस्तिन्याः। ९ बन्धनस्तम्भैः। १० पुत्तलिकाभिः। *किङ्किणी पात ॥ ११ मृदुताभाक् । १२ मयूरपिच्छैः। १३ महत्यां मुद्रिकायाम् ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ द्वितीयं पर्व
तस्योपरिष्टादुल्लोचो, राजतोऽराजतोज्ज्वलः । स्त्यांनीभूतशरज्योत्स्नाप्रसरभ्रमदायकः ॥ २९५ ॥ तन्मध्ये लम्बमानोऽभूदेको वज्रमयोऽङ्कुशः । तत्र प्रलम्ब्यभूदेकं, मुक्तादामैककुम्भिकम् ॥ २९६ ।। तस्याऽनुजन्मान इव, ककुप्सु चतसृष्वपि । अर्धकुम्भप्रमैर्मुक्ताफलैहरस्रजोऽभवन् ॥ २९७ ॥ मन्दमन्दोल्यमानास्ते, वातेन मृदुनाऽद्युतन् । शुनासीरश्रियो लीलादोलालक्ष्मीम लिम्लुचाः ।। २९८ ।। महतस्तस्य शाकस्य, रत्नसिंहासनस्य तु । पूर्वोदीच्यामुदीच्यां चाऽपरोदीच्यां तथा दिशि ।। २९९ ।। चतुरशीतिसहस्रसामानिकदिवौकसाम् । भद्रासनानि तावन्ति, रत्नरम्याणि जज्ञिरे || ३०० ॥ तत्राऽष्टानामिन्द्राणीनां प्राच्यामष्टाऽऽसनानि च । कमलाकेलिमाणिक्य वेदिकासन्निभान्यभान् ॥ ३०१॥ दिशि दक्षिणपूर्वस्यां तत्राऽभ्यन्तरपर्षदः । देवद्वादशसहरूपा, अभवन्नासनानि तु ॥ ३०२ ॥ दक्षिणस्यां दिश्यभूवन्, मध्यायाः शक्रपर्षदः । चतुर्दशामरसहरुयासनानि निरन्तरम् ॥ ३०३ ॥ दिशि याम्यप्रतीच्यां च बभूवुर्बाह्यपर्षदः । षोडशानां सहस्राणामासनानि दिवौकसाम् ॥ ३०४ ॥ शक्रसिंहासनस्योच्चैस्तस्य पश्चिमतोऽभवन् । सप्तानामप्यनीकाधिपतीनामासनानि तु ॥ ३०५ ॥ शासनस्य प्रत्येकं, ककुप्सु चतसृष्वपि । चतुरशीत्यात्मरक्षसहरूया आसनानि तु ॥ ३०६ ॥ fer विमानं शक्राज्ञासमकालमजायत । निष्पद्यन्ते सुमनसां मनसा हीष्टसिद्धयः ॥ ३०७ ॥
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सङ्क्रन्दनो विचक्रे च, जिनाभिगमनोत्सुकः । विचित्रभूषणधरं रूपमुत्तरवैक्रियम् ॥ ३०८ ॥ लावण्यामृतवल्लीभिर्महिषीभिः सहाऽष्टभिः । नाट्यानीकेन गन्धर्वानीकेन च महीयसा ॥ ३०९ ॥ हृष्टः प्रदक्षिणीकृत्य, तद् विमानवरं हरिः । अध्यारुरोह पूर्वेण, रत्नसोपानवर्त्मना ॥ ३१० ॥ युग्मम् ॥ रत्नसिंहासने पूर्वाभिमुखस्तत्र वासवः । आसाञ्चक्रे शैलचूलाशिलायामिव केसरी ॥ ३११ ॥ स्वान्यासनान्यलञ्चक्रुर्महिष्योऽपि बिडौजसः । यथाक्रमं कमलिनीदलानीव मरालिकाः ॥ ३१२ ॥ चतुरशीतिः सहस्राः, सामानिकदिवौकसाम् | अध्यारोहन् विमानं तदुदक्सोपान वर्त्मना || ३१३ ।। तत्राssसाञ्चक्रिरे खेषु खेषु भद्रासनेषु ते । रूपधेयान्तराणीवाऽप्रतिरूपाणि वज्रिणः ॥ ३१४ ॥ अन्येऽपि देवा देव्यथाऽपाच्यसोपानवर्त्मना । तद् विमानं समारोहन, निषेदुश्च यथासनम् || ३१५ ।। हरेः सिंहासनस्थस्य, पुरोऽभूदष्टमङ्गली | पत्नीभिरष्टाभिरिवैकैकमङ्गलकल्पनात् ॥ ३१६ ॥ तदनु च्छत्र- भृङ्गार - पूर्णकुम्भादयोऽभवन् । ते हि स्वाराज्यचिह्नानि, च्छायावत् सहचारिणः ।। ३१७ ।। सहस्रयोजनोत्सेधस्तदग्रेऽभून्महाध्वजः । युतो लघुध्वजशतैः पल्लवैरिव पादपः ।। ३१८ ॥ तदग्रे चाभवन् पञ्चानीकाधिपतयो हरेः । आभियोगिकदेवाश्च, स्वाधिकाराप्रमादिनः ।। ३१९ ।। इत्थं महर्द्धिभिः शक्रः, सुरकोटीभिरावृतः । चतुरैचारणगणैः स्तूयमानमहर्द्धिकः ॥ ३२० ॥ नाट्यानीकेन गन्धर्वानीकेन च निरन्तरम् । प्रक्रान्तनाट्याभिनयसङ्गीतककुतूहलः ॥ ३२९ ॥ अनीकैः पञ्चभिश्चाऽग्रे, कृष्यमाणमहाध्वजः । पुरस्तूर्यनिनादेन, ब्रह्माण्डं स्फोटयन्निव ॥ ३२२ ॥ सौधर्मदेवलोकस्योदीचीने तिर्यगध्वनि । तेनाऽऽययौ विमानेनाऽवतितीर्षुर्महीतले ॥ ३२३ ॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥
आपूर्णो देवकोटीभिरवरोहन् व्यराजत । विमानः पालकः कल्पः, सौधर्म इव जङ्गमः ॥ ३२४ ॥ द्वीप - sभोधीनसङ्ख्यातानलङ्घिष्ट क्षणादपि । तद् विमानवरं दिव्यं, वेगेनाऽतिमनोगत || ३२५ ।। सौधर्ममिव भूमिष्ठं, देवक्रीडानिकेतनम् । नन्दीश्वरमहाद्वीपं तद् विमानमथाऽऽसदत् ॥ ३२६ ॥ तत्र दक्षिणपूर्वस्मिन्, शैले रतिकराभिधे । गत्वा पुरन्दरो वेगात्, तद् विमानं समक्षिपत् ॥ ३२७ ॥ 35 सङ्क्षिपन् सङ्क्षिपन्नेवं, विमानं क्रमशो हरिः । जम्बूद्वीपस्य भरते, विनीतामाययौ पुरीम् ॥ ३२८ ॥
१ घनीभूता । २ इन्द्रः । ३ दक्षिणसोपानमार्गेण । ४ उन्नतः । ५ सङ्घसमकरोत् ।
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द्वितीयः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । तत्र तेन विमानेन, खामिनः सूतिकागृहम् । स त्रिः प्रदक्षिणीचक्रे, स्वामिवत् स्वामिभूम्यपि ॥ ३२९ ॥ तस्योदक्पूर्वककुभि, स विमानमतिष्ठिपत् । हरिईराद् यानमिव, सामन्तो राजवेश्मनि ॥ ३३० ॥ प्राविशत् सूतिकावेश्म, स्वामिनोऽथ पुरन्दरः । कुलीनकर्मकरवद्, भक्तितः सङ्घचत्तनुः ॥ ३३१ ॥ तीर्थकृत्तीर्थकृन्मात्रोरप्यालोकितमात्रयोः । प्रणनाम सहस्राक्षो, धन्यमानी स्वचक्षुषाम् ॥ ३३२ ॥ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य, स्वामिनं विजयां च सः । नमस्कृत्य च वन्दित्वा, चैवमूचे कृताञ्जलिः ॥ ३३३ ॥ 5 __ नमस्ते कुक्षिणा रत्नधारिके! विश्वपावनि ! । जगन्मातः! सदालोकजगद्दीपप्रदायिनि ! ॥ ३३४ ॥ मातस्त्वमेका धन्याऽसि, द्वितीयस्तीर्थकृद् यया । विश्वोपकारी सुषुवे, पृथिव्या कल्पवृक्षवत् ॥ ३३५ ॥ अहं हि सौधर्मपतिः, स्वामिजन्ममहोत्सवम् । कर्तुमत्राऽऽगमं मातर्न भेतव्यमतस्त्वया ॥ ३३६ ॥ इत्युदीर्य सहस्राक्षस्तदाऽपस्वापनी ददौ । विकृत्य तीर्थकद्रूपं, देव्याः पार्श्वे न्यधत्त च ॥ ३३७ ॥ ततः शक्रः क्षणाच्छकान् , विचके चाऽऽत्मपञ्चमान् । एकधाऽनेकधा च स्युः, कामरूपा दिवौकसः॥३३८।। 10 एकः सुरपतिस्तेषु, प्रोद्भिन्नपुलकाङ्कुरः । मनसेव शुचिर्भूत्वा, शरीरेणापि भक्तितः॥ ३३९ ॥ नमस्कृत्याऽनुजानीहीत्यभिधाय जिनेश्वरम् । गोशीर्षरसलिप्ताभ्यां, कराब्जाभ्यामुपाददे ॥३४०॥ युग्मम् ॥ द्वितीयः पृष्ठतः स्थित्वाऽऽतपत्रं स्वामिमूर्धनि । अधारयद् गिरिशिरःस्थितरीकेन्दुविभ्रमम् ॥ ३४१ ॥ बिभराञ्चक्रतुरुभौ, पार्श्वतश्चामरे हरी । स्वामिदर्शनतः साक्षादात्तौ पुण्यचयाविव ॥ ३४२ ॥ एक उल्लालयन् वज्र, प्रतीहार इवाऽग्रतः । ससर्प स्वामिनं पश्यन् , किश्चिद् वलितकन्धरः ॥ ३४३ ॥ 15 सामानिकाः पारिषद्यास्त्रायस्त्रिंशास्तथाऽपरे । परिवत्रुर्दिविषदः, प्रभुं पद्ममिवाऽर्लयः ॥ ३४४ ॥ भुवनस्वामिनं यत्नात् , पाणिभ्यां धारयन् हरिः । मेरुशैलं प्रत्यचालीजन्मोत्सवविधित्सया ॥ ३४५ ॥ अनुस्खामि दधावेऽथ, पर्यस्यद्भिः परस्परम् । अहम्पूर्विकया देवैरनुगीतं मृगैरिव ॥ ३४६ ॥ स्वामिनं पश्यतां दूराद्, दृष्टिपातैर्दिवौकसाम् । फुल्लनीलोत्पलवनाकीर्णेव द्यौरजायत ।। ३४७ ॥ भूयो भूयो भगवन्तमुपेत्योपेत्य दूरतः । निरीक्षाञ्चक्रिरे देवाः, स्वधनं तद्धना इव ॥ ३४८॥
20 समापतन्तो युगपत् , सम्मर्दैन दिवौकसः । अन्योऽन्यमास्फलन्ति स्म, तरङ्गा इव वारिधः ॥ ३४९ ॥ गगने शक्रयानेन, गच्छतः स्वामिनः पुरः । पुष्पप्रकरतां भेजुर्ग्रह-नक्षत्र-तारकाः ॥ ३५० ॥ पुरुहूतो मुहूर्तान्तर्मेरुमूर्ध्नि ययौ शिलाम् । अतिपाण्डुकम्बलाख्या, चूलादक्षिणतः स्थिताम् ॥३५१॥ रत्नसिंहासनोत्सङ्गे, खोत्सङ्गस्थापितप्रभुः । तत्र चोपाविशत् पूर्वाभिमुखः पूर्वदिक्पतिः ॥ ३५२ ॥
तदैवैशानकल्पेन्द्रोऽप्यद्धतासनकम्पतः। अज्ञासीदवधिज्ञानाच्छीमत्सर्वज्ञजन्म तत ॥ ३५३॥ शक्रवत् सोऽपि सन्त्यज्य, रत्नसिंहासनादिकम् । दत्त्वा पदानि सप्ताऽष्टान्यनमजगदीश्वरम् ॥ ३५४ ॥ तस्याऽऽज्ञया च सेनानी नाऽलघुपराक्रमः। घण्टामास्फालयामास, महाघोषां महास्वनाम् ॥३५५॥ विमानलक्षास्तन्नादोष्टाविंशतिमपूरि सः । उद्वेलजलधिध्वानस्तटार्चलदरीरिव ॥ ३५६ ॥ देवास्तेषां विमानानां, तन्निनादेन चाऽबुधन् । प्रभातशङ्खध्वनिना, प्रसुप्ता इव भूभुजः॥३५७ ॥ शान्ते तस्मिन् महाघोषाघण्टाघोषे चमूपतिः । पर्जन्यधीरध्वनितः, स एवं घोषणां व्यधात् ॥३५८ ॥ 30 जम्बूद्वीपस्य भरते, विनीतायां पुरि प्रभुः । विजया-जितशवोस्तु, द्वितीयोऽजनितीर्थकृत् ॥३५९॥ तस्य जन्माभिषेकाय, मेरौ यास्यति वः प्रभुः। तत्समं स्वामिना गन्तुं, त्वरध्वं हे दिवौकसः ॥ ३६० ॥ इत्युच्चकै?षणया, सर्वे देवास्तदैव हि । मन्त्राकृष्टा इवाऽऽजग्मुरैशानपतिसन्निधौ ॥ ३६१ ॥ शूलपाणिरथेशान, उत्तरार्धदिवस्पतिः । रत्नभूषणभृद् रत्नेसानुमानिव जङ्गमः ॥ ३६२ ॥
१ कुलवान् किङ्कर इव । २ पूर्णिमा । ३ देवाः। ४ भ्रमराः। ५ कृपणाः। ६ शक्रवाहनेन । ७ इन्द्रः । गिरिगुहा इव । ९रवगिरिरिव ।
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१७८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीयं पर्व श्वेताम्बरधरः स्रग्वी, महावृषभवाहनः । सामानिकादिभिर्देवैः, कोटिशः परिवारितः ॥ ३६३ ॥ विमानं पुष्पकं नामाऽध्यारुह्य सपरिच्छदः । दक्षिणेनेशानकल्पस्याऽध्वना निरगाद् द्रुतम् ॥३६४ ॥
॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ असङ्ख्यातान् समुल्लङ्य, द्वीपा-ऽम्भोधीन क्षणादपि । नन्दीश्वरमहाद्वीपं, प्रापैशानसुरेश्वरः ॥ ३६५ ॥ तत्र चोत्तरपूर्वस्मिन्, शैले रतिकरे निजम् । सश्चिक्षेप विमानादि, हेमन्त इव वासरम् ॥ ३६६ ।। क्रमेण सङ्क्षिपस्तत् तदकालक्षेपतो ययौ । सुमेरावन्तवासीव, पादान्तं जगदीशितुः ॥ ३६७ ॥ । सनत्कुमारो ब्रह्मा च, शुक्रश्चप्राणतः सुरैः। घण्टां सुघोषामास्फाल्य, बोधितर्नेगमेषिणा ॥३६८ शक्रवद् वर्त्मनोदीचा, नन्दीश्वरमुपेत्य च । अपाक्पूर्वे रतिकरे, विमानादि समक्षिपन् ॥ ३६९ ॥ ययुश्च मेरुशिरसि, शक्रोत्सङ्गे निपेदुषः । सन्निधाने भगवतो, नक्षत्राणि विधोरिव ॥ ३७० ॥ महेन्द्रो लान्तकश्थापि, सहस्रारोऽच्युतोऽपि च । महाघोषाऽलघुपराक्रमाभ्यां बोधितामराः ३७१ ईशानवद् दक्षिणेन, पथा नन्दीश्वरं ययुः । उदक्पूर्वे रतिकरे, विमानादि समक्षिपन्॥३७२॥ युग्मम्।। अधिवामि ततो जग्मुः, काञ्चनाचलमूर्धनि । पथिका इव सानन्, वनेऽधिफलपादपम् ॥ ३७३ ॥
पुर्या चमरचञ्चायां, दक्षिणश्रेणिभूषणे । सुधर्मायां चकम्पे च, चमरस्याऽऽसनं तदा ॥३७४ ॥ सोऽपि ज्ञात्वाऽवधिज्ञानात्, तीर्थकृजन्म पावनम् । गत्वा पदानि सप्ताष्टान्याननाम जिनेश्वरम् ॥३७५॥ 15 आज्ञया तस्य सद्योऽपि, पत्त्यनीकपतिद्रुमः । घण्टामोघखरां नामाऽऽस्फालयामास सुखराम् ॥ ३७६ ॥
शान्ते चौघस्वराघोषे, तेन चाऽऽघोषणे कृते । असुराश्चमरं भेजुः, सायं द्रुमिव पक्षिणः ॥ ३७७ ॥ आभियोगिकदेवश्च, चमरेन्द्रस्य शासनात् । योजनार्धलक्षमानं, विमानं व्यकरोत् क्षणात् ॥ ३७८ ॥ पञ्चयोजनशत्युच्चमहेन्द्रध्वजमण्डितम् । पोतः सकूपक इव, तद् विमानमराजत ॥ ३७९ ॥
चतुःषष्टिसहस्रैः स, समं सामानिकासुरैः । त्रयस्त्रिंशित्रायस्त्रिंशैश्चतुर्भिर्लोकपालकैः ॥ ३८० ॥ 20 परिवारसमेताभिर्महिषीभिश्च पञ्चभिः । तिसृभिः परिषद्भिश्च, महानीकैश्च सप्तभिः ॥ ३८१ ॥
सप्तभिश्चानीकनाथैः, सामानिकचतुर्गुणैः । आत्मरक्षैस्तथाऽन्यैरप्यसुराणां कुमारकैः ॥ ३८२ ॥ तद् विमानं समारुह्य, क्षणान्नन्दीश्वरं ययौ । विमानं खे रतिकरे, सञ्चिक्षेप च शक्रवत् ॥ ३८३ ॥ प्रवाह इव जाहव्या, वेगात् पूर्वपयोनिधिम् । स ययौ स्वामिपादान्तं, मेरुपर्वतमूर्धनि ॥ ३८४ ॥
नगयों बलिचञ्चायामुत्तरश्रेणिमण्डने । बलिश्वाऽऽसनकम्पेनाऽहेजन्माऽवधिनाऽबुधत् ॥ ३८५ ॥ 25 तस्याऽऽदेशात पत्त्यनीकपतिनाम्ना महाद्रुमः। द्राग महोघवरां नाम, घण्टां त्रिः पयंताडयत् ॥३८६॥
घण्टानादे च विश्रान्ते, प्राग्वदाघोषणामसौ । अकादंसुरश्रोत्रसुधाश्रोतःसहोदराम् ॥ ३८७ ॥ तया घोषणयाऽभ्येयुः, सर्वतोऽप्यसुरा बलिम् । अम्बुदस्येव नादेन, मानसं मार्नसौकसः ॥ ३८८ ॥ पूर्वसङ्खयैर्महिष्याधैर्युक्तः सामानिकैः पुनः । पष्टिसहस्रेस्तेभ्यश्चाऽऽत्मरक्षैस्तु चतुर्गुणैः ॥ ३८९ ॥
प्राग्मानेन विमानेन, प्राग्वदिन्द्रध्वजेन च । गत्वा नन्दीश्वररतिकरं मेरुशिरस्यगात् ॥ ३९० ॥ 30 धरणेन्द्रोहरिर्वेणुदेवश्चाऽग्निशिखस्तथा। वेलम्ब-सुघोष-जलकान्ताः पूर्णोऽमितोऽपि च ॥३९१॥
नाग-विद्युत्-सुपर्णा-ऽग्नि-वायु-मेघ-सरस्वताम् । द्वीपानांच दिशांचेन्द्रा, दक्षिणश्रेणिगाःक्रमात् ॥ उदक्श्रेणेस्त्वमी भूतानन्दो हरिशिखस्तथा । वेणुदारी तथा चाऽग्निमाणवश्च प्रभञ्जनः ॥३९३॥ महाघोषो जलप्रभो, वशिष्ठोऽमितवाहनः । सर्वेऽप्यासनकम्पेनाऽर्हजन्माऽवधिनाऽबुधन ॥३९४॥ ततश्च धरणादीनां, भद्रसेनैश्चमूधवैः । भूतानन्दादीनां दक्षाभिधैघण्टास्त्रिराहताः ॥ ३९५ ॥
१ कालक्षेपं विना। २ शिष्य इव । * माहेन्द्रोसङ्घ ३ संता०॥ ३ अधिकानि फलानि यत्रैतादृशं पादप प्रात। नानाss. स ॥ ४ सेवकस्थानीयो देवः। ५ असुरकर्णामृतप्रवाहसदृशाम् । ६ हंसाः। पञ्चभिः ।
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द्वितीयः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । तत्र मेघस्वरा क्रौञ्च-हंस-मञ्जुस्वरास्तथा । नन्दिस्वरा नन्दिघोषा, सुस्वरा मधुरस्वरा ॥३९६ ॥ म घोषा चेति घण्टा, नेदुस्तेषां यथाक्रमम् । नागादिकानां भवनपतीनां पक्षयोर्द्वयोः ॥ ३९७ ॥ द्वयोरपि ततः श्रेण्योः, सर्वे नागादयः क्षणात् । स्खं स्वमिन्द्रं समाजग्मुः, स्वस्थानमिव वाजिनः॥३९८॥ तेषामप्याज्ञया स्खे खे, त्रिदशा आभियोगिकाः । रन-स्वर्णविचित्राणि, विमानानि तदैव हि ॥ ३९९ ॥ योजनानां पञ्चविंशिसहस्रान् विस्तृतानि च । सार्धद्वियोजनशतेन्द्रध्वजानि विचक्रिरे ॥ ४००॥ 5 प्रत्येकं महिपीभिस्ते, पड्भिः सामानिकैस्तथा । पट्सहस्रैश्च तेभ्यश्चाऽङ्गरक्षैस्तु चतुर्गुणैः ॥ ४०१॥ अन्यैश्चमर-बलिवत् , बायस्त्रिंशादिभिवताः । विमानानि समारुह्य, मेरौ स्वाम्यन्तिके ययुः ॥४०२ ॥
पेशाचानांच भूतानां,यक्षाणांरक्षसामपि। किन्नर-किम्पुरुषा-हि-गन्धर्वाणामधीश्वराः॥४०३ कालः सरूपोऽथ पूर्णभद्रो भीमश्च किन्नरः। सत्पुरुषश्चाऽतिकायो, नाम्ना गीतरतिस्तथा॥४०४॥ दक्षिणश्रेणिगा एते, ह्युत्तरश्रेणिगास्त्वमी । महाकालोप्रतिरूपो, माणिभद्राभिधोऽपि च ॥४०५॥10 महाभीमः किम्पुरुषो, महापुरुष एव च । महाकायो गीतयशा, द्वयेऽप्यासनकम्पतः ॥४०६॥ ज्ञात्वाऽर्हजन्म ते स्वैः स्वैः, सैन्यनाथैनिजां निजाम् । मञ्जुखरां मञ्जुघोषां, घण्टामास्फालयन् क्रमात् ४०७
॥पञ्चभिः कुलकम् ।। शान्ते नादे च घण्टानां, सेनान्या घोषणे कृते । व्यन्तरास्ते पिशाचाद्या, एयुरिन्द्रान्निजान्निजान् ॥४०८॥ इन्द्राः परिवृता देवैरत्रायस्त्रिंश-लोकपैः। त्रायस्त्रिंश-लोकपा हि, नैषां चन्द्रा-ऽर्कयोरिव ॥ ४०९॥ 15 सामानिकसहौस्तु, ते चतुर्भिः पृथक पृथक् । सहस्रैरात्मरक्षाणां, वृताः षोडशभिस्तथा ॥ ४१०॥ विकृतानि विमानानि, स्वैर्देवैराभियोगिकैः । तेऽधिरुह्य समाजग्मुर्मेरौ भगवदन्तिके ॥ ४११ ॥ __ तथाऽणपन्निकादीनां, दक्षिणश्रेणिवर्तिनाम् । उत्तरश्रेणिभाजां च, पिशाचादिसुरेन्द्रवत् ॥४१२॥ व्यन्तराष्टनिकायानां, सुरनाथाश्च पोडश । प्राग्वदासनकम्पेन, ज्ञात्वा जन्म जिनेशितः ॥ ४१३ ॥ मञ्जखरां मञ्जघोषां, पृथगास्फाल्य सैन्यपैः । घोषणां कारयित्वा च, स्वैः स्वैश्च व्यन्तरैर्युताः॥४१४॥ अधिरुह्य विमानानि, विकृतान्याभियोगिकैः । सामानिकादिभिः प्राग्वत्, सम्भूयैयुर्जिनान्तिकम् ॥४१५ ॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ चन्द्रा-ऽऽदित्यावसङ्ख्यातो, तद्वदात्तपरिच्छदौ । आजग्मतुर्जिनं मेरौ, पितरं तनयाविव ॥ ४१६ ॥ एवमिन्द्राश्चतुःषष्टिः, स्वतन्त्राः परतन्त्रवत् । भक्त्या समापतन्ति स्म, स्वामिजन्मोत्सवेच्छया ॥ ४१७॥
एकादश-द्वादशयोः, कल्पयोरथ वासवः । स्नात्रोपकरणायाऽऽभियोगिकानादिशत् सुरान् ॥ ४१८ ॥ 25 तैर्दिश्युत्तरपूर्वस्यामपक्रम्याऽऽभियोगिकैः । विधायोच्चैः समुद्धातमेवं कुम्भा विचक्रिरे ॥ ४१९ ॥ सौवर्णा राजता रानाः, स्वर्णरूप्यमया अपि । स्वर्णरत्नमयाश्चापि, रूप्यरत्नमया अपि ॥ ४२०॥ स्वर्णरूप्यरत्नमयास्तथा मृत्स्नामया अपि । अष्टाधिकानि प्रत्येकं, शतानि दश सङ्ख्यया ॥ ४२१॥ एतावन्तश्च भृङ्गारा, दर्पणा भाजनानि च । पाव्यश्च सुप्रतिष्ठाश्च, तथा रत्नकरण्डकाः ॥ ४२२ ॥ पुष्पचङ्गेरिकाश्चापि, प्रत्येकं तैर्विचक्रिरे । अकालक्षेपतः कोशागारादिव समाहृताः॥४२३॥ 30 आदाय तांश्च ते देवाः, कलसानलसेतराः । सरसीवाऽम्बुहारिण्यो, ययुः क्षीरोदसागरे ॥४२४ ॥ उद्बुद्बुदरवैः कुम्भैरुन्मङ्गलरवैरिव । स्वैरं क्षीरोदकं तत्र, तेऽगृह्णन् जलदा इव ॥ ४२५ ॥ पुण्डरीकाणि पद्मानि, कुमुदान्युत्पलानि च । सहस्रपत्राणि शतपत्राण्याददिरे च ते ॥ ४२६ ॥ उपेत्य पुष्करोदेऽपि, तेऽम्बुधौ पुष्करादिकम् । भृशायमाना जगृहुर्तीपे सांयात्रिका इव ॥ ४२७ ॥ भरतैरवतक्षेत्रवर्तिनामुदकादिकम् । तीर्थानां मागधादीनामप्युपाददिरे सुराः ॥ ४२८॥ 35 * सेनानाथै सङ्घ १ ॥ १ सेनापतिभिः। २ मृण्मयाः। ३ अप्रमादिनः। ४ नौव्यापारिणः ।
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१८० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीयं पर्व गङ्गादिषु इदिनीषु, पद्मादिषु इदेषु च । मृदम्भोजानि जगृहुः, सन्तप्ताः पथिका इव ॥ ४२९ ॥ सर्वतः कुलशैलेभ्यो, वैताट्येभ्यश्च सर्वतः । सर्वतो विजयेभ्यश्च, वक्षारेभ्यश्च सर्वतः ॥ ४३० ॥ देवोत्तरकुरुभ्यश्च, सुमेरुपरिधिस्थितात् । भद्रशालानन्दनाच, सौमनसाच पाण्डकात् ॥४३१॥ पर्वतेभ्यश्च मलय-दर्दुरादिभ्य ओषधीः । गन्धान् पुष्पाणि सिद्धार्थास्तेऽगृहंस्तुवराणि च ॥ ४३२ ॥
॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ तानि द्रव्याणि सर्वाणि, मेलयन्ति म नाकिनः । भेषजानीव भिषजो, गन्धानिव च गान्धिकाः ॥४३३॥ तदुपादाय ते सर्वमुपस्वामि समाययुः । अच्युतेन्द्रस्य मनसा, स्पर्द्धमाना इवाऽऽदरात् ।। ४३४ ।।
ततश्च भक्तिभागिन्द्र, आरणा-ऽच्युतकल्पयोः। वृतः सहस्रर्दशभिः, सामानिकदिवौकसाम् ॥४३५॥
त्रयस्त्रिंशत्रायस्त्रिंशैश्चतुर्भिर्लोकपालकैः । पर्षद्भिस्तिसृभिः सैन्यैः, सैन्यनाथैश्च सप्तभिः ॥ ४३६ ॥ 10
चत्वारिंशता सहजैश्वाऽऽत्मरक्षदिवौकसाम् । उत्तरासङ्गवानग्रे, विमुच्य कुसुमाञ्जलिम् ॥ ४३७ ॥ कृतचर्चाश्चन्दनेन, मेराजपिहिताननान् । अष्टोत्तरं सहस्रं स, कुम्भान् देवैः सहाऽग्रहीत् ॥ ४३८ ॥ तान् कुम्भान् लोठयामास, स्वामिमूर्धन्यथाऽच्युतः। भक्तिप्रकर्षतः कुर्वन्नात्मवन्नमिताननान् ॥४३९ ॥ स्वामिसङ्गात् तदम्भोऽगात् , पुण्यमप्यतिपुण्यताम् । तापनीये ह्यलङ्कारे, सुतरां द्योतते मणिः ॥४४॥
पानीयधारोद्गिरणान्नदन्तः कलसाश्च ते । स्वामिस्त्रात्रविधौ मत्रान् , पठन्त इव रेजिरे ॥ ४४१॥ 15 कुम्भेभ्यो निपतंस्तेभ्योऽम्भःप्रवाहो महांस्तदा । स्वामिलावण्यसरितावेणीसङ्गमतां ययौ ॥ ४४२ ॥
अङ्गेषु स्वामिनः स्वर्णगौरेषु प्रसरत् पयः । तद् गाङ्गमिव हैमेषु, पद्मखण्डेष्वराजत ॥ ४४३ ॥ आ सर्वाङ्गं प्रसरता, निर्मलेनाऽतिहारिणा । वारिणा शुशुभे तेन, संसंव्यान इव प्रभुः॥ ४४४ ॥ तत्रेन्द्रेभ्यः सुरेभ्यश्च, केपि भक्तिभराकुलाः । उत्क्षिप्य नपयितृभ्यः, पूर्णकुम्भानुपानयन् ॥ ४४५ ॥
तस्थुछायाकराः केचित् , केचिच्चामरपाणयः । उद्धृपदहनाः केचित् , पुष्प-गन्धभृतोऽपरे ॥ ४४६ ॥ 20 पेटुः स्नात्रविधि केऽपि, केऽपि चक्रुर्जयारवम् । केचिच्च ताडयामासुर्दुन्दुभीन् कोणपाणयः ॥ ४४७ ॥
केऽप्युत्फुल्लकपोला-ऽऽस्यास्तारं शङ्खानपूरयन् । मिथ आस्फालयामासुः, कांस्यतालानथाऽपरे ॥ ४४८ ॥ आजघ्नुर्झल्लरीः केपि, रत्नदण्डैरखण्डितैः । केचिदुन्नादचण्डिम्नो, डिण्डिमान् पर्यताडयन् ॥ ४४९ ॥ नर्तकीवत् केऽप्यनृत्यन्नुचैस्ताललयानुगम् । नम्रतुर्विकृतं केऽपि, हास्याय विटंचेटवत् ॥ ४५० ॥
गायनीवत् केऽप्यगायन, प्रबन्धैः करणादिभिः । जगुर्गोपालवत् केचिदुच्छृङ्खलगलस्वरम् ॥ ४५१ ॥ 25 द्वात्रिंशत्पात्रकं केऽपि, नाटकाभिनयं व्यधुः । केचिदप्युत्पतन्ति स, निपतन्ति स केचन ॥ ४५२ ॥
रत्नानि ववृषुः केपि, ववृषुः केऽपि काञ्चनम् । अवर्षन् भूषणान्येकेऽवपंचूर्णानि केचन ॥ ४५३ ॥ ववृषुः केपि माल्यानि, पुष्पाणि च फलानि च । ववल्गुश्चतुरं केचित् , केचित् क्ष्वेडी च चक्रिरे ॥४५४॥ हेषी विदधिरे केऽपि, चक्रिरे केऽपि बंहितम् । स्थघोषं व्यधुः केऽपि, नादांस्त्रीन् केऽपि चक्रिरे ॥४५५॥
केपि चाचालयन् पदिदर्दरैर्मन्दराचलम् । मेदिनी दलयामासुश्चपेटौंभिश्च केचन ॥ ४५६॥ 30 केचिदानन्दबहलं, मुहुः कोलाहलं व्यधुः । भ्रमन्तो मण्डलीभूय, जगुः केऽपि च रासकान् ॥ ४५७ ॥
कृत्रिमं जज्वलुः केपि, प्रणेदुः केपि कौतुकात् । अगर्जन्नर्जितं केपि, विद्युद्वत् केचिदद्युतन ॥४५८॥
एवं विचित्रमानन्दाचेष्टमानेषु नाकिषु । अच्युतेन्द्रो भगवतोऽभिषेकमकरोन्मुदा ॥ ४५९ ॥ शिरस्यञ्जलिमुत्तंससनिभं विरचय्य सः । व्याजहार जय जयेत्युच्चैरव्याजभक्तिभाक् ॥ ४६०॥
१ विकसितकमलाच्छादितमुखान् । २ सौवर्णे । ३ शब्दायमानाः। ४ सुवर्णकमलेपु गङ्गावारीव । ५ उत्तरीयेण सहित इव । ६ छत्रधारिणः। ७ यष्टिपाणयः । ८ हास्यकारकनटवत् । ९ गायकीवत् । १० सिंहनादम्। ११ अश्वनादम्। १२ हस्तिनादम् । १३ पादघातैः। १४ करतलघातैः । १५ शिरोभूषणसदृशम् ।
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द्वितीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१८१ वस्त्रेण देवदूष्येण, ममार्ज खामिनस्तनुम् । दक्षसंवाहक इव, सुखस्पर्शेन पाणिना ॥ ४६१ ॥ आनन्दं नाटय चैनोव्यं नट इवाऽच्युतः । पुरतस्त्रिजगद्भतुरभ्यनैषीत् सहामरैः॥ ४६२॥ मोशीर्षचन्दनरसैः, स्वामिनोऽथ विलेपनम् । दिव्यभौमैश्च कुसुमैरचा च विदधेऽच्युतः ॥ ४६३ ॥ कुम्भो भद्रासना-ऽऽदशौं, श्रीवत्स-खस्तिकावपि । नन्द्यावर्तो वर्धमानो, मत्स्य इत्यष्टमङ्गलीम् ॥ ४६४ ॥ अत्यच्छै रजतमयैरखण्डैरथ तण्डुलैः । आरणा-ऽच्युतकल्पेन्द्र, आलिलेखाऽग्रतः प्रभोः॥४६५॥ युग्मम् ॥ 5 भक्तिनिनो जादघ्नं, कुसुमप्रकरं ततः । अमुञ्चत् पञ्चवर्ण स, सन्ध्याभ्रकणिकोपमम् ॥ ४६६ ॥ उत्तोरणामिव दिवं, कुर्वाणो धूमवर्तिभिः । उर्दूपदहनो धूपमधूपायदथाऽच्युतः॥४६७ ॥ उत्क्षिप्यमाणे धूपे च, वाद्यमानाऽमरोत्तमैः । सनिलेव महाघोषा, घण्टा तारस्वरा बभौ ॥ ४६८ ॥ हरिरुत्तारयामासाऽऽरात्रिकं स्वामिने स्वयम् । उच्छिखामण्डलं ज्योतिर्मण्डलश्रीविडम्बकम् ॥ ४६९ ॥ ततः पदानि सप्ताष्टान्यपक्रम्य प्रणम्य च । रोमाञ्चितोऽच्युतपतिः, स्तोतुमेवं प्रचक्रमे ॥ ४७० ॥ 10
जात्यजाम्बूनदच्छेदच्छविच्छन्ननभस्तल! प्रभो ! तबाधौतशुचिः, कायः कमिव नाऽऽक्षिपेत् १॥४७१॥ मन्दारदामवन्नित्यमवासितसुगन्धिनि । तवाऽङ्गे भृङ्गतां यान्ति, नेत्राणि सुरयोषिताम् ॥ ४७२ ॥ दिव्यामृतरसास्वादपोषप्रतिहता इव । समाविशन्ति ते नाथ!, नाऽङ्गे रोगोरगवजाः ॥ ४७३ ॥ त्वय्यादर्शतलालीनप्रतिमाप्रतिरूपके । क्षरत्स्वेदविलीनत्वकथाऽपि वपुषः कुतः ॥ ४७४॥ न केवलं रागमुक्तं, वीतराग! मनस्तव । वपुःस्थितं रक्तमपि, क्षीरंधारासहोदरम् ॥ ४७५ ॥ 15 जगद्विलक्षणं किं वा, तवाऽन्यद् वक्तुमीश्महे ? । यदविसंमबीभत्सं, शुभ्रं मांसमपि प्रभो ॥ ४७६ ॥ जल-स्थलसमुद्भूताः, सन्त्यज्य सुमनःस्रजः । तव निःश्वाससौरभ्यमनुयान्ति मधुव्रताः ॥ ४७७॥ लोकोत्तरचमत्कारकरी तव भवस्थितिः । यतो नाऽऽहार नीहारौ, गोचरश्चर्मचक्षुषाम् ॥ ४७८ ॥
इति स्तुत्वा प्रभुं किञ्चिदपक्रम्य कृताञ्जलिः । शुश्रूषातत्परस्तस्थावच्युतोऽच्युतभक्तिभाक् ॥४७९॥ इन्द्रा द्वापष्टिरन्येऽपि, क्रमेण सपरिच्छदाः । अभिषेकं जगद्भर्तुश्चक्रुरच्युतनाथवत् ॥ ४८०॥ 20 तद्वत् स्तुत्वा नमस्कृत्याऽपक्रम्य च कृताञ्जलि । उपासाञ्चक्रिरे नाथं, तत्पराः किङ्करा इव ॥ ४८१ ॥ __ अथ सौधर्मकल्पेन्द्र, इव द्रागतिभक्तितः । विचके पश्चधाऽऽत्मानं, द्वितीयस्वर्गवासवः ॥ ४८२॥ अतिपाण्डुकम्बलायामर्धचन्द्रसमाकृतौ । ऐशानकल्पवत् सिंहासनमेकोऽथ शिश्रिये ॥४८३ ॥ शक्रोत्सङ्गानिजोत्सङ्ग, रथादिव स्थान्तरम् । स समारोपयामास, यतमानो जगद्गुरुम् ॥ ४८४ ॥ आतपत्रं दधारको, विशदं खामिमूर्धनि । धारयामासतुश्चान्यौ, चामरे प्रभुपार्श्वयोः ॥ ४८५ ॥ 25 पञ्चमः शूलपाणिः सन् , पुरस्तस्थौ जगत्पतेः । प्रतीहार इवोदारेणाऽऽकारेण मनोरमः ॥ ४८६॥
ततः सौधर्मकल्पेन्द्रोऽप्यमरैराभियोगिकैः । अभिषेकोपकरणद्रव्याण्यानाययद् द्रुतम् ॥ ४८७ ॥ दिक्षु प्रभोश्चतसृषु, स्फटिकाद्रीनिवाऽपरान् । स्फाटिकान् सोऽतिचंतुरचतुरो व्यकरोद् वृषान् ॥ ४८८ ॥ तेषां वृषाणां शृङ्गेभ्योऽष्टभ्य उत्पेतुरुज्वलाः । अष्टाम्बुधारा धवला, रश्मिदण्डा इवैन्दवाः ॥ ४८९ ॥ समुत्पत्य मिलन्ति स, पुरो नद्य इवैकतः । निपतन्ति स पयसां, पत्याविव जगत्पतौ ॥ ४९०॥ 30 अभिषेकं जगद्भतुरेवङ्कारं चकार सः । भजयन्तरेण कविवच्छक्ताः खं ज्ञापयन्ति हि ॥ ४९१॥ भाष्टिं विलेपनं पूजामष्टमङ्गलिकामपि । आरात्रिकं च विधिना, विदधे सोऽच्युतेन्द्रवत् ॥ ४९२ ॥ शक्रस्तवेन वन्दित्वा, प्रणम्य च जगत्पतिम् । हर्षगद्गदया वाचा, स स्तोतुं प्रास्तवीदिति ॥ ४९३ ॥
१ अङ्गसंवाहनकर्मणि चतुरः सेवक इव । २ अतिखच्छैः। ३ जानुप्रमाणम् । * उद्धृतदहनो सङ्घ १॥ सुवर्णम् । ५ आदर्शतलप्रतिविम्बितप्रतिमासाशे। ६ दुग्धधारासाशम् । ७ दुर्गन्धरहितम्। ८ कुसुममालाः। ९ अतिदक्षः। १. समुद्रे । "मार्जनम् ।
त्रिषष्टि. २४
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१८२ कलिकालसर्पज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीयं पर्व जय त्रिभुवनाधीश !, जय विश्वकवत्सल ! । जय पुण्यलतोद्भेदनवाम्बुद! जगत्प्रभो ! ॥ ४९४ ॥ स्वामिन् ! विमानाद् विजयादवतीर्णोऽसि भूतले । इदं जगत् प्रीणयितुं, सरिदोघ इवाचलात् ॥ ४९५॥ बीजं मोक्षगुमस्येव, ज्ञानत्रितयमुज्वलम् । स्वामिन्नाजन्मसिद्धं ते, शीतलत्वमिवाम्भसः॥ ४९६ ॥
ये त्वां त्रिभुवनाधीश, धारयन्ति सदा हृदि । सम्मुखीनाः श्रियस्तेषामादर्शप्रतिबिम्बवत् ॥ ४९७ ॥ 5 उल्वणैर्बाध्यमानानां, कर्मरोगैः शरीरिणाम् । दिष्ट्या त्वमगदङ्कारप्रतीकारकरोऽभवः ॥ ४९८ ॥
त्वद्दर्शनसुधासारास्वादस्य त्रिजगत्पते ! । मरुपान्था इव वयं, न तृप्यामो मनागपि ॥ ४९९ ॥ रथः सारथिनेवाऽद्य, कर्णधारेण नौरिव । पथा बजतु लोकोऽयं, त्वया नेत्रा जगत्पते ! ॥ ५०० ॥ त्वत्पादपद्मशुश्रूषासमयाधिगमेन नः । भगवन्निदमैश्वर्य, कृतार्थमधुनाऽभवत् ॥ ५०१॥
__ स्तुत्वैवमादिभिः श्लोकैरष्टोत्तरशतेन तम् । विचक्रे पञ्चधा रूपं, प्राग्वत् प्राचीनबर्हिषा ॥ ५०२ ।। 10 नाथमेकोऽग्रहीच्छत्रमेको द्वावथ चामरे । वज्रपाणिः पुरस्तस्थावेकः शक्रस्तु पूर्ववत् ॥ ५०३ ॥
ततो मनोवत् स याकामीनः सपरिच्छदः । विनीतात्मा विनीतायां, जितशत्रुगृहं ययौ ॥५०४ ॥ तीर्थकृत्प्रतिरूपं स, संवत्रे तत्र तत्क्षणात् । विजयावामिनीपार्श्वे, तीर्थनाथं न्यधत्त च ॥ ५०५ ॥ उच्छीर्षे कुण्डलद्वन्द्वं, न्यधादर्केन्दुसोदरम् । देवदूष्यं च मसृणं, कोमलं शीतलं प्रभोः ॥ ५०६ ॥ दिवोऽवतरदर्कामं, स्वर्णप्राकारमण्डितम् । बबन्ध भर्तुरुल्लोचे, शक्रः श्रीदामगण्डकम् ॥ ५०७॥ मणि-रत्रयुता हारा, अर्घहाराश्च हारिणः । हरिणा दधिरे तत्र, दृग्विनोदकृते प्रभोः ॥ ५०८ ॥ तत्राऽपस्खापनी देव्या, विजयाया जहार सः । कुमुदिन्या इव शशी, पग्रिन्या इव चार्यमा ॥५०९॥ शक्रादिष्टवैश्रवणनिदेशेन दिवौकसः । जृम्भका नाम तत्रेयुर्जितशत्रुनिकेतने ॥ ५१० ॥ हिरण्य-स्वर्ण-रत्नानां, कोटीात्रिंशतं पृथक् । ववृषुस्ते द्वात्रिंशतं, नन्दभद्रासनानि च ॥५११॥ व्यधुर्भूषणवृष्टिं च, मण्यङ्गा इव शाखिनः । वस्त्रदृष्टिमथाऽनग्ना, इव कल्पमहीरुहाः॥ ५१२ ॥ वनानि भद्रशालादीन्यवचित्येव सर्वतः। पत्रवृष्टिं पुष्पवृष्टिं, फलवृष्टिं च ते व्यधुः॥५१३॥ विचित्रवर्णसुमनोमाल्यवृष्टिं महीयसीम् । वितेनिरे च चित्राङ्गनामकल्पद्रुमा इव ॥ ५१४ ॥ विदधुर्गन्धवृष्टिं च, चूर्णवृष्टिं च पावनीम् । उत्क्षिप्तैलादिकक्षोदा, इव दक्षिणमारुताः ॥ ५१५ ॥ अत्युदारां वसुधारावृष्टिं च परितेनिरे । वारिधारावृष्टिमिव, पुष्करावर्तवारिदाः॥ ५१६ ॥
सौधर्मशासिनः पाकशासनस्याऽनुशासनात् । अथाऽऽभियोगिका देवा, इत्थमाघोषणां व्यधुः॥५१७॥ 25 आकर्णयन्तु सर्वेऽपि, भो भो वैमानिकाः सुराः । भवनाधिपति-ज्योतिय॑न्तराश्चाधानतः ॥५१८॥
अर्हतोऽर्हजनन्याश्च, योऽशुभं चिन्तयिष्यति । तन्मूर्धा सप्तधा गच्छत्वर्जकस्येव मञ्जरी॥ ५१९॥ तदा च मेरुशिखरात्, सेन्द्राः सर्वे सुरा-ऽसुराः । द्वीपं कन्दलितानन्दा, नन्दीश्वरमुपाययुः ॥ ५२०॥ भगवन्तं नमस्कृत्य, जितशत्रुनिकेतनात् । ययौ नन्दीश्वरद्वीपं, सौधर्मेन्द्रोऽपि तत्क्षणात् ॥५२१॥
तत्राञ्जनाद्रौ पूर्वसिन् , शाश्वतायतनेषु सः । शाश्वताहत्प्रतिमानां, चकाराऽष्टाह्निकोत्सवम् ॥ ५२२ ॥ 30 सौधर्मेन्द्रस्य चत्वारो, लोकपालाश्चतुर्ध्वपि । अष्टाह्निकोत्सवं हृष्टाश्चक्रुर्दधिमुखाद्रिषु ॥ ५२३ ॥
उत्तरसिन्नञ्जनाद्रौ, शाश्वतायतनेषु तु । ईशानेन्द्रः शाश्वतार्हत्प्रतिमाष्टाह्निका व्यधात् ॥ ५२४ ॥ लोकपालाश्च तस्यापि, प्राग्वद् दधिमुखाद्रिषु । ऋषभादिप्रतिमानां, व्यधुरष्टाह्निकोत्सवम् ॥ ५२५ ॥ अष्टाह्निकां चमरेन्द्रश्चक्रेऽपाच्येऽञ्जनाचले । चतुर्पु तद्दधिमुखाद्रिषु तस्य तु लोकपाः ॥ ५२६ ॥ बलीन्द्रोऽष्टाह्निकां चक्रे, पश्चिमे त्वञ्जनाचले । तल्लोकपालाः शैलेषु, चक्रुर्दधिमुखेषु तु ॥ ५२७ ॥
* ङ्कारः, प्रति सङ्घ २ सङ्घ ३ ॥ १ इन्द्रेण । २ इन्द्रः। ३ नम्रात्मा। ४ स्निग्धम् । ५ मनोहराः । ६ सूर्यः। ७ सिंहासनविशेषाः। ८ सावधानतया। ९ पल्लवितानन्दाः ।
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द्वितीयः सर्गः ]
त्रिषष्टिशला कापुरुषचरितम् ।
ततश्च सङ्केतस्थानादिव द्वीपवरात् ततः । कृतकृत्या निजनिजं, स्थानं जग्मुः सुरासुराः ॥ ५२८ ॥
इतश्च तस्यां यामिन्यामन्वर्हद् वैजयन्त्यपि । सुखेन सुषुवे सूनुं, गङ्गेव कनकाम्बुजम् ॥ ५२९ ॥ जाया-चध्वोस्तु विजया-वैजयन्त्योः परिच्छदः । पुत्रोत्पत्तिकिंवदन्त्या, जितशत्रुमवर्धयत् ॥५३० ॥
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तया च वार्तया तुष्टो, राजाऽदात् पारितोषिकम् । तथा यथा तत्कुलेऽपि, श्रीरभूत् कामधेनुवत् ॥ ५३१ ॥ घनागमे सिन्धुरिव, सिन्धुराडिव पर्वणि । स्फारीबभूव वपुषा, तदानीं मेदिनीपतिः ॥ ५३२ ॥ उच्छ्रासं सह मेदिन्या, प्रसादं नभसा सह । आप्यायकेत्वं मरुता, सह भेजे महीपतिः ।। ५३३ ॥ राज्ञा मुमुचिरे तेन, काराबन्धाद् द्विषोऽपि हि । अवाशिष्यत बन्धस्तु, तदेभादिषु केवलम् ॥ ५३४ ॥ चैत्येषु जिनबिम्बानां, पूजाच विदधेऽद्भुताः । शाश्वतार्हत्प्रतिमानामिव शक्रो नरेश्वरः ।। ५३५ ॥ अर्थिनश्च स्वक-परानपेक्षं सोऽधिनों धनैः । सर्वसाधारणी वृष्टिर्वारिदस्योद्यतस्य हि ॥ ५३६ ॥ उपाययुरुपाध्यायाः, पठन्तः सुतमातृकाम् । उल्ललद्भिः समं छात्रैर्वत्सैः कीलोज्झितैरिव ॥ ५३७ ॥ ब्राह्मणानां गुरुर्वेदोदितमत्रध्वनिः क्वचित् । क्वचिल्लग्नादिविचारसारा मौहूर्तिकोक्तयः ॥ ५३८ ॥ क्वचिच्च कुलनारीणामुलूलध्वनिरुत्तमः । गीतध्वनिश्व मङ्गल्यः क्वचिद् वारर्मृगीदृशाम् ॥। ५३९ ॥ कल्याणकल्पनाकल्पो, बन्दिकोलाहलः क्वचित् । क्वचित् पुनश्चारणानां, चारुद्विपथकाशिषः ॥ ५४० ॥ अन्योऽन्यं चेटवर्गाणां, हर्षोत्ताला गिरः क्वचित् । वेत्रिकोलाहलः क्वाऽपि, याचकाह्वानबन्धुरः ॥५४१॥ राजवेश्माङ्गणे प्राप, शब्द एकातपत्रताम् । नभस्तले गर्जिरिव, प्रावृषेण्याब्दसङ्कुले ॥ ५४२ ॥ ॥ पञ्चभिः कुलकम् ॥ व्यलिप्यन्त क्वचिल्लोकाः, कुङ्कुमादिविलेपनैः । क्षौमादिभिर्निवसनैः पर्यधाप्यन्त च क्वचित् ॥ ५४३ ॥ सम्मान्यन्ते स्म च क्वापि, दिव्यमाल्यविभूषणैः । कर्पूरमिश्रताम्बूलैरश्रीयन्त क्वचित् पुनः । ५४४ ॥ कुङ्कुमेन व्यधीयन्त, सेचनानि गृहाङ्गणे । स्वस्तिकाश्च व्यरच्यन्त, मौक्तिकैः कुंवलप्रमैः ॥ ५४५ ॥ प्रत्यग्रकदलीस्तम्भैस्तोरणाश्च बबन्धिरे । स्वर्णकुम्भा न्यधीयन्त, तोरणानां च पार्श्वयोः ॥ ५४६ ॥ सुमनोगर्भधम्मिल्लाः, पुष्पस्रग्मौलिवेष्टनाः । कण्ठावलम्बिदामानः, साक्षादिव ऋतुश्रियः ॥ ५४७ ॥ रत्नताडङ्क-केयूर-निष्के - कङ्कण-नूपुरैः । आरोचमाना रुचिरै, रत्नाद्रेवि देवताः ॥ ५४८ ॥ उत्तरीयैरुभयतो, लम्बमानचलाञ्चलैः । श्रोणीबद्धपरिकराः, कल्पद्रुमलता इव ॥ ५४९ ॥ पौरगन्धर्ववनितागीततालमनोरमम् । सङ्गीतकानि विदधुर्विबुधानामिव स्त्रियः ।। ५५० ॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ कौसुम्भेनोत्तरीयेण, चारुनीरङ्गिकाजुषः । सन्ध्याभ्रच्छन्नपूर्वाशामुखलक्ष्मीमलिम्लुचाः ॥ ५५१ ॥ कौमेनाङ्गरागेण, विशेषितवपुः श्रियः । विकस्वराम्भोजवनपरागेणेव निम्नगाः ॥ ५५२ ॥ ईर्यासमितिशालिन्य, इव न्यङ्मुख - लोचनाः । खशीलेनेवामलेन, नेपथ्येन विराजिताः ॥ ५५३ ॥ पुष्प - दुर्वासंनाथानि, पूर्णपात्राणि पाणिषु । विभ्राणाश्चाऽऽययुस्तत्र, पौरेभ्यकुलयोषितः ॥ ५५४ ॥ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ अक्षतैरिव मुक्ताभिः, पात्राण्यापूर्य चारुभिः । सामन्ताः केचिदाजग्मुर्मङ्गलाय महीपतेः ॥ ५५५ ॥ रत्नाभरणसम्भारानपरे परमर्द्धयः । जितशत्रोरुपनिन्युः, शैतमन्योरिवाऽमराः ॥ ५५६ ॥ महार्घाणि दुकूलानि, केचिदानिन्यिरे पुनः । व्यूतानि कदलीसूत्रैर्विससूत्रैरिवाऽथवा ।। ५५७ ।।
५ वृत्तान्तेन । २ तृप्तत्वम् । ३ अतर्पयत् । ४ कीलकबन्धान्मुक्तः । ५ विवाहाद्युत्सवेषु स्त्रीणां हर्षावेदको ध्वनिविशेषः । ६ वेश्यानाम् । ७ दासवर्गाणाम् । ८ गर्जनेव । ९ बदरप्रमाणैः । १० नवीनकदलीस्तम्भैः । ११ केशपाशाः । १२ वक्षसि परिधानीयमा भूषणम् । १३ अवगुण्ठनम् । १४ नद्यः । १५ सहितानि । १६ इन्द्रस्य ।
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१८४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
| द्वितीयं पर्व केचिच्च ढौकयामासुः, स्वर्णराशिं महीपतेः । जम्भकामरनिर्मुक्तवसुधारासहोदरम् ॥ ५५८ ॥ दिग्गजानां युवराजानिव शौडीर्यशालिनः । मत्ताननेकपानेकेऽनेकशः पर्यढोकयन् ॥ ५५९ ॥ बन्धूनिवोच्चैःश्रवसः, सूर्याश्वानामिवाऽनुजान् । आनिन्युर्वाजिनो वाजवरिष्ठानपरे नृपाः ॥ ५६० ॥ राज्ञो वेश्माङ्गणं जज्ञे, विशालमपि सङ्कटम् । नृपोपायनयानैस्तैर्हृदयं प्रमदैरिव ॥ ५६१ ॥ प्रेतीयेषोपायनानि, तेषां च प्रीतये नृपः । किं हि न्यूनं तस्य यस्य, देवदेवः स्वयं सुतः१ ॥ ५६२ ॥ आदेशाद् भूपतेस्तस्य, तस्यां पुर्या तु जज्ञिरे । स्थाने स्थाने महामश्चा, विमानानीव नाकिनाम् ॥५६॥ प्रत्यट्ट-गृहमासंश्च, तोरणा रत्नभाजनैः । स्थितैरायातदेवेभ्यो, ज्योतिष्कैरिव कौतुकात् ॥ ५६४ ॥ प्रतिरथ्यं रजःशान्त्यै, निषेकः कुकमाम्बुभिः । चक्रे विलेपनमिव, भुवो मङ्गलसूचकम् ॥ ५६५ ॥
पदे पदे नाटकानि, सङ्गीतानि पदे पदे । पदे पदे तूर्यनादाः, पौरैर्विदधिरे मुदा ॥ ५६६ ॥ 10 अशुल्क-दण्डामभटप्रवेशामकरां च ताम् । महोत्सवमयीं राजा, दशाहं विदधे पुरीम् ॥ ५६७ ॥
___ शुभेऽहनि नरेन्द्रोऽथ, सुत-भ्रातृजयोस्तयोः । आदिशन्नामकरणोत्सवाय खनियोगिनः॥५६८॥ पटैर्घनानेकपुटैस्तदाऽतन्यत मण्डपः । भानोः करैरनाविष्टः, पार्थिवाज्ञापयादिव ॥ ५६९ ॥ स्तम्भे स्तम्भे च कदलीस्तम्भास्तत्राऽशुभन् भृशम् । पुष्पकोशैर्वितन्वानाः, पद्मखण्डमिवाऽम्बरे ॥ ५७०॥
विचित्रैश्चक्रिरे तत्र, पुष्पैः पृष्पगृहाणि च । आश्रितानि श्रियाऽश्रान्तं, मधुकर्येव रक्तया ॥ ५७१ ॥ 15 हंसरोमाश्चितैस्तूलपूर्णैर्दारुमयैरपि । स आसनैः सनाथोऽभून्मण्डपः खमिवोडुभिः ॥ ५७२ ॥
मण्डपो नृपतेरेवं, सद्यश्चक्रेऽधिकारिभिः । विमानमिव शक्रस्य, त्रिदशैराभियोगिकैः ॥ ५७३ ॥
हर्षानराश्च नार्यश्च, मङ्गल्यद्रव्यपाणयः । तत्राऽऽयाता यथास्थानमुपावेश्यन्त वेत्रिभिः ॥५७४ ॥ कौङ्कुमेनाङ्गरागेण, ताम्बूलैः कुसुमैरपि । सच्चक्रिरे नियुक्तास्तान् , स्वबन्धूनिव गौरवात् ॥ ५७५ ॥
नेदुर्मङ्गलतूर्याणि, वर्याणि मधुरैः स्वरैः । उच्चेरुर्मङ्गलगिरः, परितः कुलयोषिताम् ॥ ५७६ ॥ 20 पवित्राः प्रादुरासंश्च, मत्रोद्गारा द्विजन्मनाम् । प्रारेभिरे च गन्धर्वैर्वर्द्धमानादिगीतयः ॥ ५७७ ॥
वैतालिकैरनुत्तालैश्चक्रे जयजयारवः । उदारैस्तत्प्रतिरवैर्मण्डपोऽपि जगाविव ॥ ५७८ ॥ गर्भस्थितस्य माताऽस्य, नाऽक्षयूते जिता मया । इति सूनोरजित इत्यकार्षीनाम भूपतिः ॥ ५७९ ॥ महेन महता भ्रातुष्पुत्रस्यापि वपुत्रवत् । नरेश्वरः सगर इत्यकरोन्नाम पावनम् ॥ ५८०॥
उत्कृष्टलक्षणशतैरुपलक्ष्यमाणो, क्षोणीसमुद्धरणकर्मसहौ कुमारौ ।
राजा भुजाविव निजावपरौ प्रपश्यन् , पीयूषमग्न इव सौख्यमखण्डमाप ॥ ५८१ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये द्वितीये पर्वणि
अजितखामितीर्थकर-सगरचक्रधरजन्मवर्णनो नाम द्वितीयः सर्गः ॥
वेगोत्तमान् । २ प्रतिजग्राह। केयवस्तुग्राझकरदण्डरहिताम् ।
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तृतीयः सर्गः]
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
तृतीयः सर्गः
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धात्रीभिः पञ्चभिः शक्रादिष्टाभिरजितप्रभुः । अपाल्यत नराधीशादिष्टाभिः सगरः पुनः॥१॥ खपाणिपङ्कजाङ्गुष्ठे, सुरसङ्क्रमिता सुधाम् । पिबति माऽजितवामी, न बर्हन्तः स्तनन्धयाः ॥२॥ सगरस्तु यथाकालं, धात्रीस्तन्यमनिन्दितम् । अपिबत् सारणीनीरमिवाऽऽराममहीरुहः ॥३॥ वृद्धिं शाखे इव तरोर्दन्ताविव च दन्तिनः । दिने दिने प्रपेदाते, तौ कुमारी नरेशितुः ॥४॥ क्रमेण युगपञ्चापि, तावुत्सङ्ग महीपतेः । समारुरुहतुः पञ्चाननपोतौ गिरेरिव ॥५॥ नितान्तमुग्धैः पितरौ, सिष्मियाते सितैस्तयोः । विसिष्मियाते सौजस्कैः, पादचक्रमणैः पुनः ॥६॥ धात्रीभिर्धार्यमाणावप्युत्सङ्गे तौ न तस्थतुः । न केसरिकिशोराणां, पञ्जरे जात्ववस्थितिः॥७॥ खच्छन्दं विचरन्तौ तौ, रभसादनुधाविनीः । खेदयामासतुर्धात्रीर्वयो गौणं महात्मनाम् ॥८॥ क्रीडाशुक-मयूरादीनाददाते विहङ्गमान् । राज्ञः कुमारौ तौ वेगादतिवायुकुमारकौ ॥९॥ गते प्रस्खलयामासुधोत्र्यो विविधचाटुभिः । स्वच्छन्दचारिणौ वालौ, तौ भद्रकलभाविव ॥१०॥ दिव्यघर्षरका रेजुयोरपि कुमारयोः । झणज्झणितिकुर्वाणाः, पदाब्जेष्वलयो यथा ॥११॥ तयोः कण्ठे निबद्धाभात् , स्वर्णरत्नललन्तिका । हृदि झलझलयन्ती, नभसीव तडिल्लता ॥१२॥ तयोश्च क्रीडतोः खैरं, चले काञ्चनकुण्डले । दधतुर्वारिसङ्क्रान्तनूतनादित्यविभ्रमम् ॥ १३ ॥ चलतोश्चञ्चले चूले, चकासामासतुस्तयोः । कलापौ नूतनोद्भिनाविव बालकलापिनोः ॥१४॥ अङ्कादकं कौतुकेन, निन्याते राजमिश्च तौ । पद्मात् पद्मान्तरं राजहंसाविव महोर्मिभिः ॥ १५ ॥ उत्सङ्गे हृदये दोष्णोः, स्कन्धदेशे शिरस्थपि । तौ समारोपयामास, रत्नाभरणवन्नृपः ॥ १६ ॥ मधुव्रत इवाऽम्भोज, भूयो भूयः शिरस्तयोः । आजिघ्रन् प्रीतिविवशो, नातृप्यत् पृथिवीपतिः ॥१७॥ राज्ञस्तावङ्गुलीलग्नावुभयोरपि पार्श्वयोः । विचरन्तौ विरेजाते, मेरोरिव दिवाकरौ ॥१८॥ सततं चिन्तयामास, परमानन्दसुन्दरम् । तावात्म-परमात्मानौ, योगीव जगतीपतिः ॥१९॥ तौ ददर्श मुहुर्वेश्मोद्भूतौ कल्पद्रुमाविव । मुहुश्च भाषयामास, राजा राजशुकाविव ॥२०॥ सहाऽऽनन्देन भूभर्तुः, सहेक्ष्वाकुकुलश्रिया । क्रमेण प्रतिपेदाते, तौ वृद्धिमधिकाधिकाम् ॥ २१ ॥ तत्राशेषाः कला न्याय, शब्दशास्त्रादि चापरम् । स्वयं जज्ञेऽजितस्वामी, त्रिज्ञाना हि खतो जिनाः ॥२२॥ राजा निर्दिष्टः सुदिने, महोत्सवपुररसरम् । उपोपाध्यायमध्येतुमारेमे सगरः पुनः॥२३॥ शब्दशास्त्रादिशास्त्राणि, दिनैः कतिपयैरपि । अपिबत् सगरः सिन्धुसलिलानीव सागरः ॥२४॥ 25 साहित्यशास्त्रसर्वस्वमुपाध्यायादयत्नतः। सौमित्रिराददे ज्योतिर्दीपो दीपान्तरादिव ॥२५॥ साहित्यवल्लीकुसुमैः, काव्यैः कर्णरसायनैः । स वीतरागस्तवनैः, खां वाचमकृतार्थयत् ॥ २६ ॥ सम्यक् प्रमाणशास्त्राणि, स प्रज्ञाप्रतिभार्णवः । अग्रहीदविलम्बेन, स्वयंन्यस्तनिधानवत् ॥ २७ ॥ स्थाद्वादवादोपन्यासैरमोथैः प्रतिवादिनः । विजिग्ये सगरः शत्रून् , जितशत्रुरिवेषुभिः ॥२८॥ पाहुण्योपायशक्त्यादिप्रयोगोर्मिभिराकुलम् । अगाहिष्ट स दुर्गाहमर्थशास्त्रमहोदधिम् ॥ २९॥ 30 सर्वोषधीरस-वीर्य-विपाकज्ञानदीपकम् । अप्यायुर्वेदमष्टाङ्गमध्यैष्टाऽकष्टमेव सः ॥३०॥ चतुर्वायं चतुर्वृत्ति, चतुर्धाभिनयात्मकम् । स तूर्यत्रयविज्ञाननिदानं शास्त्रमाददे ॥ ३१ ॥ दन्तघात-मदावस्था-ऽङ्गलक्षणचिकित्सितैः । विनोपदेशैश्वाऽऽपूर्ण, सोज्ज्ञासीद् गजलक्षणम् ॥ ३२ ॥
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सिंहकिशोरको। २भानामि लम्बमाना माला ।
शिखे।
पिछी। ५मवीनां जलानीव।
सगररा।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ द्वितीयं पर्व स वाहनविधि चाश्वलक्षणं सचिकित्सितम् । पाठतोऽनुभवतश्च, विदधे हृदयङ्गमम् ॥ ३३ ॥ धनुर्वेदमथाऽन्येषां, शस्त्राणामपि लक्षणम् । श्रुतमात्रं लीलयाऽपि, स खनामेव हृद्यधात् ॥३४॥ धनुषा फलका-ऽसिम्यां, छुर्या शल्येन पशुना । कुन्तेन भिन्दिपालेन, गदया कम्पणेन च ॥३५॥
दण्डेन शक्त्या शूलेन, हलेन मुशलेन च । यष्टि-पट्टिस-दुःस्फोट-मुषुण्ढी-गोफणैरपि ॥ ३६ ॥ 5 कणयेन त्रिशूलेन, शङ्खना चापरैरपि । शस्त्रैः शास्त्रानुमानेन, सोऽगात् सङ्ग्रामकौशलम् ॥ ३७॥
॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ सोऽभूत् सर्वकलापूर्णः, शशाङ्क इव पार्वणः । भूषणैरिव च गुणैर्विनयाद्यैरभूष्यत ॥ ३८॥
श्रीमानजितनाथोपि, यस्मिंस्तस्मिन्नपि क्षणे । शक्रादिभिः सुरैर्भक्तिभाग्भिरेवमसेव्यत ॥ ३९ ॥ चिक्रीडुः केचिदागत्य, सवयोभूय नाकिनः । अजितखामिनस्तत्तल्लीलालोकनलालसाः ॥ ४० ॥ नर्मोक्तिमिर्विचित्राभिश्चाटुभिश्च मुहुर्मुहुः । तं केऽप्यभाषयंस्तद्वाक्सुधारसपिपासिताः ॥४१॥ आदेशाकासया भर्तुरसमादिशतः सतः । क्रीडाद्यूते पणीकृत्याऽऽदेशान् स्खं केऽप्यहारयन् ॥ ४२ ॥ प्रतीहार्यभवन् केचिन्मयभूवंश्च केचन । केऽप्युपानद्धर्यभूवंश्छत्र्यभूवंश्च केचन ॥ ४३ ॥ स्थगीवाह्यभवन् केचित्, प्रेष्य्यभूवंश्च केचन । अवधार्यभवन् केचिदमराः क्रीडतः प्रभोः ॥ ४४ ॥ पाठं पाठं च शास्त्राणि, सगरोपि दिने दिने । स्वनियोग नियोगीवाऽजितेशाय व्यजिज्ञपत् ॥४५॥ उपाध्यायेनाऽप्यभग्नान् , संशयान् सगरः सुधीः । पप्रच्छ स्वामिनं नाभिनन्दनं भरतेशवत् ॥४६॥ मति-श्रुता-ऽवधिज्ञानैरजितस्वाम्यपि द्रुतम् । चिच्छेद तस्य सन्देहांस्तमांसीवेन्दुरंशुभिः ॥४७॥ त्रिमियतैः समाक्रामन. दृढासनपरिग्रहः । प्रसार्याऽदर्शयत तस्मै. स व्यालमपि हस्तिनम ॥४८॥ सपर्याणानपर्याणान् , शूकानपि वाजिनः । तत्पुरो वाहयामास, धाराभिरपि पञ्चभिः ॥४९॥
राधावेधं शब्दवेधं, जलान्तर्लक्षवेधनम् । चक्र-मृत्पिण्डवेधं च, वाणैः सोऽदर्शयत् प्रभोः॥५०॥ 20 अदर्शयत् पादगति, फलका-सिधरश्च सः। प्रविष्टः फलकमध्येऽभ्रमध्य इव चन्द्रमाः ॥५१॥
कुन्तं शक्तिं शर्वलां च, भ्रमयामास वेगतः। नभसि भ्राम्यदुद्दामविद्युल्लेखाभ्रमप्रदान् ॥ ५२ ॥ सर्वैरपि छुरीस्थानैः, सर्वचारीविचक्षणः । अदर्शयच्छुरी विद्यां, स नृत्यमिव नर्तकः ॥ ५३॥ अजितखामिनेऽन्येषां, शस्त्राणामपि कौशलम् । अदर्शयद् गुरुभक्त्या, तच्छिमादित्सया च सः॥५४॥
न्यूनं यत्किश्चिदप्यासीत् , कलासु सगरस्य तु । स्वामी तदशिषत् तादृक्, तादृशस्य हि शिक्षकः ॥५५॥ 25 एवमात्मानुरूपं तो, चेष्टमानावुभावपि । आद्यं वयो ललचाते, ग्रामसीमामिवाऽध्वगौ ॥५६॥
समानचतुरस्रेण, संस्थानेनोपशोभितौ । वज्रऋषभनाराचाख्येन संहननेन च ॥ ५७॥ हेमद्युती सार्धचतुर्धनुःशतसमुच्छ्यौ । श्रीवत्सलाञ्छितोरस्को, रुचिरोष्णीपशालिनौ ॥ ५८ ॥ अथाऽऽपतुर्यौवनं तो, वपुर्लक्ष्मीविशेषकम् । शरदं स्वप्रभाधिक्यकरी सूर्य-विधू इव ॥ ५९॥
॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ कुटिल-श्यामलैः केशैर्यमुनावीचिसोदरैः । तौ रेजाते ललाटेन, चाऽष्टमीचन्द्रबन्धुना ॥ ६ ॥ तयोः कपोलौ बँभतुरादशौं काञ्चनाविव । नेत्रे च स्निग्ध-मधुरे, नीलोत्पलदलोपमे ॥ ६१ ॥ दृक्सरस्योरन्तराले, तयोः पालीव नासिका । शुशुभाते चोष्ठपुटे, युग्मबिम्बीफले इव ॥ ६२ ॥ तयोः श्रुती शुभावत, रेजतुः शुक्तिके इव । रेखात्रयपवित्रश्च, कम्बवत कण्ठकन्दलः॥१३॥ तयोश्च वाहुशिखरौ, कुम्भिकुम्भाविवोन्नतौ । अभातामायतौ पीनौ, भुजौ भुजगराजवत् ॥ ६४ ॥
. फलकं 'ढाल' इति लोके प्रसिद्धम् । २ छत्रधारका अभूवन् । ३ ताम्बूलकरण्डकः स्थगीत्युच्यते। ४ ताडनैः । ५ दुष्टम् । ६ उद्धतान् । ७ तच्छिक्षाप्रणेच्छया। ८ शुशुभाते। ५ गजकुम्भौ ।
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वृतीयः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । तयोरुरःस्थलमपि, स्वर्णशैलशिलानिभम् । मनोवदतिगम्भीरा, नाभिश्च प्रत्यभासत ॥६५॥ कृशश्च कुलिशस्येव, मध्यदेशस्तयोरभूत् । महाकरिकराकारावरू सरल-कोमलौ ॥६६॥ . एणीजङ्घाप्रतिरूपे, जङ्घाकाण्डे पुनस्तयोः । ऋज्वगुलिदलौ पादौ, स्थलपनानुहारिणौ ॥ ६७ ॥ निसर्गेणापि तौ रम्यौ, यौवनेन विशेषतः । बभूवतुर्मधुनेवाऽऽरामौ रामाजनप्रियौ ॥ ६८॥ सगरः सर्वमत्र्येभ्यः, सुरेभ्य इव वासवः । उदकृष्यत रूपेण, विक्रमादिगुणैरपि ॥ ६९ ॥ अजितेशः पुनः सर्वकल्पदेवेभ्य उच्चकैः । अवेयकनिवासिभ्योऽनुत्तरेभ्यश्च सर्वतः ॥ ७० ॥ आहारकशरीरादप्यत्यरिच्यत रूपतः । शैलेभ्य इव सर्वेभ्यो, मानतो मेरुपर्वतः ॥ ७१ ॥ युग्मम् ॥
जितशत्रुर्नरेन्द्रोऽथ, महेन्द्रश्चाऽजितप्रभुम् । नीरागमपि वीवाहकर्मणे स्वयमूचतुः ॥ ७२ ॥ उपरोधात् तयोः खं च, कर्म भोगफलं विदन् । तद्वाचमजितवामी, तथेति प्रत्यपद्यत ॥ ७३ ॥ श्रियो मूर्त्यन्तराणीव, शतशोऽथ स्वयंवराः । तेन राजा राजकन्या, महा पर्यणाययत् ॥ ७४ ॥ 10 देवकन्योपमा राजकन्यकाः सगरेण च । पुत्रोद्वाहोत्सवातृप्योदवाहयदिलाप॑तिः ॥ ७५ ॥ अँजितोऽपीन्द्रियै रेमे, रामाभिरजितप्रभुः । भोग्यकर्म क्षपयितुं, यथाव्याधि हि भेषजम् ॥७६ ॥ नानाविधाभिः क्रीडाभिः, क्रीडास्थानेष्वनेकशः । रामाभिः सगरोऽरंस्त, करेणुभिरिव द्विपः ॥ ७७ ॥ __समं भ्रात्रा भवोद्विग्नो, जितशत्रुनृपोऽन्यदा । सम्पूर्णाष्टादशपूर्वलक्षौ पुत्रावदोऽवदत् ॥ ७८॥ वत्सौ ! सर्वेऽपि नः पूर्वे, पूर्वलक्षाणि कान्यपि । धरित्री विधिवत् त्रात्वा, पुत्रेषु च निधाय ताम् ॥७९॥ 15 निर्वाणसाधने हेतुभूतमाददिरे व्रतम् । तदेव हि निजं कार्य, परकार्यमतः परम् ॥ ८ ॥ आवामपि ग्रहीष्यावः, कुमारौ ! सम्प्रति व्रतम् । स्वकार्यस्य ह्ययं हेतुरेष वंशक्रमश्च नः ॥ ८१॥ ततो राज-युवराजावावामिव युवामिह । भवतं चाऽनुजानीतमद्य प्रव्रजनाय नौ ॥ ८२ ॥
अथोवाचाजितस्वामी. तात! यक्तमिदं हि वः।ममापि यज्यते विघ्नः, कर्म भोगफलंनचेत ॥८॥ अन्यस्यापि व्रतादाने, न विघ्नाय विवेकिनः । किं पुनस्तातमिश्राणामहं समयसाधिनाम् ? ॥८४॥ 20 पितुः पुमर्थ तुर्य यो, भक्त्याऽपि हि निषेधति । सुतव्याजाद् द्विषनेव, स हि तस्योदपद्यत ॥ ८५ ॥ तथापि प्रार्थ्यसे तात!, लघुतातोऽस्तु राज्यभृत् । विनयी हि लघुभ्राता, पुत्रादप्यतिरिच्यते ॥ ८६ ॥ सुमित्रोऽप्यभ्यधादेवं, स्वामिपादानहं न हि । त्यजामि राज्यमादातुं, कोऽल्पहेतोर्वहु त्यजेत् १ ॥८७॥ राज्यादप्यतिसाम्राज्याचक्रवर्तिपदादपि । देवत्वादपि विदुषां, गुरुसेवा गरीयसी ॥ ८८॥ अथोचेऽजितनाथस्तं, राज्यमादित्ससे न चेत् । तात! भावयतिर्भूत्वा, तथाप्यास्स्व सुखाय नः ॥ ८९ ॥25 जितशत्रुरपि साऽऽह, बन्धो ! निर्बन्धकारिणः । सूनोर्मन्यस्व वचनं, भावतोऽपि यतिर्यतिः ॥९०॥ साक्षादयं तीर्थकरोऽस्यैव तीर्थे तवेप्सितम् । सेत्स्यतीति प्रतीक्षस्वाऽत्युत्सुको वत्स! मास भूः ॥११॥ एकस्य धर्मचक्रित्वं, चक्रित्वमपरस्य च । सूनोः पश्यन् लप्स्यसे त्वं, सुखं सर्वसुखाधिकम् ॥ ९२ ॥ व्रतोत्सुकोऽपि तद्वाचं, सुमित्रः प्रत्यपद्यत । सतां ह्यलच्या गुर्वाज्ञा, मर्यादोर्दैन्वतामिव ॥९३ ॥ जितशत्रुरथ प्रीत, उत्सवेन महीयसा । अजितखामिनो राज्याभिषेकमकरोत् स्वयम् ॥ ९४ ॥ 30 मुमुदे मेदिनी सर्वा, तस्य राज्याभिषेकतः । विश्वत्राणक्षमे नेतर्याप्ते कः प्रीयते न हि ? ॥ ९५ ॥ यौवराज्ये च सगरमजितखाम्यपि न्यधात् । द्वैतीयीकीमिव निजां, तनूमतनुसौहृदः ॥ ९६ ॥ श्रीमानजितनाथोऽपि, जितशत्रोस्तदैव हि । ऋद्ध्या महत्या विधिवच्चक्रे निष्क्रमणोत्सवम् ॥ ९७ ॥ ऋषभखामितीर्थस्थस्थविराणामथान्तिके । जितशत्रुः परिव्रज्यां, शिश्रिये मुक्तिमातरम् ॥ ९८॥
वज्रस्येव । २ मृगीजङ्घासदृशे। ३ वसन्तेन । ४ अजितस्वामिना सह । ५ जितशत्रुः। ६ राजा । ७ न जितः । ८ रोगानुरूपम् । ९ मोक्षसाधने । १० सङ्केतितकाले आराधनाकारिणाम् । ११ पुत्रमिषात् । १२ समुद्राणां मर्यादा इव । १३ भरीरम् ।
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१८८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीय वर्ष बहिरङ्गानिव जयनन्तरङ्गानरीस्ततः । अखण्डितं राज्यमिव, पालयामास स व्रतम् ॥ ९९ ॥ उत्पन्नकेवलज्ञानः, शैलेशीध्यानमास्थितः । क्षीणाष्टकर्मा स प्राप, क्रमेण परमं पदम् ॥१०॥ ___ इतवाजितनाथोऽपि, सनाथः सकलर्द्धिभिः । सलीलं पालयामास, खापत्यमिव मेदिनीम् ॥१०॥
तस्यावतो वसुमतीमपि दण्डादिभिर्विना । ययुः प्रजा वर्त्मनैव, रथ्या इव सुसारथेः ॥ १०२ ॥ 5 धान्यानामेव निष्पेषः, पशूनामेव बन्धनम् । मणीनामेव वेधोऽपि, तूर्याणामेव ताडनम् ॥ १०३ ॥
वर्णानामेव सन्तापः, शस्त्राणामेव तेजनम् । शालीनामेवोत्खननं, स्त्रीभुवामेव वक्रता ॥ १०४ ॥ शारीणामेव हननं, क्षेत्रोच् एव दारणम् । पक्षिणामेव निक्षेपः, काष्ठपञ्जरमन्दिरे ॥ १०५ ॥ रुजामेव निग्रहश्चाऽब्जानामेव जडस्थितिः । अगरोरेव दहनं, श्रीखण्डस्यैव घर्षणम् ॥१०६ ॥
दधिष्वेव प्रमथनमिक्षुष्वेव निपीडनम् । अलिष्वेव मधुपता, गजेष्वेव मदोदयः ॥ १०७॥ 10 प्रणयेष्वेव कलहोऽपवादेष्वेव भीरुता । गुणगणेष्वेव लोभः, खदोषेष्वेव चाऽक्षमा ॥ १०८ ॥ प्रजामयूरीपर्जन्ये, प्रार्थनाकल्पपादपे । समभूदजितखामिनृपे शासति मेदिनीम् ॥ १०९ ॥
॥ सप्तभिः कुलकम् ॥ भेजिरे भूभुजः पत्तिमानिनो मानिनोऽपि तम् । दासन्ति ह्यन्यमणयः, सर्वे चिन्तामणेः पुरः ॥ ११० ॥
न दण्डनीति प्रायुत, भ्रूभङ्गमपि न व्यधात् । वशगा भूरभूत् तस्य, सुभगस्येव कामिनी ॥ १११ ॥ 15 आचकर्ष श्रियो राज्ञां, स खैस्तेजोभिरूर्जितैः । किरणैरुष्णकिरणो, वारीणि सरसामिव ॥ ११२ ॥
तस्य वेश्माङ्गणभुवो, बभूवुः प्रतिवासरम् । नरेन्द्रोपायनेभानां, पङ्किला मदवारिभिः ॥ ११३ ॥ चतुरं विक्रममाणैरीशितुस्तस्य वाजिभिः । वाह्यालीभूमिवत् सर्वाः, समाचक्रमिरे दिशः ॥ ११४ ॥ अजितवामिनः सैन्ये, पत्तीनामनेसामपि । सङ्ख्या कर्तुमलं कश्चिनोर्माणामिव वारिधौ ॥ ११५॥ निषादिनः सादिनैश्च, रथिनः पत्तयोऽपि च । बभूवुः प्रक्रियामात्रं, भर्तुर्दोर्वीर्यशालिनः ॥११६ ॥ अद्वैतेऽपि स ऐश्वर्ये, जातु नोत्सेकैमादधे । न चाऽवलेपमकरोदतुलेऽपि हि दोर्बले ॥११७॥ रूपे चाप्रतिरूपेऽपि, नेशः सुभगमान्यभूत् । लाभेन विपुलेनापि, न भेजे चोन्मदिष्णुताम् ॥ ११८ ॥ अन्यैरपि मदस्थानैर्नाऽऽससाद मदं विभुः । तृणाय प्रत्युतामस्त, सर्व जानननित्यताम् ॥ ११९ ॥
॥त्रिभिर्विशेषकम् ।। ___एवं च पालयन राज्यं, कौमारात् प्रभृति प्रभुः । त्रिपञ्चाशत्पूर्वलक्षी, सुखमेवाऽत्यवाहयत् ॥ १२०॥ 25 विसृज्याऽन्येधुरास्थानी, रहस्थानमुपेयिवान् । ज्ञानत्रयधरः खामी, स्वयमेवमचिन्तयत् ॥ १२१॥
अद्यापि हि कियद् भुक्तप्रायभोगफलैरपि । खकार्यविमुखैः स्थेयमसाभिहवासिभिः ॥१२२ ॥ त्रातव्योऽयं मया देशो, रक्षणीयमिदं पुरम् । वासनीयास्त्वमी ग्रामाः, पालनीया इमे जनाः ॥ १२३॥ वर्द्धनीया हस्तिनोऽमी, पोषणीया इमे हयाः । भरणीया अमी भृत्यास्तश्चिामी वनीकाः ॥ १२४॥ पोष्या अमी सेवकाच, रक्ष्यावामी शरण्यगाः। सम्भाष्याः पण्डिताथामी, सत्कार्याः सुहृदस्त्वमी ॥१२५ ॥ अनुप्राधा मत्रिणोऽमी, उद्धार्या बन्धवोऽप्यमी । रञ्जनीयास्त्वमी दारा, लालनीयास्त्वमी सुताः ॥१२६॥ इति प्रतिक्षणमपि, परकार्यैः समाकुलः । क्षपयत्यखिलं जन्मी, मानुषं जन्म निष्फलम् ॥ १२७॥ पुमानेषां च कार्येण, युक्तायुक्तमचिन्तयन् । विमूढः पशुवन्नानापापानि विदधाति हि ॥ १२८ ॥ येषामर्थे च पापानि, विधत्ते मुग्धधीर्जनः । ते तं मृत्युपथे यान्तं, नानुयान्ति मनागपि ॥ १२९ ॥ १ सहितः । २ अश्वाः । ३ अब्जपक्षे जले स्थितिः। ४ न तु प्रजासु मद्यपायित्वम् । ५आत्मानं पत्तिं मन्यमानाः। ६मानयुक्ताः। •सूर्यपक्षे चन्द्राणाम्। सूर्यः। ९ रथामाम् । १० गजवाहाः। ॥ अश्ववाराः। १२ अमिमानम् । ५गर्वम् । "अनन्यसमाने। १५सभाम्। १६ याचकाः ।
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तृतीयः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । इहैव तेऽवतिष्ठन्ते, यदि तिष्ठन्तु तन्ननु । अहो ! शरीरमप्येतन्नाऽनुयाति पदात् पदम् ॥ १३० ॥ ततः शरीरकस्याऽपि, कृतघ्नस्य कृते मुधा । मुग्धैर्विधीयते हन्त !, पापकर्म शरीरिभिः ॥ १३१ ॥ एक उत्पद्यते जन्तुरेक एव विपद्यते । कर्माण्यनुभवत्येकः, प्रचितानि भवान्तरे ॥ १३२ ॥ अन्यैस्तेनाऽर्जितं वित्तं, भूयः सम्भूय भुज्यते । स त्वेको नरककोडे, क्लिश्यते निजकर्मभिः ॥ १३३ ॥ दुःखदावाग्निभीष्मेऽस्मिन् , वितते भवकानने । बैम्भ्रमीत्येक एवाऽसौ, जन्तुः कर्मवशीकृतः ॥ १३४ ॥ 5 यद् दुःखं भवसम्बन्धि, यत् सुखं मोक्षसम्भवम् । एक एवोपभुङ्क्ते तन्न सहायोऽस्ति कश्चन ॥ १३५ ॥ यथैवैकस्तरन् सिन्धुपारं व्रजति तत्क्षणात् । न तु हृत्पाणि-पादादिसंयोजितपरिग्रहः ॥ १३६ ॥ तथैव धन-देहादिपरिग्रहपराङ्मुखः । स्वस्थ एको भवाम्भोधिपारमासादयत्यसौ ॥ १३७ ॥ __इति चिन्तापरं नाथं, भवनिर्विण्णचेतसम् । सारखतादयो लोकान्तिका एत्याऽब्रुवन् सुराः॥१३८॥ खयं बुद्धोऽसि भगवन्नमाभिर्न हि बोध्यसे । किन्त्विदं मार्यते विश्वनाथ ! तीर्थ प्रवर्तय ॥ १३९ ॥ 10 इत्युदीर्याऽजितस्वामिपादान् नत्वा च ते तदा । ब्रह्मलोकं ययुः सायं, खनीडमिव पक्षिणः ॥१४०॥ __आत्मचिन्तानुकूलेन, तेन तद्वचसा प्रभोः । ववृधे भववैराग्यं, पौरस्त्यमरुताऽब्दवत् ॥ १४१॥ ततः सगरमाहय, जगाद त्रिजगद्गरुः। गृह्यतां राज्यभारो नः, संसाराब्धि तितीर्षताम् ॥ १४२॥ इत्युक्तोऽजितनाथेन, श्यामास्योऽश्रूणि पातयन् । एकैकबिन्दुवर्षीव, वारिदः सगरोऽब्रवीत् ॥१४३॥
अभक्तिः किं मया देव !, विदधे देवपादयोः । आत्मनो मां पृथक् कर्तुमद्य येनैवमादिशः१ ॥१४४॥15 अभक्तिर्वाऽस्तु विहिता, नाऽप्रसादाय साऽपि हि । पूज्यैरभक्तोपि शिशुः, शिष्यते न तु हीयते ॥१४५॥ किं नामाऽभ्रंलिहेनाऽपि, छायाहीनेन शाखिना । किं वा समुन्नतेनापि, वृष्टिहीनेन वार्मुचा ? ॥१४६॥ किं वा निर्झरहीनेन, तुङ्गेनापि महीभृता ? । किं वा लावण्यहीनेन, सुरूपेणाऽपि वर्मणा ? ॥१४७॥ किं वा गन्धविहीनेन, पुष्पेणाऽपि विकासिना ? । अनेन त्वद्विहीनेन, राज्येनापि हि किं मम॥१४८॥
॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ 20 निर्ममस्य निरीहस्य, मुमुक्षोरपि ते सतः। प्रभो! पादौ न मोक्ष्यामि, का राज्यादानसङ्कथा? ॥१४९॥ राज्यं पुत्राः कलत्राणि, मित्राण्यथ परिच्छदः । तृणवत् सुत्यजं सर्व, त्वत्पादौ दुस्त्यजौ तु मे ॥१५०॥ राजीभवति नाथाऽहं, युवराज्यभवं यथा । त्वयि व्रतधरे शिष्यीभविष्याम्यधुना तथा ॥ १५१ ॥ गुरुपादाम्बुजोपास्तितत्परस्य दिवानिशम् । शैक्षस्य भैक्षमपि हि, साम्राज्यादतिरिच्यते ॥१५२ ॥ भवं तरिष्याम्यज्ञोऽपि, भवत्पादावलम्ब्यहम् । गोपुच्छलग्नो हि तरेनदी गोपालबालकः ॥ १५३॥ 25 दीक्षां सह त्वयाऽऽदास्से, विहरिष्ये सह त्वया । दुःसहांश्च सहिष्येऽहं, त्वया सह परीषहान् ॥ १५४ ॥ त्वया सहोपसर्गाश्च, सहिष्ये त्रिजगद्गुरो ! । कथञ्चिदपि न स्थास्साम्यहमत्र प्रसीद मे ॥ १५५ ॥ __ अथेत्थमजितवामी, सेवाबद्धैकसङ्गरम् । सगरं व्याजहारातिपीयूषोद्गारया गिरा ।। १५६ ॥ युक्त एवाऽऽग्रहो वत्स !, संयमग्रहणं प्रति । किन्तु भोगफलं कर्म, क्षीयतेऽद्यापि ते न हि ॥ १५७॥ भुक्त्वा भोगफलं कर्माहमिव त्वमपि स्वयम् । मोक्षस्य साधकतमं, गृह्णीयाः समये व्रतम् ॥१५८॥ 30 युवराज ! ततो राज्यं, गृहाणेदं क्रमागतम् । वयं संयमसाम्राज्यमुपादास्यामहे पुनः ॥ १५९ ॥ ___ इत्युक्तः स्वामिना सोऽथ, मनस्येवमचिन्तयत् । भर्तुविरहभीराज्ञाभङ्गभीश्च दुनोति माम् ॥ १६०॥ दुःखाय स्वामिविरहस्तदाज्ञातिक्रमश्च मे । इति द्वयं विमृशतो, गुर्वाज्ञापालनं वरम् ॥ १६१ ॥ इत्थं विचार्य मनसा, सगरो गद्गदस्वरः । तथेति स्वामिनो वाचं, प्रतिपेदे महामतिः ॥ १६२ ॥
१ सञ्चितानि । २ पुनः पुनः भ्रमति । ३ पूर्व दिग्वायुना मेघो यथा वर्धते तद्वत् । ४ शिक्ष्यते। ५ मेघेन। शरीरेण । ७ शिष्यस्य । ८ सेवानिबद्धप्रतिज्ञम् ।
त्रिषष्टि. २५
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१९० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीयं पर्व ततो नरेश्वरवरः, सगरस्य महात्मनः । सधो राज्याभिषेकार्थमादिदेश नियोगिनः ॥ १६३ ॥ . अथाऽऽनीयत पानीयं, नानीयं तीर्थसम्भवम् । कुम्भैरम्भोरुहच्छन्नै घूभूतै दैरिव ॥ १६४ ॥ अभिषेकोपकरणद्रव्याण्यन्यान्यपि क्षणात् । व्यापारिभिरढौक्यन्त, प्राभृतानीव राजभिः ॥ १६५ ॥ प्रतापेष्विव मूर्तेषु, समायातेषु राजसु । आगतेषु च मन्त्रेणाऽतीन्द्रमत्रिषु मत्रिपु ।। १६६ ॥ उपेतेषु चमूपालेवाशापालेष्विवाऽऽज्ञया । मिलितेष्वेककालं च, हर्पोत्तालेषु बन्धुषु ॥ १६७ ॥ हस्त्यश्वसाधनाध्यक्षप्रभृतिष्वपरेष्वपि । उपस्थितेषु युगपदुत्थायैकगृहादिव ॥ १६८ ॥ शङ्खष्वापूर्यमाणेषु, नादनिर्झरसानुषु । आहतेषु मृदङ्गेषु, मेघसब्रह्मचारिषु ॥ १६९ ॥ कोणैराहन्यमानेषु, दुन्दुभिष्वानकेषु च । प्रतिशब्दैः सर्वदिशां, मङ्गलाध्यापकेष्विव ॥ १७० ॥
आस्फलत्सु मिथः कांस्यतालेषमिष्विवाऽम्बुधेः। झणझणायमानासु, झल्लरीषु च सर्वतः॥ १७१॥ 10 अपरेष्वपि तूर्येषु, पूर्यमाणेषु केषुचित् । केषुचित् ताड्यमानेष्वास्फाल्यमानेषु केपुचित् ॥ १७२ ॥
गन्धर्वेषु च गायत्सु, शुद्धगीतानि सुखरम् । आशिषो भाषमाणेषु, ब्रह्मवैतालिकादिषु ॥ १७३ ॥ सौस्तिकप्राग्रहरैरजितस्वामिशासनात् । राज्याभिषेको विधिवत्, सगरस्य व्यधीयत ॥ १७४ ॥
॥ नवभिः कुलकम् ।। प्रणेमुः सगरं सर्वे, नृप-सामन्त-मत्रिणः । उदयन्तमिवाऽऽदित्यमुद्यताञ्जलयो जनाः ॥ १७५ ॥ 15 उपेत्य पौरप्रवरा, वरोपायनपाणयः । भक्त्या तर्मुर्वीनेतारं, नवमिन्दुमिवाऽनमन् ॥ १७६ ॥
खामिना न वयं त्यक्ता, मूर्त्यन्तरमिदं निजम् । नेतारं कुर्वताऽस्माकमित्यूचुर्मुदिताः प्रजाः ॥ १७७ ॥
भगवानजितेशोऽपि, पारेभेऽथ कृपार्णवः । प्रदातुं वार्षिकं दानं, वर्षाब्द इव वर्षितुम् ॥ १७८ ॥ आज्ञप्ता वासवेनाऽथ, प्रेरिता धनदेन च । तिर्यग्जृम्भकनामानस्तत्रोपेयुर्दिवौकसः ॥ १७९ ॥
अथ भ्रष्टानि नष्टानि, प्रक्षीणवामिकानि च । परितो नष्टकेतूंनि, प्रणष्टाधिपतीनि च ॥ १८० ॥ 20 गिरिकन्दरवर्तीनि, श्मशानस्थानगानि च । भवनान्तरगुप्तानि, तत्राऽऽजहुर्धनानि ते ॥१८१॥ युग्मम् ॥
शृङ्गाटेषु चतुष्केषु, चत्वरेषु त्रिकेषु च । प्रवेश-निर्गमोया च, पुञ्जीचक्रुश्च तानि ते ॥ १८२ ॥ त्रिके त्रिके पथि पथि, चत्वरे चत्वरेऽपि च । एतद् गृह्णीत वस्खेवं, घोषणां स्वाम्यकारयत् ॥ १८३ ॥ यो यद् ययाचे तत् तस्मै, ददौ वसु जगत्पतिः । सूर्योदयात् समारभ्य, निषण्णो भोजनावधि ॥ १८४॥ कोटिरेका हिरण्यस्य,लक्षैः समधिकाऽष्टभिः । अर्थिभ्यो विश्वनाथेन, दीयते स दिने दिने ॥ १८५ ॥ ततश्चाऽदत्त वर्षेण, हेनः कोटिशतत्रयम् । अष्टाशीति तथा कोटीर्लक्षाशीति तथा प्रभुः ॥ १८६ ॥ अनुभावेन कालस्य, स्वामिनश्च प्रभावतः । यथेप्सितप्रदानेऽपि, नाधिकग्राहिणोऽभवन् ॥ १८७ ॥ कृपाधनो धिनोति म, धनैरेवं धरां प्रभुः । चिन्तामणिरिवाऽचिन्त्यमहिमा वत्सरावधि ॥ १८८ ॥
अथ वार्षिकदानान्ते. शक्रस्याऽचलदासनम अवधिज्ञानतोऽज्ञासीत. स च दीक्षाक्षणं विभोः ॥१८९॥ चचाल च हरिदेवैः, समं सामानिकादिभिः । दीक्षाक्षणे भगवतः, कर्तुं निष्क्रमणोत्सवम् ॥ १९० ॥ 30 विमानै रचयन्नाशाः, सञ्चरन्मण्डपा इव । उत्तुङ्गैारणवरैरुत्पतत्पर्वता इव ॥ १९१॥
आक्रामन् व्योम तुरगैस्तरङ्गैरिव सागरः । आघट्टयन् रविरथं, रथैरस्खलितस्यदैः ॥ १९२ ॥ नभस्तलं तिलकयन्, किङ्कणीमालभारिभिः । ध्वजांशुकैश्च दिग्दन्तिकर्णतालानुहारिभिः ॥ १९३ ॥ गीयमानोऽमरैः कैश्चिद्, गान्धारग्रामबन्धुरम् । स्तूयमानस्तथा कैश्चित, सत्काव्यकुलकर्नवैः ॥ १९४ ॥ कैश्चिद् विज्ञप्यमानश्च, मुखदत्तपटाञ्चलैः । संसार्यमाणः कैश्चिञ्च, प्राक्तनीस्तीर्थकृत्कथाः ॥ १९५ ॥
१ अतिक्रान्तबृहस्पतिषु। २ दिक्पालेषु । ३ सेनापतिः। ४ मेघसदृशेषु । ५ पुरोहितश्रेष्ठैः। ६ राजानम् । ७ नष्टस्वा मिकानि । ८ नष्टचिह्नानि । ९ दीक्षासमयम् । १० इन्द्रः। ३१ अकुण्ठितवेगैः।
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सप्तभिः कुलकम् ॥ 15
तृतीयः सर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१९१ पवित्रितां स्वामिपादैर्मन्यमानोऽधिको दिवः । दिवस्पतिरुपेयाय, विनीतानगरी क्षणात् ॥ १९६ ॥ अन्येऽप्यासनकम्पेन, ज्ञात्वा दीक्षाक्षणं विभोः । सुरेन्द्रा असुरेन्द्राश्च, विनीतां तद्वदाययुः ॥१९७॥ तत्राऽच्युताद्या देवेन्द्रा, नरेन्द्राः सगरादयः। दीक्षाभिषेकं विदधुः, क्रमेण परमेशितुः ॥ १९८॥ वाससा देवदूष्येण, वपुः स्नानजलाविलम् । ममार्ज शको माणिक्यमिव वैकटिकाग्रणीः॥ १९९ ॥ गन्धकार इवाऽऽयुक्तो, वज्रपाणिः स्वपाणिना । चर्चयामास रुचिरैरङ्गरागैर्जगद्गुरुम् ॥२०॥ देवदूष्याण्यदूष्याणि, जगन्नाथेन तत्क्षणे । वासांसि वासयामास, वासवो वासनावसुः ॥ २०१॥ मुकुटं कुण्डले हारं, केयूरे कङ्कणे अपि । अपरानप्यलङ्कारान् , नाथेनाऽग्राहयद्धरिः ॥२०२॥ प्रसूनदामभिर्दिव्यैः, सनाथीकृतकुन्तलः । तृतीयेनेव नेत्रेण, तिलकेनालिके विभान् ॥ २०३॥ देवीभिर्दानवीभिश्व, मानवीभिश्च सर्वतः । विचित्रभाषामधुरं, गीतोपक्रान्तमङ्गलः ॥२०४॥ सतैरिव स्तूयमानः, सुरा-सुर-नरेश्वरैः । व्यन्तरैः कृतधूपाघः, स्वर्णधूपघटीधरैः ॥ २०५॥ सकुरण्टकेन श्वेतातपत्रेण महीयसा । विराजमानः शिरसि, इदेनेव हिमाचलः ॥ २०६ ॥ वीज्यमानोऽमरैश्चारुचामरैः पार्श्वयोर्द्वयोः । वेत्रिणेव विनीतेन, दत्तहस्तो बिडौजसा ॥ २०७॥ हर्ष-शोकविमूढेन, सगरेण महीभुजा । अनुकूलानिलेनेवाऽन्वीयमानोऽश्रुवर्षिणा ॥ २०८ ॥ परितः पावयन् पादैः, स्थलाम्भोजनिभैर्भुवम् । सहस्रवाह्यामारोहच्छिविकां सुप्रभां प्रभुः ॥ २०९ ॥ उदासे शिबिका पूर्व, नरैर्विद्याधरैस्ततः । देवैस्तदनु खे खेटविमानभ्रमदायिनी ॥ २१ ॥ तैरुत्क्षिप्ताऽम्बरतलेऽनुद्धातगतिशालिनी । यानपात्रमिवाऽम्भोधौ, सा स्वामिशिविका बभौ ॥ २११॥ तत्र सिंहासनासीनं, चामराभ्यां जगत्प्रभुम् । वीजयामासतुरुभौ, सौधर्मेशानवासवौ ॥ २१२ ॥ प्रचचाल जगन्नाथो, विनीतामध्यवर्त्मना । वरो वधूपाणिमिव, दीक्षामादातुमुत्सुकः ॥ २१३ ॥ चलन्तश्चलताडङ्काश्चलहाराश्चलाञ्चलाः । शिविकावाहिनो रेजुश्चलाः कल्पद्रुमा इव ॥ २१४ ॥ 20 काश्चन प्रस्खलन्तीषु, सदा सहचरीष्वपि । काश्चिद् वक्षःस्थलास्फालाद्धारेषु प्रत्रुटत्वपि ॥ २१५ ॥ अंसाद् विस्रंसमानेषत्तरीयेष्वपि काश्चन । काश्चिच्छ्न्यीभवबारेष्वपि गेहाङ्गणेषु च ॥ २१६ ॥ काश्चिद् देशान्तरादिष्टातिथिष्वभ्यागतेष्वपि । पुत्रजन्मोत्सवे सद्यः, समुत्पन्नेऽपि काचन ॥ २१७ ॥ काश्चित तत्कालमुद्वाहलग्नकालेऽप्युपस्थिते । काश्चन स्नानोपनतेष्वपि स्नानीयवस्तुषु ॥ २१८॥ गृहीताचमनाः काश्चिदर्धभुक्तेपि भोजने । काश्चिद|पयुक्तेऽपि, कालप्राप्ते विलेपने ॥ २१९॥ 25 कुण्डलादिष्वलङ्कारेष्वर्धामुक्तेषु काश्चन । स्वामिनिष्क्रमणोदन्तेऽर्धश्रुतेऽपि हि काश्चन ॥ २२०॥ धम्मिल्लान्तः काश्चिदर्धबद्धे कुसुमदामनि । अधिभालस्थलं काश्चित् , तिलकेऽर्धकृतेऽपि हि ॥ २२१ ॥ गृहकर्तव्यमत्रेषु, काश्चिदोदितेष्वपि । काश्चिदर्धकृतेष्वेव, नित्यनैमित्तिकेष्वपि ॥ २२२ ॥ सम्भ्रमात् पादचारेण, यानेषूपस्थितेष्वपि । उपेयुः स्वामिनं द्रष्टुं, पौर्यो भक्तिपवित्रिताः ॥ २२३ ॥
. ॥ नवभिः कुलकम् ॥ 30 क्षणमग्रे क्षणं पृष्ठे, क्षणं चोभयपार्श्वयोः । यूथपस्येव कलभाः, पौरास्तस्थुर्जगत्प्रभोः ॥ २२४ ॥ अष्ट्वानारुरुहुः केचित् , कुट्टिमानि च केचन । प्रासादापाणि केचित् तु, मञ्चाग्राणि च केचन ॥ २२५ ॥ केऽपि प्राकारशृङ्गाणि, केऽपि द्रुशिखराणि च । केऽप्युच्चैः सिन्धुरस्कन्धान , स्वामिदर्शनकाम्यया ॥२२६॥
॥ युग्मम् ॥ * षड्भिः कुलकम् सङ्घ सङ्घ ३॥ १ आर्द्रम् । २ मणिकारमुख्यः। ३ अदूषितानि । ४ धर्मरूपा वासना एव वसुर्यस्य सा। ५ ललाटे । ६ बन्दिजनैः। ७ इन्द्रेण । ८ देवविमानम् । ९ प्रतिघातवर्जितया गत्या राजमाना । १० चलकुण्डलाः। चलवक्षाबलाः १२ अर्धपरिहितेषु । १३ कबरीमध्ये । १४ गृहकार्यविचारेपु । १५ गजस्येव । १६ गजस्कन्धान ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ द्वितीयं पर्व
अञ्चलांचालयामासुः, काश्चिच्चामरलीलया । लाजान् प्रचिक्षिपुः काचिद्धर्मवीजमिवाऽवनौ ॥ २२७ ॥ आरात्रिकं सप्तशिखं, काचिद् वह्निमिवोद्दधुः । पूर्णपात्राण्यधुः काचिद्, यशांसीव पुरः प्रभोः ॥ २२८ ॥ पूर्णकुम्भान् दधुः काश्चिन्मङ्गलानां निधीनिव । खे सन्ध्याभ्रनिभं चक्रुः, काश्चिद् वस्त्रावतारणम् ॥ २२९ ॥ मङ्गलानि जगुः काश्चिन्नृत्यन्ति स्म च काश्चन । रुचिरं जहसुः काचिन्मुदिताः परयोषितः ॥ २३० ॥ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ व्योमापि व्यानशे भक्तैर्विद्याधर- सुरासुरैः । इतस्ततो धावमानैः, सौंपगेंयकुलैरिव ॥ २३१ ॥ इन्द्राणां च चतुःषष्टेर्नाट्यानी कैरनेकशः । नाटकान्यभ्यनीयन्त, स्वाम्यग्रे धन्यमानिभिः ॥ २३२ ॥ सङ्गीतकानि गन्धर्वसैन्या अपि बिडौजसाम् । ओजायमाना युगपञ्जायमानमुदो व्यधुः ॥ २३३ ॥ सगरानुजीविनोऽपि, जयाजीवाः पदे पदे । पात्रैर्विचित्रैर्नाट्यानि, दिविषत्स्पर्धया व्यधुः ॥ २३४ ॥ अयोध्यामण्डनं राजगन्धर्वरमणीजनाः । विश्वदृग्दृष्टिबन्ध (न) न्ति, प्रेक्षणीयानि चक्रिरे ॥ २३५ ॥ तदा च दिव्यै भौमैच, नाट्य-सङ्गीतकखरैः । रोदः कुक्षिम्भरिरभूदुत्तालस्तुमुलध्वनिः ॥ २३६ ॥ अनेकनृप - सामन्त- महेभ्यानां प्रचारिणाम् । सम्मर्दत्रुटितैहरैरासन् शर्करिला भुवः ॥ २३७ ॥ दिव्यानामथ भौमानां, मत्तानां वरदन्तिनाम् । मदाम्भोभिरजायन्त, राजमार्गाश्च पङ्किलाः ॥ २३८ ॥ सुरासुर - नरैः सर्वैर्मिलितैः स्वामिनोऽन्तिके । एकाधीशतया रेजे, त्रिलोक्यप्येकलोकवत् ॥ २३९ ॥ 15 अत्यन्तदक्षिणो लोकदाक्षिण्येन जगत्पतिः । प्रतीयेष निरीहोऽपि मङ्गलानि पदे पदे ।। २४० ॥ सम्भूय गच्छतस्तत्र, सुरानपि नरानपि । समप्रसादया दृष्ट्याऽनुजग्राह जगद्गुरुः ॥ २४९ ॥ सुरासुर-नरैरेवं क्रियमाणमहोत्सवः । सहस्राम्रवणं नाम, प्रापोद्यानं क्रमात् प्रभुः ।। २४२ ।। कुसुमामोदमत्तालिश्रेणिदुःसञ्चरान्तरैः । परितः कृतवृतिकं, सन्ततैः केतकीदुमैः ॥ २४३ ॥ aण्ठैरिव महेभ्यानां, नागराणां कुमारकैः । रिरंसुभिर्मार्ज्यमानमहीरुहलतान्तरम् ॥ २४४ ॥ 20 मुहुः कुरुबका--शोक-बकुलाद्मिहीरुहाम् । क्रीडाप्रसङ्गात् पौरीभिः पूर्यमाणोरुदोहदम् ॥ २४५ ॥ विद्याधरकुमारैश्थ, निषद्य पथिकैरिव । आचम्यमानसुखादुसारणीवारि कौतुकात् ॥ २४६ ॥ अलिहेषु वृक्षेषु, कृतास्पदमनेकशः । क्रीडया खेचरद्वन्द्वैर्विहङ्गमिथुनैरिव ॥ २४७ ॥ परागैर्दिव्यकर्पूर-कस्तूरीक्षोदसोदरैः । अकर्कशैर्गुल्फदनैर्विश्वक्सिकतिलावनि ॥ २४८ ॥ राजादन-नागरङ्ग-करुणक्ष्मारुहां तले । दुग्धेनोद्यानपालीभिः पूर्यमाणालबालकम् ॥ २४९ ॥ विचित्रसन्दर्भविधौ, सस्पर्धाभिः परस्परम् । पुष्पैर्मालिंकवालाभिरारब्धोद्दामदामकम् ॥ २५० ॥ दिव्यतल्पा-ऽऽसनामत्रेष्वपि सत्सु कुतूहलात् । शयाना - Ssसीन भुञ्जानजनं रम्भादलेप्वलम् ॥ २५१ ॥ फलप्राग्भारभारावनम्रप्रालम्बमण्डलैः । चुम्ब्यमानावनितलं, विविधैरवनीरुहैः ॥ २५२ ॥ सहकाराङ्कुरास्वादादश्रान्तमवकोकिलम् । दाडिमाखादनोन्मत्तशुककोलाहलाकुलम् ॥ २५३ ॥ एकच्छायं क्षितिरुहैर्वर्षा त्रैरिव सन्ततैः । प्रविवेश तदुद्यानं, भगवानजितप्रभुः ॥ २५४ ॥ ॥ द्वादशभिः कुलकम् ॥
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ततश्च शिबिकारलादुत्ततार जगद्गुरुः । रथादिव रथी सिन्धुमुत्तरीतुं भवं स्वयम् ।। २५५ ।। उज्झाञ्चकार तदनु, रत्नालङ्करणादिकम् । रत्नंत्रितयमादित्सुर्युसदामपि दुर्लभम् ।। २५६ ॥ देवदूष्यं देवराजेनोपनीतमदूषितम् । सोपधिं धर्ममादेष्टुं जगत्पतिरुपाददे ।। २५७ ॥ कृतषष्ठतपा माघस्योज्ज्वले नवमीदिने । रोहिणिऋक्षगे चन्द्रे, सप्तच्छदत रोम्तले ॥ २५८ ॥
१ गरुडसमूहैः । २ नर्तकाः । ३ शर्करायुक्ताः । ४ कृतवेष्टनम् । ५ विना वेतनेन कार्यकरा वष्टाः । ६ गुल्फप्रमाणैः । ७ माळाकारकन्याभिः । ८ अवष्टं कोकिलाभिः । ९ ज्ञानदर्शनचारित्ररूपम् । १० सवस्वमिति भावः ।
११ नक्षत्र ।
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तृतीयः सर्गः ]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
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सायाहन्यजितखामी, मुष्टिभिः पञ्चभिः कचान् । स्वयमुत्पाटयामास, रागादीनिव सर्वतः ।। २५९ ॥
॥ युग्मम् ॥
सौधर्मेन्द्रः प्रतीयेष, खोत्तरीयाञ्चलेन तान् । प्रसाददत्तार्थमित्र, पुष्कलं वरिवस्यकः ॥ २६० ॥ सहस्राक्षः क्षणेनाऽपि, स्वामिनस्तान् शिरोरुहान् । क्षीरोदे प्राक्षिपत् पूजामिव सांयात्रिकः स्वयम् ॥२६१ ॥ वेगात् तुमुलं, सुरा- सुर-नृणां हरिः । न्यषेधन्मुष्टिसंज्ञातो, मौनमन्त्रमिव स्मरन् ॥ २६२ ॥ कृत्वा सिद्धनमस्कारं, सामायिकमुदीरयन् । प्रभुचारित्रमारोहन्मोक्षमार्गमहारथम् ॥ २६३ ॥ सोदर्यमिव दीक्षाया, युग्मजातं तदैव हि । ज्ञानं तुरीयमुत्पेदे, मनःपर्ययमीशितुः ॥ २६४ ॥ अपि नारकजन्तूनां, क्षणं सुखमभूत् तदा । जगत्रये च प्रद्योत, उद्योत इव वैद्युतः ॥ २६५ ॥ नृपाः सहस्रं जगृहुस्ततो दीक्षामनुप्रभु । खामिपादानुगमनवतानामुचितं ह्यदः ॥ २६६ ॥
अथ प्रदक्षिणीकृत्य, जगन्नाथं प्रणम्य च । एवमारेभिरे स्तोतुमच्युताद्याः पुरन्दराः ॥ २६७ ॥ पदभ्यासाद्रैः पूर्व, तथा वैराग्यमाहरः । यथेहजन्मन्याजन्म, तत् सात्मीभावमागमत् ॥ २६८ ॥ दुःखहेतुषु वैराग्यं, न तथा नाथ ! र्निस्तुषम् । मोक्षोपायप्रवीणस्य, यथा ते सुखहेतुषु ॥ २६९ ॥ विवेकशाणैर्वैराग्यशस्त्रं शातं तथा त्वया । यथा मोक्षेऽपि तत् साक्षादकुण्ठितपराक्रमम् ॥ २७० ॥ यदा मैरुन्नरेन्द्र श्रीस्त्वया नाथोपभुज्यते । यत्र तत्र रतिर्नाम, विरक्तत्वं तदापि ते ॥ २७९ ॥ नित्यं विरक्तः कामेभ्यो, यदा योगं प्रपद्यसे । अलमेभिरिति प्राज्यं, तदा वैराग्यमस्ति ते ॥ २७२ ॥ 15 सुखे दुःखे भवे मोक्षे, यदौदासीन्यमीशिषे । तदा वैराग्यमेवेति, कुत्र नाऽसि विरागवान् १ ॥ २७३ ॥ दुःखगर्भे मोहगर्भे, वैराग्ये निष्ठिताः परे । ज्ञानगर्भ तु वैराग्यं, त्वय्येकायनतां गतम् ॥ २७४ ॥ औदासीन्येऽपि सततं, विश्वविश्वोपकारिणे । नमो वैराग्यनिनाय, तायिने परमात्मने ॥ २७५ ॥
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जगद्गुरुमिति स्तुत्वा, नमस्कृत्य च सामराः । तेऽमरखामिनो जग्मुद्वीपं नन्दीश्वरं ततः ॥ २७६ ॥ जन्माभिषेकवत् तत्र, पर्वतेष्वञ्जनादिषु । शाश्वतार्हत्प्रतिमाष्टाह्निकां शक्रादयो व्यधुः ॥ २७७ ॥ नाथं कदा नुं भूयोऽपि द्रक्ष्याम इति वादिनः । सदेवा देवपतयः स्वं खं स्थानं ततो ययुः ॥ २७८ ॥ सगरोऽपि सभूपालः, प्रणम्य परमेश्वरम् । कृताञ्जलिर्गद्गदवागिति स्तोतुं प्रचक्रमे ॥ २७९ ॥ भगवन्नजितस्वामिन्!, विजयस्व जगद्गुरो ! । त्रैलोक्यपद्मिनीखण्ड विकासनदिवाकर ! ॥ २८० ॥ मति श्रुताऽवधि-मनः पर्ययैर्नाथ ! शोभसे । ज्ञानैश्चतुर्भिरुदामैरणवैरिव मेदिनी ।। २८१ ॥ त्वं याsपि कर्माणि, प्रोन्मूलयितुमीशिषे । अयं परिकरस्ते तु लोकानां मार्गदर्शकः ॥ २८२ ॥ भगवन्भन्तरात्मा त्वं, मन्येऽहं सर्वदेहिनाम् । तेषामद्वैत सौख्याय, यतसे कथमन्यथा १ ॥ २८३ ॥ हित्वा कषायान् मलवत्, कृपाजलपरिप्लुतः । त्वमेवाऽसि विशुद्धात्मा, निर्लेपः पद्मपत्रवत् ॥ २८४ ॥ राज्येऽपि न्यायनिष्ठस्य, न खो न च परस्तव । प्राप्तावसरमेतत् तेऽधुना साम्यं किमुच्यते १ ॥ २८५ ॥ वितर्कयामि भगवन् !, दानं यद् वार्षिकं तव । त्रैलोक्याभयदानोरुनाटकस्याऽऽमुखं हि तत् ॥ २८६ ॥ धन्यास्ते विषया ग्रामा, नगर्यः पत्तनानि च । मलयानिलवद् यानि, प्रीणयन् विहरिष्यसे ॥ २८७ ॥ 30 स्तुत्वेति खामिनं राजा, नमस्कृत्य च भक्तितः । मन्दं मन्दं ययौ बाष्पक्लिन्ननेत्रो निजां पुरीम् ॥२८८॥ द्वितीयस्मिन् दिने स्वामी, ब्रह्मदत्तनृपौकसि । चकार षष्ठतपसः परमानेन पारणम् ॥ २८९ ॥ ववृषुस्त्रिदशाः सार्धस्वर्णद्वादशकोटिकाम् । वसुधारां ब्रह्मदत्तनरेश्वरगृहाङ्गणे ॥ २९० ॥ उन्नमद्वाहवलाञ्चलानुच्चिक्षिपुः सुराः । अनिलान्दोलितलतापल्लव श्रीमलिम्लुचान् ॥ २९९ ॥
७ अति
१ जग्राह । २ सेवकः । ३ सहजातम् । ४ उज्वलम् । ५ तीक्ष्णीकृतम् । ६ देवेन्द्राणां राज्ञां च श्रीः । ८. वैराग्याधीनाय । ९ रक्षित्रे । १० वितर्के । ११ क्रीडामात्रेण । १२ उपकरणम् । १३ प्रस्तावना ।
शयितम् ।
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१९४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीयं पर्व वेलाविलोलजलधिध्वानधीरध्वनिस्तथा । दध्वान दुन्दुभिर्कोम्नि, सानन्दामरताडितः ॥ २९२ ॥ पर्यटत्स्वामियशसां, खेदवारिभ्रमप्रदाम् । तत्र गन्धाम्बुवृष्टिं च, त्रिविष्टपसदो व्यधुः ॥ २९३ ॥ अन्वीयमानां परितो, मित्रैरिव मधुव्रतैः । पञ्चवर्णपुष्पवृष्टिं, विदधुर्विबुधोत्तमाः ॥ २९४ ॥
अहो ! दानं महादानं, सुदानमिदमस्य हि । प्रभावात् तत्क्षणं दाता, भवत्यतुलवैभवः ॥ २९५ ॥ 5 मुच्यते च भवेऽत्रैव, कश्चित् कश्चित् तृतीयके । द्वितीये कल्पातीतेषु, कल्पेषत्पद्यतेऽथवा ॥ २९६ ॥ एवं कोलाहलं व्योग्नि, चक्रुर्मुदितचेतसः । दिवौकसो जयजयारावपूर्वकमुच्चकैः ॥ २९७ ॥
॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ दीयमानां प्रभोभिक्षां, ये प्रेक्षाश्चक्रिरे जनाः। नीरोगास्ते समभवन् , वपुषा निर्जरा इव ॥ २९८ ॥
ब्रह्मदत्तनृपगृहाद् , भगवान् कृतपारणः । वारणः सरसः पीतपानीय इव निर्ययौ ॥ २९९ ॥ 10 मास कश्चिदतिक्रामत् , पदानीति प्रभोः पदे । ब्रह्मदत्तनृपस्तत्र, पीठं रत्नैरकारयत् ॥ ३०॥
ब्रह्मदत्तनृपः पीठं, त्रिसन्ध्यं कुसुमादिभिः । पूजयामास तत्रस्थं, मन्यमानो जिनेश्वरम् ॥ ३०१॥ चर्चा-कुसुम-चत्राद्यैः, पीठे तसिन्नपूजिते । आत्तवेल इव स्वामिन्यभुक्ते न ह्यभुक्त च ॥ ३०२ ॥ भगवानप्रतिबद्धगमनः पेवमानवत् । अखण्डितेर्यासमितिर्विजहार वसुन्धराम् ॥ ३०३॥ प्रतिलाभ्यमानः क्वचित् , प्रासुकैः पायसादिभिः । चय॑मानपदाम्भोजः, क्वाऽपि हृद्यैर्विलेपनैः॥३०४॥ प्रतीक्ष्यमाणः कुत्रापि, श्राद्धवन्दारुदारकैः । अन्वीयमानः कुत्रापि, दर्शनातृप्तिभिर्जनैः ॥ ३०५॥ लोकैः क्वचित् क्रियमाणवस्त्रोत्तारणमङ्गलः । कुत्रचिद् दीयमानापों, दधि-दूर्वा-ऽक्षतादिभिः ॥ ३०६ ॥ खवेश्मनयनायोपरोध्यमानः क्वचिजनैः । क्वाऽपि भूलुठनागच्छजनेन प्रस्खलद्गतिः ॥ ३०७॥ मृज्यमानपदाम्भोजः, श्राद्धैः क्वापि शिरोरुहैः । आदेशं याच्यमानश्च, मुग्धधीभिः क्वचिजनैः ॥३०८॥ निर्ग्रन्थो निर्ममोऽनीहः, स्वामी ग्रामान् पुराणि च । तीर्थीकुर्वन् स्वसंसर्गाद्, विजहार वसुन्धराम् ॥३०९॥
॥ षड्भिः कुलकम् ॥ घूकघूत्कारपोरेषु, स्फारफेत्कारफेरूँषु । फणिफूत्काररौद्रेषु, माघदुत्कोशदोतुषु ॥ ३१० ॥ रटढुककरालेषु, चमूरूत्क्रूरवृत्तिषु । शार्दूलकुलबूंत्कारप्रकारप्रतिनादिषु ॥ ३११ ॥ महेभभज्यमानदुविद्रुतद्रोणराविषु । सिंहपुच्छच्छटाच्छोटस्फोट्यमानाश्मभूमिषु ॥ ३१२ ॥ शैरभोस्पिष्टदन्तीन्द्रकीकसाकुलवर्त्मसु । मृगयाव्यग्रशवरधनुर्नादानुनादिषु ।। ३१३ ।। भटककर्णग्रहणव्यग्रभिल्लाभकेषु च । अन्योऽन्यतरुशाखाग्रसङ्घर्षोंच्छलदग्निषु ॥ ३१४ ॥ महागिरि-महारण्येष्वपि ग्राम-पुरेष्विव । निष्प्रकम्पमनाः कामं, व्यहादिजितप्रभुः ॥ ३१५ ॥
॥षड्भिः कुलकम् ॥ भूतलालोकमात्रेण, जायमानजनभ्रमौ । कदाचन गिरेम॒नि, शृङ्गान्तरमिव स्थिरः ॥ ३१६ ॥ उत्फालमर्कटकुलभज्यमानास्थिसन्धिनि । कदाचन महासिन्धुरोधःसीमनि वृक्षवत् ॥ ३१७ ॥ क्रीडदुत्तालवेताल-पिशाच-प्रेतसङ्घले । वात्यावर्तितधूलीके, श्मशाने च कदाचन ॥ ३१८ ॥ रौद्रेभ्योऽपि हि रौद्रेषु, स्थानेष्वन्येष्वपि प्रभुः । कायोत्सर्ग निसर्गकधीरो व्यधित लीलया ॥ ३१९ ॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ तपश्चतुर्थ कदाचित्, तपः षष्ठं कदाचन । तपोऽष्टमं कदाचिच, कदापि दशमं तपः ॥ ३२० ॥ अन्यदा द्वादशतपश्चतुर्दशतपोऽन्यदा । अन्यदा पोडशतपस्तपोऽष्टादशमन्यदा ॥ ३२१ ॥
देवाः । २ भ्रमरैः । ३ गजः। ४ प्रतीक्षमाणः। ५ वायुवत्। ६ श्रावकाणां वन्दनशीलैः पुत्रैः। ७ शृगालः। ८बिडाला। ९ मृगविशेषः।। गर्जना।" उडीनः। १२ काकः । १३ अष्टापदः । १४ अस्ति । १५ ऋक्षः। १६ अन्यच्छिखरमिव ।
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वृतीयः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । एकदा मासिकं च द्विमासिकं च त्रिमासिकम् । चतुः-पञ्च-षण्मासिकान्यप्यथो सप्तमासिकम् ॥ ३२२ ॥ तपोऽष्टमासिकं यावद्, भगवानजितप्रभुः । विदधे विहरनार्यदेशेष्वक्षीणशक्तिकः ।। ३२३ ॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ ललाटन्तपतपनातपे ग्रीष्मऋतावपि । नाऽऽचकास तरुच्छायामपि देहेऽपि निःस्पृहः ॥ ३२४ ॥ पतत्तुहिनसम्भारप्लुष्यमाणतरावपि । हेमन्तौ प्रभुनैच्छद्, दीप्तपित्त इवाऽऽतपम् ॥ ३२५ ॥ झञ्झानिलोल्वणैर्धारासारैरपि पयोमुचाम् । मतङ्गजो वारिचर, इव नोद्विविजे विभुः ॥ ३२६ ।। परीषहानेवमन्यानपि सेहे सुदुःसहान् । सर्वसहो धरणिवद्, धरणीतिलकः प्रभुः ॥ ३२७ ॥ उग्रैस्तपोभिर्विविधैर्विविधाभिग्रहैरपि । परीपहसहोऽब्दानि, द्वादशाऽलङ्घयत् प्रभुः ॥ ३२८ ॥ खडीव स्वाम्यनासीनः, खनिशङ्गमिवैककः । समेरुरिव निष्कम्पः, पञ्चानन वाऽभयः॥ ३२९ ॥ वायुरिवाऽप्रतिबद्धो. भुजङ्गम इवैकहक । वह्निना काञ्चनमिव, तपसाऽतिशयानरुक ॥३३०॥ 10 वृतिभिर्वरशाखीव, तिसृभिर्गुप्तिभिर्वृतः । समितीः पञ्च बिभ्राणो, धन्वी हस्त(स्ते) शरानिव ॥ ३३१॥ आज्ञा-ऽपाय-विपाकानां, संस्थानस्य च चिन्तनात् । ध्यायंश्चतुर्विधं ध्येयं, ध्येयरूपः स्वयं विभुः ॥३३२॥ प्रतिग्रामं प्रतिपुरं, प्रत्यरण्यं च पर्यटन् । समाययावुपवनं, सहस्राम्रवणं क्रमात् ॥ ३३३ ॥
॥पञ्चभिः कुलकम् ॥ तत्र च्छत्रायमाणस्य, सप्तच्छदतरोस्तले । तत्प्रकाण्डमिवाऽकम्पस्तस्थौ प्रतिमया प्रभुः ॥ ३३४॥ 15 अप्रमत्तसंयताख्यगुणस्थानात् तदा विभुः । अपूर्वकरणं भेजे, गुणस्थानकमष्टमम् ॥ ३३५ ॥ श्रौतादाद् व्रजन् शब्द, शब्दादर्थं व्रजन् ययौ । नानात्वश्रुतवीचारं, शुक्लध्यानमथाऽऽदिमम् ॥३३६॥ अनिवृत्तिबादराख्यं, परिणामानिवृत्तिकृत् । आरुरोह गुणस्थानं, ततश्च नवमं विभुः ॥ ३३७ ॥ अथ लोभकषायस्य, किट्टीकरणतो ययौ । सूक्ष्मसम्परायं नाम, गुणस्थानं नवोत्तरम् ॥ ३३८ ॥ अनन्तवीर्यस्त्रिजगत्सर्वकर्मक्षयक्षमः । क्षीणमोहं गुणस्थानं, प्राप मोहस्य सङ्गयात् ॥ ३३९ ॥ गुणस्थानस्य चैतस्य, द्वादशस्यान्तिमे क्षणे । एकत्वश्रुतमीशोऽगाच्छुक्लध्यानं द्वितीयकम् ॥ ३४०॥ त्रिजगद्विषयं ध्यानेनाऽमुनाऽणो दधौ मनः । सर्वाङ्गीणं विषं दंशे, मत्रेणेव जगत्प्रभुः ॥ ३४१॥ अपनीतेन्धनभरः, शेषस्तोकेन्धनोऽनलः । ज्वलितो निर्वाति यथा, निर्वाणं तन्मनस्तथा ॥ ३४२ ॥ ततश्च तस्मिन् ध्यानाग्नौ, दीप्यमाने जिनेशितुः । हिमानीव व्यलीयन्त, घातिकर्माणि सर्वतः ॥३४३ ॥ अथ पौषस्य शुक्लैकादश्यां चन्द्रेऽधिरोहिणि । स्वामिनः कृतषष्ठस्योत्पेदे केवलमुज्वलम् ॥ ३४४॥ 25 ईक्षाञ्चके जगन्नाथस्त्रिकालविषयानपि । त्रैलोक्यवर्तिनो भावान् , करोत्सङ्गगतानिव ॥ ३४५॥
उत्पन्ने स्वामिनो ज्ञाने, स्वाम्यवज्ञाभयादिव । सौधर्माधिपतेः सद्यः, सिंहासनमकम्पत ॥ ३४६॥ तत्कारणज्ञानकृते, प्रायुत मघवाऽवधिम् । रज्जु जलाशयपयोमानं ज्ञातुमना इव ॥ ३४७ ॥ खामिनः केवलज्ञानमुत्पन्नमिति वासवः । अज्ञासीदवधिज्ञानाद्, दीपालोकात् पदार्थवत् ॥ ३४८ ॥ रत्नसिंहासनं रत्नपादुके च पुरन्दरः । उज्झाञ्चकार बलवत् , स्वाम्यवज्ञाभयं सताम् ॥ ३४९॥ 30 ददौ पदानि सप्ताऽष्टान्यहदिवसम्मुखं हरिः । गीतार्थः शिष्य इवाऽनुज्ञापितावग्रहावनौ ॥ ३५० ॥ सव्यं किश्चिन्यश्य जानु, दक्षिणेन च जानुना। पाणिभ्यां शिरसा च क्ष्मां, स्पृशन्ननमदद्रिभिँत् ॥३५१॥ समुत्थाय व्यपक्रम्य, भूयोऽपि बलेसूदनः । सिंहासनमलञ्चके, गिरीन्द्रमिव केसरी ॥ ३५२ ॥ पुरुहूतः समाहूताशेषदेवः क्षणादपि । ऋद्ध्या महत्या भक्त्येव, जिनेन्द्राभ्यर्णमाययौ ॥ ३५३ ॥
* सङ्घ ३ एव वर्त्तते । १ सूर्यः। २ हस्ती। ३ वृक्षकाण्डम् । ४ दशममित्यर्थः। ५ दंशस्थाने। ६ शान्तम् । ७ हस्तमध्यगतान् । ८-९ इन्द्रः।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ द्वितीयं पर्व
सर्वेऽन्येऽप्यासनकम्पाद्, विज्ञातस्वामिकेवलाः । अहम्पूर्विकयेवेयुः, सममिन्द्रा जिनान्तिके ॥ ३५४ ॥ क्षेत्रे योजनमात्रे च देवा वायुकुमारकाः । अपनिन्युः शर्करादि, ते यदत्राऽधिकारिणः ।। ३५५ ॥ तत्र गन्धाम्बुवृष्टिं च, सुरा मेघकुमारकाः । रजोमात्रप्रशमनीं, शरदृष्टिनिभां व्यधुः ॥ ३५६ ॥ स्वर्ण-रत्नशिलास्तोमैर्मसृणैस्तन्महीतलम् । बबन्धुर्बन्धुरतरं, चैत्यमध्यमिवामराः ॥ ३५७ ॥ मेराणि जानुदशानि, पञ्चवर्णान्यृर्तुश्रियः । ववृषुस्तत्र पुष्पाणि, प्रत्यूषपवना इव ॥ ३५८ ॥ अन्तः कृत्वा मणिस्तूपं, परितस्तमधो व्यधुः । रौप्यं भवनपतयो, वप्रं रैकैंपिशीर्षकम् ॥ ३५९ ॥ वनं द्वितीयं ज्योतिष्काः, सरत्नकपिशीर्षकम् । विदधुः काञ्चनैरात्मज्योतिर्भिरिव पिण्डितैः ॥ ३६० ॥ प्राकारं चोपरितनं, वैमानिकदिवौकसः । रत्तैर्विरचयाञ्च कुर्माणिक्यकपिशीर्षकम् ।। ३६१ ॥
व वप्रे च चत्वारि, जगत्यामित्र जज्ञिरे । मनोविश्रामधामानि, चारुद्वाराणि तत्र च ॥ ३६२ ॥ 10 पत्रैर्मारकतैरासन्, द्वारे द्वारे च तोरणाः । अम्बरे विचरच्चारुश्रेणीभूतशुकोपमाः ॥ ३६३ ॥
सोरणानुभयतश्च, कुम्भा मुखकृताम्बुजाः । न्यास्यन्त सिन्धूरभितश्चक्रा इव दिनात्यये ॥ ३६४ ॥ द्वारे द्वारेऽभवद् वापी, काञ्चनाम्भोजशालिनी । स्वच्छ खादुपयः पूर्णा, मङ्गल्यकलशोपमा ।। ३६५ ॥ धूपघट्यः प्रतिद्वारं, हैम्यो मुमुचिरेऽमरैः । धूपधूमैर्मारकतांस्तन्वन्त्यस्तोरणानिव ॥ ३६६ ॥ प्राकारे मध्यमे पूर्वोदीच्यां दिशि दिवौकसः । देवच्छन्दं विदधिरे, स्वामिविश्रामहेतवे ॥ ३६७ ॥ 15 तृतीयवप्रमध्योन्या, चैत्यदुं व्यन्तरा व्यधुः । चतुर्दशधनुःशत्याऽधिकां गव्यूतिमुन्नतम् ॥ ३६८ ॥ ततः सिंहासनं देवच्छन्दकं चामरे अपि । छत्रत्रयं च रुचिरं चक्रिरे व्यन्तरामराः ॥ ३६९ ॥ इत्थङ्कारं च समवसरणं विदधेऽमरैः । भवत्रस्तैकशरणं, हरणं निखिलापदाम् ॥ ३७० ॥
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ततो जयजयारावकारिभिर्मागधैरिव । अमरैः कोटिसङ्ख्यातैः परितः परिवारितः ॥ ३७१ ॥ सुरसञ्चार्यमाणेषु, सौवर्णेष्वम्बुजन्मसु । नवसु क्रमशो न्यस्य, पादाम्भोजे जगत्पतिः ॥ ३७२ ॥ 20 प्रविश्य पूर्वद्वारेण, चैत्यवृक्षप्रदक्षिणाम् । चकाराऽऽवश्यकविधिर्ह्यलड्यो महतामपि ॥ ३७३ ॥ नमस्तीर्थायेति गिरा, कृत्वा तीर्थनमस्क्रियाम् । तत्र सिंहासने पूर्वाभिमुखो न्यषदत् प्रभुः ॥ ३७४ ॥ स्वामिनः प्रतिरूपाणि, दिक्ष्वन्यास्वपि तत्क्षणम् । विचक्रुर्व्यन्तरास्ते हि शेषकर्माधिकारिणः ॥ ३७५ ॥ स्वामिरूपानुरूपाणि, तान्यासंस्तत्प्रभावतः । तादृशि स्वामिबिम्बानि, न ते कर्तुं स्वयं क्षमाः ॥ ३७६ ॥ पृष्ठे भामण्डलं धर्मचक्र - शक्रध्वजौ पुरः । दिवि दुन्दुभिनादव, प्रादुरासंस्तदा क्षणात् ॥ ३७७ ॥ 25 पूर्वद्वाराऽविशन् साधु-साध्वी वैमानिकस्त्रियः । त्रिश्च प्रदक्षिणीकृत्य, नेमुस्त्रिभुवनेश्वरम् ॥ ३७८ ॥ पूर्वदक्षिणदिश्यासाञ्चक्रिरे तत्र साधवः । तत्पृष्ठे तस्थुरूर्द्धास्तु, वैमानिक्योऽथ संयताः ॥ ३७९ ।। अपारद्वारैत्य भवनेश- ज्योतिर्व्यन्तरस्त्रियः । प्रभुं प्रदक्षिणीकृत्योर्द्ध नैर्ऋत्यां क्रमात् स्थिताः || ३८० ॥ प्रत्यैग्द्वारैत्य भवनेश- ज्योतिर्व्यन्तराः प्रभुम् । नत्वा प्रदक्षिणापूर्व, वायव्ये न्यषदन् क्रमात् ॥ ३८९ ॥ प्रविश्योदीच्यद्वारेण, सेन्द्रा वैमानिकाः प्रभुम् । नत्वा प्रदक्षिणापूर्वमैशान्यां न्यषदन् क्रमात् ॥ ३८२ ॥ नाथं भूयो नमस्कृत्य, शो विरचिताञ्जलिः । भक्त्या रोमाञ्चितवपुः स्तोतुमित्युपचक्रमे ॥ ३८३ ॥ सर्वाभिमुख्यतो नाथ !, तीर्थकृन्नामकर्मजात् । सर्वेषां सम्मुखीनस्त्वमानन्दयसि यत् प्रजाः || ३८४ ॥ यद् योजनप्रमाणेऽपि, धर्मदेशनसद्मनि । सम्मान्ति कोटिशस्तिर्यग्नू - देवाः सपरिच्छदाः || ३८५ ॥ तेषामेव स्वस्वभाषापरिणाममनोहरम् । अप्येकरूपं वचनं, यत् ते धर्मावबोधकृत् ॥ ३८६ ॥ साग्रेऽपि योजनशते, पूर्वोत्पन्ना गेंदाम्बुदाः । यदञ्जसा विलीयन्ते, त्वद्विहारानिलोर्मिभिः ॥ ३८७ ॥
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१ खिग्धैः । २ विकसितानि । ३ जानुप्रमाणानि । ४ ऋत्वधिष्ठायिका देव्यः । ५ मणिपीठम् । ६ सुवर्णमयकपिशीर्षकम् । ७ जम्बूद्वीपस्य दुर्गे । ८ नदीः । ९ पद्मेषु । १० साय्यः । ११ दक्षिणद्वारेण । १२ पश्चिमद्वारेण । १३ व्याधय एव मेघाः ।
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तृतीयः सर्गः ]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
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नाविर्भवन्ति यद् भूमौ मूषिकाः शलभाः शुकाः । क्षणेन क्षितिपक्षिप्ता, अनीतय इवैर्तयः ॥ ३८८ ॥ स्त्री-क्षेत्र - पेद्रादिभवो, यद् वैराग्निः प्रशाम्यति । त्वत्कृपापुष्करावर्तवर्षादिव भुवस्तले ॥ ३८९ ॥ त्वत्प्रभावे भुवि भ्राम्यत्यशिवोच्छेदडिण्डिमे । सम्भवन्ति न यन्नाथ !, माँरयो भुवनारयः ॥ ३९० ॥ कामवर्षिणि लोकानां त्वयि विश्वैकवत्सले । अतिवृष्टिरवृष्टिर्वा, भवेद् यन्नोपतापकृत् ॥ ३९९ ॥ खराष्ट्र - परराष्ट्रेभ्यो, यत् क्षुद्रोपद्रवा द्रुतम् । विद्रवन्ति त्वत्प्रभावात् सिंहनादादिव द्विपाः ।। ३९२ ॥ यत् क्षीयते च दुर्भिक्षं, क्षितौ विहरति त्वयि । सर्वाद्भुतप्रभावाट्ये, जङ्गमे कल्पपादपे ॥ ३९३ ॥ यन्मूर्भः पश्चिमे भागे, जितमार्त्तण्डमण्डलम् । मा भूद् वपुर्दुरालोकमितीवोत्पिण्डितं महः ॥ ३९४ ॥ स एष योगसाम्राज्यमहिमा विश्वविश्रुतः । कर्मक्षयोत्थो भगवन् !, कस्य नाऽऽश्चर्यकारणम् ? ।। ३९५ ।। अनन्तकालप्रचितमनन्तमपि सर्वथा । त्वत्तो नान्यः कर्मर्केशमुन्मूलयति मूलतः ॥ ३९६ ॥ तथोपाये प्रवृत्तस्त्वं क्रियासमभिहारतः । यथाऽनिच्छन्नुपेयस्य, परां श्रियमशिश्रियः || ३९७ ॥ मैत्री पवित्र पात्राय, मुदितामोदशालिने । कृषोपेक्षाप्रतीक्ष्याय, तुभ्यं योगात्मने नमः ॥ ३९८ ॥
इतश्च समवसृतं, जिनेन्द्रमजितप्रभुम् । उद्यानपालका गत्वाऽऽचख्युः सगरचक्रिणे ॥ ३९९ ॥ प्रभोः समवसरणोदन्तेन मुमुदे तथा । चक्रवर्ती चक्ररत्नोत्पत्तावपि यथा न हि ॥ ४०० ॥ तेभ्यश्च तपनीयस्य, सार्धा द्वादशकोटयः । भूभुजा परितुष्टेन, ददिरे पारितोषिके ।। ४०१ ॥ ततः स्नात्वा कृतप्रायश्चित्त कौतुकमङ्गलः । उदाराकाररलालङ्कारस्त्रिदशराडिव ।। ४०२ ॥
तस्कन्धहारः कराभ्यां नर्तयन् सृणिम् । सगरः कुञ्जरवरमासन्यारोहदग्रिमे ॥ ४०३ ॥ युग्मम् ॥ कुम्भिकुम्भस्थलेनोचेनाऽऽनाभि च्छन्नविग्रहः । अर्धोदित इवाऽऽदित्यो, दिद्युते मेदिनीपतिः ॥ ४०४ ॥ दिग्मुखप्रसृतैः शङ्ख-दुन्दुभिप्रभृतिखनैः । एयुः सैन्याः सुघोषादिघण्टाघोषैरिवाऽमराः ।। ४०५ ।। राज्ञां मुकुटवद्धानां सहस्रैः परिवारितः । विरेजे वैक्रियानेकरूपधारीव चक्रभृत् ॥ ४०६ ॥ मूर्धाभिषिक्तमूर्धन्यो, मूर्ध्नि च्छत्रेण पाण्डुना । अशोभिष्ट नभोगङ्गावर्त्तभ्रमविधायिना ॥ ४०७ ॥ पार्श्वतः सञ्चरिष्णुभ्यां, चामराभ्यामरोचत । सगर चन्द्रबिम्बाभ्यामिव काञ्चनपर्वतः ॥ ४०८ ॥ वाजिभिः स्वर्णसन्नाहैः, स्वर्णपक्षैः खगैरिव । रथैस्तुङ्गध्वजस्तम्भैः, पोतैखिँ सकूपकैः ॥ ४०९ ॥ क्षरन्मदैर्गजवरैः, शैलैरिव सनिर्झरैः । उदस्त्रैः पत्तिभिः सिन्धुतरङ्गैरिव सोरगैः ॥ ४१० ॥ परितश्छादयन्नुवमुवपतिरथ द्रुतम् । आससाद सहस्राम्रवणोपवनसन्निधिम् ॥ ४११ ॥
॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥
उद्यानद्वारसौवर्णवेद्यां सगर भूपतिः । उत्ततार द्विपात् तस्मान्मानादिव महामुनिः ॥ ४१२ ॥ उज्झाञ्चकार सगरः, स्वं छत्रं चामरे अपि । अप्यन्यराज्यचिह्नानि, विनीतानां क्रमो ह्ययम् ॥ ४१३ ॥ पादाभ्यां न ह्यलञ्चक्रे, विनयादप्युपानहौ । हस्तावलम्बनमपि, वेत्रिदत्तमुपैक्षत ॥ ४१४ ॥ ततः समवसरणाभ्यर्णे सगरभूपतिः । पद्भ्यां चलितवान् पौरनर-नारी गणैः समम् ॥ ४१५ ॥ उदग्द्वारेण समवसरणं प्राविशत् तदा । नृपो मकरसङ्क्रान्तौ, व्योमाङ्गणमिवाऽर्यमा ॥ ४१६ ॥ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य, त्रिर्नत्वा च जगद्गुरुम् । सगरः स्तोतुमारेभे, सुधामधुरया गिरा ॥ ४१७ ॥
arrai युगान्तार्कः, सुदृशाममृताञ्जनम् । तिलकं तीर्थकुलक्ष्म्याः, पुरश्रकं तवैधते ॥ ४९८ ॥ एकोऽयमेव जगति, स्वामीत्याख्यातुमुच्छ्रिता । उच्चैरिन्द्रध्वजव्याजात्, तर्जनी जम्भैविद्विषा ॥ ४१९ ॥
१ क्षेत्रपाकविघ्नकरा उपद्रवाः । २ ग्रामः । ३ व्याधयः । ४ कर्मैव कक्षं वनम् । ५ प्रमोदभावनामोदशोभिताय । ६ कृपामाध्यस्थ्ययोः मुख्याय । ७ सुवर्णस्य । ८ अङ्कुशम् । ९ मूर्धाभिषिक्ता राजानस्तेषां मुख्यः । १० प्रवहणैः । ११ ससर्पैः । १२ नम्राणाम् । १३ इन्द्रेण ।
त्रिषष्टि. २६
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१९८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीय पर्व यत्र पादौ पदं धत्तस्तव तत्र सुरा-ऽसुराः । किरन्ति पङ्कजव्याजाच्छ्रियं पङ्कजवासिनीम् ॥ ४२० ॥ दान-शील-तपो-भावमेदाद् धर्म चतुर्विधम् । मन्ये युगपदाख्यातुं, चतुर्वक्त्रोऽभवद् भवान् ॥ ४२१॥ त्वयि दोषत्रयात् त्रातुं, प्रवृत्ते भुवनत्रयीम् । प्राकारत्रितयं चक्रुस्त्रयेऽपि त्रिदिवौकसः ॥ ४२२॥ अधोमुखाः कण्टकाः स्युर्धाच्यां विहरतस्तव । भवेयुः सम्मुखीनाः किं, तामसास्तिग्मरोचिषः १ ॥४२३॥ केश-रोम-नख-श्मश्रु, तवाऽवस्थितमित्ययम् । बाह्योऽपि योगमहिमा, नाऽऽप्तस्तीर्थकरैः परैः॥ ४२४ ॥ शब्द-रूप-रस-स्पर्श-गन्धाख्याः पञ्च गोचराः । भजन्ति प्रातिकूल्यं न, त्वदने तार्किका इव ॥ ४२५ ॥ त्वत्पादावृतवः सर्वे, युगपत् पर्युपासते । आकालकृतकन्दर्पसाहायकमयादिव ॥ ४२६ ॥ सुगन्ध्युदकवर्षेण, दिव्यपुष्पोत्करेण च । भावित्वत्पादसंस्पर्शा, पूजयन्ति भुवं सुराः ॥ ४२७ ॥ जगत्प्रेतीक्ष्य ! त्वां यान्ति, पक्षिणोऽपि प्रदक्षिणाम् । का गतिमहतां तेषां, त्वयि ये वामवृत्तयः ? ॥४२८॥ पञ्चेन्द्रियाणां दो शील्यं, क भवेद् भवदन्तिके ? । एकेन्द्रियोऽपि यन्मुश्चत्यनिलः प्रतिकूलताम् ॥४२९॥ मूर्धा नमन्ति तरवस्त्वन्माहात्म्यचमत्कृताः । तत् कृतार्थ शिरस्तेषां, व्यर्थ मिथ्यादृशां पुनः॥४३०॥ जघन्यतः कोटिसङ्ख्यास्त्वां सेवन्ते सुरा-ऽसुराः । भाग्यसम्भारलभ्येऽर्थे, न मन्दा अप्युदासते ॥४३१॥ __भगवन्तमिति स्तुत्वाऽपक्रम्य विनयक्रमात् । पृष्ठे मघवतस्तस्थौ, नर-नारीगणश्च सः ॥ ४३२ ॥
इत्थं समवसरणस्योर्द्धवप्रान्तरावनौ । तस्थौ चतुर्विधः सङ्घो, ध्यानस्थ इव भक्तितः ॥ ४३३ ॥ 15 द्वितीयवप्रमध्ये तु, भुजङ्ग-नकुलादयः । तिर्यञ्चोऽस्थुस्त्यक्तवैरा, मित्राणीव परस्परम् ॥ ४३४ ॥
तृतीयवप्रमध्ये च, खामिसेवार्थमेयुषाम् । सुरा-सुर-मनुष्याणां, वाहनान्यवतस्थिरे ॥ ४३५ ॥ अथाऽऽयोजनगामिन्या, सर्वभाषास्पृशा गिरा । भगवानजितस्त्रामी, प्रारेभे धर्मदेशनाम् ॥ ४३६ ॥
असावसारः संसारः, सारबुद्ध्याऽवबुध्यते । काचो वैडूर्यबुद्ध्येव, धिगहो! मुग्धबुद्धिभिः ॥ ४३७ ॥ प्रतिक्षणभवैदेहभाजां विविधकर्मभिः । संवर्ध्यते च संसारः, पादपो दोहदैरिव ॥ ४३८ ॥ कर्माभावेन संसाराभावो न्यायभवः खलु । कर्मध्वंसाय सुधिया, यतितव्यं ततः सदा ॥ ४३९ ॥ कर्मध्वंसः शुभध्यानात्, तच्च ध्यानं चतुर्विधम् । आज्ञा-पाय-विपाकानां, संस्थानस्य च चिन्तनात् ॥४४०॥
आज्ञा स्यादाप्तवचनं, सा द्विधैव व्यवस्थिता । आगमः प्रथमा तावद्धेतुवादोऽपरा पुनः ॥ ४४१ ॥ शब्दादेव पदार्थानां, प्रतिपत्तिकृदागमः । प्रमाणान्तरसंवादाढेतुवादो निगद्यते ॥ ४४२॥
द्वयोरप्यनयोस्तुल्यं, प्रामाण्यमविगानतः । अदुष्टकारणारब्धं, प्रमाणमिति लक्षणात् ॥ ४४३ ॥ 25 दोषा राग-द्वेष-मोहाः, सम्भवन्ति न तेऽर्हति । अदुष्टहेतुसम्भूतं, तत् प्रमाणं वचोऽर्हताम् ॥ ४४४ ॥
नय-प्रमाणसंसिद्ध. पौर्वापर्याविरोधि च । अप्रतिक्षेप्यमपरैर्बलिप्रैरपि शासनैः ॥१४५॥ अङ्गोपाङ्ग-प्रकीर्णादिबहभेदापगाम्बुधि । अनेकातिशयप्राज्यसाम्राज्यश्रीविभपितम ॥४४६॥ सुदुर्लभं दूरभव्यैर्भव्यैस्तु सुलभं भृशम् । गणिपिटकतयोचैर्नित्यं स्तुत्यं नरा-ऽमरैः ॥ ४४७ ॥ इमामाज्ञां समालम्ब्य. स्याद्वादन्याययोगतः । द्रव्य-पर्यायरूपेण, नित्या-ऽनित्येषु वम्तए ॥४४८॥ स्वरूप-पररूपाभ्यां, सदसद्पशालिषु । यः स्थिरप्रत्ययो ध्यानं. तढाजाविचयायम ॥ ४४९॥
अस्पृष्टजिनमार्गाणामविज्ञातपरात्मनाम । अपरामष्टायतीनामपायाः स्यः सहस्रशः॥ ४५० ॥ माया-मोहा-ऽन्धतमसविवशीकृतचेतसा । किं किं नाऽकारि कलुपं?, कस्कोऽपायोऽप्यवापि न ? ॥४५१॥ यद् यद् दुःखं नारकेषु, तिर्यक्षु मनुजेषु च । मयाऽप्रापि प्रमादोऽयं, ममैव हि विचेतसः ॥ ४५२॥ प्राप्यापि परमां बोधि, मनो-चाकायकर्मजैः । दुश्चेष्टितर्मयवाऽऽन्मशिरसि ज्यालितोऽनलः ॥ ४५३ ॥
१सूर्यस्य । २ वृद्धिरहितम् । ३ इन्द्रियविषयाः। ४ हे जगापूज्य !। ५ प्रतिकूलवृत्तयः। प्रतिपादकः। ७ अविरोधितया। ८ अबाध्यम्। ९ अविचारितोत्तरकालानाम् ।
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तृतीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१९९ खाधीने मुक्तिमार्गेऽपि, कुमार्गपरिमार्गणैः । अहो! आत्मंस्त्वयैवैष, स्वात्माऽपायेषु पातितः॥४५४॥ यथा प्राप्तेऽपि सौराज्ये, भिक्षां भ्राम्यति वालिशः। आत्मायत्ते तथा मोक्षे, भवाय भ्रान्तवानसि ॥४५५॥ एवं राग-द्वेष-मोहैर्जायमानान् विचिन्तयेत् । यत्राऽपायांस्तदपायविचयध्यानमिष्यते ॥ ४५६ ॥ विपाकः फलमानातः, कर्मणां स शुभा-ऽशुभः । द्रव्य-क्षेत्रादिसामग्र्या, चित्ररूपोऽनुभूयते ॥ ४५७ ॥ शुभस्तबाङ्गना-माल्य-खाद्यादिद्रव्यभोगतः । अशुभस्त्वहि-शस्त्रा-ऽग्नि-विषादिभ्योऽनुभूयते ॥ ४५८ ॥ 5 क्षेत्रे सौध-विमानोपवनादौ वसनाच्छुभः । श्मशान-जाङ्गला-ऽरण्यप्रभृतावशुभः पुनः॥ ४५९ ।। काले त्वशीतला-ऽनुष्णे, वसन्तादौ रतः शुभः । उष्णे शीते ग्रीष्म-हेमन्तादौ भ्रमणतोऽशुभः ॥ ४६० ॥ मनःप्रसाद-सन्तोषादिभावेषु शुभो भवेत् । क्रोधा-ऽहङ्कार-रौद्रत्वादिभावेष्वशुभः पुनः ॥ ४६१ ॥ सुदेवत्व-भोगभूमिमनुष्यादिभवे शुभः । कुमर्त्य-तिर्यग्नरकादिभवेष्वशुभः पुनः॥ ४६२ ॥ अपि च-उँदय-क्षय-क्षयोपशमोपशमाः कर्मणां भवन्त्यत्र । द्रव्यं क्षेत्रं कालं, भावं च भवं च सम्प्राप्य॥४६३॥ 10 इति द्रव्यादिसामग्रीयोगात् कर्माणि देहिनाम् । खं खं फलं प्रयच्छन्ति, तानि त्वष्टैव तद्यथा ॥४६४॥ ___ जन्तोः सर्वज्ञरूपस्य, ज्ञानमात्रियते सदा । येन चक्षुः पटेनेव, ज्ञानावरणकर्म तत् ॥ ४६५ ॥ मति-श्रुता-ऽवधि-मनःपर्यायाः केवलं तथा । पञ्चाऽऽत्रियन्ते ज्ञानानीत्येता ज्ञानावृतेर्भिदः ॥ ४६६ ॥ पञ्च निद्रा दर्शनानां, चतुष्कस्याऽऽवृतिश्च या । दर्शनावरणीयस्य, विपाकः कर्मणः स तु ॥ ४६७ ॥ यथा दिदृक्षुः स्वामी खं, प्रतीहारनिरोधतः। न पश्यति तथाऽऽत्माऽपि, येन दृष्ट्यावृतिस्तु तत् ॥४६८॥ 15 मधुलिप्तासिधारामास्वादाभं वेद्यकर्म यत् । सुख-दुःखानुभवनखभावं तत् प्रकीर्तितम् ॥ ४६९ ॥ सुरापाणसमं प्राज्ञा, मोहनीयं प्रचक्षते । यदनेन विमूढात्मा, कृत्या-ऽकृत्येषु मुह्यति ॥ ४७० ॥ तत्रापि दृष्टिमोहाख्यं, मिथ्यादृष्टिविपाककृत् । चारित्रमोहनीयं तु, विरतिप्रतिषेधकम् ।। ४७१ ॥ नृ-तिर्यमारका-ऽमर्त्यभेदादायुश्चतुर्विधम् । स्वखजन्मनि जन्तूनां, धारकं गुप्तिसन्निभम् ॥ ४७२ ॥ गति-जात्यादिवैचित्र्यकारि चित्रकरोपमम् । नामकर्म विपाकोऽस्य, शरीरेषु शरीरिणाम् ॥ ४७३ ॥ 20 उच्चैर्नीचर्भवेद् गोत्रं, कर्मोच्चैर्नीचगोत्रकृत् । क्षीरभाण्ड-सुराभाण्डभेदकारि कुलालवत् ॥ ४७४ ॥ दानादिलब्धयो येन, न फलन्ति विबाधिताः । तदन्तरायं कर्म स्याद् , भाण्डागारिकसन्निभम् ॥ ४७५॥ इति मूलप्रकृतीनां, विपाकांस्तान् विचिन्वतः । विपाकविचयं नाम, धर्मध्यानं प्रवर्तते ॥ ४७६ ॥ अनाद्यन्तस्य लोकस्य, स्थित्युत्पत्ति-व्ययात्मनः । आकृति चिन्तयेद् यत्र, संस्थानविचयः स तु ॥४७७।। कटिस्थकरवैशाखस्थानकस्थनराकृतिः । द्रव्यैः पूर्णः स तु लोकः, स्थित्युत्पत्ति-व्ययात्मकैः ॥ ४७८ ॥ 25 वेत्रासनसमोऽधस्तान्मध्यतो झल्लरीनिमः । अग्रे मुरजसङ्काशो, लोकः स्यादेवमाकृतिः ॥ ४७९ ॥ स च त्रिजगदाकीर्णो, भुवः सप्तात्र वेष्टिताः । घनाम्भोधि-धनवात-तनुवातैर्महाबलेः ॥ ४८०॥ जगत्रयं त्वधस्तिर्यगूर्द्धलोकविभेदतः । अधस्तिर्यगूर्द्धभावो, रुचकापेक्षया पुनः ॥ ४८१ ॥ मेर्वन्तर्गोस्तनाकारचतुर्योमप्रदेशकः । रुचकोऽधस्तादृगूर्द्धमेवमष्टप्रदेशकः ॥ ४८२ ॥ तिर्यग्लोकस्तु रुचकस्योपरिष्टादधोऽपि च । योजनानां नव नव, शतानि भवति स्फुटम् ॥ ४८३ ॥ 30 तिर्यग्लोकस्य त्वधस्तादधोलोकः प्रतिष्ठितः । नवयोजनशत्यूनसप्तरजुप्रमाणकः ॥ ४८४ ॥ तत्राऽधोभागमासाद्याधोऽधःस्थाः सप्त भूमयः । यासु नारकपण्डानां, निवासाः सन्ति भीषणाः॥ ४८५ ।। रत्नशकरावालुकापङ्कधूमतमःप्रभाः। महातमाप्रभा चाऽऽसां, बोहल्ये लक्षयोजनी ॥ ४८६ ॥
मूर्खः । २ कथितः। ३ सुदेवत्वे भोगस्थानभूते मनुष्यादिभवे च । " इदं आर्यावृत्तम् । ४ ज्ञानावरणस्य भेदाः। ५ दर्शनावरणम् । ६ कारागृहसमानम् । ७ कोशागारिकतुल्यम् । ८ दधिमथकस्यासनभेदः। ९ मृदङ्गसदृशः । १० ताक् चतुःप्रदेश इत्यर्थः । ११ जैनागमेपु नारकाणां नपुंसकत्वं स्वीकृत मित्येवं प्रयोगः । १२ स्थूलत्वे ।
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२०० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीयं पर्व अशीतित्रिंशदष्टाविंशतिर्विंशतिस्तथा । अष्टादश षोडशाऽष्टौ, सहस्राश्च क्रमेण तु ॥ ४८७ ॥ रत्नप्रभाभुवोऽधोऽधः, क्रमात् पृथुतराश्च ताः । त्रिंशल्लक्षाणि नरकावासानां प्रथमावनौ ॥ ४८८ ॥ पञ्चविंशतिलक्षाणि, द्वितीयनरकावनौ । तृतीयायां पञ्चदश, तुरीयायां पुनर्दश ॥ ४८९ ॥ पञ्चम्यां त्रीणि पञ्चोनं, लक्षं षष्ठ्यां पुनर्भुवि । पञ्चैव नरकावासाः, सप्तम्यां नरकावनौ ॥ ४९० ॥ भुवां रत्नप्रभादीनामधस्ताच्च घनाब्धयः । मध्योत्सेधे योजनानां, सहस्राणि तु विंशतिः ॥ ४९१ ॥ तदधस्ताद् धनवाता, मध्योत्सेधे भवन्ति तु । योजनानामसङ्ख्यानि, सहस्राणि घनाब्धितः ।। ४९२ ॥ तनुवातास्त्वसङ्ख्यानि, तानि स्युर्घनवाततः । आकाशं तनुवातेभ्योऽप्यसवयेयानि तानि च ॥ ४९३ ॥ मध्योत्सेधादमुष्मात् तु, हीयमानाः क्रमेण च । घनाम्भोध्यादयः प्रान्ते, वलयाकारधारिणः ॥ ४९४ ॥ रत्नप्रभाया मेदिन्याः, परिधिस्थितिशालिनः। धनाम्भोधिवलयस्य, विष्कम्भो योजनानि पट् ॥ ४९५ ॥ महावातस्य वलयविष्कम्भे योजनानि तु । सार्धानि चत्वारि तनुवायोः सार्धं तु योजनम् ॥ ४९६ ॥ रत्नप्रभाया वलयमानस्योपरि जायते । शर्कराया घनाम्भोधौ, त्रिभागो योजनस्य तु ॥ ४९७ ॥ महावाते च गव्यूतमेकं भवति निश्चितम् । गव्य॒तस्य तृतीयांशस्तनुवातेऽपि वर्धते ॥ ४९८॥ शर्करावलयमानस्योपरि क्षेप एष च । तृतीयपृथ्वीवलयविष्कम्भेष्वपि जायते ॥ ४९९ ॥
एवं च प्राक्प्राग्वलयमानोर्बु क्षेप एप च । सप्तमी पृथिवीं यावद्, वलयेषु विधीयते ।। ५००॥ 15 घनाम्भोधि-महावाता-ऽल्पवातवलयानि तु । स्वस्त्रपृथ्वीगतोत्सेधसमोत्सेधानि सर्वतः ॥५०१॥
इत्थं च भृमयः सप्त, धनाम्भोध्यादिधारिताः । तास्वेव नरकावासा, भोगस्थानं कुकर्मणाम् ॥ ५०२॥ यातना-रुक्शरीरा-ऽऽयु-र्लेश्या-दुःख-भयादिकम् । वर्षमानं विनिश्चयमधोऽधावत्र भूमिषु ॥५०३॥ __ अथ रत्नप्रभाभूमेहल्ये जायते खलु । योजनानां लक्षमेकं, सहस्राशीतिसंयुतम् ॥ ५०४॥
त्यक्त्वा योजनसहस्रमेकमूर्द्धमघोऽपि च । तदन्तः सन्ति भवनपतीनां भवनानि तु ॥५०५॥ 20 ते च भवनपतयो, दक्षिणोत्तरयोर्दिशोः । श्रेणीद्वयेन तिष्ठन्ति, राजमार्गेऽट्टपतिवत् ॥ ५०६ ॥
तत्र चूडामणिचिह्ना, असुरा भवनाधिपाः।नागाः पुनः फणाचिह्ना, विद्युतो वज्रलाञ्छनाः ॥५०७॥ सुपर्णा गरुडचिह्ना, घटचिह्नाश्च वह्नयः । अश्वाङ्का वायवो वर्धमानाङ्काः स्तनिताः पुनः॥५०८॥ मकराङ्का उदधयो, हीपाः केसरिलाञ्छनाः । भवन्ति दिकुमारास्तु, सर्वे कुञ्जरलाञ्छनाः ॥५०९ ॥
तत्राऽसुराणां द्वाविन्द्रौ, चमरो बलिरित्यपि । धरणो भूतानन्दश्च, नागानां तु पुरन्दरौ ॥ ५१० ॥ 25 इन्द्रो विद्युत्क्रुमाराणां, हरिहरिसहस्तथा । वेणुदेवो वेणुदारी, सुपर्णानां तु वासवौ ॥५११॥
ईशावनिकमाराणामग्निशिग्वा-निमाणवी । इन्द्रो वायुमाराणां, वेलम्योऽथ प्रभञ्जनः॥५१२ सुघोपोऽथ महाघोषः, स्तनितानां तु वासवौ। इन्द्रावधिकुमाराणां, जलकान्त-जलप्रभो॥५१३॥ पूर्णो वशिष्ठश्च द्वीपकुमाराणामधीधरौ । अधिो दिमाराणाममिता-अमितवाहनौ ॥ ५१४॥
रत्नप्रभाया उपरि, योजनानां महत्तः । उपरिष्टादधस्ताच, त्यक्त्वैकां शतयोजनीम् ॥ ५१५ ॥ 30 वसन्ति योजनशतेष्वष्टवष्टविधाः खलु । दक्षिणोत्तरयोः श्रेण्योर्व्यन्तराणां निकायकाः ॥५१६ ॥
पिशाचव्यन्तरास्तत्र, कदम्बतरुलान्छनाः । भूताः सुलसवृक्षाङ्का, यक्षास्तु वटलाञ्छनाः ॥ ५१७॥ राक्षसास्तु खाजाका, अशोकाङ्कास्तु किन्नराबिम्पकाङ्काः किम्पुरूषा, नागढुङ्गा महोरगाः ॥५१८॥ गन्धर्वव्यन्तराश्चारुतुम्बुरुगुमलाञ्छनाः । तत्र काल-महाकालौ, पिशाचानामधीश्वरौ ॥५१९॥ सुरूपोऽप्रतिरूपश्च, भूतानामधिपो पुनः । यक्षाणां पूर्णभद्रश्च, माणिभद्रश्च वासवः ॥ ५२० ॥
१ रखप्रभावन।। २ नरकभूनिपु। ३ वर्द्धमानं सम्पुटकः पुरुषारूढपुरुषो वा। मेघकुमाराः । ५ नागद्रो. नागवृक्षस्य अङ्घ चिहं येषां ते नागदकाः।
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तृतीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२०१ राक्षसानां पुनीमो, महाभीमश्च नायकः । किन्नराणामधीशौ किन्नर-किम्पुरुषौ पुनः ॥५२१॥ तथा सत्पुरुष-महापुरुषौ किम्पुरुषपौ । अतिकाय-महाकायौ, महोरगपुरन्दरौ ॥ ५२२ ॥ गन्धर्वाणां प्रभुर्गीतरतिीतयशा अपि । इत्थङ्कारं व्यन्तराणां, तत्रेन्द्राः सन्ति षोडश ॥ ५२३ ॥
रत्नप्रभायाः प्रथमे, योजनानां शते तथा । योजनानि परित्यज्य, दशाऽधो दश चोपरि ॥५२४ ॥ सन्त्यशीतौ योजनेषु, व्यन्तराष्टनिकायकाः । तत्राप्रज्ञप्तिकः पश्चप्रज्ञप्तिऋषिवादितः॥ ५२५॥ 5 भूतवादितः क्रन्दितो, महाक्रन्दित एव च । कूष्माण्डः पवकश्चेति, तेषु द्वौ द्वौ पुरन्दरौ ॥५२६॥ सन्निहितः समानश्च, तथा धातृ-विधातृको । ऋषिश्च ऋषिपालच, तथेश्वर-महेश्वरौ ॥५२७॥ सुवत्सक-विशालौ च, हास-हासरती तथा। तथा श्वेत-महाश्वेतो, पवकः पवकाधिपः॥५२८॥
रत्नप्रभातलादू , योजनानां शतेषु च । अष्टासु दशहीनेषु, ज्योतिष्काणामधस्तलम् ॥ ५२९ ॥ तदूर्द्ध दशयोजन्यां, सूर्यः सूर्यस्य चोपरि । भवत्यशीतियोजन्याः, प्रान्ते तुहिनदीधितिः ॥ ५३० ॥ 10 ततो विंशतियोजन्याः, प्रान्ते तारा ग्रहा इति । बाहल्ये योजनशतं, ज्योतिर्लोको दशोत्तरम् ॥ ५३१॥ एकविंशैर्योजनानामत्रैकादशभिः शतैः । द्वीपस्य जम्बूद्वीपस्य, मेरुशैलमसंस्पृशत् ॥ ५३२ ॥ आस्थितं मण्डलिकया, दिक्षु सर्वासु सन्ततम् । ज्योतिश्चक्रं बम्भ्रमीति, ध्रुव एकस्तु निश्चलः ॥ ५३३ ॥ योजनानामेकादशशतैरेकादशोत्तरैः । लोकान्तमस्पृशत् तद्धि, मण्डलेनाऽवतिष्ठते ॥ ५३४ ॥ अत्र सर्वोपरि स्वातिः, सर्वेषां भरणी त्वधः। सर्वेभ्यो दक्षिणो मूलोऽभीचिः सर्वोत्तरः पुनः॥ ५३५॥ 15 तत्र जम्बूद्वीपेऽमुष्मिन्, द्वौ चन्द्रौ द्वौ च भास्करौ । लवणोदे च चत्वारश्चन्द्रा दिनकरास्तथा ॥५३६॥ द्वादश धातकीखण्डे, चन्द्रा द्वादश भानवः । कालोदे द्विचत्वारिंशचन्द्रा दिनकरास्तथा ॥ ५३७ ॥ द्वासप्ततिः पुष्कराधे, चन्द्राश्च वयोऽपि च । एवं द्वात्रिंशमिन्दुनां, शतं दिनकृतां तथा ॥ ५३८ ॥ एकस्सैकस्य चन्द्रस्य, जायते च परिग्रहः । अष्टाशीतिग्रहाश्चैव, भान्यष्टाविंशतिस्तथा ।। ५३९ ॥ षट्रपष्टिश्च सहस्राणि, तथा नव शतानि च । तारकाकोठिकोटीनां, पञ्चसप्ततिरेव च ॥ ५४०॥ 20 इन्दोर्विमानं विष्कम्भा-ऽऽयामयोर्योजनस्य तु । एकपटयंशीकृतस्य, स्युः षट्पञ्चाशदंशकाः ॥५४१॥ अष्टचत्वारिंशदंशा, विमाने तु विवस्वतः । योजना ग्रहाणां तु, भानां गव्यूतमेककम् ।। ५४२ ॥ सर्वोत्कृष्टायुपस्तारकायाः क्रोशाधमेव तु । सर्वजघन्यायुष्कायाः, पञ्च धन्वशतानि तु ॥ ५४३ ॥ पिण्डः सर्वत्र दैयाध, मत्यक्षेत्रे भवन्ति ते । पञ्चचत्वारिंशल्लक्षयोजनप्रमिते खलु ॥ ५४४ ॥ पुरः सिंहा दक्षिणतो, गजा अपरतो वृषाः । उत्तरतोऽश्वाश्चन्द्रादिविमानवाहनान्यमी ॥ ५४५॥ 25 ते चाऽऽभियोगिकाश्चन्द्रांश्वोः सहस्राणि षोडश । ग्रह-नक्षत्र-ताराणामष्टौ चत्वायुभे कमात् ॥५४६॥ चन्द्रादीनां गतिजुषां, वरसेनैव सन्ततम् । वाहनत्वेनाऽवतिष्ठन्त्याभियोग्येन कर्मणा ॥ ५४७॥ मानुषोत्तरपरतो, योजनानां सहस्रकैः । पञ्चाशतेन्दवोऽश्चि, तिष्ठन्त्यन्तरिता मिथः ॥ ५४८ ॥ मनुष्यक्षेत्रचन्द्रा-ऽकमानादर्धप्रमाणकाः । क्रमशः क्षेत्रपरिधिवृद्ध्या वर्धिष्णुसङ्ख्यकाः ॥ ५४९॥ सुलेश्या ग्रह-नक्षत्र-तारकापरिवारिताः । सङ्ख्या विवर्जिता एवं, घण्टाकारमनोहराः ॥ ५५०॥ खयम्भूरमणाम्भोधिमवधीकृत्य ते सदा । तिष्ठन्ति योजनलक्षान्तरिताभिश्च पतिभिः ॥ ५५१॥ मध्यलोके जम्बूद्वीप-लवणाद्याः शुभाभिधाः। द्विगुणद्विगुणाभोगा, असङ्ख्या द्वीप-सागराः ॥५५२॥ पूर्वपूर्वपरिक्षेपकृतो वलयसन्निभाः । अन्त्यः स्वयम्भूरमप्यो, नाम तेषां महोदधिः ।। ५५३ ॥
जम्बूद्वीपान्तरे मेरुः, काश्चनस्थालवर्तुलः । अधो योजनसहस्रमवगाढो महीतले ॥ ५५४ ॥ १ चन्द्रः। २ परिवारः। ३ नक्षत्राणि । ४ सूर्यस्य । ५ नक्षत्राणाम् । ६ स्थूलत्वम् । ७ चन्द्र-सूर्ययोः। ८ पूर्व. पूर्वद्वीप-समुद्रपरिवृताः एकान्तरिता द्वीप-समुद्राः।
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२०२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीयं पर्व नवनवतिं योजनसहस्राणि समुच्छ्रितः । योजनानां सहस्राणि, भूतले दश विस्तृतः ॥ ५५५ ॥ एकं योजनसहस्रमुपरिष्टाच्च विस्तृतः । त्रिकाण्डश्च त्रिभिलोकः, प्रविभक्तवपुश्च सः ॥ ५५६ ॥ शुद्धपृथ्वी-ग्राव-वज्र-शर्कराबहुलं खलु । एकं योजनसहस्रं, सुमेरोः काण्डमादिमम् ॥ ५५७ ॥ जातरूप-स्फटिका-ऽङ्क-रजतैर्बहुलावनि । योजनानां सहस्राणि, त्रिषष्टिस्तु द्वितीयकम् ॥ ५५८॥ षत्रिंशच्च तृतीयं तु, जाम्बूनदशिलामयम् । वैडूर्यरत्नबहुला, चूलिका तस्य शोभना ॥ ५५९ ॥ चत्वारिंशद्योजनानि, पुनस्तस्याः समुच्छूये । मूलविष्कम्भमाने तु, तस्या द्वादशयोजनी ॥ ५६० ॥ अष्टौ तन्मध्यविष्कम्भे, चत्वार्युपरिविस्तृतौ । मेरोर्मूले भद्रशालं, वनं वलयसन्निभम् ॥ ५६१ ॥ भद्रशालात् पञ्चशतयोजन्यामधिमेखलम् । नन्दनं विस्तृतं पञ्च, योजनानां शतानि तु ॥ ५६२ ॥ सार्धद्विषष्टिसहस्रयोजनेष्वथ तादृशम् । मेखलायां द्वितीयस्थां, तावत् सौमनसं वनम् ॥ ५६३॥ वनात् सौमनसात् षट्त्रिंशद्योजनसहस्रतः। भवेदूद्ध तृतीयस्थां, मेखलाभुवि सुन्दरम् ॥ ५६४ ॥ चतुर्नवत्यग्रचतुःशतयोजनविस्तृतम् । वलयाकारमुद्यानं, मेरोः शिरसि पाण्डकम् ॥ ५६५ ॥ जम्बूद्वीपे त्विह द्वीपे, सप्त वर्षाणि भारतम् । हैमवतं हरिवर्ष, विदेहं रम्यकं तथा ॥ ५६६ ॥ हैरण्यवतैरवते, अमून्या दक्षिणोत्तरम् । विभागकारिणोऽमीपाममी वर्षधराद्रयः ॥ ५६७ ॥ हिमवन्महाहिमवन्निषधा नील-रुक्मिणौ । शिखरी चेति मूलोद्धृतुल्यविस्तारशालिनः ॥ ५६८॥ तत्राऽवगाढो मेदिन्यां, पञ्चविंशतियोजनीम् । हेममयोऽद्रिर्हिमवानुच्छ्रितः शतयोजनीम् ॥ ५६९ ॥ महाहिमवदद्रिस्तद्विगुणोऽर्जुननिर्मितः । ततोऽपि द्विगुणस्तापनीयो निषधपर्वतः ॥५७० ॥ नीलस्तु निषधतुल्यो, गिरिवैडूर्यनिर्मितः । महाहिमवता तुल्यो, रुक्मी रजतनिर्मितः ॥ ५७१ ॥ तापनीयस्तु शिखरी, समो हिमवदद्रिणा । सर्वेऽपि पार्श्वभागेषु, विचित्रमणिशालिनः ॥ ५७२ ॥ ___ सहस्रयोजनायामस्तदर्धेन तु विस्तृतः । अद्रौ क्षुद्रहिमवति, पद्मनामा महाहूदः ॥ ५७३ ॥ महाहिमवदद्रौ तु, महापद्माभिधो ह्रदः। विद्यते पद्मदतो, द्विगुणायाम-विस्तृतिः ॥ ५७४ ॥ महापद्मात् तु द्विगुणस्तिङ्गिच्छिनिषधे ह्रदः। तिङ्गिच्छितुल्यो नीलाद्रौ, हृदः केसरिसंज्ञकः॥५७५॥ महापुण्डरीको महापद्मतुल्यस्तु रुक्मिणि । पातुल्यः पुण्डरीकहदः शिवरिपर्वते ॥ ५७६ ॥ विकस्वराणि तिष्ठन्ति, पद्मादिषु ह्रदेषु तु । कमलान्यवगाढानि, जलान्तर्दशयोजनीम् ॥ ५७७ ।।
श्रीहीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्यायुषोऽत्र तु । सामानिकपार्पद्याऽऽत्मरक्षानीकयुताः क्रमात् ॥५७८॥ 25 तत्र च भरतक्षेत्रे, गङ्गा-सिन्धू महापगे । रोहिता-रोहितांशे तु, क्षेत्रे हैमवताभिधे ॥५७९॥
हरिरिकान्ता नद्यौ, वर्षे तु हरिवर्षके । महाविदेहेषु गीता-शीतोदे सरिदुत्तमे ॥ ५८० ॥ नरकान्ता-नारीकान्ते, क्षेत्रे रम्यकनामनि । स्वर्णकला-रूप्यकूले, हैरण्यवतवर्षके ॥ ५८१ ॥ नद्यौ तु रक्ता-रक्तोदे, क्षेत्र ऐरवताभिधे । आद्याः पूर्वाब्धिगामिन्यो, द्वितीयाः पश्चिमाब्धिगाः॥५८२॥
आपगानां सहस्रेस्तु, चतुर्दशभिरुत्तमः । गङ्गा-सिन्धु महानद्यौ, प्रत्येकं परिवारिते ॥ ५८३ ॥ 30 द्विगुणद्विगुणनदीवृते द्वे द्वे परे अपि । यावच शीता-शीतोद, उत्तरा दक्षिणोपमाः ॥ ५८४ ॥
प्रत्येकं ते पुनः शीता-शीतोदे परिवारिते । द्वात्रिंशत्सहस्राधिकर्नदीलक्षस्तु पञ्चभिः ॥ ५८५ ॥ भरतोरुत्वे षड़विंशा, पञ्चयोजनशत्यथ । एकोनविंशत्यंशस्य, योजनस्य पडंशकाः ॥ ५८६ ॥
ततो द्विगुणद्विगुणविष्कम्भाश्च यथोत्तरम् । विदेहान्ता वर्षधराचल-वर्षा भवन्ति तु ॥ ५८७ ॥ उत्तरे वर्षधराद्रि-वर्यास्तुल्यास्तु दक्षिणैः । वर्षधराद्रि-वर्षाणां, प्रमाणमिदमेव हि ॥ ५८८ ॥
१ उच्चत्वे । २ मेखलायाम् । ३ श्वेतसुवर्णनिर्मितः। ४ सुवर्णमयः। ५ जलमध्ये दशयोजनपर्यन्तमवगाह्य स्थितानि । ६ महानद्यौ। ७ भरतस्य पृथुत्वे ।
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तृतीयः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । निषधानेरुत्तरतो, मेरोदक्षिणतोऽपि च । विद्युत्प्रभ-सौमनसौ, गिरी पश्चिम-पूर्वकौ ॥ ५८९ ॥ गजदन्ताकृती मूनों, स्तोकादस्पृष्टमेरुको । अनयोरन्तरे देवकुरवो भोगभूमयः ॥ ५९० ॥ तद्विष्कम्भो योजनानामेकादश सहस्रकाः। द्विचत्वारिंशदधिका, योजनाष्टशती तथा ॥ ५९१ ॥ तत्र च शीतोदाभिन्नहदपश्चकपार्श्वतः । स्वर्णशैला दश दश, ते मिथो मीलनाच्छतम् ॥ ५९२ ॥ तत्र नद्याः शीतोदायाः, पूर्वापरतटस्थितौ । शैलौ विचित्रकूटश्च, चित्रकूटश्च नामतः ॥ ५९३॥ 5 तयोः सहस्रमुत्सेधे, योजनानामधोऽपि च । तावानेव हि विस्तारस्तदर्थं चोर्द्धविस्तृतौ ॥ ५९४ ॥ मेरोरुत्तरतो नीलगिरेर्दक्षिणतो गिरी । गजदन्ताकृती गन्धमादनो माल्यवानपि ॥ ५९५ ॥ तयोरन्तः शीताभिन्नहदपञ्चकपार्श्वगैः । स्वर्णशैलैः शतेनाऽतिरम्याः कुरव उत्तराः ॥ ५९६ ॥ तेषु नद्या, शीतायास्तटयोर्यमकाभिधौ । सौवर्णों विचित्रकूट-चित्रकूटसमौ गिरी ॥ ५९७ ॥ देवोत्तरकुरुभ्यः प्राक्, प्राग्विदेहाः स्मृताश्च ते । पश्चिमेऽपरविदेहा, मिथः क्षेत्रान्तरोपमाः॥५९८॥ 10 परस्परमसञ्चारा, विभक्ताः सरिदद्रिभिः । चक्रिविजेया विजयास्तेषु षोडश पोडश ॥ ५९९ ॥ तत्र कच्छो महाकच्छः, सुकच्छः कच्छवानपि । आवर्तो मङ्गलावर्तः, पुष्कलः पुष्कलावती॥ प्राग्विदेहोत्तरा ह्येते, दक्षिणास्त्वथ वत्सकः । सुवत्सोऽथ महावत्सो, रम्यवान् रम्य रम्यकौ ॥ रमणीयो मङ्गलवानथाऽपरविदेहगाः । पद्मः सुपद्मोऽथ महापद्मः पद्मावती तथा ॥ ६०२॥ शङ्ख कुमुद-नलिने, नलिनवांश्च दक्षिणाः । वप्रः सुवप्रोऽथ महावप्रो वप्रावती तथा ॥६०३॥ 15 अथ वल्गुः सुवल्गुश्च, गन्धिला गन्धिलावती । अपरेषु विदेहेषूत्तरस्था विजया अमी ॥६०४॥
मध्ये च भरतस्याऽपागुत्तरार्धविभागकृत् । वैताड्याद्रिः प्रोगपरपयोधी यावदायतः ॥६०५॥ षड् योजनानि सक्रोशान्युा मग्नः स विस्तृतः । पश्चाशतं योजनानि, तदर्धं पुनरुच्छ्रितः ॥ ६०६ ॥ भूमितो दशयोजन्यां, दक्षिणोत्तरपार्श्वयोः । तत्र विद्याधरश्रेण्यौ, दशयोजनविस्तृते ॥ ६०७॥ तत्राऽपाच्यां सराष्ट्राणि, पञ्चाशनगराणि तु । उत्तरसां पुनः पष्टिविद्याधरमहीभुजाम् ॥ ६०८॥ 20 ऊर्द्ध विद्याभृच्छ्रेणिभ्यां, दशयोजन्यनन्तरम् । उभे च व्यन्तरश्रेण्यौ, व्यन्तरावासशोभिते ॥६०९॥ उपरि व्यन्तरश्रेण्योर्योजनेषु तु पञ्चसु । कूटानि नव वैताट्य, ईगैरवतेऽपि हि ॥ ६१०॥
प्राकारभूता द्वीपस्य, जम्बूद्वीपस्य तिष्ठति । जगती वज्रमय्यष्टौ, योजनानि समुच्छ्रिता ॥ ६११॥ तस्याश्च मूले विष्कम्भमाने द्वादशयोजनी । मध्यभागे योजनानि, चाऽष्टौ चत्वारि मूर्धनि ॥ ६१२ ॥ तदृर्द्ध जालकटको, गव्यूतद्वितयोच्छ्रयः । विद्याधराणामाक्रीडस्थानमेकं मनोहरम् ॥ ६१३ ॥ 25 ततोऽपि जालकटकादूर्द्ध पद्मवराभिधा । विद्यते वेदिका रम्या, भोगभूमिर्दिवौकसाम् ॥ ६१४ ॥ तस्या जगत्याः पूर्वादिदिक्षु द्वाराणि च क्रमात् । विजयं वैजयन्तं च, जयन्तमपराजितम् ॥६१५॥ अस्ति च क्षुद्रहिमवन्महाहिमवदन्तरे । शब्दापातीनामधेयाद्, वृत्तवैताठ्यपर्वतः ॥ ६१६ ॥ शैलस्तु विकटापाती, मध्ये शिवार-रुक्मिणोः । गन्धापाती पुनर्महाहिमवन्निषधान्तरे॥६१७॥ माल्यवानन्तराले च, शैलयोनील-रुक्मिणोः । सर्वेऽपि पल्याकृतयः, सहस्रयोजनोच्छ्रयाः॥६१८॥ 30
जबूद्वीपपरिक्षेपी, विस्तारे द्विगुणस्ततः । अवगाहो योजनानां, सहस्रमवनीतले ॥ ६१९ ॥ पश्चनवतियोजनसहलीं च क्रमात् कमात् । उभयतोऽप्युच्छ्रयेण, वर्धमानजलस्तथा ॥ ६२० ॥ मध्ये च योजनदशसहनीप्रमविस्तृतौ । योजनानां सहस्राणि, पोडशोच्छ्रयवच्छिवः ॥ ६२१॥ कालद्वये तदुपरि, गव्यूतद्वितयावधि । हास-वृद्धिधरो नाम्ना, लवणोदः पयोनिधिः ॥ ६२२ ॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ 35 ५ उञ्चन्ये । २ पूर्वस्यां दिशि । ३ पूर्वविदेहाः । ४ चक्रिणा विजेतुं योग्याः । ५ पूर्वपश्चिमसमुद्रौ । ६ दक्षिणस्याम् ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीयं पर्व पूर्वादिदिक्षु तत्रान्तः, प्रमाणे लक्षयोजनाः । वडवामुख-केयूप-यूपकेश्वरसंज्ञकाः ॥ ६२३ ॥ सहस्रयोजनीमानवनिर्मितकुड्यकाः । योजनानां सहस्राणि, दशाऽधोऽन्ते च विस्तृताः ॥ ६२४ ॥ वायुधृतव्यंशजला, महालिञ्जरसन्निभाः । पातालकलसाः सन्ति, चत्वारः प्राक् क्रमादमी ॥ ६२५ ॥
तेषु कालो महाकालो, वेलम्बोऽथ प्रभञ्जनः ।.वसन्ति क्रीडावासेषु, क्रमेणैव दिवौकसः ॥६२६॥ 5 सहस्रयोजनाश्चाऽन्ये, दशयोजनकुड्यकाः । अधस्ताच बँदने च, शतयोजनसम्मिताः ॥ ६२७ ॥
वायूँत्क्षिप्तमध्यमिश्रापाः शतान्यष्टसप्ततिः । चतुरशीतिश्च क्षुद्रपातालकलसा इह ॥ ६२८ ॥ द्विचत्वारिंशत्सहस्रसङ्ख्या नागकुमारकाः । अन्तर्वेलाधारिणोऽस्मिनायुक्ता इव सर्वदा ॥ ६२९ ॥ बाह्यवेलाधारिणां तु, सहस्राणि द्विसप्ततिः । तथा पष्टिः सहस्राणि, शिखावेलाप्रधारिणाम् ॥ ६३० ॥
गोस्तूप उदकाभासः, शङ्खोऽप्युदकसीमकः । हैमा-ऽङ्क-रौप्य-स्फाटिका, वेलाधारीन्द्रपर्वताः ६३१ 10 गोस्तूप-शिवक-शङ्ख-मनोहृदसुराश्रयाः। द्विचत्वारिंशत्सहस्रयोजन्यां दिग्भवाश्च ते ॥ ६३२ ॥
एकविंशसप्तदशशतयोजनिकोच्छ्याः । ते द्वाविंशयोजनानां, सहस्रं विस्तृतास्त्वधः ॥ ६३३ ॥ उपरिष्टाच्चतुर्विंशां, योजनानां चतुःशतीम् । तेषामुपरि सर्वेषां, प्रासादाः सन्ति शोभनाः ॥ ६३४ ॥ कर्कोटकः कार्दमकः, कैलाशश्चाऽरुणप्रभः । सर्वरत्नमयाचाणुवेलाधारीन्द्रपर्वताः ॥ ६३५ ॥
कर्कोटको विद्युजिह्वः, कैलाशोथारुणप्रभः । वसन्ति देवतास्तेषु, सर्वदैव यथाक्रमम् ॥ ६३६ ॥ 15 सहस्रेषु द्वादशसु, योजनानां विदिक्षु च । प्राच्यामिन्दुद्वीपौ तावद्विस्तारा-ऽऽयामशोभितौ ।। ६३७॥
विद्येते सवितद्वीपावपरेण च तावति । तथाऽस्ति गौतमद्वीपस्तावति सुस्थिताश्रयः॥ ६३८ ॥ अन्तर्बाह्यलावणकचन्द्रा-अर्काणां तथाऽऽश्रयाः । प्रासादास्तेषु लवणरसस्तु लवणोदधिः॥ ६३९ ॥
लवणोदपरिक्षेपी, ततो द्विगुणविस्तृतिः । धातकीखण्ड इत्यस्ति, नाना द्वीपो द्वितीयकः ॥६४०॥ जम्बूद्वीपे च ये मेरु-वर्ष-वर्षधराद्रयः । धातक्यां द्विगुणास्ते तु, ख्यावासरेव नाममिः ॥ ६४१॥ 20 इष्वाकारपर्वताभ्यां, दीर्घाभ्यामुदग्याम्ययोः । विभक्ता जम्बूद्वीपस्थसझनाः पूर्वापरार्धयोः ॥ ६४२ ॥
चक्राराभा निषधोच्चाः, कालोद-लवणस्पृशः । वर्षधराः सेष्वाकारा, वर्षास्त्वरान्तरखिताः ॥ ६४३ ॥ धातकीखण्डद्वीपस्य, परिक्षेपी पयोनिधिः । कालोदाख्यो योजनानामष्टौ लक्षाणि विस्तृतः ॥६४४॥ धातक्यां सेष्वाकाराणां, मेर्वादीनाममापि यः । सङ्ख्याविषयनियमः, पुष्कराधै स एव हि ॥ ६४५ ॥
धातकीखण्डक्षेत्रादिविभागाद् द्विगुणः पुनः । क्षेत्रादिकविभागोऽत्र, पुष्करार्धे प्रकीर्तितः ॥ ६४६ ।। 25 चत्वारो मेरवः क्षुद्रा, धातकी-पुष्करार्धयोः । योजनानां पञ्चदशसहरूया मेरुतोऽणवः ॥ ६४७॥
मेरोर्योजनषट्शत्या, हीनविष्कम्भकाः क्षितौ । तेषां च प्रथम काण्डं, महामेरोरेनूनकम् ॥ ६४८॥ द्वितीयं सप्तभिन्यूनं, योजनानां सहस्रकैः । तृतीयमष्टभिर्मेरुवद् भद्रशाल-नन्दने ॥ ६४९ ॥ सहार्धपञ्चपञ्चाशसहस्रयोजनोपरि । पश्चयोजनशत्या च, पृथु सौमनसं वनम् ।। ६५० ॥
अष्टाविंशतिसहरूया, योजनानामथोपरि । पडूनयोजनपञ्चशतविस्तारि पाण्डकम् ॥ ६५१ ॥ 30 उपरिष्टादधस्ताच, विष्कम्भोऽथाऽवगाहनम् । लहामेरुगिरेस्तुल्यं, तत्तुल्या चूलिकाऽपि च ॥ ६५२ ॥
तदेवं मानुषं क्षेत्रं, द्वीपावर्धतृतीयको । द्वावब्धी पश्चत्रिंशञ्च, वर्षाः पञ्च च मेरवः ॥ ६५३ ॥ त्रिंशद् वर्षधरा देवकुरवः पञ्च पञ्च च । उत्तराः कुरवः पष्ट्युत्तरं च विजयाः शतम् ॥ ६५४ ॥
ततः परं पर्वतोऽस्ति, नामतो मानुषोत्तरः । मर्त्यलोकपरिक्षेपी, पुरप्राकारवर्तुलः ॥ ६५५ ।।
१ उपरि। २ तृतीयभागो वायुपूरितो भागद्वये च जलमस्तीति तात्पर्यम् । ३ अलिअरो मृद्भाण्डविशेषः । ४ उपरि । ५ प्रमाणाः। ६ वायुनोक्षिप्ता मध्ये मिश्रा आपो येषां ते। ७ समुद्रे। नियुक्का इव । ९ सुस्थिताभिधानस्य देवस्थाश्रयः। १. लघवः। ११ समानम् । * शत्सह सङ्घ २॥
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तृतीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२०५ निविष्टः पुष्करस्याऽर्धे, सौवर्णः सैकविंशतिम् । योजनानां सप्तदशशतीं यावत् समुच्छ्रितः ॥ ६५६ ॥ चतुःशतीं योजनानां, त्रिंशां क्रोशं च भूमिगः । योजनानां सहस्रं द्वाविंशं विस्तीर्णवानधः ॥ ६५७ ॥ योजनानां सप्तशती, त्रयोविंशां च मध्यतः । उपरिष्टाच्चतुर्विशां, योजनानां चतुःशतीम् ॥ ६५८ ॥ नोत्पद्यन्ते न म्रियन्ते, मास्तत्परतः क्वचित् । न म्रियन्ते चारणाद्या, अपि तत्परतो गताः ॥६५९ ॥ मानुषोत्तरनामा च, तेनाऽयं परतोऽस्य च । बादराग्नि-मेघ-विद्युन्नदी-कालादयो न हि ॥ ६६०॥ 5 पञ्चत्रिंशति वर्षेषु, चैष्वर्वागू मानुषोत्तरात् । मनुष्याः सान्तरद्वीपेषूत्पद्यन्ते हि जन्मतः ॥ ६६१ ॥ संहार-विद्य-द्धियोगान्मेर्वादिशिखरेषु च । द्वीपेष्वर्धतृतीयेषु, समुद्रद्वितये च ते ॥ ६६२ ॥ ते च भारतका जम्बूद्वीप्या लावणका अपि । इत्येवमादयः क्षेत्र-द्वीपा-ऽम्भोधिविभागतः ॥६६३॥
द्विधाऽऽर्य-म्लेच्छभेदात् ते, तत्राऽऽर्याः षड्विधा इह । क्षेत्र-जाति-कुल-कर्म-शिल्प-भाषाविभेदतः॥६६४॥ क्षेत्रार्याः पञ्चदशसु, जायन्ते कर्मभूमिषु । तत्रे भारते सार्धपश्चविंशतिदेशजाः ॥ ६६५ ॥ 10 ते चाऽऽयंदेशा नगरेरुपलक्ष्या इमे यथा । राजगृहेण मगधा, अङ्गदेशस्तु चम्पया ॥ ६६६ ॥ वङ्गाः पुनस्ताम्रलिप्त्या, वाराणस्या च काशयः। काञ्चनपुर्या कलिङ्गाः, साकेतेन च कोसलाः॥ कुरवो गजपुरेण, शौर्येण च कुशार्तकाः। काम्पील्येन च पश्चाला, अहिच्छत्रेण जाङ्गलाः॥ विदेहास्तु मिथिलया, द्वारवत्या सुराष्ट्रकाः। वत्साश्च कौशाम्बीपुर्या, मलया भद्रिलेन तु ॥ नान्दीपुरेण सन्दर्भा, वरुणाः पुनरच्छया । वैराटेन पुनर्मत्स्याः , शुक्तिमत्या च चेदयः॥६७०।। 15 दशार्णा मृत्तिकावत्या, वीतभयेन सिन्धवः। सौवीरास्तु मथुरया, सूरसेनास्तु पापया ॥६७१॥ भङ्गयामासपुरीवर्ताः,श्रावस्त्या च कुणालकाः। कोटीवर्षेण लाटाच, श्वेतव्या केतकाधकम् ॥ आर्यदेशा अमी एभिर्नगरैरुपलक्षिताः । तीर्थकृच्चक्रभृत्कृष्ण-बलानां जन्म येषु हि ॥ ६७३ ॥ इक्ष्वाकवो ज्ञात-हरि-विदेहाः कुरवोऽपि च । उग्रा भोजा राजन्याश्च, जात्यार्या एवमादयः॥६७४ ॥ कुलार्यास्तु कुलकराश्चक्रिणो विष्णवो बलाः । तृतीयात् पञ्चमात् सप्तमाद् वा ये शुद्धवंशजाः ॥६७५ ॥20 यजनैर्याजनैः शास्त्राध्ययना-ऽध्यापनैरपि । प्रयोगैर्वार्तया वृत्तिमन्तः कार्यकाः स्मृताः ॥ ६७६ ॥ शिल्पार्याः स्वल्पसावद्यवृत्तयस्तन्तुवायकाः । तुन्नवायाः कुलालाच, नापिता देवलादयः ॥६७७॥ . भाषार्या नाम ते शिष्टभाषानियतवर्णकम् । पञ्चानामपि चाऽऽर्याणां, व्यवहारं वदन्ति ये ॥६७८॥ म्लेच्छास्तु शाका यवनाः, शबराबर्बरा अपि । काया मुँरुण्डा उड्राथ, गोड्राः पक्कणका अपि ॥ अरपाकाचहणाश्च, रोमकाः पारसा अपि । खसाश्च खासिका डौम्बिलिकाश्च लकुसा अपि ॥25 भिल्ला अन्ध्रावुकसाश्च, पुलिन्दाः क्रौञ्चका अपि । भ्रमररुताः कुञ्चाश्च, चीन-चञ्चक-मालवाः॥ द्रविडाश्च कुलक्षाश्च, किराताः कैकया अपि । ह्यमुखा गजमुखास्तुरगा-जमुखा अपि ॥६८२॥ हयकर्णा गजकर्णा, अनार्या अपरेऽपि हि । म, येषु न जानन्ति, धर्म इत्यक्षराण्यपि ॥ ६८३ ॥
॥पञ्चभिः कुलकम् ॥ धर्माःऽधर्मोज्झिता म्लेच्छा, अन्तरद्वीपज़ा अपि । भवन्ति चाऽन्तरद्वीपाः, षट्पश्चाशदमी यथा ॥६८४॥30 तेऽर्धे क्षुद्रहिमवतः, पूर्वा-ऽपरविभागयोः । पूर्वोत्तराप्रभृतिषु, विदिक्षु चतसृष्वपि ॥ ६८५ ॥ पूर्वोदीच्यां दिशि तत्राऽवगाढो लवणोदधिः । त्रियोजनशतीं तावानायामे विस्तृतावपि ॥ ६८६ ॥ प्रथमोऽस्त्यन्तरद्वीप, एकोरुरिति नामतः । पुरुषा द्वीपनाम्नेह, सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दराः॥ ६८७ ॥ न खल्वेकोरुका एव, द्वीपेष्वित्यपरेष्वपि । ज्ञातव्या वक्ष्यमाणेषु, द्वीपनाम्नैव पूरुषाः ॥ ६८८॥ आग्नेय्यादिषु तन्मात्रावगाहा-ऽऽयाम-विस्तृताः। द्वीपा आभाषिको लाङ्गुलिको वैषाणिकः क्रमात् ।। 35 १ देवाजीवाः। * मुरण्डा सङ्क २ ॥ लकुला सङ्ग ३ ॥
त्रिषष्टि, २७
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२०६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
| द्वितीयं पर्व ततः परं योजनानामवगाह्य चतुःशतीम् । तावदायामसहितास्तावद्विष्कम्भशोभिनः ॥ ६९० ॥ ऐशान्यादिविदिक्ष्वन्तीपाश्च हयकर्णकः । गजकर्णश्च गोकर्णः, शष्कुलीकर्णकः क्रमात् ॥६९१॥ ततः परं योजनानां, पञ्चशत्यवगाहिनः । तावदायाम-विष्कम्भा, अन्तरद्वीपका इमे ।। ६९२ ॥ तत्राऽऽदर्शमुखो मेषमुखो यमुखस्तथा । गजमुखश्च चत्वार, ऐशान्यादिषु पूर्ववत् ॥ ६९३ ॥ ततः षड्योजनसँतावगाहा-ऽऽयाम-विस्तृताः । अश्वमुखो हस्तिमुखः, सिंह-व्याघ्रमुखावपि ॥६९४॥ योजनानां सप्तशतावगाहा-ऽऽयाम-विस्तृताः । अश्व-सिंह-हस्तिकर्णाः, कर्णप्रावरणः क्रमात्॥६९५॥ ततोऽष्टयोजनशती, लवणोदेऽवगाहिनः । तावदायामसहितास्तावद्विष्कम्भशालिनः ॥ ६९६ ॥ द्वीपा उल्कामुखो विद्युजिह्वो मेषंमुखोऽपि च । विद्युद्दन्तश्च चत्वार, ऐशान्यादिविदिक्क्रमात् ॥६९७ योजनानां नवशतीं, ततोऽपि लवणोदधेः । अवगाह्य स्थितास्तावद्विष्कम्भा-ऽऽयामशालिनः ॥ ६९८ ॥ नाम्ना गूढदन्तो घनदन्तकः श्रेष्ठदन्तकः। शुद्धदन्तश्च चत्वारोऽन्तरद्वीपा विदिक्क्रमात् ॥६९९ ॥ अष्टाविंशतिरेवं च, शिखरिण्यपि पर्वते । एकत्र मेलिताः सर्वे, षट्पञ्चाशद् भवन्ति ते ॥ ७०० ॥ . मानुषोत्तरपरतः, पुष्कराधे द्वितीयकम् । पुष्करस्य परिक्षेपी, द्विगुणः पुष्करोदकः॥७०१॥ ततोऽपि वारुणिवरौ, नाम्ना द्वीप-पयोनिधी । ततः परं क्षीरवरौ, नामतो द्वीप-सागरौ ॥ ७०२॥ ततो घृतवरौ द्वीपा-ऽम्बुधी इक्षुवरौ ततः । ततो नन्दीश्वरो नाम्नाऽष्टमो द्वीपो घुसन्निभः ॥७०३॥ एतद्वलयविष्कम्भे, लक्षाशीतिश्चतुर्युता । योजनानां त्रिषष्टिश्च, कोट्यः कोटिशतं तथा ॥ ७०४ ॥ असौ विविधविन्यासोद्यानवान् देवभोगभूः । जिनेन्द्रपूजासंसक्तसुरसम्पातसुन्दरः ॥७०५ ॥ अस्य मध्यप्रदेशे तु, क्रमात् पूर्वोदिदिक्षु च । अञ्जनवर्णाश्चत्वारस्तिष्ठन्त्यानपर्वताः ॥ ७०६ ॥ दशयोजनसहस्रातिरिक्तविस्तृतारतले । सहस्रयोजनाचोद्ध, क्षुद्रा मेरूच्छ्याश्च ते ।। ७०७ ॥
तत्र प्राग् देवरमणो, नित्योद्योतश्च दक्षिणः । स्वयम्प्रभः प्रतीच्यस्तु, रमणीय उदक्स्थितः॥७०८॥ 20 शतयोजन्यायतानि, तदर्धं विस्तृतानि च । द्विसप्ततियोजनोचान्यर्हचैत्यानि तेषु च ॥ ७०९ ॥
पृथग्द्वाराणि चत्वार्युचानि षोडशयोजनीम् । प्रवेशे योजनान्यष्ट, विस्तारेऽप्यष्ट तेषु तु ॥ ७१०॥ तानि देवाऽसुर-नाग-सुपर्णानां दिवौकसाम् । समाश्रयास्तेषामेव, नामभिर्विश्रुतानि च ॥७११॥ पोडशयोजनायामास्तावन्मान्यश्च विस्तृतौ । अष्टयोजनिकोत्सेधास्तन्मध्ये मणिपीठिकाः ॥ ७१२ ॥
सर्वरत्नमया देवच्छन्दकाः पीठिकोपरि । पीठिकाभ्योऽधिकायामोच्छ्रयभाजश्व तेषु तु ॥७१३॥ 25 ऋषभा वर्धमानाच, तथा चन्द्राननाऽपि च । वारिषेणा चेति नाना, पर्यङ्कासनसंस्थिताः॥७१४॥
रत्नमय्यो युताः खस्वपरिवारेण हारिणा । शाश्वताहत्प्रतिमाः प्रत्येकमष्टोत्तरं शतम् ॥ ७१५ ॥ द्वे द्वे नाग-यक्ष-भूत-कुण्डभृत्प्रतिमे पृथक् । प्रतिमानां पृष्ठतस्तु, च्छत्रभृत्प्रतिमैकिका ॥ ७१६ ॥ तेषु धूपघटी-दाम-घण्टा-ऽष्टमङ्गली-ध्वजाः । छत्र-तोरण-चङ्गेयः, पटलान्यासनानि च ॥ ७१७॥
षोडश पूर्णकलसादीन्यलङ्करणानि च । सुपर्णरुचिररजोवालुकास्तलभूमयः ॥ ७१८ ॥ 30 आयतनप्रमाणेन, रुचिरा मुखमण्डपाः । प्रेक्षार्थमण्डपा अक्षवाटिका मणिपीठिकाः ॥ ७१९ ॥
रम्याश्च स्तूप-प्रतिमाचैत्यवृक्षाच सुन्दराः । इन्द्रध्वजाः पुष्करिण्यो, दिव्याः सन्ति यथाक्रमम् ॥ ७२०॥ प्रत्येकमञ्जनाद्रीणां, ककुप्सु चतसृष्वपि । क्रमादमूः पुष्करिण्यो, मानतो लक्षयोजनाः ॥ ७२१ ॥ नन्दिषेणा चाऽमोघा च, गोस्तृपाऽथ सुदर्शना । तथा नन्दोत्तरा नन्दा, सुनन्दा नन्दिवर्धना
भद्रा विशाला कुमुदा, पुण्डरीकिणिका तथा । विजया वैजयन्ता च, जयन्ता चाऽपराजिता 35 प्रत्येकमासां योजनपञ्चशत्याः परत्र च । योजनानां पञ्चशती, यावत् विस्तारमाञ्जि तु ॥ ७२४॥
* शत्यव सङ्घ १॥ + मेघमु° ढंसं०॥ १ पुष्करार्धाद् द्विगुणः। २ स्वर्गसरशः।
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तृतीयः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । लक्षयोजनदीर्घाणि, महोद्यानानि तानि तु । अशोक-सप्तच्छदक-चम्पक-चूतसंज्ञया ॥ ७२५ ॥ मध्ये पुष्करिणीनां च, स्फाटिकाः पल्यमूर्तयः । ललाम-वेद्युद्यानादिचिह्ना दधिमुखाद्रयः ॥ ७२६ ॥ चतुःषष्टिसहस्रोच्चाः, सहस्रं चाऽवगाहिनः । विस्तृता दशसहस्त्रीं, योजनानामुपर्यधः ॥ ७२७॥ अन्तरे पुष्करिणीनां, द्वौ द्वौ रतिकराचलौ । ततो भवन्ति द्वात्रिंशदेते रतिकराचलाः ॥ ७२८॥ शैलेषु दधिमुखेषु, तथा रतिकरादिषु । शाश्वतान्यर्हचैत्यानि, सन्त्यञ्जनगिरिष्विव ॥ ७२९ ॥ चत्वारो द्वीपविदिक्षु, तथा रतिकराचलाः । दशयोजनसहस्रायाम-विष्कम्भशालिनः ॥ ७३० ॥ योजनानां सहस्रं तु, यावदुच्छ्रयशोभिताः । सर्वरत्नमया दिव्या, झल्लाकारधारिणः ॥ ७३१ ॥ तत्र द्वयो रतिकराचलयोर्दक्षिणस्थयोः । शक्रस्पैशानस्य पुनरुत्तरस्थितयोः पृथक् ॥ ७३२ ॥ अष्टानां महादेवीनां, राजधान्योऽष्टदिक्षु ताः । लक्षाबाधा लक्षमाना, जिनायतनभूषिताः ॥ ७३३ ॥ सुजाता सौमनसा चार्चिमाली च प्रभाकरा । पद्मा शिवा शुच्यअने, भूता भूतावतंसिका 10 गोस्तूपा-सुदर्शने अप्यमला-अप्सरसौ तथा। रोहिणी नवमी चाऽथ, रत्ना रत्नोचयापि च।।७३५॥ सर्वरत्ना रत्नसश्चया वसुर्वसुमित्रिका । वसुभागाऽपि च वसुन्धरानन्दोत्तरे अपि ॥ ७३६ ॥ नन्दोत्तरकुरुर्देवकुरुः कृष्णा ततोऽपि च । कृष्णराजी-रामा-रामरक्षिताः प्राक्क्रमादमूः॥७३७॥ सर्वर्द्धयस्तासु देवाः, कुर्वते सपरिच्छदाः । चैत्येष्वष्टाह्निकाः पुण्यतिथिषु श्रीमदर्हताम् ॥ ७३८ ॥
नन्दीश्वरपरिक्षेपी, ततो नन्दीश्वरोर्णवः । ततः परोऽरुणद्वीपोऽस्त्यरुणोदश्च सागरः ॥ ७३९ ॥15 ततोऽरुणवरो द्वीपस्तन्नामा च पयोनिधिः । ततः परोऽरुणाभासोऽरुणाभासश्च सागरः॥ ७४०॥ ततश्च कुण्डलद्वीपः, कुण्डलोदश्च वारिधिः । ततश्च रुचकद्वीपो, रुचकश्च पयोनिधिः ॥ ७४१॥ एवं प्रशस्तनामानो, द्विगुणद्विगुणाः क्रमात् । द्वीपाः समुद्रास्तेष्वन्त्यः, स्वयम्भूरमणोऽम्बुधिः ॥ ७४२॥
द्वीपेष्वर्धतृतीयेषु, देवोत्तरकुरून् विना । भरतैरावत-महाविदेहाः कर्मभूमयः ।। ७४३ ॥ कालोदः पुष्करोदश्च, स्वयम्भूरमणस्तथा । पानीयरसा लवणरसस्तु लवणोदधिः॥ ७४४॥ 20 वारुणोदश्चित्रपानहृयः क्षीरोदधिः पुनः । खण्डमिश्र-घृतचतुर्भागगोक्षीरसन्निभः ॥ ७४५ ॥ घृतोदः सद्यःक्वथितगोघृताभोऽपरे पुनः । चतुर्जातकवत्पर्वान्तच्छिन्नेक्षुरसोपमाः ॥ ७४६ ॥ लवणोदोऽथ कालोदः, स्वयम्भूरमणोऽपि च । मत्स्य-कूर्मादिसङ्कीर्णाः, सागरा नाऽपरे पुनः ॥७४७॥
चत्वारस्तत्र तीर्थेशाश्चक्रिणो विष्णवो बलाः । सदा भवन्ति द्वीपेऽसिन्, जम्बूद्वीपे जघन्यतः ॥७४८॥ उत्कर्षेण चतुस्त्रिंशजिनास्त्रिंशच्च पार्थिवाः । भवन्ति द्विगुणाश्चैते, धातकी-पुष्करार्धयोः ॥ ७४९ ॥ 25
तिर्यग्लोकादितश्चोर्द्धमूर्द्धलोको महर्द्धिकः । नवयोजनशत्यूनसप्तरजुप्रमाणकः ॥ ७५० ॥ तत्र सौधर्म ईशानः, सनत्कुमार इत्यपि । माहेन्द्रो ब्रह्मलोकश्च, लान्तकः शुक्रसंज्ञकः ॥७५१॥ सहस्रारा-ऽऽनत-प्राणता-ऽऽरणा अच्युतोऽपि च । कल्पा इति द्वादशाऽमी, नवौदेयका इमे।।७५२॥ आदौ सुदर्शनं नाम, सुप्रबुद्धं मनोरमम् । सर्वभद्रं सुविशालं, सुमनश्च ततः परम् ॥ ७५३ ॥ सौमनसं प्रीतिकरमादित्यमथ तत्परम् । अनुत्तराभिधानानि, पञ्च सन्ति ततः परम् ॥ ७५४ ॥ 30 विजयं वैजयन्तंच, जयन्तं चाऽपराजितम् । प्राक्क्रमेण विमानानि, मध्ये सर्वार्थसिद्धकम् ॥७५५॥ ततो द्वादशयोजन्या, ऊर्दू सिद्धिशिलाऽस्ति तु । पञ्चचत्वारिंशल्लक्षयोजनायाम-विस्तृता ॥ ७५६ ॥
ततोऽप्युपरि गव्यूतत्रितयात् समनन्तरम् । तुर्यगव्यूतषष्ठांशे, सिद्धा लोकाग्रतावधि ॥ ७५७ ॥ __ आ सोधर्मेशानकल्पं, साधो रसुः समावनेः। सनत्कुमार-माहेन्द्री, साधे रज्जुद्वयं पुनः ॥७५८ ॥
पल्याकृतयः । * योजनानि दशाधस्तादुपरिष्टाच विस्तृताः सङ्घ ३ विना ॥ २ रतिकरालक्षयोजनदूरे। 1 चूता चूता स स ॥ ३ राजधानीषु । ४ देवलोकाः। सिद्धिकम् सङ्घ २॥ धर्मेशा सङ्घ २॥
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२०८
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ द्वितीयं पर्व रजवश्वाऽऽ सहस्रारं, पञ्च षट् चाऽच्युतावधि । लोकान्तमवधीकृत्य, जायन्ते सप्त रजवः ॥ ७५९ ॥ सौधर्मेशानकल्पौ तु, चन्द्रमण्डलवर्तुलौ । दक्षिणार्धे तत्र शक्र, ऐशानश्चोत्तरार्धके ॥ ७६० ॥ सनत्कुमार-माहेन्द्रावप्येवं तत्समाकृती । सनत्कुमारोऽपाच्याथै, माहेन्द्रस्तूत्तरार्धके ॥ ७६१ ॥ लोकपुंस्कूर्परसमप्रदेशेऽतः परं पुनः । लोकमध्यभागे ब्रह्मलोको ब्रह्मा च तत्प्रभुः ॥ ७६२ ॥ प्रान्ते सारखता-ऽऽदित्या-ऽन्यरुण-गर्दतोयकाः। तुषिता-ऽव्यावाध-मरुद्रिष्टा लोकान्तिकामराः॥ तदूद्धं लान्तकः कल्पस्तन्नामा तत्र वासवः । तस्योपरि महाशुक्र, इन्द्रस्तन्नामकोऽत्र च ॥७६४॥ तदूद्धं च सहस्रारस्तन्नामा तत्र वासवः । सौधर्मेशानंसंस्थानावानत-प्राणतो ततः ॥ ७६५ ॥ तयोः प्राणतकल्पस्थः, प्राणताख्यः पुरन्दरः। तदूर्द्ध च तदाकारी, द्वौ कल्पावारणाऽच्युतौ॥७६६॥
तयोरच्युतवास्तव्य, एक इन्द्रोऽच्युताभिधः । ग्रैवेयका-ऽनुत्तरेषु, त्वहमिन्द्रा दिवौकसः ॥ ७६७ ॥ 10 घनोदधिप्रतिष्ठानौ, कल्पौ तु प्रथमाविह । वायुकृतप्रतिष्ठानास्त्रयः कल्पास्ततः परम् ॥ ७६८ ॥
घनोदधि-धनवातप्रतिष्ठानास्ततस्त्रयः । ततस्तदूर्द्धमाकाशप्रतिष्ठानाः सुरालयाः॥ ७६९ ॥ इन्द्राः सामानिकास्त्रायस्त्रिंशाः पार्षद्य रक्षकाः। लोकपाला अनीकानि, प्रकीणों आभियोगिकाः ॥ ७७० ॥ किल्विपिकाश्चेति तेषु, दशभेदा दिवौकसः । इन्द्राः सामानिकादीनामधिपाः सर्वनाकिनाम् ॥ ७७१ ॥
सामानिकाश्चेन्द्रसमाः, परमिन्द्रत्ववर्जिताः । त्रायस्त्रिंशा मत्रि-पुरोहितप्राया हरेः पुनः ॥ ७७२ ॥ 15 वयसप्रायाः पार्षद्या, आत्मरक्षास्तु रक्षकाः । आरक्षकॉर्थनृचरस्थानीया लोकपालकाः ॥ ७७३ ॥
तत्रप्रायाण्यनीकानि, प्रकीर्णा ग्राम्य-पौरवत् । दासप्राया आभियोग्याः, किल्विषाश्चान्त्यजोपमाः ॥७७४॥ ज्योतिष्क-व्यन्तरास्त्रायस्त्रिंश-लोकपवर्जिताः । विमानलक्षाः सौधर्म, द्वात्रिंशत् त्रिदिवौकसाम् ॥७७५॥ ऐशान-सनत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्मणामपि । अष्टाविंशतिद्वादशाऽष्टौ चत्वारः क्रमेण तु ॥ ७७६ ॥
लक्षार्धं लान्तके शुक्रे, चत्वारिंशत् सहस्रकाः । षट् सहस्राः सहस्रारे, युगले तु चतुःशती ॥७७७॥ 20 त्रिशत्यारणा-ऽच्युतयोराद्ये ग्रैवेयकत्रिके । शतमेकादशाग्रं तु, मध्ये सप्तोत्तरं पुनः ॥ ७७८ ॥
विमानानां शतं त्वेकमन्त्यग्रैवेयकत्रिके । अनुत्तरविमानानि, पश्चैव हि भवन्ति तु ॥ ७७९ ॥ एवं देवविमानानां, लक्षाशीतिश्चतुर्युता । सप्तनवतिः सहस्रास्त्रयोविंशतिरेव च ॥ ७८०॥ अनुत्तरविमानेषु, चतुषु विजयादिषु । देवा द्विचरमा एकचरमाः पञ्चमे पुनः॥ ७८१॥
सौधर्मकल्पादारभ्य, सर्वार्थ यावदेषु च । स्थित्या दीप्त्या प्रभावेण, विशुद्ध्या लेश्यया सुखैः ॥७८२॥ 25 इन्द्रियाणां विषयेणाऽवधिज्ञानेन चाऽमराः । भवन्ति पूर्वपूर्वेभ्योऽभ्यधिका उत्तरोत्तराः ।। ७८३ ॥
परिग्रहा-अभिमानाभ्यां, वपुषा गमनेन च । हीनहीनतरा एते, भवन्ति तु यथाक्रमम् ॥७८४ ॥ जायते सर्वजघन्यस्थितीनां त्रिदिवौकसाम् । सप्तस्तोकान्त उच्छास, आहारस्तु चतुर्थतः ॥ ७८५॥ पल्योपमस्थितीनां तु, भवति त्रिदिवौकसाम् । दिवसस्यान्तरुच्छास, आहारोहःपृथक्त्वतः ॥ ७८६ ॥
यावन्तः सागरा यस्य, तावन्मासार्धकैः पुनः । उच्छासस्तस्य तावद्भिराहारोऽब्दसहस्रकैः ॥ ७८७ ॥ 30 देवाः सवेदनाः प्रायो, यद्यसवेदनाः पुनः । अन्तर्मुहर्त्तकालं स्युर्मुहूर्तात् परतो न हि ॥ ७८८ ॥
आ ऐशानात् समुत्पत्तिर्देवीनां गतिराऽच्युतात् । उत्पद्यन्ते तापसास्तु, ज्योतिष्कत्रिदशावधि ॥ ७८९ ॥ आ ब्रह्मलोकाचरक-परिव्राजां तु सम्भवः । पञ्चेन्द्रियतिरश्थामा, सहस्रारं पुनर्जनिः॥ ७९० ॥ श्राद्धानामाऽच्युतं मिथ्यादृशां तु जिनलिङ्गिनाम् । सामाचारीपालकानामन्त्यप्रैवेयकावधि ॥ ७९१ ॥ ब्रह्मलोकादिसर्वार्थसिद्धान्तं पूर्णपूर्विणाम् । साधु-श्राद्धानां सौधर्मे, संद्वतानां जघन्यतः ॥ ७९२ ॥ __ * धर्मशा सङ्घ २ ॥ + ईशा सङ्घ २ ॥ १ सौधर्मशानकल्पसदृशौ । । कार्थचरपुंस्था सङ्घ ३॥ २ आरक्षकार्य चारपुरुषसाशाः। ३ सेनासदृशानि । ४ लोकपालाः। ५ मनुष्यभवदयेन सिद्धिगामिनः। ६ चतुर्दशपूर्विणाम्। सबता सक॥
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तृतीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२०९ आ ऐशानाच्च भवनवास्याद्यास्त्रिदिवौकसः । भवन्त्यङ्गप्रवीचारास्ते हि सङ्किष्टकर्मकाः ॥ ७९३ ॥ तीव्रानुरागाः सुरते, लीयमाना मनुष्यवत् । सर्वाङ्गीणस्पर्शसुखात्, प्रीतिमासादयन्ति तु ॥७९४॥ युग्मम् ॥ शेषाः स्पर्श-रूप-शब्दप्रवीचारा द्वयोर्द्वयोः । मनःप्रवीचारभृतश्चतुषु चाऽऽनतादिषु ॥ ७९५ ॥ अमरेभ्यः प्रवीचारवट्योऽनन्तसुखात्मकाः । अपरेष्वप्रवीचारा, देवा अवेयकादिषु ॥ ७९६ ॥
इत्यधस्तात्तिर्यगूर्द्धभेदो लोकोऽस्य मध्यतः । वसनाड्यस्ति च चतुर्दशरज्जुप्रमाणिका ॥ ७९७ ॥ 5 ऊर्धा-ऽधोभागयो रज्जुप्रमाणायाम-विस्तृतिः । अन्तस्त्रसाः स्थावराश्च, स्थावरा एव तद्वहिः ॥ ७९८ ॥ विस्तारेऽधः सप्तरज्जुरेकरज्जुश्च मध्यतः । ब्रह्मलोके पञ्चरज्जुः, पर्यन्ते चैकरज्जुकः ।। ७९९ ॥ सुप्रतिष्ठाकृतिर्लोको, न केनापि कृतो धृतः। स्वयंसिद्धो निराधारो, व्योनि तिष्ठति किन्त्वसौ ? ॥८००॥
॥युग्मम् ॥ अमुं लोकं समस्तं वा, व्यस्तं वाऽपि हि चिन्तयेत् । धीमान् शुभेतरध्यानप्रतिषेधनिबन्धनम् ॥ ८०१॥10 धर्मध्याने भवेद् भावः, क्षायोपशमिकादिकः । लेश्याः क्रमविशुद्धाः स्युः, पीत-पद्म-सिताः पुनः ॥८०२॥ असिन् नितान्तवैराग्यव्यतिषङ्गतरङ्गिते । जायते देहिनां सौख्यं, स्वसंवेद्यमतीन्द्रियम् ।। ८०३ ।। त्यक्तसङ्गास्तनुं त्यक्त्वा, धर्मध्यानेन योगिनः । अवेयकादिस्वर्गेषु, भवन्ति त्रिदशोत्तमाः ॥ ८०४ ॥ महामहिमसौभाग्य, शरच्चन्द्रनिभप्रभम् । प्राप्नुवन्ति वपुस्तत्र, स्रग्भूषा-ऽम्बरभूषितम् ॥ ८०५॥ विशिष्टवीर्यबोधाढ्यं, कामार्तिज्वरवर्जितम् । निरन्तरायं सेवन्ते, सुखं चाऽनुपमं चिरम् ॥ ८०६॥ 15 इच्छासम्पन्नसर्वार्थमनोहारिसुखामृतम् । निर्विनमुपभुञ्जाना, गतं जन्म न जानते ॥ ८०७ ॥ दिव्यभोगावसाने च, च्युत्वा त्रिदिवतस्ततः । उत्तमेन शरीरेणाऽवतरन्ति महीतले ॥ ८०८॥ दिव्यवंशे समुत्पन्ना, नित्योत्सवमनोरमान् । भुञ्जते विविधान् भोगानखण्डितमनोरथाः ॥ ८०९॥ ततो विवेकमाश्रित्य, विरज्याऽशेषभोगतः । ध्यानेन ध्वस्तकर्माणः, प्रयान्ति पदमव्ययम् ॥ ८१०॥
एवं विश्वजनीनेन, तीर्थनाथेन निर्ममे ।-त्रिजगत्कुमुदानन्दकौमुदी धर्मदेशना ॥ ८११॥ 20 श्रुत्वा च देशनां भर्तुः, प्रतिबुद्धाः सहस्रशः । नरा नार्यश्च जगृहुर्दीक्षां मोक्षैकमातरम् ॥ ८१२॥ तदानीं च सुमित्रोऽपि, पिता सगरचक्रिणः । पुरा भावयतिर्दीक्षामाददे स्वामिनोऽन्तिके ॥ ८१३ ॥ ततश्च पश्चनवतेर्गणभृन्नामकर्मणाम् । संयतानां सिंहसेनप्रभृतीनां सुमेधसाम् ॥ ८१४ ॥ उत्पत्ति-विगम-ध्रौव्यरूपामूचे पदत्रयीम् । सर्वागमव्याकरणप्रत्याहारोपमा प्रभुः॥८१५ ॥ तत्रिपद्यनुसारेण, द्वादशाङ्गी सपूर्विकाम् । रेखानुसारेणाऽऽलेख्यमिव तेऽरचयन्नथ ॥ ८१६ ॥ 25 चूर्णपूर्णमथ स्थालमादायोत्थाय वासवः । स्वामिनः पादपद्मान्ते, तस्थौ सुरगणावृतः॥ ८१७॥ अथोत्थाय गणभृतां, चूर्ण मूर्धसु निक्षिपन् । क्रमेण सूत्रेणाऽर्थेन, तथा तदुभयेन च ॥ ८१८॥ द्रव्यैर्गुणैः पर्ययैश्च, नयैरपि जगत्पतिः । ददावनुयोगानुज्ञां, गणानुज्ञामपि खयम् ॥ ८१९ ॥ उपरिष्टाद् गणभृतां, वासक्षेपं दिवौकसः । नरा नार्यश्च विदधुर्दुन्दुभिध्वानपूर्वकम् ॥ ८२० ॥ पीयूषनिःस्यन्दमिव, रचिताञ्जलिसम्पुटाः । स्वामिवाचं प्रतीच्छन्तस्तस्थुर्गणधरा अपि ॥ ८२१॥ 30 भेजे सिंहासनं पूर्वाभिमुखः पूर्ववत् पुनः । अनुशिष्टिमयीं तेभ्यो, देशनां विदधे विभुः ॥ ८२२ ॥ __ अत्रान्तरे च प्रथमा, पर्यपूर्यत पौरुपी । पारयामास भगवानपि तां धर्मदेशनाम् ॥ ८२३ ॥ तदा विशालस्थालस्थश्चतुःप्रस्थप्रमाणकः । आपूर्णः शालिभिः शुद्धः, पद्मसौरभशालिभिः ॥८२४ ॥ उपसंवर्गितामोदो, दिविषद्गन्धमुष्टिभिः । कारितः सगरराजेनोत्क्षिप्तो वरपूरुषैः ॥ ८२५ ॥
१ सम्बन्धः। २ वैराग्यं प्राप्य। ३ विश्वहितकारिणा। ४ सर्वागमानां स्पष्टीकरणे प्रत्याहारसदशीम् । ५ सूत्रााम्याम् । शिक्षामयीम्। ७ संमिश्रित आमोदो मसिन् सः।
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२१० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ द्वितीय पर्व उद्दामदुन्दुभिध्वानध्वनिताशेषदि खः । उलूलुमुखरैश्वाऽनुगम्यमानो वधूजनैः ॥ ८२६ ॥ विष्वक् परिवृतः पौरैः, पद्मकोश इवालिभिः । बलिः समवसरणं, पूर्वद्वाराध्वनाऽविशत् ॥ ८२७॥ ततः प्रदक्षिणीकृत्य, जगत्रयपतिं बलिः । तैः पुरश्चिक्षिपे दिव्यपुष्पवृष्टिविडम्बकः ॥ ८२८ ॥ नभस्तः पततस्तस्याऽगृह्णन्नधं दिवौकसः । सगरो भूगतस्याऽधं, तच्छेषमपरे जनाः ॥ ८२९ ॥ बलेस्तस्य प्रभावेण, नश्यन्ति प्राग्भवा अपि । नोत्पद्यन्ते नूतनाच, षण्मासान यावदामयाः ॥ ८३०॥ सिंहासनात् समुत्थायाऽथोत्तरद्वारवर्मना । निर्वाणवर्त्मनोऽग्रेगूर्निर्जगाम जगत्पतिः ॥ ८३१॥ ऐशानदिश्यूद्ध-मध्यवप्रयोरन्तरस्थिते । देवच्छन्दे देवदेवो, विशश्राम ततः किल ॥ ८३२ ॥
सगरेणोपनीतेऽथ, तत्र सिंहासने स्थितः । अकरोद् देशनां सिंहसेनो गणधराग्रणीः ॥ ८३३ ॥ भगवत्स्थानमाहात्म्यात्, स तत्र गणभृद्वरः । सङ्ख्यातीतान् भवानाख्यद्, यच पप्रच्छ कश्चन ॥ ८३४ ॥ खामिपर्षदि तस्यां तं, सन्देहापोहकं तथा । छद्मस्थ इति नाऽज्ञासीद्, विना केवलिनं जनः ॥ ८३५ ॥ गुरोः खेदविनोदच, प्रत्ययश्च द्वयोरपि । गुरु-शिष्यक्रमश्चेति, गणभृद्देशनागुणाः ॥ ८३६ ॥ पौरुष्यां च द्वितीयायां, सम्पूर्णायां गणाग्रणीः । व्यरंसीद् देशनातः स, पथिको गमनादिव ॥ ८३७ ॥ देशनाविरते तसिन्, प्रणम्य परमेश्वरम् । चेलर्निजनिजस्थानं, प्रति सर्वे दिवौकसः ॥ ८३८ ॥
गत्वा नन्दीश्वरद्वीपं, पर्वतेष्वञ्जनादिषु । शाश्वतार्हत्प्रतिमानां, चक्रुस्तेऽष्टाह्निकोत्सवम् ॥ ८३९ ॥ 15 भूयो भूयोऽपि भूयान्नो, यात्रेदृगिति भाषिणः । ययुर्निजनिजं धाम, स्वर्धामानो यथागतम् ॥ ८४० ॥ भगवन्तं नमस्कृत्य, सगरश्चक्रवर्त्यपि । पुरं जगाम साकेतं, श्रीसङ्केतनिकेतनम् ॥ ८४१॥
ततश्च तीर्थे तत्रैवोत्पन्नो यक्षश्चतुर्मुखः । श्यामवर्णो गजरंथो,महायक्षोभिधानतः ॥ ८४२ ॥ वरदेन मुद्गरिणा, साक्षसूत्रेण पाशिना । चतुर्भिर्दक्षिणैर्हस्तैर्वामैस्तावद्भिरेव च ॥ ८४३ ॥
वीजपूरधरेणाऽभीदायिनाऽङ्कुशधारिणा । सशक्तिना शोभितोऽभूत्, स्वामिनः पारिपार्श्विकः ॥ ८४४ ॥ 20 देवताजितबला च, तदोत्पन्ना सुवर्णरुक् । भान्ती दक्षिणबाहुभ्यां, वरदेनाऽथ पाशिना ॥ ८४५ ॥ बीजपूरा-ऽङ्कुशभृद्भयां, वामदोभ्यां च शोभिता । लोहासनस्था पार्श्वेऽस्थान, भर्तुः शासनदेवता ॥८४६॥
चतुस्त्रिंशदतिशयशोभितो भगवानपि । व्यहार्षीत् सिंहसेनादिपरिवारवृतो महीम् ॥ ८४७ ॥ बोधयन् भव्यभविनः, प्रतिग्राम-पुरा-ऽऽकरम् । कृपारत्नाकरः प्राप, कौशाम्बी प्रभुरन्यदा ॥ ८४८ ॥
तस्याः पूर्वोत्तरदिशि, क्षेत्रे योजनमात्रके । प्रभोः समवसरणं, पूर्ववद् विदधे सुरैः ॥ ८४९ ॥ 25 तत्राऽशोकतले सिंहासनासीनो जगत्पतिः । ससुरा-ऽसुर-मायां, देशनां पर्षदि व्यधात् ॥ ८५० ॥
एकं द्विजन्ममिथुनमथैत्य त्रिजगद्गुरुम् । प्रदक्षिणीकृत्य नत्वा, यथास्थानमुपाविशत् ॥ ८५१ ॥ कथान्तरे जगन्नाथ, द्विजन्ममिथुनाद् द्विजः । पप्रच्छ साञ्जलिरिदं, कथं नु भगवन्निति ॥ ८५२ ॥ शशंस प्रभुरप्येवं, सम्यक्त्वमहिमा ह्ययम् । सर्वानर्थनिषेधा-ऽर्थसिद्ध्योरेकं निवन्धनम् ॥ ८५३ ।।
तेन शाम्यन्ति वैराणि, वृष्ट्येव दववह्नयः । नश्यन्ति व्याधयोऽशेषाः, सर्पा इव गरुत्मता ॥ ८५४ ॥ 30 दुष्कर्माणि विलीयन्ते, हिमानीवाहिमांशुनी । सिध्यत्यभीप्सितं चिन्तामणिनेव क्षणादपि ॥ ८५५ ॥
वार्येवं कुञ्जरवरो, देवायुःकर्म वध्यते । देवताः सन्निधीयन्ते, मत्रेणेव महौजसा ॥ ८५६ ॥ अथवा सर्वमप्येतत्, सम्यक्त्वफलमल्पकम् । महाफलं सिद्धिरपि, तीर्थकृत्त्वं च जायते ॥ ८५७ ॥
श्रुत्वेति मुदितो विप्रः, प्रणम्योचे कृताञ्जलिः । भगवन्नेवमेवेदं, न सर्वज्ञगिरोऽन्यथा ॥ ८५८ ॥ इत्युक्त्वा तत्र तूष्णीके, स्थिते गणधराग्रणीः । जाननपि जनज्ञानकृतेऽपृच्छजगद्गुरुम् ।। ८५९ ॥
गीतादिध्वनिः । २ रोगाः । ३ अग्रगामी । ४ सन्देहनाशकम् । ५ देवाः । ६ गजवाहनः। ७ फलविशेषः। ८ अभय. मुद्राहितेन । ९ वार्ताप्रस्तावे। १० महद् हिमम् । ११ सूर्येण । १२ गजबन्धनरजुना । १३ विप्रे।
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तृतीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२११ किमनेन प्रभो ! पृष्टं ?, प्रभुणा कथितं च किम् ? । सङ्केतवार्तासदृशमिदं बोधय नः स्फुटम् ॥ ८६०॥ ___ आचख्यौ प्रभुरप्यस्याः, पुर्या अनतिदूरतः । अग्रहारो महानस्ति, शालिग्रामाभिधानकः ॥८६१ ॥ तत्र दामोदरो नाम, वसति ब्राह्मणाग्रणीः । सधर्मचारिणी चाऽस्ति, तस्य सोमेति नामतः ॥ ८६२॥ शुद्धभट्टोऽभिधानेन, तयोश्च तनयोऽभवत् । दुहिता सिद्धभट्टस्य, तेन वोढा सुलक्षणा ॥ ८६३ ॥ सुलक्षणा-शुद्धभदौ, प्रतिपद्य च यौवनम् । बुभुजाते यथाकामं, भोगान् खविभयोचितान् ॥८६४॥ 5 कालक्रमेण पितरौ, विपेदाते तयोरथ । परिक्षयमुपेयाय, विभवः सोऽपि पैतृकः ॥ ८६५ ॥ क्षपायां क्षुधितोऽशेत, सुभिक्षेऽपि कदाऽप्यसौ । निर्धनस्य सुभिक्षेपि, दुर्भिक्षं पारिपार्श्विकम् ॥ ८६६ ॥ जीर्णवासःखण्डधारी, पर्याट च कदाचन । पुरि राजपथे देशान्तरकेपटिकोपमः ॥ ८६७ ॥ कदाचिच्चातक इव, चिरं तस्थौ पिपासितः । कदाचिन्मलमलिनः, पिशाच इव दुर्वपुः ॥ ८६८॥ लजितः सहवासिभ्योऽपीदृशेनाऽऽत्मना च सः । भार्याया अप्यनाख्याय, दूरं देशान्तरं ययौ ॥८६९॥ 10 देशान्तरगतिं तस्य, भार्या कतिपयैर्दिनैः । वज्रपातसोदरया, जनश्रुत्याऽशृणोत् ततः ॥ ८७० ॥ पितृक्षया-ऽर्थक्षयाभ्यां, पत्युर्विगमनेन च । चिरं निर्लक्षणम्मन्या, ताम्यति स्म सुलक्षणा ॥ ८७१॥ उद्विग्ना यावदस्थात् सा, तावदागात् तपात्यये । गणिनी विपुला नाम, तद्गृहे वसतीच्छया ॥ ८७२ ॥ अर्पयामास वसति, विपुलायाः सुलक्षणा । शुश्राव च प्रतिदिनं, तन्मुखाद् धर्मदेशनाम् ॥ ८७३ ॥ ययौ तस्याश्च मिथ्यात्वं, धर्मदेशनया तया । अम्लस्य मधुरद्रव्यसम्बन्धेनाऽम्लता यथा ॥ ८७४॥ 15 ततः परं साऽनवद्यं, सम्यक्त्वं प्रत्यपद्यत । कृष्णपक्षमतिक्रम्य, नैर्मल्यमिव शर्वरी ।। ८७५ ॥ जीवा-ऽजीवादिपदार्थान्, सर्वानपि यथास्थितान् । वैद्यो दोषानिवाङ्गोत्थान्, यथावत् प्रत्यपद्यत ॥८७६॥ धर्म जैनं च जग्राह, संसारोल्लञ्चनक्षमम् । सांयात्रिकः पोतमिव, सागरोत्तारणोचितम् ॥ ८७७ ॥ तस्या विषयवैराग्यमुपशान्तकपायता । निवेदो जन्म-मरणेष्वविच्छिन्नेषु चाऽभवत् ॥ ८७८ ।। साध्वीशुश्रूषया सैवं, वर्षाकालमजीगमत् । रसाढ्यया जागरूकः, कथया रजनीमिव ॥ ८७९ ॥ 20 तस्या दत्त्वाऽणुव्रतानि, गणिनी साऽन्यतो ययौ । प्रायः प्रावृष ऊर्द्ध न, तिष्ठन्त्येकत्र संयताः ॥ ८८०॥ अर्जितद्रविणः सोऽपि, शुद्धभद्दो दिगन्तरात् । प्रियाप्रेमसमाकृष्टः, पारापत इवाऽऽययौ ॥ ८८१॥ ___ ऊचे विप्रः प्रियामेवमसहिष्ठाः कथं प्रिये ! । असोढपूर्विणी मद्वियोगं हिममिवाऽजिनी १ ॥८८२॥ सुलक्षणाऽप्याचचक्षे, श्रूयतां जीवितेश्वर ! । मरुस्थले मरालीव, शफरीवाऽल्पवारिणि ॥ ८८३ ॥ राहुवके चन्द्रलेखेवैणिकेव दवानले । मृत्युद्वारे त्वद्विरहे, दुःसहे पतिताऽस्म्यहम् ॥ ८८४ ॥ 25 अन्धकारे दीपिकेव, नौरिवाऽपारवारिणि । मरुस्थले वृष्टिरिव, दृष्टिरान्ध्य इवाऽनघा ।। ८८५ ॥ मम त्वद्विरहे तस्मिन्, पतितायाः समाययौ । गणिनी विपुला नाम, विपुलैकदयानिधिः ॥ ८८६ ॥ तदर्शनेन मे दुःखं, भवद्विरहजं ययौ । मया प्राप्तं च सम्यक्त्वं, फलं मानुषजन्मनः ॥ ८८७ ॥ शुद्धभट्टोऽप्यभाषिष्ट, सम्यक्त्वं किं नु भट्टिनि ! । जन्मनो मानुषस्याऽस्य, फलभूतं यदुच्यते ? ॥८८८॥ सुलक्षणाऽप्युवाचैवमार्यपुत्र ! निशम्यताम् । कथनीयं तदिष्टानामभीष्टः प्राणतोऽप्यसि ॥ ८८९ ॥ 30 या देवे देवताबुद्धिमुरौ च गुरुतामतिः । धर्मे च धर्मधीः शुद्धा, सम्यक्त्वमिदमुच्यते ।। ८९० ॥ अदेवे देवबुद्धिर्या, गुरुधीरगुरौ च या । अधर्मे धर्मबुद्धिश्च, मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात् ॥ ८९१ ॥ सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः । यथास्थितार्थवादी च, देवोऽर्हन् परमेश्वरः ॥ ८९२ ॥ ध्यातव्योऽयमुपास्योऽयमयं शरणमिष्यताम् । अस्यैव प्रतिपत्तव्यं, शासनं चेतनाऽस्ति पेत् ॥ ८९३ ॥ ये स्त्री-शस्त्रा-ऽक्षसूत्रादिरागाद्यङ्ककलङ्किताः । निग्रहा-ऽनुग्रहपरास्ते देवाः स्युन मुक्तये ॥ ८९४ ॥ - समीपस्थम् । ५ भिक्षुकः। ३ साध्वीसमूहानेसरा । * °पूर्विणं मद्वि सङ्घ १ ॥ ४ ज्ञानम् ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीयं पर्व नाट्या-अट्टहास-सङ्गीताद्युपप्लवविसंस्थुलाः । लम्भयेयुः पदं शान्तं, प्रपन्नान् प्राणिनः कथम् १ ॥ ८९५ ॥ महाव्रतधरा धीरा, भैक्षमात्रोपजीविनः । सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः॥ ८९६ ॥ सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः । अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गुरवो न तु ॥ ८९७ ॥ परिग्रहाऽऽरम्भमन्नास्तारयेयुः कथं परान् ? । स्वयं दरिद्रो न परमीश्वरीकर्तुमीश्वरः ॥ ८९८ ॥ दुर्गतिप्रपतत्प्राणिधारणाद् धर्म उच्यते । संयमादिर्दशविधः, सर्वज्ञोक्तो विमुक्तये ॥ ८९९ ॥ अपौरुषेयं वचनमसम्भवि भवेद् यदि । न प्रमाणं भवेद् वाचां, ह्याप्ताधीना प्रमाणता ।। ९००॥ मिथ्यादृष्टिभिराम्नातो, हिंसाद्यैः कलुषीकृतः । स धर्म इति वित्तोऽपि, भवभ्रमणकारणम् ॥ ९०१॥ सरागोऽपि हि देवश्चेद्, गुरुरब्रह्मचार्यपि । कृपाहीनोऽपि धर्मः स्यात् , कष्टं नष्टं हहा ! जगत् ॥९०२॥
शम-संवेग-निर्वेदा-ऽनुकम्पा-ऽऽस्तिक्यलक्षणैः । लक्षणैः पञ्चभिः सम्यक्, सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते ॥ ९०३ ॥ 10 स्थैर्य प्रभावना भक्तिः, कौशलं जिनशासने । तीर्थसेवा च पञ्चाऽस्य, भूषणानि प्रचक्षते ॥ ९०४ ॥
शङ्का काङ्क्षा विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टिप्रशंसनम् । तत्संस्तवश्व पश्चापि, सम्यक्त्वं दृषयन्त्यलम् ॥९०५॥ __व्याजहार ब्राह्मणोऽपि, दयिते ! भाग्यवत्यसि । उपलब्धवती सम्यक्, सम्यक्त्वं यन्निधानवत् ॥९०६॥ शुद्धभट्टोऽपि तत्कालं, सम्यक्त्वं प्रत्यपद्यत । धर्मे धर्मोपदेष्टारः, साक्षिमात्रं शुभात्मनाम् ॥ ९०७॥
तौ सम्यक्त्वोपदेशेन, श्रावस्यभवतामुभौ । स्वीस्यातां सिद्धरसात् , सीसक-त्रपुणी अपि ॥ ९०८॥ 15 तत्र ह्यग्रहारे साधुसंसर्गाभावतस्तदा । लोकोऽश्रावकधर्मोऽभूमिथ्यादृष्टिः क्रमेण च ॥९०९ ॥
कुलक्रमागतं धर्ममिमौ सन्त्यज्य दुर्धियौ । श्रावक्यभूतामित्यासीदपवादो जने तयोः ॥ ९१० ॥ अपवादमवज्ञाय, श्राद्धत्वे तस्थुषोस्तयोः । जज्ञे कालक्रमात् पुत्रो, गाईमेध्यतरोः फलम् ॥ ९११ ॥ शिशिरे ब्राह्मणोऽन्येयुः, प्रातरादाय तं सुतम् । विप्रपर्षत्परिवृतां, धर्मार्थाग्निष्टिकां ययौ ॥ ९१२ ॥
श्रावकोऽसीति परतो, गच्छ गच्छेति सक्रुधः । प्रचण्डाश्चण्डालमिव, तं समाचुक्रुशुर्द्विजाः ॥ ९१३ ॥ 20 तां धर्माग्निष्टिका ते च, वेष्टयित्वा समन्ततः । तस्थुर्द्विजातयो जातिधर्मस्तेषां हि मत्सरः ॥ ९१४ ॥
ततो विलक्षः सङ्घद्धो, विलक्षैर्वचनैः स तैः । समक्षं पर्षदस्तस्याश्चक्रे सत्यापनामिति ॥ ९१५ ॥ जिनादिष्टो न चेद् धर्मः, संसाराम्भोधितारणः । आप्ता यदि न चाहन्तः, सर्वज्ञास्तीर्थकारिणः ॥९१६॥ ज्ञान-दर्शन-चारित्राण्यध्वा यदि न निवृतेः । सम्यक्त्वं भुवि चेन्नास्ति, तन्मे सूनुः प्रदह्यताम् ॥९१७॥
अथाऽस्ति सर्वमप्येतज्वलनः प्रज्वलन्नपि । जलवच्छीतलस्तर्हि, मत्पुत्रस्य भवत्वसौ ॥ ९१८ ॥ 25 इत्युदित्वा स रोषेण, ज्वलनोऽन्य इव ज्वलन् । ज्वलने तत्र चिक्षेप, पुत्रं राभैसिको द्विजः ॥ ९१९ ॥
अनार्येणाऽमुना बालो, दग्धो दग्धो हहा ! स्वकः । एवमाक्रोशिनी पर्षत, तमाचुक्रोश सा तदा ॥ ९२०॥ तत्रस्था देवता चैका, सम्यग्दर्शनशालिनी । सद्यश्चिक्षेप तं बालं, मध्येपनं द्विरेफवत् ॥ ९२१॥ ज्वालाजालकरालस्य, ज्वलतो ज्वलनस्य च । दाहशक्तिं जहाराऽऽशु, चित्रस्थमिव तं व्यधात् ॥ ९२२ ॥
पुरा विराद्धश्रामण्या, मृत्वा व्यन्तर्यभूद्धि सा । बोधिलाभं तया पृष्टो, व्याजहारेति केवली ॥ ९२३ ॥ 30 भवत्याः सुलभा बोधिर्भवितव्यं त्वयाऽनघे ! । सम्यक्त्वभावनोद्योगनिष्ठया सुष्टु तत्कृते ॥ ९२४ ॥
तद्वचो बिभ्रती नित्यं, हृदये हारयष्टिवत् । सम्यक्त्वमाहात्म्यकृते, सा जुगोप तमर्भकम् ॥ ९२५ ॥ प्रभावं तं तु सम्प्रेक्ष्य, विसयमेरचक्षुषः । जज्ञिरे ते द्विजन्मान, आजन्मादृष्टपूर्विणः ॥ ९२६ ॥
गत्वा वेश्मन्याचचक्षे, ब्राह्मण्यै ब्राह्मणः स तम् । जातप्रमोदः सम्यक्त्वानुभावानुभवं तदा ॥ ९२७॥ विपुलागणिनीगाढसंसर्गेण विवेकिनी । ब्राह्मणीत्यब्रवीद् धिग्धिक्, किमिदं विदधे त्वया ? ॥ ९२८॥ 35 सम्यक्त्वभाजः कस्याश्चिद्, देवताया हि सनिधेः । वक्रमप्य॒जुतां प्राप्तमिदं ते कोपचापलम् ॥९२९ ॥
हातोऽपि। २ श्रावको जातौ। ३ प्रतिज्ञाम् । ४ साहसिकः। ५ संयमविराधिनी।
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२१३.
तृतीयः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । बदा हि देवता काऽपि, सम्यक्त्वैकप्रभाविका । सन्निधौ नाऽभविष्यचेत्, तदधक्ष्यत ते सुतः ॥९३०॥ जिनप्रणीतो धर्मोऽयं, न प्रमाणं तदा किमु । न प्रमाणमिति ब्रूयुस्ते तु पापा विशेषतः ॥ ९३१ ॥ वालिशोऽपीदृशं किंखित्, कुर्याद् यद् भवता कृतम् । ईदृग् नाऽतः परं कार्यमार्यपुत्राविचारितम्॥९३२॥
अभिधायेति सम्यक्त्वस्थिरीकरणहेतवे । इमं भर्तारमेषा स्वमनैपीदसदन्तिके ॥ ९३३ ॥ तदेतन्मनसिकृत्याऽनेन पृष्टं द्विजन्मना । सम्यक्त्वस्य प्रभावोऽयमित्यमाभिश्च कीर्तितम् ॥ ९३४ ॥ 5 आकर्ण्य तच्च भगवद्वचनं बहवोऽपरे । प्राणिनः प्रत्यबुध्यन्त, स्थिरधर्माश्च जज्ञिरे ॥ ९३५ ॥ शुद्धभट्टस्तु भट्टिन्या, समं भगवदन्तिके । परिव्रज्यामुपादत्त, क्रमेणाऽऽप च केवलम् ॥ ९३६ ॥
तां देशनां स भगवानपि पारयित्वा, स्थानात् ततो जगदनुग्रहणैकतानः ।
चक्रेण चक्रभृदिवाऽग्रचरेण धर्मचक्रेण भान् वसुमती विजहार नाथः ॥ ९३७ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये द्वितीये 10 पर्वणि अजितस्वामिदीक्षाकेवलज्ञानवर्णनो नाम
तृतीयः सर्गः॥
१ शोभमानः।
त्रिषष्टि. २८
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२१४
[द्वितीयं पर्व
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
चतुर्थः सर्गः
15
इतश्च सगरस्याऽस्नमन्दिरे मेदिनीभुजः । सुवर्णमयनेमीकं, लोहिताक्षमयारकम् ॥१॥ विचित्र-स्वर्णमाणिक्यघण्टिकाजालमालितम् । सनान्दीघोपैममलमणि-मौक्तिकमण्डितम् ॥ २ ॥ वज्रनिर्मितनामीकं, किङ्किणीश्रेणिशोभितम् । सर्वर्तुकुसुमस्रग्भिरर्चितं सविलेपनम् ॥३॥ अन्तरिक्षस्थितं यक्षसहस्रसमधिष्ठितम् । नाम्ना सुदर्शन चक्ररत्नं समुदपद्यत ॥ ४॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ ज्वालामालाकरालं तच्चण्डांशोरिव मण्डलम् । आविर्भूतं प्रेक्ष्य चक्रमायुधागारिकोऽनमत् ॥ ५ ॥ अथ तचक्रमर्चित्वा, विचित्रैः पुष्पदामभिः । शशंस मुदितो गत्वा, सत्वरं सगराय सः॥६॥ सिंहासनं पादपीठं, पादुके अपि तत्क्षणम् । उज्झाञ्चकार सगरो, गुरुसन्दर्शनादिव ॥ ७ ॥
पदानि कतिचिद् दत्त्वा, चक्र मनसिकृत्य सः । ननाम देवतीयन्ति, यदस्त्राण्यस्त्रजीविनः ॥ ८॥ 10 सिंहासने स आसित्वा, चक्रोत्पत्तिनिवेदिने । सर्वं ददौ खाङ्गलग्नं, भूषणं पारितोषिकम् ॥९॥
ततश्च पावनै रौबंधाय स्नानमङ्गलम् । दिव्यालङ्कार-वस्त्राणि, पर्यधत्त महीपतिः ॥१०॥ पद्भयां चचाल भूपालश्चक्ररत्नमथाऽर्चितुम् । पादचारेणोपस्थानं, पूजातोऽप्यतिरिच्यते ॥ ११ ॥ धावद्भिः प्रस्खलद्भिश्च, पतद्भिश्चाऽतिसम्भ्रमात् । सोऽन्वगामिनृपैः पादचारिभिः किङ्करिव ॥ १२ ॥ सोऽनुसरोऽप्यनाहूतैः, पूजाद्रव्यकरैर्नरैः । स्वाधिकारप्रमादित्वं, भीतये ह्यधिकारिणाम् ॥ १३ ॥ विमानमिव देवेन, दीव्यदुद्दामतेजसा । सनाथं तेन चक्रेणाऽस्त्रागारं सगरो ययौ ॥ १४ ॥ ननामाऽऽलोकमात्रेऽपि, पञ्चाङ्गस्पृष्टभूतलः । चक्ररत्नं नभोरत्नतुल्यं वसुमतीपतिः ॥ १५ ॥ सोऽमार्जद्धस्तविन्यस्तरोमहस्तस्तदञ्जसा । हँस्त्यारोहो हस्तिवरमिव तल्पसमुत्थितम् ॥ १६ ॥ आनीयाऽऽनीय पानीयकुम्भैः पुम्भिः समर्पितैः । स चक्रं नपयामास, देवताप्रतिमामिव ॥ १७ ॥
चन्दनस्थासकांस्तत्र, स्थापयामास पार्थिवः । तदूरीकारदत्तस्वहस्तलक्ष्मीविडम्बिनः ॥ १८ ॥ 20 नृपतिश्चक्ररत्नस्य, विचित्रैः पुष्पदामभिः । जयलक्ष्मीपुष्पगृहोपमा पूजां चकार च ॥ १९ ॥
गन्धांश्च चूर्णवासांश्च, चक्रे चिक्षेप चक्रभृत् । प्रतिमायामिवाऽऽचार्यः, प्रतिष्ठासमये स्वयम् ॥ २० ॥ देवताहमहामूल्यैर्वस्त्रालङ्करणैरपि । अलञ्चके चक्ररत्नमात्मानमिव पार्थिवः ॥ २१ ॥ लिलेखाऽष्टौ मङ्गलानि, पुरोऽष्टाशाजयश्रियाम् । आकर्षणायाऽभिचारमण्डलानीव भूपतिः ॥ २२ ॥
अकरोदग्रतस्तस्य, कुसुमैः पञ्चवर्णकैः । सारगन्धैरुपहारं, राजर्तुरिव सप्तमः ॥ २३ ॥ 25 घनसारा-गुरुसारं, धूपं तस्याऽग्रतोऽदहत् । धूमैर्नरेन्द्रः कस्तूरी विलेपनमिवाऽऽदधत् ॥ २४ ॥
तत्रिः प्रदक्षिणीकृत्य, सोऽपसृत्य च किञ्चन । चक्रं चक्री नमश्चक्रे, जयश्रीजन्मसागरम् ॥ २५ ॥ विदधेष्टाह्निकां तस्य, चक्ररत्नस्य तत्र सः । देवताया इव नवप्रतिष्ठाया महीपतिः ॥ २६ ॥ ऋद्ध्या महत्या चक्रस्य, चक्रे पूजामहोत्सवः । पौरैरपि पुरीपद्रदेवताया इवाऽखिलैः ॥ २७ ॥
ततो वसुमतीनाथः, स्खं जगाम निकेतनम् । चक्रेणाऽऽमत्रित इव, दिग्यात्रायै समुत्सुकः ॥ २८ ॥ 30 गत्वा स्नानगृहे स्नानं, पानीयैः पावनैरथ । चकार सगरो गङ्गास्रोतसीवेन्द्रकुञ्जरः ॥ २९ ॥
रत्नस्तम्भ इवोन्मुष्टदेहो दिव्येन वाससा । पर्यधाद् वसुधाधीशो, विशदे दिव्यवाससी ॥ ३० ॥ गोशीर्षचन्दनरसैरच्छर्योत्स्नारसैरिव । अङ्गरागं नरपतेर्विदधुर्गन्धकारिकाः ॥ ३१ ॥ अलङ्कारानलञ्चक्रे, स्वाङ्गसङ्गेन भूपतिः । प्रयान्ति ह्युत्तमस्थाने, भूषणान्यपि भूष्यताम् ॥ ३२ ॥
१ सुवर्णमयधारम् । २ रनविशेषः । ३ द्वादशतूर्यशब्दोपेतम् । ४ सम्मुखगमनम् । ५ सूर्यतुल्यम् । ६ हस्तशृतमयूरपिच्छमार्जनिकः । ७ हस्तिपकः। ८ सुप्तोत्थितम् । ५ अष्टदिन्जयलक्ष्मीणाम् ।
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चतुर्थः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२१५ राजा मुहूर्ते मङ्गल्ये, पुरोधाकृतमङ्गलः । दिग्यात्रायै गजरत्नमालरोहाऽसिरत्नभृत् ॥ ३३ ॥ अश्वरतं समारुह्य, दण्डरत्नं च पाणिना । विभ्रत् सेनापती रत्नं, प्रतस्थे भूपतेः पुरः ॥ ३४ ॥ सर्वोपद्रवनीहारहरणे दिनरत्नवत् । पुरोधोरत्नमवनीनाथेन सह चाऽचलत् ।। ३५ ॥ भोज्यदानक्षमः सैन्ये, प्रत्यावासं गृहाधिपः । सहाञ्चलचित्ररसकल्पद्रुरिव जङ्गमः ॥ ३६ ॥ सद्यः पुरादिनिर्माणालङ्कर्मीणपराक्रमः । सहाऽगाद् विश्वकर्मेव, रत्नभूतोऽस्य वर्धकिः ॥ ३७॥ विस्तारिणी करस्पर्शाद्, रत्ने च च्छत्र-चर्मणी । अनुकूलानिलस्पर्शादभ्रवत् सह चेलतुः ॥३८॥ रले च मणि-काकिण्यौ, तमिस्रक्षपणक्षमे । सहेयतुर्लघूभूती, जम्बूद्वीपरवी इव ॥ ३९ ॥ बहुदासीपरीवारं, स्त्रीराज्यत इवाऽऽगतम् । अन्तःपुरं सहाऽचालीद्, देहच्छायेव चक्रिणः॥४०॥ ककुभो द्योतयद् दूरादूरीकृतककुब्जयम् । पुरोगात् प्रामुखं चक्रं, प्रताप इव भूपतेः ॥४१॥ पुष्करावर्तकाम्भोदघटानिनदसोदरैः । यात्रातूर्यनिनादैदिग्गजानुत्कर्णतालयन् ॥ ४२॥ चक्र विक्रममाणाश्वखुरोत्खातैश्च पांसुभिः । एकीकुर्वन् द्यावा-भूमी, द्राक् सम्पुटपुटाविव ॥४३॥ स्थ-द्विप-ध्वजाग्रस्थपाठीन-मकरादिभिः । विदधानः सयादस्कमिव व्योममहार्णवम् ॥ ४४ ॥ सप्तधाप्रक्षरदानजलासारविराजिभिः । मतङ्गजघटास्तोमैर्दुर्दिनं दर्शयन्निव ॥ ४५ ॥ उत्साहादुत्प्लवमानामिवाऽध्यारुरुक्षुभिः । पदातिभिः कोटिसङ्घयैस्तिरयन्नमितो भुवम् ॥ ४६॥ अविषयप्रतापेन, सर्वत्राऽकुण्ठशक्तिना । सेनान्येव पुरोगेण, चक्ररत्नेन राजितः॥४७॥
15 सेनान्या दण्डरत्नेन, स्थलादिस्थपुटोमपि । मतेनेव क्षेत्रमहीं, वसुधां कारयन् समाम् ॥४८॥ एकयोजनमानेन, प्रयाणेन दिने दिने । भद्रद्विप इवाऽध्वानमात्रामन् गतिलीलया ॥४९॥ दिनैः कतिपयैः प्राच्या, तुल्यः प्राचीनबर्हिषा । गङ्गामुखैकतिलकं, मागधक्षेत्रमासदत् ॥५०॥
॥ नवभिः कुलकम् ॥ अभ्रंलिहेमशालाभिर्विशालाभिरनेकशः। महागुहासोदराभिर्मन्दुराभिः सहस्रशः॥५१॥
20 विमानमानिभिर्हम्घ मन्यैश्च मण्डपैः । अझैः समानसंस्थानैरेकविम्बकृतैरिव ॥५२॥ शृङ्गाटकादिरचनाराजिराजपथस्थितिम् । नवयोजनविस्तार, दैर्य द्वादशयोजनम् ॥ ५३॥ स्कन्धावारं चक्रभृतः, सगरस्याऽऽज्ञया ततः । चकार वर्धकीरनं, विनीताया इवाऽनुजम् ॥ ५४ ॥
॥ चतुर्मिः कलापकम् ॥ तत्र पौषधशालायां, चक्रेऽष्टमतपस्ततः । मागधतीर्थकुमार, कृत्वा मनसि भूपतिः ॥ ५५॥ स मुक्ताशेषनेपथ्यः, कुशसंस्तरसंश्रयः । मुक्तशस्त्रो ब्रह्मचारी, प्रतिजाग्रदवास्थित ॥५६॥ महीपतिः परिणमत्यष्टमे च तपस्यथ । निर्गत्य पौषधगृहात् , सनौ पुण्येन वारिणा ॥ ५७ ॥ सपाण्डुरध्वज-च्छत्रं, नानाप्रहरणाकुलम् । सहडिण्डीर-यादस्कमधिपं सरितामिव ॥ ५८॥ दिव्यघण्टाचतुष्केण, लम्बमानेन पार्श्वतः । चन्द्रा-ऽऽदित्यचतुष्केण, सुमेरुमिव शोभितम् ।। ५९ ॥ उच्चैरुच्चैःश्रवकल्पैरश्वैरुद्धरकन्धरैः । सनाथं पृथिवीनाथोऽध्यारोह महारथम् ॥६०॥
30
॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ सेनया हस्त्यश्व-रथ-पदातिचतुरङ्गया। विराजमानो नीत्येव, खया चतुरुपायया ॥६१॥ राजश्छत्रेण शिरसि, चामराभ्यां च पार्श्वतः । जगत्रयव्यापियशोवल्लीकन्दैरिव त्रिभिः ॥१२॥ आततज्यधनुःपाणिः, सगरः सागरं ततः । रथचक्रनाभिदनं,जलं यावदगाहत ॥ ६३॥
हिमम् । २ सूर्यवत्। * ०र्णतां नयन् सझ३ मत्स्यविशेषः । ४ छादयन् । ५ विषमाम् । इन्ग्रेण । अबशालाभिः। समानाकृतिभिः। ९ पूर्णे सति । १०समुद्रफेनजलचरजन्तुसहितम् । राजनीत्या सामदामदण्डमेदरूपवारा ।
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२१६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ द्वितीय पर्व जयश्रीनाटिकानान्दी, पाणिना ज्यामवीवदत् । निषङ्गाच्च चकर्षे, राजा रत्नं निधेरिव ॥ ६४ ॥ निदधे च धनुर्मध्ये, तमिपुं पृथिवीपतिः । धातकीखण्डमध्यस्थेष्वाकाराद्रिविडम्बकम् ॥ ६५ ॥ आचकर्षे तमाकर्ण, यान्तं कर्णावतंसताम् । काञ्चनं निजनामाई, भूपति णमुल्वणम् ॥ ६६ ॥
सूत्कारिपक्षमुखरं, नवं ताक्ष्यमिवाम्बरे । अधिमागधतीर्थेशं, विससर्ज शरं नृपः ॥ ६७॥ 5 योजनानि द्वादशाब्धेः, समुल्लङ्य निमेषतः । मागधतीर्थकुमारसभायां निपपात सः॥ ६८॥
तडिद्दण्डमिवाऽकाण्डे, काण्डं तं प्रेक्ष्य तत्क्षणात् । चुकोप मागधपतिर्भृकुटीमङ्गभीषणः ॥६९ ॥ किश्चिद् विमृश्य तं शरमुत्थाय स्वयमाददे । तत्रेक्षाश्चक्रे सगरचक्रिनामाक्षराणि च ॥ ७० ॥ आसाश्चक्रे धृतशरो, भूयः सिंहासने निजे । गिरा गम्भीरया स्वस्थां, पर्षयेवमुवाच च ॥ ७१ ॥
द्वीपस्य जम्बूद्वीपस्य, क्षेत्रे भरतनामनि । द्वितीयश्चक्रभृजज्ञे, सगरो नाम सम्प्रति ॥ ७२ ॥ 10 अवश्यकृत्यं भूतानां, भाविनां च संतां तथा । मागधाधिपतीनां हि, प्राभृतं चक्रवर्तिषु ॥७३॥
स इत्युदीर्य निभृतं, प्राभृतैर्भूतकायितः । उपतस्थे सविनयः, सगरं चक्रवर्तिनम् ॥ ७४ ॥ तं शरं हार-केयूर-ताडक-कटकादिकम् । नेपथ्यं देवदूष्याणि, राज्ञेऽदात् स नमःस्थितः॥७५ ॥ अम्भो मागधतीर्थीयं, स मागधकुमारकः । नरेन्द्रस्याऽर्पयामास, रसेन्द्रमिव वार्तिकः ॥ ७६ ॥
अञ्जलिं रचयित्वोच्चैः, पद्मकोशविडम्बकम् । उवाच मागधपतिर्वसुधाधिपतिं ततः ॥ ७७ ॥ 15 एतसिन् भरतक्षेत्रे, प्राच्यां दिशि तवाऽस्म्यहम् । प्रान्तव]कसामन्त, इवाऽऽदेशकरः सदा ॥ ७८ ॥
भृत्यत्वेन प्रतीयेष, ततस्तमवनीपतिः । विससर्ज च सत्कृत्य, दुर्गपालमिव स्वकम् ॥ ७९ ॥ उदयन्निव मार्तण्डः, सगरः सागराम्भसः । निर्जगाम निजेनोचै, रुन्धानस्तेजसा दिशः॥८॥ गत्वा च शिबिरं स्नान-देवार्चनपुरःसरम् । विदधे सपरीवारः, पारणं राजवारणः ॥ ८१ ॥
अथ मागधतीर्थाधिपतेरष्टाह्निकोत्सवम् । चक्रे चक्री स्वामिदत्तमाहात्म्याः खलु सेवकाः ॥ ८२ ॥ 20 सर्वदिग्विजयश्रीणामर्पणप्रतिभूसमम् । चक्ररत्नं चक्रिणोऽथ, प्रतस्थे दक्षिणां प्रति ॥ ८३॥
अपाक्पश्चिममार्गेण, चक्री चक्रानुगस्ततः । प्रचचालाऽचलां सैन्यैः, साचलां चलयन्निव ॥ ८४ ॥ कानप्युन्मूलयन् राज्ञस्तरूनिव समीरणः । शालिस्तम्बानिवोत्खाय, कानपि प्रतिरोपयन् ॥ ८५ ॥ नवानारोपयन् कांश्चित् , कीर्तिस्तम्भानिवोच्चकैः । कांश्चिन्मुञ्चन् नमयित्वा, नद्योघो वेतसानिव ॥ ८६ ॥ कुर्वन् कृत्ताङ्गुलीन् कांश्चित् , कांश्चिद् रत्नानि दण्डयन् । हस्त्यश्वं त्याजयन् कांश्चित,कांश्चिच्छत्राणि मोचयन्।। क्रमादासादयामास, रोधो दक्षिणवारिधः । सर्वदिग्जयनिर्माणे, सगरो दृढसङ्गरः ॥ ८८॥* अवतीर्य करिस्कन्धात् , स्कन्धावारे क्षणात् कृते । विमाने वज्रभृदिवोवास वेश्मनि चक्रभृत् ॥ ८९॥ तत्र पौषधशालायां, कृताष्टमतपा नृपः । उद्दिश्य वरदामानं, तस्थौ स्वीकृतपौषधः ॥९॥ सगरोऽष्टमभक्तस्य, प्रान्ते पारितपौषधः । आच्छिन्नमिव मार्तण्डादारुरोह महारथम् ॥ ९१ ॥
नाभिदनो रथो यावदगाहत महोदधिम् । रथेन सगरस्तेन, मथेव दधिमन्थनीम् ॥ ९२ ॥ 30 अधिरोप्य धनुर्मूर्ध्नि, ज्यां टङ्कारमकारयत् । आकर्ण्यमानं न्यत्कर्णैर्यादोभित्रासविह्वलैः ॥ ९३ ॥
अथेषुमिपुंधेर्मध्याद्, भीषणेभ्योऽपि भीषणम् । अग्रहीदवनीनाथो, वॉर्तिकोऽहिं बिलादिव ॥१४॥ विधाय लँस्तकन्यस्तं, तं कर्णाभ्यर्णमानयत् । विज्ञप्तिकार्थिनमिव, सेवकं सायकं नृपः ॥९५॥ वरदामपतेधाम, प्रतीषु विससजे तम् । चक्रभृद् वज्रभृदिव, वज्रं प्रति शिलोचयम् ॥ ९६ ॥
वादयामास । २ तूणीरात् । ३ वर्तमानानाम् । ४ भृत्य इवाचरितः। ५ सिद्धरसम् । ६ सिद्धपुरुषः। साक्षी। वसुधाम् । ९पर्वतसहिताम् । १० छिन्नाङ्गुलीन् । ११ दृढप्रतिज्ञः । * इतोऽने चतुर्भिः कलापकम् इति सङ्घ३॥१२ इन्द्रः। १३ गृहीतम् । १४ तूणीरस्य । १५ गारुडिकः। १६ धनुर्मध्यदेशः। १७ विज्ञापनाचिकीर्षुम् ।
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चतुर्थः सर्गः ]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
वरदामकुमारस्य, सभायां तस्थुषः पुरः । निपपात शरोऽकाण्डमुद्गराघातसन्निभः ॥ ९७ ॥ अकाले कस्य कालेनोत्क्षिप्तं पत्रमिति ब्रुवन् । वरदामपतिर्बाणमुत्थाय स्वयमाददे ॥ ९८ ॥ दृष्ट्वा सगरराजस्य, तत्र नामाक्षराणि सः । शशाम नागदमनीमवलोक्येव पन्नगः ॥ ९९ ॥ आख्यच्च पर्षदे स्वस्यै, जम्बूद्वीपस्य भारते । चक्रभृत् सगरो नाम, द्वितीय उदपद्यत ॥ १०० ॥ वस्त्रैश्वित्रैर्महामूल्यै, रत्नालङ्करणैरपि । ततश्च पूजनीयोऽयं, देवतेव गृहागतः ।। १०१ ।। सोऽभिधायैवमुपदेामुपादाय च सत्वरम् । उपतस्थेऽन्तरिक्षस्थो, रथस्थं पृथिवीपतिम् ॥ १०२ ॥ किरीट- रत्न- मुक्तास्रकेयूर-कटकादि सः । कोशागारिकवद् राज्ञेऽर्पयामास शरं च तम् ॥ १०३ ॥ वरदामाधिपोऽथैवमूचे स्थास्याम्यतः परम् । तवाऽऽदेशकरः शक्रदेश्यदेशे निजेऽपि हि ॥ १०४ ॥ तत्प्राभृतमुपादाय तद्वचः प्रतिपद्य च । तं सत्कृत्य च कृत्यज्ञो, विससर्ज महीपतिः ।। १०५ ॥ ततश्च ववले चक्री, चक्रमार्गानुगस्तथा । हेषमाणस्यन्दनाश्रो, जलवाजिविलोकनात् ॥ १०६ ॥ स्कन्धावारमुपेत्याऽथ, स रथादवरुह्य च । स्नात्वा कृत्वा जिनाच च चकाराऽष्टमपारणम् ।। १०७ ॥ वरदामकुमारस्योद्दाममष्टाहिकोत्सवम् । चकार सगरो भक्तेष्वीशा हि प्रतिपत्तिदाः ॥ १०८ ॥
ततः प्रतस्थे पृथ्वीशचक्ररत्नपथानुगः । पश्चिमाभिमुखं मुष्णन्नुष्णांशुं सैन्यरेणुभिः ।। १०९ ।। पन्नगानिव पक्षीन्द्रो, द्रविडान् द्रावयन् द्रुतम् । तेजसाऽन्धान्धीकुर्वन्नुलूकानिव भास्करः ॥ ११० ॥ त्याजयन् राज्यलिङ्गानि, त्रिँकलिङ्गैरसनिव । कुर्वन् विदर्भान् निःसवान, दर्भसंस्तरणानिव ।। १११ ।। 15 त्यक्तराष्ट्रान् महाराष्ट्रान् कुर्वन् कर्पटिकानिव । कुर्वाणः कौङ्कणान् वाणैरङ्कितांस्तुरगानिव ॥ ११२ ॥ ललाटस्थाञ्जलींल्लादान्, घटयन् सातपानिव । विष्वक् सङ्कोचयन् कच्छानतुच्छान् कच्छपानिव ॥११३॥ सुराष्ट्रान् नांष्ट्रवत् क्रूरान् विदधानो वशंवदान् । पश्चिमाम्भोनिधे रोधः क्रमेण प्राप पार्थिवः ॥ ११४ ॥ ॥ पञ्चभिः कुलकम् ॥ स्कन्धावारमधिष्ठाय, प्रभासमधिकृत्य सः । कृताष्टमोऽथ जग्राह, पौषधं पौषधौकसि ॥ ११५ ॥ अष्टमान्ते रविरिवाऽऽरुह्य राजा महारथम् । नाभिदघ्नं जलं यावज्जगाहे लवणोदधिम् ॥ ११६ ॥ तत्राधिज्यं धनुः कृत्वा, ज्यानिर्घोषं ततान सः । बाणप्रयाणकल्याणजयातोद्यरवोपमम् ॥ ११७ ॥ अधिप्रभासतीर्थेशनिवासमथ सायकम् । खनामाङ्कं स सन्देशहरं दूतमिवाऽमुचत् ॥ ११८ ॥ अन्ते द्वादशयोजन्याः, प्रभाससुरसद्मनि । स तत्र न्यपतत् पंत्री, पतंत्रीव महाद्रुमे ॥ ११९ ॥ सोऽपि तं पत्रिणं प्रेक्ष्य, प्रेक्षापूर्वकृतां वरः । अवाचयत् तत्र नामवर्णान् सगरचक्रिणः ।। १२० ।। उपात्तोपायनः सोऽथ, तमुपादाय सायकम् । भक्त्याऽतिथिं गुरुमिवाऽभ्यागमत् सगरं नृपम् ॥ १२१ ॥ चूडामणि निष्कोरस्के, कटकान् कटिसूत्रकम् | केयूरे चाऽऽर्पयद् राज्ञे, तं चेषु स नभः स्थितः ॥ १२२ ॥ स विनीतो विनीतेशमित्यूचे विषयेऽत्र हि । चक्रवर्तिस्त्वदादेशवर्ती वत्स्याम्यतः परम् ॥ १२३ ॥ उपायनमुपादाय, समालप्य च सादरम् । विससर्जाऽऽयुक्तमिव, प्रभासं भूमिवासवः ॥ १२४ ॥ सगरः शिबिरं गत्वा, स्नात्वा कृतजिनार्चनः । चकाराऽष्टमभक्तान्ते, पारणं सपरिच्छदः ॥ १२५ ॥ प्रभासतीर्थाधिपतेर्वरदामपतेरिव । अष्टाह्निकोत्सवं चक्रे, प्रीतो वसुमतीपतिः ।। १२६ ॥
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अनुचक्रं ततश्चक्री, सिन्धोर्दक्षिणरोधसा । प्रतीपगामिसिन्ध्वेव सेनया प्राङ्मुखो ययौ ॥ १२७ ॥ सिन्धुदेवसद्मनश्चाऽदूरतः शिविरं न्यधात् । सद्योऽवतीर्णगन्धर्वपुरोपममिलापतिः ॥ १२८ ॥ सिन्धुदेवीं च मनसि कृत्वाऽष्टमतपो नृपः । चकार सिन्धुदेव्याश्व, रत्नासनमकम्पत ॥ १२९ ॥
भिक्षुकानिव ।
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१ ओषधिभेदः । २ प्राभृतम् । ३ इन्द्रददेशे । ४ गौरवकारिणः । ५ सूर्यम् । ६ देशविशेषैः । ८ राक्षसवत् । ९ शरः । १० पक्षीव । ११ भृत्यमिव ।
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२१८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीयं पर्व विदाकाराऽवधिना, सा च चक्रिणमागतम् । उपायनकरा भक्तिपराऽथ तमुपाययौ ॥ १३०॥ अष्टोत्तरं रत्नकुम्भसहस्रं निधिसोदरम् । मणि रत्नविचित्रं च, स्वर्णभद्रासनद्वयम् ॥ १३१ ॥ केयूर-कटकादीनि, रत्नालङ्करणानि च । देवदूष्याणि च ददौ, भूभुजे सा नभस्थिता ॥ १३२॥ युग्मम् ॥ इत्यभाषिष्ट सा देवी, नरदेववराऽधुना । भवद्विषयवास्तव्या, किङ्करीवाऽसि शाधि माम् ॥ १३३ ॥ अतिपीयूषगण्डूषैर्वचोभिः प्रतिभाष्य ताम् । विससर्ज महीनाथश्चक्रे चाऽष्टमपारणम् ॥ १३४ ॥ विदधे सिन्धुदेव्याच, प्राग्वदष्टाह्निकोत्सवम् । महात्मनां महीनामुत्सवा हि पदे पदे ॥ १३५ ॥
चक्रमायुधशालायाः, स्वशालाया इव द्विपः । निर्जगाम श्रियां धाम, ककुभोत्तरपूर्वया ॥ १३६ ॥ नृपस्तदनुगच्छंश्च, दिनैः कतिपयैरपि । नितम्ब दक्षिणं प्राप, वैताट्यस्य महागिरेः ॥१३७ ॥
निधाय तत्र शिबिरं, विद्याधरपुरोपमम् । अधिवैतात्यकुमारं, सोऽष्टमं विदधे तपः ॥ १३८ ॥ 10 महीपतेः परिणमत्यष्टमे च तपस्यथ । वैताठ्याद्रिकुमारस्य, सिंहासनमकम्पत ॥ १३९ ॥
वैताठ्याद्रिकुमारोऽपि, बुबुधेऽवधिना ततः। भरतार्धावधावभ्युपेतं सगरचक्रिणम् ॥ १४० ॥ सोऽभ्येत्य राज्ञे रत्नानि, दिव्यानि वसनानि च । ददौ नमास्थितो भद्रासन-वीरासनानि च ॥ १४१ ॥ चिरं जीव चिरं नन्द, चिरं जय जयेति च । सौवस्तिक इव माऽऽह, स हृष्टः पृथिवीपतिम् ॥१४२ ॥ खं बान्धवमिवाऽभीष्टं, तमाभाष्य सगौरवम् । सगरो विससर्जाऽथ, चकाराऽष्टमपारणम् ॥ १४३ ॥ वैताख्याद्रिकुमारस्य, चक्रे चाऽष्टाह्निकोत्सवम् । निजप्रसादप्रासादसुवर्णकलसोपमम् ॥ १४४ ॥
ततश्चक्रानुगो गत्वा, तमिस्रा निकषा गुहाम् । पञ्चानन इवोवास, निधाय शिबिरं नृपः ॥ १४५ ।। कृतमालाभिधं तत्र, देवं मनसिकृत्य सः । चक्रेऽष्टमतपः कृत्यं, महान्तो न त्यजन्ति हि ॥ १४६ ॥ राज्ञोऽष्टमे परिणमत्यकम्पत तदासनम् । तादृशामभियोगे हि, कम्पन्ते पर्वता अपि ॥ १४७ ॥
ज्ञात्वाऽवधिप्रयोगेण, कृतमालोऽपि चक्रिणम् । उपस्थितं प्रभुमिवोपतस्थे गगनस्थितः ॥ १४८ ॥ 20 स्त्रीरत्नयोग्यं तिलकचतुर्दशमदत्त सः । नेपथ्यजातं वस्त्राणि, गन्ध-चूर्ण-स्रगादि च ॥ १४९ ॥
देवो जय जयेत्युक्त्वा, स सेवा प्रत्यपद्यत । सेवनीयाश्चक्रिणो हि, देवैरपि नरैरिव ॥ १५०॥ प्रसादपूर्वमालप्य, नृपतिर्विससर्ज तम् । चक्रे च सपरीवारोऽष्टममक्तान्तपारणम् ॥ १५१ ॥ देवस्य कृतमालस्य, सादरः सगरस्ततः । अष्टाह्निकोत्सवं चक्रे, देवानां प्रीतिदं यदः ॥१५२ ॥
अष्टाह्निकान्ते सगरः, पश्चिमं सिन्धुनिष्कुटम् । *विजेतुमर्धसैन्येन, सैन्यनाथं समादिशत् ॥१५३॥ 25 अथ तन्मेदिनीभर्तुः, शासनं रचिताञ्जलिः। शिरसा प्रतिजग्राह, मालामिव चमूपतिः ॥ १५४ ॥
विख्यातो भारते वर्षे, महाबल-पराक्रमः । नभस्त्रानिव विवेवानिव चोग्रेण तेजसा ॥ १५५ ॥ समस्तम्लेच्छभाषाज्ञः, समस्तलिपिपण्डितः । विचित्रचारुभाषी च, सरखत्या इवाऽऽत्मजः ॥ १५६ ॥ निष्कुटानामशेषाणां, भरतक्षेत्रवर्तिनाम् । जल-स्थलजदुर्गाणां, विज्ञाताऽऽगम-निर्गमौ ॥ १५७ ॥ अत्रवेदः शरीरीव, सर्वायुधविचक्षणः । कृतस्नानः कृतप्रायश्चित्त-कौतुकमङ्गलः ॥ १५८॥ सितपक्ष इव स्वल्पनक्षत्रमणिभूषणः । शरासनधरो धीरः, सेन्द्रचाप इवाम्बुदः ॥१५९ ॥ सविद्रुमवितानोऽब्धिरिव चर्माख्यरत्नभृत् । सरोवत् पुण्डरीकेणोद्दण्डेनोपरि शोभितः ॥१६॥ भांश्चामराभ्यां श्रीखण्डस्थासकाम्यामिवांसयोः। तूर्यनादैनादयन् यां, स्तनितैरिव वारिदः॥ १६१ ॥ सैन्येन चतुरङ्गेण, सेनानीः परिवारितः । आरुह्येभवरं सिन्धुप्रवाहाभ्यर्णमाययौ ॥ १६२ ॥
॥ अष्टभिः कुलकम् ॥ त्वद्देशवासिनी । २ दिशया । ३ पूर्णे। ४ भरतार्धस्य सीमनि । ५ स्वस्तिवाचको द्विजः। ६ उद्योगे। ७ स्वीकृतवान् । * निर्जेतु सङ्घ २॥ ८ वायुः। ५ सूर्यः। १. धनुर्वेदः। ११ शुक्लपक्षः। १२ शोभमानः ।
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चतुर्थः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२१९ अथ पस्पर्श सेनानीश्चर्मरत्नं स्वपाणिना । तदन्तःसिन्धु ववृधे, नावाकारं बभूव च ॥ १६३॥ तेनोत्ततार तां सिन्धु, सह चम्वा चमूपतिः । अपारमिव संसार, योगीन्द्रो योगलीलया ।। १६४ ॥ सिन्धुतीरादथ स्तम्भादिव मत्तमतङ्गजः । प्रससार महासारोऽस्खलितं पृतनापतिः ॥ १६५ ॥ सिंहलकान् बर्बरकांष्टङ्कणानितरानपि । द्वीपं च यवनद्वीपमाचक्राम चमूपतिः ॥ १६६ ॥ कालमुखान् जोनकांच, तथा वैताव्यसंश्रिताः। नानाविधा म्लेच्छजातीः, स स्वच्छन्दमदण्डयत् ॥१६७ 5 समस्तदेशप्रवरं, कच्छदेशं च लीलया । महोक्ष इव सेनानीरुपदुद्राव विक्रमी ॥ १६८ ॥ तदन्तात् प्रतिनिवृत्य, तस्यैवोर्वीतले समे । अवतस्थे चमूनाथोऽम्भ क्रीडोत्तीर्णहस्तिवत् ॥ १६९ ॥ म्लेच्छा मडम्ब-नगर-ग्रामादीनामधीश्वराः । तं तत्रेयुः सर्वतोऽपि, पाशाकृष्टा इव द्रुतम् ॥ १७० ॥ भूषणानि विचित्राणि, रत्नानि वसनानि च । रजतं च सुवर्णं च, तुरङ्गान् कुञ्जरानपि ॥ १७१॥ स्पन्दनान्यन्यदपि यत्, प्रकृष्टं वस्तु किश्चन । सेनान्ये तदुपनिन्युासार्पितमिवाऽथ ते ॥ १७२ ॥ 10
॥युग्मम् ॥ कुटुम्बिका इव वयं, करदा वशगाश्च वः । स्थास्यामोत्रेति सेनान्यं, ते बद्धाञ्जलयोऽवदन् ॥ १७३ ।। तत्प्राभृतमुपादाय, व्यसृजत् तांश्चमूपतिः। एत्योत्ततार सिन्धुं च, चर्मरत्नेन पूर्ववत् ॥ १७४ ॥ गत्वोपनिन्ये तत्सर्व, सगराय स भूजे । कष्टावेव इवाऽऽयान्ति, शक्त्या शक्तिमतां श्रियः ॥ १७५॥ दूरदूरादेत्य भूपैः, सरिद्भिरिव सागरः । उपास्यमानः सगरस्तत्राऽस्थाच्छिबिरे चिरम् ॥ १७६ ॥ 15
तमिस्रादक्षिणद्वारकपाटोद्घाटनाय सः । सेनान्यमन्यदाऽऽदिक्षद्, बिभ्राणं दण्डकुश्चिकाम् ॥१७७॥ स गत्वोपतमिस्र च, कृतमालामरं प्रति । चक्रेऽष्टमतपः प्रायस्तपोग्राह्या हि देवताः ॥ १७८ ॥ अष्टमान्ते कृतस्नानः, शुचिवस्त्रविलेपनः । उपात्तधूपदहनोऽगाद् गुहां देवतामिव ॥ १७९ ॥ कृत्वा प्रणाममालोकमात्रेऽपि पृतनापतिः । तस्या द्वारे द्वाःस्थ इव, दण्डपाणिरवास्थित ॥ १८०॥ विधायाऽष्टाह्निका तस्या, लिखित्वा चाऽष्टमङ्गलीम् । दण्डरत्नेन सेनानीस्तत्कपाटावताडयत् ॥ १८१॥ 20 सैरत्सरिति संरावं, कुर्वाणौ तत्क्षणादथ । व्यघटेतां तत्कपाटौ, शुष्कशिम्बापुटाविव ॥ १८२ ॥ कपाटोद्घाटनं तच्च, शशंस सगराय सः । सरत्सरिति निर्घोषकथितं पुनरुक्तवत् ॥ १८३ ।। हस्तिरत्नं समारुह्य, चतुरङ्गचमूवृतः। दिक्पालानामेकतम, इव तत्राऽऽययौ नृपः ॥ १८४ ॥ निदधे दक्षिणे कुम्मे, कुम्भिरत्नस्य भूपतिः । मणिरत्नं मल्लिकायां, प्रदीपमिव भासुरम् ॥ १८५ ॥ ततश्चक्रानुगश्चक्री, केसरीवास्खलद्गतिः । पञ्चाशद्योजनायामां, तमिस्रां प्राविशद् गुहाम् ॥ १८६ ॥ 25 गोमूत्रिकाक्रमेणाऽथ, गुहाभित्योर्द्वयोरपि । पञ्चधन्वशतीभाञ्जि, विष्कम्भा-ऽऽयाममानयोः॥१८७ ॥ योजनान्तरितान्येकहीनां पञ्चाशतं नृपः । ध्वान्तनाशाय काकिण्या, मण्डलान्यालिखन् ययौ ॥ १८८ ॥ उद्घाटितं गुहाद्वारं, गुहान्तमण्डलानि च । तावत् तान्यपि तिष्ठन्ति, यावजीवति चक्रभृत् ॥ १८९ ॥ मानुषोत्तरसीमस्थचन्द्र-सूर्यपरम्पराम् । विडम्बयद्भिरुयोतो, गुहान्तस्तैरजायत ॥ १९० ॥ निर्यान्त्यौ गुहाप्राग्भित्तेः, प्रत्यग्भित्तेश्च मध्यतः। प्रापोन्मना-निमग्नाख्ये, निम्नंगे सोऽथ सिन्धुगे॥१९१॥30 उन्मनायां विनिक्षिप्ता, प्रोन्मजति शिलापि हि । निमग्नायां पुनः क्षिप्तमलाब्वपि निमजति ॥१९२॥ सद्यो वर्धकिरत्नेन, बद्धया पद्यया च ते । अलङ्घत गृहस्रोतोलीलया सवलो नृपः ॥ १९३ ॥ स क्रमेण तमिस्राया, उत्तरं द्वारमासदत् । व्यघटेतां तत्कपाटे, स्वयमेवाऽजकोशवत् ॥ १९४ ॥ निर्जगाम गुहामध्यादब्धिमध्यादिवाय॒मा । सगरः सपरीवारो, वारणस्कन्धमाश्रितः ॥ १९५ ॥
. सेनापतिः। २ दास्यः । * ° पाणिरिवास्थि सङ्घ १॥ ३ सर सर इतिरूपं शब्दम् । ४ दीपिकायाम् । ५ नयौ । वरति । ७ तुम्बिका । ८ नयौ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ द्वितीयं पर्व
न्यत्कारकारिणं भानोः, सर्वतोऽप्यस्त्रदीप्तिभिः । भूरजोभिः खेचरीणां दृग्निमेषविशेषदम् ॥ १९६ ॥ सैन्यप्राग्भारभारेण, भूमिकम्पविधायिनम् । दिवस्पृथिव्योस्तुमुलध्वानैर्बाधिंर्यदायिनम् ॥ १९७ ॥ अप्यकाण्डे काण्डपटमध्यादिव विनिर्गतम् । नभस्तलादिवाऽऽयातं, पातालादिव चोत्थितम् ॥ १९८ ॥ अनन्तसैन्यगहनं, पुरवण भीषणम् । सगरं सागरमिवाऽऽपतन्तं प्रेक्ष्य तत्क्षणात् ॥ १९९ ॥ आपाता नाम दुष्पाताः किराता दोर्मदोद्धुराः । सक्रोधं सोपहासं चाऽन्योऽन्यमेवं बभाषिरे ||२००|| ॥ पञ्चभिः कुलकम् ॥ भो भोः सर्वेऽपि दोष्मन्तो, ब्रूत देशेऽत्र सम्प्रति । कोऽप्रार्थित प्रार्थकोऽयं, श्रीहीधीकीर्त्तिवर्जितः ॥ २०९ ॥ निर्लक्षणो वीरमानी, मानेनान्धम्भविष्णुकः । कासरो हा ! प्रविशति, चने केसर्यधिष्ठिते १ ॥ २०२ ॥ ॥ युग्मम् ॥
10 इत्युदीर्य महावीर्या, अग्रानीकमुपाद्रवन् । म्लेच्छराजाश्चक्रपाणेर्वज्रपाणेरिवाऽसुराः ॥ २०३ ॥ नष्टद्विपं हतयं, भग्नाशस्यन्दनं तथा । क्षणात् परावृत्तमिव तदनीकमजायत ॥ २०४ ॥ स्वसैन्यं चत्रिसेनानीः, किरातैः प्रेक्ष्य विद्रुतम् । वैवस्वत इव क्रुद्धोऽध्यारोहद् रत्नवाजिनम् ॥ २०५ ॥ असिरत्नं समाकृष्य, धूमकेतुमिवोद्गतम् । प्रभञ्जन इवौजस्वी, प्रति म्लेच्छमधावत ॥ २०६ ॥ कानप्युन्मूलयामास, निष्पिपेष च कानपि । कानप्यपातयन्म्लेच्छान् स वनेम इव द्रुमान् ॥ २०७ ॥ 15 तेन भग्नाः किरातास्ते, निःस्थामानोऽपचक्रमुः । बहूनि योजनान्याशु, पवनोद्धृततूलवत् ॥ २०८ ॥ दूरे गत्वाse सम्भूय, सिन्धुनद्यास्तटावनौ । वालुकास्त्रस्तरेष्वस्थुरुताना मुक्तवाससः ॥ २०९ ॥ देवान् मेघमुखान् नागकुमारान् कुलदेवताः । उद्दिश्याऽष्टमभक्तानि, जगृहुस्तेऽत्यमर्षणाः ।। २१० ॥ तदष्टमान्ते देवानामासनानि चकम्पिरे । दृशेवाऽवधिनाऽपश्यन्, किरातांस्ते तथास्थितान् ॥ २११ ॥ कृपया पितृवत् तेषामय जातार्त्तयोऽथ ते । तानुपेत्यान्तरिक्षस्थाः प्रोचुर्मेघमुखा इति ॥ २१२ ॥ हे वत्सा ! हेतुना केन, यूयमेवं हि तिष्ठथ : । अविलम्बेन तं श्रुत, यथा वः प्रतिकुर्महे ॥ २१३ ॥ ततः किराता इत्यूचुः कोऽप्यसौ विषयेऽत्र नः । प्राविशद् दुःप्रवेशेऽपि, पयोधाविव वाडवः ॥ २१४ ॥ वयं तेन पराभूता, युष्मान् शरणमाश्रिताः । स यथा याति भूयोऽपि नाऽऽयाति च तथाऽस्तु नः ॥२१५॥ तेऽप्यभ्यधुः सुरा एवं, कृशांनोः शलभा इव । यूयमस्याऽनभिज्ञाः स्थ, तेनेदमभिधत्थ भोः ! ॥ २१६ ॥
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अयं हि सगरो नाम, चक्रवर्ती महाभुजः । सुराणामसुराणां चाऽविजय्यः शक्रविक्रमः || २१७ ॥ शस्त्राऽग्नि- विष-मन्त्राऽम्बु-तत्र - विद्याद्यगोचरः । उपद्रोतुं वज्र इव, न हि केनाऽपि शक्यते ।। २१८ ।। तथापि वोऽनुरोधेन चक्रिणोऽस्य महौजसः । मशकाः कुञ्जरस्येव, करिष्याम उपद्रवम् ॥ २१९ ॥ इत्युदित्वा तिरोभूय, ते मेघवदनाः सुराः । स्कन्धावारोपरि स्थित्वा तेनिरे घोरदुर्दिनम् ॥ २२० ॥ नीरन्ध्रेणान्धकारेणाऽपूर्यन्त केकुभस्तथा । अनुषाऽन्धलवद् रूपं, नोपलेभे यथा जनः ॥ २२९ ॥ धाराभिस्तेऽथ मुसलमानाभिः शिबिरोपरि । सप्तरात्रं प्रववृपुरनिर्विण्णाः समीरवत् ॥ २२२ ॥ अरिष्टवृष्टिमेच्छिन्नां, प्रेक्ष्य तां चक्रवर्त्यपि । स्वयं पाणिसरोजेन, चर्मरत्नं परामृशत् ॥ २२३ ॥ स्कन्धावारप्रमाणेन, ववृधे तत् क्षणादपि । तच्च तिर्यक् समास्तीर्ण, ततार सलिलोपरि ।। २२४ ॥ महापोतमिवाऽऽरोहत्, ससैन्यस्तन्नरेश्वरः । छत्ररत्नं च संस्पृश्याsतनियच्चर्मरत्नवत् ॥ २२५ ॥ चक्रे चर्मोपरि च्छत्रं, सोऽभ्रं भुव इवोपरि । मणिरत्नं न्यधाच्छत्रदण्डान्ते द्योतहेतवे ।। २२६ ॥ छत्र-वर्मान्तरे तस्थौ, तद् राज्ञः शिबिरं सुखम् । असुर-व्यन्तरगण, इव रत्नप्रभान्तरे ।। २२७ ।।
१ तिरस्कारकारिणम् । २ बधिरत्वदायिनम् । ३ दुःखदः पातो येषां ते । ४ महिषः । ५ यमः । ६ वायुरिव । ७ पीडया । ८ भनेः । ९ दिशः । १० जन्मान्धवत् । ११ मुसलप्रमाणाभिः । १२ अखण्डाम् । १३ परस्पर्श । १४ विस्तारितम् । १५ विस्तारयामास ।
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चतुर्थः सर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२२१ सर्वधान्यानि शाकांश्च, फलादि च गृहाधिपः । प्रातरुत्वा ददौ सायं, रत्नमाहात्म्यमीदृशम् ।। २२८ ॥ अखण्डिताभिर्धाराभिर्वर्षति स निरन्तरम् । तथैव ते मेघमुखा, दुर्वाग्भिरिव दुर्मुखाः ॥ २२९ ॥ क एते मामुपद्रोतुं, प्रवृत्ता हन्त ! दुर्धियः । एवं सकोपः सगरश्चिन्तयामास चेतसि ॥ २३० ॥ सान्निध्यकारिदेवानां, सहस्राः षोडशापि ते । कुपिता वर्मिताः सास्त्रास्तानुपेत्यैवमभ्यधुः ॥ २३१ ॥ अरे वराकाः! किमिमं, सगरं चक्रवर्तिनम् । देवादीनामप्यजय्यं, न जानीथाऽल्पमेधसः ? ॥२३२॥ 5 अपसर्पत तत् तूर्णं, चेदात्मकुशलेच्छवः । अन्यथा खण्डयिष्यामो, युष्मान् कूष्माण्डवद् वयम् ॥ २३३॥ इत्युक्तास्तैर्मेघमुखा, मेघान् संहृत्य तत्क्षणम् । प्रस्तास्तिरोदधुः क्वापि, शंफरा इव वारिणि ॥ २३४ ॥ तदापातकिरातानां, गत्वा मेघमुखाः सुराः । आदिशंश्चक्रवर्येष, न जय्योऽस्मादृशामिति ॥२३५ ॥ ततः किरातास्ते भीताः, स्त्रीवत् परिहितांशुकाः । रत्नोपायनमादाय, सगरं शरणं ययुः ॥२३६॥ पतित्वा पादयोश्चक्रवर्तिनो वशवर्तिनः । आवद्धाञ्जलयो मूर्भि, ते किराता व्यजिज्ञपन् ॥ २३७॥ 10 खामिन्नसाभिरज्ञानात्, त्यां प्रतीदमनुष्ठितम् । शैरभैः प्रति पर्जन्यं, फालकमॆव दुर्मदैः ॥ २३८ ॥ अविमृश्यविधायित्वं, तत् तितिक्षख नः प्रभो। प्रणिपातावसानो हि, कोपाटोपो महात्मनाम् ॥२३९॥ कुटुम्बिनः पत्तयो वा, सामन्ता वा त्वदाज्ञया । अतः परं भविष्यामस्त्वदधीना हि नः स्थितिः ॥२४०॥ चत्र्यप्युवाच तानेवं, मदीयीभूय तिष्ठत । अपारभरतवर्षार्धसामन्ता इव दण्डदाः॥ २४१॥ एवमालप्य सत्कृत्य, किरातान् व्यसृजन्नृपः । सेनान्यं चाऽऽदिशजेतुं, सिन्धोः पश्चिमनिष्कुटम्॥२४२।। 15
चर्मणा पूर्ववत् सिन्धुमुत्तीर्य पृतनापतिः । गिरि-सागरमर्यादानजयत् सिन्धुनिष्कुटान् ॥ २४३ ॥ म्लेच्छानां दण्डमादाय, दण्डेशश्चण्डविक्रमः । आययौ सगरं वारिसम्पूर्ण इव वारिदः ॥ २४४ ॥ भोगान् विचित्रान् भुञ्जानः, सोऽय॑मानो महीश्वरैः। तत्रैवाऽस्थाचिरं नास्ति, विदेशः कोऽपि दोष्मताम् । __ अन्यदा चक्रिणश्चक्रं, निश्चक्रामाऽऽयुधौकसः । मार्गेणोत्तरपूर्वेण, ग्रीष्मे विम्बमिवोष्णगोः ॥ २४६ ॥ गच्छंश्चक्रानुगो राजा, क्षुद्रस्य हिमवद्गिरेः । नितम्ब दक्षिणं प्राप, दत्तावासोऽध्युवास च ॥ २४७ ॥20 उद्दिश्य क्षुद्रहिमवत्कुमारं तत्र सोऽकरोत् । तपोऽष्टमं पौषधं चोपाददे पौषधौकसि ॥ २४८॥ पौषधान्ते रथारूढोऽगात् क्षुद्रहिमवगिरिम् । जघान च रथाग्रेण, स त्रिर्दन्तेन दन्तिवत् ॥ २४९ ॥ नियम्य तुरगांस्तत्र, कृत्वाऽधिज्यं शरासनम् । निजनामाङ्कितं वाणं, विससर्ज नरेश्वरः ॥ २५०॥ द्वासप्ततिं योजनानि, गत्वा कोशमिव क्षणात् । सोऽपतत् क्षुद्रहिमवत्कुमारस्य पुरो भुवि ॥ २५१॥ क्षणं चुकोप बाणेन, बाणनामाक्षरैः पुनः । क्षणादशाम्यत् स क्षुद्रहिमाचलकुमारकः ॥ २५२ ॥ 25 गोशीर्षचन्दनं सर्वोषधीः पद्महदोदकम् । देवदूष्याणि तं वाणं, रत्नालङ्करणानि च ॥ २५३ ॥ देवेद्रुपुष्पमालाश्चोपनिन्ये सगराय सः । प्रत्यपद्यत सेवां च, जयेत्युक्त्वा नभःस्थितः ॥ २५४ ॥ तं विसृज्य ततो राजा, वालयित्वा निजं रथम् । ययावृषभकूटाद्रिं, त्रिर्जघान तथैव तम् ॥ २५५ ॥ अश्वान् नियम्य काकिण्या, प्राग्भागे तस्य भूभृतः। द्वितीयः सगरश्चक्रीत्यक्षराणि लिलेख सः ॥२५६॥ ततो रथं वालयित्वा, स्कन्धावारमुपेत्य च । विदधेष्टमभक्तान्तपारणं पृथिवीपतिः ॥ २५७॥ 30 हिमाचलकुमारस्य, चक्रेऽथाऽष्टाह्निकोत्सवम् । ऋद्ध्या महत्या सगरः, पूर्णदिग्जयसङ्गरः ॥ २५८॥ __ मार्गेणोत्तरपूर्वण, चक्ररत्नानुगस्ततः । गङ्गादेवीभवनाभिमुखं सुखमगानृपः॥ २५९ ॥ निदधे शिबिरं गङ्गासमनोऽनतिदूरतः । विदधेऽष्टमभक्तं च, गङ्गामुद्दिश्य भूपतिः ॥ २६० ॥ सिन्धुदेवीव गङ्गापि, विज्ञायाऽऽसनकम्पतः । उपतस्थेऽन्तरिक्षस्थाऽष्टमान्ते चक्रवर्तिनम् ॥ २६१॥ सहस्रं रत्नकुम्भानामष्टोत्तरमदत्त च । स्वर्ण-माणिक्यचित्रं च, रत्नसिंहासनद्वयम् ॥ २६२ ॥ 35
१ अस्त्रसहिताः। २ मत्स्याः । ३ अष्टापदैः। ४ सूर्यस्य। ५कल्पवृक्षपुष्पमालाः। ६ प्रतिज्ञा।
त्रिषष्टि. २९
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२२२ कलिकालसर्मनश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीय पर्व विसृज्य गङ्गां सगरो, विदधेऽष्टमपारणम् । अष्टाह्निकोत्सवं चाऽस्याः, प्रीतये प्रीतमानसः ॥ २६३ ॥
चक्रादिष्टेन मार्गेण, दिशा दक्षिणया ततः । सोऽखण्डविक्रमः खण्डप्रपाताभिमुखं ययौ ॥२६४॥ आरात् खण्डप्रपातायाः, स्कन्धावारं न्यधत्त सः । नाट्यमालकमुद्दिश्याष्टमभक्तं चकार च ॥२६५।। अष्टमान्ते नाव्यमालो, विज्ञायाऽऽसनकम्पतः। सोपायन उपागच्छद्, ग्रामेश इव भूपतिम् ॥ २६६ ॥ नानाविधानलङ्कारान्, स ददौ चक्रवर्तिनः । प्रत्यपद्यत सेवां च, विनीतो मण्डलेशवत् ॥ २६७ ॥ विसृज्य तं च सगरः, पारणानन्तरं मुदा । अष्टाह्निकां तस्य चक्रे, कृतप्रतिकृतोपमाम् ॥ २६८॥
अथ चक्रधरादेशात, सेनानीरर्धसेनया । सिन्धुनिष्कुटवद् गाङ्गं, प्राग्निष्कुटमसाधयत् ॥ २६९ ॥ वैताढ्यपर्वतश्रेणिद्वयविद्याधरानथ । पर्वतीयानिव नृपान्, सगरस्तरसाऽजयत् ॥ २७० ॥
रत्नालङ्कार-वासांसि, हस्तिनस्तुरगांश्च ते । चक्रनाथस्य ददिरे, सेवां च प्रतिपेदिरे ॥ २७१ ॥ 10 विद्याधरान् धराधीशः, सत्कृत्य विससर्ज तान् । तुष्यन्ति हि महीयांसः, सेवामय्या गिराऽपि हि ॥२७२॥
नृपादेशेन सेनानीरष्टमादिपुरःसरम् । तमिस्रावद् गुहां खण्डप्रपातामुदघाटयत् ॥ २७३ ॥ सगरो गजमारुह्य, तत्कुम्भे दक्षिणे मणिम् । मेस्मृङ्ग इवाऽदित्यं, न्यस्य तां प्राविशद् गुहाम् ॥२७४॥ मण्डलान्यालिखन् प्राग्वत्, काकिण्या पार्श्वयोर्द्वयोः । उत्तीर्य प्राग्वदुन्मना-निमग्ने निम्नगे अपि ॥२७५॥ गुहाया मध्यतस्तस्या, अपारद्वारेण भूपतिः । स्वयमुद्घाटितेनाऽथ, नद्योघ इव निर्ययौ ॥ २७६ ॥ गङ्गायाः पश्चिमे कूले, स्कन्धावारं न्यधान्नृपः । उद्दिश्य निधिरत्नानि, विदधे चाऽष्टमं तपः ॥ २७७ ॥ तदन्ते नैसर्प-पाण्डू, पिङ्गालः सर्वरत्नकः। महापद्मः काल-महाकालौ माणव-शङ्खको ॥२७८॥ इत्येते नव निधयः, कृतसन्निधयोऽमरैः । सहस्रसङ्ख्यैः प्रत्येकं, नरेन्द्रमुपतस्थिरे ॥ २७९ ॥ इत्यूचुस्ते वयं गङ्गामुखमागधवासिनः । आगतास्त्वां महाभाग, त्वद्भाग्येन वशीकृताः ॥२८॥
यथाकाममविश्रान्तमुपभुङ्ग प्रयच्छ च । अपि क्षीयेत पाथोऽब्धौ, न तु क्षीयामहे वयम् ॥ २८१ ॥ 20 नैवभिर्यक्षसहस्रैः, किङ्करैरिव तावकैः । आपूर्यमाणाः सततं, चक्राष्टकप्रतिष्ठिताः ॥ २८२ ॥ द्वादशयोजनायामा, नवयोजनविस्तृताः। भूमध्ये सञ्चरिष्यामो, देव ! त्वत्पारिपार्श्विकाः ॥ २८३ ॥
॥चतुर्भिः कलापकम् ॥ तद्वाचमनुमन्याऽथ, भूपतिः कृतपारणः । अष्टाह्निकोत्सवं तेषामकार्षीदातिथेयवत् ।। २८४ ॥
सेनानीः सगरादेशाद्, द्वितीयमपि निष्कुटम् । प्राचीनं जाह्नवीदेव्याः, साधयामास खेटवत् ॥२८५॥ 25 चतुर्भिनिष्कुटैगङ्गा-सिन्ध्वोर्मध्यस्थितेन च । खण्डद्वयेन षदखण्डं, भारतं वर्षमित्यदः ॥ २८६ ॥
द्वात्रिंशताऽब्दसहस्रैः, सगरस्तदशात् सुखम् । अनुत्सुकानां शक्तानां, लीलापूर्वाः प्रवृत्तयः ॥२८॥ चतुर्दशमहारत्नपतिर्नवनिधीश्वरः । द्वात्रिंशता सहस्रैश्च, सेव्यमानो महीभुजाम् ॥ २८८ ॥ जायानां राजपुत्रीणां, वैः सहस्रैः समन्वितः। सहस्रैर्जानपदीनां, स्त्रीणां तावद्भिरन्वितः॥ २८९ ॥
द्वात्रिंशतो जनपदसहस्राणामधीश्वरः । द्वासप्ततेः पुरवरसहस्राणां च शासिता ॥ २९० ॥ 30 एकसहस्रोनद्रोणमुखलक्षस्य चाऽधिपः । पत्तनाष्टचत्वारिंशत्सहस्राणामधीश्वरः ॥ २९१ ॥
कबेटानां मडम्बानां, चतुविशिसहस्रपः । चतुदेशसहरूयाश्च, सम्बाधानामपीश्वरः ॥ २९२ ॥ खेटकानां सहस्राणि, षोडशाऽपि च रक्षिता । तथाऽऽकरसहस्राणां, विंशतेरेक ईशिता ॥ २९३ ॥ पश्चाशतः कुराज्यानामेकोनायाश्च नायकः । अन्तरोदकषट्पञ्चाशतश्च परिपालकः ॥ २९४ ॥
प्राप्तः षण्णावतिघ्रामकोटीनां स्वामितां च ताम् । पत्तीनां षण्णवत्या च, कोटिभिः परिवारितः॥२९५॥ 35 कुञ्जराणां वाजिनां च, स्थानां च पृथक् पृथक् । लक्षाभिश्चतुरशीत्या, छादितावनिमण्डलः ॥ २९६ ॥
* सहस्रैर्नवमिर्यक्षैः, किङ्क सङ्घ ३ ॥ ३ क्षुद्रग्रामवत् । २ द्वात्रिंशता। ३ अन्तरद्वीपः ।
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चतुर्थः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२२३ ततो निववृते चक्री, चक्ररत्नपथानुगः । ऋद्ध्या महत्या सम्पूर्णः, पोतो द्वीपान्तरादिव ॥ २९७ ॥
॥दशभिः कुलकम् ।। ग्रामेशैर्दुर्गपालैश्च, मण्डलेशैश्च वर्त्मनि । क्रियमाणोचितार्थश्रीवितीयाचन्द्रमा इव ॥ २९८ ॥ प्रसारिभिरभिव्योम, पुरतः सैन्यरेणुभिः । शस्यमानागमो दूराद्, वर्धापकनरैरिव ॥ २९९ ॥ हेषितै हितैर्बन्दिघोषैस्तूर्यारवैरपि । स्पर्धयेव प्रसृमरैर्दिशो बधिरयन्निव ॥ ३०० ॥ दिने दिने योजनिकैः, प्रयाणैः सुखमापतन् । सगरो नगरी प्राप, विनीतां दयितामिव ॥ ३०१॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ विनीतायाः परिसरे, सरित्पतिरिवावधौ । निवेश्य शिबिरं राजाऽवतस्थे स्थेमपर्वतः ॥ ३०२ ॥
तत्राऽपरेयुः सगरो, वाह्याल्यां वाहकेलये । एकं सूकलमारुह्य, ययौ सर्वकलानिधिः ॥ ३०३ ॥ तत्र विक्रमयामास, चतुरं तं तुरङ्गमम् । उत्तरोत्तरधारासु, क्रमेणाऽऽरोपयच्च सः ॥ ३०४ ॥ 10 आरूढः पञ्चमी धारामुत्पपात नभस्तले । वल्गादिसंज्ञानभिज्ञीभूतो भूतैरिवाश्रितः ॥ ३०५ ॥ सगरं सोऽपहृत्याऽश्वोऽश्वरूप इव राक्षसः । महारण्ये प्रचिक्षेप, कोलाक्षेपेण रंहसा ॥ ३०६ ॥ वलगां सामर्षमाकृष्योरुभ्यां चाऽऽक्रम्य पार्श्वयोः । दधार सगरोऽश्वं तं, झम्पां दत्त्वोत्ततार च ॥३०॥ विधुरस्तुरगः सोऽपि, पपात पृथिवीतले । पृथ्वीनाथोऽपि पादाभ्यामेव गन्तुं प्रचक्रमे ॥ ३०८ ॥ यावत् किञ्चिद् ययौ तावद्, ददशैकं महासरः । आदित्यकरपर्यस्तां, भूभ्रष्टामिव चन्द्रिकाम् ॥ ३०९ ॥ 15 तत्र श्रमापनोदाय, सत्रौ वन्य इव द्विपः । स्वादु स्वच्छं पद्मगन्धि, शीतं च स पयः पपौ ॥ ३१०॥ निर्ययौ सरसस्तस्मात् , स तस्थौ तीरसीमनि । ददर्श चैकां युवति, जलदेवीमिवाऽग्रतः ॥ ३११ ॥ तां नवाम्भोजवदनां, नीलोत्पलविलोचनाम् । तरङ्गायितलावण्यजलां चक्रयुगस्तनीम् ॥ ३१२ ॥ मेरकोकनदोद्दामपाणि-पादमनोरमाम् । शरीरिणी सरोलक्ष्मी, स पश्यन्नित्यचिन्तयत् ॥ ३१३ ।। अप्सराः किं ? व्यन्तरी किं?, किमथो नागकन्यका । विद्याधरी वा किमियं ?, न सामान्येदृशी भवेत् ।। 20 न तथा हृदयानन्दं, करोति सरसीजलम् । यथा दर्शनमतस्याः, सुधावृष्टिसहोदरम् ॥ ३१५ ॥ तयाऽपि ददृशे राजा, राजीवदलचक्षुषा । ततः संवरितेनेवाऽनुरागेण तदैव हि ॥ ३१६ ॥ सद्योऽपि कामविधुरा, सा सखीभिः कथञ्चन। संस्थाप्याऽऽनीयताऽऽवासे, म्लाना सायमिवाजिनी॥३१७॥ सगरोऽपि सरस्तीरे, शनैर्गच्छन् स्मरातुरः । एत्य कञ्चुकिना नत्वा, चैवमूचे कृताञ्जलिः ॥ ३१८॥
खामिनिहैव भरतक्षेत्रवैताठ्यपर्वते । वल्लभं सम्पदामस्ति, पुरं गगनवल्लभम् ॥ ३१९ ॥ 25 विद्याधरपतिस्तत्र, ख्यातो नाम्ना सुलोचनः । त्रिलोचनसखः पुर्यामलकायामिवाऽभवत् ॥ ३२० ॥ सहस्रनयनो नाम, तस्याऽस्ति तनयो नयी । सुकेशा दुहिता चेयं, विश्वस्त्रैणशिरोमणिः ॥ ३२१॥ नैमित्तिकेन चैकेन, जातमात्राऽपि वर्णिता । स्त्रीरत्नमेषा महिषी, भवित्री चक्रवर्तिनः ॥ ३२२ ॥
इतश्च पूर्णमेघेन, रथनूपुरभूभुजा । भूयो भूयो याचितेयमुद्वोढुमनुरागिणा ॥ ३२३ ॥ तां पितर्यददाने च, हतुकामो हठादपि । पूर्णमेघो मेघ इव, गर्जन् योद्धुमुपाययौ ॥ ३२४ ॥ 30 पूर्णमेघश्चिरतरं, योधयित्वा सुलोचनम् । चक्रे दीर्घभुजो दीर्घनिद्रामुद्रितलोचनम् ॥ ३२५ ॥ खधनं तद्धन इवोपादाय भगिनीमिमाम् । सहस्रनयनोत्राऽऽगान्महात्मन् ! सपरिच्छदः ॥३२६॥ सरोवरे तया चेह, क्रीडन्त्या त्वमसीक्षितः । शिक्षिता चाऽऽशु' कामेन, विकारं वेदनामयम् ॥ ३२७ ॥ - घाव स्वेदवती, स्तब्धा पाश्चालिकेव सा । शीतातेव सरोमाञ्चा, श्लेष्मलेव स्खलत्स्वरा ॥ ३२८॥
पराक्रमगिरिः । २ अश्वक्रीडाभूमौ । ३ अश्वक्रीडायै । ४ उद्धताश्चम् । ५ अविलम्बेन । * °स्तभू सङ्घ ३ ॥ ६ रक्तकमलम् । कमलपत्रनेत्रया। कामार्दिता। ९कुबेरः।१०खीणां समूहः बैणम् । श्रेष्मवतीव ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ द्वितीयं पर्व
भीतेव वेपथुमती, विवर्णा रोगभागिव । उदथुः शोकमग्नेव, योगिनीव लयस्थिता ॥ ३२९ ॥ क्षणादवस्थावैचित्र्यं, प्रपेदे तव दर्शनात् । तत् त्रायस्व जगत्रातर्न यावत् सा विपद्यते ॥ ३३० ॥ सौविदले वदत्येवं, सहस्रनयनोऽपि सः । आययौ नभसा तत्र, नमश्चक्रे च चक्रिणम् ॥ ३३१ ॥ सोऽनुमान्य निजावासेऽनैषीत् सगरचक्रिणम् । स्त्रीरत्नस्य सुकेशाया, दानाच्च तमतोषयत् ॥ ३३२ ॥ 5 ततश्च तौ विमानेन, सहस्रेक्षण - चक्रिणौ । वैताढ्यशैले ययतुः पुरं गगनवल्लभम् ॥ ३३३ ॥ निवेश्य पैतृके राज्ये, सहस्रनयनं ततः । सर्वविद्याधराधीशं व्यधत्त धरणीधवः ॥ ३३४ ॥
स्त्रीनं तदुपादाय, सगरचक्रवर्त्यथ । जगाम साकेतपुरं, पुरन्दरपराक्रमः ॥ ३३५ ॥ समुद्दिश्य विनीतां च, चक्रेऽष्टमतपो नृपः । पौषधं पौषधागारे, प्रपेदे च यथाविधि ॥ ३३६ ॥ अष्टमान्ते च निष्क्रम्य, पौषधागारतस्ततः । समं परिजनैश्चक्रे, पारणं धरणीधवः ॥ ३३७ ॥ 10 पदे पदे तोरणिनीं, भ्रूविकारवतीमिव । मुक्तास्वस्तिकसन्दोहकान्तिभिः सस्मितामिव ॥ ३३८ ॥ अट्टशोभापताकाभिर्नर्तनायोद्भुमिव । धूपघट्युत्थधूमाल्या, कृतपत्रलतामिव ॥ ३३९ ॥ मञ्चस्थरत्नपात्रीभिर्नेत्रविस्तारिणीमिव । मञ्चैर्विचित्रैरचितशयनीयामिवोच्चकैः ।। ३४० ॥ विमानकिङ्किणीक्काणैर्मङ्गलोद्वायनीमिव । पुरीं वासकसज्जां तां प्रविवेश विशांपतिः ॥ ३४१ ॥ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥
15 उत्तोरणमुत्पताकमुद्वैतालिकमङ्गलम् । विमानमिव शक्रः स्वं गृहाङ्गणमगानृपः ॥ ३४२ ॥ सान्निध्यभाजां देवानां स सहस्राणि षोडश । द्वात्रिंशतं सहस्राणि तथा वसुमतीभुजाम् ॥ ३४३ ॥ महारत्नानि सेनानी - पुरोध - गृहि-वर्धकीन् । त्रीणि त्रिषष्टियुक्तानि, सूपकारशतानि च ॥ ३४४ ॥ श्रेणिप्रश्रेणिका अष्टादश चाऽन्यानपि क्रमात् । दुर्गपाल -श्रेष्ठि- सार्थवाहादीन् व्यसृजत् स्वयम् ॥ ३४५ ॥ ॥ त्रिमिर्विशेषकम् ॥ 20 सान्तःपुरपरीवारः, स्त्रीरत्नेन समन्वितः । सतां मन इवोदारं, राजा वेश्माविशन्निजम् ॥ ३४६ ॥ तत्र स्नानगृहे स्नात्वा, देवतावसरौकसि । कृतदेवार्चनो राजा, बुभुजे भोजनौकसि ॥ ३४७ ॥ सङ्गीतकैर्नाटकैश्च, विनोदैरपरैरपि । ततश्चाऽरंस्त सगरः, साम्राज्यश्रीलताफलैः ॥ ३४८ ॥
एत्याsपरेद्युः सगरं, देवाद्या एवमभ्यधुः । विदधे भारतं क्षेत्र, वशंवदमिदं त्वया ॥ ३४९ ॥ युष्माकं चक्रवर्तित्वाभिषेकमधुना वयम् । करिष्यामो ऽर्हतो जन्माभिषेकमिव वासवाः ॥ ३५० ॥ अनुजज्ञे च तांश्चक्री, लीलोन्नमितया भ्रुवा । महात्मानः प्रणयिनां प्रणयं खण्डयन्ति न ॥ ३५१ ॥ अथाऽऽभियोगिका देवाः पुर्या उत्तरपूर्वतः । विचक्रुरभिषेकाय, मण्डपं रत्नमण्डितम् ॥ ३५९ ॥ समुद्र-तीर्थ-हदिनी - हृदेभ्यः पावनीरपः । गिरिभ्यश्चौषधीर्दिव्यास्तत्राऽऽनिन्युर्दिवौकसः ॥ ३५३ ॥
अथ सान्तःपुरः सस्त्रीरत्नश्चक्रधरोऽविशत् । तं रत्नमण्डपं रम्यं, रत्नाचलगुहामिव ॥ ३५४ ॥ समृगेन्द्रासनं तत्र, स्नानपीठं मणीमयम् । नृपः प्रदक्षिणीकृत्याऽऽहिताग्निरिव पावकम् ।। ३५५ ।। सान्तः पुरस्तदारुह्य, पूर्वसोपानवर्त्मना । सिंहासनमलश्चक्रे, प्राङ्मुखः पृथिवीपतिः ॥ ३५६ ॥ द्वात्रिंशद्राजसहस्राण्युदक्सोपानवर्त्मना । आरुह्य तत्र न्यषदन्, हंसाः कमलपण्डवत् ॥ ३५७ ॥ स्वस्वभद्रासनासीना, बद्धाञ्जलिपुटाश्च ते । तस्थुः स्वामिनि दत्ताक्षाः शक्रे सामानिका इव ॥ ३५८ ॥ सेनापतिर्गृहपतिः, पुरोधा वर्धकिस्तथा । अपरे बहवः श्रेष्ठि- सार्थवाहादयोऽपि हि ।। ३५९ ।। स्नानपीठं तदारुह्याऽपाच्यसोपानवर्त्मना । निषेदुः स्वस्वस्थानेषु, ज्योतींषीव नभस्तले ॥ ३६० ॥ युग्मम् ॥ तस्मिन् शुभे दिने वारे, नक्षत्रे करणेऽपि च । योगे चन्द्रे च लग्ने च, सर्वग्रहबलान्विते ॥ ३६१ ॥ १ म्रियते । २ क्रचुकिनि । * 'नुशाप्य निजा' सङ्घ १ ॥ ३ प्रियसमागमवाखरे सज्जाम् ।
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चतुर्थः सर्गः ]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
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३६४ ॥
अभिषेकं महीभर्तुश्चक्रुर्देवादयः क्रमात् । सौवर्णै राजतै रातैः, कलशैः कमलाननैः || ३६२ ॥ युग्मम् || वाससा देवदुष्येण राज्ञो ममृजुश्च ते । हस्तेन मृदुना सौधभित्ति चित्रकरा इव ॥ ३६३ ॥ दर्दर-मलयमषैरथ गन्धैः सुगन्धिभिः । राज्ञोऽङ्गं छुरयामासुर्ज्योत्स्नयेव नभस्तलम् ॥ दिव्यं च सुमनोदामोदामगन्धर्द्धिबन्धुरम् । खानुरागमिव दृढं बबन्धुर्मूर्ध्नि भूपतेः ॥ ३६५ ॥ वासांसि देवदूष्याणि, रत्नालङ्करणानि च । ततस्तदुपनीतानि, पर्यधाद् वसुधाधवः || ३६६ ॥ ततश्चक्रधरस्तत्र, मेघध्वनितधीरया । गिरा स्वनगराध्यक्षं समादिक्षदिति स्वयम् ॥ ३६७ ॥ अदण्ड-शुल्कामभटप्रवेशामकरामिमाम् । महोत्सवां कुरु पुरीं यावद् द्वादशवत्सरीम् ॥ ३६८ ॥ इत्याज्ञां नगराध्यक्षो, हस्त्यारूढैर्निजैर्नरैः । पुर्यामाघोषयामास, सद्यो डिण्डिमिकैरिव ॥ ३६९ ॥ इत्थं चत्रिपदाभिषेकपिशुनः षट्खण्डपृथ्वीपतेस्तस्य स्वर्नगरीविलासविभवस्तेयत्रतायां पुरि । प्रत्यङ्कं प्रतिमन्दिरं प्रतिपथं वाऽऽनन्दमुन्मुद्रयनुच्चैर्द्वादश वत्सराणि समभूत् तस्यां महानुत्सवः ॥ ३७० ॥ 10 इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये द्वितीये पर्वणि सगरदिग्जयचक्रवर्तित्वाभिषेकवर्णनो नाम चतुर्थः सर्गः ॥
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२२६ कलिकालसर्पज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
द्वितीय पर्व पञ्चमः सर्गः। अथ साकेतनगरोद्यानेऽजितजिनेश्वरः । भगवान् समवासार्षीत् , सेव्यमानः सुरा-ऽसुरैः॥१॥ वासवादिषु देवेषु, सगरादिषु राजसु । आसीनेषु यथास्थानं, विदधे देशनां विभुः ॥२॥ तदा च वैतात्यगिरौ, पूर्णमेचं सहस्रदृक् । सरन् पितृवधं क्रुद्धोऽवधीत् तार्क्ष्य इवोरगम् ॥३॥ पूर्णमेघात्मजस्तमानष्टोऽथ घनवाहनः । तत्राऽऽजगाम समवसरणे शरणेच्छया ॥४॥ स त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य, भगवन्तं प्रणम्य च । उपपादमुपाविक्षदुपवृक्षमिवाऽध्वगः ॥५॥ समाकृष्यापि पातालाद्, भ्रंशयित्वा दिवोऽपि तम् । बलीयसो वा शरणाद, कृष्ट्वा हन्मीति विघुवन् ॥६॥ तखाऽनुपदमेवाऽथ, सहस्राक्ष उदायुधः । आगात् समवसरणेऽपश्यञ्च घनवाहनम् ॥७॥ प्रशान्तकोपस्त्यक्तास्त्रः, प्रभावात् परमेशितुः । नत्वा प्रदक्षिणापूर्व, यथास्थानमुपाविशत् ॥ ८॥ सगरश्चक्रभृदथ, पप्रच्छ परमेश्वरम् । किं वैरकारणं खामिन्!, पूर्णमेघ-सुनेत्रयोः॥९॥
आचख्यौ भगवानेवमादित्याभे पुरे पुरा । अभवद् भावनो नाम, द्रव्यकोटीश्वरो वणिक् ॥१०॥ खसूनोहरिदासस्य, सोऽर्पयित्वाऽखिलं धनम् । देशान्तरं वणिज्याय, जगाम श्रेष्ठिभावनः ॥११॥ विदेशेद्वादशाब्दानि, स्थित्वोपाज्ये महद् धनम् । आययो.भावनश्रेष्ठी, तस्थौ च नगराद् बहिः॥१२॥ तत्र मुक्त्वा परीवारमेकाक्यपि हि भावनः । निश्याययौ निजे समन्युत्कण्ठा हि बलीयसी ॥ १३ ॥ प्रविशन् हरिदासेन, चौरोऽसाविति शङ्कया । निहतः खड्गघातेन, विमर्शः काऽल्पमेधसाम् १ ॥१४॥ खस व्यापादकं ज्ञात्वा, तदानीमपि भावनः । तत्कालकलितद्वेषा, कालधर्ममुपाययौ ॥१५॥ स ज्ञात्वा पितरं पश्चात् , पश्चात्तापकदर्थितः । चकार प्रेतकार्याणि, सशैल्यस्तेन कर्मणा ॥ १६ ॥ विपेदे हरिदासोपि, गते काले कियत्यपि । दुःखदान् द्वावपि ततो, प्रेमतुः कतिचिद् भवान् ॥१७॥ किञ्चिच सुकृतं कृत्वा, जीवोऽभूद् भावनस्य तु । पूर्णमेघो हरिदासजीवस्त्वासीत् सुलोचनः॥१८॥ इति प्राग्जन्मसंसिद्धं, पूर्णमेघ-सुनेत्रयोः । वैरं प्राणान्तिकं राजनैहिकं त्वानुषङ्गिकम् ॥ १९ ॥
भूयोऽपि सगरोऽपृच्छत् , तत्सन्वोरनयोमिथः । को वैरहेतुः ? स्नेहश्च, सहस्राक्षे कुतो मम ॥२०॥ खम्यूिचे दानशीलस्त्वं, परिव्राइ रम्भकाभिधः । प्राग्भवेऽभूस्तवाऽभूतां, शिष्यौ शश्यावली विमौ ॥ अभूच्चाऽतिविनीतत्वादावलिस्तेऽतिवल्लभः । गोधेनुमेकामक्रीणादन्यदा द्रविणेन सः ॥ २२ ॥
मैदं गोखामिनः कृत्वा, कठोरहृदयः शशी । अन्तराले पतित्वैव, तां क्रीणाति स धेनुकाम् ॥ २३ ॥ 25 केशाकेशि मुष्टामुष्टि, दण्डादण्डि तयोस्ततः । युद्धं प्रववृते घोरं, शशिना चाऽऽवलिर्हतः ॥२४॥
शशी चिरं भवं प्रान्त्वा, जज्ञेऽसौ मेघवाहनः । आवलिस्तु सहस्राक्षस्तदिदं वैरकारणम् ॥२५॥ प्रान्त्वा दानप्रभावेण, रम्भकोऽपि गतीः शुभा'। चश्यभूस्त्वं सहस्राक्षे, स्नेहः प्राग्जन्मभूश्च ते॥२६॥ ___ अथ रक्षापतिीमो, निषण्णस्तत्र पर्षदि । उत्थायाऽऽलिङ्ग्य रमसान्मेघवाहनमब्रवीत् ॥ २७ ॥ पुष्करद्वीपभरतक्षेत्रे वैताव्यपर्वते । प्राग्भवे काश्चनपुरे, विद्युइंष्ट्रो नृपोऽभवम् ॥२८॥ सिन् भवे ममाऽभूस्त्वं, तनयो रतिवल्लभः । अत्यन्तवल्लभो वत्स, साधु दृष्टोऽसि सम्प्रति ॥ २९ ॥ तदेवं सम्प्रत्यपि मे, पुत्रोऽसि परिगृह्यताम् । सैन्यं मदीयं त्वदीयमथाऽन्यदपि यम्मम ॥३०॥ लवणोदे पयोराशी, दुर्जेयो घुसदामपि । योजनानां सप्तशती, दिक्षु सर्वासु विस्तुतः ॥ ३१ ॥ राक्षसदीप इत्यस्ति, सर्वद्वीपशिरोमणिः । तदन्तरे त्रिकूटाद्रि मिनाभौ सुमेरुवत् ॥ ३२ ॥ महविलयाकारो, योजनानि नवोन्नतः । पञ्चाशतं योजनानि, विस्तीर्णोऽस्त्यतिदुर्गमः ॥३३॥
समीपम् । २ विचारः। । दुखसहितः।
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पञ्चमः सर्गः]
त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरितम् । तस्योपरिष्टात् सौवर्णप्राकार-गृह-तोरणा । मया लङ्केति नाम्ना पूरघुनैवाऽस्ति कारिता ॥ ३४ ॥ षड् योजनानि भूमध्यमतिक्रम्य चिरन्तनी । शुद्धस्फटिकवप्राङ्का, नानारत्नमयालया ॥ ३५॥ सपादयोजनशतप्रमाणा प्रवरा पुरी । मम पाताललङ्केति, विद्यते चाऽतिदुर्गमा ॥ ३६॥ पुरीद्वयमिदं वत्साऽऽदत्व तन्नृपतिर्भव । भवत्वयैव ते तीर्थनाथदर्शनजं फलम् ॥ ३७॥ इत्युक्त्वा राक्षसपतिर्माणिक्यैवभिः कृतम् । ददौ तस्मै महाहारं, सद्यो विद्यां च राक्षसीम् ॥ ३८॥ 5 भगवन्तं नमस्कृत्य, तदैव घनवाहनः । आगत्य राक्षसद्वीपे, राजाऽभूल्लङ्कयोस्तयोः ॥ ३९॥ राक्षसद्वीपराज्येन, राक्षस्या विद्ययाऽपि च । तदादि तस्य वंशोऽपि, ययौ राक्षसवंशताम् ॥ ४०॥ एवं स्थिते च सर्वज्ञो, विहरनन्यतो ययौ । खं खं स्थानं ययुस्तेऽपि, सुरेन्द्र-सगरादयः ॥४१॥
इतः पुनश्चतुःषष्टिसहस्रस्त्रीभिरन्वितः । रंतिसागरनिमग्नो, नाकीवाऽरंस्त चक्रभृत् ॥ ४२ ॥ तस्याऽन्तःपुरसम्भोगजन्मा म्लानिरपास्यैत । स्त्रीरत्नभोगादध्वन्यश्रमोऽपाच्यनिलादिव ॥ ४३ ॥ 10 एवं सुखं वैषयिकं, तस्याऽनुभवतोऽनिशम् । जहुप्रभृतयः षष्टिसहस्रा जज्ञिरे सुताः॥ ४४ ॥ धात्रीभिः पाल्यमानास्ते, क्रमाद् ववृधिरे सुताः । उद्यानपालीभिरिवोद्यानजाता महीरुहाः ॥ ४५ ॥ ते कलाग्रहणं चक्रुः, शनै रेंजनिजानिवत् । वपुःश्रीवल्युपवनं, यौवनं च प्रपेदिरे ॥४६॥ ते निजं दर्शयामासुरस्त्रविद्यासु कौशलम् । ददृशुः परकीयं च, न्यूनाधिकदिदृक्षया ॥४७॥ वाह्याल्यां भ्रमिमानीय, समुद्रावर्त्तलीलया । दुर्दमानप्यदमयन् , शूकलांस्ते कलाविदः ॥४८॥ 15 दुपत्रस्याऽप्यसहनान् , स्कन्धदेशविवर्तिनः । व्यालानपि वशीचक्रुः, कुञ्जरांस्तेऽतिनिर्जराः ॥ ४९ ॥ उद्यानादिषु ते खैरं, रेमिरे सर्वयोवृताः । अवन्ध्यशक्तयो विन्ध्याटव्यां मदकला इव ॥५०॥
अथ चक्रिणमन्येद्युः, सगरं सदसि स्थितम् । इति विज्ञपयामासुस्ते कुमारा महौजसः ॥५१॥ अमरो मागधपतिः, प्राचीमुखविभूषणः । दक्षिणाशैकतिलको, वरदामपतिस्तथा ॥ ५२ ॥ पश्चिमाशाकिरीटश्रीः, प्रभासाधिपतिः स च । भुजे इव भुवो गङ्गा-सिन्धू अपि सरिद्वरे ॥ ५३ ॥ 20 वैताढ्याद्रिकुमारश्च, भरताम्भोजकर्णिका । कृतमालस्तमिस्राद्वा क्षेत्रपाल इवोचकैः ॥ ५४॥ भरतावधिभूस्तम्भो, हिमाचलकुमारकः । खण्डप्रपाताधिष्ठानो, नाट्यमालः स चोत्कटः ॥५५॥ नैसर्पप्रमुखास्ते च, नवाऽपि निधिदेवताः । दिवौकसोऽप्येवममी, नृवत् तातेन साधिताः ॥ ५६ ॥
॥ पञ्चभिः कुलकम् ॥ षट्खण्डमरिषड्वर्गवदिदं वसुधातलम् । स्वयमेव पराजिग्ये, तातेनाऽमिततेजसा ।। ५७ ॥ 25 कृत्यशेषं न ते किश्चिदस्ति दोर्विक्रमोचितम् । त्वत्पुत्रत्वं ज्ञापयामो, यत् कृत्वा देव ! सम्प्रति ॥५८ ॥ तातेन साधितेऽमुष्मिन् , भूतले सकलेऽपि तत् । स्वेच्छाविहरणेनैव, तात ! पुत्रत्वमस्तु नः ॥ ५९ ॥ ततस्तातप्रसादेन, भवनाङ्गणवद् भुवि । वयं विहर्तुमिच्छामः, स्वच्छन्दं वनहस्तिवत् ॥ ६ ॥ प्रणयप्रार्थनां तां च, स तेषां प्रत्यपद्यत । महत्सु याज्जाऽन्यस्यापि, न मुधा किं पुनस्तुकाम् ॥६१॥ अथ ते पितरं नत्वा, निजावासानुपेत्य च । दुन्दुभीस्ताडयामासुर्यात्रामङ्गलसूचकान् ॥ ६२॥ 30 धीराणामपि सङ्क्षोभदायीन्यशुभदानि च । उत्पाताशकुनान्येषां, तदानीमिति जज्ञिरे ॥ ६३ ॥
मार्तण्डमण्डलं केतुशताकुलमजायत । रसातलद्वारमिव, महोरगकुलाकुलम् ॥ ६४॥ सञ्जातमध्यच्छिद्रं च, रजनीकरमण्डलम् । अदृश्यत नवोत्कीर्णदन्तताडङ्कसन्निभम् ॥६५॥ वातान्दोलितवल्लीव, चकम्पे च वसुन्धरा । शिलाशकलवृष्ट्यामा, जाताः करकवृष्टयः ॥६६॥
कामकीडासकः। २ देवः। ३ननाश । दक्षिणपवनात् । ५ चन्द्रवत् । ६ दुष्टान् । ७ देवेभ्योऽप्यधिकाः । मित्रताः। ९मत्तगजाः। १० यत् कार्य कृत्वा वयं त्वत्पुना इति ज्ञापयामः । ११ अपत्यानाम् ।
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R२८ कलिकालसर्वबानीहेमचन्द्राचार्यप्रणीत
[द्वितीयं पर अजायत रजोवृष्टिः, शुष्काभ्रक्षोदसोदरा । सम्मुखो वायुरुद्दण्डो, रुष्टो रिपुरिवाऽभवत् ॥ ६७॥ अशिवाश्च शिवाः कामं, दक्षिणस्था ववाशिरे । तत्स्पर्द्धयेव तत्रस्थाश्चक्रुशुः कौशिका अपि ॥ ६८॥ चिल्लाश्च मण्डलीभूय, भ्रमुर्नभसि नीचकैः । उच्चकैरापतत्कालचक्रक्रीडापरिस्पृशः ॥ ६९॥
अजायन्त च तत्कालं, गन्धेमा अपि निर्मदाः । स्रोतविन्य इव ग्रीष्मकाले निर्जलताजुषः ॥७०॥ 5 हयानां हेषमाणानां, धूमलेखा मुखान्तरात् । निर्ययुभीषणतरा, बिलेभ्य इव पन्नगाः ॥७१ ॥
तान्यवाजीगणन् सर्वाण्युत्पाताशकुनानि ते । तज्ज्ञानामपि हि नृणां, प्रमाणं भवितव्यता ॥ ७२ ॥ कृतस्त्रानाः कृतप्रायश्चित्त-कौतुकमङ्गलाः । चक्रिणः सर्वसैन्येन, ते कुमाराः प्रतस्थिरे ॥७३॥ स्त्रीरत्नवर्ज रत्नानि, सर्वाण्यपि महीपतिः । प्रजिंघाय सुतैः सार्धमात्मैव हि सुतत्वभाक् ॥ ७४ ॥
केचिद् गजवरारूढा, दिक्पालाकारधारिणः । अश्वानधिष्ठिताः केचिदतिरेवन्तमूर्तयः ॥ ७५ ॥ 10 अध्यासीना स्थान् केचिदादित्याद्या इव ग्रहाः । किरीटधारिणः सर्वेऽप्यधीशा धुसदामिव ॥ ७६ ॥
वक्षःस्थललुलद्धाराः, ससरित्का इवाऽद्रयः । देवता इव भूप्राप्ता, विविधायुधपाणयः ॥ ७७ ॥ छत्रलाञ्छितमूर्धानो, द्रुमाङ्का व्यन्तरा इव । आत्मरक्षैः परिवृता, वेलाधारैरिवाऽब्धयः ॥ ७८ ॥ अविहस्तोदस्तहस्तैः, स्तूयमानाश्च मागधैः । वसुन्धरां दारयन्तस्तुरङ्गमखुरैः खरैः ॥ ७९ ॥
तूर्यप्रणादैर्बधिरीकुर्वाणाः सर्वतो दिशः । अन्धीकुर्वन्त उत्क्षिप्तैर्भूरजोभिश्च भूरिभिः ॥ ८॥ 15 उद्यानेषु विचित्रेषूद्यानानामिव देवताः । गिरिप्रस्थेषु च गिरिकुमारा इव हारिणः ॥ ८१॥
सरित्पुत्रा इव सरित्पुलिनेषु च चारुषु। स्वच्छन्दं रममाणास्ते, बभ्रमुर्भरतावनौ ॥८२॥ अष्टमिः कुलकम् ।। ग्रामा-ऽऽकर-पुर-द्रोणमुख-खेटादिषु व्यधुः । जिनाचा विचरन्तस्ते, माला विद्याधरा इव ॥ ८३ ॥ भुञ्जाना बहुधा भोगान्, ददाना बहुधा धनम् । सुहृजनान् प्रीणयन्तो, विनिघ्नन्तोऽसुहृजनान् ॥ ८४ ॥
दर्शयन्तः पथि चलल्लक्षपातनकौशलम् । भृशमन्यापतच्छत्रग्रहणस्य च नैपुणम् ॥ ८५ ॥ 20 शस्त्राशस्त्रिकथाचित्रास्तास्ता नर्मकथा अपि । यानाधिरूढैः कुर्वाणाः, सवयोभिः समं नृपैः ॥ ८६ ॥
अप्यालोकनमात्रेण, क्षुत्तृषाहरणौषधम् । तेऽन्यदाऽष्टापदं प्रापुरास्पदं पुण्यसम्पदाम् ॥ ८७॥ महासरोभिः पीयूषनिधानमिव नाकिनाम् । उपात्तनीलसंव्यानमिव सान्द्रार्द्रपादपैः॥८८॥ महापक्षधरमिव, पयोदैः पारिपार्श्विकैः । लम्बमानपताकाङ्कमिव निर्झरवारिभिः ॥ ८९ ॥
विद्याधरविलासौको, वैताब्यमिव नूतनम् । गायन्तमिव मुदितमयूरादिकलस्वनैः ॥ ९ ॥ 25 चैत्यं सशालभञ्जीकमिव खेचर्यधिष्ठितम् । किरीटमिव मेदिन्या, रत्नोपलविनिर्मितम् ॥९१॥
नन्दीश्वरद्वीपमिव, चैत्यवन्दनकाम्यया । अभीयमानं सततं, चारणश्रमणादिभिः ॥ ९२ ॥ . तं दृष्ट्वा नित्यपर्वाणं, पर्वतं स्फाटिकोपलम् । ते पप्रच्छुः स्वसचिवान्, सुबुद्धिप्रभृतीनिति ॥ ९३ ॥ वैमानिकानां स्वर्गस्थक्रीडाद्रिभ्य इवैककः । अवतीर्णो वसुमतीमयं को नाम पर्वतः ? ॥ ९४ ॥
केन चाऽभ्रंलिहमिह, विदधे चैत्यमद्भुतम् । इदं हिमवदद्रिस्थशाश्वतायतनोपमम् ? ॥ ९५ ॥ 30 अथ ते मत्रिणोऽप्यूचुः, पुराऽभूदृषभः प्रभुः । युष्मद्वंशस्याऽऽदिकरस्तीर्थस्थाऽप्यत्र भारते ॥९६॥
तत्सनुर्नवनवतेमा॑णामग्रजोऽभवत् । भरतो नाम पट्खण्डभरतक्षेत्रशासिता ॥ ९७ ॥ क्रीडागिरिरयं तस्य, चक्रिणोऽष्टापदाभिधः । अनेकाचर्यसदनं, सुमेरुरिव वज्रिणः ॥ ९८॥ साधूनां दशसाहरुया, सहेह च महीधरे । भगवानृषभखामी, जगाम पदमव्ययम् ॥ ९९ ॥ ऋषभखामिनिर्वाणानन्तरं भरतेश्वरः । चैत्यं सिंहनिषद्याख्यं, चक्रे रत्नोपलैरिह ॥१०॥
भशुभसूचकाः। अवगणयामक माहिणोत्। सूर्यपुत्राधिकरूपाः। ५ अव्याकुलोईकरैः। ६ कठोरैः। ७ मनोहराः । शत्रून् । हाखकथा।। १.उत्तरीपणस। अभिगम्यमानम् । १२ नित्योत्सवम् ।
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पञ्चमः सर्गः
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
ऋषभस्वामिनो विम्यमर्हतां भाविनामपि । स त्रयोविंशते रत्नग्रावभिर्दोषवर्जितैः ॥ १०१ ॥ स्वस्वप्रमाणसंस्थानवर्णलाञ्छनभाञ्जि तु । बिम्बानि भक्त्या परया, व्यधत्तेह यथाविधि ॥ १०२ ॥ युग्मम् ॥ चारणभ्रमणैस्तानि, बिम्बानि प्रत्यतिष्ठिपत् । बाहुबल्यादिवन्धूनां स्तूपान् मूर्तीश्च सोऽकृत ॥ १०३ ॥ स्थितोऽत्र वृषभस्वामी, तीर्थकुच्चक्रि - केशवान् । प्रतिकेशव - रामांश्च, भाविनस्तमजिज्ञपत् ॥ १०४ ॥ सोपानभूतानि पदान्यष्टाऽमुं परितो व्यधात् । भरतो येन तेनाऽयमष्टापद उदीर्यते ॥ १०५ ॥
असावस्मत्पूर्वजानामिति प्रादुर्भवन्मुदः । तं तेऽथाऽऽरुरुदुः शैलं कुमाराः सपरिच्छदाः ॥ १०६ ॥ तत्र सिंहनिषद्यायां चैत्ये प्रविविशुश्च ते । दूरादालोकमात्रेऽपि, नेमुवाऽऽदिजिनेश्वरम् ॥ १०७ ॥ अजितस्वामिबिम्बं च, चिम्बान्यन्यार्हतामपि । तुल्यया श्रद्धया नेमुर्गर्भश्राद्धा हि ते खलु ॥ १०८ ॥ अथ गन्धोदकैः शुद्धैर्मत्राकृटैरिव क्षणात् । कुमाराः स्त्रपयामासुर्विम्बानि श्रीमदर्हताम् ॥ १०९ ॥ केऽप्यद्भिर्विभराञ्चक्रुः, कलसान् केचिदार्पयन् । केचिच्च लोठयामासुः, प्रतीषुः केऽपि रेचितान् ॥ ११० ॥ 10 केऽपि स्नात्रविधिं पेटुर्जगृहुः केऽपि चामरान् । सौवर्णधूपदहनान्युपाददत चापरे ।। १११ ॥ चिक्षिर्धपदहनेष्वपरे धूपमुत्तमम् । केऽपि शङ्खादितूर्याणि वादयामासुरुच्चकैः ॥ ११२ ॥ स्नानगन्धोदकैस्तैश्च, पतद्भिस्तत्र वेगतः । अष्टापदगिरिर्जज्ञे, तदा द्विगुणनिर्झरः ॥ ११३ ॥ पक्ष्मलैः कोमलै रूक्षैर्देवदूष्योपमैः पटैः । तेऽमार्जन् रत्नबिम्बानि तानि वैकैटिका इव ॥ ११४ ॥ गोशीर्षचन्दनरसैश्चक्रुस्तेषां विलेपनम् । तेऽतिसैरन्धयः खैरं निर्भरं भक्तिशालिनः ॥ ११५ ॥ अर्चयामासुरचस्ता, विचित्रैः पुष्पदामभिः । रत्नालङ्करणैर्दिव्यैर्वस्त्रैरपि मनोहरैः ।। ११६ ॥ पुरतः स्वामिबिम्बानामिन्दुरूपविडम्बिनः । अखण्डैस्तण्डुलैः पट्टेष्वालिखस्तेऽष्टमङ्गलीम् ॥ ११७ ॥ आरात्रिकमथो चक्रुर्दिव्यकर्पूरवर्तिभिः । तेऽर्चित्वोत्तारयामासुर्दिवाकरसहोदरम् ॥ ११८ ॥ शक्रस्तवेन वन्दित्वा, रचिताञ्जलयोऽथ ते । जिनेन्द्रान्नृषभस्वामिप्रभृतीनिति तुष्टुवुः ॥ ११९ ॥ अपारघोरसंसारपारावारतरीसमाः । । निर्वाणकारणीभूता, भगवन्तः ! पुनीत नः ॥ १२० ॥ स्याद्वादवादप्रासादप्रतिष्ठासूत्रधारताम् । नय-प्रमाणैर्विद्भयो, युष्मभ्यमनिशं नमः ॥ १२१ ॥ आयोजनं गामिनी भिर्वाणीसारणिभिर्भृशम् । अशेषजगदुद्यानाध्यायकेभ्यो नमोऽस्तु वः ॥ १२२ ॥ युष्मद्दर्शनतोऽस्माभिरपि सामान्यजीविदैः । अवाप्तमापञ्चमारजीवितव्यफलं परम् ॥ १२३ ॥ कल्याणकैर्गर्भ जन्म-प्रत्रज्या-ज्ञान- मुक्तिभिः । नारकाणामपि सुखप्रदेभ्यो वो नमो नमः ॥ १२४ ॥ मेघानामिव वायूनामिव चन्द्रमसामिव । अर्काणामिव भवतां, साधारण्यं श्रियेऽस्तु नः ।। १२५ ।। अष्टापदगिरावत्र, धन्यास्ते पक्षिणोऽपि हि । निरन्तरायाः पश्यन्ति, भवतो ये दिने दिने ॥ १२६ ॥ जीवितं चरितार्थं नः, कृतार्थो विभवश्च नः । युष्मदालोकना -ऽर्चाभिश्चिररात्रीय सम्प्रति ॥ १२७ ॥ इति स्तुत्वा नमस्कृत्य, भूयोऽपि श्रीमदर्हतः । प्रासादान्निर्ययुस्तस्मान्मुदिताः सगरात्मजाः ॥ १२८ ॥ ववन्दिरे ते भरत भ्रातृस्तूपांश्च पावनान् । किञ्चिद् ध्यात्वा ततो जह्रुरुवाचाऽवरजानिति ॥ १२९ ॥
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अष्टापदसमं स्थानं, मन्ये क्वाऽपि न विद्यते । कारयामो वयमत्र, चैत्यमेतदिवाऽपरम् ।। १३० ॥ 30 मुक्तोऽपि भरतक्षेत्रं, भुङ्क्ते भरतचत्रयहो ! । गिरौ भरतसारेऽत्र, चैत्यव्याजादवस्थितः ॥ १३१ ॥ एतदेव कृतं चैत्यमस्माभिश्चेद् विधीयते । भाविभिर्लुप्यमानस्य चैत्यस्याऽमुष्य रक्षणम् ॥ १३२ ॥ प्रवृत्ते दुःषमाका, भविष्यन्ति नरा यतः । अर्थलुब्धा हीनसच्चाः, कृत्या कृत्या विचारकाः ।। १३३ ।। प्रत्यग्रधर्मस्थानस्य करणादधिकं ततः । चिरन्तनानां हि धर्मस्थानानां परिरक्षणम् ॥ १३४ ॥ आमित्युक्ते कनीयोभिर्दण्डरत्नमुपाददे । ततो जहुः सहस्रांशुरिव तेजोभिरुल्वणैः ॥ १३५ ॥
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१ जगृहुः । २ रिकान् । ३ मणिकारा इव । ४ प्रीणयन्त्रयः । ५ साम्यभावः । ६ निर्विज्ञाः । ७ चिरम् । ८ कक्षुभान् । त्रिषष्टि. ३०
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२३० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीय पर्व अष्टापदं पुरमिव, परितः परिखाकृते । स मां खनितुमारेभे, दण्डरत्नेन सानुजः॥ १३६ ॥ सहस्रयोजनां चोले, परिखां सगरात्मजाः । चख्नुस्तेऽथ तया नागसपानि च बभञ्जिरे ॥ १३७ ॥ नागलोकोऽखिल उपद्रूयमाणेषु सद्मसु । चुक्षोभ यादसां चक्रं, मध्यमान इवाम्बुधौ ॥ १३८॥ परचक्र इवाऽऽयाते, प्रदीपन इवोद्यते । महावात इवोद्भूते, नागास्नेसुरितस्ततः ॥ १३९ ॥ आकुलं नागलोकं चाऽऽलोकयामास तं तथा । क्रुधा ज्वलन् ज्वलनवनागराड् ज्वलनप्रभः॥१४०॥ दारितां चाऽवनी प्रेक्ष्य, किमेतदिति सम्भ्रमात् । ततो निर्गत्य सगरकुमारानाजगाम सः ॥ १४१॥ उद्दामभ्रकुटीभीम, उत्तरङ्ग इवाऽर्णवः । प्रकोपस्फुरदधर, उदर्चिरिव पावकः ॥ १४२ ॥ तप्तायस्तोमरश्रेणीरिव ताम्रा दृशः क्षिपन् । स्फारयन् नासिकारन्ध्र, वनामिधमनीनिभे ॥ १४३॥
कृतान्त इव सङ्घद्धो, दुरीक्षः प्रलयार्कवत् । ज्वलनप्रभनागेन्द्र, इत्यूचे सगरात्मजान् ॥१४४ ॥ 10 आः! किमेतदुपक्रान्तमहो! विक्रान्तमानिभिः । दुर्मदैर्दण्डरत्नाप्या, दुर्गाप्या शबरैरिव १ ॥ १४५ ॥
शाश्वतानामप्यधुना, भवनाधिपवेश्मनाम् । अकार्युपद्रवः कोऽयमप्रेक्षापूर्वकारिभिः ॥ १४६ ॥ अजितस्वामिनो भ्रातुष्पुत्रैरपि किमीदृशम् । भवद्भिर्विदधे कर्म, पिशाचैरिव दारुणम् १ ॥ १४७ ॥ अथोचे जहना नागराजेदं युक्तमभ्यधाः । अमुना वेश्मभङ्गेनामदुपज्ञेन पीडितः ॥ १४८ ॥
वेश्मनां युष्मदीयानां, भङ्गोऽस्त्विति मनीषया । वसुन्धरा न खातेयममाभिर्दण्डपाणिमिः ॥ १४९ ॥ 15 किन्त्वष्टापदतीर्थस्याऽमुष्य रक्षणहेतवे । परिखारूपतोऽस्माभिरियं खाता वसुन्धरा ॥ १५०॥
अत्र ह्यसद्वंशकन्दश्चक्रे भरतचक्रभृत् । चैत्यं रत्नमयं रत्नप्रतिमाश्चाऽर्हतां शुभाः॥१५१ ॥ भविष्यत्कालदोषेण, लोकेभ्यस्तदुपद्रवम् । शङ्कमानः प्रयत्नोऽयममाभिर्विहितः खलु ॥ १५२ ॥ भङ्गो युष्मद्वेश्मनां तु, दूरत्वान्न हि शङ्कितः। दण्डशक्तिरमोघेयं, हन्त ! तत्राऽपराध्यति ॥ १५३॥
अविमृश्यविधायित्वेनार्हद्भक्त्या च यत् कृतम् । तत् सहखाऽतः परं तु, करिष्यामोन हीदृशम् ॥१५४॥ 20 एवं जहुकुमारेणाऽनुनीतो नागराडपि । शशाम सामवागम्भः, कोपाग्नेः शमनं सताम् ॥ १५५ ॥
मा स कृढं पुन!यमीगित्यभिधाय सः । नागलोकं ययौ नागराजः सिंहो गुहामिव ॥ १५६ ॥ नागराजे गते जहाजहे सोदरानिति । परिखा विहिता तावदष्टापदगिरेरियम् ॥ १५७ ॥ किन्तु पातालगम्भीराऽप्यम्भोरिक्ताँ न भात्यसौ । बुद्धिशून्या देहभाजो, महत्यप्याकृतिर्यथा ॥ १५८ ॥
किश्च सम्भाव्यतेऽमुष्या, रजोभिरपि पूरणम् । स्थलीभवन्त्येव गर्ता, अपि कालेन गच्छता ॥ १५९ ॥ 25 पूरणीया ततोऽवश्यमियं नीरेण भूरिणा । उत्तरङ्गां विना गङ्गा, तच्च कर्तुं न पार्यते ॥ १६० ॥
साधु साध्विति सोदर्यैाहतो जहुरग्रहीत् । अमोघं दण्डरत्नं तद्, यमदण्डमिवाऽपरम् ॥ १६१ ॥ दण्डरत्नेन तेनाऽथ, गङ्गातटमदारयत् । जलुर्वज्रीव वज्रेण, महाशिखरिणस्तटीम् ॥ १६२ ॥ दण्डदारणमार्गेण, चचालाऽथ सरिद्वरा । नीयते यत्र तत्राऽम्भो, गच्छत्यृजुपुमानिव ॥ १६३ ॥ उत्क्षिप्तशैलशिखरेवाऽभ्रंलिहमहोर्मिभिः । दृढास्फालिततूर्येव, तटास्फालननिखनैः ॥ १६४ ॥ द्विगुणं दण्डभेदं च, कुर्वाणा वाम्बुरंहसा । अष्टापदाद्रिपरिखां, गङ्गा प्राप समुद्रवत् ॥ १६५ ॥
॥ युग्मम् ॥ योजनसहस्रदनी, पातालमिव भीषणाम् । सा प्रवृत्ता पूरयितुं, परिखां परितोऽपि ताम् ॥ १६६ ॥ अष्टापदाद्रिपरिखापूरणार्थमकृष्यत । जहुना यत् ततो गङ्गा, ततः प्रभृति जाह्नवी ॥ १६७ ॥ परिखां पूरयित्वा च, भूरिभिर्विवरैर्जलम् । धारायचैरिवाऽविक्षनागानां भवनेष्वथ ॥ १६८॥ १ परित इत्यर्थः । २ जलजन्तूनाम् । ३ अग्निवत् । . अविचारितकारिभिः । ५ अमस्कृतेन । सावनगर्भा वाण्येव जलम् ।
•जकन्यायोजनसहलप्रमाणाम् ।
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पचमः सर्गः ]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
१७१ ॥
पयोभिः पूर्यमाणेषु, बिलवत् फणिवेश्मसु । फूत्कुर्वन्तः प्रतिदिशं, फणिनस्त्रेसुराकुलाः ॥ १६९ ॥ नागलोकस्य सङ्घोभं दृष्ट्वा भूयोऽपि सोऽहिराट् । अकुप्यद् विकटाकार, आरास्पृष्ट इव द्विपः ॥ १७० ॥ अवोचच्च सगरजाः, पितृवैभवदुर्मदाः । न सामयोग्यास्ते किन्तु, दण्डार्हा रासभा इव ॥ एकोऽपराधो भवनभ्रंशरूपो व्यपद्यत । मयाऽकारि न शिक्षा यत्, तैस्तन्मन्तूंयितं पुनः ॥ १७२ ॥ आरक्ष इव दस्यूनां तेषां शिक्षां करोम्यहो ! । अहमित्युद्भटं जल्पन्ननल्पाटोपभीषणः ॥ १७३ ॥ अकाल इव कालाग्निरूद्धान्तो दीप्तिदारुणः । जगद् दग्धुमना वाधेरौवैग्निरिव निर्गतः ॥ १७४ ॥ वज्रानल इवोज्वालः, स निर्गत्य रसातलात् । तत्राऽऽजगाम वेगेन, समं नागकुमारकैः ॥ १७५ ॥ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ ईशाश्चक्रे च तान् मञ्जु, दृष्ट्या दृष्टिविषाधिपः । भस्मराशीबभ्रुवुस्ते, वह्निना तृणपूलवत् ॥ १७६ ॥ जज्ञे हाहारवस्तत्र, रोदः कुक्षिम्भरिर्महान् । लोके स्यादनुकम्पायै, सागसामपि निग्रहः ॥ १७७ ॥ षष्टिं सहस्रान् सगरात्मजानां स तान् कथाशेषतया विधाय । रसातलं नागपतिः सनागो, ययौ विवस्वानिव वासरान्ते ॥ १७८ ॥
इत्याचार्य श्री हेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये द्वितीये पर्वणि सगरपुत्रनिधनो नाम पश्चमः सर्गः ॥
१ शास्त्रविशेषः ।
२ अपराखम् । ३ बढनाभिः ।
२३१
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२३२
[द्वितीयं पर्व
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
षष्ठः सर्गः।
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क्रिसैन्येऽथ सैन्यानामाक्रन्द उदभून्महान् । महाजलाशय इव, रिक्तीभवति यादसाम् ॥१॥ केऽप्याखादितकिम्पाका, इव पीतविषा इव । सर्पदष्टा इवोन्मूर्छाः, पेतुर्वसुमतीतले ॥२॥
केचिदास्फालयामासुः, स्वशिरो नालिकेरवत् । केचिदाजगिरे वक्षः, कृतागस्कमिवाऽसकृत् ।। ३ ॥ 5 पादान् प्रसार्य केऽप्यस्थुः, कृत्यमूढाः पुरन्ध्रिवत् । भृगूण्यारुरुहुर्झम्पां, कपिवत् केऽपि दित्सवः ॥ ४ ॥
कूष्माण्डदारमुदराण्येके स्वानि दिदीर्षवः । चकृषुः क्षुरिका कोशाद्, यमजिह्वासहोदराम् ॥ ५ ॥ आत्मानं तरुशाखायामुद्भन्छुमनसोऽपरे । बबन्धुरुत्तरीयाणि, लीलादोलां यथा पुरा ॥ ६॥ शिरसोऽत्रोटयन् केऽपि, केशान् क्षेत्रात् कुशानिव । केऽप्यङ्गलग्नं नेपथ्य, चिक्षिपुः खेदबिन्दुवत् ॥ ७॥
हस्तन्यस्तकपोलाः केऽप्यस्थुश्चिन्तापरायणाः । प्रदत्तोत्तम्भनस्तम्भजर्जराकारकुड्यवत् ॥ ८॥ 10 असंवहन्तः केचिच्च, परिधानांशुकान्यापे । विशंस्थुलाङ्ग व्यलुठचुन्मत्ता इव भूतले ॥ ९॥
विलापोऽन्तःपुरस्त्रीणां, कुररीणामिवाऽम्बरे । हृदयाकम्पजनकः, पृथक् पृथगभूदिति ॥१॥ प्राणेशान् गृह्णताऽसाकं, प्राणानत्रैव मुञ्चता । किमर्धवैशंसमिदं, रे दैवाऽऽचरितं त्वया ? ॥ ११ ॥ प्रसीद विवरं देहि, स्फुटित्वा देवि काश्यपि! । अभ्रादपि पतितानां, शरणं धरणी खलु ॥ १२ ॥
अद्य चन्दनगोधानामिवाऽस्माकमुपयेहो।। विद्युद्दण्डमकाण्डेऽपि, देव! पातय निदेयम ॥१३॥ 15 प्राणाः! शिवा वः पन्थानः, सन्तु यात यथेप्सितम् । विमुश्चताऽमच्छरीरमवयकुटीमिव ॥१४॥
समायाहि महातन्द्रे, सर्वदुःखापनोदिनि! । मन्दाकिनि! त्वमुत्प्लुत्य, जलमृत्युं प्रयच्छ वा ॥ १५ ॥ अस्यां गिरितलाटव्यां, प्रादुर्भव दवानल! । अनुयामः पतिगति, तव साहाय्यकाद् यथा ॥ १६ ॥ हा केशपाश! मुश्चाऽद्य, सुमनोदामसौहृदम् । युवाभ्यां दीयतां नेत्रे , कजलाय जलाञ्जलिः ॥१७॥
पत्रलेखनकण्डूति, मा कृषाथां कपोलकौ! । अलक्तकव्यतिकरश्रद्धामधर! मा धर ॥१८॥ 20 गीताकर्णनवत् कौँ', त्यजतं रनकर्णिकाम् । हे कण्ठ! कण्ठिकोत्कण्ठां, मा कार्षीस्त्वमतः परम् ॥१९॥
वक्षोजावद्य वां हारो, नीहारोऽम्भोरुहामिव । सद्यो हृदय! भूयास्त्वं, पक्कैर्वारुकैवद् द्विधा ॥२०॥ पाहू! कङ्कण-केयूरै रवि कृतं च वाम् । नितम्ब! रसनां मुञ्च, प्रातश्चन्द्र इव प्रभाम् ॥ २१ ॥ अनाप्तैरिव पर्याप्तं, हे पादौ! पादभूषणैः । अलमङ्गोऽङ्गरागैस्तैः, कपिकच्छूमयैरिव ॥ २२॥
एवमन्तःपुरस्त्रीणां, रुदितैः करुणवरैः । वनान्यपि प्रतिरवै, रुरुदुः सह बन्धुवत् ॥ २३ ॥ 25 सेनाधिपति-सामन्त-मण्डलेशादयोऽपि हि । शोक-ही-क्रोध-शङ्कादिविचित्रं प्रालपनिति ॥२४॥
हा स्वामिपुत्राः! क गताः १, न हि संविद्महे वयम् । ब्रूताऽनुयामोऽद्य यथा, स्वामिशासनतत्पराः॥२५॥ किं तिरोधानविद्येह, भवतां काऽप्युपस्थिता । सा तु खेदाय भृत्यानां, प्रयोक्तुं न हि युज्यते ॥ २६ ॥ युष्मान् नष्टान् विनष्टान् वा, हित्वा गतवतां मुखम् । कथं द्रक्ष्यति नः स्वामी, ऋषिहत्याकृतामिव ? ॥२७॥
युष्मान् विना गतान् नोऽद्य, लोकोऽप्युपहसिष्यति । हृदय! स्फुट रे! सद्यः, पयःसिक्तामकुम्भवत्॥२८॥ 30 तिष्ठ तिष्ठाहिखेट! त्वं, छलेन श्वेव नः पतीन् । व्यग्रानष्टापदत्राणे, दग्ध्वाज्यासीः क रेऽधुना ॥२९॥
खगः खड्गो धन्य धन्व, शक्तिः शक्तिर्गदा ग़दा । युद्धाय सजीभव रे !, कियचंष्ट्वा गमिष्यसि ? ॥३०॥ अमी तावदिह त्यक्त्वा, ययुः स्वामिसूनवः । हहा! तत्र गतानद्य, त्यक्ष्यति खाम्यपि द्रुतम् ॥ ३१ ॥
कृतापराधम् । २ छिन्झटकानि अत्युचानि गिरिशिखराणि। ३ दातुमिच्छवः। - शिथिलावं यथा स्वात्तथा। * पुरे स्त्री सहरसा ३ संता० ॥ ५ अर्धमरणम् । ६ हे पृथ्वि । ७ भाटकगृहीतां कुटीमिव । ८ पुष्पमालामैत्रीम् । ९ सम्बन्धः। धिर संता० सा ॥ हिमम् । पधिर्भटकवत् । १२ हे शरीर ।। १५ अमान् । ४ अपकपडवत् ।
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पष्टः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२३३ अगतानपि नस्तत्र, जीवतोऽत्रैव तिष्ठतः । श्रुत्वा लञ्जिष्यते स्वामी, यदि वा निग्रहीष्यति ॥ ३२ ॥ ___ एवं रुदित्वा विविधं, भूयः सम्भूय ते मिथः । सहजं धैर्यमालम्ब्य, मन्त्रयामासुरित्यथ ॥ ३३ ॥ पूर्वोदितविधानेभ्यः, परोक्तविधिवद् विधिः । सर्वेभ्यो बलवांस्तसान कोऽपि बलवत्तरः ॥ ३४ ॥ तत्राऽशक्यप्रतीकारे, मुधा प्रतिचिकीर्षितम् । व्योम्नः प्रतिजिघांसेव, जिघृक्षेव नभवतः ॥ ३५ ॥ एभिः प्रलापैस्तदलं, हस्त्यश्वायखिलं प्रभोः । इदानीमर्पयामः खं, वयं न्यासधरा इव ॥ ३६॥ 5 उचितं रुचितं वाऽपि, यत्किञ्चन ततः परम् । विदधातु तदस्मासु, स्वामी किं नो विचिन्तया ? ॥३७॥ __एवमालोच्य ते सर्वे, सर्वमन्तःपुरादिकम् । आदाय दीनवदनाः, प्रत्ययोध्यं प्रतस्थिरे ॥ ३८॥ मन्दं मन्दमथोत्साहहीना म्लानाननेक्षणाः । अयोध्यासन्निधिभुवं, प्रापुः सुप्तोत्थिता इव ॥ ३९ ॥ विषण्णास्तत्र च स्थित्वा, नीता वध्यशिलामिव । उपविश्य महीपीठेऽन्योऽन्यमेवं बभाषिरे ॥४०॥ भक्ता बहुज्ञा दोष्मन्तो, दृष्टसाराः पुराऽपि च । इत्यादिष्टा वयं राज्ञा, सत्कृत्य तनयैः सह ॥४१॥ 10 विना कुमारानभ्येत्य, स्वामिनोऽग्रे वयं कथम् । वदनं धारयिष्यामो, नासिकारहिता इव ॥४२॥ कथं वा कथयिष्यामः, पुत्रवृत्तान्तमीदृशम् । अकाण्डाशनिसम्पातसदृशं वसुधापतेः १ ॥४३॥ अतः परमहो ! तत्राऽस्माकं गन्तुं न युज्यते । युज्यते किन्तु मरणं, शरणं सर्वदुःखिनाम् ॥ ४४ ॥ सम्भावनायाः प्रभुणा, कृताया भ्रंशभाजिनः । पुंसोऽशरीरिकस्येव, जीवितव्येन किं ननु ? ॥४५॥ किश्च पुत्रक्षयं श्रुत्वा, दुःश्रवं चक्रवर्त्यपि । चेद् विपद्येत तदपि, मृत्युरग्रेसरो हि नः ॥ ४६॥ 15 मत्रयित्वेति ते सर्वे, मरणे कृतनिश्चयाः । यावत् तस्थुस्तावदागादेकः काषायभृद्विजः ॥ ४७॥
ब्राह्मणग्रामणीः सोऽथ, प्रोरिक्षप्तकरपङ्कजः । जीवयंस्तानुवाचैवं, गिरा जीवातुकल्पया ॥४८॥ भोः कृत्यमूढाः ! किं यूयमेवं स्थाऽस्वस्थचेतसः ? । उपर्यापतिते व्याधे, पतित्वा शशका इव ॥ ४९ ॥ यदि षष्टिसहस्रा वः, स्वामिपुत्रा विपेदिरे । युगपद् युग्मिवत् तत्र, विषादेन कृतं ननु ॥५०॥ सहजाता अपि क्वाऽपि, विपद्यन्ते पृथक् पृथक् । पृथग्जाता अपि वापि, विपद्यन्ते सहैव हि ॥ ५१ ॥20 बहवोऽपि विपद्यन्ते, विपद्यन्तेऽल्पका अपि । सर्वेषामपि जीवानां, यन्मृत्युः पारिपार्श्विकः ॥ ५२ ॥ न हि केनापि कस्यापि, मृत्युः शक्यो निषेधितुम् । अपि यत्नशतं कृत्वा, स्वभाव इव देहिनाम् ॥५३॥ निषेधितुं शक्यते चेत्, स निषिद्धः कथं न हि । वज्रभृच्चक्रवक्थैः , स्वस वा स्वजनस्य वा ? ॥५४॥ मुष्टिना शक्यते धर्तुमपि वजं पतद् दिवः । सेतुनाऽवस्खलयितुमप्युद्धान्तः पयोनिधिः ॥ ५५ ॥ निर्वापयितुमुद्दामो, युगान्तज्वलनोऽपि वा । कल्पान्तोत्पातजातो वा, मन्दीकर्तुं समीरणः ॥५६॥ 25 उत्तम्भनेनादिरपि, समुत्तम्भयितुं पतन् । न तूपायशतेनापि, शक्यो मृत्युनिषेधितुम् ॥ ५७॥ ते नः सम्पश्यमानानां, विपन्नाः स्वामिसूनवः । इत्येवं मास खिद्यध्वं, धीरीभवत सम्प्रति ॥ ५८॥ युष्माकं स्वामिनमपि, मजन्तं शोकसागरे । हस्तेनेव धरिष्यामि, प्रबोधवचसाऽञ्जसा ॥ ५९॥
एवमाश्वास्य तान् सर्वान्, मृतं किश्चित् पथि स्थितम् । विप्रः सोऽनाथमादाय, विनीतां नगरीं ययौ ॥६॥ सगरस्य नरेन्द्रस्य, स गत्वा सदनाङ्गणे । ऊर्धीभूयोद्धदोर्दण्डः, पूच्चकारोच्चकैरिति ॥ ६१॥ 30 चक्रवर्तिन् ! न्यायवर्तिनखण्डभुजविक्रम!। अत्याहितमब्रह्मण्यमब्रह्मण्यमहो! इदम् ॥ ६२॥ खर्गे पुरन्दरेणेव, क्षेत्रे भरतनामनि । यत् त्वया रक्षितेऽप्यसिन्, मुषितो मुषितोऽस्म्यहम् ।। ६३ ॥
शब्दमश्रुतपूर्व तं, श्रुत्वा सगरचयपि । सङ्क्रान्ततदुःख इव, जगाद द्वारपालकम् ॥ ६४ ॥ केनैष मुषितः कोऽयं, कुतो वाऽयं समागतः । सर्व विज्ञायतामेतत्, स्वयं वात्र प्रवेश्यताम् ॥६५॥
पूर्वविभिभ्यः परो विधिलवानिति व्याकरणशास्ने न्यायः । २ दैवम् । ३ प्रतिहन्तुमिच्छा । ४ ग्रहीतुमिच्छा । ५. धनम् । सञ्जीवनौषधतुल्यया । ७ मृत्युः। ८ रोखुम् । ९ जीवितापहार्यनर्थसम्पातः ।
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२३४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ द्वितीयं पर्व द्वारपालोऽथ पप्रच्छ, विप्रं क्षिप्रमुपेत्य तम् । अनाकर्णितकं कुर्वन्, पूच्चकार तथैव सः॥६६ ॥ व्याजहार प्रतीहारः, पुनरेवमहो द्विज! । किं दुःखबधिरोऽसि त्वं?, निसर्गबधिरोऽसि वा ॥६७॥ अजितस्वामिनो भ्राता, खयमेष महीपतिः । दीना-ऽनाथपरित्राता, शरणं शरणार्थिनाम् ॥ ६८॥
सादरः सोदरमिव, त्वां पृच्छति विराविणम् । मुषितः केन ? कश्चाऽसि ?, कुतस्त्योऽसीति शंस नः॥६९॥ 5 यदि वा खयमागत्य, स्वकीयं दुःखकारणम् । वैद्यायेव रुगुत्थानं, निवेदय महीभुजे ॥ ७० ॥
इत्युक्तः प्रतिहारेण, स द्विजः साश्रुलोचनः । नीहारकणिकाकीर्णसरोरुह इव हृदः॥७१॥ अम्लानवदनेन्दुश्च, निशीथ इव हैमनः । अच्छभल्ल इवातुच्छप्रविकीर्णशिरोरुहः ॥ ७२ ॥ जरत्प्लवङ्गम इव, परिक्षामकपोलकः। मन्दमन्दपदन्यासं, प्राविशञ्चक्रिणः संदः॥७३॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥
__ स्वयं कृपालुना सोऽथ, चक्रिणैवमपृच्छयत । कच्चित् ते काञ्चनं किञ्चिजहे कुत्रापि केनचित् १ ॥७४॥ 10 किंवारमानि केनापि, हृतानि वसनानि वा । किंवाऽपालापि केनापि, न्यासो विश्वस्तघातिना ॥७५॥
ग्रामारक्षादिना किं वा, केनाऽप्यसि कदर्थितः ? । भाण्डसर्वखहरणात्, पीडितः शौल्किकेन वा ? ॥७६॥ दायादेनाऽथ केनापि, प्रापितोऽसि पराभवम् ? । उपदुद्राव कोऽपि त्वां, जायोविद्रवणेन वा ? ॥ ७७॥ बलवानथवा वैरी, त्वामास्कन्दति कश्चन ? । आधिर्वा बाधते कोऽपि, त्वां ? व्याधिरथवोत्कटः १ ॥७८॥
द्विजातिजातिसुलभं, दारिद्यं त्वां दुनोति वा । अन्यद्वा दुःखकृद् यत् ते, तदाख्याहि महाद्विज! ॥७९॥ 15 सद्यो नट इवाऽलीकं, मुश्चन्नधान्तमश्रु सः । ब्राह्मणो व्याजहारैवं, राजानं रचिताञ्जलिः॥ ८ ॥
द्यौरिवाऽमरराजेन, न्याय-विक्रमराजिना । त्वया राजन्वती राजन् !, षद्खण्डभरतावनिः॥८१॥ नाऽऽच्छिन्ते कस्यचित् कोऽपि, स्वर्ण-रत्नादि किञ्चन । आढ्याः स्वगृहवद् ग्रामान्तरालेऽपि हि शेरते ॥८२।। न्यासं नाऽपहृते कोऽपि, निजं कुलमिवोत्तमम् । वपुत्रमिव रक्षन्ति, ग्रामारक्षादयः प्रजाम् ॥ ८३ ॥
अर्थ लभ्येऽतिरिक्तेऽपि, शुल्कं भाण्डानुमानतः । गृह्णन्ति शौल्किका दण्डमिव मन्तुप्रमाणतः ॥ ८४ ॥ 20 दीयमादाय दायादा, विवदन्ते पुनर्न हि । अवाप्तोत्तमसिद्धान्ताः, शिष्या इव गुरुं प्रति ॥ ८५ ॥
भगिनीवद् दुहित्वत् , स्नुषावन्मावत् तथा । मन्यते परकीयाः स्त्रीया॑यनिष्ठोऽखिलो जनः ॥ ८६ ॥ नास्ति यत्याश्रम इव, त्वद्राज्ये वैरवागपि । सन्तोषशालिनि जने, नाऽऽधिः साऽम्भसि तापवत् ॥ ८७ ।। भुवि सर्वोषधीमय्यां, न व्याधिः प्रावृषीव तृट् । त्वयि कल्पद्रुम इव, दारियं च न कस्यचित् ॥ ८८॥ अस्ति दुःखाकर लोके, न किञ्चिदपि कस्यचित् । किन्तूपनतमस्त्येतन्ममैव हि तपस्विनः ॥ ८९ ॥
अवन्तिर्नाम देशोऽस्ति, स्वर्गदेश्यो महानिह । नगरोद्यान-नद्याद्यैरनवद्यैर्मनोहरः॥९०॥ महासर:-कूप-चापी-विचित्रारामबन्धुरः । तत्राऽश्वभद्रो नामाऽस्ति, ग्रामस्तिलकवद् भुवः ॥ ९१ ॥ तत्र ग्रामेऽसि वास्तव्यो, वेदाध्ययनतत्परः । अग्निहोत्ररतो नित्यं, शुद्धब्रह्मकुलोद्भवः ॥ ९२ ॥ पल्याः प्राणप्रियं पुत्रमर्पयित्वाऽहमन्यदा । विशेषविद्याध्ययनहेतोामान्तरं गतः ॥ ९३ ॥ पठतस्तत्र चाऽन्येचुरुदभूदरतिर्मम । अनिमित्तं महदेतदित्यक्षुभ्यमहं ततः ॥९४ ॥ भीतस्तेनानिमित्तेन, खं ग्रामं पुनरागमम् । अहं पूर्वाश्रितां जात्यतुरङ्ग इव मन्दुराम् ॥ ९५ ॥ दूरादहमपश्यं च, श्रीविमुक्तं निजं गृहम् । किमेतदिति चित्ते च, चिरं यावदचिन्तयम् ॥ ९६ ॥ अमन्दं स्पन्दितं तावद्, दक्षिणेतरचक्षुषा । शुष्कवृक्षे चटित्वोच्चै, रटितं कैरटेन च ॥ ९७ ॥ इत्यादिभिर्दुनिमित्तैर्विद्धो हृदि शरैरिव । विमनाः प्राविशमहं, चश्चापुरुषवद् गृहम् ॥ ९८ ॥
१ पूत्कारिणम् । २ रोगोत्पत्तिम् । ३ हेमन्ततौं रात्रिरिव । ४ यथा जीर्णकेशः भलूको भवति तादृशः। ५ सभाम् । ६ अपझुतः। विश्वासघातिना। शुरुकाध्यक्षेण । ९ जायाया अपहारेण । १.नापहरति । ११ यथापराधम् । २ भागम् । १३ प्रासम् । १४ दुःखम् । १५ स्वर्गसइशः। १६ अपशकुनम् । १७ अश्वशालाम् । १८ वामनेत्रेण । काकेन ।
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षष्ठः सर्गः ]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२३५
मामापतन्तं सम्प्रेक्ष्य, ब्राह्मणी विलुलत्कच । सद्यो हा पुत्र ! हा पुत्रेत्याक्रन्दन्त्यपतद्भुवि ॥ ९९ ॥ ध्रुवं विपन्नो मे पुत्र, इति निश्चित्य चेतसा । अहमप्यपतं सद्यो, गतप्राण इवाश्वनौ ॥ १०० ॥ मूर्च्छाविरामे भूयोऽपि, प्रलपन् करुणस्वरम् । अपश्यं गृहमध्येऽहं सर्पदष्टमिमं सुतम् ॥ १०१ ॥ भोजनाद्यप्यकृत्वाऽस्थां, यावज्जाग्रदहं निशि । कुलदेवतया तावदिदमादेशि मे पुनः ॥ १०२ ॥ भोः ! किमेवं समुद्विग्नोऽस्यमुना पुत्रमृत्युना ? । सम्पादयामि ते पुत्रं, यद्यादेशं करोषि मे ॥ १०३ ॥ देव्याः प्रमाणमादेश, इत्यवोचमहं ततः । पुत्रार्थे शोकविधुरैः, किं वा न प्रतिपद्यते ? ॥ १०४ ॥ कुलदेवतयाऽथोक्तं, विपन्नो यत्र कोऽपि न । ततोऽग्निं मङ्गलगृहात् कुतोऽप्यानय सत्वरम् ॥ १०५ ॥ ततस्तनयलोभेन, प्रत्यहं प्रतिमन्दिरम् । तत् पृच्छन् हस्यमानोऽहं भ्रान्तोऽर्भक इवाऽभ्रमम् ॥ १०६ ॥ पृच्छयमानो जनः सर्वोऽप्याचष्टे स्म गृहे गृहे । सङ्ख्यातीतान् मृतान् वेश्म, नाऽमृतं किञ्चिदप्यभूत् ॥ १०७॥ तदप्राया च भग्नाशः, परासुरिव नष्टधीः । व्यजिज्ञपमहं दीनस्तत् सर्व कुलदेवताम् ॥ १०८ ॥ आदिशद् देवताऽप्येवं, न मङ्गलगृहं यदि । अमङ्गलं कथमहं तव रक्षितुमीश्वरी १ ॥ १०९ ॥ तया च देवतावाचा, तोत्रेणेवं प्रवर्तितः । प्रतिग्रामं प्रतिपुरं भ्रमन्नहमिहाऽऽगमम् ॥ ११० ॥ अपि धात्र्याः समस्तायास्त्राता त्वमसि विश्रुतः । न कोऽपि प्रतिमल्लोऽस्ति दोष्मदग्रेसरस्य ते ॥ १११ ॥ वैतान्यगिरिदुर्गस्थश्रेणिद्वयगतास्तव । विद्याधरा अपि दधत्याज्ञां शिरसि माल्यवत् ॥ ११२ ॥ देवा अपि तवाऽऽदेशं, सदा कुर्वन्ति भृत्यवत् । वाञ्छितार्थं प्रयच्छन्ति, निधयश्च तवाऽनिशम् ॥ ११३ ॥ 15 ततस्त्वां शरणं प्राप्तो, दीर्नत्राणैकसत्रिणम् । तदग्निं मङ्गलगृहात् कुतोऽप्यानय मत्कृते ॥ ११४ ॥ विपन्नमपि मे पुत्रं, सा यथा कुलदेवता । प्रत्यानयति येनाऽस्मि, दुःखितः पुत्रमृत्युना ॥ ११५ ॥ भवस्वरूपं नृपतिर्जानन्नपि कृपावशात् । तद्दुःखदुःखितः किञ्चिच्चिन्तयित्वैवमब्रवीत् ॥ ११६ ॥ एतस्यामवनौ तावद्, गृहेषु सकलेष्वपि । अस्माकं गृहमुत्कृष्टं, सुमेरुः पर्वतेष्विव ॥ ११७ ॥ आसीदस्मिन्नसामान्यस्त्रिजगन्मान्यशासनः । प्रथमस्तीर्थनाथानां प्रथमः पृथिवीभुजाम् ॥ ११८ ॥ लक्षयोजनमुत्सेधे, दण्डीकृत्यामराचलम् | दोर्दण्डेन समुत्क्षिप्य च्छत्रीकर्तुं क्षमः क्षमाम् ॥ ११९ ॥ चतुःषष्टीन्द्र मुकुटोत्तेजिताङ्गिनखावलिः । भगवानृषभस्वामी, विपन्नः सोऽपि कालतः ॥ १२० ॥ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥
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तस्य च प्रथमः सूनुः, प्रथमश्चक्रवर्तिनाम् । सुरासुरैरपि सदा, शिरसोद्वाह्यशासनः ॥ १२१ ॥ भरतो नाम सौधर्मपुरुहूतासनार्धभाक् । कालेन गच्छता सोऽपि समाप्तिं प्रापदायुषः ॥ १२२ ॥ युग्मम् ॥ 25 तस्य चाऽवरजो धुर्यो, वर्यदोर्वीर्यशालिनाम् । अम्भोधीनामिवाऽम्भोधिः, स्वयम्भूरमणाभिधः ॥ १२३ ॥ कण्डूयद्भिः सैरिभेभँ-शरभाद्यैरकम्पितः । वज्रदण्ड इव न्यस्तो, वत्सरं प्रतिमाधरः ॥ १२४ ॥ महाबाहुर्बाहुबलिर्बाहुदन्तेयविक्रमः । नाऽधिकं किश्चिदप्यस्थात्, सम्पूर्ण पुरुषायुषे ॥ १२५ ॥
॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ उग्रेण तेजसाऽऽदित्यो, नाम्नाऽऽदित्ययशा इति । समभूदोजसाऽनूनः सूनुर्भरत चक्रिणः ॥ १२६ ॥ 30 आदित्ययशसः सूनुरासीन्नाम्ना महायशाः । दिगन्तसङ्गीतयशाः, सर्वदोष्मच्छिरोमणिः ॥ १२७ ॥ तस्य चाऽतिबलो नाम, सूनुः समुदपद्यत । आखण्डल इवाऽखण्डशासनोऽवनिशासनः ॥ १२८ ॥ बभूव तस्य तनयो, बलभद्रोऽभिधानतः । जगन्मद्रङ्करः स्थाम्ना, धाम्ना दीधितिमानिव ॥ १२९ ॥ बलवीर्यो महावीर्यः, शौर्य- धैर्यभृदग्रणीः । ग्रामणीर्नरनाथानामभवत् तस्य चाऽऽत्मजः ॥ १३० ॥
१ विकीर्णकेशा। २ जीवयामि । * ऽथोचे, विप° ढं० ॥ ३ मृतः । ४ गतप्राणः । ५ गवादिताडनदण्डः । ६ दीनरक्षणकदीक्षितम् । ७ महिषगजाष्टापदप्रभृतिभिः । ८ इन्द्रसमपराक्रमः । ९ जगन्माङ्गल्यकारकः । १० सूर्य इव ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
| द्वितीयं पर्व शोभितः कीर्ति-वीर्याभ्यां, कीर्तिवीर्यश्च विश्रुतः । उदभृदङ्गभूस्तस्माद् , दीपो दीपादिवोज्वलः ॥१३॥ दन्तिभिर्गन्धदन्तीव, वज्रदण्ड इवाऽऽयुधैः । परैरवार्यवीर्योऽभूजलवीर्यश्च तत्सुतः ॥ १३२ ॥ अखण्डदण्डशक्तिश्च, दण्डपाणिरिवाऽपरः । अभूदुद्दण्डदोर्दण्डो, दण्डवीर्यस्तदात्मजः ॥ १३३ ॥ अपाच्यभरतार्थस्य, शासितारो महौजसः । इन्द्रोपनीतभगवन्महामुकुटधारिणः ॥ १३४ ॥ सुरा-ऽसुरैरप्यजय्यास्तेऽपि लोकोत्तरौजसः । सर्वेऽपि कालधर्मेण, कालेधर्ममुपाययुः ॥ १३५ ॥ युग्मम् ॥ ततः प्रभृति चाऽन्येऽपि, सङ्ख्यातीता महीभुजः । महाभुजा व्यपद्यन्त, कालो हि दुरतिक्रमः ॥१३६॥ सर्वकषः पिशुनवत् , सर्वभक्षी हुताशवत् । सर्वभेदी सलिलवत् , कृतान्तस्तदहो द्विज! ॥ १३७ ॥ मदीयेऽपि गृहे कालान्नाऽवशिष्टोऽस्ति पूर्वजः । का वार्ताऽन्यगृहेष्वस्ति ?, तन्मङ्गलगृहं कुतः १ ॥१३८॥ त्वत्पुत्रश्चेन्नियेतैकस्तदेवमुचितं तव । सर्वसाधारणे मृत्यौ, किं नाम द्विज! शोचसि? ॥ १३९ ॥ अर्भके स्थविरे वाऽथ, दरिद्रे चक्रवर्तिनि । समं वर्तत इत्येष, कृतान्तः समवय॑हो! ॥१४॥ संसारस्य खभावोऽयं, न स्थिरः कश्चिदत्र यत् । तरङ्गवत् तरङ्गिण्यां, शरदभ्रवदम्बरे ॥ १४१ ॥ किञ्चाऽसौ मे पिता माता, भ्राता पुत्रः वसा स्नुषा । इत्यादिरपि सम्बन्धो, न भवे पारमार्थिकः ॥१४२॥ केऽपि केपि कुतोऽप्येत्य, मिलन्त्येकत्र वेश्मनि । यतः शरीरिणः सर्वे, ग्रामकुंट्यामिवाऽध्वगाः ॥१४३ ॥
पृथक् पृथक् पथेनैव, स्वकर्मपरिणामतः । तेषु गच्छत्सु को नाम, सुधीः शोचेन्मनागपि ? ॥ १४४ ॥ 15 मास शोकं कृथास्तेन, मोहचिह्न द्विजोत्तम । धेहि धैर्य महासत्व !, विवेके खं निधेहि च ॥१४५ ॥
अथावोचद् द्विजन्माऽपि,राजन् ! जानामि जन्मिनाम् । भवस्वरूपं किन्त्वद्य,व्यसाईं पुत्रशोकतः॥१४६॥ तावत् सर्वोऽपि जानाति, तावत् सर्वोऽपि धैर्यभाक । यावदिष्टवियोगं नाऽनुभवत्यात्मना भवी ॥१४७॥ सदाऽहंदादेशसुधापाननिधौंतचेतसः । विरलास्त्वादृशाः स्वामिन् !, धैर्यवन्तो विवेकिनः ॥ १४८ ॥
विवेकिन् ! भवता मुद्यन् , बोधितः साधु साध्वहम् । उपस्कार्यो विवेकोऽयमात्मनोऽपि कृते त्वया॥१४९॥ 20 नश्यन्नयं रक्षणीयो, व्यसने समुपस्थिते । यतो विधुरैवेलायै, ध्रियते ध्रुवमायुधम् ॥ १५० ॥
अयं च कालो रङ्के च, समश्चक्रधरेऽपि च । प्राणान् पुत्रादि वाऽऽच्छिन्दन , विभेति न कुतोऽपि हि ॥१५१॥ हन्त ! पुत्रादि यस्याल्पमल्पं तस्य विपद्यते । भूयिष्ठं यस्य तत् तस्य, भूयिष्ठं हि विपद्यते ॥ १५२ ॥ द्वयोरपि तयोः पीडा, तुल्यैव हि भवत्यहो! । अल्पा-ऽनल्पाहाराभ्यां, कुन्थु-कुञ्जरयोरिव ॥ १५३॥
नाशेनैकस्य पुत्रस्य, न शोचिष्याम्यतः परम् । मद्वत् त्वमपि मा शोचीः, सर्वपुत्रक्षयेऽपि हि ॥ १५४ ॥ 25 षष्टिसहस्रसङ्ख्यास्ते, दोर्विक्रमविराजिनः । राजन् ! विपन्नास्तनया, युगपत् कालयोगतः ॥ १५५ ॥
__अत्रान्तरे च सामन्ता-ऽमात्य-सेनाधिपादयः । अपरेऽपि कुमाराणां, जना आसन्नवर्तिनः ॥ १५६ ॥ उत्तरीयच्छन्नमुखाः, शालीना इव लज्जया । विवर्णदेहाः खेदेन, दवदग्धा इव द्रुमाः ॥ १५७ ॥ अत्यन्तशून्यमनसः, पिशाच-किन्नरा इव । उदश्रुलोचना दीना, मुषिताः कृपणा इव ॥ १५८ ॥ प्रस्खलचरणन्यासा, दष्टा इव भुजङ्गमैः । आस्थानं युगपद् राज्ञोऽविशन् सङ्केतिता इव ॥ १५९ ॥ राजानं ते नमस्कृत्य, यथास्थानमुपाविशन् । विविक्षव इव क्षोणी, ते च तस्थुरधोमुखाः॥१६०॥ तां विप्रवाचमाकये, दृष्ट्वा तांश्च तथाविधान् । कुमारवर्जमायाताननिषादिद्विपानिव ॥ १६१ ॥ लिखितो नूल्लिखितो नु, सुप्तो नूत्तम्भितो नु वा । शून्यो निष्पन्दनयनो, द्रागभूदवनीपतिः॥ १६२ ॥
॥ युग्मम् ॥ आतमूर्च्छमधैर्येण, धैर्येण च तथास्थितम् । पुनर्बोधयितुं विप्रः, प्रोवाच पृथिवीपतिम् ॥ १६३ ॥ .. अलौकिकपराक्रमवन्तः । २ मृत्युम् । ३ नद्याम् । धर्मशालायाम् । ५ विवेकः। ६ दुःखवेलायै । सभाम् । प्रवेष्टुमिच्छवः। ९ हतिपकरहितगजानिव । * यथा सा॥१.स्वस्थम् ।
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षष्ठः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२३७ त्वमसि मापते ! विश्वमोहनिद्राविवस्वतः। ऋषभस्वामिनो वंश्यो, भ्राता चास्यजितप्रभोः॥१६४॥ इत्थं पृथग्जन इव, भवन् मोहवशंवदः । तयोः कलङ्कमाधत्सेऽधुना किं धरणीधव! ? ॥ १६५ ॥
राजाऽपि दध्यौ विप्रोऽयं, स्वपुत्रान्तापदेशतः । मत्पुत्रक्षयनाट्यस्य, जगौ प्रस्तावनामिमाम् ॥१६६॥ व्यक्तं च शंसत्यधुना, कुमाराणामसौ क्षयम् । कुमारवर्ज चाऽऽयाताः, प्रधानपुरुषा अमी ॥ १६७ ॥ कुतः सम्भाव्यते तेषां, क्षयश्च मनसापि हि । भुवि सञ्चरतां खैरं, वने केसरिणामिव ? ॥ १६८ ॥ 5 महारत्नपरीवारा, दुराः स्वौजसाऽपि हि । केन शक्या निहन्तुं ते, हन्ताऽस्खलितशक्तयः ? ॥ १६९ ॥ चिन्तयित्वेति किमिदमिति पृष्टाः क्षमाभुजा । ज्वलनप्रभवृत्तान्तं, शशंसुः सचिवादयः ॥ १७०॥ ताडितः कुलिशेनेव, तेनोर्दैन्तेन भूपतिः । पपात मूञ्छितः पृथ्व्यां, पृथिवीमपि कम्पयन् ॥ १७१॥ मातरश्च कुमाराणां, निपेतुर्मूर्च्छया क्षितौ । पितुर्मातुश्च तुल्यं हि, दुःखं सुतवियोगजम् ॥ १७२ ॥ । राजवेश्मनि लोकानामाक्रन्दोऽथ महानभूत् । समुद्रतटगर्तान्तर्गतानां यादसामिव ॥ १७३ ॥ 10 मन्यादयोऽपि ते स्वामिपुत्रव्यापत्तिसाक्षिणम् । आत्मानमतिनिन्दन्तो, रुरुदुः करुणवरम् ॥ १७४ ॥ तादृशीं स्वामिनोऽवस्थां, तां वीक्षितुमिवाऽक्षमाः । अञ्जलिच्छन्नवदनाः, पूचक्रुर्वेत्रपाणयः ॥ १७५ ॥ प्राणप्रियाण्यप्यस्त्राणि, त्यजन्तश्चाऽऽत्मरक्षकाः । प्रलपन्तोऽलुठन् भूमौ, वातभग्ना इव द्रुमाः ॥ १७६ ॥ खकञ्चकान् कञ्चुकिना, स्फाटयन्तोऽरटन् भृशम् । दवानलान्तः पतिता, इव तित्तिरिपक्षिणः ॥ १७७ ॥ हृदयं कुट्टयन्तः खं, चिरात् प्राप्तमिव द्विषम् । चेव्यश्चेटाश्च चक्रन्दुर्हताः स इति भाषिणः ॥ १७८ ॥ 15 तालवृन्तानिलेनाऽम्बुसेकेन च महीपतिः। राज्यश्च संज्ञामासेदुर्दुःखशल्यप्रतोदनीम् ॥ १७९ ॥ मलिनीभूतवासस्का, नेत्रास्रजलकजलैः । छाद्यमानकपोला-ऽक्ष्यो, लुलितालकवल्लिभिः ॥ १८० ॥ उरःस्थलकराधातप्रत्रुटद्धारयष्टयः । निर्भरं भूमिलठनस्फुटत्कङ्कणमौक्तिकाः ॥ १८१ ॥ धूमं शोकानलस्येवोज्झन्त्यो निःश्वासमुच्चकैः । शुष्यत्कण्ठा-ऽधरदला, राजपत्न्योऽरुदन्नथ ॥ १८२ ॥
॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ 20 धैर्य लां विवेकं च, विहायैकपदेऽपि हि । राजीवच्छोकविधुरो, विललापेति भूपतिः ॥ १८३ ॥ ___ हे कुमाराः! क यूयं स्थ?, निवर्तध्वं विहारतः। राज्यायाऽवसरो वोऽद्य, व्रताय सगरस्य तु ॥१८४॥ कथं न कोपि ब्रूते कः १, सत्यमुक्तं द्विजन्मना । दस्युनेव च्छलज्ञेन, देवेन मुषितोऽसि ही! ॥१८५।। अरे रे दैव! कुत्राऽसि ?, कुत्राऽसि ज्वलनप्रभ!? । अक्षत्रमिदमाचर्य, क्वाऽयासी गपांशन! १ ॥१८६॥ सेनापते ! क्व तेऽगच्छद्दण्डदोर्दण्डचण्डिमा ? । क्षेमङ्करत्वमगमत् , व पुरोहितरत्न ! ते ? ॥ १८७ ॥ 25 गलितं वर्धके किं ते, दुर्गनिर्माणकौशलम् । गृहिन् ! सञ्जीवनौषध्यः, किं ते कुत्रापि विस्मृताः? ॥१८८॥ गजरत्न ! किमाप्तस्त्वं, तदा गजनिमीलिकाम् ? । अश्वरत्न ! समुत्पन्नं, शूलं किं भवतस्तदा?॥ १८९ ॥ चक्र-दण्डा-ऽसयो! यूयं, किंतदानीं तिरोहिताः।अभूतां मणि-काकिण्यौ!, निष्प्रभौ किं दिनेन्दुवत्?१९० आतोद्यपुटवद् भिन्ने, किं युवां छत्र-चर्मणी !? । नवाऽपि निधयो! यूयं, ग्रस्ताः किमनया भुवा ? ॥१९१॥ युष्मद्विश्वासतोऽशक्, रममाणाः कुमारकाः । सर्वैरपि न यत् त्रातास्तस्मात् पन्नगपांसनात् ।। १९२ ॥ 30 करोम्येवं विनष्टे किमिदानीं ज्वलनप्रभम् ? । सगोत्रमपि चेद्धन्मि, न हि जीवन्ति मे सुताः॥१९३॥ ऋषभखामिनो वंशे, नैवं कोऽप्यासदन्मृतिम् । त्रपाकरमिमं मृत्यु, हा वत्साः! कथमामुत ? ॥१९४॥ पूर्वे मदीयाः सर्वेऽपि, पुरुषायुषजीविनः । दीक्षामाददिरे वर्गमपवर्ग च लेभिरे ॥ १९५ ॥ खेच्छाविहारश्रद्धापि, भवतां न ह्यपूर्यत । अरण्यानीसमुत्पन्नभूरुहामिव दोहदः ॥ १९६ ॥
साधारणजनः । २ ऋषभाजितस्वामिनोः । ३ स्वपुत्रमरणमिषात् । ४ वृत्तान्तेन । ५मरणम् । * नेत्राथुजल सा॥ ६ चौरेणेव । ७ खेदे। नागाधम!। ९गजवद् नेत्रनिमीलिकाम्। १० महदरण्यमरण्यानी।
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२३८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
द्वितीयं पर्व उदियाय च पूर्णेन्दुर्दैवाद् ग्रस्तश्च राहुणा । फैलेग्रहिश्च सञ्जज्ञे, तरुर्भग्नश्च कुम्भिना ॥ १९७ ॥ आगता च तरी तीरं, भग्ना च तटभूभृता । उन्नतश्च नवाम्भोदो, विकीर्णश्च नभस्वता ॥ १९८ ॥ निष्पन्नं च व्रीहिवणं, दग्धं च दववह्निना । धर्मा-ऽर्थ-कामयोग्याश्च, जाता यूयं हताश्च हा ! ॥ १९९ ॥
॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ प्राप्याऽपि मद्गृहं वत्सा!, अकृतार्था गता हहा! । आत्यस्य कृपणस्येव, वेश्मोपेत्य बनीपकाः॥२०० ॥ तदद्य किं मे चक्राद्यै, रनैनिधिभिरप्यलम् । युष्मान् विना विरहिणो, ज्योत्लोद्यानादिकैरिव ॥२०१॥ षट्खण्ड भरतक्षेत्रराज्येन यदि वाऽसुमिः । असुभ्योऽपि प्रियैः पुत्रैर्विनाभूतस्य किं मम ? ॥ २०२॥ ___ एवं विलापिनमथो, भूनाथं श्रावकद्विजः । स बोधयितुमित्यूचे, सुधामधुरया गिरा ॥ २०३ ॥
धान्याः परित्राणमिव, प्रबोधोऽपि तवाऽन्वये । मुख्याधिकारसम्प्राप्तो, सुधाऽन्यैर्देव! बोध्यसे ॥२०४ ॥ 10 जगन्मोहार्यमा यस्य, साक्षाद् भ्राताजितप्रभुः । अन्येन बोध्यमानस्य, तस्य लज्जा न किं तव ? ॥२०५॥
असावसारः संसारो, ज्ञाप्यतेऽन्यस्य ते पुनः । जन्म प्रभृति सर्वज्ञसेवकस्य किमुच्यते ? ॥२०६॥ पितरो मातरो जायास्तनयाः सुहृदोऽपि च । स्वप्नदृष्टोपमं राजन्!, संसारे सर्वमप्यदः ॥ २०७॥ यत् प्रातस्तन्न मध्याह्ने, यन्मध्याह्ने न तनिशि । निरीक्ष्यते भवेऽस्मिन् ही!, पदार्थानामनित्यता ॥२०८॥
तत्त्ववित् स्वयमेवाऽसि, खं धैर्ये स्थापय स्वयम् । रविणा द्योत्यते विश्वं, नाऽपरो द्योतको वः ॥२०९॥ 15 लवणोद इवाऽम्भोधिर्मणिभिर्लवणेन च । पक्षमध्यतमिस्रवाऽऽलोकेन तिमिरेण च ॥ २१०॥
राकानिशाकर इव, ज्योत्स्नया लाञ्छनेन च । हिमाद्रिरिव दिव्याभिरोषधीभिर्हिमेन च ॥ २११ ॥ तद् विप्रवचनं शृण्वन् , पुत्रान्तं च मुहुः स्मरन् । बोधेन च विमोहेन, चाऽऽनशे पृथिवीपतिः ॥२१२॥
॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ यथा नैसर्गिकं धैर्य, महत् तस्य महीपतेः । मोहोऽप्यागन्तुको जज्ञे, पुत्रक्षयभवस्तथा ॥ २१३ ॥ 20 एककोश इव खड्गावेकस्तम्भ इव द्विपौ । प्रबोध-मोहौ युगपत् , तदा राज्ञि बभूवतुः ॥ २१४ ॥
अथ बोधयितुं भूपं, सुबुद्धिर्नाम बुद्धिमान् । बाचा पीयूषसध्रीच्येत्युवाच सचिवाग्रणीः ॥ २१५ ॥ अम्भोधयोऽपि मर्यादां, लयेयुः कदाचन । आसादयेयुः कम्पं च, कदाचन कुलाचलाः ॥ २१६ ॥ अवाप्नुयात् तरलतां, कदाचिदपि मेदिनी । अपि जर्जरतां वज्रमश्रुवीत कदाचन ॥२१७ ॥ त्वादृशास्तु महात्मानो, व्यसनेषु महत्स्वपि । उपस्थितेषु वैधुर्य, न भजन्ते मनागपि ॥ २१८ ॥
॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ क्षणाद् दृष्टं क्षणान्नष्टं, कुटुम्वाद्यखिलं भवे । विवेकिन इति ज्ञात्वा, न मुह्यन्ति यथा शृणु ॥ २१९ ॥
जम्बूद्वीप इह द्वीपे, क्षेत्रे भरतनामनि । कसिंश्चिन्नगरे कोऽपि, पुराऽभूत् पृथिवीपतिः ॥२२० । जिनधर्मसरोहंसः, सदाचारपथाध्वगः । प्रजामयूरीजलदो, मर्यादापालनाम्बुधिः ॥ २२१ ॥ सर्वव्यसनकक्षाग्निर्दयावयेकपादपः । कीर्तिकल्लोलिनीशैलः, शीलरत्नैकरोहणः ॥ २२२ ॥ स एकसिन् दिने स्वस्यामास्थान्यां सुखमास्थितः । यथाक्षणं विज्ञपयाम्बभूवे वेत्रपाणिना ॥ २२३ ॥ पुष्पदामकरो द्वारि, कलाविदिव कोऽपि ना । विज्ञीप्सुः किञ्चिदद्यैव, देवपादान दिदृक्षते ॥ २२४ ॥ पण्डितः किं कविः किंवा, गन्धर्वः किं नटोऽथ किम् । छान्दसो वा नीतिविद् वाऽस्त्रविद् वाऽथेन्द्रजालिकः ।। इति न ज्ञायते ज्ञातं, त्वाकृत्या गुणवानिति । यत्राऽऽकृतिस्तत्र गुणा, इत्यर्भा अप्यधीयते ॥ २२६ ॥ आदिदेश विशामीशोऽप्येनमानय सत्वरम् । यथा विज्ञपयत्येष, यथेच्छं स्वमभीप्सितम् ॥ २२७ ॥
फलवान् । २ गजेन । ३ नौः। ४ याचकाः। ५ प्राणैः। ६ जगतां मोहनाशने सूर्यसमः। ७ पूर्णिमाचन्द्रः ।
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८ अमृतसमानया। ९सर्वव्यसनतृणवह्निः । १. सभायाम् ।
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षष्ठः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२३९ नृपादेशादनुज्ञातो, वेत्रिणा स तदा पुमान् । बुधोऽर्कमण्डलमिव, नृपास्थानीमथाविशत् ॥ २२८ ॥ रिक्तहस्तो न कुर्वीत, स्वामिदर्शनमित्यसौ । भूभुजे सुमनोदाम, मालाकार इवाऽऽर्पयत् ॥ २२९ ॥ वेत्रिणा दर्शिते स्थाने, ततोऽसौ रचिताञ्जलिः । निषसादाऽऽसनायुक्तैर्दत्ते तदुचितासने ॥ २३० ॥ किञ्चिदुन्नमितैकभ्रूः, स्मितस्तबकिताधरः । सप्रसादमभाषिष्ट,तमेवं पृथिवीपतिः॥ २३१॥
विप्र-क्षत्रिय-विट्-शूद्रवर्णेभ्यः कतमोऽसि भोः! १ । अम्बष्ठ-मागधादिभ्यो, मिश्रेभ्यो वाऽसि कश्चन ?२३२ 5 तत्र किं श्रोत्रियोऽसि त्वमसि पौराणिकोऽथवा? । मार्तो वा ? मौहों वाऽसि ?, त्रिविद्याविदुरोऽसि वा ॥ चापाचार्योऽसि यदि वा ?,चर्मा-ऽसिचतुरोऽसि वा । किंवा प्रासे कृताभ्यासः?,शल्ये वा प्राप्तकौशलः १२३४ यद्वा गदायुधज्ञोऽसि ?, यदि वा दण्डपण्डितः? । प्रकृष्टशक्तिः शक्तौ वा?, मुसले कुशलोऽसि वा ? ॥२३५॥ निरर्गलो लाङ्गले वा?, चक्रे वा प्राप्तविक्रमः ? । कृपाण्यां निपुणो वाऽसि ?, वाहुयुद्धेऽथ वा पटुः? ॥२३६॥ यद्वाऽश्वहृदयज्ञोऽसि ?, गजशिक्षाक्षमोऽसि वा । किं व्यूहरचनाचार्यः?, किं वाऽसि व्यूहभेदकः? ॥२३७।। 10 किं वा स्थादिकर्ताऽसि ?, स्थादिप्राजकोऽसि वा ?। रजत-स्वर्ण-शुल्वादिधातूनां घटकोऽसि वा ?॥२३८॥ चैत्य-प्रासाद-हादिनिर्माणनिपुणोऽसि वा? । विचित्रयन्त्र-दुर्गादिरचनाचतुरोऽसि वा ? ॥ २३९ ॥ सांयात्रिककुमारः किं १, सार्थवाहसुतोऽथवा ? । किं वा सौवर्णिकोऽसि त्वमसि वैकटिकोऽथवा ? ॥२४०॥ किंवा वीणाप्रवीणोऽसि ?, किं वेणुनिपुणोऽसि वा ? । पटुः पटहवाद्ये वा?, मर्दले वाऽसि दुर्मदः॥२४१॥ यता वाग्गेयकारोऽसि ?.किंशिक्षागायनोऽसि वारङ्गाचार्योऽथवाऽसि त्वं १.किं नाटकनटोऽसि वा १॥15 अथ वैतालिकोऽसि त्वं ?, ननाचार्योऽथवाऽसि किम् । संशप्तकोऽसि यदि वा ?, चारणो यदि वाऽप्यसि ॥ लिपिज्ञलेखको वा किमसि ? चित्रकरोऽथवा । अथ पुस्तकरो वा त्वमन्यो वा कोऽपि शिल्प्यसि ॥२४४॥ नदी-नद-नदीनाथतरणे वा कृतश्रमः । मायेन्द्रजाल-कुहकप्रयोगचतुरोऽसि वा ? ॥ २४५ ॥
एवं वसुमतीनाथेनाऽनुयुक्तः स सादरम् । भूयोऽपि हि नमस्कृत्य, सप्रश्रयमदोऽवदत् ॥ २४६ ॥ पाथसामिव पाथोधिरादित्यस्तेजसामिव । सर्वेषां पात्रभूतानां, त्वमाधारो धराधव ! ॥ २४७॥ 20 वेदादिशास्त्रविज्ञेषु, सहाधीतीव तादृशः । धनुर्वेदादिविद्वत्सु, तदाचार्य इवाधिकः ॥ २४८ ॥ प्रत्यक्षो विश्वकर्मेव, विश्वसिन् शिल्पकर्मणि । सरस्वतीव पुंरूपा, गीतादिककलासु च ॥ २४९ ॥ रत्नादिव्यवहारेषु, पितेव व्यवहारिणाम् । बन्धादीनामुपाध्याय, इव वाग्मितयाऽसि च ॥ २५० ॥ नद्यादिवारितरणं, कलालेशः कियान् मम? । इन्द्रजालप्रयोगार्थ, किन्त्वमि त्वामुपागतः ॥ २५१॥ अहं हि सद्य उद्यानवीथिकां दर्शयामि ते । मध्वादीनां परावर्तमृतूनां कर्तुमीश्वरः ॥ २५२ ॥ 25 गन्धर्ववर्गसङ्गीतं, व्योमन्याविष्करोमि च । क्षणाददृश्यो दृश्यो वा, निमेषान्तर्भवाम्यहम् ॥ २५३ ॥ भक्षयाम्यहमङ्गारान् , खादिरानपि सक्तुवत् । चर्वयामि मुकवत् , तप्तायस्तोमरानपि ॥ २५४ ॥ अम्भश्चर-स्थलचर-खचराणां परेच्छया । भवामि रूपान्तरभृदेकधाज्नेकधाऽप्यहम् ॥ २५५ ॥ पदार्थमिष्टमाकृष्य, दूरादप्यानयामि च । सद्यो वर्णान्तराधानं, पदार्थानां करोमि च ॥ २५६ ॥ आश्चर्यभूतान्यन्यानि, सद्यो दर्शयितुं क्षमः । कलाभ्यासप्रयास मे, तद् दृष्ट्वा सफलीकुरु ॥ २५७॥ 30
एवमुच्चैः प्रतिज्ञाय, गर्जित्वेव बलाहकम् । तस्थिवांसं पुमांसं तं, व्याजहारेति भूपतिः॥ २५८ ॥ आखोराकर्षणकृते, मूलात् खात इवाञ्चलः । मत्स्यादिग्रहणायेव, शोषितं विपुलं सरः ॥ २५९ ॥ सहकारोद्यानमिव, च्छिन्नमिन्धनहेतवे । चन्द्रकान्तोपल इव, निर्दग्धश्चूर्णमुष्टये ॥ २६० ॥
१ शून्यहस्तः। २ आसनाधिकारिभिः । * विद्यविदु ढं०॥ ३ ऋग्-यजुः-सामवेदेषु निपुणः। ४ फलका-ऽसिविद्याप्रवीणः । ५ कुन्तविद्यायाम् । ६ सारथिः। ७ ताम्रम् । ८ पोतवणिक्पुत्रः । ९ मणिकारः। १० मुखेन गायकः। ११ स्तुतिपाठकः । १२ युद्धादनिवर्तनप्रतिज्ञाकारी। १३ मृण्मयरूपघटकः। १४ सहाध्यायी। १५ सर्वसिन्। १६ पूगफलवत्। १७ अस्त्रविशेषान् । १८ मेघम् ।
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२४० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीयं पर्व पाटितं व्रणपट्टाय, देवदूष्यमिवांऽशुकम् । उत्कीलितं देवकुलं, कीलिकार्थमिवोच्चकैः ॥ २६१ ॥ शुद्धस्फटिकसङ्काशः, परमार्थार्जनोचितः । अहो ! त्वयाऽपविद्यायै, कियदात्मा कदर्थितः ॥ २६२ ॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ तवाऽपविद्यामीक्षामवलोकयतामपि । धीभ्रंशो जायते प्राप्तसन्निपातरुजामिव ॥ २६३ ॥ 5 याचकोऽसि गृहाणार्थमेवमेव यथेप्सितम् । आशाभङ्गो न कस्यापि, क्रियते मत्कुले यतः॥ २६४ ॥
___ एवं स राज्ञाभिहितः, परुपं पुरुषस्ततः । सदा पुरुषमानीति, गूढरोषमभाषत ॥ २६५ ॥ अन्धोऽसि बधिरो वाऽसि, पङ्गुरस्म्यस्मि वा कुणिः । क्लीबो वालि दयापात्रमपरः कश्चिदसि वा ॥२६६॥ अदर्शयित्वा स्वगुणमकृत्वा च चमत्कृतिम् । त्यागं ते त्यागकल्पद्रोरपि गृह्णाम्यहं कथम् ? ॥ २६७ ॥
खस्त्यस्तु तुभ्यं तुभ्यं च, नमस्कारो ममैषकः । अयमन्यत्र यास्यामीत्यभिधाय स उत्थितः ॥ २६८ ॥ 10 भूभुजा स्वस्य कार्पण्यदोषारोपणभीरुणा । पुरुषैर्यमाणोऽपि, निर्ययौ पुरुषोऽथ सः॥ २६९ ॥
खामिनाथ दीयमानमसौ नाऽऽदत्त कोपतः। दातैवाऽसीति राज्ञो हीरपजहे स्वपूरुषः॥ २७०॥
विप्रवेषमुपादाय, स एव पुरुषोऽन्यदा। उपायनकरस्तस्थौ, द्वारि तस्यैव भूपतेः ॥ २७१ ॥ तथैव राज्ञे विज्ञप्तः, स द्वाःस्थेन तथास्थितः । धर्मोऽसौ प्रतिहाराणां, द्वारागतनिवेदनम् ॥ २७२ ॥
आदेशाद् भूपतेस्तस्य, सभायां तत्र वेत्रभृत् । आयुक्तपुरुषैराशु, तं पुमांसमवीविशत् ॥ २७३ ॥ 15 स स्थित्वा भूपतेरग्रे, समुन्नमितँपाणिकः । आर्यवेदोदितान् मत्रानपठत् सपदक्रमम् ॥ २७४ ॥
मत्रपाठावसाने च, वेत्रिसन्दर्शितासने । निषसाद प्रसादादृशा राज्ञा निरीक्षितः ॥ २७५ ॥ कस्त्वं ? किमागतोऽसीति, पृष्टश्च पृथिवीभुजा । कृताञ्जलिरुवाचैवमग्रणीः सोऽग्रेजन्मनाम् ॥ २७६ ॥ ज्ञानानामिव मूर्तानां, सद्गुरूणामुपासनात् । अवाप्तसम्यगाम्नायो, राजन् ! नैमित्तिकोऽस्म्यहम् ॥२७७॥
अष्टाधिकरणीग्रन्थान् , फलग्रन्थानथाखिलान् । जातकं गणितग्रन्थान् , जानामि निजनामवत् ॥ २७८ ॥ 20 सन्तं भतं भविष्यन्तमर्थ सर्व नरेश्वर! । तपःसिद्धो मुनिरिवाऽव्याहतं कथयाम्यहम् ॥ २७९॥
अन्वयुङ्क ततो राजा, यदस्मिन् समये द्विज!। यद् भावि तत कथय भो,ज्ञानस्य प्रत्ययः फलम्॥२८॥ द्विजोऽपि कथयामास, वासरे सप्तमेऽर्णवः । जगदेकार्णवीकृत्य, प्रलयं प्रापयिष्यति ॥ २८१ ॥ तद्वाचा विस्मय-क्षोभौ, बिभ्राणो युगपन्नृपः । नैमित्तिकानामन्येषामीक्षाञ्चके मुखान्यथ ॥ २८२ ॥ राज्ञा भ्रूसंज्ञया पृष्टा, रुष्टा दुर्घटया तया । द्विजवाचा सोपहासमूचुनैमित्तिकास्तु ते ॥ २८३ ॥ असावभिनवः कोऽपि, जज्ञेज्योतिषिको यदि।ज्योति शास्त्राण्यपि स्वामिन् !, जज्ञिरे नूतनानि किम्? ॥२८४ एष येषां प्रमाणेन, विश्वमेकार्णवं जगत् । करिष्यत्यर्णव इति, ब्रूते श्रवणदुःश्रवम् ॥ २८५ ॥ बभूवुर्ग्रह-नक्षत्र-तारा अपि हि किं नवाः । येषां वक्रातिचारादिप्रमाणादेष वक्त्यदः ॥ २८६ ॥ सर्वज्ञशिष्यगणभृद्रथितद्वादशाङ्गतः । ज्योति शास्त्राणि यानीह, नैवं तदनुमानतः ॥ २८७ ॥ अमी तच्छास्त्रसंवादभाजो येऽर्कादयो ग्रहाः । तेषामप्यनुमानेन, मन्महे नेदृशं वयम् ॥ २८८ ॥ जम्बूद्वीपपरिक्षेपी, यथाऽयं लवणार्णवः । सोऽपि त्वमिव मर्यादां, जातुचिन्न हि लवते ॥ २८९॥ आकाशाद् भूमिमध्याद् वा, कश्चिदुत्पद्य नूतनः । करिष्यत्यर्णवो विश्वमिदमेकार्णवं यदि ॥ २९ ॥ अयं साहसिकः किं वा, पिशाचाधिष्ठितोऽथवा ? । मत्तो वा यदि वोन्मत्तो, वातूलो वा निसर्गतः ॥२९१॥ अकालं चाऽऽगमेऽधीती, किमपसारवानथ ? । यदीदृशमसम्बद्धमभिधत्ते निरर्गलः ॥२९२ ॥ युग्मम् ॥
स्थिरः मुमेरुवत् स्वामी, भूवत् सर्वसहश्च यत् । दुष्टैः प्रकटमीदृक्षं, स्वच्छन्दैस्तदुदीर्यते ॥ २९३ ॥ 35 सामान्यस्याऽपि पुरतो, नेदृशं वक्तुमीश्यते । कोप-प्रसादशक्तस्य, किं पुनः स्वामिनः पुरः? ॥ २९४ ॥
पापविद्याकृते । २ हस्तरहितः । ३ दानम् । ४ अर्ध्वबाहुः । ५ प्राह्मणानाम् । ६ अस्खलितम् । • कुशलः ।
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षष्ठः सर्गः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२४१ वचसो दुर्वचस्याऽस्य, वक्ता धीरः किमेप वा । धीरः किमथवा श्रोता, यः श्रुत्वाऽपि न कुप्यति ॥२९५॥ ईदृक्षमपि चेत् स्वामी, श्रद्धत्ते श्रद्दधातु तत् । विना विप्रतिपत्तिं च, प्रत्येतव्यमदोऽपि हि ॥ २९६ ॥ पर्वता उत्पतन्त्युच्चैराकाशे कुसुमानि च । वैश्वानरः शीतरुचिर्वन्ध्यायाश्च स्तनन्धयः ॥ २९७ ॥ चक्रीवतो विषाणं च, दृषदस्तरणं जले। अवेदना नारकाच, नो चेदस्याऽपि वाक् तथा ॥२९८॥ युग्मम् ॥ ततो युक्तमयुक्तं च, विदन्नपि महीपतिः। तस्य नैमित्तिकस्याभिमुखमैक्षिष्ट कौतुकात् ॥ २९९ ॥ 5
अथ नैमित्तिकः सोऽपि, सोपहासगिरा तया । नुन्नः प्रयणेनेव, सावष्टम्भमदोऽवदत् ॥३०॥ राजन्! सभायां भवतः, किं नर्मसचिवा अमी? । वासन्तिकाः किमथवा ?, किमथ ग्रामपण्डिताः॥३०१॥ सभ्याः सभाया भवतोऽप्येवंप्रायाः प्रभो! यदि । निराश्रया सती हन्त !, तदा दग्धा विदग्धता ॥३०२॥ तव विश्वविदग्धस्य, मुग्धैरेभिः समं कथम् । गोष्ठी हा! मृगराजस्थ, मृगधूतॆरिवोचिता? ॥ ३०३ ॥ समं कुलक्रमेणैव, समायाता अमी यदि । स्त्रीवत् पोषणमात्रं तदर्हन्त्यल्पधियोऽपि हि ॥ ३०४ ॥ 10 न सभायामासयितुं, सभ्यत्वेनोचिता अमी । स्वर्ण-माणिक्यघटिते, किरीटे काचखण्डवत् ॥ ३०५ ॥ रहस्सं न हि जानन्ति, शास्त्रवाचां मनागपि । गर्विताः पाठमात्रेण, किन्त्वमी शुकवत् सदा ॥ ३०६ ॥ वाच उत्फुल्लगल्लानां, पल्लवग्राहिणामिमाः । ये जानन्ति रहस्साथ, परिभाव्य वदन्ति ते ॥ ३०७॥ उष्ट्रपृष्ठसमारूढः, कुतुपः सार्थवाहिनः । देशाद् देशान्तरं याति, पन्थानं किमु वेत्ति सः ॥ ३०८॥ तुम्बैः कक्षाविनिक्षिप्तैर्निम्नगायां सरस्यथ । तरत्यतारकोऽप्यम्भस्तरीतुं किं नु वेत्ति सः? ॥ ३०९ ॥ 15 गुरुवागनुवादेन, शास्त्राण्यतेऽप्यधीयते । रहस्यभूतमर्थ तु, न जानन्ति मनागपि ॥ ३१०॥ अश्रद्धेयं मम ज्ञानममीषां यदि दुर्धियाम् । मज्ज्ञानप्रत्ययाघाटः, किं दूरे सप्तवासरी ? ॥३११॥ जगदेकार्णवीकृत्य, पर्यस्तैर्निजवारिभिः । सत्यापयति मद्वाचं, भगवांश्चन्महार्णवः ॥ ३१२॥ तदमी पारिषद्यास्ते, ज्योतिर्ग्रन्थार्थवेदिनः । उत्पतिष्णून् पक्षिवत् किं, दर्शयिष्यन्ति पर्वतान् ? ॥३१३ ॥ द्रुमवद् दर्शयिष्यन्ति,खे पुष्पाण्यग्निमम्बुवत् । किं नु स्प्रक्ष्यन्ति वन्ध्या या,लप्स्यन्ते धेनुवत् सुतम्?॥३१४॥20 विषाणिनं महिषवत् , किमानेष्यन्ति रासभम् । तरीवत् तारयिष्यन्ति, किं पाषाणान् जलाशये? ॥३१५॥ अवेदनान् नारकांश्च, भाषमाणा इमे जडाः । किमन्यथा करिष्यन्ति, ग्रन्थान् सर्वज्ञभाषितान् ?॥३१६॥
॥ पञ्चभिः कुलकम् ॥ धृतस्त्वत्पुरुषैरत्राऽवस्थास्ये सप्त वासरान् । न खल्वेवमवष्टम्भ, कुर्वन्त्यनृतभाषिणः ॥ ३१७ ॥ सत्यं न चेन्मम वचः, सप्तमेऽह्नि भवेन्नृप । निग्राहणीयः श्वैपचैरहं तस्करवत् तदा ॥ ३१८ ॥ 25
राजाऽपि स्वानुवाचैवं, ब्राह्मणस्याऽस्य गीरियम् । अनिष्टा दुर्घटा वा संवादिन्यपि च यद्यपि ॥३१९॥ तथापि सप्ताहोरात्रान् , मनः सन्देग्धि हन्त! नः। भविष्यति तदन्तेऽस्य, सत्या-ऽसत्यविवेचनम् ॥३२०॥
॥ युग्मम् ।। इत्युक्त्वा न्यासमिव तं, नृपतिः स्वाङ्गरक्षिणाम् । द्विजं समर्पयामास, पर्षदं विससर्ज च ॥ ३२१ ॥ महत् कुतूहलमहो!, द्रष्टव्यं सप्तमे दिने । उन्मत्तभाषी विप्रोऽयं, तदहो ! निहनिष्यते ॥ ३२२ ॥ 30 ही! स्याद् युगान्तः को ह्येवमन्यथा मृत्यवे वदेत् ? । एवं तदानीमभवद् , विचित्रा नागरोक्तयः ॥३२३।।
॥ युग्मम् ॥ आश्चर्य दर्शयिष्यामि, सम्प्राप्तेऽहनि सप्तमे । इत्युत्सुको द्विजः कष्टं, षड् दिनान्यत्यवाहयत् ॥ ३२४ ॥
राजाऽपि संशयच्छेदोत्कण्ठितो गणयन मुहुः । कथञ्चिदतिचक्राम, षण्मासानिव षड् दिनान् ॥ ३२५ ॥ १ अग्निः । २ पुत्रः। ३ गर्दभस्य । ४ प्रतोदेन प्रेरितः । ५ विदूषकाः । ६ शृगालैः। ७ पदलवग्राहिणाम् । ८ चर्मपानम् । *नशान सं॥ ९सीमा। १० स्थिरताम् । ११ चाण्डालैः।
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२४२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ द्वितीयं पर्व चन्द्रशालास्थितो राजा, सप्तमेऽहन्युवाच तम् । पूर्णोऽवधिस्त्वदीयस्य, वचसो जीवितस्य च ॥ ३२६ ॥ प्रलयाय त्वयाऽऽख्यातः, समुद्भान्तो महार्णवः । स दूरे तावदद्यापि, जललेशोऽपि नेक्ष्यते ॥ ३२७ ॥ सर्वप्रलयशंसित्वात् , तव सर्वोऽपि वैर्यहो! । अनृतायां प्रतिज्ञायां, निग्रहाय यतिष्यते ॥ ३२८ ॥
भवता जन्तुमात्रेण, निगृहीतेन किं मम । इदानीमपि गच्छ त्वमुन्मत्तेन त्वयोदितम् ॥ ३२९ ॥ 5 वराको मुच्यतामेष, मेषवद् यात्वसौ सुखम् । इत्यात्मरक्षकानुच्चैरादिदेश विशाम्पतिः ॥ ३३०॥
विप्रोऽपि प्रत्युवाचैवं, सिंतविच्छुरिताधरः । युक्तं प्राणिषु कारुण्यं सर्वेष्वपि महात्मनाम् ॥ ३३१॥ किन्तु नाऽद्यापि करुणापात्रमसि महीपते । न यावदनृतीस्यान्मे, प्रतिज्ञा सा तदोदिता ॥ ३३२ ॥ अनृतायां प्रतिज्ञायां, मद्वधस्य त्वमीशिषे । वधाहें मां तदा मुञ्चन् , कृपावानुच्यसे नृपः ॥ ३३३ ॥
मुक्तोऽपि नाऽहं यास्यामि, स्थास्यामि धृतवत् पुनः । स्तोकमेवान्तरं विद्धि, प्रतिज्ञापूरणे मम ।। ३३४ ॥ 10 क्षणमात्रं प्रतीक्षस्वाऽत्रैव प्रेक्षस्व च क्षणात् । उदस्तोदन्वदुल्लोलान् , यमस्येवाऽग्रसैनिकान् ॥ ३३५ ॥
नैमित्तिकसदस्यान् स्वान् , कुरुष्व क्षणसाक्षिणः । भविष्यामः क्षणादू , नाऽहं न त्वं न चापि ते ॥३३६ ॥ अभिधायेति तूष्णीकस्तस्थौ नैमित्तिकोऽथ सः । अव्यक्तः शुश्रुवे चोचैर्मृत्युगर्जिरिव ध्वनिः ॥ ३३७ ॥ आकसिकं महाध्वानं, तमातङ्कविधायिनम् । आकर्ण्य तस्थुरुत्कर्णाः, सर्वे वनमृगा इव ॥ ३३८ ॥ किश्चिदुन्नमितग्रीवः, किश्चिदुच्छस्य चाऽऽसनात् । किश्चिद् वक्रोष्ठिकां कुर्वन्नित्यूचे स पुनर्द्विजः॥ ३३९॥ ध्वनिराकर्ण्यतां राजन् !, रोदसी पूरयन्नयम् । भम्भाध्वनिस्तवेवाम्भोनिधेः प्रस्थानसूचकः ॥ ३४०॥ यस्य वारिलवेनाऽपि, गृहीतेन घनाघनाः । प्लावयन्ति महीं सर्वा, पुष्करावर्तकादयः ॥ ३४१॥ स मर्यादां समुल्लङ्घय, स्वयं प्रचलितोऽधुना । अम्भोधिः प्लावयन्नुर्वीमवार्यः प्रेक्ष्यतामयम् ॥ ३४२ ॥ बिभर्ति गर्तान् मनाति, वृक्षान् स्थगयति स्थलीः । गिरीनप्यन्तरयति, दुर्वारो हन्त ! वारिधिः ॥ ३४३ ॥
वायोर्वेश्मप्रवेशादि, ज्वलनस्य पुनर्जलम् । प्रतीकारोऽस्ति जलधेश्चलितस्य पुनर्न हि ॥ ३४४ ॥ 20 इति ब्रुवाणं ब्रह्माणं, पश्यतस्तं महीपतेः । मृगतृष्णाम्बुवद् दूराद् , विष्वगाविरभूजलम् ॥ ३४५ ॥
सौप्तिकेनेव विश्वस्तं, विश्वं संहृतमब्धिना । हा हेत्याक्रोशिनो दीनाः, सर्वे ददृशुरुन्मुखाः ॥ ३४६ ॥ _ अथ राज्ञः पुरोभूय, सोऽङ्गुल्या दर्शयन् द्विजः । प्लाव्यमानं प्लाव्यमानं, शशंसेति नृशंसवत् ॥ ३४७॥ निरीक्षन्ताममी भो भोः, सर्वे प्रत्यन्तपर्वताः । पिधीयन्ते पयोराशेः, पयोभिस्तिमिरैरिव ॥ ३४८॥ मन्ये प्रोन्मूलितान्यद्भिः, सर्वाण्यपि वनानि तु । दृश्यन्ते यत् तरन्तोऽमी, तरवो नक्रचक्रवत् ॥ ३४९ ॥ अधुना प्लावयत्युच्चैामा-ऽऽकर-पुरादिकम् । इदमम्भोनिधेरम्भो, धिगहो! भवितव्यता ॥ ३५० ॥ पुरीपरिसरोद्यानान्यपीदानी निरर्गलैः । पिहितान्यम्बुधेस्तोयैः, पिशुनैरिव सद्गुणाः ॥ ३५१ ॥ प्राकारवलयेऽमुष्मिन्नालवाल इवाऽधुना । धुंनीपतेर्खनन्नीरमास्फलत्युच्चकैप! ॥ ३५२ ॥ अयमुल्लङ्घयते वप्रः, क्षिप्रं प्रसृमराम्भसा । रभसादश्ववारेणाऽश्व इवाऽतितरविना ॥ ३५३ ॥
पश्यैतत् पूर्यते सर्व, सप्रासादं समन्दिरम् । अम्भोधेरेवमम्भोभिः, प्रचण्डैः कुण्डवत् पुरम् ॥ ३५४ ॥ 30 वेश्मद्वारे तवेदानीमश्वसैन्यमिवोल्ललत् । शब्दायमानमुद्दाम, देवाऽऽपतति वार्यदः ॥ ३५५ ॥
मनस्य पत्तनस्याऽस्याऽवशेषः पृथिवीपते! । अन्तरीप इवाऽयं ते, प्रासादः प्रेक्ष्यतेऽधुना ॥ ३५६ ॥ अध्यारोहति सोपानवीथीषु च पयोऽस्खलत् । तव प्रसाददुर्मत्तमिव सेवक-राजकम् ॥ ३५७ ॥ पूरिता प्रथमा भूमिर्द्वितीयाऽप्यद्य पूर्यते । तामापूर्य तृतीयाऽपि, पूर्यते भूमिरम्भसा ॥ ३५८ ॥ चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी, चापि भूः पश्यतोऽपि हि । अहो! क्षणार्धमात्रेण, पूरिता वार्धिवारिभिः ॥३५९॥
हास्यव्याप्ताधरः। २ महाकलोलान् । ३ पीडाकरम् । ४ मन्दहास्यम् । ५ रात्रियुद्धेन । ६ वारिभिः। ७ समुद्रस्य । भतिवेगवता। ९ द्वीप इव ।
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षष्ठः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२४३ विषवेगैरिवाऽम्भोभिराक्रान्तस्याऽस्य समनः । शिरोगृहं शिर इव, शरीरस्याऽवशिष्यते ॥ ३६० ॥ उपस्थितो युगान्तोऽयमुक्तपूर्वीदमस्म्यहम् । क ते' सदस्यास्ते राजन् !, ये मां हैसितपूर्विणः ? ॥ ३६१॥ । ततश्च विश्वसंहारशोकाद् राजाऽपि सत्वरम् । झम्पादानार्थमुत्थायाऽवधात् परिकरं दृढम् ॥ ३६२ ॥ प्लवङ्गम इवोत्पत्य, ददौ झम्पां महीपतिः । स्वं च सिंहासनासीनं, तं चाऽपश्यत् तथास्थितम् ॥ ३६३ ॥ ययौ च क्वचिदप्यम्भस्तदम्भोधेः क्षणादपि । तस्थौ च विस्मयस्मेरलोचनः स महीपतिः॥ ३६४ ॥ 5 अभना(ग्नवृक्षा-द्रि-प्राकार-भवनादिकम् । ईक्षाञ्चके तथावस्थं, विश्वं विश्वम्भरापतिः ॥ ३६५ ॥ मायानैमित्तिकः सोऽपि, कट्यामावध्य मर्दलम् । आस्फालयन् वपाणिभ्यां, पपाटेति ससम्मदः॥३६६॥ ___ इन्द्रजालप्रयोगादौ, नमामि चरणाम्बुजे । इन्द्रजालकलास्रष्टुर्वत्रिणः शम्बरस्य च ॥ ३६७ ॥ निजसिंहासनासीनस्ततः स पृथिवीपतिः । किमेतदिति साश्चर्यो, द्विजन्मानमभाषत ॥ ३६८ ॥ अवदद् ब्राह्मणोऽप्येवं, निःशेषाणां कलाविदाम् । गुणप्रकाशी राजेति, पुरामि त्वामुपस्थितः ॥३६९॥ 10 इन्द्रजालं मतिभ्रंशकारीति न्यकृतस्त्वया । प्रदीयमानमप्यर्थमनादाय गतोऽस्म्यहम् ॥ ३७० ॥ अर्थे भूयस्यपि प्राप्ते, गुणार्जनभवः श्रमः । न याति गुणिनां किन्तु, गुणज्ञानेन गच्छति ॥ ३७१ ॥ अद्य नैमित्तिकीभूय, च्छलेनाऽप्यमुना मया । इन्द्रजालकलाभ्यासं, ज्ञापितोऽसि प्रसीद मे ॥ ३७२ ॥ सदस्या न्यकृतास्ते यचिरं यत् त्वं च मोहितः । राजन् ! सहख तत् सर्व, नाऽपराधोऽस्ति तत्वतः॥३७३॥
इत्युदित्वा स्थिते तस्मिन् , पार्थिवः परमार्थवित् । निजगादेति पीयूषस्यन्दसोदरया गिरा ॥ ३७४ ॥15 राजानं राजसभ्यांश्च, न्यकार्षमिति चेतसि । मास भैपीरहो! विप्रोपकारी परमोऽसि मे ॥ ३७५ ॥ इन्द्रजालमिदं ह्यय, दर्शयित्वा त्वया द्विज ! । तत्तुल्यमेतं संसारमसारं ज्ञापितोऽस्म्यहम् ॥ ३७६ ॥ दृष्टनष्टमिदं यद्वत् , त्वयाऽऽविर्भावितं जलम् । तद्वत् पदार्थाः सर्वेऽपि, संसारेऽद्यापि का रतिः ॥३७७॥ चिरमित्यादिसंसारदोषान् व्याहृत्य भूपतिः । कृतार्थीकृत्य तं विप्रं, प्रव्रज्यामाददे स्वयम् ॥ ३७८ ॥ * तदिन्द्रजालरूपोऽयं, भवोऽसाभिरनूयते । प्रभो ! वेत्सि स्वयं हि त्वं, सर्वज्ञकुलचन्द्रमाः ॥ ३७९ ॥20 वाचस्पतिमतिर्वाचा, शोकॅशल्यविशल्यया । इत्युवाच द्वितीयोऽपि, मत्री नृपतिपुङ्गवम् ॥ ३८० ॥
इहैव भरतक्षेत्रे, कमिन्नपि पुरे पुरा । बभूव नृपतिः कोऽपि, विवेकादिगुणाकरः ॥ ३८१॥ तमास्थानस्थमन्येद्युः, पार्थिवं कोऽपि पूरुषः । मायाप्रयोगनिष्णं खं, ज्ञापयामास वेत्रिणा ॥ ३८२ ॥ प्रवेशं नृपतिस्तस्य, नानुजज्ञे विशुद्धधीः । न मायिनामृजूनां चार्जर्य शाश्वतवैरिवत् ॥ ३८३ ॥ प्रतिषेधविलक्षः सन् , स नीत्वाऽहानि कानिचित् । चक्रे रूपपरावर्त, कामरूप इवाऽमरः ॥ ३८४ ॥ 25 स तमेवाऽन्यदा भूपमुफ्तस्थे विहायसा । कृपाणपाणिः फैलकी, वरनारीसमन्वितः ॥ ३८५ ॥ असि कस्त्वमियं का च ?, हेतुना केन चाऽऽगमः । इति राज्ञा स्वयं पृष्टः, स पुमानब्रवीदिति ॥३८६ ॥ __अहं विद्याधरो विद्याधरी चेयं मम प्रिया । विद्याधरेण केनापि, जातवैरोऽसि भूपते ॥ ३८७ ॥ इयं हि पूर्व तेन स्त्रीलम्पटेन दुरात्मना । सुधा विधुन्तुदेनेवाऽपहता च्छलकर्मणा ॥ ३८८ ॥ प्रत्याहार्षमहं तस्मादिमां प्राणप्रियां प्रियाम् । नारीपरिभवं राजन् !, सहन्ते पशवोऽपि न ॥ ३८९ ॥ 30 चरितार्थी प्रचण्डौ ते, दोर्दण्डौ क्षितिधारणात् । अर्थिनां दौस्थ्यघातेन, सम्पच्च सफला तव ॥ ३९० ॥ भीतानामभयदानात् , कृतार्थो विक्रमश्च ते । विदुषां संशयच्छेदादमोघा शास्त्रवैदुषी ॥ ३९१ ॥ विश्वस्य कण्टकोद्धारात् , फलवच्छस्त्रकौशलम् । अन्येऽप्यन्योपकारेण, कृतार्थास्ते पृथग्गुणाः ॥ ३९२ ॥ परस्त्रीसोदरत्वं च, तवेदं विश्वविश्रुतम् । अस्तु मय्युपकारेण, विशिष्टफलवनृप ! ॥३९३ ॥
तव इत्यर्थः। २ पूर्व हसितवन्तः । ३ अभुमा अनताः। देवविशेषः । ५ तिरस्कृतः। ६ अमृतरससमानया। ७ शोक एव शल्यं तदर्थ विशल्यौषधितुल्यया। नानुमेने। ९ मैत्री। १. फलकधरः। राहुणा ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ द्वितीयं पर्व
प्रियया पार्श्ववर्तिन्या, सन्दानित इवाऽनया । नालम्भविष्णुर्योद्धुं हि, परैश्छलपरैरहम् ॥ ३९४ ॥ नाऽहं हस्तिबलं याचे, याचे वाजिबलं न वा । न वा रथवलं याचे, याचे पत्तिबलं न वा ।। ३९५ ।। आत्मसाहायिके त्वत्तः, किन्तु याचे नराधिपं । । एतस्या न्यासयत् त्राणं, परनारीसहोदर ! ॥ ३९६ ॥ स्वयं स्त्रीलम्पटः कोऽपि, परित्राणसहोऽपि सन् । कोऽप्यस्त्रीलम्पटः स्वेन, परित्राणासहः परम् ||३९७|| त्वमस्त्रीलम्पटस्त्राणसहश्चाऽसि महीपते । । तेन दूरादुपेत्याऽपि त्वमसि प्रार्थितो मया ॥ ३९८ ॥ अयं मत्प्रेयसीरूपो, न्यासश्चेत् स्वीकृतस्त्वया । ज्ञायतां हत एवाऽरिः, स मया बलवानपि ।। ३९९ ।। अथोल्लसत्स्मितज्योत्स्नापवित्रमुखचन्द्रमाः । उदारचरितः पृथ्वीपतिरेवमवोचत ।। ४०० ॥ कल्पद्रुरिव पत्राणि, रत्नाकर इवोदकम् । कामधेनुरिव क्षीरं, रोहणाद्रिरिवोपलम् ॥ ४०१ ॥ अन्नमात्रमिव श्रीदश्छायामात्रमिवाम्बुदः । दूरादुपेत्य भवता कियदस्मीदमर्थितः १ ||४०२॥ युग्मम् ॥ 10 तमेव दर्शय निजं, रिपुं येन निहन्म्यहम् । निर्विशङ्कं ततो भोगान्, भुङ्ग मञ्जु विचक्षण ! ॥ ४०३ ॥ नृपवागमृताप्लावपूर्ण श्रवणकोटरः । मुदितः पुरुषः सोऽपि, जगादेति महीपतिम् ॥ ४०४ ॥ रजतं जातरूपं च, समस्ता रत्नजातयः । पितरो मातरः पुत्राः, सर्व चाऽन्यद् गृहादिकम् ॥ ४०५ ॥ विश्वासेनाऽल्पकेनाऽपि, न्यासेऽर्पयितुमीश्यते । विश्वासेनाऽपि महता, न पुनः प्रेयसी क्वचित् ॥ ४०६ ॥ राजन्नीदृशविश्वासस्थानं त्वमसि नाऽपरः । चन्दनास्पदमेको हि, मलयः सानुमानिह ।। ४०७ ।। बिभ्राणेन त्वया न्यासे, मदीयां प्रेयसीमिमाम् । त्वयैव निहतो मन्ये, द्विषन्तप ! स मे द्विषन् ॥ ४०८ ॥ भार्यान्यासे त्वयोपात्ते, त्वद्विश्वाससमाहितः । विश्वस्तभार्यान् द्विषतः, करिष्याम्यधुना ननु ॥ ४०९ ॥ क्षोणीनाथ ! तवाऽत्रैव तिष्ठतो नैचिरादहम् । केसरीव समुत्पत्य दर्शयिष्यामि विक्रमम् ॥ ४१० ॥ अनुमन्यख गच्छामि, स्वच्छन्दं पक्षिराडिव । एषोऽहमन्तरिक्षेण, क्षणादस्खलितस्यैदः || ४११ ॥
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राजाsप्यूचे व्रज खैरं, विद्याधर ! महाभट ! । तिष्ठत्वेषा तु ते भार्या, मद्धानि पितृधामवत् ॥ ४१२ ॥ अथोत्पपात स पुमान्, विहायोवद् विहायसा । निस्त्रिंशदण्ड - फलके, पक्षाविव विजृम्भयन् ॥ ४१३ ॥ तद्भार्या तु स्वदुहितृप्रतिपत्तिपुरःसरम् । राज्ञा सम्भाषिता तस्थौ, तत्रैव खस्थमानसा ॥ ४१४ ॥ तत्रैव तिष्ठन् नृपतिर्जायमानां नभस्तले । क्ष्वेडामाकर्णयामास, स्तनितं वार्मुचामिव ॥ ४१५ ॥ विचित्रखड्ग-फलकप्रहारध्वनितान्यपि । तडत्तडितिविस्फूर्जत्तडित्ताडानिवाऽशृणोत् ।। ४१६ ॥
सोऽसि सोऽसि नासि नासि, तिष्ठ तिष्ठ व्रज व्रज । एष त्वां हन्मि हन्मीति, व्योम्नि शुश्रुविरे गिरः ॥ ४१७॥ 25 नृपतिः पर्षदासीनः, पार्षद्यैः सह विस्मितः । उपरागेक्षण इव तस्थौ सुचिरमुन्मुखः ॥ ४१८ ॥ इत्थं सम्पश्यमानस्य, भूपतेः पुरतो भुवि । भुजदण्डः पपातैको, रत्नकङ्कणभूषणः ॥ ४१९ ॥ उपलक्षयितुं तं च, बाहुदण्डं दिवश्रयुतम् । विद्याधरी पुरोभूय, साऽपश्यच्च जगाद च ।। ४२० ।। गण्डयोरुपधानत्वं, कर्णयोरवतंसताम् । कण्ठे च निष्कंतां योऽगात्, सोऽयं मत्प्रेयसो भुजः ॥ ४२१ ॥ एवं वदन्त्यां पश्यन्त्यामेव तस्यां मृगीदृशि । भुवि पादः पपातैको, दोष्णः प्रीत्येव तस्य तु ॥ ४२२ ॥ सपादकटकं पादमुपलक्ष्य तमप्यथ । उदश्रुवदना पद्मवदना साऽवदत् पुनः ॥ ४२३ ।। चिरमभ्यक्त उन्मृष्टः, क्षालितोऽथ विलेपितः । स्वहस्तेन मया यो हि स पादो मत्पतेरयम् ॥ ४२४ ॥ एवं तस्या बुवाणायाः, पुरो गीर्वाणवर्त्मनः । वातोद्धूतद्रुशाखेव, द्वितीयोऽपि भुजोऽपतत् ॥ ४२५ ॥ तमप्यालोक्य दोर्दण्डं, रत्नकेयूर - कङ्कणम् । सोवाच स्पन्दमानाक्षी, धारायत्रवधूरिव ॥ ४२६ ॥ सोऽयं सीमन्तस्वनाचतुरः केशकङ्कतः । विचित्रपत्रलतिकालीला लिपिकरः करः ॥ ४२७ ॥
१ बज्र इव । २ शत्रुभिः । * आत्मा साहा संता० सङ्घ ३ ॥ ३ सद्यः । ४ गरुड इव । ५ वेगः । ६ पक्षिवत् । ७ मेघानामिव । ८ उपरागे ग्रहणे ईक्षणे नेत्रे यस्य सः । ९ हृदयाभूषणम् । १० करस्य । ११ आकाशात् । १२ केशप्रसाधनसाधनम् ।
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षष्ठः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२४५ तस्यास्तत्रैव तिष्ठन्त्या, एवाग्रे गगनाङ्गणात् । पपातानिर्द्वितीयोऽपि, साऽपि भूयोऽब्रवीदिदम् ॥ ४२८ ॥ स एष मत्पतेः पादो, मत्कराम्भोजलालितः । अनारतं मदुत्सङ्गशय्यादुर्ललितो हहा! ॥ ४२९ ॥ अथ तत्रैव तत्कालं, मुण्ड-रुण्डौ निपेततुः । हृदयेन समं तस्याः, कम्पयन्तौ महीतलम् ॥ ४३०॥ अथ सा विललापैवं, बलिना च्छलिना द्विषा । हा! हतो मत्पतिरसौ, हा! हतासि तपस्विनी ॥४३१॥ एतत् तदेव वदनं, मत्पतेः पद्मसोदरम् । यन्मया परया प्रीत्या, कुण्डलाभ्यामभूष्यत ॥ ४३२ ॥ 5 तदेतत् तस्य हृदयं, विपुलं हन्त ! मत्पतेः । अन्तर्वहिश्च यद् वासस्थानमेकं ममैव हि ॥ ४३३ ॥ हा! नाथाऽहमनाथाऽस्मि, त्वां विना नन्दनाद् वनात् । पुष्पाण्यानीय को नाम, ममोत्तंसीकरिष्यति१४३४ एकासनसमासीना, विचरन्ती नभोऽङ्गणे । यथासुखं केन समं, वादयिष्यामि वल्लकीम् ? ॥४३५॥ वल्लकीमिव को वा मामुत्सङ्गे धारयिष्यति । शैय्याविशंस्थुलान् को वा, स्थापयिष्यति मेऽलकान् ? ॥४३६॥ कोपिष्यामि मुहुः कस्मै, प्रौढप्रणयलीलया? । मत्पादघातोऽस्तु मुदे, कस्याऽशोकतरोरिव ? ॥ ४३७ ।। 10 हा प्रिय! स्तबकीभूतकौमुदीभिरिवाऽद्य मे । गोशीर्षचन्दनरसैः, कोऽङ्गरागं करिष्यति ? ॥ ४३८ ॥ कपोलपाल्योग्रीवायां, ललाटे कुचकुम्भयोः । कोऽद्य मे पत्ररचनां, सैरन्ध्रीर्वं विधास्यति ? ॥ ४३९ ॥ अप्यलीकव्यलीकेन, मानमौनधरां च माम् । आलापयिष्यत्यथ कः, क्रीडाराजशुकीमिव ? ॥ ४४० ॥ प्रिये! प्रिये ! देवि! देवीत्यादिचाटुगिरा मुहुः । को वा केतकसुप्तां मां, स्वयमुद्रोधयिष्यति ? ॥४४१ ।। विलम्वेनाऽद्य पर्याप्तममुनाऽऽत्मविडम्बिना । महापथमहापान्थं, नाथ ! त्वामनुयाम्यहम् ॥ ४४२ ॥ 15 प्राणनाथपथे गन्तुकामा कामं कृताञ्जलिः । सा पावकं यानमिव, ययाचे वसुधाधवात् ॥ ४४३ ॥ तामभाषिष्ट भूपोऽपि, वत्से ! स्वच्छाशये ! त्वया । पत्युः सम्यगविज्ञाय, कथां किमिदमुच्यते ? ॥४४४॥ रक्षो-विद्याधरादीनां, मायाऽपि भवतीदृशी । तन्मुहूर्त प्रतीक्षस्व, स्वाधीनं ह्यात्मसाधनम् ॥ ४४५ ॥ सा भूयो भूपतिं स्माऽऽह, साक्षादेष पतिर्मम । पँधने निधनं नीतः, पतितश्चेह दृश्यते ॥ ४४६ ॥ सन्ध्या सहोदयं याति, सहाऽस्तं च विवस्वता । जीवन्ति च म्रियन्ते च, समं पत्या पतिव्रताः॥४४७॥ 20 पितुरम्लानवंशस्य, स्वस्य पत्युरपीटेशः । कुले कलङ्क किमहं, जीवन्त्यारोपयाम्यतः१ ॥ ४४८ ॥ धर्मपुत्रीं च मां पश्यन् , विना पतिमवस्थिताम् । न कि लजिष्यसे तात!, कुलस्त्रीधर्मकोविद ! १ ॥४४९॥ विनेन्दुमिव कौमुद्या, विनाऽब्दमिव विद्युतः । विना नाथमवस्थानं, युक्तं नाऽतः परं मम ॥ ४५०॥ आयुक्तानादिशैधांसि, समानायय मत्कृते । समं पतिशरीरेण, वह्नौ वेक्ष्यामि वारिवत् ॥ ४५१ ॥ तया साग्रहमित्युक्तः, क्षमापतिः करुणापरः । शोकगद्गदया वाचा, पुनरेवमुवाच ताम् ॥ ४५२॥ 25 तिष्ठ तिष्ठ कियत्कालं, न मर्तव्यं पतङ्गवत । विमृश्य हि विधातव्यमल्पीयोऽपि प्रयोजनम् ॥ ४५३॥ कुपिता भामिनी साऽथ, भूनाथमिदमभ्यधात् । अतः परं धारयन् मां, ज्ञातं तातो न खल्वसि ॥ ४५४ ॥ परस्त्रीसोदर इति, नाम यत् प्रथितं तव । तद् विश्वविश्वासकृते, न पुनः परमार्थतः ॥ ४५५ ॥ तत् सत्यं यदि तातोऽसि, सत्वं स्वदुहितुस्ततः । पश्याऽनुयान्त्या भर्तारं, कृष्णवत्मैकवर्मना ॥ ४५६ ॥ राजाऽपि व्याजहारैवं, वत्से ! कुरु समीहितम् । नातः परं निरोद्धामि, पवित्रय सतीव्रतम् ॥ ४५७ ॥ 30 ततः प्रमुदिता राजादेशादुपनते रथे । भर्तुरङ्गानि सत्कृत्याऽऽरोपयामास सा स्वयम् ।। ४५८ ॥ अङ्गे कृताङ्गरागा सा, संवीतविशदांशुका । सपुष्पकुन्तला पत्युः, पार्श्वमध्यास्त पूर्ववत् ॥ ४५९ ॥ अन्वीयमाना न्यग्ग्रीवं, सशोकेन महीभुजा । साश्चर्यैवीक्ष्यमाणा च, पौरैः सा सरितं ययौ ॥ ४६०॥
शीर्ष-क्रबन्धौ। २ वीणाम् । ३ शय्यायां विप्रकीर्णान् । ४ निपुणा दासीव । ५ अलीकप्ताम् । ६ मृत्युमार्गपथिकम् । ७ युद्धे। ८सूर्येण। ९षध्वेकवचनमिदम् । १. सेवकान् । ११ नृपः। १२ अग्निमार्गेण । १३ परिहितस्वच्छवस्त्रा। १४ नम्रकन्धरं यथा स्यात् तथा।
त्रिषष्टि, ३२
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ द्वितीय पर्व
आजहुश्चन्दनैधांसि, तत्राऽऽयुक्ताः क्षणादपि । चितां च रचयाश्ञ्चकुस्तल्पं पितृपतेरिव ॥ ४६१ ॥ पित्रेव पृथिवीशेन, तेन सम्पूरितं वसु । याचकेभ्यो यथाकामं, ददौ कल्पलतेव सा ।। ४६२ ॥ पयःपूर्णाञ्जलिपुटा, तत्र त्रिः साऽऽशुशुक्षणिम् । चक्रे प्रदक्षिणं जातदक्षिणावर्त्तरोचिषम् ॥ ४६३ ॥ सतीत्यापनां कृत्वा, पत्युरङ्गैः सहैव तैः । वासागार इव स्वैरं चितान्तः प्रविवेश सा ॥ ४६४ ॥ 5 प्राज्याभिराज्यधाराभिराहुतोऽथ हुताशनः । जज्वालाऽभ्यधिकं ज्वालाजालपल्लविताम्बरः ।। ४६५ ॥ तानि विद्याधराङ्गानि सा चैधांसि च तत्क्षणम् । अभवद् भस्मसात् सर्व, जलं लवणसीदिव ॥ ४६६ ॥ तत्र तस्या निवापादि, कृत्वा शोकसमाकुलः । आजगाम निजं धाम, ततः स जगतीपतिः ।। ४६७ ॥ यावत् सशोकः परिषद्यासाञ्चक्रे महीपतिः । आययौ स पुमांस्तावन्नभस्तः फलका- सिभृत् ॥ ४६८ ॥ भूभुजा पारिषद्यैश्व, वीक्ष्यमाणः सविस्मयम् । मायाविद्याधरः सोऽथ पुरोभूयेदमब्रवीत् ॥ ४६९ ॥
दिष्ट्या प्रवर्द्धसे देव !, परस्त्री - धननिःस्पृह ! । दुरोदर इव द्वन्द्वे, यथाऽजैषं तथा शृणु ॥ ४७० ॥ तदा ह्यहमितः स्थानाच्छरण्य ! शरणे तव । विमुच्य दारान् निर्भर, इवोदपतमम्वरे ॥ ४७१ ॥ समापतन्तं साटोपं, तमपश्यं नभस्तले । दुष्टविद्याधरमहं, रुष्टो बभ्रुरिवोरगम् ॥ ४७२ ॥ ऋषभाविव गर्जन्तावर्जितं दुर्जयावुभौ । अहं च स च युद्धार्थमाह्वाखहि परस्परम् ॥ ४७३ ॥ दिया दृष्टोऽसि दो !, प्रहर प्रहरादितः । कौतुकं पूरयाम्यद्य, स्वदोष्णोर्युसदामपि ॥ ४७४ ॥ 15 नो वा शस्त्रं परित्यज्याssदाय दन्तैर्दशाङ्गुलीः । भक्ष्यं रङ्क इवाऽशङ्को, व्रज जीवितकाम्यया ।। ४७५ ।। साक्षेपमिति जल्पन्तौ द्वावप्यावां परस्परम् । चर्मा - सिपक्षौ धुन्वन्तौ, मिलितौ कुक्कुटाविव ॥ ४७६ ॥ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ चारी- प्रचारचतुरौ, रङ्गाचार्याविवाम्बरे । प्रहारान् वञ्चयमानौ, व्यचराव चिरं नृप ! ॥ ४७७ ॥ आवाभ्यां खड्गशृङ्गेण, प्रहरद्धयां मुहुर्मुहुः । खड्गिभ्यामिव विहिते, अभिसर्पा-पसर्पणे ॥ ४७८ ॥ 20 क्षणेनाऽपि मया तस्य, दोर्दण्डो दक्षिणेतरः । निकृत्य पातितो राजन्!, प्रवर्धक इवेह ते ॥ ४७९ ।। युष्मदानन्दहेतोश्च कदलीस्तम्भलीलया । मया निकृत्य तस्यैकश्चरणः पातितो भुवि ॥ ४८० ॥ दक्षिणोऽपि भुजस्तस्य, नलिनीनाललीलया । विलूय क्षितिपृष्ठेऽस्मिन् क्षिप्तः क्षितिपते ! मया ।। ४८१ ।। ततो द्वितीयस्तस्याङ्घ्रिरङ्घ्रिपस्य प्रकाण्डवत् । खड्गदण्डेन निष्कृत्य, तवाग्रे परिपातितः ॥ ४८२ ॥ ततो रुण्डश्च मुण्डश्च पृथक् कृत्वेह पातितः । तमित्यकार्ष षट्खण्ड, रिपुं भरतवर्षवत् ॥ ४८३ ॥ 25 कलत्रं त्रायमाणेन, न्यासीभूतमपत्यवत् । त्वयैव सोऽरिर्निहतो, हेतुमात्रमहं त्विह । ४८४ ॥
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त्वत्साहाय्यं विना सोऽरिर्न हन्तुं शक्यते मया । नाडलं दग्धुं कक्षमग्निर्विना वायुं ज्वलन्नपि ।। ४८५ ॥ इयत्कालमहं स्त्री वाऽथवाऽभूवं नपुंसकः । पुंस्त्वं मेऽद्य त्वया दत्तं द्विषन्निग्रहहेतुना ॥ ४८६ ॥ ममाऽसि माता तातो वा गुरुर्वा देवताऽथवा । एवंविधोपकारी हि, नाऽन्यो भवितुमर्हति ॥ ४८७ ॥ द्योतनो द्योतयते, विश्वं प्रीणाति चोहुँपः । काले वर्षति पर्जन्यः, प्रसूते भूमिरोषधीः ॥ ४८८ ॥ 30 मर्यादां लङ्घते नाsब्धिर्मेदिनी चाऽवतिष्ठते । परोपकारनिष्ठानां, प्रभावेण भवादृशाम् ॥ ४८९ ॥ न्यासीकृतं कलत्रं मे, तत् सम्प्रति समर्पय । महीनाथ ! गमिष्यामि, स्वां क्रीडाभूमिकामहम् ॥ ४९० ॥ वैताढ्य - जगतीजाल कटकादिषु सप्रियः । विहरिष्ये निराशङ्कस्त्वत्प्रसादाद्धतद्विषन् ॥ ४९१ ॥
आक्रान्तो युगपल्लज्जा-चिन्ता- निर्वेद - विस्मयैः । एवं वसुमतीनाथः, पुरुषं तमभाषत ॥ ४९२ ॥ न्यासीकृत्य कलत्रं स्वं तदानीं त्वयि जग्मुषि । अम्बरे शुश्रुवेऽस्माभिः, क्ष्वेडा ऽसि - फलकध्वनिः ॥४९३॥
१ शय्याम् । २ यमस्य । ३ अग्निम् । ४ सतीत्वसत्यतां समर्थ्यं । ५ घृतधाराभिः । ६ लवणाधीनम् । ७ धृते । ८ नकुलः । ९ गण्डकाभ्याम् । १० अभिगमनं दूरगमनं च । ११ वृक्षस्य । १२ सूर्यः ।
१३ चन्द्रः ।
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षष्ठः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२४७ बाहु-पाद-शिरो-रुण्डं चाऽपतन्नभसः क्रमात् । मत्पतेरिदमित्युच्चैस्त्वत्पत्यकथयच्च नः ॥ ४९४ ॥ पत्युरङ्गैः समं वह्नौ, प्रवेक्ष्यामीति भाषिणीम् । अवारयाम सुचिरं, पुत्रीप्रेम्णा तव प्रियाम् ॥ ४९५ ॥ वह्निप्रवेशादमाभिर्वार्यमाणा तु ते प्रिया । अस्मान् सम्भावयामासाऽन्यथैवेतरलोकवत् ॥ ४९६ ॥ तूष्णीकेषु ततोऽस्मासु, सा साहसवती नदीम् । गत्वा लोकसमक्षं तैः, सहाऽङ्गैः प्राविशच्चिताम् ॥ ४९७ ॥ अधुनैव निवापादि, तस्याः कृत्वाऽहमागमम् । तस्याः शोके न्यषीदं च, त्वं चाऽगाः किमिदं ननु ?॥४९८॥ 5 तान्यङ्गानि न किं ते वा ?, स वा त्वं नेति संशयः । अज्ञानमुद्रितमुखाः, किमिह ब्रूमहे वयम् ? ॥४९९॥
व्याजहार कृतव्याजकोपः सोऽपि पुमानिति । परस्त्रीसोदरो मिथ्या, जनश्रुत्या श्रुतोऽसि हा॥५००॥ तेन नाम्ना वयं भ्रान्ताः, प्रियान्यासमकृष्महि । अयोवेत पुष्करैतिस्त्वं वृत्तैरीदृशैरसि ॥५०१॥ दुराचारस्य यत् कृत्यं, तस्य मद्विषतोऽभवत् । तच्चके भवता राजन् !, द्वयोर्हन्त ! किमन्तरम् १ ॥५०२॥ नारीष्वलुब्धमन्यश्चेदपवादाद् विभेषि वा । तदर्पय प्रियां तां मे, न हि निह्नोतुमर्हसि ॥ ५०३॥ 10 अलुब्धपूर्वा लुभ्यन्ति, यद्येवं त्वादृशा अपि । ततः कृष्णोरग इव, कोऽस्तु विश्वासभाजनम् ? ॥५०४ ॥
भूयो बभाषे भूपालस्तवाङ्गान्युपलक्ष्य सा । त्वत्प्रेयस्यविशद् वह्निमत्र तावन्न संशयः ॥ ५०५॥ अत्राऽर्थे साक्षिणः सर्वे, पौरा जानपदा अपि । जगच्चक्षुरयं व्योम्नि, भगवांश्च दिवाकरः ॥ ५०६ ॥ लोकपालाश्च चत्वारो, ग्रह-नक्षत्र-तारकाः । इयं च भगवत्युर्वी, धर्मश्च त्रिजगत्पिता ॥ ५०७ ॥ तन्न भाषितुमीदृक्षं, रूक्षाक्षरमिहाऽर्हसि । अमीषां मध्यतः कश्चित् , प्रमाणीकुरु साक्षिणम् ॥ ५०८॥ 15 ___ अलीकरोषपरुषं, पुरुषः सोऽवदत् पुनः । न हि प्रमाणे प्रत्यक्षे, प्रमाणान्तरकल्पना ॥ ५०९ ।। तव पश्चादियं का नु, स्थिताऽस्ति ? प्रेक्ष्यतां ननु । कक्षाप्रक्षिप्तलोख्रस्य, कोशपानमिदं नृप! ॥ ५१०॥ ततश्च वलितग्रीवो, यावत् पश्चाददौ दृशम् । ईक्षाञ्चके नृपस्तावत् , तत्प्रियां तां निषेदुषीम् ॥ ५११ ॥ पारदारिकदोषेण, दूषितोऽसीति शङ्कया । ग्लानिं प्रपेदे नृपतिर्लानिं तापेन पुष्पवत् ॥ ५१२ ।। नृपं ग्लानिं प्रपेदानं, निर्दोषं दोषशङ्कया । बद्धाञ्जलिः कथयितुं, पारेभे स पुमानिति ॥ ५१३ ॥ 20
कचित् स्मरसि भूनाथ!, चिरेणाभ्यस्य यन्मया । मायाप्रयोगचातुर्य, त्वं दर्शयितुमर्थितः ? ॥५१४॥ देवेन मेघवद् विश्वसाधारण्यजुषाऽप्यहम् । भाग्यदोषादपूर्णेच्छो, द्वारादपि निवारितः ॥ ५१५ ॥ ततो रूपं परावर्त्य, कृत्वा कपटनाटकम् । मयेदं दर्शितं देव!, कृतार्थोऽसि प्रसीद मे ॥५१६ ॥ यथा तथा वा महतां, दर्शनीयो निजो गुणः । गुणार्जनभवः केशः, प्रणश्यत्यन्यथा कथम ॥५१७॥ तदद्यामि गतक्लेशो, ब्रजिष्यामि समादिश । सर्वत्राऽपि महा! सि, त्वदग्रे गुणदर्शनात् ॥ ५१८ ॥ 25 कृतार्थीकृत्य भूयिष्ठैरथुस्तमवनीपतिः। विससर्ज ततः किश्चिचिन्तयित्वेदमब्रवीत् ॥ ५१९ ॥ ___ यादृग् मायाप्रयोगोऽस्य, संसारोऽप्येष तादृशः । दृष्टनष्टं वस्तु सर्वमस्मिन् बुद्धदवद् यतः ॥५२०॥ चिन्तयित्वा नैकधैवं, विरक्तो भववासतः । उत्सृज्य राज्यं प्रव्रज्यां, स जग्राह ततो नृपः ॥ ५२१॥
मायाप्रयोगसदृशे, संसारेऽसिंस्ततः प्रभो! । मा शोकविवशो भूस्त्वं, यतख स्वार्थसिद्धये ॥ ५२२ ॥ चक्रिणो भवनिर्वेदः, पदे शोकस्य तावतः । महाप्राण इव महाप्राणस्थानेऽभवत्'ततः ॥ ५२३ ॥ 30
उदाजहार सगरो, गिरं तत्त्वगरीयसीम् । युष्माभिरभ्यधायीदं, साधु साधु विवेकिनः! ॥ ५२४ ॥ जीवन्ति च म्रियन्ते च, जन्तवः स्वस्वकर्मणा । बालो युवा वा वृद्धो वेत्यप्रमाणं वयः खलु ॥ ५२५ ॥ सङ्गमा बान्धवादीनां, स्वमसब्रह्मचारिणः । लक्ष्मीनिसर्गतो दन्तिकर्णतालचलाचला ॥ ५२६ ॥
*सक ३ विनाऽन्यत्र-रुण्डश्चाऽप सङ्घ सङ्घ २ संता० । रुण्डाश्चाऽप° ढं०॥ +त्पत्यकथयत ततः सङ्घ । 'त्पत्नी नः शशंस च ८० ॥' १ विहितकपटक्रोधः। २ लोहवत् । ३ कृत्रिमकोपकठोरम् । ४ लोत्रम् सेयधनम्। ५मूल्यवान् । ६ स्वमसदृशाः। ७ चला।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ द्वितीयं पर्व
यौवनश्रीरपि गिरिनदीपूरसहोदरा । जीवितं च कुशाग्रस्थजलविन्दु विडम्बकम् || ५२७ ॥ न यावद् यौवनं याति, वारीव मरुभूमिगम् । न यावदायाति जरा, राक्षसीवायुरन्तकृत् ॥ ५२८ ॥ भवतीन्द्रियवैकल्यं, न यावत् सन्निपातवत् । वेश्येवोपात्तसर्वस्खा, यावच्छ्रीर्न विरज्यति ॥ ५२९ ॥ छलयित्वा तावदमून्यखिलान्यपि हि स्वयम् । प्रव्रज्योपायलभ्याय, स्वार्थाय प्रयतामहे ।। ५३० ।। 'काचखण्डेन स मणि, कृष्णकाकेन केकिनम् । मृणालमालया हारं, कदन्नेन च पायसम् ॥ ५३१ ॥ कालैसेयेन च क्षीरं, रासभेन च वाजिनम् । क्रीणाति योऽर्जयेन्मोक्षमसारेणेह वर्मणा ॥ ५३२॥ युग्मम् ॥ एवमाभाषमाणस्य, तदा सगरचक्रिणः । द्वार्याययुर्विषयिणोऽष्टापदाभ्यर्णवासिनः ॥ ५३३ ॥ अस्मांस्त्रायख त्रायस्वेत्युच्चैः पूत्कारकारिणः । आजूहवत् तान् सगरचक्रभृद् वेत्रपाणिना ।। ५३४ ॥ हो ! किमिदमित्युच्चैर्भाषिताश्चक्रवर्तिना । कृतप्रणामाः सम्भूय, ग्रामीणास्ते व्यजिज्ञपन् ॥ ५३५ ॥ अष्टापदाद्रिपरिखापूरणाय सरिद्वरा । या कृष्टा दण्डरत्नेन, कुमारैस्तैर्नरेश्वर ! ॥ ५३६ ॥ पातालमिव दुष्पूरां, पूरयित्वा क्षणेन ताम् । साऽतिक्रामत्युभे कूले, कुलदेव कुलद्वयम् ॥। ५३७ ॥ अष्टापदाभ्यर्णवर्ति, ग्रामाऽऽकर- पुरादिकम् । आप्लावयितुमारब्धा, पर्यस्त इव सागरः ।। ५३८ ॥ अधुनाऽपि युगान्तोऽयमस्माकं समुपस्थितः । तदादिश वयं कुत्र, तिष्ठामो निरुपद्रवाः १ ।। ५३९ ।।
ततश्च सगरवक्री, निजं पौत्रं भगीरथम् । वात्सल्यसारया वाचा, समाहूयेदमादिशत् ।। ५४० ॥ पूरयित्वाऽष्टापदाद्रिपरिखां तां सरिद्वरा । उन्मत्तेव भ्रमन्त्यस्ति, सा ग्रामादिषु सम्प्रति ।। ५४१ ॥ तां दण्डेन समाकृष्य, क्षिप पूर्वपयोनिधौ । अदर्शितपथं याति, पयो ह्यन्धवदुत्पथे ॥ ५४२ ॥ बाहुवीर्यम सामान्य मैश्वर्यं भुवनोत्तरम् । अत्युल्बणं हस्तिबलमश्वीयं विश्वविश्रुतम् ॥ ५४३ ॥ पादतमतिविक्रान्तं महद् रथवलं तथा । अत्युत्कटः प्रतापश्च निःसीमं शस्त्रकौशलम् ॥ ५४४ ॥ दैवतानामायुधानां, सम्पत्तिश्चेत्यमून्यलम् । दर्पं यथा द्विषां घ्नन्ति, जनयन्त्यात्मनस्तथा ॥ ५४५ ॥ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥
अग्रणीः सर्वदोषाणामापदामेकमास्पदम् । सम्पदामपहर्तेकः कर्ता दुर्यशसामपि ॥ ५४६ ॥ अपि वंशस्य संहर्ता, हर्ता निखिलशर्मणाम् । प्रहर्ता परलोकस्य, दर्पो वैरी शरीरजः || ५४७ ॥ युग्मम् || तद् दर्पः परिहर्तव्यः सर्पवत् सत्पथस्थितैः । सामान्यैरपि पुरुषैर्मत्पौत्रेण विशेषतः ।। ५४८ ॥ यथापात्रं विनीतेन, भवितव्यं ततस्त्वया । गुणप्रकर्षो विनयादशक्तस्याऽपि जायते ॥ ५४९ ॥ 25 शक्तस्य पुंसो विनयः, सुवर्णस्येव सौरभम् । निष्कलङ्क पुष्टेव, पार्वणस्य हिमद्युतेः ॥ ५५० ॥
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सुराणामसुराणां च नागादीनामपि त्वया । उपचारो यथाक्षेत्रं, कार्यः कार्ये सुखेऽपि हि ।। ५५१ ॥ उपचारार्हणीयेषु, नोपचारो हि दोषकृत् । अपचारस्तु दोषाय, पित्तात्मन इवाऽऽतपः ॥ ५५२ ॥ ऋषभस्वामिपुत्रेण, भरतेनापि चक्रिणा । वशंवदा देव-दैत्या, उपचारेण चक्रिरे ॥ ५५३ ॥ शक्तेनापि सता तेनोपचारो देवतादिषु । दर्शितो यस्तथा कार्य:, स कुलाचार इत्यपि ॥ ५५४ ॥ 30 तथेति प्रतिपेदे स, महाभागो भगीरथः । निसर्गेण विनीतस्य, शिक्षा सद्भित्तिचित्रवत् ।। ५५५ ।। अर्पयित्वा दण्डरलं, स्वं प्रतापमिवोर्जितम् । चुम्बित्वा मूर्ध्नि सगरो, विससर्ज भगीरथम् ॥ ५५६ ॥ चक्रिणश्चरणाम्भोजे, प्रणम्याऽथ भगीरथः । सदण्डरत्नो निरगात्, सविद्युदिव वारिद: ।। ५५७ ॥ महता चक्रिसैन्येन, वृतो जानपदैश्च तैः । रेजे भगीरथः शक्र, इवाऽनीकप्रकीर्णकैः ॥ ५५८ ॥ आससाद क्रमेणाथाष्टापदाद्रिं भगीरथः । मन्दाकिन्या वलयितं, त्रिकूटाद्रिमिवाऽन्धिना ॥ ५५९ ॥
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१ उपात्तं गृहीतं सर्वस्वं यया सा । २ मयूरम् । ३ तक्रेण । ४ शरीरेण । ५ जनपदवासिनो जनाः । ६ अश्वसैन्यम् । पदातिसैन्यम् । ८ निष्कलङ्कशरीरता इव । ९ पित्तप्रकृतेर्जनस्य ।
१० मङ्गचक्रे ।
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षष्ठः सर्गः
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । उद्दिश्य तत्र तं नागकुमारं ज्वलनप्रभम् । तपोऽष्टमं स विदधे, विधिवेदी भगीरथः ॥ ५६० ॥ अष्टमे च परिणमत्युपतस्थे भगीरथम् । पतिर्नागकुमाराणां, प्रसन्नो ज्वलनप्रभः ॥५६१॥ गन्धैधूपैश्च माल्यैश्च, तेनोपचरितो भृशम् । स्वामी नागकुमाराणां, किं करोमीत्यभाषत ॥ ५६२ ॥ अथो भगीरथोऽप्यम्भोधरध्वानगभीरगीः । उवाच विनयेनापि, सप्रभो ज्वलनप्रभम् ॥ ५६३ ॥ अष्टापदाद्रिपरिखामापूर्येयं सरिद्वरा । निरर्गलं प्रसरति, पनगीव बुभुक्षिता ॥ ५६४ ॥ क्षेत्राण्येषा हि खनति, प्रोन्मूलयति पादपान् । सदृशीकुरुते सर्वान् , स्थेपुटानवटा पि ॥ ५६५ ॥ प्रभ्रंशयति वप्रांश्च, प्रासादान दलयत्यलम् । प्रपातयति हाणि, निगृह्णाति गृहाणि च ॥ ५६६ ॥ तां पिशाचीमिवोन्मत्तां, देशविध्वंसकारिणीम् । दण्डेनाऽऽकृष्य पूर्वाब्धौ, क्षिपामि त्वदनुज्ञया ॥५६७॥ ततः प्रसन्नो ज्वलनप्रभनागस्तमभ्यधात् । निजं समीहितं कुर्या, निर्विघ्नं भवतोऽस्त्विति ॥ ५६८ ॥ येऽमुष्मिन् भरतक्षेत्रे, नागास्ते मम शासने । मदनुज्ञाप्रवृत्तः सन् , मा भैषीस्तदुपद्रवात् ॥ ५६९ ॥ 10 अभिधायेति नागेन्द्रः, प्रविवेश रसातलम् । विदधेऽष्टमभक्तान्ते, पारणं च भगीरथः ॥ ५७० ॥ वैरिणीमिव भिन्नक्ष्मां, स्वच्छन्दां स्वैरिणीमिव । मन्दाकिनीमथ क्रष्टुं, दण्डरनं स आददे ॥ ५७१ ॥ मालामङ्कुटकेनेव, दण्डेनाऽऽकर्षति स ताम् । निनदन्तीं नदी चण्डभुजदण्डो भगीरथः ॥ ५७२ ॥ कुरूणां मध्यभागेन, नगरं हस्तिनापुरम् । दक्षिणेन पश्चिमेन, पुनः कोशलनीवृतः॥ ५७३ ॥ उत्तरेण प्रयागं च, कासीनां दक्षिणेन च । विन्ध्यान्तर्दक्षिणेनाङ्गान् , मगधानुत्तरेण च ॥५७४॥13 वात्येव तेण्याः कर्षन्ती, वर्तनीवर्तिनीनदीः। भगीरथेन पूर्वाम्भोनिधिं गङ्गाऽवतारिता ॥ ५७५ ॥ ततः प्रभृति तत् तीर्थ, गङ्गासागर इत्यभूत् । कृष्टा भगीरथेनेति, गङ्गा भागीरथीति च ॥५७६॥ यत्र यत्र वभञ्जाऽहिभवनानि व्रजन्त्यसौ । भगीरथस्तत्र तत्र, नागेभ्यः प्रददौ बलिम् ॥ ५७७ ॥ तेषां सगरपुत्राणां, शरीरास्थीनि तानि च । तेन गङ्गाप्रवाहेण, निन्यिरे पूर्वसागरम् ॥ ५७८॥ दध्यौ भगीरथश्चैवं, साधु जातमिदं यहो! । मत्पितॄणां यदस्थीनि, गङ्गयेयुः पयोनिधिम् ॥ ५७९ ॥ 20. गृध्रादिचञ्चू-चरणविलग्नान्यन्यथा पुनः । पतेयुरशुचिस्थानेष्वनिलोद्भूतपुष्पवत् ॥ ५८०॥ एवं विचिन्तयन् प्रीतैर्जलापातापदुज्झितैः । लोकैलॊकम्पृणोऽसीति, प्रशशंसे चिरं हि सः॥ ५८१ ॥ तदा पितॄणामस्थीनि, तेन क्षिप्तानि यजले । क्षिपत्यद्यापि तल्लोकः, सोऽध्वा यो महदाश्रितः॥ ५८२ ॥ ततः स्थानान्निववृते, रथारूढो भगीरथः । रथप्रचारेण भुवं, रोसयन् कांस्यतालवत् ॥ ५८३ ॥
स आगच्छन्नथ पथि, कल्पद्रुममिव स्थितम् । ददशैंकं भगवन्तं, केवलज्ञानिनं मुनिम् ॥ ५८४ ॥ 25 उदयाद्रेरियाऽऽदित्यो, गरुत्मानम्बरादिव । सानन्दः स्यन्दनवरात् , तसादवततार सः ।। ५८५ ॥ आलोकमात्रे तं नत्वा, भक्त्या केवलिनं मुनिम् । स त्रिः प्रदक्षिणीचके, भक्तिदक्षोऽतिदक्षिणः ॥५८६॥ तं प्रणम्य पुरः स्थित्वा, पप्रच्छैवं भगीरथः । ममाऽम्रियन्त पितरो, युगपत् केन कर्मणा ? ॥ ५८७॥ त्रिकालवेदी भगवान् , करुणारससागरः । एवं गदितुमारेभे, मधुरोगारया गिरा ॥ ५८८ ॥
श्रावकैर्विपुलश्रीकैः, श्रीदश्रीसंश्रितैरिव । पूर्णः सङ्घश्चचालैकस्तीर्थयात्राकृते पुरा ॥ ५८९॥ 30 प्रत्यन्तग्राममेकं तु, सङ्घः सायमवाप सः । निशायां चाऽध्युवासोपकुम्भकारनिकेतनम् ॥ ५९॥ सङ्घ समृद्धं तं दृष्ट्वा, हृष्टो ग्रामजनोऽखिलः । तल्लुण्टनार्थमुत्तस्थे, दण्ड-कोदण्ड-खड्गभृत् ॥ ५९१॥ प्रबोध्य वचनैश्चाटुगभैरमृतसोदरैः । संशूकः कुम्भकारस्तं, ग्रामलोकं न्यवारयत् ॥ ५९२ ॥
, पूजितः। २ स्थपुटान् उच्चप्रदेशान् । ३ अवटान् निम्नप्रदेशान्। ४ मालाकारप्रतिबद्धमणिकरूपाकोटकवत् । ५ तृणसमूहान्। ६ मार्गान्तर्वर्त्तमानाः । ७ नागभवनानि। ८ जलस्य आपातस्तेन या आपत् तदुझितैः। ९ रासक्रीडा कारयन् । १० कुबेरलक्ष्म्याचितैरिव । ११ दयासहितः।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
द्वितीय पर्व कुम्भकारस्य तस्योपरोधाद् ग्रामजनोऽखिलः । भूतः पात्रमिव प्राप्तं, तं सङ्घममुचत् तदा ॥ ५९३ ॥ अन्येधुरेकवास्तव्यदस्युदोषान्महीभुजा । सवाल-वृद्धः स ग्रामो, दाहितः परराष्ट्रवत् ॥ ५९४ ॥ मित्रेणाऽऽमत्रितः कुम्भकारो ग्रामान्तरं गतः । दाहात् तेनावशिष्टोऽभूत् , सर्वत्र कुशलं सताम् ॥५९५॥ ततः स कालयोगेन, कालधर्ममुपागतः । वणिग् विराटदेशेऽभूद् , द्वितीय इव यक्षराट् ॥ ५९६ ॥ स तु ग्रामजनो मृत्वा, विराटविषयेऽपि हि । जनो जानपदो जज्ञे, तुल्या भूस्तुल्यकर्मणाम् ॥५९७॥ मृत्वा च कुम्भकृजीवस्तत्राऽभूत् पृथिवीपतिः । ततोऽपि मृत्वा कालेन, देवोऽभूत् परमर्द्धिकः ॥ ५९८ ॥ च्युत्वा च देवसदनाजातोऽसि त्वं भगीरथः। ते च ग्राम्या भवं भ्रान्त्वा, जहुप्रभृतयोऽभवन्॥५९९॥ मनस्कृतेन सङ्घोपद्रवरूपेण कर्मणा । युगपद् भरमसादासन् , निमित्तं ज्वलनप्रभः॥६००॥ तन्निवारणरूपेण, त्वं पुनः शुभकर्मणा । तस्मिन्निव भवेत्रापि, न दग्धोऽसि महाशय ! ॥६०१॥
केवलज्ञानिनस्तसादाकयेत्थं भगीरथः । परं संसारनिर्वेद, विवेकोदधिरादधे ॥ ६०२॥ गण्डोपरि स्फोट इव, दुःखं दुःखोपरि प्रभोः । मा भूत् पितामहस्येति, न प्रात्राजीत् तदैव सः ॥६०३।। केवलज्ञानिनः पादान, वन्दित्वाऽथ भगीरथः । रथमारुह्य भूयोऽपि, साकेतनगरं ययौ ॥ ६०४ ॥
आज्ञां कृत्वाऽभ्युपेतं तं, प्रणमन्तं पितामहः । मुहुः शिरसि जघौ चं, पृष्ठेऽस्पाक्षीच पाणिना ॥६०५॥
भगीरथमथोवाच, सगरः स्नेहगौरवात् । बालोऽप्यसि वयो-बुद्धिस्थविराणां त्वमग्रणीः ॥ ६०६ ॥ 15 बालोऽसीति स मा वादी, राज्यभारं गृहाण नः । तरामो येन निर्भाराः, सन्तः संसारसागरम् ॥६०७॥
मैवः स्वयम्भूरमणाधिवद् यद्यपि दुस्तरः । तीर्णस्तथापि मत्पूर्वैरिति श्रद्धा ममाऽप्यभूत् ॥ ६०८॥ वत्स ! तेषामप्यपत्यै, राज्यभार उपाददे । ततस्तद्दर्शितः पन्थाः, पाल्यतां ध्रियतां मही ॥ ६०९॥
नत्वा भगीरथोऽप्येवमभाषत पितामहम् । युक्तमादित्सते तातः, प्रवज्यां भवतारणीम् ॥ ६१०॥
खामिन् ! बतायाऽयमपि, जनः किन्तूत्सुकायते । राज्यदानप्रसादेनाऽप्रसादं मा कृथास्ततः ॥ ६११ ॥ 20 चक्रवर्त्यप्युवाचैवं, युक्तमसत्कुले व्रतम् । ततोऽपि किन्त्वभ्यधिकं, गुर्वाज्ञापालनव्रतम् ॥ ६१२ ॥
गृह्णीयाः समये मद्वत् , परिव्रज्या महाशय ! । खापत्ये कवचहरे, निदधीथाश्च मेदिनीम् ॥ ६१३ ॥ श्रुत्वा भगीरथोऽप्येवं, गुर्वाज्ञाभङ्गकातरः । भवभीरुश्च मौन्यस्थाद्, दोलायितमनाविरम् ॥ ६१४ ॥ ततः सिंहासने स्वस्मिन्नुपवेश्य भगीरथम् । राज्येऽभ्यपिश्चत् सगरस्तदैव परया मुदा ॥ ६१५ ॥
तदानीं चक्रिणोऽभ्येत्य, शीघ्रमुद्यानपालकाः । शशंसुः समवसृतं, बाह्योद्यानेऽऽजितप्रभुम् ॥६१६॥ पौत्रराज्याभिषेकेणाऽजितस्वाम्यागमेन च । तदानीं चक्रिणो जज्ञे, हर्षोत्कर्षो यथोत्तरम् ॥ ६१७ ॥ तत्रस्थोऽपि स उत्थाय, नमश्चक्रे जगत्पतिम् । पुरःस्थमिव च शक्रस्तवेनोचैरवन्दत ॥ ६१८ ॥ तेषामुद्यानपालानां, स्वाम्यागमनशंसिनाम् । ददौ चक्री हिरण्यस्य, कोटीरर्धत्रयोदश ॥ ६१९ ॥ समं भगीरथेनाऽथ, सामन्तादिभिरावृतः । ययौ समवसरणं, सगरो गुरुसम्भ्रमः ॥ ६२० ॥
उत्तरद्वारमार्गेण, तत्र च प्रविवेश सः । प्रविष्टमानी हर्षेण, सिद्धिक्षेत्र इवोच्चकैः ॥ ६२१ ॥ 30 तत्र प्रदक्षिणीचक्रे, त्रिश्चक्री धर्मचक्रिणम् । नमस्कृत्य पुरोभूय, स्तोतुं चेति प्रचक्रमे ॥ ६२२ ॥
__ मत्प्रसत्तेस्त्वत्प्रसादस्त्वत्प्रसादादियं पुनः । इत्यन्योऽन्याश्रयं भिन्द्धि, प्रसीद भगवन् ! मयि ॥६२३॥ निरीक्षितुं रूपलक्ष्मी, सहस्राक्षोऽपि न क्षमः । स्वामिन् ! सहस्रजिह्वोऽपि, शक्तो वक्तुं न ते गुणान्॥६२४॥ संशयान् नाथ! हरसेऽनुत्तरस्वर्गिणामपि । अतः परोऽपि किं कोऽपि, गुणः स्तुत्योऽस्ति वस्तुतः ॥ इदं विरुद्धं श्रद्धत्तां, कथमश्रद्दधानकः १ । आनन्दसुखश(स)क्तिश्च, विरक्तिश्च समं त्वयि ॥ ६२६ ॥
कुबेरः। २ अस्पृशत् । ३ संसारः। ४ ग्रहीतुमिच्छति । ५ महाहर्षः। ६ आत्मानं प्रविष्टं मन्यते । ७ अजितस्वामिनम् । मम प्रसन्नतायाः। ९ मम प्रसन्नता। १.इन्द्रोऽपि ।
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सर्गः ]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
नाथेयं घट्यमानाऽपि दुर्घटा घटतां कथम् १ । उपेक्षा सर्वसत्त्वेषु, परमा चोपकारिता ॥ ६२७ ॥ द्वयं विरुद्धं भगवंस्तव नाऽन्यस्य कस्यचित् । निर्ग्रन्थता परा या च, या चोच्चैश्चक्रवर्तिता ॥ ६२८ ॥ नारका अपि मोदन्ते, यस्य कल्याणपर्वसु । पवित्रं तस्य चारित्रं, को वा वर्णयितुं क्षमः १ ॥ ६२९ ॥ मोऽद्भुतोऽद्भुतं रूपं, सर्वात्मसु कृपाऽद्भुता । सर्वाद्भुतनिधीशाय तुभ्यं भगवते नमः ॥ ६३० ॥
इति स्तुत्वा जगनाथं, यथास्थानं निषद्य च । सुधानिस्यन्दसधीचीं, सोऽश्रौषीद् धर्मदेशनाम् ॥ ६३१ ॥ 5 देशनान्ते च सगरो, नमस्कृत्य पुनः प्रभुम् । रचिताञ्जलिरित्यूचे, गद्गदाक्षस्या गिरा ।। ६३२ ॥ न खो न च परः कोऽपि, तीर्थेश ! तव यद्यपि । तथाप्यज्ञानतो नाथ !, मया पर्यनुयुज्यसे ॥ ६३३ ॥ विश्वमप्युत्तारयसि, भवाम्भोधेर्दुरुत्तरात् । नाथ ! तत्र निमज्जन्तं कथं मां त्वमुपेक्षसे ॥ ६३४ ॥ संसारगर्तपतनादनेकक्लेशसङ्कुलात् । रक्ष रक्ष जगन्नाथ !, दीक्षां देहि प्रसीद मे ।। ६३५ ॥ संसारसुखमूढेन, मयाऽऽयुरियदात्मनः । निष्फलं क्षपितं स्वामिन् !, बालेनेवाऽविवेकिना ॥ ६३६ ॥ विज्ञाप्यैवं तस्थिवांसं, सगरं रचिताञ्जलिम् | भगवानप्यनुजज्ञे, दीक्षाग्रहणकर्मणि ॥ ६३७ ॥
10
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अथोत्थाय नमस्कृत्य, भगवन्तं भगीरथः । एवमभ्यर्थयाञ्चक्रेऽभ्यर्थनाकल्पभूरुहम् || ६३८ ॥ दीक्षां दास्यन्ति तातस्य, स्वामिपादाः परं क्षणम् । प्रतीक्षणीयं कुर्वेऽहं यावन्निष्क्रमणोत्सवम् ॥ ६३९ ॥ काप्यपेक्षा मुमुक्षूणां न यद्यप्युत्सवादिषु । तथापि मेऽनुरोधेन, तातोऽप्येवं करिष्यति ॥ ६४० ॥ ततस्तदनुरोधेन, सगरोऽत्युत्सुकोऽपि सन् । जगाम नगरीं भूयः, प्रणिपत्य जगद्गुरुम् ॥ ६४१ ॥ सिंहासननिषण्णस्य, सगरस्य भगीरथः । दीक्षाभिषेकमकरोत् पुरुहूत इवाऽर्हतः ॥ ६४२ ॥ उन्मृष्टो गन्धकाषाय्या, लिप्तो गोशीर्षचन्दनैः । मङ्गल्ये पर्यधत्ताऽथ, सगरो दिव्यवाससी ॥ ६४३ ॥ ततो देवोपनीतानि, दिव्यालङ्करणानि च । अलश्चक्रे शरीरेण, गुणालङ्करणोऽपि सः ॥ ६४४ ॥ यथाकाममथाऽर्थिभ्यः, प्रदाय सगरो वसु । शिबिकामारुरोहोचैर्विशदच्छत्र-चामरः ॥ ६४५ ॥ प्रत्यापणं प्रतिगृहं, प्रतिरथ्यं च नागरैः । नगर्यां विदधे मञ्च - पताका-तोरणादिकम् ॥ ६४६ ॥ स्थाने स्थाने नागरैश्थ, जनैर्जानपदैरपि । पूर्णपात्रादिना हर्षात् प्रकृतानेकमङ्गलः || ६४७ ॥ पुनः पुनः प्रेक्ष्यमाणः स्तूयमानः पुनः पुनः । पुनः पुनः पूज्यमानोऽन्वीयमानः पुनः पुनः ॥ ६४८ ॥ विनीतामध्यतश्चक्री, घुमेध्येनेव चन्द्रमाः । भृशायमानोऽपि जनोपरोधाच्छनकैर्ययौ ॥ ६४९ ॥
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॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ भगीरथेन सामन्तैरमात्यैः सपरिच्छदैः । खेचरैवाऽन्वीयमानः, सगरोऽगाजिनान्तिकम् ।। ६५० ।। 25 तत्र प्रदक्षिणीकृत्य, भगवन्तं प्रणम्य च । भगीरथोपनीतं स यतिवेषमुपाददे ॥ ६५१ ॥ समक्षं सर्वसङ्घस्य, स्वामिवाचनयोच्चकैः । पठन् सामायिकं दीक्षां चतुर्यामां स आददे ।। ६५२ ।। कुमारैः सह ये जग्मुर्नृप-सामन्त-मत्रिणः । सगरेण समं तेऽपि भवोद्विग्नाः प्रवव्रजुः ॥ ६५३ ॥ चक्रे चक्रमुनेस्तस्य, मनः कुमुदकौमुदीम् । अनुशिष्टिमयीं धर्मदेशनां धर्मसारथिः ॥ ६५४ ॥ पूर्णायामथ पौरुष्यां, देशनां विससर्ज ताम् । देवच्छन्दमलञ्चक्रे, ततश्चोत्थाय तीर्थकृत् ॥ ६५५ ॥ स्वाम्यँङ्घ्रिपीठमध्यास्य, चक्रे गणधराग्रणीः । स्वामिप्रभावात् स्वामीव, देशनां संशयच्छिदम् ॥ ६५६ ॥ द्वितीयस्यां च पौरुष्यां, पूर्णायां सोऽपि देशनाम् । संवत्रे स्तनितमिव प्रवृष्टः प्रावृडम्बुदः ।। ६५७ ।। ततः स्थानादथाऽन्यत्र, विहर्तुं प्राचलत् प्रभुः । देवा भगीरथाद्याच, स्थानं निजनिजं ययुः ॥ ६५८ ॥ विहरन् स्वामिना सार्धं, सगरोऽपि महामुनिः । अध्यैष्ट द्वादशाङ्गानि, मातृकामिव लीलया ।। ६५९ ।। १ एतावदायुष्यम् । २ अनुज्ञां ददौ । ३ प्रार्थनापूरणे कल्पवृक्षसदृशम् । ४ आग्रहेण । ५ गगनमध्येन । ७ तीर्थकराध्यासितसिंहासन पादपीठमित्यर्थः । ८ प्रथमो गणधरः । ९ द्वादशाक्षरीवर्णानिव ।
30
प्रभुः ।
६ अजित
20
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२५२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[द्वितीयं पर्व स पञ्च समितीस्तिस्रो, गुप्तीश्चारित्रमातृकाः । सम्यगाराधयामास, प्रमादरहितः सदा ॥ ६६० ॥ स नित्यं भगवत्पादशुश्रूषोद्भूतया मुदा । परीषहभवं क्लेशं, न विवेद मनागपि ॥ ६६१ ॥ त्रैलोक्यचक्रिणो भ्राता, चत्र्यसि स्वयमित्यपि । नाऽहश्चक्रे किन्तु चक्रे, विनयं संयतेषु सः॥६६२ ॥ पश्चादुपात्तदीक्षोऽपि, तपसाऽध्ययनेन च । चिरप्रव्रजितेभ्योऽपि, राजर्षिः सोऽत्यरिच्यत ॥ ६६३ ॥ घातिकर्मक्षयात् तस्य, केवलज्ञानमुज्ज्वलम् । उदभूद् दुर्दिनच्छेदात् , प्रताप इव भास्वतः ॥ ६६४ ॥
आरभ्य केवलोत्पत्तेरुा विहरतः सतः । अजितस्वामिनः पश्चनवतिर्गणभृद्वराः ॥ ६६५ ॥ लक्षं मुनीनां साध्वीनां, पुनस्त्रिंशत्सहस्रयुक् । लक्षत्रयं पूर्वभृतां, सप्तत्रिंशच्छतानि तु ॥ ६६६ ॥ मनःपर्ययिसहस्राः, सहसार्धचतुःशताः । द्वादशाऽवधिमाजां तु, चतुर्णवतिशत्यथ ॥ ६६७ ॥
उत्पन्नकेवलानां तु, द्वाविंशतिसहस्यभूत् । द्वादश वादलब्धीनां, सहस्राः सचतुःशताः ॥ ६६८ ॥ 10 वैक्रियलब्धिसहस्रा, विंशतिः सचतुःशताः । ऊना द्वाभ्यां सहस्राभ्यां, श्रावकाणां त्रिलक्ष्यथ ।। ६६९ ॥
पञ्चचत्वारिंशत्सङ्ख्यैः, सहस्रैरधिकानि तु । श्राविकाणां पञ्चलक्षाण्यजायन्त जगद्गुरोः ॥ ६७० ॥ एकाङ्गोने पूर्वलक्षे, दीक्षाकल्याणकाद् गते । निर्वाणसमयं ज्ञात्वा, सम्मेतादि विभुर्ययौ ॥ ६७१ ॥ लोकाग्रस्येव सोपानं, सम्मेतमधिरूढवान् । द्वासप्ततिपूर्वलक्षसङ्ख्यायुरजितप्रभुः ॥ ६७२ ॥
श्रमणानां सहस्रेण, समं तत्र जगद्गुरुः । पादपोपगमं नामाऽनशनं प्रत्यपद्यत ॥ ६७३ ॥ ___ तदा युगपदिन्द्राणामासनानि चकम्पिरे । अनिलान्दोलितोद्यानवृक्षशाखा इवाऽभितः ॥ ६७४ ॥ प्रयुक्तावधयस्ते तु, निर्वाणसमयं प्रभोः । विदाञ्चक्रुरुपेयुश्च, सम्मेतगिरिमूर्धनि ॥ ६७५ ॥ तत्र प्रदक्षिणीचक्रुः, सामरास्ते जगद्गुरुम् । शुश्रूषमाणास्तस्थुश्च, पादान्तेऽन्तिपदो यथा ॥ ६७६ ।। पादपोपगमस्याऽथ, मासे पूर्णे जगद्गुरुः । चैत्रस्य शुक्लपञ्चम्यां, चन्द्रे मृगशिरःस्थिते ॥ ६७७ ॥
पर्यङ्कस्थः काययोगे, बादरेऽवस्थितोऽरुणत् । बादरौ चित्त-वाग्योगी, रथस्थ इव वाजिनौ ।। ६७८ ॥ 20 सूक्ष्मेण काययोगेन, काययोगं च वादरम् । ततो रुरोध भगवान् , दीपेन ध्वान्तपूरवत् ॥ ६७९ ॥
काययोगे स्थितः सूक्ष्मे, योगौ वाक्चित्तयोरपि । सूक्ष्मौ रुरोध भेजे च, ध्यानं सूक्ष्मक्रियं ततः ॥६८०॥ शुक्लध्याने चतुर्थे च, शैलेशीकरणं प्रभुः । पञ्चलघ्वक्षरोच्चारमात्रकालं समाश्रयत् ॥ ६८१ ॥ क्षीणावशिष्टकर्मा च, सिद्धानन्तचतुष्टयः । परमात्मा प्रभुः प्राप, लोकाग्रमृजुना पथा ॥ ६८२ ॥
___ अष्टादश पूर्वलक्षी, कौमारेऽगाजगत्पतेः । पूर्वलक्षास्त्रिपश्चाशद्, राज्ये पूर्वाङ्गसंयुताः ॥ ६८३ ॥ 25. व्रते छद्मस्थभावेऽगाद् , द्वादशाब्यथ केवले । पूर्वलक्षं द्वादशाब्द्या, पूर्वाङ्गेण च वर्जितम् ॥ ६८४ ॥
ततश्चर्षभनिर्वाणानिर्वाणमजितप्रभोः । पञ्चाशत्कोटिलक्षेषु, सागराणां गतेष्वभूत् ॥ ६८५॥ सहस्रं मुनयस्तेऽपि, पादपोपगमस्थिताः । उत्पन्नकेंवला रुद्धयोगास्तद्वद् ययुः शिवम् ॥ ६८६ ॥ तत्र कृत्वा समुद्धातं, सगरोऽपि महामुनिः । स्वामिप्राप्तं पदं प्रापाऽनुपदीव क्षणादपि ॥ ६८७ ॥
तदा च स्वामिनिर्वाणपर्वणा समजायत । अदृष्टशर्मणां शर्म, नारकाणामपि क्षणम् ॥ ६८८ ॥ 30 अथाऽङ्गं स्वामिनः शक्रो, दिव्यैरस्नपयजलैः । गोशीर्षचन्दनरसैः, सशोको विलिलेप च ॥ ६८९ ॥
खाम्यङ्गं वाँसयामास, वाससा हंसलक्ष्मणा । भूषयामास च हरिविचित्रैर्दिव्यभूषणैः ॥ ६९० ॥ मुनीनामपरेषां तु, शरीरेषु दिवौकसः । स्नानाऽङ्गराग-नेपथ्या-ऽऽच्छादनानि वितेनिरे ॥ ६९१ ॥ आरोग्य दिव्यशिविकां, स्वामिदेहं पुरन्दरः । गोशीर्षचन्दनमयीमानैपीदुचितां चिताम् ॥ ६९२ ॥ आरोग्य शिविकामन्यमुन्यङ्गान्यपरे पुनः । गोशीर्षकाष्ठरचितां, चितां निन्युर्दिवौकसः ॥ ६९३ ॥
न अहङ्कारं चकार । २ मुनिषु। ३ एकपूर्वाङ्गोने इत्यर्थः। ४ शिष्याः। ५ अनुगामीव। ६सुखम् । ७ आच्छादयामास ।
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षष्ठः सर्गः]
त्रिषष्टिसलाकापुरुषचरितम् । चितान्तश्चक्रिरे देवा, अग्निमग्निकुमारकाः। झगित्यज्वालयंस्ते च, देवा वायुकुमारकाः ॥ ६९४ ॥ शक्रादेशेन कर्पूर-कस्तूरी रशोऽमराः । सर्पिष्कुम्भांश्च शतशश्चितान्तः परिचिक्षिपुः ॥ ६९५ ॥ विमुच्याऽस्थीनि दग्धेषु, स्वामिनोऽन्येषु धातुषु । व्यध्यापयश्चितावति, देवा मेघकुमारकाः ॥६९६ ॥ शक्रेशानौ खामिदंष्ट्र, दक्षिण-दक्षिणेतरे । ऊर्द्धस्थे चमर-बली, त्वगृह्णीतामधःस्थिते ॥ ६९७ ॥ अपरानपरे विन्द्रा, दशनान् जगृहुः प्रभोः । विभज्य भक्तितस्त्वन्ये, कीकसानि दिवौकसः ॥ ६९८ ॥ 5
यत् किञ्चिदन्यदपि तत्र विधेयमासीत्, सर्व विधाय विधिवद् विबुधाधिपास्तत् । नन्दीश्वरं समधिगम्य च शाश्वतार्हदष्टाह्निकां विदधिरे महतोत्सवेन ॥ ६९९ ॥ जग्मुस्ततो निजनिजं सदनं सुरेन्द्रा, मध्येसुधर्ममथ माणवकाभिधेषु ।। स्तम्भेषु वज्रमयवृत्तसमुद्रकान्तर्विन्यस्य ताश्च दधिरे जिननाथदंष्ट्राः ॥ ७००॥ ताः पूजयन्ति सततं वरगन्धधूपैर्माल्यैश्च शाश्वतजिनप्रतिमावदिन्द्राः । अव्याहतं तदनुभाववशेन तेषां, सञ्जायते विजयमङ्गलमद्वितीयम् ॥ ७०१॥ सगरनृपचरित्रेणान्तरस्थेन कामं, सर इव रसपूर्ण पद्मखण्डेन हृद्यम् । चरितमजितनाथस्यैहिकामुष्मिकाणि, प्रवितरतु सुखानि श्रोत्सामाजिकानाम् ॥ ७०२ ॥
10
॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये द्वितीये पर्वणि अजितखामि-सगरदीक्षा-निर्वाणवर्णनो
नाम षष्ठः सर्गः ॥
15
॥ समाप्तं चेदमजितस्वामि-सगरचक्रवर्तिप्रतिबद्धं द्वितीयं पर्वेति ।।
घृतकुम्भान्। २त्वचादिषु। ३ निरवापयन् । ४ अस्थीनि। ५करणीयम् । ६ वज्रनिर्मितवृत्ताकारमअषायाम्।
त्रिषष्टि.३३
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॥ अहम् ।। नमः श्रीधर्मकथानुयोगव्याख्याभ्यः विदेभ्यः ।
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविनिर्मितं
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
श्रीसम्भवजिनादिशीतलजिनपर्यन्तजिनाष्टकचरितप्रतिबद्ध तृतीयं पर्व ।
प्रथमः सर्गः। श्रीसम्भवजिनचरित्रम्।
त्रैलोक्यप्रभवे पुण्यसम्भवाय भवच्छिदं । श्रीसम्भवजिनेन्द्राय मनोभवभिदे नमः ॥१॥ धात्रीपवित्रीकरणं लैवित्रं कर्मवीरुधाम् । चरित्रमथ वक्ष्यामि श्रीसम्भवजिनेशितुः ॥२॥
घातकीखण्डद्वीपस्य क्षेत्र ऐरावताभिधे । पुरी क्षेमपुरी नामा क्षेमधामाऽस्ति विश्रुतो ॥३॥ वस्थामासीत् समायात इवोव्यां मेषवाहनः । महीपतिर्विपुलधीर्नाम्ना विपुलवाहनः ॥ ४॥ आरामिक इवाऽऽराममविराममसौ प्रजाः । विधिवत् पालयामास च्छिन्दन शल्यानि सर्वतः ॥५॥ प्रीणयन्ती जनपदान् परितः पथिकानिव । नीतिकल्लोलिनी तस्स प्रससार निरन्तरम् ॥ ६॥ अपराधं परस्येव स्वस्यापि न्यायतत्परः । असह्यशासनधरः स न सेहे मनागपि ॥ ७॥ उपायं प्रायुक्त तुर्य दोषमानेन दोषिषु । सोऽगदं गदमानेनाऽऽतुरेष्विव चिकित्सकः ॥८॥ गुणानुरूपमकरोदर्चना गुणिनामसौ । विवेकिनां विवेकस्य फलं यौचित्यवर्तनम् ॥९॥ मदस्थानानि तस्याऽऽसन् न मदायाऽन्यलोकवत् । नदीवन्न नदीभर्तुरुत्सकीय धनागमः ॥१०॥ 10 तस्य चिचे चैत्य इव सर्वज्ञो देवता सदा । वाचि जैनागम इव सर्वज्ञगुणशंसनम् ॥११॥ देवाय तीर्थनाथाय गुरवे च सुसाघवे । स शिरोऽनमयत् पृथव्यां सर्वोऽप्यन्यस्तमानमत् ॥ १२ ॥ जनार्त-रौद्रध्यानेन खाध्यायेन जिनार्चया । उपाददे स परमं मनो-चार-वपुषां फलम् ॥ १३ ॥
मदनविनाशकाय । २ पृथ्वी।छेदकम् । ४ कर्मळतानाम् ।* °मकरीना संवृ०॥५प्रसिद्धा।इन्द्रः। सानि। नही। रमजाका . तुर्य उपायो दण्डः। "अपराधमनुसारेण। १२ यथा वैद्यः रोयिषु रोगानुसारेण औषध प्रयो। + पर्तिवाम
गर्वाय वृद्धये १४ प्रशंसा । १५मानन्द्राल्याशुभध्यानयुगलबर्जितेन, धर्म-अध्यानसहितेने. अर्थः। सूत्रातदुभयवाचना-प्रणमादिरूपेण । १७ लेमे ।
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२५६
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्य प्रणीतं
१४ ॥
तस्मिन् श्रावकधर्मोऽभूत् स द्वादशविधोऽपि हि । अनारतमपि स्थेयान् नीलीराग इवांशुंके ॥ राजच जागरूको यथा द्वादशधा स्थिते । तथा श्रावकधर्मेऽपि स बभूव महामनाः ।। १५ ।। धर्म प्ररोहबीजानि द्रविणानि यथोचितम् । सप्तक्षेत्र्यां पवित्रात्मा निरन्तरमुवाप सः ॥ १६ ॥ दीना नाथैकशरणादेक कारुणिक्रात् ततः । न रिक्को निर्ययार्वर्थी समुद्रादिव वारिदः ॥ १७ ॥ 5 याचकेषु ववर्षाऽर्थं स पर्जन्य इघोदकम् । केवलं निरहङ्कारो न जगर्ज मनागपि ॥ १८ ॥ कण्टकोच्छेदपरशौ त्यागकल्प महीरुहे । नाभवद् दुःस्थितः कोऽपि तस्मिन् शासति मेदिनीम् ॥ १९ ॥ तस्मिन्नपि महीनाथे कदाचिदथ भीषणम् ! महादुर्भिक्षेमभवद् दुर्लङ्घा भवितव्यता ॥ २० ॥ अन्धकारीकृतदिशामम्भोदानामभावतः । वर्षाकालः समजनि, रौद्रो ग्रीष्म इवाऽपरः ॥ २१ ॥ शोषयन्तोऽशेषतो यान्यंहिपोन्मूलनोन्मदाः । कल्पान्तानिलसोदर्या नैर्ऋता वायवो ववुः ॥ २२ ॥ 10 मेघा बभ्रुवुर्नभसि काकोदरसहोदराः । कांस्यतालसमान श्रीरदृश्यत दिवाकरः ॥ २३ ॥
20
धान्याभावादजायन्त पौर- जनपदा जनाः । तापसा इव वृक्षत्वक् कन्द-मूल-फलाशिनः ॥ २४ ॥ कथञ्चिदपि लब्धेन ग्रॉंसेन महताऽपि हि । न तृप्यन्ति स्म सञ्जातभस्मका इव मानवाः ।। २५ ।। भिक्षैया लज्जमानः सन् भिक्षाग्रहणहेतवे । बभूव लोकः प्रायेण मायातापसवेषभृत् ॥ २६ ॥ पितरो मातरः पुत्रा मिथस्त्यक्त्वाऽनायया । अन्यतश्चाऽन्यतश्चाऽयुर्दिक्सम्मोहवशादिव ॥ २७ ॥ 15 अपि सम्पश्यमानस्य क्रन्दतोऽतिबुभुक्षया । लब्धं कथञ्चिदन्नादि पुत्रस्य न ददौ पिता ॥ २८ ॥ विक्रीणीते स्म चणकप्रसृत्या निजबालकम् । माता भ्रमन्ती रथ्यासु शूर्पादि श्रपची यथा ॥ २९ ॥ प्रातरीर्श्वरहर्म्याणां पतितानङ्गणे कणान् । वैरीकाश्चिक्यिरे रङ्का गृहपारापता इव ॥ ३० ॥ अपि कान्दविकादीनामापणेषु मुहुर्मुहुः । लब्ध्वा च्छलं श्वान इव भोज्यमाचिच्छिदुर्जनाः ॥ ३१ ॥ अप्यहः सकलं भ्रान्त्वा कथञ्चिदहरत्यैये । ग्रासमात्रमपि प्राप्य सुदिनं मेनिरे नराः || ३२ || रङ्कः कॅरङ्कसङ्काशैर्लुठितैरतिभीषणैः । श्मशानादत्यरिच्यन्त पुरराजपथा अपि ।। ३३ ।। रलैरोलैरविरलैः प्रसरद्भिः पदे पदे । अदूयन्त सतां कर्णाः क्षिप्ताभिरिव सूचिभिः ॥ ३४ ॥
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[
तृतीयं पर्व
कल्पान्तकल्पे दुष्काले तस्मिन् सङ्कं चतुर्विधम् । क्षीयमाणं नृपः प्रेक्ष्य, दध्याविति महामनाः ॥ ३५ ॥ इयं खलु धरित्री मे त्रातव्या सकलाऽपि हि । किं करोमि परं ? पापः कालोऽयं नाऽस्त्रगोचैरः ||३६|| तथाप्यवश्यं त्रातव्यः सङ्घोऽयमखिलोऽपि हि । पौत्रोपकारे प्रथमं महतां यदुपक्रमः ॥ ३७ ॥ चिन्तयित्वैवमुर्वाशैः सूदौनिति समादिशत् । सङ्घभुक्तावशेषं भो ! भोक्ष्येऽहं खल्वतः परम् ॥ ३८ ॥ मत्कृते कृतमन्नादि दातव्यं त्रैतिनामतः । श्रावका भोजयितव्याः पृथक् सिद्धौदनेनं तु ॥ ३९ ॥ तथेति प्रतिपद्याऽऽज्ञां राज्ञस्ते सूदपुङ्गवाः । तथैव विदधुर्नित्यं स्वयं चैक्षिष्ट पार्थिवः ॥ ४० ॥ नासिकापेयसौरभ्याः कलमाः कॅमला इव । स्थूला माषकणेभ्योऽपि मुद्रा रससमुद्रकाः ॥ ४१ ॥
१ अत्यन्तं स्थिरः । २ वस्त्रे । ३ जागरणशीलः । ४ धर्माङ्कुरस्य बीजानि हेतव इत्यर्थः । ५ द्रव्याणि । ६ जिनचैत्यं जिन प्रतिमा पुस्तकं साधुः साध्वी श्रावकः श्राविका चेति सप्तक्षेत्री । ७ शून्यहस्तः । ८ अर्थी - याचकः । ९ मेघः । १० अस्पमपि । ११ दानकल्पवृक्षे । १२ दुष्कालः । १३ वृक्षोन्मूलनोन्मत्ताः । १४ काकोदरसर्पसमानाः श्वेता इत्यर्थः । १५ कांस्य पृष्ठसमानकान्तिः पीत इत्यर्थः । १६ नगरवासिनो देशवासिनश्च । १७ कवलेन । १८ जात भस्मकाभिधानरोगा इव । * भिक्षाया संवृ० ॥ १९ कृत्रिमतापसवेषधरः । २० बुभुक्षया । २१ जग्मुः | २२ चणकाद्धाञ्जलिना । २३ चाण्डाली । २४ धनाढ्य गृहाणाम् । २५ दीनाः । २६ ६हेषु । २७ दिनान्ते । २८.अस्थिपञ्जरसदृशैः । २९ प्रकृष्टरुदितकोलाहलैः, 'रडारोल' इति भाषायाम् । ३० कल्पान्तसदृशे । ३१ अस्त्रघात्यः । ३२ गुणवदुपकारे । ३३ प्रारम्भः । ३४ राजा । ३५ पाचकान् । ३६ मुनीनाम् । न च संवृ० ॥ ३७ पुं-नपुंसकोऽयं शब्दः । ३८ समुङ्गकः सम्पुटः 'ढबो' इति भाषायां प्रसिद्धः ।
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प्रथमः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
२५७
घृतोदस्य पयांसीव प्रचुराणि घृतानि च । सुधाया इव मित्राणि चित्राणि व्यञ्जनानि च ॥ ४२ ॥ मण्डकोः खण्डसम्मिना मोदकाच प्रमोदकाः । खाानि स्वादहृद्यानि मण्डिकाः खण्डमण्डिताः॥४३॥ सुकुमारा मर्मराला वटकाचाऽतिपेशलाः । तीमँनं च मनोहारि पिच्छिलानि दधीनि च ॥४४॥ दुग्धानि क्वार्थसिद्धानि मार्जिता क्षुत्प्रमार्जनी । राजभोजनवत् तंत्राऽभवन् श्रावकभोजने ॥४५॥
पञ्चभिः कुलकम् ॥ 5 एषणीय-कल्पनीय-प्रासुकानि पुनः स्वयम् । महामुनीनां स ददौ महाराजो महामनाः ॥ ४६॥ दुर्भिक्षकालं सकलमेवं स वसुधाधवः । ददौ सकलसङ्घाय भोजनादि यथाविधि ॥४७॥ वैयावृत्यं समाधिं च सर्वसङ्घस्य कुर्वता । अर्जितं तीर्थकुनाम कर्म तेन महीभुजा ॥४८॥
निषण्णश्चन्द्रशालान्तरपरेवुः स उद्यतम् । नभस्यपश्यदम्भोदमातपत्रमिवाऽवनेः ॥४९॥ नीलीरक्तांशुकमयः स व्योम्न इव कञ्चकः । तडिल्लतामण्डनभृत् समन्ताद् व्यानशे दिशः॥५०॥ 10 अत्रान्तरे समुत्तस्थावामूलान्दोलितद्रुमः । पातालकुम्भसर्वखमिवोचण्डः समीरणः ॥५१॥ वातेन तेन महता स महानपि वारिदः । अबैतूलमिवोद्भूय दिशोदिशमनीयत ॥ ५२॥ आविर्भूतं क्षणान्मेधं विनष्टं च क्षणादपि । तं प्रेक्ष्य स क्षमानाथः सुधीरेवमचिन्तयत् ॥ ५३ ॥ असौ सम्पश्यमानानां दृष्टनष्टो यथाऽम्बुदः । ज्ञातं तथाऽन्यदपि हि संसारे सर्वमीदृशम् ॥ ५४॥ __ तथाहि खेच्छया जल्पन गायन् नृत्यन् हसनथ । दीव्यन् विचित्रान् द्रविणार्जनोपायान् विचिन्तयन् ॥ 15 गच्छंस्तिष्ठन् शयानो वाऽधिरूढो वाहनेऽपि वा । कुप्यन् वा विलसन् वाऽपि गृहे वा बहिरेव वा ॥५६॥ कालादिष्टेन सद्योऽपि दन्दर्शकेन दश्यते । विद्युद्दण्डेन चण्डेन विनिपत्य निपात्यते ॥ ५७ ॥ मतगजेन मत्तेन पिष्यते वा रदौदिभिः । जीर्णवप्रादिभित्त्या वा विनिपत्य पिधीयते ॥ ५८ ॥ व्याघेण भक्ष्यते वाऽपि बुभुक्षाक्षामकुक्षिणा । दोषेण वैक्रियेणाऽथ दुश्चिकित्सेन गृह्यते ॥ ५९॥ अकस्मादुन्मदेनाऽथ पात्यते तुरगादिना । वैरि-चौरादिना वाऽपि हन्यते क्षुरिकादिना ॥ ६०॥ 20 दह्यते वा प्रदीप्तेन प्रदीपनकवह्निना । कृष्यते वा महावृष्टिसरित्पूरादिरंहसा ॥ ६१॥ बलवद्वातदोषेण सर्वाङ्गं भज्यतेऽथवा । आश्लिष्यते श्लेष्मणा वा शान्ताशेषतनूष्मणा ॥ ६२ ॥ यदि वा पित्तदोषेण प्रबलेन विलुप्यते । सद्यस्कसन्निपातेन यदि वा परिभूयते ॥ ६३ ॥ लूतया भक्ष्यते वाऽथ प्राप्यते रोंजयक्ष्मणा । विसूचिकोपद्रवेण यदि वापि कदर्थ्यते ॥ ६४ ॥ आसाद्यते दुरन्तेनाऽर्बुदोख्येन व्रणेन वा । मोह्यते वा प्रवाहेण ग्रहेण्या गृह्यतेऽथवा ॥६५॥ रुध्यते वाऽपि विद्ध्या कोसेन क्लिश्यतेऽथवा । श्वासेन पूर्यते वापि शूलेनोन्मूल्यतेऽथवा ॥ ६६ ॥ सदा सन्निहितैर्दोषैरित्यादिभिरनेकशः । दूतैरिव कृतान्तस्य जन्तुः पञ्चत्वमाप्यते ॥ ६७ ॥
॥ त्रयोदशभिः कुलकम् ॥ तथापि शाश्वतम्मन्यः पशुवन्मन्दधीर्जनः । प्रवर्त्तते न ग्रहीतुं जीवितव्यतरोः फलम् ॥ ६८ ॥ हा! दुःस्थिता भ्रातरो मे बाला मेऽद्यापि सूनवः । अनूढा कन्यका चेयं पाठ्यश्चायं कुमारकः॥ ६९॥ 30
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१ तमाम्नः समुद्रस्य । २ शाकानि। ३ भक्ष्यविशेषा भाषायां "मांडा" । ४ भक्ष्यविशेषा भाषायां "खाजा"। ५ मर्मरशन्दवन्तः। ६ 'वडा' इति भाषायां प्रसिद्धिः। क्वथिका 'कढी' इति भाषायाम् । * पिच्छला संवृ० मो०॥८चिकणानि ।
+ °थशुद्धा संवृ. संल. मो० ॥ ९ रसाला 'श्रीखंड' इति भाषायां प्रसिद्धिः। तत्र जाता श्राव सझा मो.॥ त्रिभिर्विशेषकम् सङ्घ. मो० ॥ १. निर्दोष साधुयोग्यमचित्तं च । ११ प्रासादतलं 'अगासी' इति लोके ख्यातम् । १२ अकम् । १३ छत्रम् । १४ प्रचण्डः। १५ वायुः।१६ सण । १७ दन्तादिभिः । कापि संवृ० संल.॥१८ मत्तेन । १९ एते रोगविशेषाः। २० मृत्युः। सङ्घ प्रवाषेवेदं दृश्यते ॥ २१ अविवाहिता।
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२५८ कलिकालसर्वश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[स्तीयं पर्व नवोदैव हि भार्येयं वृद्धौ च पितराविमौ । दुःस्थितौ श्वशुरौ चैतौ विधका भगिनी त्वियम् ॥ ७॥ इत्यजस्रं जनं पाल्यं विचिन्तयति मुग्धधीः । हृदि बद्धशिलाकल्पं न तु वेत्ति भवार्णवे ॥ ७१ ॥ न तृप्तोऽद्यापि दयितावपुराश्लेषशर्मणः । न धातः पयसश्चापि माल्येच्छा न ह्यपूर्यत ॥ ७२ ॥ न चाऽपूरि मनोहारिपदार्थक्षामनोरथः । वीणा-वेण्वादिगीतानां न प्रीतोऽसि मनागपि ॥ ७३ ।। अद्यापि च कुटुम्बाय भाण्डागारं न पूरितम् । नवीकृतं समुद्धृत्य जीर्णमेतन्न मन्दिरम् ॥ ७४ ॥ गमितेषु परां शिक्षा नाऽऽरूढोऽस्म्येषु वाजिषु । नोक्षाणो वाहिताश्चाऽमी सुखदाः स्यन्दनोत्तमैः ॥ ७५ ।। करोतीत्यन्तकालेऽपि पश्चात्तापं जडो जनः । धर्मश्चक्रे मया नेति नानूशेते मनागपि ॥ ७६ ॥
॥पञ्चभिः कुलकम् ॥ इतः सदोद्यतो मृत्युरितो नानापमृत्यवः । व्याधयोऽवस्थिताश्चेत इतो बहव आधेयः ॥ ७७॥ 10 राग-द्वेषादयश्चेतो द्विषन्तो नित्यमुद्यताः । इतः कषायाः प्रबलाः खला इन विपत्प्रदाः॥ ७८॥
न किश्चन सुखायेह संसारे मरुदेशवत् । सुखवासेन तिष्ठामीत्याः! प्राणी न विरज्यति ॥ ७९ ॥ सुखाभासविमूढस्य प्रसुप्तस्येव सौप्तिकम् । कालपाशः पतत्याशु सद्यः प्राणापहारकृत् ॥ ८॥ तदमुष्य शरीरस्य नश्वरस्य यथा तथा । फलं हि धर्माचरणं सिद्धान्नस्येव भोजनम् ॥ ८१॥
नश्वरेण शरीरेणाऽविनश्वरपदार्जनम् । अहो! सुकरमप्येतद् विमूढः क्रियते न हि ॥ ८२॥ 15 वपुषा तदनेनाऽद्य केतुं निर्वाणसम्पदम् । भृशमेषोऽहमुत्थास्ये निधास्ये राज्यमात्मजे ॥ ८३ ॥
इति निश्चित्य रभसादाजूहवदिलाप॑तिः । द्वारपालेन विमलकीत कीर्तिप्रियं सुतम् ॥ ८४॥
प्रकृष्टदैवतस्येव भक्त्या परमया पितुः । पादौ नत्वा कुमारः स बद्धाञ्जलिरदोऽवदत् ॥ ८५ ॥ महताऽपि निदेशेन प्रसीदाऽनुगृहाण माम् । पुत्रभाण्डमसौ बाल इति शङ्कां च मा कृथाः ॥ ८६ ॥ प्रत्यर्थिनः पार्थिवस्य कस्याऽऽच्छिन्देऽद्य मेदिनीम् । सपर्वतं पर्वतीयं नृपं के साधयामि चैं? ॥ ८७ ॥ सजलं जलदुर्गस्थमन्तयामि रिपुं च कम्? । यो वः शैल्यायतेऽन्योऽपि तमप्याशूत्खनाम्यहम् ॥८८॥ बालोऽपि तव पुत्रोऽसि क्षमो दुःसाधसाधने । तातस्यैव प्रभावोऽयं न भटम्मन्यताऽत्र मे ॥ ८९॥
राजाऽपि व्याजहारैवं प्रत्यर्थी पार्थिवो न मे । पर्वतीयो न वा कोऽपि व्यतिक्रॉमति मद्वचः ॥९॥ न च द्वीपाधिपः कोऽपि ममाज्ञां व्यतिलचन्ते । यत्साधनाय वत्स! त्वां प्रहिणोमि महाभुज! ॥९१॥
एकः शल्यायते किन्तु भंववासो ममानिशम् । तदुद्धर कुलोत्स! धराभार धुरन्धरः ॥ ९२ ॥ 25 मयेव गृह्यतामेतत् त्वया राज्यं क्रमागतम् । आत्तदीक्षो यथाऽभीक्ष्णं भववासं त्यजाम्यहम् ॥ ९३ ॥
अलङ्घनीयां गुर्वाज्ञां स्वसन्धों चाऽधुना कृताम् । संसरन् वत्स! भक्त्याऽपि नाऽन्यथा कर्तुमर्हसि ॥ ९४॥
दध्याविति कुमारोऽपि तातेनाऽऽज्ञां प्रयच्छता। मत्सन्धां स्मारयता चहा! कृतोऽसि निरुत्तरः ॥९५॥ इत्यादि चिन्तयन् राजपुत्रो राज्ञा खपाणिना । आदाय राज्ये निदधे साभिषेकमहोत्सवम् ॥ ९६ ॥
राजाऽपि कृतदीक्षाभिषेको विमलकीर्तिना । शिविकाधिरूढश्चाऽगात् परि नाम्ना खयम्प्रभम् ॥९७॥ 30 तस चाऽऽचार्यवर्यस समीपे स नृपाग्रणीः । प्राबाजीत् सर्वसावधप्रत्याख्यानपुरःसरम् ।। ९८॥
साम्राज्यवन् परिव्रज्यामन्तरङ्गद्विषजयात् । स संयमरथारूढो विधिवत् पर्यपालयत् ॥ ९९ ॥ विशतेः स्थानकानां च स्थानकैरपरैरपि । स पुपोष निजं कर्म तीर्थकुनामनामकम् ॥१०० ॥ उपसगैरनुद्विनो मोदमानः परीपहैः । स आयुःक्षपयामास स्वयाममिव यामिकः ॥१०१॥
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१ सततम् । २ वृपमाः। ३ वेगवन्तः। ४ नानुतप्यते । ५ मानसिक्यः पीडाः । ६ रात्रियुद्धम् । ७ मोक्षपदोपार्जनम् । राजा । ९ शत्रोः। १. गिरिवासिनम् । *वा संवृ० संल. सङ्घ ॥ नाशयामि । १२ शल्यवदाचरति । १३ उवाच । "उछाते। १५ गृहवास इत्यर्थः । १६ गृहीतवीक्षः । १. आत्मीयप्रतिज्ञाम् ।
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प्रथमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
२५९ विहितानशनो मृत्वा कल्पं स प्रापदानतम् । निर्वाणफलँदायिन्या दीक्षायाः स्तोकमीदृशम् ॥ १०२॥
इतच जम्बूद्वीपेऽपाग्भरतार्धस्य भूषणम् । श्रावस्तीत्यस्ति विस्तीर्णा नगरी श्रीगरीयसी ॥१०३॥ बभूव तस्यामिक्ष्वाकुकुलक्षीरोदचन्द्रमाः । जितारिरित्यरिजयाद् यथार्थाख्यः क्षमापतिः॥ १०४ ॥ मृगेष्विव मृगेन्द्रस्य पक्षीन्द्रस्येव पक्षिषु । न समो नाऽधिको वाऽपि तस्याऽभूत् कोपि राजसु ॥१०५॥ स रेजे राजभी राजा पचीकृत्य प्रवेशितैः । ग्रहैरिव ग्रहपतिमण्डलान्तःप्रवेशिभिः ॥१०६॥ 5 नाऽयम्यं किश्चिदप्यूचे नाऽऽचचार च तादृशम् । नाऽचिन्तयच्च तादृक्षं स धर्म इव मूर्तिमान् ॥१०७॥ विनेतरि दुराचारानर्थिभ्योऽर्थाश्च दातरि । अधार्मिको दुःस्थितो वा तस्मिन् राझि न कोऽप्यभूत् ॥१०८॥ सोऽसपाणिः कृपालुश्च शक्तिमांश्च क्षमापरः । विद्वांश्च गतमात्सर्यो युवा चाऽऽसीजितेन्द्रियः ॥१०९॥ बभूव महिषी तस्साऽनुरूपा रूपसम्पदा । सेनानीर्गुणसैन्यानां सेनादेवीति नामतः ॥ ११० ॥ अषाधमान इतरान् पुरुषार्थान् यथाक्षणम् । अरस्त स तया देव्या रोहिण्येव हिमद्युतिः ॥ १११॥ 10
इतश्च नवमे कल्पे खमायुः पर्यपूरयत् । जीवस्तदानीं विपुलवाहनस्य महीपतेः ॥ ११२ ॥ फाल्गुनस सिताष्टम्यां चन्द्रे मृगशिरःस्थिते । आनतात् स परिच्युत्य सेनाकुक्षाववातरत् ॥ ११३॥ क्षणं सुखं तदा जज्ञे नारकप्राणिनामपि । लोकत्रयेऽपि चोयोतो विद्युदुझ्योतसोदरः ॥ ११४ ॥ शयानया रात्रिशेषे प्रविशन्तो मुखाम्बुजे । सेनादेव्या ददृशिरे महाखमाश्चतुर्दश ॥ ११५ ॥ गर्जन् गजपतिौरः शरन्मेघ इवोच्चकैः । वृषः स्फटिकशैलस्य गण्डशैल इवाऽमलः ॥ ११६ ॥ केसरी केसरमरेणाऽतिकुङ्कुमकेसरः । क्रियमाणाभिषेका च करिभ्यां कमलालया ॥ ११७ ॥ पञ्चवर्णप्रनसक् सन्ध्यानच्छवितस्करा । राजतो दर्पण इव सम्पूर्णो रजनीकरः ॥ ११८ ॥ विमंत्रितान्धकारं च चण्डदीधितिमण्डलम् । प्रकणत्किङ्किणीजालपताकश्च महाध्वजः ॥ ११९ ॥ तोपनीयः पयस्कम्मः पयोजपिहिताननः । विकासिभिः सयमानमिव पबैर्महासरः॥ १२०॥ उद्वीचिहस्तकैर्नृत्यग्निव क्षीरमहोदधिः । अदृष्टप्रतिमानं च विमानं रत्ननिर्मितम् ॥ १२१ ॥ रत्नपुञ्जो मणिगणः पातालफणिनामिव । विभावसुश्च निधूमः |त्यूषसपनोपमः ॥ १२२ ॥ देवी प्रबुद्धा तान् स्वमान् नृपायाख्यपोऽपि च । व्याख्यात् त्रैलोक्यवन्यस्ते नूनं सनुर्भविष्यति ॥१२३ ॥
इन्द्राधासनकम्पेन विज्ञायोपेत्य तत्र च । सेनादेवीं नमस्कृत्य स्वमार्थ व्याचचक्षिरे ॥ १२४ ॥ एतस्यामवसर्पिण्या तृतीयस्तीर्थनायकः । भविष्यति जगत्स्वामी तव स्वामिनि! नन्दनः ॥ १२५ ॥ तेन खमविचारेण स्तनितेनेव केकिनी । मुदिता तं निशाशेषं देव्यनैषीत् प्रजाग्रती ॥ १२६ ॥ 25 वजं वाकरोबीष कशानुमिव चारणिः । महासारं पवित्रं च गर्भ देवी बमार तम् ॥ १२७॥ देव्याः स उदरे गर्मो निगूढं ववृधे ततः । गङ्गाया इव पानीये तपनीयपयोरुहम् ॥ १२८ ॥ तदाऽभूतां दृशौ देव्याः सविकाशे विशेषतः । सरस्सा हि सरोजानि विशिष्यन्ते शरत्क्षणे ॥ १२९ ॥ लावण्यमङ्गे कुचयोः पीनत्वं मन्दता गतौ । देव्याः प्रतिदिनं गर्भानुभावादत्यरिच्यत ॥१३०॥ फाल्गुनय सिताष्टम्यां धौरिवाम्भोदलक्षणम् । गर्भ तं बिभ्रती साऽभूजगतोऽपि मुदे तदा ॥ १३१ ॥ 30 ततो नवसु मासेषु दिनपर्धाष्टमेषु च । मार्गशुक्लचतुर्दश्यां चन्द्रे मृगशिर स्थिते ॥ १३२ ॥
"भूताया दी संव. मो०॥१दक्षिणभरतार्धस । २ चन्द्रः। ३ धर्मादनपेतं धर्म्यम् न तथा अधर्म्यम् । चन्द्रः । विरेण्यमा स्थलोपका।६ लक्ष्मीः। ७ पुष्पमाला। ८ सन्ध्यासमयाभ्रकान्तिलुण्टाका । ९ चन्द्रः । १० कृतान्धक
ममलम् । सौवर्णः। नीयप संवृ० संल.॥१३ अग्निः। १४ प्रातःकालीनसूर्यसमानः। १५प्तमानि कालविशेषे। १६मारी। हीरकखलिः । १४ गुप्तं यथा स्यात् तथा। १९ रक्तकमलम् । २० ववृधे। 1 सङ्घसं० विनाऽन्यत्र-माघस्य सितसप्तम्यां संदू.ल. मो.॥
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीत
[ तृतीयं पर्व जरायु-रक्तप्रभृतिवर्जितं वाजिलाञ्छनम् । प्राचीवाऽकं स्वर्णवर्ण सुखं सा सुषुवे सुतम् ॥ १३३ ॥
ध्वान्तध्वंसकृदुझ्योतस्त्रैलोक्येऽपि तदा क्षणम् । क्षणं च सौख्यं सञ्जज्ञे नारकप्राणिनामपि ॥ १३४॥ ग्रहाः स्त्रोचं ययुः स्थानं प्रसेदुः सकला दिशः । ववौ वायुः सुखं लोकश्चिक्रीड निखिलस्तदा ॥ १३५ ॥ गन्धाम्बुवृष्टिरभवद् दिवि दध्वान दुन्दुभिः । रजोऽपनिन्ये पवनो मही चोच्छवासमासदत् ॥ १३६ ॥ अथाऽधोलोकतो भोगङ्कराद्या दिक्कुमारिकाः । अष्टैयुः स्वामिसदनमर्हजन्मविदोऽवधेः ॥ १३७ ॥ तास्त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य जिनं तज्जननीमथ । नत्वा खं ज्ञापयामासुर्मा भैषीर्वार्दपूर्वकम् ॥ १३८ ॥ दिश्यैशान्यां स्थिताः कृत्वा समुद्धातं च वैक्रियम् । जहुः संवर्तवातेनाऽऽयोजनं कण्टकादि च ॥१३९॥ भगवन्तं ततो नत्वा तदासन्ने निषद्य च । गायन्त्यस्तदणांस्तस्थर्गोत्रस्त्रिय इवोच्चकैः॥ १४०॥
अथोड़लोकतो मेघडराद्या दिवमारिकाः । अष्ट्रयस्तद्वदानेमः स्वामिनं स्वामिमातरम ॥१४१॥ 10 विकृत्याऽभ्राणि तद्वेश्मपार्श्वतो योजनावधि । रजांसि शमयामासुस्ता गन्धोदकवृष्टिभिः ॥ १४२ ॥
जानुनी पञ्चवर्णपुष्पवृष्टिं विधाय ताः । नत्वा जिनं जिनगुणान् गायन्त्योऽस्थुर्यथोचितम् ॥१४३॥ दिक्कुमार्यः प्राग्रुचकादष्ट नन्दोत्तरादयः । एत्य नत्वा तथैवाऽस्थुर्गायन्त्यो धृतदर्पणाः॥ १४४ ॥ दिक्कमार्योऽपानचकात समहारादयोऽष्ट च । एत्य नत्वा दक्षिणेऽस्थः सभृङ्गाराग्रपाणयः॥१४५॥
प्रत्यग्रुचकतोऽष्टैयुर्दिकुमार्य इलादयः । नत्वाऽस्थुर्व्यजंनभृतो गायन्त्यः पश्चिमेन तु ॥ १४६ ॥ 15 अष्टोदग्रुचकादेयुर्देव्यश्चाऽलम्बुसादयः । नत्वा चोत्तरतस्तस्थुर्गायन्त्यो धृतचामराः॥ १४७ ॥
एयुश्चतस्रश्चित्राद्या विदिग्रुचकतोऽप्यथ । नत्वा विदिक्षु तस्थुश्च गायन्त्यो दीपपाणयः॥ १४८ ॥ एयुश्चतस्रो रूपाद्या देव्यो रुचकमध्यतः । चतुरङ्गलवर्ज ता नालं निचकृतुः प्रभोः ॥ १४९ ॥ ताः कृत्वा विदर भूमौ न्यधुर्नालं निधानवत् । वढ रनैश्च सम्पूर्य दुर्वया पीठिका व्यधुः ॥१५० ॥
प्रत्यग्वज प्रतिदिशं जिनजन्मगृहस्य ताः। विचक्रुः कदलिगृहं चतुःशालसमन्वितम् ॥ १५१॥ 20 पाणिभ्यां जिनमादाय जिनाम्बां दत्तबाहवः । अंपारम्भाचतुःशाले नीत्वा सिंहासने व्यधुः ॥ १५२ ॥
उभावभ्यज्य तैलेन लक्षपाकेण तास्ततः । सुगन्धिनोद्वर्तनेनोद्वर्तयामासुराशुं च ॥ १५३ ॥ नीत्वोभौ प्राक्चतुःशाले न्यस्य सिंहासने च ताः । गन्धोदकैरस्नपयन् देवदूष्येण चाऽमृजन् ॥१५४॥ गोशीर्षण व्यलिम्पंश्च देवदृष्यांशुकान्यथ । भूषणानि च दिव्यानि ता द्वाभ्यां पर्यधापयन् ॥ १५५ ॥
उदगम्भाचतुःशाले जिनं तजननीं च ताः। नीत्वोपवेशयामाम् रत्नसिंहासनोपरि ॥१५६ ॥ ___ अर्थाभियोग्यैरानाय्य भूरि गोशीर्षचन्दनम् । समिन्धीकृत्य जुहुवुर्वतावरणिनिर्मिते ॥१५७ ॥
स्वामिनः स्वामिमातुश्च रक्षापोटॅलिकामथ । तद्वहिभसना कृत्वा बबन्धुस्ता यथाविधि ॥ १५८॥ पर्वतायुर्भवेत्युच्चैरुचारितगिरोऽथ ताः । कर्णाभ्यणे भगवतो ग्रांवगोलावताडयन् ॥ १५९ ॥ शय्याजुषं सूतिगृहेऽहेन्तं तन्मातरं च ताः । कृत्वाऽवतस्थिरे तारं गायन्त्यो मङ्गलान्यथ ॥ १६०॥
__ खामिपादाम्बुजाभ्यणे यियासूनीव सर्वतः । तदा च पुरुहूतानामासनानि चकम्पिरे ॥ १६१ ॥ 30 जिनजन्मावधेत्विोत्थाय शक्रोऽपपादुकः । दत्त्वा पदानि सप्ताऽष्टान्यवन्दत जिनेश्वरम् ॥ १६२ ॥
घण्टानिर्घोष-सेनानीघोषणामिलितैः सुरैः । परिवत्रे सुरेन्द्रोऽथ जिनजन्मोत्सवोत्सुकैः ॥ १६३ ॥ आरुह्य पालकं शक्रः सामरः सपरिच्छेदः । मध्येनन्दीश्वरं गत्वा स्वामिवेश्माऽऽययौ ततः॥१६४ ॥
*°लाञ्छितम् संबृ०॥ अन्धकारनाशकः प्रकाशः। २ कथनपूर्वकम् । ३ योजनपर्यन्तम् । ४ जानुप्रमाणाम् । ५ ताल. वृन्तधराः। ६ चिच्छिदुः। ७ गतम् । ८ स्थापयामासुः । ९ दक्षिणकदलिगृहे । १० शीघ्रम् । ११ उत्तरदिस्थिते कदलीगृहे । १२ सेवकदेवैः। १३ ज्वालयित्वा । १४ भाषायां 'रक्षापोटली' । १५ पाषाणगोलको। १६ उधःस्वरम् । १७ इन्द्राणाम् । १८ पादुकारहितः। १९ एतमाम विमानम् । २० देवैः सहितः । २१ सपरिवारः ।
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प्रथमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
२६१ स प्रदक्षिणयामास स्वामिवेश्म विमानगः । मुक्त्वा विमानं चैशान्यां ततो हरिरवातरत् ॥ १६५ ॥ अथ तत् स्वामिनो वेश्म प्रविवेश पुरन्दरः । तमालोकनमात्रेऽपि प्रणनाम च भक्तितः ॥ १६६ ॥ स त्रिः प्रदक्षिणीचक्रे भगवन्तं समातरम् । पश्चाङ्गस्पृष्टभूपीठो भूयोऽपि प्रणनाम च ॥ १६७ ॥ अपखापनिकां दत्त्वा देव्याः पार्श्वे निधाय च । प्रतिच्छन्दं विभोः शक्रः पञ्चमूर्तिरभूत् स्वयम् ॥१६८॥ तत्र चेको दधौ नाथं शकछत्रमथाऽपरः । चामरे द्वावथैकोऽगाद् वज्रमुल्लालयन् पुरः॥१६९॥ 5 सुरैर्जयजयारावकारिभिः परिवारितः । गृहीत्वा स्वामिनं शक्रः क्षणान्मेरुशिरो ययौ ॥ १७० ॥
अतिपाण्डुकम्बलायां शिलायां तत्र वासवः । सिंहासने निषसाद कृत्वोत्सङ्गे जगद्गुरुम् ॥ १७१ ॥ __ तदैवाऽऽसनकम्पेनाऽवधिज्ञानमनाहतम् । प्रयुज्य तत्क्षणादेवाऽच्युतेन्द्रः प्राणतोऽपि च ॥१७२॥ सहस्रारो महाशुक्रो लान्तको ब्रह्मवासवः। माहेन्द्रःसनत्कुमार ईशानश्चमरो बलिः॥१७॥ धरणो भूतानन्दश्च हरिहरिसहस्तथा । वेणुदेवो वेणुदारी चाऽग्निशिखोऽग्निमाणवः ॥ १७४ ॥10 वेलम्बः प्रभञ्जनश्च सुघोषाभिध एव च । महाघोषो जलैंकान्ताभिधानोऽथ जलप्रभः॥१७५॥ अथ पूर्णोऽवैशिष्टश्वामितोऽथामितवाहनः। तथा काल-महाकालौ सुरूप-प्रतिरूपकौ ॥१७६॥ पूर्णभद्रस्तथा माणिभद्रो भीमाभिधोऽपि च । महाभीमः किन्नरश्च तथा किम्पुरुषाभिधः ॥१७७॥ सत्पुरुषाभिधानश्च महापुरुष एव च । अतिकाय-महाकायावपि गीतरतिस्तथा ॥ १७८ ॥ तथा गीतयशोनामा सन्निहितः समानकः।तथा धातृ-विधाताराषिश्व ऋषिपालकः॥१७९॥15 ईश्वरो महेश्वरश्च सुवैत्सक-विशालको । हास-हासरती श्वेतो महाश्वेतस्तथैव च ॥ १८० ॥ पर्वक-पवर्कपती सूर्याचन्द्रमसावपि । इन्द्रास्त्रिषष्टिरेतेऽपि सर्वा सपरिच्छदाः ॥१८१॥ जिनजन्माभिषेकाय मेरुपर्वतमूर्धनि । त्वरमाणाः संहाऽऽजग्मुः प्रतिवेश्मस्थिता इव ॥ १८२ ॥
॥एकादशभिः कुलकम् ॥ अच्युतेन्द्राज्ञया कुम्भांत्रिदशा आभियोगिकाः । हैमान रूप्यमयान् रामान हेमरूप्यमयानपि ॥१८३॥ 20 हेमरत्नमयांश्चैव रूप्यरत्नमयानपि । हेमरूप्यरत्नान् भौमान् सहस्रं साष्टकं पृथक् ॥ १८४ ॥ भडारान दर्पणांश्चापि सप्रतिष्ठान करण्डकान । स्थालानि पात्रीचड़ेरीविचक्रस्तावतीरपि॥१८५॥ क्षीरोदादिसमुद्रेभ्योऽन्यतीर्थेभ्योऽपि वारि ते । मत्स्नां पद्मादि चाऽऽनिन्युः शतमन्युमनोमुदे ॥१८॥ हिमाद्रेरोषधी द्रशालादेस्तुवरानपि । गन्धद्रव्यमन्यदपि तत्राऽऽनिन्युर्दिवौकसः ॥ १८७ ॥ गन्धद्रव्याणि सर्वाणि क्षिप्रं प्रक्षिप्य तानि ते । ततः सुरभयामासुस्तीर्थवारीणि भक्तितः ॥ १८८॥ 25 अच्युतः पारिजातादिकुसुमाञ्जलिपूर्वकम् । स्वामिनं स्वपयामास तैः कुम्भैरमरार्पितैः॥ १८९॥ चारुवाद्य-गीत-नृत्तप्रवृत्तमुदितामरम् । अजनि खामिनः स्नात्रमच्युतेन्द्रविनिर्मितम् ॥ १९० ॥ दिव्याङ्गराग-पूजादि भक्त्या जिनपतेय॑धात् । स औरणाऽच्युतपतिर्ववन्दे च यथाविधि ॥ १९१॥ इन्द्रा द्वापष्टिरन्येऽपि शक्रवर्ज तथा व्यधुः । जगत्पवित्रीकरणं स्नात्रं त्रिभुवनेशितुः ॥१९२ ॥ भृत्वाऽथ पश्चधेशान एकोऽङ्के नाथमग्रहीत् । अन्यश्छत्रं चामरे द्वावन्योऽग्रेऽस्थाच्च शक्रवत् ॥१९३॥ 30 शक्रः प्रभोश्चतसृषु दिसूक्ष्णः स्फाटिकानथ । उत्तुङ्गशृङ्गांधतुरो भक्त्येकचतुरोऽकरोत् ॥ १९४ ॥ तेषां ऋङ्गेभ्य उत्पेतुर्वारिधारा मनोरमाः । मूले भिन्नाः प्रान्ते मिश्राः पेतुश्च स्वामिमूर्धनि ॥१९५॥
जानुयुगं फरयुगं उत्तमाझं चेति पञ्चाङ्गम् । २ प्रतिबिम्बम् । ३ अप्रतिहतम् । * समाऽज° सह.॥ ४ भाषायां 'पडोश । सह. पुस्तकं विनाऽन्यत्र नास्ति ॥ ५ मृण्मयान् । ६ लघुपात्राणि । ७ पुष्पपात्राणि, भाषायाम् 'चङ्गेरी' ।
मृत्तिकाम् । ना-प° मो०॥९इन्द्रः। १० देवाः ११ अच्युतेन्द्रः। °वर्जास्तथा संवृ० ॥ १२ बलिवान् । १३ भक्त्यामेक एवं चतुरः।
त्रिषष्टि.३४
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ तृतीयं पर्व
अकरोदित्थमन्येन्द्रकृतस्नात्र विलक्षणम् । स्नात्रं सौधर्मकल्पेन्द्रो जिनेन्द्रस्यातिभक्तितः ॥ १९६ ॥ उक्ष्णस्तानुपसंहृत्य चर्चा-ऽर्चादि जगद्गुरोः । चक्रे शक्रः सप्रमोदं प्रणम्यैवमथाऽस्तवीत् ॥ १९७ ॥ नमो भगवते तुभ्यं विश्वनाथाय तायिने । तृतीयतीर्थनाथाय सनाथाय महर्द्धिभिः ॥ १९८ ॥ ज्ञानैस्त्रिभिश्चतुर्भिश्रातिशयैः सहजन्मभिः । जगद्विलक्षणोऽस्यष्टसहस्रस्फुटलक्षणः ॥ १९९ ॥ 5 सदैव हि प्रमत्तानां प्रमादच्छेदकारणम् । इदं त्वजन्मकल्याणं कल्याणायाऽद्य मादृशाम् ॥ २०० ॥ सकलाऽपि श्लाघनीया यामिनीयं जगत्पते ! । अकलङ्कतनुर्यस्यामुदगास्त्वं सुधाकरः ॥ २०१ ॥ अमर्त्यलोकवन्मर्त्यलोकोऽप्यस्त्वधुना प्रभो ! । देवैस्त्वद्वन्दनाहेतोरेहिरे या हिरापरैः ॥ २०२ ॥ देव ! त्वद्दर्शनसुधास्वादसन्तुष्टचेतसाम् । पर्याप्तं जीर्णसुधयाऽतः परेण सुँधान्धसाम् ॥ २०३ ॥ भगवन्! भरतक्षेत्रसरोवरसरोरुह ! | भूयान्मधुव्रतस्येव त्वयि मे परमो लयः ॥ २०४ ॥ मानवा अपि ते धन्या ये त्वां पश्यन्ति नित्यशः । त्वद्दर्शनोत्सवोऽधीश ! स्वाराज्य । दतिरिच्यते । २०५ ।
स्तुत्वैवं पञ्चधा भूत्वेशानात् खामिनमाददे । मूल्यैकया परीभिश्व प्राग्वत् कर्माणि सोऽकरोत् ॥ २०६॥ सेनादेव्याः क्षणात् पार्श्वे वस्त्रालङ्कारभूषितम् । मुमोच प्रभुमुलोऽवभाच्छ्रीदामगण्डकम् ॥ २०७ ॥ कुण्डले च दुकूले च प्रभोरुच्छीर्षकेऽमुचत् । तामपखापनी महत्प्रतिबिम्बं च सोऽहरत् ॥ २०८ ॥ trissfभयोगिकान् देवान् दिवस्पतिरघोषयत् । कल्पवासिषु देवेषु भवनाधिपतिष्वपि ॥ २०९ ॥ 15 व्यन्तरेषु ज्योतिष्केषु प्रभोर्देव्याश्च योऽशुभम् । चिन्तयिष्यति तन्मूर्धा सप्तधैव स्फुटिष्यति ॥२१०॥ युग्मम् सोऽथ सङ्क्रमयामासाङ्गुष्ठे भर्तुः सुधारसम् | अर्हन्तोऽस्तन्यपा यस्मात् क्षुधि स्वाङ्गुष्ठायिनः ॥ २११ ॥ सर्वाणि धात्रीकर्माणि सदा कारयितुं विभोः । समादिदेशाऽप्सरसः पञ्च धात्रीः सुरेश्वरः ।। २१२ ।। एवमासूत्र्य सूत्रामा नत्वाऽर्हन्तं ततो ययौ । मेरुतः पुनरन्येन्द्राः द्वीपं नन्दीश्वराभिधम् ॥ २१३ ॥ शाश्वतार्हत्प्रतिमानां तत्र चाऽष्टाह्निकोत्सवम् । कृत्वा निजनिजस्थानं ययुः सर्वे सुरासुराः ॥ २१४ ॥ प्रातर्जितारिणा राज्ञा पुत्रं भूयमुपेयुषः । अर्हतो जगदर्हस्य चक्रे जन्मोत्सवो महान् ॥ २१५ ॥ गृहे गृहे पथि पथि विपणौ विपणावपि । पुर्यां तत्रोत्सवो जज्ञे सर्वस्यां राजवेश्मवत् ॥ २१६ ॥ यद्गर्भस्थेऽत्र सम्भूतं धान्यं 'शं चाऽभवत्ततः । सम्भवः शम्भवश्चेति पिता नाम विभोर्व्यधात् ॥ २१७॥ मुहुर्मुहुरुदैक्षिष्टं बालरूपं जगत्पतिम् । सुधामग्नमिवाऽऽत्मानं मन्यमानो महीपतिः ।। २१८ ॥ भूपतिर्धारयामासोत्सङ्गे हृदि शिरस्यपि । प्रकृष्टमिव माणिक्यं प्रभुं तत्स्पर्शलालसः ॥ २१९ ॥ धात्र्यः शक्रकृताः पञ्च ताः पञ्चितभक्तयः । कदाऽपि देहच्छायावत् पार्श्व न मुमुचुः प्रभोः ॥ २२०॥ स धात्रीं खेदयामासाङ्कादुत्तीर्य परिभ्रमन् । अपेतसाध्वसः सिंहीमिव सिंहकिशोरकः ॥ २२९ ॥ रत्नाईमभूमिसङ्क्रान्ते चन्द्रे स ज्ञानवानपि । करं चिक्षेप लोकस्य दर्शयन् बालचापलम् || २२२ ॥ आगतैः सवयोर्भूय मर्त्यरूपधरैः सुरैः । सहाक्रीडत् प्रभुः कोऽन्यस्तत्क्रीडायामपि क्षमः १ ।। २२३ ॥ क्रीडा धावतो भर्तुर्वलद्रीवा दिवौकसः । प्रतिकारी इवेभस्य धावन्ति म पुरः पुरः ॥ २२४ ॥ 30 लीलया पातितेष्वेषु रक्ष रक्षेति वादिषु । तदापि विदधे स्वामी परिणामोचितां कृपाम् ॥ २२५ ॥
एवं विचित्रक्रीडाभिश्चित्रैः क्रीडनकैश्च सः । शैशवं व्यतिचक्राम प्रदोषमिव चन्द्रमाः ॥ २२६ ॥
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२६२
१ चर्चा विलेपनम्, अर्चा पूजनम् । २ रक्षणकर्त्री । ३ युक्ताय । ४ स्वर्गलोकवत् । ५ 'रे आगच्छ रे गच्छ' इत्यादिभाषणतत्परैः । ६ देवानाम् । * "धुकरस्ये' संवृ० ॥ ७ भ्रमरस्येव । ८ स्वर्गसाम्राज्यात् । ९ अन्याभिः मूर्तिभिः । १० विताने । ११ पुष्पदामगुच्छकम् । १२ उपधाने, भाषायाम् 'ओशीकुं' । १३ इन्द्रः | १४ तन्मस्तकम् । १५ न मातुः स्तन्यपायिनः । + णि कर्माणि सदा तदा कार० सं० ॥ १६ इन्द्रः । १७ पुत्र रूपतां प्राप्तस्य । १८ सुखम् । १९ दृष्टवान् । २० विखारितभक्तयः । २१ अपगतभयः । २२ खोपलनिबद्ध भूमिप्रतिबिम्बिते । २३ मित्राणि भूत्वा । २४ भटाः ।
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प्रथमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
२६३ चतुर्धन्वशतोत्तुङ्गः स्वर्णवर्णो जगद्गुरुः । बभासे कौतुकान्मेरुरिव पुंस्त्वमुपागतः ॥ २२७ ।। छत्रवृत्तोनतोष्णीषः स्निग्ध-श्यामलकुन्तलः । अष्टमीन्दुललाटश्रीः कर्णविश्रान्तलोचनः ॥ २२८ ॥ स्कन्धावलम्बिश्रवणो वृषस्कन्धो महाभुजः । विशालभुजमध्यश्च सिंहोदरकृशोदरः ॥ २२९ ॥ करीन्द्रकरकल्पोरुरेणीजङ्घोऽल्पगुल्फकैः । कूर्मपृष्ठोन्नत-समतलांहिः सरलाङ्गुलिः ॥ २३०॥ असम्पृक्तोद्गतश्याम-मृदुल-स्निग्धरोमकः । पद्मामोदिमुखश्वासः सदा मालिन्यवर्जितः ॥ २३१ ॥ एवं निर्सर्गसर्वाङ्गसुभगोऽपि जगत्पतिः । पार्वणः शरदेवेन्दुयौवनेनाधिकं बभौ ॥ २३२ ॥ पितृभ्यामुत्सवातृप्त्याऽपरेधुः प्रार्थितः प्रभुः । परिणेतुं नृपकन्याः सुरकन्यासहोदराः ॥ २३३ ॥ जानन् भोगफलं कर्म पित्रोराज्ञां च पालयन् । कन्यानामुपैयमनं सोऽनुमेने महामनाः ॥ २३४ ॥ - राज्ञा जितारिणा साक्षाच्छक्रेण च समेर्युषा । हाहा-हूहूप्रभृतिषु गायत्सु मधुरस्वरम् ॥ २३५ ॥ गन्धर्वेषु मृदङ्गादि गम्भीरं वादयत्सु च । रम्भा-तिलोत्तमाद्यासु नृत्यन्तीष्वप्सरःसु च ॥ २३६ ॥ 10 धवलानुगुणन्ती कुलनारीषु चोचकैः । कारितः सम्भवस्वामी कन्योद्वाहमहोत्सवम् ॥ २३७ ॥
॥ त्रिमिर्विशेषकम् ॥ नन्दनोद्यानकल्पासु कदाप्युद्यानैवीथिषु । रत्नाद्रिशृङ्गतुल्येषु क्रीडाद्रिषु कदापि च ॥ २३८ ॥ सुधाकुण्डसदृक्षासु कदाचित् केलिवापिषु । कदाचिचित्रशालासु द्युविमानसनाभिषु ॥ २३९ ॥ वैदग्ध्यरमणीयाभी रमणीमिः सहस्रशः । रेमे श्रीसम्भवखामी करिणीभिरिव द्विपः ॥ २४०॥ 15
॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ भुञ्जानो विविधान् भोगान् कौमारे परमेश्वरः । गमयामास पूर्वाणां लक्षाणि दश पश्च च ॥ २४१॥
राजाऽथ भवनिर्विण्णः सम्भवस्वामिनं तदा । उपरुध्य न्यधाद् राज्येऽङ्गुलीये वररत्नवत् ॥२४२॥ सद्गुरोः पादपद्मान्ते जितारिनृपतिः स्वयम् । उपादाय परिव्रज्यां निजमर्थमसाधयत् ॥ २४३ ॥ तातोपरोधादादाय राज्यं प्राज्यपराक्रमः । ररक्ष सम्भवखामी पृथिवीं पुष्पदामवत् ॥ २४४ ॥ 20 निरीतयो नि तङ्काः पुरुषायुषजीविताः । सम्भववामिनो राज्ये प्रभावादभवन् प्रजाः ॥ २४५ ॥ न कस्याप्युपरि स्वामी ध्रुवमप्यध्यरोपयत् । चापारोपणवा या अवकाशोऽपि कीदृशः ॥ २४६ ॥ भोग्यं कर्म क्षिपन् राज्ये सर्वाङ्गचतुष्टयम् । चतुश्चत्वारिंशत्पूर्वलक्षी स्वाम्यत्यवाहयत् ॥ २४७ ॥
ज्ञानत्रयपरीतात्मा स्वयम्बुद्धो जगत्प्रभुः। तदा च चिन्तयामास संसारस्थितिमीहशीम् ॥ २४८ ॥ संसारे विषयावादसुखं सविषभोज्यवत् । आपातमात्रमधुरं परिणामे त्वनर्थदम् ॥ २४९ ॥ 25 अस्मिन्नसारे संसारे कथञ्चिद्धि शरीरिभिः । अवाप्यते मानुषत्वमूरे स्वादुवारिवत् ॥ २५० ॥ मानुषत्वमवाप्याऽपि मूर्विषयसेवया । मुधा निर्गम्यते पादशौचेनेव सुधारसः ॥ २५१॥ इति चिन्तयतो भर्तुरेयुलॊकान्तिकामराः । नत्वा व्यज्ञपयंश्चैव स्वामिस्तीथं प्रवर्त्तय ॥ २५२ ॥ गतेषु तेषु देवेषु दीक्षादानोत्सवोत्सुकः । सांवत्सरिकमारेभे दानं दातुं जगत्पतिः ॥ २५३ ॥ देवाश्च जृम्भकाः शक्रादिष्टवैश्रवणेरिताः । क्षीणस्वामीनि निर्नष्टसेतून्यद्रिगतानि च ॥ २५४॥ 30
। उनतमस्तकशिखः। २ दीर्घलोचन इत्यर्थः। ३ अल्पौ गुल्फी घुटिके यस्य । ४ स्वभावसर्वाङ्ग-1 ५ पूर्णिमाचन्द्रो यथा शरस्तुना तथा । * °तृभ्यां परया प्रीत्याऽपरे° संवृ०॥ ६ समाना इत्यर्थः । ७ विवाहम् । ८ समागतेन । ५ भाषायां 'घोळ । १० गायन्तीषु । ११ उद्यानराजिषु । १२ देवविमानसदृशासु । १३ चातुर्येण रमणीया-१४ पदपंचाशसहनाधिक सप्ततिलक्षकोटिवर्षात्मकः कालविशेषः पूर्वम् । १५ मुद्रिकायाम् । १६ अङ्गीकृत्य । १७ पितुराग्रहात्। १८ अतिप्रोडपराक्रमवान् । १९ अतिवृष्टि-अनावृष्टिप्रमुख-ईतिरहिताः । २० रोगरहिताः । २॥ चतुरशीतिलक्षवर्षपरिमितं पूर्वाङ्गम्। २२ सुक्तास्मा । २१ मारम्भ एवं मधुरम् । २. क्षारभूमी। २५ वार्षिकम् ।
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कलिकालसर्वशश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ तृतीयं पर्व
श्मशानस्थानवर्तीनि निगूढानि गृहान्तरे । चिरभ्रष्टानि नष्टानि स्वर्णादीनि धनान्यथ ॥ २५५ ॥ आनीय पुर्या श्रावस्त्यां चत्वरेषु त्रिकेषु च । अन्येष्वपि प्रदेशेषु राशींश्चक्रुर्गिरीन्द्रवत् ॥ २५६ ॥ यो येनाऽर्थी स तद् द्रव्यं खैरमर्थयतामिति । आयुक्तैर्घोषणामुचैः श्रावस्त्यां स्वाम्यकारयत् ॥ २५७॥ स्वामी कोटिं साष्टलक्षां हाटकस्याऽन्वहं ददौ । अर्थिनस्तावतोऽर्थस्य भवन्ति ददतोऽर्हतः ॥ २५८ ॥ कोटीशतत्रयं स्वर्णस्याऽष्टाशीतिश्च कोटयः । लक्षाशीतिश्च ददिरे खामिना वत्सरेण तु ॥ २५९ ॥ सांवत्सरिकदानान्ते वासवाश्चलितासनाः । सान्तःपुरपरीवाराः स्वामिवेश्म समाययुः ॥ २६० ॥ ततः प्रदक्षिणीकृत्य स्वामिवेश्म विमानतः । अवतेरुश्यास्पृशन्तः पृथिवीं चतुरङ्गुलम् ॥ २६९ ॥ सन्नाथा जगन्नाथमथो विनयशालिनः । सर्वे प्रदक्षिणीचक्रुर्नमश्च भक्तितः ।। २६२ ॥ जन्माभिषेकवद् भर्तुरभिषेकमथाऽच्युतः । आभियोग्याहृतैस्तीर्थाम्भस्कुम्भैर्विधिवद् व्यधात् ॥ २६३ ॥ क्रमेण तद्वदन्येऽपि विदधुर्विबुधाधिपाः । दीक्षाकल्याणकस्त्रात्रं भक्तिकल्या जगत्पतेः ॥ २६४ ॥ सुरा - सुरेन्द्रवद् भक्त्या नरेन्द्रा अपि तत्क्षणम् । सम्भवखामिनचक्रुः पवित्रैः स्नात्रमम्बुभिः || २६५॥ वपुर्देवाधिदेवस्य देवदृष्यैर्दिवौकसः । ममृजुः स्नानतोयार्द्रमादर्शमिव काञ्चनम् || २६६ ॥ गोशीर्षचन्दनेनाऽथ नाथं विलिलिपुः सुराः । दिव्यानि च दुकूलानि भक्तितः पर्यधापयन् ॥ २६७ ॥ किरीटं मूर्ध्नि सर्वस्वमिव वज्राकरावनेः । कुण्डले कर्णयोर मुक्तामणिमये इव ॥ २६८ ॥ 15 कण्ठे हारं नीहाराद्रिभ्रश्यद्गङ्गानुहारकम् | केयूर- कङ्कणान् बाह्रोः सूर्यज्योतिर्मयानिव ॥ २६९ ॥ कुण्डलीभूतनालाभान् कटकान् पादपद्मयोः । एवं निदधिरे देवा भूषणानि जगद्विभोः ॥ २७० ॥ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ।।
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सिद्धार्था नामतः सांह्निपीठसिंहासनां ततः । शिविकां रचयाञ्चक्रुर्भूर्भुजः स्वामिनः कृते ॥ २७१ ॥ अच्युतेन्द्रोऽप्याभियोग्यैः शिबिकां तां व्यकारयत् । वैमानिक विमानानामधिदेवी मित्रोच्चकैः ॥ २७२ ॥ 20 स्वयंकृतां तां शिबिकां नरेन्द्रशिबिकान्तरे । श्रीचन्दनेऽगरुमिवाऽच्युतेन्द्रोऽन्तरभावयत् ॥ २७३ ॥ अथाssरुरोह भगवान् दत्तहस्तो बिडौजैसा । शिबिकायां तत्र सिंहासनं हंस इवाम्बुजम् ॥ २७४ ॥ आदौ तदधुर्म या इव महारथम् । अनन्तरं दिविषदो घनवाता इवावनिम् || २७५ ।। ध्वनत्सु तूर्यवर्येषु समन्ताद् वारिदेष्विव । गन्धर्वेषु च कुर्वत्सु गीतिं कर्णसुधोपमाम् ॥ २७६ ॥ चित्राङ्गहरिकरणं नृत्यन्तीष्वप्सरःसु च । पठत्सु बन्दिवृन्देषु ब्रह्मसु ब्रह्मगेषु च ।। २७७ ।। आशंसन्तीषु माङ्गल्यं कुलवृद्धासु चोच्चकैः । धवलांश्च कुलस्त्रीषु गायन्तीषु मनोरमम् ॥ २७८ ॥ अग्रे पृष्ठे पार्श्वयोश्वाश्ववद् वल्गत्सु नकिषु । दृश्यमानः 'मेरनेत्रैर्दर्श्यमानोऽङ्गुलीदलैः ॥ २७९ ॥ स्थाने स्थाने नागराणां प्रतीच्छन् मङ्गलानि च । पीयूषवृष्टिभिरिव दृग्भिरानन्दयन् जगत् ॥ २८० ॥ दोर्धूयमानचमरो धृतच्छत्रश्च नाकिभिः । श्रावस्तीमध्यतः स्वामी सहस्राम्रवणं ययौ ।। २८१ ॥ ।। षड्भिः कुलकम् ॥ तस्माच्च शिबिकारत्नात् पादपादिव बैर्हिणः । दीक्षां हारमिवाऽऽदित्सुरुत्ततार जगद्गुरुः ॥ २८२ ॥ मुमोच तत्र भगवान् माल्या- ऽलङ्करणादिकम् । इन्द्रन्यस्तं देवदुष्यं स्कन्धदेशे दधार च ।। २८३ ।।
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१ चतुष्पथेषु । २ मार्गत्रयसंयोगेषु । ३ सेवकजनैः । ४ सुवर्णस्य । ५ इन्द्राः । ६ आनीतैः । ७ भक्तिचतुराः । • मुकुटम् । ९ हिमगिरिपतद्गङ्गामनुकुर्वन्तम् । * नुकार' संवृ० ॥ १० सूर्यकान्तमणिमयानिव । ११ पादपीठेन सहितं सिंहासनं यस्यां वाम् । १२ इन्द्रेण । + 'मुद्दधु सङ्घ० सं० ॥ १३ अश्वाः | १४ एतन्नामानो वायवः । १५ चित्राभिनयाङ्गमोटनयुक्तं यथा स्वाद तथा । १६ देवेषु । १७ विकसितचक्षुर्भिः । १८ अतिशयेन वीज्यमाने चामरे यस्य । १९ बर्हिणशब्दस्य प्रथमैकवचनम् ॥
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प्रथमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
२६५ मार्गशीर्षस्य राकायां चन्द्रे मृगशिरःस्थिते । अह्नश्च पश्चिमे भागे कृतषष्ठतपास्ततः ॥ २८४ ॥ पञ्चभिर्मुष्टिभिर्मू! लीलयैव जगत्पतिः। उत्पाटयामास केशान् क्लेशान् पूर्वार्जितानिव ॥२८५॥ युग्मम् ॥ शक्रस्तान् स्वामिनः केशान् खकीयवसेनाञ्चले । शेषामिव प्रतीयेष क्षीरोदे चाक्षिपत् क्षणात् ।।२८६ ॥ सुरा-ऽसुर-नृणामाशु तुमुलं मुष्टिसंज्ञया । निषिषेध द्वाःस्थ इव क्षीरोदादेत्य वासवः ॥ २८७ ॥ सावधं योगमखिलं प्रत्याख्यामीत्युदीरयन् । देवादिपर्षत्प्रत्यक्षं चारित्रं शिश्रिये प्रभुः ॥ २८८॥ 5 मनःपर्ययमुत्पेदे ज्ञानं तुर्य प्रभोरथ । ज्ञानस्य केवलस्येव सत्यङ्कार उपस्थितः ॥ २८९ ॥ एकान्तदुःखदग्धानां प्रक्षिप्तानामिवानले । अपि नारकजन्तूनां तदा सुखमभूत् क्षणम् ॥ २९०।। उत्सृज्य तृणवद् राज्यं सहस्रं पृथिवीभुजः । सह त्रैलोक्यनाथेन दीक्षामाददिरे स्वयम् ॥ २९१ ॥ अथ शक्रो नमस्कृत्य भगवन्तं कृताञ्जलिः । स्तोतुमेवं समारेभे भक्तिनिर्भरया गिरा ॥ २९२ ॥
चतुर्ज्ञानधर! चतुर्यामधर्मप्रदर्शक! । चतुर्गतिप्राणिगणप्रीतिदायिन् ! जय प्रभो! ॥ २९३ ॥ 10 धन्यास्तास्त्रिजगन्नाथ! भरतक्षेत्रभूमयः । तीर्थेश ! जङ्गमं तीर्थ यासु त्वं विहरिष्यसे ॥ २९४ ॥ असिन् यससि संसारे संसारेण न लिप्यसे । पङ्कजं पङ्कजमपि याति पङ्किलतां न हि ॥ २९५ ॥ तवाऽसिधारासोदय जयतीदं महाव्रतम् । कर्मपाशच्छेदनाय प्रभविष्णु जगत्प्रभो! ॥ २९६ ॥ निर्ममोऽपि कृपालुस्त्वं निर्ग्रन्थोऽपि महर्द्धिकः । तेजस्व्यपि सदा सौम्यो धीरोऽपि भवकातरः ।।२९७॥ नितान्तं पूजनीयः स नाकिनां मानवोऽपि सन् । विहरन् कार्यसे येन पारणं विश्वतारण! ॥ २९८ ॥ 15 महोपकारजनकं स्वामिन्नविरतस्य मे । औषधं व्याधितस्येव भवदर्शनमीदृशम् ।। २९९ ॥ त्रिजगन्नाथ! नाथामि त्वयि भूयान्मनो मम । अनुस्यूतमिबोत्कीर्णमिव श्लिष्टमिवाऽनिशम् ॥ ३००॥ इति स्तुत्वा प्रभुं शक्रोऽन्येऽपीन्द्रा अच्युतादयः । स्थानं निजनिजं जग्मुः स्मरन्तः प्रभुसन्निधिम् ॥३०॥
द्वितीयसिन् दिने पुर्या तस्यामेव जगत्पतिः । राज्ञः सुरेन्द्रदत्तस्य गृहेऽगात् पारणेच्छया ॥३०२॥ सोऽभ्युत्थाय जगन्नाथं नमस्कृत्य च भक्तितः । परमान्नमुपादाय गृह्यतामित्यभापत ॥ ३०३ ॥ 20 एषणीयं कल्पनीयं प्रासुकं पायसं च तत् । पाणिपात्रेण विश्वैकपात्रं प्रभुरुपाददे ॥ ३०४ ॥ कल्याणकारणं दातुः प्राणमात्रकधारणम् । चकार पारणं तेन वादाऽगमनाः प्रभुः ॥ ३०५॥ तदाऽभूद् दुन्दुभे दो दिग्गजस्येव गर्जितम् । वसुधाराऽपतद् दिव्या दिवः शीर्णव कण्ठिका ॥३०६ ।। नन्दनस्येव सर्वस्वं पुष्पवृष्टिः पपात खोत् । गन्धाम्बुवृष्टिरभवद् दिग्दन्तिमदसोदरा ॥ ३०७ ॥ एंकरश्मिभृतानीव चेलीन्युचिक्षिपुः सुराः । अहो! दानं महादानं सुदानं चेति गीरभृत् ॥ ३०८॥ 25 भगवान् पारयामास यत्र तत्र तदैव हि । सुरेन्द्रदत्तो विदधे पीठं स्वर्ण-मणीमयम् ।। ३०९ ॥ त्रिसन्ध्यं पूजयामास तत् पीठं खामिपादवत् । सुरेन्द्रदत्तोऽसम्पूज्य बुभुजे जातुचिन्न हि ॥३१०॥
स्थानात् ततश्च भगवान् ग्रामे द्रोणमुखे पुरे । आकरे कपटे खेटे मैडम्बे पत्तने वने ॥ ३११ ॥ नवे नवेऽनैवस्थानो विविधाभिग्रहोद्यतः । द्वाविंशतिमनुद्विग्नः सहमानः परीपहान् ॥ ३१२ ॥
पूर्णिमायाम्। २ वस्त्रप्रान्तभागे। ३ कोलाहलम् । ४ हिंसा-असत्यप्रभृतिदोषरूपं सपापं व्यापारम् । ५ चतुर्थम् चतुर्वतात्मकधर्मप्रदर्शक! । ७ कमलम् । ८ पङ्के जातमपि । ९ मलिनताम् । १० सदृशम् । ११ समर्थम्। १२ परिग्रहरहितः। ११ संसारभीरुः। १४ देवानाम् । * रणम् सङ्घ० ॥ १५ व्रतप्रत्याख्यानरहितस्य । १६ याचे। १७ प्रोतम् । १८ खचितम् । १९ अचित्तम् । २० क्षीरान्नम्। २१ रसलोलुपतारहितचित्तः ।। २२ आकाशात् । २३ एकरज्जुबद्धानीव । २४ वस्त्राणि । २५ जलपथ-स्थलपथोपेतम् । २६ लोहाधुत्पत्तिस्थानम् । २७ कुनगरम् । २८ धूलीप्राकारम्, अथवा “खेटः पुरार्धविस्तरः" अभिधानचिन्ता काण्ड ४ लो० ३८॥ २९ सर्वतो दूरवर्ति सधिवेशान्तरम् । ३० विविधदेशागतपण्यस्थानम् । तच्च द्विधा-जलपत्तन स्थलपत्तनं च । अथवा "रणभूमिः" इति व्याख्यामज्ञप्तिवृत्तौ श्रीअभयदेवसूरयः । ३१ नित्यविहरणशीलः । चमः संव०मो।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ तृतीयं पर्व
त्रिगुप्तिः पञ्चसमितिमनभाग् निर्भयः स्थिरः । एकाग्रहग् विजहार वत्सराणि चतुर्दश ॥ ३१३ ॥ तदानीं च सहस्राम्रवणे सालत रोस्तले । द्वितीयशुक्लध्यानस्थस्तस्थौ प्रतिमया प्रभुः ॥ ३१४ ॥ ध्यानान्तरे तिष्ठतश्च घातिकर्मचतुष्टयम् । सम्भवस्वामिनोऽत्रुट्यच्छाखिनः शुष्कपत्रवत् ।। ३१५ ।। ततश्च कार्तिके मासि पक्षे च धवलेतरे । पञ्चम्यां च तिथौ शीतैरइमौ मृगशिरः स्थिते ॥ ३१६ ॥ - स्वामिनः कृतषष्ठस्योत्पेदे केवलमुज्ज्वलम् । सद्-भावि भूतवस्तूनां दर्शनप्रतिर्भूरिव ॥ ३१७ ॥ परमाधार्मिककृत-क्षेत्रजाऽन्योऽन्यजन्मनः । दुःखस्यान्तात् क्षणं सौख्यं तदा निरंयिणामभूत् ॥ ३१८ ।। सुरा - सुरेन्द्राः सर्वेऽपि तदानीं चलितासनाः । केवलज्ञानमहिम कर्तुं तत्र समाययुः ।। ३१९ ॥
ततः समवसरणकृते क्ष्मामेकयोजनाम् । ममृजुर्वायुकुमाराः सिषिचुश्च पयोमुचः ॥ ३२० ॥ चबन्धुर्व्यन्तरास्तां च स्वर्ण-रत्ना-श्मभिः शुभैः । पञ्चवर्णानि पुष्पाणि विकिरन्ति स्म तत्र च ।। ३२१ ॥ श्वेतच्छत्र-ध्वज-स्तम्भ- मकरास्यादिभूषितान् । प्रत्याशं चतुरस्तत्र तोरणांस्ते विचक्रिरे ॥ ३२२ ॥ रत्नपीठं विकृत्यान्तः परितस्तं विचक्रिरे । रौप्यं वप्रं भवनेशाः सौवर्णकपिशीर्षकम् ॥ ३२३ ॥ ज्योतिष्का मध्यमं वप्रं सरत्नकपिशीर्षकम् । तोपनीयं विदधिरे भूवधूवलयोपमम् ॥ ३२४ ॥ अथ रत्नमयं वप्रं माणिक्यकपिशीर्षकम् । तत्रोपरितनं चक्रुर्विमानपतयोऽमराः ।। ३२५ ।। बभूव प्रतिवप्रं च गोपुराणां चतुष्टयम् । द्वितीयवप्रे चैशान्यां देवच्छन्दं व्यधुः सुराः ॥ ३२६ ॥ 15 ऊर्द्धवप्रान्तरावन्या मध्ये चैत्यतरुं व्यधुः । साष्टधन्वशतक्रोशद्वयोच्चं व्यन्तरास्ततः ॥ ३२७ ॥
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तस्याऽधो मणिभिर्बद्धे पीठे ते च्छन्दकं व्यधुः । तन्मध्ये ग्राकू सांहिपीठं रत्नसिंहासनं ततः ।। ३२८ ॥ छन्दकोपरि चक्रुश्च ते च्छत्रत्रितयं शुभम् । दधाते पार्श्वयोर्यक्षौ चामरे चेन्दुपाण्डुरे ॥ ३२९ ॥ चक्रे समवसृत्यग्रे धर्मचक्रं च भासुरं । व्यन्तरैर्धर्मचक्रित्वसूचकं परमेशितुः ॥ ३३० ॥
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सुरैः सञ्चार्यमाणेषु सौर्वर्णेष्वम्बुजन्मसु । नवस्वारोपयन् पादौ सुरकोटीभिरावृतः ॥ ३३१ ॥ प्रातः समवसरणं पूर्वद्वाऽविशद् विभुः । त्रिः प्रदक्षिणयामास तत्र तं चैत्यपादपम् ||३३२|| नमस्तीति जल्पंश्छन्दकान्तर्निवेशितम् । सिंहासनमथाऽध्यास्त प्राङ्मुखः परमेश्वरः ॥ ३३३ ॥ • प्रभावात् स्वामिनः स्वामिप्रतिविम्बानि चक्रिरे । रत्नसिंहासनस्थानि व्यन्तरा अन्यदिक्ष्वपि ॥ ३३४ ॥ शिरसः पश्चिमे भागेऽभवद् भामण्डलं प्रभोः । इन्द्रध्वजः पुरस्ताच्च दुन्दुभिश्चाऽध्वनद् दिवि ।। ३३५ ।। प्रविश्य प्राग्द्वाराऽर्हन्तं नत्वाऽऽग्नेय्यामुपाविशन् । साधवोऽथ वैमानिक्यः साध्व्यर्द्धा वितष्ठिरे ||३३६ || पारद्वारा प्रविश्याऽर्हत्पादान् नत्वा च नैर्ऋते । अतिष्ठन् भवनपति - ज्योतिष्क-च्यन्तरस्त्रियः ॥ ३३७ ॥ प्रत्यग्द्वारेण प्रविश्याऽर्हन्तं नत्वा मरुद्दिशि । तस्थुः क्रमाद् भवनेश- ज्योतिष्क-व्यन्तराः सुराः ॥ ३३८ ॥ उदग्द्वारा प्रविश्याऽथ जिनं नत्वा क्रमेण तु । वैमानिका नरा नार्य ऐशान्यामवतस्थिरे ।। ३३९ ।। आद्यवप्रेऽवास्थितैवं श्रीमान् सङ्घचतुर्विधः । वत्रे द्वितीये तिर्यञ्चस्तृती. वाहन तु ॥ ३४० ॥
अथ शक्रो नमस्कृत्य स्वामिनं रचिताञ्जलिः । इति प्रचक्रमे स्तोतंताचा भक्तिसनाथया ।। ३४१ ॥ अनाहूतसहायस्त्वं त्वमकारणवत्सलः । अनभ्यर्थितसाधुस्त्वं त्वमसम्बन्धबाधवः ॥ ३४२ ॥ अनक्तस्निग्धमनसममृजोज्वलवाक्पथम् । अधौतामलशीलं त्वां शरण्यं शरणं श्रये ॥ ३४३ ॥ raण्डवीरव्रतिनाशमिना समवर्त्तिना । त्वया काममकुट्यन्त कुटिलाः कर्मकण्टकाः || ३४४ ॥
१ कृष्णे । २ चन्द्रे । ३ केवलज्ञानम् । ४ साक्षिभूतः । ५ नारकाणाम् । ६ महिमानम् । ७ समवसरणार्थम् । ८ पृथ्वीम् । ९ खनितकुमाराभिधानादेवा इत्यर्थः । १० प्रतिदिशम् । ११ भवनपतिदेवाः । १२ सुवर्णमयम् । १३ सुवर्णमयेषु कमलेषु । १४ पूर्वद्वारेण । * चोईमवस्थिताः संल० सङ्घ० ॥ १५ दक्षिणद्वारेण । १६ वायव्यां दिशि । + च सङ्घ० मो० ॥ १० सक्तियुक्तया । + स्वन्धवा' सं० ॥ १८ अभ्यङ्गरहितमपि । १९ मार्जनरहितमपि ।
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प्रथमः सर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
२६७ अभवाय महेशायाऽगदाय नरकच्छिदे । अराजसाय ब्रह्मणे कस्मैचिद् भवते नमः ॥ ३४५॥ अनुक्षितफलोदग्रादनिपातगरीयसः । असङ्कल्पितकल्पद्रोस्त्वत्तः फलमवाप्नुयाम् ॥ ३४६ ॥ असङ्कास्य जिनेशस्य निर्ममस्य कृपात्मनः । मध्यस्थस्य जगत्रातरनस्तेऽस्मि किङ्करः ॥ ३४७॥ अगोपिते रत्ननिधाववृते कल्पपादपे । अचिन्त्यचिन्तारत्ने च त्वय्यात्माऽयं मयाऽर्पितः ॥ ३४८ ॥ फलानुध्यानवन्ध्योऽहं फलमात्रतनुर्भवान् । प्रसीद यत्कृत्यविधौ किङ्कर्तव्यजडे मयि ॥ ३४९॥ 5 _स्तुत्वैवं विरते शके विश्वस्योपचिकीर्षया । भगवान् सम्भवस्वामी विदधे देशनामिमाम् ॥३५०॥ अनित्यं सर्वमप्यस्मिन् संसारे वस्तु वस्तुतः । मुधा सुखलवेनापि तत्र मूर्छा शरीरिणाम् ॥ ३५१॥ खतोऽन्यतश्च सर्वाभ्यो दिग्भ्यश्चाऽऽगच्छदापर्दः । कृतान्तदन्तयत्रस्थाः कष्टं जीवन्ति जन्तवः॥३५२ ।। वज्रसारेषु देहेषु यद्यास्कन्दत्यनित्यता । रम्भागर्भसगर्भेषु का कथा तर्हि देहिनाम् ॥ ३५३ ॥ असारेषु शरीरेषु स्थेमानं यश्चिकीर्षति । जीर्ण-शीर्णपलालोत्थे चञ्चापुंसि करोतु सः ।। ३५४ ॥ 10 न मत्र-तन्त्र-भैषज्यकरणानि शरीरिणाम् । त्राणाय मरणव्याघ्रमुखकोटरवासिनाम् ॥ ३५५ ॥ प्रवर्द्धमानं पुरुषं प्रथमं ग्रसते जरा । ततः कृतान्तस्त्वरते धिगहो! जन्म देहिनाम् ॥ ३५६ ॥ यद्यात्मानं विजानीयात् कृतान्ते वशवर्तिनम् । को ग्रासमपि गृह्णीयात् ? पापकर्मसु का कथा ? ॥३५७॥ समुत्पद्य समुत्पद्य विपद्यन्तेऽप्सु बुद्बुदाः । यथा तथा क्षणेनैव शरीराणि शरीरिणाम् ॥ ३५८॥ आढ्यं निःस्वं नृपं रकं ज्ञं मूर्ख सज्जनं खलम् । अविशेषेण संहतुं समवर्ती प्रवर्तते ॥ ३५९ ॥ 15 न गुणेष्वस्य दाक्षिण्यं द्वेषो दोषेषु वाऽस्ति न । दावाग्निवदरण्यांनी विलुम्पत्यन्तको जनम् ॥ ३६०॥ इदं तु मास शङ्कवं कुशास्त्रैरपि मोहिताः । कुतोऽप्युपायतः कायो निरपायो भवेदिति ॥ ३६१॥ ये मेरुं दण्डसात् कर्तुं पृथ्वीं वा छत्रसात् क्षमाः । तेऽपि त्रातुं स्वमन्यं वा न मृत्योः प्रभविष्णवः॥३६२॥ आ कीटादा च देवेन्द्रात् प्रभावन्तकशासने । अनुन्मत्तो न भाषेत कथञ्चित् कालवचनाम् ॥ ३६३ ॥ पूर्वेषां चेत् क्वचित् कश्चिजीवन दृश्येत कैश्चन । न्यायपथातीतमपि स्यात् तदा कालवञ्चनम् ॥३६४ ॥20 अनित्यं यौवनमपि प्रतियन्तु मनीषिणः । बल-रूपापहारिण्या जरसा जर्जरीभवत् ॥ ३६५ ॥ यौवने कामिनीभिर्ये काम्यन्ते कामलीलया । निकामकृतथूत्कारं त्यज्यन्ते तेऽपि वार्द्धके ।। ३६६ ॥ यदर्जितं बहुक्लेशैरभुक्त्वा यच्च पालितम् । तद् याति क्षणमात्रेण निधनं धनिनां धनम् ॥ ३६७ ॥ उपमानपदं किं स्यात् फेन-बुद्बुद-विद्युती? । धनस्य नश्यतोऽवश्यं पश्यतामपि तद्वताम् ॥३६८ ॥ समागमाः सापगमाः सुहृद्भिबन्धुभिर्जनः । स्वस्य वाऽन्यस्य वा नाशे विकृतेऽपकृतेऽपि वा ।। ३६९ ॥ 25 ध्यायनित्यतां नित्यं मृतं पुत्रं न शोचति । नित्यताग्रहमूढस्तु कुड्यभङ्गेऽपि रोदिति ॥ ३७॥ शरीर-यौवन-धन-बान्धवादि न केवलम् । अनित्यं किन्तु भुवनमप्येतत् सचराचरम् ॥ ३७१॥ इत्यनित्यं विदन् सर्व शरीरी निष्परिग्रहः । नित्याय नित्यसौख्याय पदाय प्रयतेत तत् ॥ ३७२ ॥
श्रुत्वा तां देशनां भतुः पादपद्मान्तिके ततः । नरा नार्यश्च बहवो दीक्षामाददिरे तदा ॥ ३७३॥ तदा चारप्रभृतीनां गणभृन्नामकर्मणाम् । वाम्युद्दिदेश त्रिपदी स्थित्युत्पाद-व्ययात्मिकाम् ॥ ३७४ ॥ 30 द्वयग्रं शतं गणधरास्ते त्रिपद्यनुसारतः । असूत्रयन् द्वादशाङ्गी सचतुर्दशपूर्विकाम् ॥ ३७५ ॥ उत्थायाऽऽदाय शक्रोपनीतं चूर्ण क्षिपन् प्रभुः । अनुयोग-गणानुज्ञे तेषां द्रव्यादिभिर्ददौ ॥ ३७६॥
संसारवर्जिताय । २ रजोगुणरहिताय । ३ जलसेकवजितोऽपि फले: सम्भृतः तस्मात् ॥ ४ पत्राद्यगलनाद् गुरुतमः तस्मात् ॥ ५ त्रिशूलादिचिहरहितः। ६ आगच्छन्त्यः आपदः येषां ते आगच्छदापदो जन्तवः ॥ ७ रम्भा कदली, सगर्भः समानः ॥ ८पलाल: बुसम्, 'भूसु' इति प्रसिद्धम् ॥ ९ चञ्चा तृणमयः पुरुषः, स च क्षेत्रे धान्यादिरक्षणार्थं लोकै स्थाप्यते। चाडियो' इति प्रसिद्धम् ॥ १० बुहूदाः जलस्फोटाः, परपोटा इति प्रसिद्धम् ॥ ११ समवर्ती-समं सर्वेः सह वत्तेते इत्येवं शीलः समवर्ती यमः यमराज इति यावत्॥ १२ विशालम् अरण्यम् अरण्यानी ॥1 °ञ्चनम् संबृ० मो०॥ १३ जर्जरीभवत् वर्तमानकृदन्तम् । न जर्जरम् अजर्जरम्, अजर्जरं जर्जरं भवति इति जर्जरीभवत् ॥ १४ वृद्धस्य भावः वार्द्धकं-वृद्धत्वमिति ॥ 1 द्युताम् संबृ० स०॥१५ कुड्यं भित्तिः॥१६भनुयोगः मासवाचवा ॥
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[तृतीयं पर्व
कलिकालसर्वज्ञत्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं वासान् सुरादयस्तेषु ध्वनदुन्दुभि चिक्षिपुः । स्वामिवाचं प्रतीच्छन्तस्तस्थुर्गणभृतश्च ते ॥ ३७७ ॥ दिव्यसिंहासनं भूयोऽप्यध्याय प्रामुखः प्रभुः । अनुशिष्टिमयीं तेषां विदधे धर्मदेशनाम् ॥ ३७८ ॥ पूर्णायामथ पौरुष्यां व्यसाक्षीद देशनां विभुः। शाल्याकबली राजभवनादाजगाम च ॥ ३७९॥ क्षिप्तस्य तस्य खाद् भ्रश्यदर्धं देवैश्श्युतस्य तु । नृपैर) जनैरधं विभज्य जगृहे मुदा ॥ ३८०॥ अथोत्थायोत्तरद्वारा विनिर्गत्य जगद्गुरुः । देवच्छन्दे विशश्रामाऽश्रान्तोऽपि स्थितिरीदृशी ॥ ३८१ ॥
खाम्यद्धिपीठमध्यास्य चारुर्गणधराग्रणीः । स्वामिप्रभावाद् विदधे देशनां संशयच्छिदम् ॥ ३८२॥ द्वितीयस्यां स पौरुष्यां पूर्णायां देशनाविधेः । व्यरंसीत् कालवेलायामागमाध्ययनादिव ।। ३८३ ॥ . ततश्च स्वामिनं नत्वा सुरा-ऽसुर-नृपादयः । स्व स्व
इव ॥ ३८४॥ तीर्थे तत्र समुत्पन्नस्त्रिमुखो नाम यक्षराट् । त्रिनेत्रस्त्रिमुखः श्यामः षड्बाहुबर्हिवाहनः ॥ ३८५ ॥ 10 दक्षिणैर्नकुलधर-गदाभृदभयप्रदैः । युतो वामैर्भुजैर्मातुलिङ्ग-नागा-ऽक्षत्रिभिः ।। ३८६ ॥
तीर्थे तत्रैव चोत्पन्ना दुरितारिरभिख्यया । चतुर्भुजा गौरवर्णा मेषवाहनगामिनी ॥ ३८७ ॥ दक्षिणाभ्यां भुजाभ्यां तु वरदेनाऽक्षसूत्रिणा । वामाभ्यां शोभमाना तु फणिनाऽभयदेन च ॥३८८ ॥ त्रिमुखो दुरितारिश्च ततः शासनदेवते । सन्निधाने सदा भर्तुरभूतामात्मरक्षवत् ॥ ३८९ ॥
ततः स्थानात् प्रभुरपि साधुभिः परिवारितः । चतुस्त्रिंशदतिशयान्वितो व्यहरदन्यतः॥३९० ॥ 15 विभोर्विहरतोऽभूवन् द्वे लक्षे वतिनामथ । व्रतिनीनां तु षट्त्रिंशत् सहस्राणि त्रिलक्ष्यपि ॥ ३९१ ॥
सर्वपूर्वभृतां सार्धा शतानामेकविंशतिः । शतानि च षण्णवतिरवधिज्ञानशालिनाम् ॥ ३९२ ॥ तुर्यज्ञानिनां द्वादश सहस्राः सार्धकं शतम् । सहस्राणि पश्चदश केवलज्ञानिनां पुनः ।। ३९३ ॥ वैक्रियलब्धिसहस्रा विंशतिद्विशतोनिता । द्वादशैव सहस्राणि वादलब्धिमतां पुनः॥ ३९४॥
सहजैः सप्तभिन्यूना श्रावकाणां त्रिलक्ष्यथ । श्राविकाणां च षड्लक्षी सट्त्रिंशत्सहस्रिका ॥३९५ ॥ 20 आरभ्य केवलात् पूर्वलक्षं व्यहरत प्रभुः । चतुर्दशाब्द्या च चतुःपूर्वाझ्या चे विवर्जितम् ॥ ३९६ ॥
ज्ञात्वाऽऽत्मनो मोक्षकालं सर्वज्ञो भगवानथ । सम्मेतशैलशिखरं जगाम सपरिच्छदः ॥३९७॥ समं मुनिसहस्रेण तत्र च प्रत्यपद्यत । पादपोपगमं नामानशनं सम्भवप्रभुः ॥ ३९८॥ सुरा-ऽसुराणामधिपास्तदानीं सपरिच्छदाः । तत्रैत्य भक्तितस्तस्थुः सेवमाना जगत्प्रभुम् ॥ ३९९ ॥
मासान्ते सम्भवस्वामी सर्वयोगनिरोधिनीम् । शैलेशी शैलनिष्कम्पः प्रपेदे ध्यानमन्तिमम् ॥ ४००॥ 25
चैत्रस्य सितपञ्चम्यां विधौ मृगशिरःस्थिते । सिद्धानन्तचतुष्कोऽगादव्याबाधं पदं प्रभुः॥ ४०१॥ सहस्रं मुनयस्तेऽपि खामिनोंऽशा इवामलाः । तेनैव विधिना प्रापुस्तदेव परमं पदम् ॥ ४०२ ॥ पूर्वलक्षाः कुमारत्वे ययुः पञ्चदश प्रभोः । चतुश्चत्वारिंशद् राज्ये सपूर्वाङ्गचतुष्टयाः॥ ४०३ ॥ प्रव्रज्यायां पूर्वलक्षं चतुष्पूर्वाङ्गवर्जितम् । इत्यायुः पूर्वलक्षाणि षष्टिः श्रीसम्भवप्रभोः॥४०४॥ अजितस्वामिनिर्वाणात् कोटिलक्षेषु त्रिंशति । सागराणां गतेष्वासीनिर्वाणं सम्भवप्रभोः॥४०५॥
तत्राऽथ सम्भवजिनाधिपतेः शरीरसंस्कारमन्यदपि कर्म यथावदिन्द्राः । चक्रुर्विभज्य जगृहुश्च यथार्हमेते, दंष्ट्रा रदान् दिविषदः पुनरस्थिजातम् ॥ ४०६ ॥ खं स्खं स्थानं जग्मुरिन्द्राः सुराश्च, स्वाम्यस्थीनि स्थापयामासुरुच्चैः। अर्चाहेतोर्माणवस्तम्भमूर्ध्नि, तीर्थेशानामर्चनीयं न किं वा ? ॥ ४०७ ॥ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीये पर्वणि श्रीसम्भवस्वामिचरितवर्णनो
नाम प्रथमः सर्गः ॥
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रादू वि० संवृ०॥१व्यरंसीद् विरराम ॥ *8ङ्गना-गावा-क्ष.
* मुखो विभुः सङ्क०॥°ढके ब° संबृ०॥ संल. मो० सह ॥२ तुर्य चतुर्थ मनःपर्यायज्ञानम् ॥
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द्वितीयः सर्गः]
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
द्वितीयः सर्गः। श्रीअभिनन्दनजिनचरितम् ।
गुणदुनन्दनं श्रीमत्संवरोर्वीशनन्दनम् । जगदानन्दनं वन्दे जिनेन्द्रमभिनन्दनम् ॥१॥ तस्य प्रभोभव्यजनमोहनिद्रादिवासुखम् । तत्त्वज्ञानसुधाकुम्भं वक्ष्ये चरितमुज्वलम् ॥ २ ॥
अस्यैव जम्बूद्वीपस्य प्राग्विदेहेषु सुन्दरी । अस्ति श्रीमङ्गलकुलं विजयो मङ्गलावती ॥३॥ 5 तस्यामस्ति समस्तानां रत्नानामाकरोऽब्धिवत् । वसुन्धराशिरोरत्नं पूरनं रत्नसञ्चया ॥ ४ ॥ तस्यामासीन्महाराजो राजराज इव श्रिया । महाबलो नाम बलान्महाबल इवाऽपरः ॥ ५॥ उत्साह-मत्र-प्रभुताशक्तिभिः स व्यभासत । गङ्गा-सिन्धु-रोहितांशानदीभिर्हिमवानिव ॥६॥ स उपायैश्चतुर्भिश्च द्विषद्वर्गविजित्वरैः । चकासामास दशनैरिव निर्जरकुञ्जरः ॥७॥ देवमहन्तमेवैकं साधुमेव गुरुं पुनः । धर्म जिनोपज्ञमेवाऽऽतिष्ठते स स धीनिधिः ॥ ८॥ दान-शील-तपो-भावभेदाद् धर्मे चतुर्विधे । सोरंस्त महतां यस्मात् पुण्यं पुण्यानुबन्धकम् ॥९॥ स विवेकी भवोद्विग्नः सर्वत्रानित्यतां विदन् । नाऽतुष्यच्छ्रावकधर्मे देशमात्रविरामिणि ॥१०॥ ततो विमलसूरीणां पादान्ते दान्तपुङ्गवः । सोऽग्रहीत् सर्वविरतिं व्रतोच्चारणपूर्वकम् ॥ ११ ॥ दुर्जनैर्निन्द्यमानः सन् हृदये मुमुदे चिरम् । साधुभिः पूज्यमानस्तु प्रत्युत त्रपते स सः॥१२॥ न मनागप्युद्विविजे क्लिश्यमानोऽपि पापिभिः । महद्भिः पूज्यमानोऽपि स नोत्सेकमशिश्रियत् ॥ १३ ॥15 उद्यानादिषु रम्येषु नारज्यद् विहरनसौ । सिंह-व्याघ्रादिघोरेषु नारण्येषु व्यरज्यत ॥ १४ ॥ हेमन्ते हिमगहनाः क्षपयामास स क्षपाः । बहिः प्रतिमया तिष्ठन्नालानमिव निश्चलः ॥ १५ ॥ ग्रीष्मे सूर्योष्मभीष्मेऽपि कृतोत्सर्गः स आतंपे । नाऽम्लायद् दिद्युते किन्तु वहिशौचमिवांऽशुकम् ॥१६॥ प्रादृषि क्षमारुहतले तस्था प्रतिमया च सः। मतङ्गज इव ध्यानांनष्पन्दनयनद्वयः॥१७॥ तपांस्येकावली-रत्नावलीप्रभृतिकानि सः । सर्वाण्यनेकशोऽकार्षीदतृप्तोर्थार्जनं यथा ॥ १८॥ 20 विंशतः स्थानकानां च मध्यात् कतिपयैरपि । स्थानकैरर्जयामास तीर्थकुनामकर्म सः॥ १९ ॥ चिरं व्रतं पालयित्वा प्रपन्नानशनः स तु । मृत्वा विमाने विजये महद्धिरभवत् सुरः ॥२०॥
इतश्च जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य भरताभिधे । क्षेत्रेऽस्त्ययोध्येति पुरी पुरन्दरपुरीसमा ॥ २१ ॥ प्रतिवेश्म मणिस्तम्भसङ्क्रान्तो रजनीकरः । तत्र स्थावरशङ्गारादर्शलक्ष्मी प्रपद्यते ॥ २२॥ तत्र क्रीडामयूरीभिराकृष्याऽऽकृष्य लम्बितैः । हारैः कल्पद्रुमायन्ते गृहाणामङ्गणद्रुमाः ।। २३॥ 25 चन्द्रकान्ताश्मनिःस्यन्दैस्तत्रोच्चैश्चैत्यपतयः । उदारनिझरोद्गारगिरिलीलां वितन्वते ॥ २४ ॥
* °जन्तुमो संवृ०॥ १दिवामुखं प्रातःकालः॥ २ पूर्षु-नगरेषु रवं पूरनम् ॥ + नः । अकर्तकं जगदिवाति संवृ• मो० ॥ ३ आतिष्ठते प्रतिजानीते, तदेव सत्यमिति प्रतिज्ञां करोति ॥ ४ अरंस्त रतिं चकार ॥ ५ बृपते लजते ॥ ६ उत्सेकं गर्वम् ॥ ७ अरज्यद् रागं चकार॥ ८ व्यरज्यत विरागं चकार ॥ ९ प्रतिमया विशिष्टध्यानधारणरूपया क्रियया ॥१. आलानं हस्तिबन्धनस्तम्भः ॥ ११ कृतोत्सर्गः कृतकायोत्सर्ग:ध्यानप्रवृत्तये कृतनिश्चलकायः॥ * °पे । धाना यद् सवृ०॥ १२ वदिशौचम् अग्नितापेन पवित्रम् । यथा अंशुकं वस्त्रं वद्विजन्यउष्णोदकेन अधिकं द्योतते स तथा अयमपि ध्यानस्थितः महाबल श्रमणः ग्रीष्मतापेन न म्लायति म किन्तु योतते स॥ १३ एकावली-रत्नावलीशब्दौ तपोविशेषवाचकौ । अनयोश्च वृत्तन्तं तपोरवमहोदधिनामकग्रन्थतो बोध्यम् ॥१४ स्थावरः स्थिरः। तत्र मणिस्तम्भसद्धान्तः चन्द्रः स्थिरदर्पण इव जातः इति भावः।
त्रिषष्टि, ३५
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ द्वितीयं पर्व
चैत्या
बद्धोर्व्यस्तत्र सङ्क्रान्ततारकाः । विभान्ति देवतामुक्तकुसुमाञ्जलिविश्रमाः ।। २५ ॥ तत्र खेलायमानाढ्यललना गृहदीर्घिकाः । निर्यदप्सरसो लक्ष्मीं हरन्ति क्षीरनीरधेः ॥ २६ ॥ तत्र चाssकण्ठमग्नानां गौराङ्गीणां मुखैः क्षणम् । कनकाम्भोजमालिन्यो राजन्ते गृहदीर्घिकाः ॥ २७ ॥ उद्यानैर्विपुलैस्तत्र श्यामायन्ते बहिर्भुवः । अधित्यका भुव इव गिरेर्वारिधरैर्नवैः ॥ २८ ॥ वो घयितस्तत्र महादीर्घिकया भृशम् । धुँसद्दीर्घिकयेवाऽष्टापदशैलो विराजते ॥ २९ ॥ तत्राऽनुवेश्म दातारो दिवि कल्पद्रुमा इव । सर्वदा सुलभा एव दुर्लभाः पुनरर्थिनः ॥ ३० ॥
बभूव तस्यामिक्ष्वाकुकुलक्षीरोदचन्द्रमाः । नृपतिः संवरो नाम सर्वारि श्रीस्वयंवरः ॥ ३१ ॥ तस्याऽऽज्ञासाधिताशेष भूतलस्यैकभूभुजः । द्रविणं कृपणस्येव न कोशान्निर्ययावसिः ॥ ३२ ॥ महाभुजेन तेनोग्रप्रतापप्रभविष्णुना । एकच्छत्रा मही चक्रे द्यौरिवैकनिशाकरा ॥ ३३ ॥ सदृढं वसुधां दधे दिग्यात्रायायिनोऽन्यथा । अस्य सेनाभरेणैषा विशीर्येत सहस्रशः ॥ ३४ ॥ दासीरिव समाकृष्य समाकृष्य दिगन्ततः । श्रियो निगडंयामास स गुणैश्चपला अपि ॥ ३५ ॥ स राज्ञामाहृतैर्दण्डैर्नोत्सेकं जातु शिश्रिये । सरिदम्भोभिरम्भोधिः किं माद्यति मनागपि १ ॥ प्रसन्नचेताः सततमगृध्नुः सोऽप्रमर्द्धरः । ईश्वरे च दरिद्रे च समो मुनिरिवाभवत् ॥ ३७ ॥ प्रजाः शशास धर्माय न पुनः सोऽर्थकाम्यया । द्विषोऽशिपत् प्रजात्राणकृते द्वेषधिया न तु ॥ ३८ ॥ एकतः सर्वकृत्यानि धर्मकृत्यमथैकतः । युगपद् धारयामास स तुलायामिवाऽऽत्मनि ॥ ३९ ॥
३६ ॥
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२७०
सिद्धार्थ नाम शुद्धान्तमण्डनं शुद्धवंशजा । सधर्मचारिणी तस्य बभूव गुणहारिणी ॥ ४० ॥ विलासमन्दया गत्या भृशं मधुरया गिरा । चकासामास सा राजहंसीव मधुराकृतिः ॥ ४१ ॥ तस्यां च पुण्यलावण्यनिम्नगायां मनोरमम् । वक्रनेत्रं पाणिपादं पद्मखण्डमिवाऽशुभ ॥ ४२ ॥ इन्द्रनीलमय वान्तर्विलोचन कुशेशयम् । मुक्तामयीव दन्तेषु वैदुमीवोष्ठपत्रयोः ॥ ४३ ॥ 20 नखेषु शोणाश्ममयीवाङ्गे स्वर्णमयीव च । बभासे चारुसर्वाङ्गमपि रत्नमयीव सा ॥ ४४ ॥ युग्मम् ॥ नगरीणां विनीतेव विद्यानामिव रोहिणी । मन्दाकिनीव सरितां सा सतीनामभूद् धुरि ।। ४५ ।। नाsकुप्यत् प्रणयेनाऽपि सा पत्ये यत् कुलस्त्रियः । पतिव्रतात्वे व्रतवदैतीचारस्य भीरवः ॥ ४६ ॥ तस्यामात्मानुरूपायां प्रेयस्यां प्रेम भूपतेः । अजायताऽविसंवादि नीलीरागसहोदरम् ॥ ४७ ॥ अबाधितौ मदस्थानैः सर्वैर्धर्माविबाधया । दम्पती बुभुजाते तौ तत् तद् वैषयिकं सुखम् ॥ ४८ ॥
तो विमाने विजये त्रयस्त्रिंशतमर्णवान् । जीवो महाबलस्याऽऽयुः सुखमग्नोऽत्यवाहयत् ॥ ४९ ॥ वैशाख सितचतुर्थ्यामभीचिंस्थे निशाकरे । ततश्युत्वा स सिद्धार्थादेवीकुक्षाववातरत् ॥ ५० ॥ ज्ञानत्रयधरे तत्राऽवतीर्णे त्रिजगत्यपि । उयोतोऽभूत् सुखं चाऽऽसीन्नारकप्राणिनामपि ॥ ५१ ॥ सुखसुता तु सा देवी निशायाः प्रहरेऽन्तिमे । मुखे प्रविशतोऽद्राक्षीन्महास्वमांश्चतुर्दश ॥ ५२ ॥
१ विभ्रमः शोभा सौन्दर्यम् । २ निर्यत्यः निस्सरन्त्यः अप्सरसः यस्मात् स निर्यदप्सराः तस्मात् । क्षीरनीरधिविशेषणमिदम् ॥ * रसो (सः) क्रीडां ह° संबृ० ॥ ३ अधित्यकाः पर्वतस्य ऊर्द्धभूमयः ॥ ४ वलयितः वर्तुलीभूतः ॥ ५ घुसद्दीर्घिका देववापी ॥ ६ सर्वारीणां श्रियं स्वयं परानपेक्षया वृणोतीति सर्वारिश्रीस्वयंवरः ॥ ७ कोश: खड्ङ्गावरणम्, 'म्यान' इति प्रसिद्धम्, निधिश्व इति व्यर्थः ॥ ८ दिग्यात्रा विजययात्रा ॥ ९ निगडयामास बन्धनबद्धां चकार ॥। १० अप्रमद्वरः अल्पविषयकषायः ॥ ११ शुद्धान्तः अन्तःपुरम्, राजराज्ञीनिवासस्थानम्, 'रणवास' इति प्रसिद्धम् ॥ १२ कुशे जले शेते इति व्युत्पत्या कुशेशयं कमलम् ॥ १३ विदुमनिर्मिता वैदुभी । विद्रुमः 'परवाळां' इति प्रसिद्धम् गङ्गा ॥ * 'तिचा' मुद्विते ॥ १६ अभीचिनामके नक्षत्रे स्थिते निशाकरे ॥
॥
१४ रोहिणीनाम्नी विद्याधिष्ठात्री देवता ॥ १५ मन्दाकिनी
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द्वितीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
२७१ श्वेतवर्णश्चतुर्दन्तः करी कुन्दद्युतिवृषः । व्यात्तवको हरिलक्ष्मीरभिषेकमनोरमा ॥ ५३॥ पञ्चवर्णा च पुष्पस्रक पूर्णश्च रजनीकरः । द्योतमानश्च मार्तण्डः किङ्किणीमालितो ध्वजः॥५४॥ पूर्णकुम्भश्च सौवर्णः पद्मच्छन्नं महासरः । उत्तरङ्गः सरिन्नाथो विमानं च मनोरमम् ॥ ५५ ॥ रुचिरो रत्नपुञ्जश्च निधूमश्च विभावसुः । प्रबुद्धा खामिनी स्वमानेतान् राखे शशंस च ॥ ५६ ॥ एभिः स्वमैस्तव देवि! भावी त्रिजगदीश्वरः । नूनं सूनुरिति स्वमान् पार्थिवोऽपि व्यचारयत् ॥ ५७ ॥ 5 इन्द्रा अपि समेत्यैवं स्वमार्थ व्याचचक्षिरे । चतुर्थस्तीर्थनाथस्ते देवि! सूनुभविष्यति ॥ ५८ ॥
तं देव्यपि निशाशेषं जाग्रत्येवाऽत्यवाहयत् । निद्रा दूरं ययौ तस्या हर्षेणेवाऽपहस्तिता ॥ ५९॥ सिद्धार्थास्वामिनीकुक्षौ गर्भः सोऽथ दिने दिने । पद्मकोशे बीजकोश इव गूढमवर्धत ॥६०॥ सिद्धार्था स्वामिनी गर्भ सुखेन तमधारयत् । तादृशानामवतारः सुखाय जगतोऽपि हि ॥६१॥ ततो नवसु मासेषु दिनेष्वर्धाष्टमेषु च । माघशुक्लद्वितीयायामभीचिस्थे क्षपाकरे ॥ ६२॥ 10 सिद्धार्था स्वामिनी सूनुमनूनं तेजसा रवेः । सुखेन सुषुवे स्वर्णवर्ण प्लवगलाञ्छनम् ॥ ६३ ॥ लोकत्रयेऽपि युगपदुझ्योतोऽभूत् तदा क्षणम् । क्षणं च सौख्यमुत्पेदे नारकप्राणिनामपि ॥ ६४ ॥ षट्पञ्चाशद् दिक्कुमार्यः स्वस्वस्थानादुपेत्य ताः । देव्याः सूनोश्च विदधुः सूतिकर्म यथोचितम् ॥ ६५ ॥ विज्ञायाऽऽसनकम्पेन शक्रोऽर्हजन्म तत् तदा । आययौ पालकारूढः स्वामिवेश्माऽमरैः सह ॥ ६६ ॥ शको विमानादुत्तीर्य प्राविशत् स्वामिवेश्म तत् । तत्र च स्वामिनं स्वामिजननी च नमोऽकरोत् ॥६७॥15 दत्त्वाऽपस्वापनी देव्याः पार्श्वे सौधर्मवासवः । निधायाऽर्हत्प्रतिच्छन्दं पञ्चरूपोऽभवत् स्वयम् ॥ ६८॥ एकः शक्रः प्रभुं दधेऽन्यश्छत्रं द्वौ च चामरे । कुलिशं नर्तयन्नन्यो नृत्यन्निव ययौ पुरः ॥ ६९॥ प्राप मेरावतिपाण्डुकम्बलां स क्षणाच्छिलाम् । तत्सिंहासनमध्यास्त शक्रोऽङ्कारोपितप्रभुः ॥ ७॥
तत्राऽच्युतादयोऽपीन्द्रास्त्रिषष्टिः सपरिच्छदाः । समेत्याऽस्पयन् नाथमम्भस्कुम्भैर्यथाविधि ॥ ७१॥ पञ्चमूर्तीभूयेशानोऽप्यङ्के स्वामिनमादधे । एकश्छत्रं चामरे द्वौ शूलमन्यः पुरःसरः ॥७२॥ 20 विचक्रे स्फाटिकानुस्णश्चतुरो दिक्चतुष्टये । तच्छृङ्गोत्थैर्जलैः शक्रोऽनपयत् परमेश्वरम् ॥ ७३ ॥ प्रभुं विलिप्य सम्पूज्य वस्त्रालङ्करणादिना । उत्तार्याऽऽरात्रिकं चेत्थं शक्रः प्राञ्जलिरस्तवीत् ॥ ७४ ॥
स्वामिश्चतुर्थतीर्थेश! चतुर्थारनभोरवे! । चतुर्थपुरुषार्थश्रीप्रकाशक! जय प्रभो ॥ ७५ ॥ चिरानाथेन भवता सनाथमधुना जगत् । विवेकचौरैर्मोहाद्यैर्नैवोपद्रोष्यते क्वचित् ॥ ७६ ॥ पादपीठलुठन्मूर्ध्नि मयि पादरजस्तव । चिरं निविशंतां पुण्यपरमाणुकणोपमम् ॥ ७७ ॥ मदृशौ त्वन्मुखासक्ते हर्षवाष्पजलोर्मिभिः । अप्रेक्ष्यप्रेक्षणोद्भूतं क्षणात् क्षालयतां मलम् ॥ ७८ ॥ त्वत्पुरो लुठनैर्भूयान्मद्भालस्य तपस्विनः । कृतासेव्यप्रणामस्य प्रायश्चित्तं किंणावलिः ॥ ७९ ॥ मम त्वद्दर्शनोद्भूताश्चिरं रोमाञ्चकण्टकाः । नुदन्तां चिरकालोत्थामसद्दर्शनवासनाम् ॥ ८०॥ त्वद्वत्रकान्तिज्योत्स्नासु निपीतासु सुधाविव । मदीयैर्लोचनाम्भोजैः प्राप्यतां निर्निमेषता ॥ ८१ ॥ त्वदास्यलासिनी नेत्रे त्वदुपास्तिकरौ करौ । त्वद्गुणश्रोतृणी श्रोत्रे भूयास्तां सर्वदा मम ॥ ८२॥ 30 कुण्ठाऽपि यदि सोत्कण्ठा त्वद्गुणग्रहणं प्रति । ममैषा भारती तर्हि वस्त्येतस्यै किमन्यया? ॥८३ ॥ तव प्रेष्योऽसि दासोऽस्मि सेवकोऽस्म्यसि किङ्करः। ओमिति प्रतिपद्यस्व नाथ! नातः परं ब्रुवे॥८४॥
स्तुत्वैवं पञ्चधाभूयेशानादादाय च प्रभुम् । प्राग्वच्छत्रादिभृच्छकः स्वामिवेश्म क्षणाद् ययौ ॥८५॥ १ मालित: शोभितः ॥२ उत्तरङ्गः ऊर्खतरङ्गः ॥ ३ विभावसुः अग्निः ॥ ४ जाप्रती निद्रारहिता ॥ ५अपहस्तिता तिरस्कृता। पनरूपाणि कृत्वा । ७ उक्ष्णः बलीवर्दान् । * चिरं ना संबृ०॥ निवसतां संवृ० ॥ ८ अमेक्ष्यप्रेक्षणम्-अदर्शनीयदर्शनम् । "रुडाणपदं किणः"। उपास्तिः-उपासना, करौ-कर्तारौ। "कौँ ।
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२७२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[तृतीयं पर्व तत्रापस्खापनीमहत्प्रतिबिम्बं च सोऽहरत् । देव्याः पार्श्वे च निदधे तया स्थित्या जगत्पतिम् ॥ ८६ ॥ खामिहात् ततः शक्रो मेरुतोऽन्ये तु वासवाः । पथा यथाऽऽगतेनैव खं खं लोकं ययुः क्षणात् ॥ ८७॥ __राज्ञाऽपि विदधे प्रातः सूनुजन्मोत्सवो महान् । हर्षस्यैकातपत्रत्वजनकः सकले जने ॥ ८८॥
कुलं राज्यं पुरी चाऽत्राऽभ्यनन्दद् गर्भगे हि तत् । अभिनन्दन इत्यस्य पितरौ नाम चक्रतुः॥८९॥ 5 शक्रसङ्क्रमितसुधां स्वस्मादङ्गुष्ठकात् पिबन् । पाल्यमानो द्युधात्रीभिः क्रमेण ववृधे प्रभुः ॥ ९०॥ सुरा-ऽसुरकुमारैश्च चित्रक्रीडनपाणिभिः । विचित्रक्रीडया क्रीडन् बाल्यं स्वाम्यत्यवाहयत् ॥ ९१॥
उद्यानपादप इव वसन्तमिव यौवनम् । सर्वाङ्गशोभाजनके पाप स्वाम्यभिनन्दनः ॥९२॥ सार्धधन्वत्रिशत्युच्चो जानुलम्बिभुजो बभौ । सदोलादुरिवाऽऽबद्धदोलायष्टिद्वयः श्रियः ॥ ९३ ॥ भालगण्डस्थलेनाऽर्धचन्द्रशोभाभिभाविना । मुखेन च बभौ स्वामी पूर्णेन्दुश्रीविडम्बिना ॥ ९४ ॥ स्वर्णशैलशिलोरस्कः पीनस्कन्धः कृशोदरः । एणीजो जगन्नाथः कूर्मोनतपदोऽशुभत् ॥ ९५ ॥ विषयेषु निरीहोऽपि भोग्यं कर्म निजं विदन् । पितृभ्यां प्रार्थितो राजपुत्रीः प्रभुरुपायत ॥ ९६ ॥ क्रीडोद्यान-सरो-वापी-शिलादिषु यदृच्छया । स रामाभिः समं रेमे ताराभिरिव चन्द्रमाः ॥ ९७ ॥ इत्थं च जन्मतः स्वामी सौख्यमनोऽहमिन्द्रवत् । पूर्वलक्षद्वादशकं गमयामास सार्धकम् ॥ ९८॥ अनुनीय न्यधाद् राज्येऽभिनन्दनविभुं ततः । स्वयं तु संवरनृपः प्रव्रज्याराज्यमाददे ॥ ९९ ॥ शशास लीलया स्वामी ग्राममेकमिवावनिम् । त्रिजगत्राणशौण्डस्य तस्यो-शासनं कियत् १ ॥ १० ॥ सार्धाः षट्त्रिंशतं पूर्वलक्षा अष्टाङ्गसंयुताः । निनाय राज्यं कुर्वाणो जगन्नाथोऽभिनन्दनः ॥ १०१॥ __अथेयेष प्रभुदीक्षां ते च लोकान्तिकामराः । सचिवा इव भावज्ञा एत्य व्यज्ञपयन्निति ॥ १०२ ॥ अलं संसारवासेन नाथ! तीथे प्रवर्तय । संसारसिन्धुं येनाऽन्येऽप्युत्तरन्ति दुरुत्तरम् ॥ १०३॥
लोकान्तिकेषु देवेषु विज्ञपय्य गतेष्विति । प्रारेमे वार्षिकं दानं निर्निदानं जगत्पतिः ॥ १०४ ॥ 20 खामिनो ददतो द्रव्यमानीयाऽऽनीय जृम्भकाः । शक्रादिष्टकुबेरेण प्रेरिताः पर्यपूरयन् ॥१०५॥
सांवत्सरिकदानान्ते चतुःषष्ट्याऽपि वासवैः । दीक्षाभिषेको विदधे विधिवजगदीशितुः ॥ १०६॥ कृताङ्गराग आमुक्तदिव्यांशुकविभूषणः । आरोहच्छिविकां नाथोऽर्थसिद्धां खार्थसिद्धये ॥ १०७ ॥ आदावुत्क्षिप्तया मत्यैरमत्येस्तदनन्तरम् । तया शिबिकया नाथः सहस्राम्रवणं ययौ ॥१०८॥ तत्र चोत्तीर्य तत्याज भगवान् भूषणादिकम् । तदंसंदेशे निदधे देवदृष्यं च वासवः॥१०९॥ माघस्य शुक्लद्वादश्यामभीचौ पश्चिमेऽहनि । कृतषष्ठः प्रभुः केशानुद्देधे पञ्चमुष्टिना ॥ ११०॥ शक्रः प्रतीष्य चिकुरानुत्तरीयाञ्चलेन तान् । क्षणेन गत्वा क्षीरोदेऽक्षिपद् भूयोऽपि चाऽऽगमत् ॥११॥ सुरा-ऽसुर-नृणां शक्रस्तुमुलं निषिषेध च । प्रतिपेदे च चारित्रं स्वामी सामायिकं पठन् ॥ ११२ ॥ मनःपर्ययसंज्ञं च तुयें ज्ञानमभूद् विभोः । नारकाणामपि सुखं तदा क्षणमजायत ॥ ११३॥ त्यक्त्वाऽङ्गमलवद् राज्यं सहस्रं पृथिवीभुजः । जगृहुः स्वामिना साधं प्रव्रज्यां मोहीतनीम् ॥११४ ॥
अपस्वापनी नाम विशेषरूपा निद्रा, यया जनः प्रत्यक्षमपि न किमपि जानाति, मूर्छित इव भास्ते । * स्वं स्थानं य सङ्घ०॥ २ चित्राणि विविधानि क्रीडनानि रमणकानि पाणी करे येषां तैः सह । रमणकं रमणसाधनम्, भाषा 'रमकडं। ३ दोलासहितो वृक्षः सदोलादुः । दोला हिन्दोलनकः, भाषायां 'हिंडोळी-हिंचको'। ४ निरीहः-आशातृष्णारहितः । ईहा माम लोभः गृद्धिः आसक्तिः। ५ उपायत विवाहं चकार । ६ इयेष अभिलाषं चकार । ७निर्निदानम् आशंसारहितम् । निदानं नाम आकाङ्क्षा आसक्तिः। 4 मुक्त नाम शरीरे यथास्थानं योजितम् । आ समन्तात् मुक्तं शरीरे धारितं-परिहितम् । ९ उत्क्षिता धृता, भाषायां 'धरेली-वहन करेली' । १० तद+अंस-तदंस, अंसो नाम स्कन्धः बाहुमूलम् । ११ दृष्यं वस्त्रम् । १२ उहः उत्पाटयामास । १३ प्रतीष्य प्रतिगृह्य । १४ चिकुराः केशाः। १५ तुर्य चतुर्थ मनःपर्यायज्ञानम् । १६ मोहनातनी मोहनीयकर्मनाशनीम् ।
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द्वितीयः सर्गः] त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
२७३ प्रभुं नत्वा ततः शक्रोऽन्येऽपीन्द्राः सपरिच्छदाः । स्थानं निजनिजं जग्मुः प्रावृषि प्रोषिता इव ॥ ११५॥
द्वितीयेऽहन्ययोध्यायामिन्द्रदत्तस्य भूभुजः । सदने विदधे स्वामी परमान्नेन पारणम् ॥ ११६ ॥ वसुधारा पुष्पवृष्टिर्वृष्टिर्गन्धोदकस्य च । खे दुन्दुभिध्वनिश्चलोत्क्षेपश्च विदधेऽमरैः ॥ ११७ ॥ अहो! दोनमहो! दानं सुदानमिति चोच्चकैः । सुँघुषे हर्षविवशैः सुरा-ऽसुर-नरैस्तदा ॥ ११८॥ ततोऽन्यत्र ययौ स्वामी स्थाने च स्वामिपादयोः । रत्नपीठं व्यधादिन्द्रदत्तोऽर्चितुमनाः सदा ॥११९॥ 5 छद्मस्थो व्यहरत् स्वामी सहमानः परीषहान् । अष्टादश समा यावद् विविधाभिग्रहोद्यतः॥ १२० ॥
विहरन्नन्यदा नाथः सहस्राम्रवणं ययौ । कृतषष्ठः प्रियालस्याऽधोऽस्थात् प्रतिमया ततः ॥१२१॥ द्वितीयशुक्लध्यानान्ते घातिकर्मक्षये सति । पौषशुक्ल चतुर्दश्यामभीचिस्थे निशाकरे ।। १२२ ॥ अमलं केवलज्ञानमाविरासीजगत्पतेः । नारकाणामपि बाधानिषेधनमहौषधम् ॥ १२३॥ चतुःषष्टिरथैत्येन्द्रा विधिवद् विदधुः प्रभोः । उच्चैः समवसरणं देशे योजनमात्रके ॥ १२४ ॥ 10 देवैः सञ्चार्यमाणेषु स्वाब्जेषु क्रमौ दधत् । स्वामी समवसरणं प्रांगद्वारा प्राविशत् ततः ॥ १२५॥ स धनुर्दिशतीकं तु गव्यूतद्वयमुच्छ्रितम् । तत्र प्रदक्षिणीचक्रे चैत्यवृक्षं जिनेश्वरः ॥ १२६॥ नमस्तीर्थायेति वदन् देवच्छन्दस्य मध्यतः । सिंहासनमलचके प्राङ्मुखः परमेश्वरः ॥ १२७ ॥ ततश्चतुर्विधः सङ्घः ससुरा-ऽसुर-मानुषः । सम्प्रविश्य यथाद्वारं यथास्थानमुपाविशत् ॥ १२८॥ भगवन्तं नमस्कृत्य शक्रो विरचिताञ्जलिः । रोमाञ्चितवपुः खामिस्तवनं प्रास्तवीदिति ॥ १२९ ॥ 15 __मनो-वचः-कायचेष्टाः कष्टाः संहृत्य सर्वथा । श्लथत्वेनैव भवता मनःशल्यं वियोजितम् ॥ १३०॥ संयतानि न चाऽक्षाणि नैवोच्छृङ्खलितानि च । इति सम्यक्प्रतिपदा त्वयेन्द्रियजयः कृतः॥१३१ ॥ योगस्याऽष्टाङ्गता नूनं प्रपञ्चः कथमन्यथा । आबालभावतोऽप्येष तव सात्म्यमुपेयिवान् ॥ १३२ ॥ विषयेषु विरागस्ते चिरं सहचरेष्वपि । योगे सात्म्यमदृष्टेऽपि स्वामिन्निदमलौकिकम् ॥ १३३ ॥ तथा परे न रज्यन्त उपकारपरे परे । यथाऽपकारिणि भवानहो! सर्वमलौकिकम् ॥ १३४॥ 20 हिंसका अप्युपकृता आश्रिता अप्युपेक्षिताः । इदं चित्रं चरित्रं ते के वा पर्य युञ्जताम् ? ॥ १३५॥ तथा समाधौ परमे त्वयाऽऽत्मा विनिवेशितः। सुखी दुःख्यसि नामीति यथा न प्रतिपन्नवान् ॥ १३६ ॥ ध्याता ध्यानं तथा ध्येयं त्रयमेकात्मतां गतम् । इति ते योगमाहात्म्यं कथं श्रद्धीयतां परैः॥ १३७॥ _स्तुत्वैवं विरते शके स्वामी गम्भीरया गिरा । आयोजनविसर्पिण्या पारेभे देशनामिति ।। १३८ । संसारोऽयं विपत्खानिरसिन् निपततः सतः । पिता माता सुहृद् बन्धुरन्योऽपि शरणं नहि ॥ १३९॥ 25 इन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्यत्र यन्मृत्योर्यान्ति गोचरम् । अहो! तदन्तकातङ्के कः शरण्यः शरीरिणाम् ॥१४॥ पितुर्मातुः स्वसुतुस्तनयानां च पश्यताम् । अत्रोणो नीयते जन्तुः कर्मभिर्यमसद्मनि ॥ १४१॥ शोचन्ति वजनानन्तं नीयमानान् स्वकर्मभिः । नेष्यमाणं तु शोचन्ति नाऽऽत्मानं मूढबुद्धयः॥१४२ ॥ संसारे दुःखदावाग्निज्वलज्वालाकरालिते । वने मृगार्भकस्येव शरणं नास्ति देहिनः ॥ १४३ ॥ अष्टाङ्गेनाऽऽयुर्वेदेन जीवातुभिरथाऽगदैः । मृत्युञ्जयादिभिर्म त्रैस्त्राणं नैवाऽस्ति मृत्युतः ॥ १४४ ॥ 80 खड्गपञ्जरमध्यस्थश्चतुरङ्गचमूवृतः । रङ्कवत् कृष्यते राजा हठेन यमकिङ्करैः ॥ १४५॥ यथा मृत्युप्रतीकारं पशवो नैव जानते । विपश्चितोऽपि हि तथा धिक् प्रतीकारमूढताम् ॥ १४६ ॥ येऽसिमात्रोपकरणाः कुर्वते क्ष्मामकण्टकाम् । यमधूभङ्गभीतास्तेऽप्यास्ये निदधतेऽङ्गुलीः ॥१४७॥
प्रोषिताः प्रवासिनः। २ चेलं वस्त्रम् , उरक्षेपः ऊर्ध्वतःक्षेपणम् । * °दानं महादानं संवृ०॥ ३ जुघुषे उच्चैः घोषणा विहिता। + "वलं ज्ञा° संवृ० ॥ ४ आविः प्रकटम् आसीट बभूव । ५ अथ अनन्तरम् एत्य आगत्य । ६ प्रागद्वारा पूर्वदिशास्थितेन द्वारेण । ७ पर्यनुयुञ्जताम् आचरितुं शक्नुयुः। ८ विसर्पिणी प्रसरणशीला । ९ त्राणरहितः अशरणः निराधारः । १जीवातुः जीवनौषधम् जीवनोपायः। ११ अगदो नाम औषधम् । गदो रोगः, तनाशकारी अगदः। *"स्ति देहिनः संल०॥
विपश्चितो विद्वांसः। ४ प्रतीकारः प्रत्युपायः दुःखहेतुनिराकरणम् ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ तृतीय पर्व
मुनीनामप्यपापानामसिधारोपमैत्रतैः । न शक्यते कृतान्तस्य प्रतिकर्तुं कदाचन ॥ १४८ ॥ अशरण्य हो ! विश्वमराजकमनायकम् । यदेतदप्रतीकारं ग्रस्यते यमरक्षसा ॥ १४९ ॥ aise धर्मप्रतीकारो न सोऽपि मरणं प्रति । शुभां गतिं ददानस्तु प्रतिकर्तेति कीर्त्यते ॥ १५० ॥ प्रव्रज्यालक्षणोपायमादायाक्षय्येशर्मणे । चतुर्थपुरुषार्थाय यतितव्यमहो ! ततः ॥ १५१ ॥ 5 तथा देशनया प्रायो नरा नार्यः प्रवव्रजुः । गणेशा वज्रनाभाद्याः षोडशाग्रमभूच्छतम् ॥ १५२ ॥ अनुयोग - गणानुज्ञे तेषां दत्त्वा यथाविधि । अनुशिष्टिमयीं धर्मदेशनां विदधे प्रभुः ।। १५३ ॥ जन्म-व्यय- ध्रौव्यमयीं स्वाम्येभ्यस्त्रिपदीं जगौ । जग्रन्धुर्द्वादशाङ्गीं ते तत्रिपद्यनुसारतः ॥ १५४ ॥ देशनां पूर्ण पौरुष्यां व्यसृजत् स्वाम्यथो वलिम् । राजानीतं शिवाऽगृह्णन् देवा भूपा जनाः क्रमात् ।। १५५ ।। अथोत्तस्थौ जगन्नाथो मध्यवप्रमुपेत्य च । ईशान दिविस्थते देवच्छन्द के समुपाविशत् ।। १५६ ।। स्वाम्यङ्गिपीठस्थ वज्रनाभो गणधरो व्यधात् । लोकैः केवलिवज्ज्ञातो देशनां श्रुतवली ॥ १५७ ॥ पूर्णद्वितीय पौरुष्यां व्यसृजत् सोऽपि देशनाम् । नत्वाऽर्हन्तं ययुः स्वं स्वं स्थानं सर्वे सुरादयः ॥ १५८ ॥
तीर्थे यक्षेश्वरस्तत्र श्यामो द्विरदवाहनः | दोर्दण्डौ दक्षिणो विभ्रन्मातुलिङ्गाऽक्षत्रिणौ ॥ १५९ ॥ वामौ च धारयन् बाहू नकुला - ऽङ्कुशधारिणौ । सदा सन्निहिता भर्तुरभूच्छासनदेवता ॥ १६० ॥ युग्मम् ॥ कालिका च तथोत्पन्ना श्यामवर्णाम्बुजासना । दक्षिणौ धारयन्ती तु भुजौ वरद - पाशिनौ || १६१ ॥ नागाङ्कुशधरौ बाहू दुधाना दक्षिणेतरौ । पारिपार्श्विक्यभून्नित्यं भर्तुः शासनदेवता ॥ १६२॥ युग्मम् ॥ ततः स्वाम्यप्यतिशयैश्चतुस्त्रिंशद्भिरन्वितः । व्यहरद् बोधयन् जन्तून् ग्रामा-SSकर- पुरादिषु ॥ १६३॥ साधुत्रिलक्षी साध्वीषलक्षी त्रिंशत्सहस्रयुक् । शतानि चाऽष्टनवतिरवधिज्ञानशालिनाम् ॥ १६४ ॥ सहस्रं पूर्विणां सार्धं मनःपर्ययिणां पुनः । एकादश सहस्राणि सपञ्चाशच षट्शती ॥ १६५ ॥ चतुर्दश सहस्राणि केवलज्ञानधारिणाम् । सहस्रा वैक्रियलब्धिमतामेकोनविंशतिः ॥ १६६ ॥ एकादश सहस्राणि वादलब्धिमतां पुनः । लक्षद्वयं श्रावकाणामष्टाशीतिसहस्रयुक् ॥ १६७ ॥ श्राविकाणां पञ्चलक्षी सप्तविंशिसहस्रयुक् । अजायन्त जगद्भर्तुरुर्व्यां विहरतः सतः ॥ १६८ ॥ अष्टाङ्गयष्टादशाब्द्योने पूर्वलक्षेऽथ केवलात् । ज्ञात्वा निर्वाणकालं स्वं सम्मेताद्रिं ययौ विभुः ॥ १६९॥ समं मुनिसहस्रेण प्रपन्नानशनः प्रभुः । मासं तस्थौ सुरैः सेन्द्रैः सेव्यमानो नृपैरपि ॥ १७० ॥ शैलेश ध्यानमास्थाय भवोपग्राहिकर्मभित् । सिद्धानन्तचतुष्कः सन् भगवानभिनन्दनः ।। १७१ ॥ वैशाखस्य सिताष्टम्यां पुष्यस्थे रजनीकरे । समं मुनिसहस्रेणाऽपुनरावृत्त्यगात् पदम् ॥ १७२ ॥ युग्मम् ॥
मारे पूर्वाण लक्षाः सहार्था द्वादशाऽगमन् । लक्षाणि सार्धषट्त्रिंशद् राज्येऽष्टाङ्गयुतानि च ॥ १७३ ॥ अष्टाङ्गोनं पूर्वलक्षं प्रव्रज्यायामिति प्रभोः । पञ्चाशत्पूर्वलक्षाणि यावदायुरजायत ।। १७४ ॥ सम्भवखामि निर्वाणादभिनन्दननिर्वृतिः । समुद्रकोटिलक्षेषु व्यतीतेषु दशस्व भूत् ।। १७५ ।। शक्रचक्रेऽङ्गसंस्कारं स्वामिनो व्रतिनामपि । दंष्ट्रा - रदी -ऽस्थि जगृहुः पूजनाय सुरासुराः ॥ १७६ ॥ कुर्वन्तोऽथाऽष्टाह्निक शाश्वतार्हद्विम्बानां तेऽभ्येत्य नन्दीश्वरान्तः
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स्वं स्वं लोकं सामराजग्मुरिन्द्रास्ते च स्वां स्वां राजधानीं नरेन्द्राः ॥ १७७ ॥ इत्याचार्य श्री हेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीये पर्वणि अभिनन्दनखामिचरितवर्णनो नाम द्वितीयः सर्गः ॥
१ असिधारोपमं महातीक्ष्णं दुष्करम् । २ अक्षय्यं नाम क्षेतुं नाशयितुम् अशक्यम्, यन्न कदापि क्षीणं कर्तुं शक्यते । ३ स्वामी एभ्यः गणधरेभ्यः । * दिक्स्थितो दे° संघृ० ॥ १ पारिपार्श्विकी पार्श्वस्था समीपवासिनी । * लक्षे च के' संघृ० ॥ ४ यतः पुनरागमनं न जायते तद् अपुनरावृत्ति । अपुनरावृत्तिपदं मोक्षः । ५ समुद्रकोटिक्षेषु सागरोपमकोठिलक्षेषु । समुद्र:- सागरोपमं कालविशेष: । 'रदादि ज° खंता० ॥
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तृतीयः सर्गः]
२७५
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
तृतीयः सर्गः। सुमतिखामिचरितम् ।
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नमः सुमतिनाथाय प्रकृष्टज्ञानहेतवे । अपारसंसारमहासागरोत्तारसेतवे ॥१॥ तत्प्रसादात् तच्चरित्रं यथावत् कीर्तयिष्यते । भव्यसंसारिकल्याणतरुकुल्याम्बुसन्निभम् ॥२॥ ___ अत्रैव जम्बूद्वीपेऽस्ति प्राग्विदेहविशेषकः । ऋद्ध्या पुष्कलया राजन् विजयः पुष्कलावती ॥३॥ 5 विचित्रचैत्य-हादिध्वजदन्तुरिताम्बरम् । तत्र शङ्खपुरं नाम पुरमस्त्यतिसुन्दरम् ॥ ४॥ विजयी तत्र विजयसेन इत्यभवन्नृपः । शोभामात्रमभूत् सेना यस्य दोर्वीर्यशालिनः ॥५॥ सकलान्तःपुरस्त्रैणभूषणं तस्य चाऽभवत् । प्रिया सुदर्शना नामेन्दुलेखेव सुदर्शना ॥ ६ ॥ रममाणस्तया साध रत्येव कुसुमायुधः । निनाय कालं विजयसेनः प्रथितवैभवः ॥७॥ __ ययावन्येधुरुधानमुद्यते क्वचिदुत्सवे । सर्वा सपरीवारो जनः सर्वोऽपि नागरः ॥ ८॥ वपुष्मतीव राज्यश्रीश्छत्र-चामरलाञ्छिता | आरुह्य हस्तिनीं तत्राऽगाद् देव्यपि सुदशेना ॥९॥ अपश्यत् तत्र चाऽनर्घ्यभूषणश्रीभिरष्टभिः । दिकन्याभिरिवोपेतां वधूभिः कामपि स्त्रियम् ॥१०॥ उपास्यमानां तां ताभिरप्सरोभिः शचीमिव । दृष्ट्वा सुदर्शना देवी भृशं चित्ते विसिष्मिये ॥११॥ इयं का? पारिपार्श्विक्यः काश्चैतस्या अमूरिति । ज्ञातुं सुदर्शना देवी सौविदल्लं समादिशत् ॥ १२ ॥ तत् पृष्ट्वा सौविदल्लोऽपि समेत्यैवं व्यजिज्ञपत् । श्रेष्ठिनो नन्दिषेणस्य प्रेयसीयं सुलक्षणा ।। १३ ॥ 15 सुलक्षणाया द्वौ पुत्रौ प्रत्येकं च तयोरिमाः । वध्वश्चतस्रो दासीवच्छश्रूशुश्रूषणोद्यताः॥१४॥ श्रुत्वा सुदर्शना तच्च चेतस्येवमचिन्तयत् । इयं हि श्रेष्ठिनी श्रेष्ठा या पुत्रमुखमीक्षते ॥ १५॥ यस्याश्चैताः स्नुषीभूय रूपवत्यः कुलस्त्रियः । नागकन्या इवाऽष्टाऽपि सेवां कुर्वन्ति सर्वदा ॥१६॥ न सूनुर्न स्नुषा यस्या धिम् धिग् मां तामपुण्यकाम् । पत्युहृदयभूताया अपि मे जीवितं वृथा ॥१७॥ इतस्ततः क्षिपन् पाणी समन्ताद् धूलिधूसरः । अङ्के क्रीडति धन्यानां पुत्रो वृक्षे प्लवङ्गवत् ॥ १८॥ 20 असञ्जातफला वल्लय इवाऽतोया इवाऽऽपगाः । निन्दनीयाः शोचनीया योषितस्तनयं विना ॥१९॥ किमन्यैरुत्सवैस्तासां? न यासां स्युर्महोत्सवाः । सूनुजन्म-नाम-चूला-विवाहकरणादयः॥२०॥
विचिन्त्यैवं म्लानKखी पमिनीव हिमादिता । ययौ सुदर्शना देवी सखेदा सदनं निजम् ॥ २१॥ अपि प्रियसखीस्तत्र विसृज्य शयनीयके । निःसहा मुक्तनिःश्वासा व्याधितेव पपात सा ॥ २२ ॥ नाऽमुक्त न बभाषे च प्रतिकर्म च नाऽकरोत् । तस्थौ किन्तु मनःशून्या रत्नेपाञ्चालिकेव सा ॥ २३ ॥ 25 तां तथावस्थितां ज्ञात्वा परिवारमुखान्नृपः। उपेत्यैवमभाषिष्ट प्रेमपेशलया गिरा ॥ २४ ॥ स्वाधीने मय्यपि सदा किमपूर्ण समीहितम् ? । देवि! ताम्यसि येनैवं हंसीव पतिता मरौ ॥ २५॥ किमाधिर्वाधते कोऽपि? व्याधिर्वा कोऽपि नूतनः। किं कोऽप्याज्ञां ललचे ? किं दुःखमं दृष्टवत्यसि ? ॥२६॥ बाह्यमाभ्यन्तरं वाऽपि दुर्निमित्तमथाऽभवत् । खेदस्य कारणं ब्रूहि रहस्सं न हि ते मयि ॥ २७ ॥
सुदर्शनापि निःश्वस्येत्यवदद् गद्दाक्षरम् । त्वत्प्रसादात् तवेवाऽऽज्ञां न मे कश्चिदखण्डयत् ॥२८॥ 30 १ कुल्या नाम नदी, अथवा कुल्या जलवाहिनी सारणी । भाषायां 'नीक धोरियो' इति । २ पुष्कलया अतिप्रभूतया । ३ राजन् शोभमानः । ४ दोर्-भुजाद्वयम् । ५ सौविदल्लम् अन्तःपुररक्षकं कर्मकरम् । ६ स्रुषा पुत्रवधूः । * °मुखा प० संबृ०॥ • हिमार्दिता शीतपीडिता । ८ व्याधिता म्याधिपीडिता। ९ रक्षनिर्मिता पुत्तलिका इव। १० मरुदेशे जलरहिते शुष्के। लाते किं संब०॥
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२७६ कलिकालसर्पज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ तृतीयं पर्व नाऽऽधि-व्याधी न दुःखम-दुनिमित्ते न चाऽपरम् । तादृक् किमपि बाधायै किन्त्वेकं नाथ! बाधते ॥२९॥ वृथैव राज्यसम्पत्तिवृथा वैषयिकं सुखम् । वृथैव चाऽऽवयोः प्रीतिरदृष्टसुतवत्रयोः ॥ ३० ॥ श्रद्दधाति श्रियः पश्यन् दरिद्रः श्रीमतां यथा । पुत्रान् पुत्रवतां पश्यन्त्यहमप्येवमस्मि हा! ॥३१॥ एकतः सर्वसौख्यानि पुत्राप्तिसुखमन्यतः । मनस्तुलातोलनतो द्वितीयमतिरिच्यते ॥ ३२ ॥ वरं मृगादयोऽरण्ये ये पुत्रपरिवारिताः । असाकं पुत्रहीनानां धिक् तेभ्योऽप्यल्पभाग्यताम् ॥ ३३॥ ___ अथोचे पृथिवीशोऽपि देवि! धीरा भवाऽचिरात् । मनोरथं पूरयिष्ये देवताराधनेन ते ॥ ३४ ॥ विक्रमेण न यत् साध्यं यद् बुद्धीनामगोचरः । यन्मत्राणामविषयस्तत्राणां यच्च दूरतः ॥ ३५ ॥ अन्येषामप्युपायानां यदगम्यं तदप्यलम् । साधयन्ति नृणामर्थं प्रसन्ना देवि! देवताः ॥ ३६ ॥
तद् विद्धि सिद्धमेवाऽर्थममुं मानिनि! किं शुचा ? । कुलदेव्याः पुरः स्थास्याम्येष प्रायेण सूनवे ॥ ३७ ॥ 10 राज्ञी राजैवमाश्वास्य जगाम निजधामतः । कृतशौचः शुचिवेषः कुलदेव्या निकेतनम् ॥ ३८ ॥
अर्चित्वा देवतां तत्र भूपतिर्दृढनिश्चयः । आपुत्रलाभं त्यक्तान-पानवृत्तिरुपाविशत् ॥ ३९॥ उपवासे ततः षष्ठे प्रत्यक्षीभूय देवता । प्रसन्ना व्याजहारैवं वरं वृणु महीपते!॥४०॥ राजा विजयसेनोऽपि देवीं नत्वैवमब्रवीत् । समस्तपुरुषोत्कृष्टं पुत्रं देहि प्रसीद मे ॥४१॥ च्युत्वा दिवः सुरवरस्तव सूनुभविष्यति । एवं वरमदाद् देवी तत्क्षणाञ्च तिरोदधे ॥ ४२ ॥ आख्यद् राजाऽपि तं देव्या देव्या दत्तं वरं वरम् । स्तनितेन बलाकेव मुमुदे तेन देव्यपि ॥४३॥
देव्याः सुदर्शनायास्तु स्नाताया अपरेऽहनि । दिवो महर्द्धिको देवश्युत्वा कुक्षाववातरत् ॥ ४४ ॥ तदा च ददृशे देव्या सुप्तया प्रविशन् मुखे । एकः केसरिकिशोरः कुङ्कुमारुणकेसरः॥४५॥ उत्थाय शयनीयाच सत्वरं भीतभीतया । तया निजगदे राज्ञे स्वास्ये सिंहप्रवेशनम् ॥ ४६॥ राजाऽप्यूचे विक्रमी ते भावी सिंह इवाऽऽत्मजः । स्वमेनाऽनेनैतदुक्तं देवीवरतरोः फलम् ॥ ४७॥ तेन स्वमविचारेण राज्ञी भृशममोदत । जजागार च तं रात्रिशेषं शुभकथापरा ॥ ४८ ॥ देव्याः कुक्षाववर्धिष्ट गर्भः सोऽपि दिने दिने । मध्येसरिद्वरावारि सौवर्णमिव वारिजम् ॥ ४९॥ अन्यदा दोहदान् देवी समुत्पन्नान् महीभुजे । शशंसेत्यभयं दित्साम्यहं निःशेषदेहिनाम् ॥ ५० ॥ अारिमाधोपयितुमिच्छामि च पुरादिषु । अष्टाहिकाश्चिकीर्षामि निखिलायतनेषु च ॥५१॥
राजाऽप्यूचे देवि ! देवीवर-स्वमार्थयोरयम् । साधु सत्यापको गर्भप्रभावाद् दोहदस्तव ॥ ५२ ॥ महेच्छस्य हि गर्भस्य वशादिच्छेयमीदशी । प्रतिमायाः प्रभावोऽधिष्ठातृदेवोचितः खलु ॥ ५३ ॥ इत्युक्त्वा भूपतिः सद्यो भीतानामभयं ददौ । घोषयामास चाऽमारिं डिण्डिमास्फालपूर्वकम् ॥ ५४॥ अष्टप्रकारपूजाभिर्दिव्यैः सङ्गीतकैरपि । अष्टाहिकोत्सवानुच्चैः प्रतिचैत्यं चकार च ॥ ५५ ॥
हृष्टा तैर्दोहदैः पूर्णैः पूर्णेन्दुविशदानना । फलं वल्लीव समये पुत्ररत्नमसूत सा ॥ ५६ ॥
यथाकाममथाऽर्थिभ्यश्चिन्तामणिरिवाऽर्थितम् । ददावाघोषणापूर्व नरेश्वरशिरोमणिः ॥ ५७ ॥ 30 राज्ञा महोत्सवश्चक्रे हृदयाब्धिनिशाकरः । नागरैरपि तदनु स्वतोऽपि स्वजनैरिव ॥ ५८ ॥
राज्ञीखमानुसारेण कुमारस्य महीभुजा । विदधे पुरुषसिंह इति नाम मनोरमम् ॥ ५९ ॥
* चरम् संवृ०॥ १ म्तनितं मेघगर्जितम् । । मदिता तेन सङ्घ० ॥ २ साता नाम रजस्वलाधर्म प्राप्य तदनन्तर साता। अपरेद्यवि संबृ० ॥ ३ सरिद्वरा उत्तमनदी, सरिद्वरावारिणः मध्ये इति मध्येसरिद्वरावारि, अव्ययीभावसमासः । " अमारिम् अभयम् अद्य सर्वत्र सर्वे भयरहिता भवन्तु इतिरूपाम् । ५ सत्यापकः सत्यकारकः गर्भप्रभावसंवादकः । ६ असूत जनयामास ।
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तृतीयः सर्गः ]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
२७७
लाल्यमानः स धात्रीभिः कुमारो ववृधे क्रमात् । मातुः पितुः प्रजानां च संममेव मनोरथैः ॥ ६० ॥ कला जग्राह सकलाः स इन्दुरिव पार्वणः । प्रापच यौवनं लीलावनं मेकरलक्ष्मणः ॥ ६१ ॥ आत्मानुरूपा रूपेण कलाभिश्च कुलेन च । उपायताऽऽयतभुजः सोऽष्टौ कन्याः क्षमाभुजाम् || ६२ ॥ सुखं वैषयिकं ताभिरप्सरोभिरिवामरः । यथाक्षणं रममाणोऽन्वभूद् विजयसेनभूः ॥ ६३ ॥
ऋतुः साक्षादिव मधुः साक्षान्मधुसखोऽथवा । सोऽगात् क्रीडितुमन्येद्युः क्रीडोद्यानं यदृच्छया ॥ ६४ ॥ 5 तत्रापश्यच्च समवसुतं विनयनन्दनम् । नाम सूरिं जितानङ्गं रूपेण च शमेन च ॥ ६५ ॥ तं तस्य पश्यतः पीतामृतस्येव विलोचने । हृदयं चापराण्यङ्गान्यपि च व्यकसन्निव ॥ ६६ ॥ सोऽथेति दध्यौ वेश्यान्ते सतीत्वस्येव पालनम् । तस्कराणां सन्निधाने निधानस्येव गोपनम् ॥ ६७ ॥ मार्जारयूनामभ्यर्णे पीर्यूषस्येव रक्षणम् । शाकिन्याः प्रातिवेश्मिक्ये स्वस्येव क्षेमकारिता ॥ ६८ ॥ रूपस्याप्रतिरूपस्य वयसो मध्यमस्य च । उन्मादहेतावुद्येऽमुष्याहो ! व्रतधारणम् ।। ६९ ।। त्रिभिर्विशेषकम् ॥ 10 हिमं सह्येत हेमन्ते ग्रीष्मे च तपनातपः । झञ्झावातोऽपि वर्षासु न पुनयौवने स्मरः ॥ ७० ॥ तदद्य दिष्ट्या दृष्टोऽयं पुण्यैः पुण्यानुबन्धिभिः । प्रीतिदायी गुरुरिव मातेव च पितेव च ॥ ७१ ॥ कुमारश्चिन्तयित्वैवमुपसृत्य च सत्वरम् । ववन्दे हृदयानन्दं मुनिं विनयनन्दनम् ॥ ७२ ॥ कल्याणकन्दलोद्भेदमेघवृष्टिसमानया । मुनिरानन्दयामास धर्मलाभाशिषाऽथ तम् ॥ ७३ ॥ भूयः कुमारस्तं नत्वा मुनिमेवमभाषत । चित्रीयसे व्रतधरो नवयौवनवानपि ॥ ७४ ॥ विषयाणां विमुखोऽसि वयस्यत्रापि यत् ततः । विद्मस्तेषां दुर्विपाकं किम्पाकानामिव ध्रुवम् ।। ७५ ।। सारमत्र हि संसारे किञ्च मन्ये न किञ्चन । इत्थं तत्परिहारायोर्त्तिष्ठन्ते यद् भवादृशाः ॥ ७६ ॥ संसारतरणोपायं तन्ममापि समादिश । मां नय त्वं खेन पथा सार्थवाह इवाध्वगम् ॥ ७७ ॥ क्रीडार्थमागतेनेह त्वं प्राप्तोऽसि महामुने ! | कर्करान्वेषकेणेव माणिक्यं पर्वतावनी ॥ ७८ ॥ एवमुक्तः कुमारेण मारारिः स महामुनिः । आवभाषे नवाम्भोदघोषगम्भीरया गिरा ॥ ७९ ॥
यौवनैश्वर्य रूपादिमदस्थानानि शान्तये । मात्रिकस्येव भूतानि पदातित्वाय साधनात् ॥ ८० ॥ संसारसिन्धुतरणे यानपात्र मनर्गलम् । भगवद्भिः समाम्नातो यतिधर्मोऽयमुच्चकैः ॥ ८१ ॥ संयमः सूनृतं शौचं ब्रह्माकिञ्चनता तपः । क्षान्तिर्मार्दवमृजुता मुक्तिश्च दशधेति सः ॥ ८२ ॥ प्राणातिपातव्यावृत्तिरूपः संयम ईरितः । मृषावादपरीहारस्वरूपं सूनृतं पुनः ॥ ८३ ॥ शौचं संयमसंशुद्धिरदत्तादानवर्जनात् । उपस्थसंयमो ब्रह्म नवगुप्तिसमन्वितम् ॥ ८४ ॥ निर्ममत्वं शरीरादावप्यकिञ्चनता मता । तपस्तु द्विविधं बाह्यमान्तरं चेति तद् यथा ॥ ८५ ॥ अनशनमौनोदर्यं वृत्तेः संक्षेपणं तथा । रसत्यागस्तनुक्लेशो 'लीनतेति बहिस्तपः ।। ८६ ।। प्रायश्चित्तं वैयावृत्यं स्वाध्यायो विनयोऽपि च । व्युत्सर्गेऽथ शुभध्यानं षोढेत्याभ्यन्तरं तपः ॥ ८७ ॥ क्षान्तिः शक्तावशक्तौ वा सहनं क्रोधनिग्रहात् । मददोषपरीहारो मार्दवं माननिर्जयात् ॥ ८८ ॥ मायाजयादार्जवं वाङ्मनः कायैरवक्रता । मुक्तिश्व तृष्णाविच्छेदो बाह्याभ्यन्तरवस्तुषु ॥ ८९ ॥ इत्थं दशविधो धर्मः संसारोत्तारणक्षमः । जगत्यवाप्यते पुण्यैश्चिन्तामणिरिवानघः ॥ ९० ॥
१ मनोरथसमकालमेव, यथा मनोरथा वर्धमानाः तथा पुत्रोऽपि वर्धमानः । २ मकरलक्ष्मा कामदेवः । ३ 'उपायत' इति क्रियापदम् । ४ आयतभुजः दीर्घभुजः । ५ मधुः वसन्तसमयः । ६ मधुः सखा यस्य स मधुसखः कामदेवः । ७ विकसितानि जातानि । ८ नवप्रसूतगवीक्षीरं पीयूषम्, धारोष्णं पयः अमृतम्, अतः पीयूषं दुग्धम् । ९ आश्चर्य करोषि । १० चेष्टते, प्रयतते इत्यर्थः । * * साधु ते संबृ० । साधने स० ॥ ११ उदरस्य उनता - भोजनसमये एकव्यादिभिः कवलैः उदरं ऊनं रक्षणीयम् । १२ लीनता अङ्गोपाङ्गानां अचञ्चलता । १३ व्युत्सर्गः आत्मशुद्धिप्राप्तये देहादिकं सहायकरूपं आत्मसाधनहेतुं मवाऽपि देहादिपरभावं प्रति उपेक्षावृत्तिः ।
त्रिषष्टि. ३६
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ सृतीयं पर्व श्रुत्वा पुरुषसिंहोऽपि सप्रश्रयमदोऽवदत् । रोरस्येव निधानं मे धर्मोऽयं साधु दर्शितः ॥९१॥ . किन्त्वसौ गृहवासस्थैरनुष्ठातुं न शक्यते । गृहवासो हि संसारतरोदर्दोहदमुत्तमम् ॥ ९२॥ प्रव्रज्यां धर्मराजस्य राजधानी प्रयच्छ मे । भगवन् ! भवदुर्गामवासादुद्विग्नवानहम् ॥ ९३ ॥
अथोचे भगवानेवं सूरिविनयनन्दनः । मनोरथोऽपि ते साधुः साधकः पुण्यसम्पदाम् ॥ ९४ ॥ 5 महासत्त्व ! महावुद्धे ! विवेकिन् ! दृढनिश्चय! । योग्योऽसि बतभारस्य दास्यामस्त्वत्समीहितम् ॥ ९५ ॥
आपृच्छख परं गत्वा पितरौ पुत्रवत्सलौ । यतस्तावेव जगति गुरू प्रथमतो नृणाम् ॥ ९६ ॥ ततः स गत्वा पितरौ प्रणम्य च कृताञ्जलिः । मां व्रतायानुमन्येथामेवमुच्चैर्व्यजिज्ञपत् ॥ ९७ ॥ ___ इत्यूचतुश्च तौ युक्ता प्रव्रज्या वत्स! किन्विह । उद्वोटव्यः पञ्चमहावतभारोऽतिदुर्वहः ॥ ९८॥
निर्ममत्वं स्वदेहेऽपि विरती रात्रिभोजनात् । द्विचत्वारिंशता दोर्मुक्तः पिण्डश्च भोजने ॥ ९९ ॥ 10 नित्योद्युक्तो निर्ममश्चाकिञ्चनो गुणतत्परः । धारयेत् समितीः पञ्च तिस्रो गुप्तीश्च सर्वदा ॥१०॥
मासादिकाश्च प्रतिमा विधातव्या यथाविधि । अभिग्रहा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावानुगा अपि ॥ १०१॥ यावजीवितमस्नानं भूशय्या केशलुश्चनम् । शरीरस्याप्रतिकर्म वासो गुरुकुले सदा ॥ १०२ ॥ परीषहोपसर्गाणां सहनं सानुमोदनम् । अष्टादशानां शीलाङ्गसहस्राणां च धारणम् ॥ १०३ ॥ प्रव्रज्यायामुपात्तायां सुकुमार कुमारक! । तदेते लोहचणकाचर्वणीया निरन्तरम् ॥ १०४॥ बाहुभ्यां तरणीयोऽयमपारो मकराकरः । निशातखड्गधारासु कार्य चक्रमणं क्रमैः ॥ १०५ ॥ पातव्या ज्वलनज्वाला मेरुस्तोल्यस्तुलाधृतः । उत्पूरा च प्रतिश्रोतस्तरणीया सरिद्वरा ।। १०६ ॥ एकाकिना च जेतव्यं बलवद्विद्विपदलम् । विधातव्यो भ्रमचक्रे राधावेधश्च खल्वहो ! ॥ १०७ ॥
॥ देशभिः कुलकम् ॥ महत् सत्त्वं महद् धैर्य महती धीर्महद् बलम् । प्रवज्याया उपात्ताया यर्दाऽऽ जन्मापि पालनम् ॥१०८॥ 20 तदाकर्ण्य कुमारोऽपि ससौष्ठवमभाषत । पूज्यपादा एवमेतत् प्रव्रज्येयं यदीदृशी ॥ १०९॥
किन्तु विज्ञपयाम्येकमंशः शततमोऽपि किम् । भववाससमुत्थानां कष्टानामिह दृश्यते ? ॥ ११०॥ तथाहि दूरे तिष्ठन्तु साक्षान्नरकवेदनाः । वचनैर्दुर्वचा एव दुःश्रवाः श्रवणैरपि ।। १११ ॥ इहापि दृश्यते लोके तिरश्चामकृतागसाम् । नितान्तं बन्धन-च्छेद-तर्जनाद्यतिदुःसहम् ॥ ११२ ॥
कुष्ठादिव्याधिजा बाधा गुप्तिवासोऽङ्गकर्तनम् । त्वचनं ज्वालनं शीर्षच्छेदादि च नृणामपि ॥ ११३॥ 25 विप्रयोगः प्रियजनैः शत्रुतश्च पराभवः । च्यवनज्ञानजं दुःखं दुःसहं नाकिनामपि ॥ ११४ ॥
तेनैवमुक्तौ पितरौ साधु साध्विति वादिनौ । मुदितावनुमेनाते व्रतादानाय तं ततः ॥ ११५ ॥ सप्रमोदं ततः पित्रा कृतनिष्क्रमणोत्सवः । दीक्षार्थी तं मुनि सोऽगात् फलार्थीव वनस्पतिम् ।। ११६ ॥ आददे मुनिपादान्ते सामायिकमुदीरयन् । प्रव्रज्यां पुरुषसिंहो भवाब्धितरणे तरीम् ॥ ११७ ॥
प्रमादपरिहारेण रक्षेच्छुः सर्वदेहिनाम् । स दृढं पालयामास प्रव्रज्यां राज्यवन्नृपः॥ ११८ ॥ 30 विंशतिस्थानकानां च स्थानः कतिपयैरपि । अर्जयामास विशदं तीर्थकृन्नामकर्म सः॥ ११९॥ चिरं विहृत्य कालं च कृत्वाऽनशनकर्मणा । विमाने वैजयन्ते स महर्द्धिरमरोऽभवत् ॥ १२०॥
इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् क्षेत्रे भरतनामनि । विनीतेत्यस्ति नगरी गॅरीय सम्पदास्पदम् ॥ १२१ ॥
रोरः रङ्कः, भाषायर्या रांक'। २ वहनीयः । ३ भिक्षाचर्यायाः द्विचत्वारिंशद् दोषाः, तद्यथा--आधाकर्मिकम् , औद्देशिकम् इत्यादि। ४ असंस्कारः। ५ संयमसाधनायां बाधकरूपाः द्वाविंशतिः परीषहाः क्षुधापिपासादयः: * °च्चक्ररा संवृ०॥ चतुर्भिः कलापकमसंवृ० मो०॥ ६ आ जन्म जीवितपर्यन्तम् ॥ ७ निष्क्रमणं प्रवज्या । ८ नावम् । ९ उत्तमसम्पदा स्थानम् ।
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तृतीयः सर्ग:]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । राजते राजतैस्तत्र प्राकारः कपिशीर्षकैः । सर्वद्वीपान्तरानीतेन्दुविम्बरचितैरिव ॥१२२॥ नानारत्ननिधानं सा रूप्यवप्रेण राजति । रक्षार्थं कुण्डलीभूतशेषेणेव निषेविता ॥ १२३॥ सौधेषु रत्नवलभीसङ्क्रान्तस्तत्र चन्द्रमाः । लिह्यते गृहमार्जारर्दधिपिण्डधिया मुहुः ॥ १२४ ॥ अर्हन् देवो गुरुः साधुरिति क्रीडाशुका अपि । पठन्ति तस्यां शृण्वन्तस्तदेव हि गृहे गृहे ॥ १२५ ॥ प्रतिवासगृहं तत्र दह्यमानागरूद्भवाः । धूमलेखा वितन्वन्ति तमालवनमम्बरे ॥ १२६ ॥ तत्रोद्यानेष्वरघट्टशीकरासारमालिषु । शीतभीत्येव नो जातु प्रविशन्त्यर्करश्मयः ॥ १२७ ॥
इक्ष्वाकुवंशतिलकस्तस्यामासीन्महीपतिः । मेघो नाम महामेघ इव विश्वाभिनन्दकः ॥ १२८ ॥ सदैवोदच्यमानाऽपि कृतार्थीकर्तुमर्थिनः । सिरावारीव ववृधे तस्य श्रीरतिशायिनी ॥ १२९ ॥ देवतामिव तं नेमुः पञ्चाङ्गस्पृष्टभूतलाः । वस्त्रा-ऽलङ्कार-रत्नाद्यैरानच॑श्च महीभुजः॥ १३० ॥ प्रतापः प्रसरंस्तस्य माध्यन्दिन इवाऽर्यमा । द्विषां सङ्कोचयामास देहच्छायामिव श्रियम् ।। १३१॥ 10 शुद्ध्या महत्या शक्त्या च प्रभावेण च भूयसा । चतुष्षष्टेः स इन्द्राणां पञ्चषष्टितमोऽधभात् ॥ १३२ ॥
तस्याऽऽसीन्मङ्गला नाम मङ्गलानां निकेतनम् । सच्छीलकेतना पत्नी कुललक्ष्मीरिवाङ्गिनी ॥१३३॥ पत्युः सा हृदयेऽवात्सीत् तस्याश्च हृदये पतिः । बहिरङ्गस्तयोरासीद् वासो वासगृहादिषु ॥ १३४ ॥ उद्यानादिप्रदेशेऽपि सञ्चरन्ती गृहेऽपि वा । अधिकं देवतातोऽपि भर्तारं ध्यायति स सा ॥ १३५ ॥ रूप-लावण्य-सौभाग्यदासीकृतसुराङ्गना । दासीचक्रे मुखेनेन्दुमपि सा वरलोचना ॥ १३६ ॥ 15 विशदे रूप-लावण्ये तस्याश्चातिशयान्विते । परस्परमभूष्येतामङ्गुलीय-मणी इव ॥ १३७ ॥ पौलोम्येव महेन्द्रस्य नरेन्द्रस्य तया समम् । उपभुञ्जानस्य भोगानभवत् प्रीतिरक्षया ॥ १३८ ॥
इतः पुरुषसिंहस्य वैजयन्तविमानगः । जीवः स्वायुस्त्रयस्त्रिंशदब्धिसङ्ख्यमपूरयत् ॥ १३९ ।। श्रावणस्याथ शुक्लायां द्वितीयायां मघागते । मृगाङ्के मङ्गलादेव्याः कुक्षाववततार सः॥१४॥ ईक्षाश्चके तदानीं च तीर्थजन्मसूचकान् । गजादीन् मङ्गलादेवी महास्वमांश्चतुर्दश ॥ १४१॥ 22 भुवनत्रितयाधारभूतं गर्भ दधार तम् । निगूढं मङ्गला देवी निधानमिव मेदिनी ॥ १४२ ॥
इतश्च कश्चिदप्याढ्यस्ततः पुर्या वणिज्यया । सदृग्भार्याद्वययुतो दूरदेशान्तरं ययौ ॥ १४३ ॥ तस्य मार्गस्थितस्यैवैकस्यां समभवत् सुतः । उभाभ्यां च सपत्नीभ्यां निर्विशेषमवर्यत ॥ १४४ ॥ अर्जयित्वा धनं देशान्तराद् व्यावृत्तवानथ । वर्त्मन्येव विपेदे स देवस्य विषमा गतिः॥१४५॥ तस्य द्वे अपि ते भार्ये उदश्रुवदने शुचा । विरचय्याग्निसंस्कारं चक्राते और्ध्वदेहिकम् ॥ १४६॥ 25 ततः पुत्रश्च वित्तं च मदीये इति भाषिणी । पुत्रमात्रा सहान्या तु मायिन्यकलहायत ॥१४७ ॥ क्षेममेकाऽपरा योगमिच्छन्त्यौ पुत्र-वित्तयोः । अयोध्यामीयतुः शीघ्रं सूनोर्मातृ-विमातरौ ॥१४८॥ तत्र च स्वा-ऽन्यकुलयोधर्माधिकरणेऽपि च । डुढोकाते उभे छिन्नो न तद्वादो मनागपि ॥ १४९ ॥ __ ततस्ते उपतस्थाते विवदन्त्यो नरेश्वरम् । उपवेश्य सभां राज्ञा पृष्टे ते वादकारणम् ॥ १५० ।। ऊचे विमाता वादोऽयमाख्यातः सकले पुरे । किन्त्वेनं नाच्छिदत् कोऽपि कः परव्यसनेऽर्तिमान् ॥१५१॥30 मुंखिनं परसौख्येन परदुःखेन दुःखिनम् । पृथिव्यां धर्मराजं त्वामिदानीमस्म्युपस्थिता ।। १५२॥
शोभते । २ अरघट्टो नाम कृपाद जलनिस्सारणसाधनम् । ३ उदच्यमाना वारंवारं व्याप्रियमाणा, भाषायां 'उलेचाती। ४ मिरा 'सेर' इति भाषायाम् । ५ दिदीपे। ६ देवादपि । ७ भूषिती । ८ इन्द्राणी । ९ अक्षया प्रीतिः । * मानतः संबृ०॥ +णस्य च शु संवृ०॥१० दृष्टवती। ११ गुप्तं यथा स्यात् तथा । १२ अश्रुपूर्णमुखे, द्विवचनमेतत् । १३ मृतस्य मरणतिथी दीयमानं पिण्डोदकादि। १४ कलहं चकार । १५ न्यायमन्दिरे। १६ न्यायलिप्सया समागते । सखितं संवृ०॥ दुखितम् संवृ०॥
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२८० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ तृतीयं पर्व ममौरसोऽयं तनयः सगु वर्द्धितो मया । वित्तं ममैतद् यस्या हि पुत्रस्तस्या धनादिकम् ॥ १५३ ॥ पुत्रमाताऽप्युवाचैवं पुत्रोऽसौ मे धनं च मे । सपत्नी मेऽनपत्याऽसौ लोभेन कलहायते ॥ १५४ ॥ प्राक् पुत्रं पालयन्त्येषा न निषिद्धा मयाऽऽर्जवात् । पादान्ते शायिता स्नेहादुच्छीर्षग्राहिणी ह्यसौ ॥१५५॥ तदुत्तिष्ठस्व निर्णेतुं विवादस्त्वयि तिष्ठते । राज्ञा दृष्टः कुदृष्टो वा निर्णयो ह्यपुनर्भवः ॥ १५६ ॥ ___उभाभ्यामिति विज्ञप्तो जगाद जगतीपतिः । द्वे अप्येते सुसदृश्यावेकतन्तच्युते इव ॥ १५७ ॥ अन्योऽन्यं वैसदृश्ये हि यस्याः सादृश्यभाग् भवेत । तस्याः पुत्रोऽनुमीयेत द्वयोः सदृश एष नु ॥१५८॥ न वक्तुमपि जानाति बाल्यादेषोऽपि दारकः । असौ माता विमाताऽसाविति ज्ञाने तु का कथा? ॥१५९॥ दुनिर्णयोऽद्य चकितस्येत्थं निगदतोऽपि हि । जज्ञे राज्ञोऽथ मध्याह्नो नित्यकृत्यान्तरोचितः ॥ १६० ॥ पारिषद्यैरथेत्यूचे मासैः पद्भिरपि प्रभो! । विवादोऽभेदि नामाभिर्वज्रग्रन्थिरिवाऽनयोः ॥१६१॥ इदानीं नित्यकृत्यानां क्षणो वो माऽतिवर्तताम् । क्षणान्तरे विवादोऽयं विचार्यः स्वामिना पुनः॥१६२॥ एवमस्त्विति राजापि निगद्य व्यसृजत् सभाम् । कृत्वाऽनन्तरकृत्यानि चान्तरन्तःपुरं ययौ ।। १६३ ॥ विज्ञप्तो मङ्गलादेव्या तत्र चैवं महीपतिः । खामिन् ! मध्याह्नकृत्यानामतिवेलाऽभवत् कुतः १ ॥ १६४॥ तयोर्विवादवृत्तान्तो राज्य राज्ञाऽप्यकथ्यत । गर्भप्रभावात् सुमती राज्यप्येवमभाषत ॥ १६५ ॥
स्त्रीणां विवादो निर्णेतुं स्त्रीभिरेव हि युज्यते । तत् करिष्याम्यहं देव ! विवादच्छेदनं तयोः ॥ १६६ ।। 15 राज्ञा सविस्मयं देव्या सममागत्य पर्षदि । आनायिते ततस्ते तु पृष्टे पूर्ववदूचतुः ॥ १६७ ॥
राज्ञी भाषामुत्तरं च विचार्यैवमवोचत । ज्ञानत्रयधरस्तीर्थकरोऽस्त्येष ममोदरे ॥ १६८ ॥ स प्रसूतो जगन्नाथोऽमुष्याशोकतरोस्तले । निर्णयं दास्यते तस्मात् प्रतीक्षेथामुभे अपि ॥ १६९ ॥ ओमित्यूचे विमाता तु माता त्वेवमवोचत । अहमागमयिष्ये न महादेवि ! मनागपि ॥ १७० ॥
सर्वज्ञमाता भवती करोत्वद्यैव निर्णयम् । सपत्नीसात् करिष्यामि नेयत्कालं स्वमात्मजम् ॥ १७१ ॥ 20 ततश्च मङ्गलादेवी निर्णीयेवमभाषत । कालक्षेपासहत्वेन नूनमस्या अयं सुतः ॥ १७२ ॥
विदधात्युभयाधीने परपुत्र-धने यतः । तेनेह कालहरणं विमाता सहते खलु ॥ १७३ ॥ आत्मपुत्रमुभयसात् क्रियमाणं तितिक्षितुम् । अक्षमा कालहरणं सहते जननी कथम् ? ॥ १७४ ॥ भद्रे ! न कालहरणं सहसे यन्मनागपि । तज्ज्ञातं तव पुत्रोऽयं गृहाण स्वगृहं ब्रज ॥ १७५ ॥
एतस्यास्तनयो नायं पालितो लालितोऽपि हि । कोकिलायाः खल्वपत्यं काक्या पुष्टोऽपि कोकिलः॥१७६॥ 25 गर्भप्रभावाद् देव्यैवं विहिते तत्र निर्णये । विसिष्मिये मेरनेत्रा परिषत् सा चतुर्विधा ॥ १७७ ॥ तदा ते जग्मतुर्वेश्म सूनोर्मातृ-विमातरौ । हृष्ट-म्लाने कमलिनी-कुमुदिन्याविवोषसि ॥ १७८ ।।
पाधामजनयन् देव्या लघूकरणवानिव । क्रमेण ववृधे गर्भः शुक्लपक्ष इवोडुपः ॥ १७९ ॥ ततो नवसु मासेषु दिनेष्वर्धाष्टमेषु च । वैशाखविशदाष्टम्यां मधास्थे च निशाकरे ॥ १८०॥ सुवर्णवर्ण क्रौञ्चाङ्क मृगाङ्कमिव पूर्वदिक् । मङ्गलाखामिनी सूनुरत्नं प्रसुषुवे सुखम् ॥ १८१ ॥
१ रक्षन्ती। २ यस्या मया पादान्ते स्थानं दत्तं सा मम उच्छीर्ष ग्रहीतुमुथता। ३ चेष्टस्व । * भ्यामपि वि० संवा ४ वृन्तं भाषायां 'बींट'। ५ असमानतायाम् । ६ मा गच्छतु। ७ अन्तःपुरमध्ये । ८योग्यसमयातिक्रमणम् । ९ 'समतिः, इति भगवन्मातुः सुमङ्गलाया विशेषणम् । स्त्रीणामेव संल. मो०॥ १० भाषा पूर्वपक्षः, उत्तरम् उत्तरपक्षः । ११ प्रतीक्षा करिष्ये । १२ सपत्नीवशे करिष्यामि । १३ उभयाधीनम् । १४ क्षत्रियपरिषद् गृहपतिपरिषद् ब्राह्मणपरिषद् ऋषिपरिषद इत्येवं चतुर्विधा परिषत् सभा । राजप्रश्नीयोपाङ्गे पृ. ३२१ कण्डिका १८४ (गूर्जर.)। १५ मातःकाले। १६ चातुर्यबानिय शुभम् संवृ०॥
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तृतीयः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । त्रैलोक्ये क्षणमुद्दयोतो नारकाणां क्षणं सुखम् । तदानीमभवच्छकादीनां चाऽऽसनकम्पनम् ॥ १८२ ॥ दिकुमार्यस्तत्र चक्रुः सूतिकर्म यथोचितम् । शक्रश्च मङ्गलातल्यात् सुमेरावनयत् प्रयुम् ।। १८३ ॥ शक्रावर्तिनं नाथमिन्द्रास्तत्राऽच्युतादयः । त्रिषष्टिः स्वपयामासुस्तीाम्भोभियेथाक्रमम् ।। १८४ ॥ ईशानाङ्के निवेश्येशं शक्रोऽप्यस्लपयजलैः । विकृतस्फाटिकचतुर्वृषशृङ्गविनिर्गतैः ॥ १८५ ॥ विलिप्य पूजयित्वा च वस्त्रा-ऽलङ्करणैः प्रभुम् । आरात्रिकं च प्रोत्तार्य शक्रो भक्त्यैवमस्तवीत् ॥१८६ ॥ 5
देव ! त्वजन्मकल्याणेनापि कल्याणभाग् मही । किं पुनः पादकमलैर्यत्र त्वं विहरिष्यसे ।।१८७॥ त्वदर्शनसुखप्राप्त्या कृतकृत्या दृशोऽधुना । कृतार्थाः पाणयश्चैते भगवन् ! पूजितोऽसि यैः ॥ १८८ ॥ जिननाथ ! तव स्नात्र-चर्चा-ऽर्चादिमहोत्सवः । मन्मनोरथचैत्यस्य चिरात् कलशतां ययौ ॥ १८९ ॥ जगन्नाथ ! प्रशंसामि संसारमपि सम्प्रति । यत्र त्वदर्शनं देव ! मुक्तेरेकं निवन्धनम् ॥ १९० ॥ ऊर्मयोऽपि हि गण्यन्ते खयम्भूरमणोदधेः । तवातिशयपात्रस्य न पुनर्मादृशैर्गुणाः ॥ १९१॥ 10 धमैकमण्डपस्तम्भ ! जगदुद्द्योतभास्कर ! । कृपावल्लीमहावृक्ष ! रक्ष विश्वं जगत्पते ! ॥ १९२ ॥ निवृतेः संवृतद्वारसमुद्घाटनकुञ्चिका । धन्यैः शरीरिभिर्देव ! श्रोष्यते तव देशना ॥ १९३ ॥ मन्मनस्युज्वलादर्शसन्निभे भुवनेश्वर ! । त्वन्मूर्तिनित्यसङ्क्रान्ता भूयान्नितिकारणम् ॥ १९४ ॥
इति स्तुत्वा हरि थमादायोप्लुत्य च क्षणात् । मङ्गलास्वामिनीपार्श्वे मुक्त्वा च स्वाश्रयं ययौ ॥१९५॥ जनन्यास्तत्र गर्भस्थे यदभूच्छोभना मतिः । स्वामिनो नाम सुमतिरित्यकार्षीत् पिता ततः ॥ १९६॥ 15 धात्रीभिरिन्द्रादिष्टामिाल्यमानो जगत्पतिः । शैशवं व्यतिचक्राम प्रतिपेदे च यौवनम् ॥ १९७ ॥ धनुःशतत्रयोत्तुङ्गः पीनस्कन्धो बभौ विभुः । आजानुलम्बिदो शाखः कल्पशाखीव जङ्गमः ॥१९८॥ स्वामिनः स्वच्छलावण्यकल्लोलिन्यां निरन्तरम् । ललनानां लुलन्ति स दृशः शफरिका इस ॥ १९९ ॥ भोग्यं कर्म निजं जानन् पित्रोरप्युपरोधतः । राज्ञां कन्याश्चारुरूपाः पर्यणैपीदथ प्रभुः ॥ २०॥ जन्मतः पूर्वलक्षेषु गतेषु दशसु प्रभुः । भूभुजाऽप्यर्थितोऽत्यर्थं राज्यभारमुपाददे ॥ २०१॥ 20 एकोनत्रिंशतं पूर्वलक्षाः सद्वादशाङ्गिकाः । राज्येऽनैपीत् सुखं स्वामी वैजयन्त इव स्थितः ॥२०२॥
स्वयम्बुद्धो बोधितश्च ततो लोकान्तिकामरैः । दीक्षेच्छुार्षिकं दानमदत्त सुमतिः प्रभुः ॥२०३॥ अन्ते वार्षिकदानस्य वासवैश्वलितासनैः । दीक्षाभिषेको विदधे स्वामिनः पार्थिवैरपि ॥ २०४॥ अथाऽभयकरां नामाध्यारुह्य शिविकां विभुः । सुरा-ऽसुर-नृपोपेतः सहस्राम्रवणं ययौ । २०५ ॥ वैशाखसितनवम्यां पूर्वाह्ने स मघासु भे । प्रात्राजीनित्यभक्तेन सहस्रेण नृपैः सह ॥ २०६॥ 25 उत्पेदे स्वामिनो ज्ञानं मनःपर्ययसंज्ञकम् । अनुजन्मेव दीक्षायाः प्रियमित्रमिवाथवा ॥ २०७॥ दिने द्वितीये विजयपुरे पद्मस्य भूपतेः । सदने विदधे स्वामी परमान्नेन पारणम् ॥ २०८ ॥ वसुधारादीनि पञ्चाद्भुतदिव्यानि चक्रिरे । तत्र देवा रत्नपीठं त्वर्चायै पद्मपार्थिवः ।। २०९ ॥ विविधाभिग्रहधरः सहमानः परीषहान् । वर्षाणि विंशतिं स्वामी विजहार ततो महीम् ॥ २१० ॥
ग्रामा-ऽऽकरप्रभृतिषु विहरन् प्रभुरन्यदा । सहस्राम्रवणं दीक्षाग्रहणस्थानमाययौ ॥२११॥ 30 प्रियङ्गुमूले ध्यानस्थस्यापूर्वकरणात् प्रभोः । क्षपकश्रेण्यारूढस्य घातिकर्माणि तुत्रुटुः ।। २१२ ॥ चैत्रस्य शुक्लैकादश्यां मघास्थे च निशाकरे । स्वामिनः कृतप॑ष्ठस्योत्पेदे केवलमुज्वलम् ॥ २१३ ॥
दोशाखः भुजशाखः। द्वादशपूर्वाङ्गसहिताः । चतुरशीतिलक्षवर्षमितं पूर्वाङ्गम् । ३ विजयन्तनामकविमाने स्थितो देव इव । * तपञ्चम्यां संबृ० मो० ॥४ लघुभ्राता इव । ५ आकराः खनीप्रदेशाः । ६ यत्र तपसि षड्वेला भोजनं न क्रियते। षड्वेलाः भाषायां 'छ टंक' इति । एका वेला तपसः पूर्वम् , चतस्रो बेलाः तपोदिवसद्वये, एका च पारणकदिवसे, इति एवं तपसो नाम
इति सार्थकम् ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ तृतीयं पर्व
तज्ज्ञात्वाssसन कम्पेनाssगत्येन्द्राः ससुरा - ऽसुराः । चक्रुः समवसरणं स्वामिनो देशनाकृते ॥ २१४ ॥ तत्र प्रविश्य प्राग्द्वारा प्रदक्षिण्यकृत प्रभुः । धनुः षोडशशत्यग्रक्रोशोचं चैत्यपादपम् ॥ २१५ ॥ तीर्थाय नम इत्युक्त्वाऽध्यास्त सिंहासनं प्रभुः । प्राङ्मुखो दिक्षु चान्यासु तद्रूपाणि व्यधुः सुराः ॥ २१६ ॥ सङ्घस्याद् यथास्थानं ससुरासुरमानुषः । नमस्कृत्य जगन्नाथं वज्रभृच्चैवमस्तवीत् ॥ २१७ ॥
गायन्निवालिविरुतैर्नृत्यन्निव चलैर्दलैः । त्वगुणैरिव रक्तोऽसौ मोदतेऽशोकपादपः ॥ २९८ ॥ आयोजनं सुमनसोऽधस्तान्निक्षिप्तबन्धनाः । जानुदशीः सुमनसो देशनोर्व्या किरन्ति ते ॥ २१९ ॥ मालव-कैशिकी मुख्यग्राम- रागपवित्रितः । तव दिव्यो ध्वनिः पीतो हर्षोद्रीवैर्मृगैरपि ॥ २२० ॥ तवेन्दुधामधवला चकास्ति चमरावली | हंसालिखि वाडनपरिचर्यापरायणा ।। २२१ ॥ मृगेन्द्रासनमारूढे त्वयि तन्वति देशनाम् । श्रोतुं मृगाः समायान्ति मृगेन्द्रमिव सेवितुम् ॥ २२२ ॥ 10 भासां चयैः परिवृतो ज्योत्स्नाभिरिव चन्द्रमाः । चकोराणामित्र दृशां ददासि परमां मुदम् || २२३ ॥ दुन्दुभिर्विश्वविश्वेश ! पुरो व्योम्नि प्रतिध्वनन् । जगत्याप्तेषु ते प्राज्यं साम्राज्यमित्र शंसति ॥ २२४ ॥ तवोर्द्धमूर्द्ध पुण्यर्द्धिक्रमसब्रह्मचारिणी । छत्रत्रयी त्रिभुवनप्रभुत्वप्रौढिशंसिनी ॥। २२५ ।।
एतां चमत्कारकरी प्रातिहार्यश्रियं तव । चित्रीयन्ते न के दृष्ट्वा नाथ ! मिथ्यादृशोऽपि हि ।। २२६ ।। स्तुत्वैवं विरतेश भगवान् सुमतिप्रभुः । सर्वभाषानुगामिन्या प्रारेभे देशनां गिरा ॥ २२७ ॥ 15 कृत्याकृत्यपरिज्ञानयोग्यतामभ्युपेयुषा । इह स्वकार्यमूढेन न स्थातव्यं शरीरिणा ॥ २२८ ॥ पुत्र-मित्र-कलत्रादेः शरीरस्यापि सत्क्रिया । परकार्यमिदं सर्वं न स्वकार्यं मनागपि ॥ २२९ ॥ एक उत्पद्यते जन्तुरेक एव विपद्यते । कर्माण्यनुभवत्येकः प्रचितीनि भवान्तरे ।। २३० ।। अन्यैस्तेनार्जितं वित्तं भूयः सम्भूय भुज्यते । स त्वेको नरककोडे क्लिश्यते निजकर्मभिः ॥ २३१ ॥ दुःखदावाग्निभीष्मेऽस्मिन् वर्तते भवकानने । वैम्भ्रमीत्येक एवासौ जन्तुः कर्मवशीकृतः ॥ २३२ ॥ इह जीवस्य मा भूवन् सहाया बान्धवादयः । शरीरं तु सहायश्चेत् सुख-दुःखानुभूतिदम् ॥ २३३ ॥ issयाति पूर्वभवतो न याति च भवान्तरम् । ततः कायः सहायः स्यात् सम्फेटमिलितः कथम् १ || २३४ ॥ -san समास सहायाविति चेन्मतिः । नैषा सत्या न मोक्षेऽस्ति धर्मा-धर्म सहायता ॥ २३५ ॥ तस्मादेको भ्रमीति भवे कुर्वन् शुभाशुभे । जन्तुर्वेदयते चैतदनुरूपे शुभाशुभे ॥ २३६ ॥ एक एव समादत्ते मोक्षश्रियमनुत्तराम् । सर्वसम्बन्धिविरहाद् द्वितीयस्य न सम्भवः ॥ २३७ ॥ यद् दुःखं भवसम्बन्धि यत् सुखं मोक्षसम्भवम् । एक एवोपभुङ्गे तन्न सहायोऽस्ति कश्चन ॥ २३८ ॥ यथा चैकस्तरन् सिन्धुं पारं व्रजति तत्क्षणात् । न तु हृत्पाणि-पादादिसंयोजितपरिग्रहः ॥ २३९ ॥ तथैव धन-देहादिपरिग्रहपराङ्मुखः । स्वस्थ एको भवाम्भोधेः पारमासादयत्यसौ ॥ २४० ॥ तत् सांसारिकसम्बन्धं विहायैकाकिना सता । यतितव्यं हि मोक्षाय शाश्वतानन्दशर्मणे ।। २४१ ॥ तां प्रभोर्देशनां श्रुत्वा प्रबुद्धा बहवस्तदा । नरा नार्यश्च निःसङ्गीभूयोपाददिरे व्रतम् ॥ २४२ ॥ चमराद्या गणभृतोऽभूवन् शतमनुत्तमाः । ते भर्तुस्त्रिपदीं प्राप्य द्वादशाङ्गीमसूत्रयन् ॥ २४३ ॥ पूर्णायामादिपौरुष्यां व्यसृजद् देशनां विभुः । चक्रे स्वाम्यङ्घ्रिपीठस्थो देशनां गणभृद्वरः ॥ २४४ ॥ ४ देवाः । ५ जानुप्रमाणाः ।
१ पूर्वदिशास्थितेन द्वारा । २ प्रदक्षिणां चकार । ३ अलयः भ्रमरास्तेषां विरुतैः गुञ्जनैः ।
६ कुसुमानि । ७ सिंहासनम् । ८ भासां चयैः भामण्डलेनेत्यर्थः । ९ नेत्राणाम् । १० म्रियते । ११ सचितानि । १२ विस्तीर्णे | १३ पुनः पुनः भृशं व भ्रमति । सहाय्यस्तु सुख' संबृ० । सहास्त्वे [त ] त् सुख' मो० ॥ १४ विनशनस्वरूपेण मिलित इत्यर्थः 1 १५ परिग्रहः शरीरम् ।
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तृतीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
२८३ द्वितीयपौरुपीप्रान्ते व्यसृजत् सोऽपि देशनाम् । नत्वार्हन्तं ततो जग्मुः स्वं स्वमिन्द्रादयः पदम् ॥२४५॥
तत्तीर्थे तुम्वुरुर्नाम श्वेताङ्गस्तार्क्ष्यवाहनः । दक्षिणौ वरद-शक्तिधरी बाहू समुद्वहन् ॥ २४६ ॥ वामौ बाहू गदाधार-पाशयुक्तौ च धारयन् । सदा सनिहितो भर्तुरभूच्छासनदेवता ॥ २४७॥ युग्मम् ।। तथोत्पन्ना महाकाली स्वर्णरुक् पद्मवाहना । दधाना दक्षिणी बाहुदण्डौ वरद-वाशिनी ॥ २४८ ॥ मातुलिङ्गा-ऽङ्कुशधरौ परौ वाहू च बिभ्रती । भर्तुः शासनदेव्यासीत् सदा सन्निधिवर्तिनी ॥२४९॥ 5
वचनातिशयैः पञ्चत्रिंशता शोभितः प्रभुः । बोधयन् भव्य भविनो विजहार वसुन्धराम् ॥ २५० ॥ साधूनां त्रीणि लक्षाणि सहस्राणि च विंशतिः। साध्वीनां पञ्चलक्षी च सहत्रिंशत्सहस्रिका ॥ २५१ ॥ चतुर्दशपूर्विणां द्वे सहस्र सचतुःशते । एकादश सहस्राणि त्ववधिज्ञानशालिनाम् ॥ २५२ ॥ मनोज्ञानिनामयुतं सपश्चाशचतुःशती । त्रयोदश सहस्राणि केवलज्ञानिनां पुनः ।। २५३ ॥ वैक्रियलब्धिसहस्राण्यष्टादश चतुःशती । अयुतं वादलब्धीनां सपञ्चाशचतुःशती ॥ २५४ ॥ 10 श्रावकाणामुभे लक्षे सैकाशीतिसहस्रके । श्राविकाणां पञ्चलक्षी सहस्राणि च षोडश ॥ २५५ ॥ चतुस्त्रिंशदतिशयान्वितस्य सुमतिप्रभोः । उव्या विहरमाणस्य बभूवेति परिच्छदः ।। २५६ ॥
पूर्वलक्षं द्वादशाझ्या विंशत्यब्द्या च वर्जितम् । आरभ्य केवलोत्पत्तेर्व्यहरत् नुमतिः प्रभुः ॥२५७॥ खं मोक्षकालं ज्ञात्वाऽथ सम्मेतादि ययौ विभुः । समं मुनिसहस्रेण तस्थावनशनेन च ॥ २५८ ॥ मासान्ते क्षेतभवोपग्राहिकर्मा जगत्पतिः । सम्प्राप्तानन्तचतुष्कः शैलेशीध्यानमास्थितः ॥ २५९ ॥ 15 चैत्रस्य सितनवम्यां पुनर्वसुगते विधौ । समं तैर्मुनिभिः स्वामी प्रपेदे पदमव्ययम् ॥ २६० ॥ युग्मम् ॥ .
कौमारेऽयुः पूर्वलक्षा दश राज्ये पुनः प्रभोः । पूर्वलक्षैकोनत्रिंशद् द्वादशाङ्गसमन्त्रिता ॥ २६१ ।। पूर्वलक्षं द्वादशाङ्गन्यूनं व्रतधरस्य तु । चत्वारिंशत्पूर्वलक्षा इत्यायुः सुमतिप्रभोः ॥ २६२ ॥ अभिनन्दननिर्वाणात् सुमतिखामिनिवृतिः । कोटिलक्षेषु नवसु सागराणां गतेष्वभूत् ॥ २६३ ॥
भर्तुः सहस्रयतिनां च तदा शरीरसंस्कारमग्निजनितं विधिवद् विधाय ।। निर्वाणपर्वमहिमानमकार्षुरिन्द्रा नन्दीश्वरान्तरगमंश्च पुनः स्खलोकम् ॥ २६४ ॥ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीय
पर्वणि सुमतिखामिचरितवर्णनो नाम तृतीयः सर्गः॥
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६ ताक्ष्यः गरुडः। * °सन्निहिता भ° संवृ०॥२ सुवर्णकान्तिः। । रौ वामबा संवृ० सङ्घ०॥ ३ भव्यजीवान। परिवार न्ते क्षित संबृ० मो०॥ ५ क्षतंक्षीणम् । ६ पुनर्वसुनक्षत्रम् ।
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२८४
[तृतीयं पर्व
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
चतुर्थः सर्गः। श्रीपद्मप्रभखामिचरित्रम् ।
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वन्दामहे पद्मवर्णं पद्मप्रभजिनेश्वरम् । लीलानिवासं पंद्रायाः पद्मराशिमिव स्थितम् ॥१॥ __ पद्मप्रभजिनेन्द्रस्य चरितं दुरितापहम् । तत्प्रभावादसामान्याद् वक्ष्यामि क्षामधीरपि ॥२॥ धातकीखण्डद्वीपस्य प्राग्विदेहैकमण्डने । वत्साभिधाने विजये सुसीमेत्यस्ति पूर्वरी ॥३॥ तत्राऽपराजितो नाम द्विपद्भिरपराजितः । जितेन्द्रियः समभवद् भूपो धर्म इवाङ्गवान् ॥ ४ ॥ तस्य न्यायः सुहृदभूद् धर्मो बन्धुर्गुणा धनम् । सुहृद्वन्धु-धनान्यासन् बहिरङ्गानि केवलम् ॥५॥ तस्याऽऽर्जवं च शीलं च सत्त्वं चेत्यूर्जिता गुणाः । मिथो भूषणतां जग्मुः पादपस्येव पल्लवाः ॥६॥ अकोपनोऽरीनशिपंदनासक्तोऽन्वभूत् सुखम् । अलुब्धश्च श्रियं दधे स विवेकिशिरोमणिः ॥७॥
अर्हत्प्रवचनसुधां पिवन देव इवान्यदा । स एवं चिन्तयामास तत्त्वनिष्ठेन चेतसा ॥८॥ सम्पदो यौवनं रूपं शरीरं हरिणीदृशः । पुत्र-मित्राणि हाणि दुस्त्यजानि शरीरिणाम् ॥९॥ जीवनप्यदशां प्राप्तः कालधर्मं गतोऽपि वा । एभिस्तु त्यज्यते जन्तुर्विनष्टाण्डमिवाण्डजैः ॥१०॥ एकपादेन फालाभं स्नेहं तेष्वेकपक्षकम् । कुर्वाणो भ्रश्यति स्वार्थाद् धिगहो ! मन्दधीर्जनः ॥ ११ ॥ त्यजन्त्येते न यावन्मां पुण्यपाकक्षयादिह । तावत् पौरुषमालम्ब्य त्यजाम्येतानसंशयम् ॥ १२ ॥ एवं विचिन्त्य सुचिरं विवेकमणिरोहणः । धाराँधिरूढवैराग्यो राज्यं पुत्राय दत्तवान् ॥ १३ ॥ पिहिताश्रवसूरीणां पादपद्मान्तमेत्य सः । उपाददे परिव्रज्यां मोक्षज्यामहारथीम् ॥ १४ ॥ त्रिगुप्तिः पञ्चसमितिर्निर्ममो निष्परिग्रहः । निशितं खड्गधारावच्चिरं सोऽपालयद् व्रतम् ॥ १५ ॥ स-विंशतिस्थानकेभ्यः स्थानः कतिपयैरपि । आर्जयत् तीर्थकृनाम कर्म निर्मलमानसः ॥ १६ ॥ शुभध्यानपरः स्वायुः क्षपयित्वा महामनाः । अवेयकेऽऽभूनवमे महर्द्धिरमरोऽथ सः ॥ १७ ॥
इतश्च जम्बूद्वीपान्तर्वर्षेऽत्र भरताभिधे । कौशाम्बीत्यस्ति नगरी वत्सदेशस्य मण्डनम् ॥ १८॥ तत्रोचतरचैत्याग्रसिंहाभ्यणे परिभ्रमन् । त्रस्यताऽङ्ककुरङ्गेण यातीन्दुर्निष्कलङ्कताम् ॥ १९ ॥ तत्रावासगृहेपूच्चै पधूमा वितन्वते । युग्मॅयूनां रतभ्रष्टांशुकानामंशुकश्रियम् ॥ २० ॥ स्वस्तिकन्यस्तमुक्तासु तत्र प्रतिगृहं शुकाः । चञ्चवाघातं वितन्वन्ति दाडिमीबीजशङ्कया ॥ २१॥ श्रीमान् सर्वो जनस्तत्र नान्यस्खं कोऽपि लुण्टति । उद्यानकुसुमामोदस्योल्लुण्टाकः परं मरुत् ॥ २२ ॥ आसीत् तत्र धरो राजा धरायास्तापनोदनात् । धारणाचाप्यधरयन् धारौधर-धराधरान् ॥ २३॥ न भूपाः खण्डयामासुस्तस्याऽऽज्ञां क्षितिमण्डले । पुष्पस्रजमिवाखण्डां दधुः शिरसि किन्तु ते ॥२४॥ कोदण्डोहण्डदोर्दण्डोऽप्येष नो दण्डचण्डताम् । अदर्शयत किन्तु सौम्यस्तस्थौ भद्र इव द्विपः ॥२५॥
१ लक्ष्म्याः । २ पापनाशकम् । ३ क्षामा क्षीणा । ४ वरा पू: नगरी। * सत्यं चे सङ्घ०॥ ५ अशिषत् शासयाञ्चकार । ६ अदशां दुर्दशाम् । ७ पक्षिभिः। ८ फालः उत्प्लवनम् , भाषायाम् 'फाळ' । ९ मणिरोहणः मणिपर्वतः। १० प्रवर्तमाना धारा यथा उत्तरोत्तरं वर्धते तथा धाराम् अधिरूढम् वैराग्यं यस्य । ११ व्रज्या-मार्गः । १२ उपार्जयामास । * ताकु संवृ०॥ १३ अङ्कस्थहरिणेन, अङ्को नाम लाञ्छनम् उत्सङ्गो वा । तत्र वा संवृ० सङ्घ० ॥ १४ दम्पतीनाम् । रतं रतिक्रीडा, अंशुकं वस्त्रम् । १५ नोदनं दूरीकरणम् । धरणा संवृ० सा ॥ १६ धारणं च यथास्थानं व्यवस्थापनम् । १७ धाराधरो मेघः, धराधरः पर्वतः।
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चतुर्थः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
२८५ यशो-ऽनुरागैर्युगपद् विस्तीर्णैः ककुभोऽभितः । अचर्चयच्चिरं सोऽर्धश्रीखण्ड-घुसृणैरिव ॥ २६ ॥ तस्मिन् महीपतौ लक्ष्मीदेव्या लीलानिकेतने । गुणराशिरभूद् वास्तुदेवतेव सहोत्थितः ॥ २७ ॥ ___ सतीनां सीमभूताऽभूत् सुसीमा नाम तस्य तु । सधर्मचारिणी देवकन्यासब्रह्मचारिणी ॥२८॥ पाणि-पादा-ऽधरेणावि पल्लवा पुष्पिता रदैः । दोा सशाखा शुशुभे कल्पद्रुमलतेव सा ॥ २९॥ नीरङ्गीच्छन्नवदना पश्यन्ती भुवमेव हि । ईर्यासमितिलीनेव मॅन्थरं सञ्चचार सा ॥ ३०॥ 5 तस्याः शरीरं कान्त्येव ह्रिया शीलमभूष्यत । आर्जवेन मन इव वचनं सूनृतेन च ॥ ३१ ॥ वदन्ती साऽतिविशदैर्दन्तांशुभिरशोभत । रजनीरमणज्योत्स्नाप्लवैरिव विभावरी ॥ ३२ ॥ __इतो ग्रैवेयके जीवः सोऽपराजितभूपतेः । एकाग्रत्रिंशदम्भोधिमितमायुरपूरयत् ॥ ३३ ॥ मावस्य षष्ट्यां कृष्णायां चित्रास्थे रजनीकरे । च्युत्वा सुसीमास्वामिन्याः कुक्षाववततार च ॥ ३४ ॥ तदा मुखे प्रविशतस्तीर्थकृञ्जन्मसूचकान् । चतुर्दश महाखमान् सुसीमा देव्युदैक्षत ॥ ३५॥ 10 वर्धमाने क्रमाद् गर्ने पद्मशय्यासु दोहदः । अभूद् देव्या देवताभिः पर्यपूर्यत तत्क्षणात् ॥ ३६ ॥ ततो नवसु मासेषु दिनेष्वर्धाष्टमेषु च । कार्तिककृष्णद्वादश्यां चन्द्रे चित्रांगते सति ॥ ३७॥ सद्यो वक्रा-ऽतिचाराभ्यां ग्रहेषूचगतेषु च । पद्मवर्ण पद्मचिह्न सा देवी सुषुवे सुतम् ॥ ३८॥ षट्पञ्चाशद् दिक्कुमायः सूतिकमैत्य चक्रिरे । अथाऽऽगत्य प्रभुं शक्रोऽनैषीत् खेर्णाद्रिमूर्धनि ॥ ३९ ॥ शक्रोत्सङ्गस्थितं नाथमिन्द्रास्तत्राऽच्युतादयः । क्रमेणास्नपयन् सर्वेऽनुज्येष्ठं सोदरा इव ॥ ४०॥ 15 ईशानाङ्कस्थितं नाथं शक्रोऽपि हि यथाविधि । नपयामास पूजादि कृत्वा चेत्यभितुष्टुवे ॥ ४१ ॥
असिन्नपारे संसारमरौ सञ्चारिणां चिरात् । त्वदर्शनमभूद् देव ! देहभाजां सुधापा ॥ ४२ ॥ रूपेणाप्रतिरूपं त्वामश्रीन्तं पश्यतां सताम् । कृतार्थेयं समभवद् देवानां निर्निमेषता ॥४३॥ नित्यान्धकारे प्रद्योतः सुखं "निरयिणामपि । अभूत् ते तीर्थनाथत्वरूपकस्याऽऽमुखं ह्यदः ॥ ४४ ॥ पुण्यैः संसारिणां देव ! कृपासारणिवारिणा । सिक्त्वा नयसि वृद्धिं त्वं चिराद् धर्ममहीरुहम् ॥४५॥ 20 जगत्रितयनाथत्वं ज्ञानत्रितयधारिता । इदमाजन्म सिद्धं ते शीतलत्वमिवाम्भसाम् ।। ४६ ॥ पद्मवर्ण ! पद्मचिह्न ! पद्मगन्धिमुखानिल ! । पद्मानन ! पद्माद्वैत ! पद्मासद ! जय प्रभो ! ॥४७॥ अपारो दुस्तरश्वायं सदा संसारसागरः । जानुदनोऽधुना नाथ ! त्वत्प्रसादाद् भविष्यति ॥४८॥ न कल्पान्तरसाम्राज्यं नानुत्तरनिवासिताम् । वाञ्छामि किन्तु शुश्रूषां भवतः पादपद्मयोः ॥ ४९ ॥ - स्तुत्वैवं नाथमादाय शक्रो द्रुतमुपेत्य च । सुसीमास्वामिनीपार्श्वे मुमोच घों जगाम च ॥ ५० ॥ 25 पद्मशय्यादोहदोऽसिन् यन्मातुर्गर्भगेऽभवत् । पद्माभश्चेत्यमुं पद्मप्रभ इत्याह्वयत् पिता ॥५१॥ लाल्यमानो धुधात्रीभिः क्रीडन् सुरकुमारकैः । क्रमेण ववृधे स्वामी "द्वितीयं चीऽऽसदद् वयः॥५२॥ सार्धधन्वद्विशत्युच्चः पृथूरस्को बभौ प्रभुः । पद्मरागशिलालप्तक्रीडाशैल इव श्रियः॥५३॥ तित्यक्षुरपि संसारं खामी लोकानुवर्तनात् । माता-पित्रनुरोधाच चक्रे दारपरिग्रहम् ॥ ५४॥
१ ककुप् दिशा। २ श्रीखण्डम् चन्दनम् , घुसणम् केसरम् । ३ वास्तुदेवता गृहदेवता। ४ आविः प्रकटितम् । ५ रदाः दन्ताः। ६ नीरङ्गी शिरोऽवगुण्ठनम् , भाषायाम् 'लाज घुमटो' । 'नीरङ्गी' शब्दो देश्यप्राकृतरूपः । ७ मन्दं मन्दम् । ८ अंशवः किरणाः । ९प्लवः पूरम् । * एकोनत्रिं संवृ०॥ १० 'चित्रा' नाम नक्षत्रम् । ११ कर्म एत्य-कमैत्य । एत्य आगम्य । १२ स्वर्णादिः मेरुः। १३ स्तुतिं चकार । १४ प्रपा सर्वसाधारणो जलपानमण्डपः, भाषायाम् 'परब'। १५ श्रमरहितम् यथा स्यात् तथा । १६ निरयो नरकः। १७ आमुखं प्रथमः प्रारम्भः तीर्थनाथत्वरूपनाटकस्य प्रारम्भिकं फलम् । । वाम्भसः संवृ० सङ्घ० ॥ १८ अद्वैतेन पद्मरूपाभेदेन सर्वत्र पद्ममयत्वात् । १९ स्वर्गम्। २० द्वितीयं वयः यौवनम् , आसदत् प्राप। चाभवदू संवृ० मो० ॥ २१ पृथु विशालम् , उरः वक्षः। २२ त्यक्तुम् इच्छुः । ६ °कातिव संबृ०॥
त्रिषष्टि, ३७
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२८६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[तृतीयं पर्व जन्मतः पूर्वलक्षेषु गतेष्वर्धाष्टमेवथ । उपरोधात् पितुः स्वामी राज्यभारमुपाददे ॥ ५५॥ राज्यं च पालयन् सार्धा पूर्वलकविंशतिम् । तथा षोडश पूर्वाङ्गाण्यत्यकामजगत्पतिः ॥ ५६ ॥ भवपारं जिगमिषुः स्वामी लोकान्तिकामरैः । दीक्षायै प्रेरितो गत्यै पथिकः शकुनैरिव ॥ ५७॥ ददौ च वार्षिकं दानं ददतश्च प्रभोर्वसु । कुबेरप्रेरिताः सन्तो जृम्भकाः पर्यपूरयन् ॥ ५८॥ ___ अथेन्द्र-भूपैर्विहिताभिषेकः शिबिकां प्रभुः । आरुह्य निर्वृतिकरां सहस्राम्रवणं ययौ ॥५९॥ चित्रायां कार्तिक कृष्णत्रयोदश्यां च षष्ठकृत् । समं राजसहस्रेणापराह्ने प्रावजत् प्रभुः ॥६०॥ द्वितीयदिवसे खामी पुरे ब्रह्मस्थलेऽकरोत् । पारणं परमानेन सोमदेवनृपौकसि ॥ ६१॥ अमरा विदधुस्तत्र पञ्चदिव्याद्भुतान्यथ । स तु चक्रे नृपो रत्नपीठं यत्र स्थितो विभुः ॥६२॥
___विजहार च षण्मासांश्छद्मस्थः परमेश्वरः । आगाद् भूयः सहस्राम्रवणं दीक्षकसाक्षिकम् ॥ ६३॥ 10 षष्ठेन प्रतिमास्थस्य विभोर्वटतरोस्तले । प्रणेशु_तिकर्माणि वातोद्भूतोभ्रजालवत् ॥ ६४॥
ततश्चैत्रस्य राँकायां चन्द्रे चित्रामुपेयुषि । अम्लानं केवलज्ञानमभूत् पद्मप्रभप्रभोः ॥६५॥ सुरा-ऽसुरेन्द्राः समवसरणं तत्र चक्रिरे । प्रारद्वारा प्रविवेशाथ तत्र त्रिभुवनेश्वरः ॥६६॥ सार्धक्रोशोन्नतं चैत्यपादपं परमेश्वरः । तत्र प्रदक्षिणीचक्रे तमिव त्रिदिवेश्वरः ॥ ६७॥
'तीर्थाय नम' इत्येवमुच्चैरुचारितस्तुतिः । रत्नसिंहासने पूर्वाभिमुखो न्यषदत् प्रभुः ॥ ६८॥ 15 प्रभोश्च प्रतिबिम्बानि दिक्ष्वन्यास्वपि नाकिनः । तत्प्रभावेण तद्रूपनिर्विशेषाणि चक्रिरे ॥६९॥
तत्र चास्थाद् यथास्थानं श्रीमान् सङ्घश्चतुर्विधः। स्वामिन्युत्कण्ठयोत्कण्ठः केकिवज इवाम्बुदे ॥७०॥ अथ सौधर्मकल्पेन्द्रः प्रणम्य परमेश्वरम् । यथार्थसारया वाचा तुष्टाव स्पष्टभक्तितः ॥७१॥
निभन् परीषहचमूमुपसर्गान् प्रतिक्षिपन् । प्राप्तोऽसि शमसौहित्यं महतां काऽपि वैदुषी ॥ ७२ ॥
अरक्तो भुक्तवान् मुक्तिमद्विष्टो हतवान् द्विषः । अहो ! महात्मनां कोऽपि महिमा लोकदुर्लभः ॥ ७३ ॥ 20 सर्वथा "निर्जिगीषेण भीतभीतेन चागसः । त्वया जगत्रयं जिग्ये महतां काऽपि चातुरी ॥ ७४ ॥
दत्तं न किश्चित् कस्मैचिन्नाऽऽत्तं किश्चित् कुतश्चन । प्रभुत्वं ते तथाप्येतत् कला काऽपि विपश्चिताम् ॥७५ ॥ यदेहस्यापि दानेन सुकृतं नार्जितं परैः । उदासीनस्य तन्नाथ ! पादपीठे तवालुठत् ॥७६ ॥ रागादिषु नृशंसेन सर्वात्मसु कृपालुना । भीम-कान्तगुणेनोच्चैः साम्राज्यं साधितं त्वया ॥ ७७ ॥
सर्वे सर्वात्मनाऽन्येषु दोषास्त्वयि पुनर्गुणाः । स्तुतिस्तवेयं चेन्मिथ्या तत् प्रमाणं सभासदः ॥ ७८ ॥ 25 महीयसामपि महान् महनीयो महात्मनाम् । अहो ! मे स्तुवतः स्वामी स्तुतेर्गोचरमागमत् ॥७९॥
भूयो भूयो भवत्पाददर्शनं मे भवत्विति । आशंसामि जगन्नाथ ! निर्वाणमपि नापरम् ॥ ८॥
एवं स्तुत्वा स्थिते शके प्रारेभे धर्मदेशनाम् । पञ्चत्रिंशदतिशयान्वितया भगवान् गिरा ॥ ८१॥ पारावार इवापारः संसारो घोर एष भोः ।। प्राणिनश्चतुरशीतियोनिलक्षेषु पातयन् ॥ ८२॥
श्रोत्रियः श्वपचः खामी पत्तिब्रह्मा कृमिश्च सः। संसारनाट्ये नटवत् संसारी हन्त ! चेष्टते ॥ ८३॥ 30 न याति कतमा योनि ? कतमां वा न मुञ्चति? । संसारी कर्मसम्बन्धादवक्रयकुटीमिव ॥ ८४ ॥
* मेषु च संवृ० सङ्घ०॥ १ आग्रहात् । + ज्यं प्रपालयन् सार्धपू संबृ० सङ्घ० ॥ २ तन्नामकाः कुबेराज्ञावशवर्तिमो देवविशेषाः। ३ भूयः पुनः। ४ नाशं प्रापुः। ५ उद्धृतं विनाशितम् । ६ पूर्णिमायाम् । ७ देवाः नाकवासिनः, कम् सुखम् , अकम् असुखम् दुःखम् , नास्ति अकं यत्र असो नाकः खर्गः। ८ निर्विशेषम् समानम् । ९ स्तुतिं चकार । १०जिगीषा विजयेच्छा। ११ आगः पापम् । १२ करो नृशंसः। 1 °सारोऽप्येष एव भोः! संवृ० मो०॥ योन्यावर्तेष संवृ० मो०॥ १३ श्रोत्रियोऽपि वेदज्ञब्राह्मणोऽपि चण्डालो भवति । एवं स्वामी अपि पत्तिः भाषायाम् 'पगी' भवति । १४ भाटकेन प्राप्तां कुटीम्, भाटकम् भाषायाम् 'भाडं'।
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चतुर्थः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । समस्तलोकाकाशेऽपि नानारूपैः स्वकर्मतः । वालाग्रमपि तन्नास्ति यन्न स्पृष्टं शरीरिभिः ॥ ८५॥ संसारिणश्चतुर्भेदाः श्वेभ्रि-तिर्यङ्-नरा-ऽमराः । प्रायेण दुःखबहुलाः कर्मसम्बन्धबाधिताः ॥ ८६ ॥ ___ आधेषु त्रिषु नरकेषूष्णं शीतं परेषु च । चतुर्थे शीतमुष्णं च दुःखं क्षेत्रोद्भवं त्विदम् ।। ८७॥ नरकेषष्णशीतेषु चेत् पतेल्लोहपर्वतः । विलीयेत विशीर्येत तदा भुवमनाप्नुवन् ॥ ८८ ॥ उदीरितमहादुःखा अन्योऽन्येनासुरैश्च ते । इति त्रिविधदुःखार्ता वसन्ति नरकावनौ ॥ ८९॥ समुत्पन्ना घटीयत्रेष्वधार्मिकसुरैर्बलात् । आकृष्यन्ते लघुद्वारा यथा सीसशलाकिका ॥ ९०॥ गृहीत्वा पाणि-पादादौ वज्रकण्टकसङ्कटे । आस्फाल्यन्ते शिलापृष्ठे वासांसि रजकैरिव ॥ ९१ ॥ दारुदारं विदार्यन्ते दारुणैः कचैः क्वचित् । तिलपेषं च पिष्यन्ते चित्रयः क्वचित् पुनः॥९२॥ पिपासातः पुनस्तप्तत्रपु-सीसकवाहिनीम् । नदी वैतरणी नामावतार्यन्ते वराककाः ॥ ९३॥ छायाभिकाशिणः क्षिप्रमसिपत्रवनं गताः । पँत्रशस्त्रैः पतद्भिस्ते छिद्यन्ते तिलशोऽसकृत् ॥ ९४॥ 10 संश्लेष्यन्ते च शाल्मल्यो वज्रकण्टकसङ्कटाः । तप्तायःपुंत्रिकाः क्वापि सारितान्यवधूरतम् ॥९५॥ संमार्य मांसलोलत्वमाश्यन्ते मांसमङ्गजम् । प्रख्याप्य मधुलौल्यं च पाय्यन्ते तापितं त्रपु॥९६ ॥ श्रीष्ट्र-कण्डू-महाशूल-कुम्भीपाकादिवेदनाः । अश्रान्तमनुभाव्यन्ते भृज्यन्ते च भटित्रवत् ॥ ९७ ।। छिन्न-भिन्नशरीराणां भूयो मिलितर्मणाम् । नेत्राद्यङ्गानि कृष्यन्ते बक-कङ्कादिपक्षिभिः ॥९८॥ एवं महादुःखहताः सुखांशेनापि वर्जिताः । गमयन्ति बहुं कालम् आ त्रयस्त्रिंशसागरम् ॥ ९९॥ 15
तिर्यग्गतिमपि प्राप्ताः सम्प्राप्यैकेन्द्रियादिताम् । तत्रापि पृथिवीकायरूपतां समुपागताः ॥१०॥ इलादिशः पाठ्यन्ते मद्यन्तेऽश्व-गजादिभिः। वारिप्रवाहः प्राव्यन्ते दान्ते च दवाग्रिता ॥ १० व्यथ्यन्ते लवणा-ऽचाम्ल-मूत्रादिसलिलैरपि । लवणक्षारतां प्राप्ताः कथ्यन्ते चोष्णवारिणा ॥१०२॥ पच्यन्ते कुम्भकाराद्यैः कृत्वा कुम्भेष्टकादिसात् । चीयन्ते भित्तिमध्ये च नीत्वा कर्दमरूपताम् ॥१०३॥ केचिच्छाणैनिघृष्यन्ते विपच्य क्षारमृत्पुटैः । टङ्काण्डकैर्विदार्यन्ते पाठ्यन्तेऽद्रिसरित्प्लवैः ॥ १०४ ॥ 20 अप्कायतां पुनः प्राप्तास्ताप्यन्ते तपनांशुभिः । घनीक्रियन्ते तुहिनैः संशोष्यन्ते च पांसुमिः ॥१०५॥ क्षारेतररसाश्लेषाद् विपद्यन्ते परस्परम् । स्थाल्यन्तस्था विपच्यन्ते पीयन्ते च पिपासितैः ॥ १०६ ॥ तेजाकायत्वमाप्ताश्च विध्याप्यन्ते जलादिभिः । नादिभिः प्रकुव्यन्ते ज्वाल्यन्ते चेन्धनादिमिः॥१०७॥ वायुकायत्वमप्याप्ता हन्यन्ते व्यंजनादिभिः । शीतोष्णादिद्रव्ययोगाद् विपद्यन्ते क्षणे क्षणे ॥१०८॥ प्राचीनाद्यास्तु सर्वेऽपि विराध्यन्ते परस्परम् । मुखादिवातैर्बाध्यन्ते पीयन्ते चोरगादिभिः ॥१०९॥ 25 वनस्पतित्वं दशधा प्राप्ताः कन्दादिभेदतः। छिद्यन्ते वाऽथ भिद्यन्ते पच्यते वाऽग्नियोगतः ॥११०॥ संशष्यन्ते निषिष्यन्ते प्लुष्यन्तेऽन्योन्यघर्षणैः । क्षारादिभिश्च दह्यन्ते सन्धीयन्ते च भोक्तृभिः ॥११॥ सर्वावस्थासु खाद्यन्ते भज्यन्ते च प्रभञ्जनैः । क्रियन्ते भससाद दावैरुन्मूल्यन्ते सरित्प्लवैः ॥११२॥ सर्वेऽपि वनस्पतयः सर्वेषां भोज्यतां गताः। सर्वैः शस्त्रैः सर्वदाऽनुभवन्ति क्लेशसन्ततिम् ॥ ११३॥
१श्वभ्रम् नरकम् , श्वभ्री नरकवासी। २ बहूनि लघूनि छिद्राणि यसिन् तेन लघुरिछद्रेण साधनेन, भाषायाम् 'जतरडो' इति सुवर्णकारप्रसिद्धम् उपकरणम् । ३ शलाकिका भाषायाम्-'सळी'। ४ काष्ठविदारणवत्। ५क्रकचं करपत्रम्, भाषायाम् 'करवत'। ६ तिलपेषणवत् । * पुनस्तत्र त्र° संवृ०॥ ७ पत्ररूपशस्त्रैः। ८ असकृद् वारंवारम् । ९ अयःपुत्रिकाः लोहपुत्तलिकाः। १. क्रियाविशेषणम्, परस्त्रीरमणं स्मारयित्वा इति भावः। ११ खाद्यन्ते। १२ भ्राष्ट्रम् 'भट्टि' इति भाषायाम् । १३ कण्ड भ्राष्ट्रसमानम् । १४ 'भ्रस्जीत् पाके' इत्यस्य, पच्यन्ते इत्यर्थः। १५ भटित्रम् भाषायाम्-'भडधुं'।
वर्म शरीरम् । बानि क्लिश्यन्ते संबृ०मो०॥ १७ कृष्यन्ते आकृष्यन्ते । १८ आचाम्लम् अम्लम्, भाषायाम् 'खाद'। १९ महीक्रियन्ते हिमैः। २० धन इति भाषायाम् 'घण' । २१ तालवृन्तादिव्यजनैः, व्यजनम् भाषायाम् 'बीजणो'।
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[ तृतीय पर्व
२८८
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं द्वीन्द्रियत्वे च ताप्यन्ते पीयन्ते पूतरादयः। चूर्ण्यन्ते कृमयः पादैर्भक्ष्यन्ते चटकादिभिः ॥ ११४ ॥ शङ्खादयो निखन्यन्ते निष्कृष्यन्ते जलौकसः । गण्डूपदाद्याः पात्यन्ते जठरादौषधादिभिः ॥ ११५॥ त्रीन्द्रियत्वेऽपि सम्प्राप्ते षट्पदी-मत्कुणादयः। विमृद्यन्ते शरीरेण ताप्यन्ते चोष्णवारिणा ॥११६॥ पिपीलिकास्तु तुद्यन्ते पादैः सम्मार्जनेन च । अदृश्यमानाः कुन्थ्वाद्या मैंथ्यन्ते चाऽऽसनादिभिः ॥११७॥ चतुरिन्द्रियताभाजः सरेघा-भ्रमरादयः । मधुमक्षैर्विराध्यन्ते यष्टि-लोष्टादिताडनैः ॥ ११८ ॥ ताड्यन्ते तालवृन्ताद्यैर्द्राग् दंश-मशकादयः । ग्रस्यन्ते गृहगोधाद्यैर्मक्षिका-मर्कटादयः ॥ ११९॥ पञ्चेन्द्रिया जलचराः खाद्यन्तेऽन्योन्यमुत्सुकाः । धीवरैः परिगृह्यन्ते गिल्यन्ते च बकादिभिः॥१२०॥ उत्कील्यन्ते त्वचयद्भिः प्राप्यन्ते च भटित्रताम् । भोक्तुकामैर्विपच्यन्ते निगाल्यन्ते वसार्थिभिः ॥१२१॥
स्थलचारिषु चोत्पन्ना अबला बलवत्तरैः । मृगायाः सिंहप्रमुखैार्यन्ते मांसकातिभिः॥ १२२ ॥ 10 मृगयासक्तचित्तैस्तु क्रीडया मांसकाम्यया । नरैस्तत्तदुपायेन हन्यन्तेऽनपराधिनः ॥ १२३॥
क्षुधा-पिपासा-शीतोष्णा-अतिभारारोपणादिना । कशा-ऽङ्कुश-प्रतोदैश्च वेदनां प्रसहन्त्यमी ॥ १२४ ॥ खेचरास्तित्तिर-शुक-कपोत-चटकादयः । श्येन-सिञ्चान-गृध्राद्यैर्ग्रस्यन्ते मांसगृभुभिः ॥ १२५॥ मांसलुब्धैः शाकुनिकै नोपायप्रपश्चतः । सङ्गृह्य प्रतिहन्यन्ते नानारूपैर्विडम्बनैः ॥ १२६ ॥
जला-नि-शस्त्रादिभवं तिरश्चां सर्वतो भयम् । कियद् वा वर्ण्यते स्वस्वकर्मबन्धनिबन्धनम् ॥ १२७ ॥ 15 मनुष्यत्वेऽनार्यदेशे समुत्पन्नाः शरीरिणः । तत् तत् पापं प्रकुर्वन्ति यद् वक्तुमपि न क्षमम् ॥ १२८॥
उत्पन्ना आर्यदेशेऽपि चाण्डाल-श्वपचादयः । तत् तत् पापं प्रकुर्वन्ति दुःखान्यनुभवन्ति च ॥ १२९॥ आर्यदेशे समुद्भूता अप्यनार्यविचेष्टिताः । दुःख-दारिय-दौर्भाग्यनिर्दग्धा दुःखमासते ॥ १३० ॥ परसम्पत्प्रकर्षणापकर्षेण स्वसम्पदाम् । परंप्रेष्यतया दग्धा दुःखं जीवन्ति मानवाः ॥ १३१॥ रुग्-जरा-मरणैर्ग्रस्ता नीचकर्मकदर्थिताः । तां तां दुःखदशां दीनाः प्रपद्यन्ते दयास्पदम् ॥ १३२ ॥ जरा रुजा मृतिर्दास्यं न तथा दुःखकारणम् । गर्भे वासो यथा घोरनरकावाससनिमः ॥ १३३॥ सूचीभिरग्निवर्णाभिभिन्नस्य प्रतिरोम यत् । दुःखं नरस्याष्टगुणं तद् भवेद् गर्भवासिनः॥१३४ ॥ योनियत्राद् विनिष्क्रामन् यद् दुःखं लभते भवी । गर्भवासभवाद् दुःखात् तदनन्तगुणं खलु ॥ १३५ ॥ बाल्ये मूत्र-पुरीषेण यौवने रतचेष्टितैः । वार्धके श्वास-कासाद्यैर्जनो जातु न लज्जते ॥ १३६ ॥ पुरीषसूकरः पूर्व ततो मदनगर्दभः । जराजरद्वः पश्चात् कदापि न पुमान् पुमान् ॥ १३७ ॥ स्वाच्छैशवे मातृमुखस्तारुण्ये तरुणीमुखः । वृद्धभावे सुतमुखो मूल् नान्तर्मुखः क्वचित् ॥ १३८ । सेवा-कर्षण-वाणिज्य-पाशुपाल्यादिकर्मभिः । क्षपयत्यफलं जन्म धनाशाविह्वलो जनः ॥ १३९ ॥ कचिच्चौर्य कचिद् द्यूतं क्वचिनीचैर्भुजङ्गता । मनुष्याणामही ! भूयो भवभ्रमंनिबन्धनम् ॥ १४० ॥ सुखित्वे कामललितैर्दुःखित्वे दैन्य-रोदनैः । नयन्ति जन्म मोहान्धा न पुनर्धर्मकर्मभिः ॥१४१॥
अनन्तकर्मप्रचयक्षयक्षममिदं क्षणात् । मानुषत्वमपि प्राप्ताः पापाः पापानि कुर्वते ॥ १४२॥ 80 ज्ञान-दर्शन-चारित्ररत्नत्रितयभाजने । मनुजत्वे पापकर्म स्वर्णभाण्डे सुरोपमम् ॥१४३॥
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षट्पदी यूका, भाषायाम् ''।* मर्य()न्ते संबृ० मो० ॥२ सरघा मधुमक्षिका, भाषायाम् 'मधमाख'।३ मर्कट अर्णनाभः, भाषायाम् करोळीयो। ४ पक्षिघातकाः शाकुनिकाः। + रूपविउ संवृ०॥ ५ दुःखपूर्वकम् आसते तिष्ठन्ति ।
परदासतया। ७ मातृमुखः मातृपरतन्त्रः। ८ तरुणीपरवशः । ९ सुतपराधीनः। १० भुजङ्गो गणिकापतिः। भ्रमिनि संतु.॥ मयसाशम् ।
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चतुर्थः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । संसारसागरगतैः शमिलायुगयोगवत् । लब्धं कथञ्चिन्मानुष्यं हा ! रत्नमिव हार्यते ॥ १४४ ॥ लब्धे मानुष्यके खर्ग-मोक्षप्राप्तिनिवन्धने । हा! नरकाप्युपायेषु कर्मसूत्तिष्ठते जनः ॥१४५ ॥ आशास्यते यत् प्रयत्नादनुत्तरसुरैरपि । तत् सम्प्राप्तं मनुष्यत्वं पापैः पापेषु योज्यते ॥१४६ ॥ परोक्षं नरके दुःखं प्रत्यक्षं नरजन्मनि । तत्प्रपञ्चः पश्चन किमर्थमुपवर्ण्यते॥१४७॥
शोका-ऽमर्ष-विषादेा-दैन्यादिहतबुद्धिषु । अमरेष्वपि दुःखस्य साम्राज्यमनुवर्तते ॥ १४८॥ दृष्ट्वा परस्य महतीं श्रियं प्राग्जन्मजीवितम् । अर्जितखल्पसुकृतं शोचन्ति सुचिरं सुराः ॥ १४९॥ चिराद् वा बलिनाऽन्येन प्रतिकतुं तमक्षमाः । तीक्ष्णेनामर्षशल्येन दोर्दूयन्ते निरन्तरम् ॥ १५० ॥ न कृतं सुकृतं किञ्चिदोभियोग्यं ततो हि नः। दृष्टोत्तरोत्तरश्रीका विषीदन्तीति नाकिनः ॥१५१॥ दृष्ट्वाऽन्येषां विमान-स्त्री-रत्नोपवनसम्पदम् । यावजीवं विपच्यन्ते ज्वलदानलोर्मिभिः ॥ १५२ ॥ हा प्राणेश ! प्रभो ! देव ! प्रसीदेति सगद्गदम् । परैपितसर्वस्वा भाषन्ते दीनवृत्तयः ॥ १५३ ॥ 10 प्राप्तेऽपि पुण्यतः खर्गे काम-क्रोध-भयातुराः । न स्वस्थतामनुव॑ते सुराः कान्दर्पिकादयः ॥ १५४॥ अथ च्यवनचिह्नानि दृष्ट्वा दृष्ट्वा विमृश्य च । विलीयन्तेऽथ जल्पन्ति व निलीयामहे वयम् ? ॥१५५ ॥ तथाहि-अम्लाना अपि हि मालाः सुरद्रुमसमुद्भवाः। म्लानीभवन्ति देवानां वदनाम्भोरुहैः समम् ॥१५६॥ हृदयेन समं विश्वग्विश्लिष्यत्सन्धिबन्धनाः । महाबलैरप्यकम्प्याः कम्पन्ते कल्पपादपाः॥१५७॥ आकालप्रतिपन्नाभ्यां प्रियाभ्यां च सहैव हि । श्री-हीभ्यां परिमुच्यन्ते कृतागस इवामराः ॥१५८ ।। 15 अम्बरश्रीरपमला मलिनीभवति क्षणात् । अप्यकस्माद् विस्मरैरघौधैर्मलिनैपनैः ॥१५९ ॥ अदीना अपि दैन्येन विनिद्रा अपि निद्रया । आश्रीयन्ते मृत्युकाले पक्षाभ्यामिव कीटिकाः ॥१६० ॥ विषयेष्वतिरज्यन्ते न्यायधर्मविषाधया । अपथ्यान्यपि यत्नेन स्पृहयन्ति मुमूर्षवः ॥१६१ ॥ नीरुजामपि भज्यन्ते सर्वाङ्गोपाङ्गसन्धयः । भाविदुर्गतिपातोत्थवेदनाविवशा इव ॥ १६२ ॥ पैदार्थग्रहणेऽकसान भवन्त्यपटुदृष्टयः । परेषां सम्पदुत्कर्षमिव प्रेक्षितुमक्षमाः ॥ १६३ ॥ 20 गर्भावासनिवासोत्थदुःखागमभयादिव । प्रकम्पतरलैरङ्गैर्भापयन्ति परानपि ॥ १६४ ॥ निश्चितच्यवनाश्चिद्वैर्लभन्ते न रति क्वचित् । विमाने नन्दने वाप्यामगारालिङ्गिता इव ।। १६५ ॥ हा प्रियाः! हा विमानानि ! हा वाप्यो! हा सुरद्रुमाः! । क द्रष्टव्याः पुनर्पूयं हतदैववियोजिताः ॥१६६॥ अहो । सितं सुधावृष्टिरहो ! बिम्बाधरः सुधा । अहो ! वाणी सुधावर्षिण्यहो ! कान्ता सुधामयी ॥१६७॥ हा रत्नघटिता स्तम्भाः! हा श्रीमन्मणिकुंट्टिमाः! हा वेदिका रत्नमय्यः कस्य यास्यथ संश्रयम् ? ॥१६८॥25 हा ! रखसोपानचिताः कमलोत्पलमालिताः । भविष्यन्त्युपभोगाय कस्येमाः पूर्णवापयः १ ॥१६९ ॥ हे पारिजात! मन्दार! सन्तान! हरिचन्दन । कल्पद्रुम ! विमोक्तव्यः किं भवद्भिरयं जनः १ ॥१७०॥ हहा ! स्त्रीगर्भनरके वस्तव्यमवशस्य मे । हहाऽशुचिरसाखादः कर्तव्यो मयका मुहुः ॥१७१ ॥
शमिठा भाषायां समोल', यत्र छिद्रे योऋधारणाय रज्जुः निक्षिप्यसे। युगं च भाषायां 'धोसरूं'। शमिलायुगयोगश्चेस्थम्यथा समुद्रे एकतः शमिला क्षिता, अन्यतः युगम् क्षितम् । तौ द्वौ प्रवाहेण वायमानौ पुनः कदा सम्बन्धयुक्तौ भविष्यतः अर्थात् युगच्छिद्रे शमिला कदा कथं प्रविशेत् ? इति न ज्ञायते । यथा च तयोर्द्वयोः सम्बन्धो दुःशकः एवमेव मनुजभवः सुदुर्लभः । २ उद्यमशीलो भवति । ३ विस्तारेण । ४ पुनः पुनः भृशं वा दूनाः क्षीणाः भवन्ति । ५ किङ्करदेवत्वम् । ६ मूषित-चोरित । • प्राप्नुवन्ति । कान्दर्पिकाः अधमदेवाः। ८ समन्तात् । ९ वस्त्रम् । * °रप्यम संबृ० ॥ १०विस्मरं प्रसरणशीलम् ।
"निद्रारहिवाः । १२ न्यायो नीतिमार्गः।१३ मरणाभिलाषिणः। १४ रोगरहितानाम् अपि । १५ पदार्थप्रत्यक्षीकरणे अपटुदृष्टयः मन्दमयः। भयं जनयन्ति । १७ भङ्गारैर्दग्धा इव । १८कुहिमम् भूमितलम् । १९ आश्रयम् । २० मालिताः शोभिता।
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२९० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्थप्रणीतं
[तृतीयं पर्ष हहा हा ! जठराङ्गारशकटीपाकसम्भवम् । मया दुःखं विषोढव्यं बद्धेन निजकर्मणा ? ॥ १७२ ॥ रतेरिव निधानानि क्व तास्ताः सुरयोषितः ? । काऽशुचिस्यन्दवीभत्सा भोक्तव्या नरयोषितः १॥ १७३ ॥ एवं वर्लोकवस्तूनि सारं सारं दिवौकसः । विलपन्तः क्षणस्यान्तर्विध्यायन्ति प्रदीपवत् ।। १७४ ॥
नवभिः कुलकम् ॥ 5 असारमित्थं संसारं चिन्तयित्वा विमुक्तये । प्रयतेत परिव्रज्योपायेन शुभधीर्जनः ॥ १७५॥
भर्तुस्तया देशनया प्रतिबुद्धाः सहस्रशः । केचिदाददिरे दीक्षां सम्यक्त्वमपरे पुनः ॥ १७६ ॥ सुव्रताया गणभृतोऽभूवन् सप्तोत्तरं शतम् । जग्रन्थुादशाङ्गी ते प्रपद्य त्रिपदी प्रभोः ॥ १७७ ॥ देशनाविरते नाथे सुव्रतो देशनां व्यधात् । शिष्या गुरूणां कूपानामाहावा इव तक्रियाः ॥ १७८ ॥ विरते देशनातोऽसिन्नपि सर्वे सुरादयः । प्रणिपत्य जगनाथं स्थानं निजनिजं ययुः ॥ १७९ ॥ __तत्तीर्थजन्मा कुसुमो नीलाङ्गो मृगवाहनः । सफलं चाभयदं च बिभ्राणो दक्षिणौ करौ ॥ १८०॥ विभ्रत् पाणी नकुला-ऽक्षसूत्रिणौ दक्षिणेतरौ । सदा सनिधिवासीद् भर्तुः शासनदेवता ॥ १८१ ॥
युग्मम् ॥ तथोत्पन्नाऽच्युता नाम श्यामाङ्गी नरवाहना । विभ्राणा दक्षिणौ बाहुदण्डौ वरद-पाशिनौ ॥ १८२ ॥
वामौ च कार्मुकधरा-ऽभयदौ विभ्रती भुजौ । पद्मप्रभजिनेन्द्रस्याभवच्छासनदेवता ॥ १८३ ॥ 15 अमुक्तसन्निधिस्ताभ्यां विश्वानुग्रहकाम्यया। विजहार जगत्स्वामी ग्रामा-ऽऽकर-पुरादिषु॥१८४॥ युग्मम् ।।
साधूनां त्रीणि लक्षाणि सहस्रास्त्रिंशदेव च । साध्वीनां च चतुर्लक्षी सहस्राणि च विंशतिः ॥१८५ ।। चतुर्दशपूर्वभृतां वे सहस्रे शतत्रयम् । अवधिज्ञानवतां च सहस्राणि पुनर्दश ॥ १८६ ॥ मनःपर्ययिणां त्रीणि शतान्ययुतमेव च । सहस्राणि द्वादश तु केवलज्ञानशालिनाम् ॥ १८७ ॥ वैक्रियलब्धिसहस्राः षोडशाष्टोत्तरं शतम् । वादलब्धिधराणां तु सहस्रा नव षट्शती ॥ १८८॥ श्रावकाणामुभे लक्षे षट्सप्ततिसहरुयपि । श्राविकाणां पुनः पञ्च लक्षाः पञ्च सहरुयपि ॥ १८९ ॥ परिवारेऽभवद् भर्तुः केवलज्ञानकालतः । षण्मास्या षोडैशाङ्गयोनं पूर्वलक्षं विहारिणः ॥ १९० ॥
मोक्षकालमथाऽऽसन्नं विदित्वा परमेश्वरः । सम्मेतादि जगामाथानशनं मासिकं व्यधात् ॥१९१॥ मार्गशीर्षे च कृष्णकादश्यां चित्रास्थिते विधौ । क्षीणशेषचतुष्कर्मा सिद्धानन्तचतुष्टयः ॥ १९२ ॥
मुनीनामनशनिनां शतैस्यग्रैः सहाष्टभिः । ध्यानाच्चतुर्थाच्चतुर्थ पुमर्थमगमत् प्रभुः ॥१९३ ॥ युग्मम् ।। 25 अर्धाष्टमाः पूर्वलक्षाः कौमारे षोडशाङ्गयुक् । पूर्वलक्षाणां सार्धेकविंशती राज्यपालने ॥ १९४ ॥
अङ्गैः षोडशभियूंनं पूर्वलक्षं पुनर्वते । इति त्रिंशत्पूर्वलक्षाण्यायुः पद्मप्रभप्रभोः॥ १९५ ॥ सुमतिस्वामिनिर्वाणान्मोक्षः पद्मप्रभप्रभोः । गतायामब्धिकोर्टानां सहस्रनवतावभूत् ॥ १९६ ।।
इन्द्राश्चतुःषष्टिरुपेत्य तत्र प्रभोर्मुनीनामपि भक्तिभाजः ।
शरीरसंस्कारमकार्पुरुचैर्निर्वाणकल्याणमहोत्सवं च ॥ १९७ ॥ 30 ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीये
पर्वणि श्रीपद्मप्रभखामिचरितवर्णनो नाम चतुर्थः सर्गः॥
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१ अङ्गारशकटी भाषायाम्-'सगडी'। आहावाः कूपसमीपवर्तिनः गर्ताः। * पूर्वधरा द्वे संबृ० मो०॥षोडशासना उनम् । ४ पुरुषार्थम् ।
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पञ्चमः सर्गः ]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित महाकाव्यम् । पञ्चमः सर्गः ।
श्रीसुपार्श्वनाथचरित्रम् |
श्रीसुपार्श्व जिनेन्द्रस्य पान्तु वो देशनागिरः । उद्वेलकेवलज्ञानसमुद्रस्येव वीचयः ॥ १ ॥ चरितं श्री सुपार्श्व वक्ष्येऽहं सप्तमार्हतः । कुबोधध्वान्तसुदिनमशेषाणां शरीरिणाम् ॥ २ ॥ archaण्डद्वीपस्य प्राग्विदेहविशेषके । विजये रमणीयेऽस्ति नाम्ना क्षेमपुरी पुरी ॥ ३ ॥ तत्राssसीञ्जगदानन्दी नन्दिषेणो नरेश्वरः । दिनेश्वर इव श्रीमांस्तेजसामेकमास्पदम् ॥ ४ ॥ अशेषराज्यव्यापारे जागरूकस्य सर्वदा । तस्य प्रधान्यभूद् धर्मो दोर्दण्ड इव दक्षिणः ॥ ५ ॥ निम्नतः कण्टकीभूतान् जनतासुखहेतवे । तस्य कोपोऽपि धर्माय किं पुनः प्रस्तुताः क्रियाः ? || ६ || अहो! आश्चर्यमनिशं स्मृतिगोचरतां गतः । श्रीवीतरागो भगवांस्तस्य हृच्छयतां ययौ ॥ ७ ॥ आर्त्तानामतिहरणे स शरण्यः सदाऽभवत् । स्मरातुरपरस्त्रीणां न कदापि कथञ्चन ॥ ८ ॥ कालेन गच्छता सोऽभूद् भवोद्विनो महामनाः । गत्वाऽरिदमनाचार्यान्तिके दीक्षामुपाददे ॥ ९ ॥ स व्रतं पालयंस्तीक्ष्णं स्थानकैः कैश्चिदप्यथ । तीर्थकुन्नामकर्मोपार्जयामास महामुनिः ॥ १० ॥ ततो विधायानशनं समये स महामतिः । मृत्वा ग्रैवेयके षष्ठे महर्द्धिरमरोऽभवत् ॥ ११ ॥
*
१ प्रधान्यभूत्-प्रधानो बभूव । कामरूपताम् सं० टिप्पणी | २ भर्ति - पीडा ।
+ 'हामुनिः । मृ° मो० # ४ - रै- सुवर्णम् । ५ प्रो दुर्गः, + पत्रमा सं० ॥ ७ रिपूणाम् । १ ° तभीष' संपृ० मो० ॥
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इतश्व जम्बूद्वीपस्यामुष्य क्षेत्रेत्र भारते । पुरी वाराणसीत्यस्ति काशिदेशस्य मण्डनम् ॥ १२ ॥ भित्तिषु गेहेषु तस्यामुद्द्योतशालिषु । अष्टप्रकारपूजायां दीपो देवाग्रतो यदि ॥ १३ ॥ चैत्येषु तस्यामुद्दण्डरैर्दण्डोपरि चन्द्रमाः । धर्मस्यैकातपत्रस्याऽऽतपत्रश्रियमश्रुते ॥ १४ ॥ विद्याधर्यो रममाणास्तद्वा ऽट्टालकोपरि । जगतीजालकटकान् विस्मृत्य सुखमासते ॥ १५ ॥ वासागारेषु कूजन्ति तस्यां पारापता निशि । रतिभर्तुः प्रबोधार्थमिव मङ्गलपाठकाः ॥ १६ ॥ सतां प्रतिष्ठाकल्पः प्रतिष्ठाभाक् सुरेन्द्रवत् । प्रतिष्ठो नाम तत्राssसीन्यायनिष्ठो महीपतिः ॥ १७ ॥ मेरोरिव महत्वेनाप्रतिरूपस्य सर्वदा । तस्यैव पादच्छायायाम तिष्ठदखिलं जगत् ॥ १८ ॥ श्वेतातपत्रैर्मायूरातपत्रैश्च निरन्तरैः । द्यौर्बलाकाघनाङ्केव तस्मिन् दिग्विजयिन्यभूत् ॥ १९ ॥ सोऽभूत् प्रत्यर्थिनां युद्धेन कदापि पराङ्मुखः । अर्थिनामिव निःसीमपुरुषवर्तभूषणः ॥ २० ॥ आजन्मानन्यसाहाय्यो लीलयैव महाभुजः । स सदा धारयामास लीलाकमलवन्महीम् ॥ २१ ॥ तस्य पृथ्वीपतेः पृथ्वी नाम पृथ्वीव जङ्गमा । सधर्मचारिण्यभवत् स्थैर्यादिगुणभाजनम् ॥ २२ ॥ तस्याः शीलं च रूपं च नित्यं भूषणतां ययौ । भूषणानि तु वाह्यानि भूप्यतां प्रतिपेदिरे ।। २३ ।। निसर्गनैर्मल्यजुषो गुणास्तस्यामनेकशः । उत्पेदिरे ताम्रपर्णी नद्यां मुक्ताकणा इव ॥ २४ ॥ लावण्यसलिलं वक्र-नेत्र-पाण्यङ्घ्रिपङ्कजम् । तद्रूपमाभाच्छ्रीदेव्याः पद्मद इवापरः ॥ २५ ॥ तीर्थजननीत्वेन भावि दासीत्वमस्तु तत् । रूपेणापि जितास्तस्या दास्योऽभूवन् सुराङ्गनाः ।। २६ ।। sar नन्दिषेण जीवो ग्रैवेयके स्थितः । पष्ठेऽपूरयदायुः स्वमष्टाविंशतिसागरम् ॥ २७ ॥ च्युत्वा भाद्रपदे कृष्णाष्टम्यां राधागते विधौ । स जीवो नन्दिषेणस्य पृथ्व्याः कुक्षाववातरत् ॥ २८ ॥ 8०
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अहालकः भाषायाम् 'अटारी' ।
८ भूमिरिव । ९ विशाखा नक्षत्रगते चन्द्रे ।
३ संसाराद् उद्दिनः । ६ अव्यक्तं शब्दायन्ते ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ तृतीयं पर्व
सुखसुप्ता निशाशेषे पृथ्वीदेवी तदैक्षत । तीर्थकुजन्मपिशुनान् महास्वमांश्चतुर्दश ॥ २९ ॥ सुप्तमे पञ्चफणे नवकणेऽपि च । नागतल्पे ददर्श स्वं देवी गर्भे प्रवर्धिनि ॥ ३० ॥ ज्येष्ठस्य शुद्धद्वादश्यां विशाखास्थे निशाकरे । स्वर्णवर्णं स्वस्तिकाङ्कं सुतं सा सुषुवे सुखम् ॥ ३१ ॥ जिनजन्मावधिज्ञानाज्ज्ञात्वा तत्रैत्य सत्वरम् । षट्पञ्चाशद् दिक्कुमार्यः सूतिकर्माणि चक्रिरे ॥ ३२ ॥ तथैवाऽऽगत्य शक्रोऽपि समादाय जगत्पतिम् । मेरुमूर्धन्यतिपाण्डुकम्बलामर्गमच्छिलाम् ॥ ३३ ॥ बालधार इवोत्सङ्गे निधाय परमेश्वरम् । रत्नसिंहासने तत्र निषसाद पुरन्दरः || ३४ ॥ तीर्थनाथं तीर्थतोयैस्त्रिषष्टिरथ वासवाः । क्रमेणास्त्रपयन्नब्धिवेला इव तटाचलम् ॥ ३५ ॥ ईशानाङ्के निवेश्येशं शक्रोऽप्यस्त्रपयज्जलैः । स्फाटिकोक्षेविषाणोत्थैधरायत्रोत्थितैरिव ॥ ३६ ॥ विलिप्य पूजयित्वा च वस्त्रालङ्करणादिना । जगत्पतिमिति स्तोतुं सौधर्मेन्द्रः प्रचक्रमे ॥ ३७ ॥
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अविज्ञेयस्वरूपे त्वय्यर्थवादाग्रहो मम । आदित्यमण्डलादाने फैलादानं कपेरिव ॥ ३८ ॥ तथापि त्वत्प्रभावेण स्तोष्ये त्वां परमेश्वर ! । स्यन्दन्ते चन्द्रकान्ता हि चन्द्रकान्तिप्रभावतः || ३९ ॥ दत्से समस्त कल्याणैर्यत् सुखं श्रभ्रिणामपि । तिर्यग् - नरा-मराणां तत् कथं नासि सुखप्रदः १ ॥ ४० ॥ I अयुयोतो जगत्रय्यामस्मिन् जन्मोत्सवे तव । उदेष्यत्केवलज्ञानतरणेररुणायते ॥ ४१ ॥ त्वत्प्रसादस्य सम्पर्कादिवैताः ककुभोऽखिलाः । प्रसादं कलयामासुरधुना परमेश्वर ! ॥ ४२ ॥
स्तुत्वैवं प्रभुमादाय शक्रः सत्वरमेत्य च । मुमोचालक्षितं पृथ्वीदेव्याः पार्श्वे यथास्थिति ॥ ४६ ॥ प्राणिनः प्रीणयन् कीरामोक्षणादिभिरद्भुतैः । महोत्सवं नृपोऽकार्षीदानन्दफलपादपम् ॥ ४७ ॥ 20 गर्भस्थेऽस्मिन् सुपार्श्वाऽभूजननी यत् ततः प्रभोः । सुपार्श्व इत्यभिधानं प्रतिष्ठः प्रत्यतिष्ठिपत् ॥४८॥ शक्रसङ्क्रमिताङ्गुष्ठमुधापो ववृधे प्रभुः । सुँधान्धसामपि वन्द्या अर्हन्तोऽस्तन्यपा यतः ॥ ४९ ॥ उत्तीर्योत्तीर्य चोत्सङ्गाच्चापलाच्छैशवोचितात् । वञ्चवचं मुहुर्धात्रीश्चिक्रीडेतस्ततः प्रभुः ॥ ५० ॥ पण पूर्व क्रीडतश्च मर्त्यरूपान् सुरान् प्रभुः । जिगाय लीलया शक्ताः क्रीडायामपि केऽर्हताम् ॥ ५१ ॥ शैशवं व्यतिचक्राम क्रमेण परमेश्वरः । क्रीडन् विचित्रक्रीडाभिस्त्रियांमामिव कामुकः ॥ ५२ ॥ धनुः शतद्वयत्तुङ्गः सर्वलक्षणलक्षितः । प्रपेदे यौवनं स्वामी भूषणं रूपसम्पदः ॥ ५३ ॥ दाक्षिण्येन प्रभुः पित्रोर्नृपपुत्रीरुपयत । अपि त्रिलोकनाथानां मान्यं हि पितृशासनम् ॥ ५४ ॥ भोग्यं कर्म क्षपयितुं रमणीभिः समं विभुः । अरंस्त भगवन्तो हि कर्मच्छेदाय तत्पराः ।। ५५ ।। ततो गतेषु कौमारे पूर्वलक्षेषु पञ्चसु । अभ्यर्थ्याऽऽरोपितं पित्रा प्रभुर्भूभारमुँह || ५६ ॥ विंशत्यङ्गैः समधिकाः पूर्वलक्षाश्चतुर्दश । व्यतीयाय जगन्नाथः पृथिवीं परिपालयन् ॥ ५७ ॥ उपलक्ष्येव संसारविरक्तं स्वामिनो मनः । उपस्वाम्याययुर्ब्रह्मलोकालोकान्तिकामराः ॥ ५८ ॥
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अमी च वान्ति सुखदाः पवनाः पावनाकृते ! । सुखदे त्वयि नाथे हि जगतां कः प्रतीपकृत् ? ।। ४३ ।। धिग् नः प्रेमादिनो धन्यान्यासनान्यपि तानि नः । देव ! त्वञ्जन्मकल्याणं चलित्वाऽज्ञापि यैः क्षणात् ॥ ४४ ॥ निदानं देव ! बामि निषिद्धमपि सम्प्रति । त्वद्दर्शनफलं मेऽस्तु त्वयि भक्तिर्निरन्तरा ॥ ४५ ॥
१ अगमत् - जगाम । २ स्फाटिकोक्ष विषाणोरथैः स्फाटिकबलीवर्दशृङ्ग निर्गतैः ॥ कूर्दनम्, भाषायाम्- 'फाल भरवी, कूदको मावो' । ४ नारकाणाम् । ५ अरुणोदय इव । ६ कुपायाः सम्बन्धात् । ७ प्रसन्नताम् - निर्मलताम् । * पवनाकृते संबृ० । पवित्रीकरणार्थम् इति संबृ० टिप्पणी ॥ ८ पवित्राकृतियुक्त ! | ९ द्वितीया बहुवचनम् । १० कारा- कारागृहम् । ११ स्थापयामास । १२ यः अङ्गुष्ठे शक्रसंक्रमितां सुधां पिबति । १३ सुधाभक्षका देवाः । १४ अर्हन्तो न मातरं घयन्ते अतः अस्तन्यपाः । १५ त्रियामा - रात्रिः । १६ विवाहं चकार । १७ धारयाञ्चकार । १८ विंशत्यङ्गैः - विंशतिपूर्वाङ्गैरित्यर्थः । १९ व्यतीतानि । २० स्वामिनः समीपम् उपस्वामि ।
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पञ्चमः सर्गः ]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
१९३
नबोध्यसे स्वयम्बुद्धः स्वभक्त्या स्मार्टसे पुनः । तीर्थं प्रवर्तय स्वामिमित्युक्त्वा ते दिवं ययुः ॥ ५९ ॥ सुपार्श्वस्वाम्यपि ततो दीक्षादानोत्सवोत्सुकः । दानचिन्तामणिर्दानं ददौ संवत्सरावधि ॥ ६० ॥ सांवत्सरिकदानान्ते वासवैश्चलितासनैः । दीक्षाभिषेको विदधे सुपार्श्वखामिनस्ततः ॥ ६१ ॥ अथो मनोहरां नाम नानारत्नमनोहराम् । अध्यारुरोह शिबिकां शिवङ्गामी जगत्पतिः ।। ६२ ।। अन्वीयमानो भगवान् सुरा- सुर-नरेश्वरैः । सहस्राम्रवणं नाम जगामोपवनोत्तमम् ॥ ६३ ॥ त्रिजगद्भूषणं स्वामी तत्रोज्झद् भूषणादिकम् । शक्रन्यस्तं देवदृष्यं स्कन्धदेशे दधार च ॥ ६४ ॥ ज्येष्ठ शुद्ध त्रयोदश्यां राधायां पश्चिमेऽहनि । समं नृपसहस्रेण षष्ठेन प्राव्रजत् प्रभुः ॥ ६५ ॥ मन:पर्ययमुत्पेदे तु ज्ञानं जगत्पतेः । नारकाणामपि तदा सुखं क्षणमजायत ॥ ६६ ॥ पाटलीखण्डनगरे महेन्द्रनृपसद्मनि । द्वितीयेऽह्नि प्रभु परमान्नेन पारणम् ॥ ६७ ॥ विदधुर्वसुधारादि देवाश्चाद्भुतपञ्चकम् । रलपीठं महेन्द्रस्तु यत्र तस्थौ जगत्पतिः ॥ ६८ ॥ जयन् परीषहचमूतापं गिरिरिवाभवत् । निराकाङ्क्षः शरीरेऽपि समः स्वर्ण - तृणादिषु ॥ ६९ ॥ एकाकी मौननिरतो नित्यमेकान्तदत्तदृक् । विविधाभिग्रहरतोऽनासीनो निर्भयः स्थिरः ॥ ७० ॥ विविधाः प्रतिमाः कुर्वश्छद्मस्थो ध्यानमास्थितः । नव मासान् जगन्नाथो विजहार वसुन्धराम् ॥ ७१ ॥ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥
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विहरंवाऽऽययौ भूयः सहस्राम्रवणं प्रभुः । शिरीषमूले षष्ठेन तत्रास्थात् प्रतिमाधरः ॥ ७२ ॥ द्वितीयशुक्लध्यानान्ते वर्तमानो जगद्गुरुः । संसारस्येव मर्माणि घातिकर्माण्यघातयत् ॥ ७३ ॥ फाल्गुनस्य कृष्णषष्ठ्यां विशाखास्थे निशाकरे । केवलज्ञानमुत्पेदे सुपार्श्वस्वामिनस्तदा ॥ ७४ ॥
-सुरेन्द्राः सद्योsu समागत्य निर्युक्तवत् । चक्रुः समवसरणं स्वामिनो देशनाकृते ॥ ७५ ॥ पूर्वद्वारेण तत्राथ मोक्षद्वारं जगद्गुरुः । प्रविवेश यथार्हैस्तु द्वारैः सुर-नरादयः ॥ ७६ ॥ चतुर्धन्वशतायैकक्रोशोचं चैत्यपादपम् । तत्र प्रदक्षिणीच प्रभुर्भुकल्पपादपः ॥ ७७ ॥ 'तीर्थाय नम' इत्युक्त्वा तत्र सिंहासनोत्तमे । उपाविशञ्जगन्नाथोऽतिशयैरुपशोभितः ॥ ७८ ॥ पृथ्वीदेव्या तदा खमे दृष्टं तादृग्महोरगम् । शक्रो विचक्रे भगवन्मूर्ध्नि च्छत्रमिवापरम् ॥ ७९ ॥ तदादि चाभूत् समवसरणेष्वपरेष्वपि । नाग एकफणः पञ्चफणो नवफणोऽथवा ॥ ८० ॥ स्वामिनः प्रतिरूपाणि देवा दिक्ष्वपरास्खपि । विकुर्वन्ति स्म तादृंशि तत्प्रभावेण भूयसा ॥ ८१ ॥ सोऽपि भगवांस्तत्र यथास्थानमवास्थित । न स्थानव्यत्ययो जातु सामान्यस्यापि पर्षदि ॥ ८२ ॥ अथ सौधर्मकल्पेन्द्रः प्रणम्य परमेश्वरम् । विरचय्याञ्जलिं मूर्ध्नि स्तोतुमेवं प्रचक्रमे ॥ ८३ ॥ निःशेषभ्रुवनकोशपद्मकोशविवस्वते । तुभ्यं नमो भगवते श्रीमते सप्तमार्हते ॥ ८४ ॥ गतं दुःखेन विश्वस्याऽऽविर्भूतं च मुंदा प्रभो ! । विश्वं तीर्थपरावृत्या परावृत्तमिवाधुना ॥ ८५ ॥ धर्मचंत्रिस्तव वचोरलदण्डेन भाखता । निर्वाणवैताढ्यगिरेर्द्वारमद्योद्वदिष्यते ॥ ८६ ॥ उन्नतस्येव मेघस्य भगवन् ! दर्शनं तव । विश्वस्य जीवलोकस्य सन्तापच्छेदनान्मुदे ॥ ८७ ॥ अनन्तज्ञान भगवन् ! देशनावचनं तव । दरिद्रैर्द्रविणमिव चिरादस्माभिराप्स्यते ॥ ८८ ॥ कृतार्था दर्शनेनापि तवाद्य वचनेन तु । विशेषतो भविष्यामो मुक्तिद्वार प्रकाशिना ॥ ८९ ॥
१] तीर्थङ्करा हि दीक्षाग्रहणात् पूर्वं संवत्सरपर्यन्तं भूरि भूरि दानं कुर्वन्ति अत उक्तं दीक्षादानोत्सवोत्सुकः । २ सिद्धिवि गन्ता । ३ औज्झत् मुमोच । ४ विशाखानामके नक्षत्रे । ५. अनुपविशन्- जर्ध्वं तिष्ठत्नेव इत्यर्थः । ६ नियुक्तः भाज्ञानुसारी दास ७ समवसरणमित्यर्थः । ८ उपविदेश । ९ हर्षेण, हर्षः प्रकटो भूत इत्यर्थः । १० हे धर्मचक्रवर्तिन् ! | त्रिषष्टि ३८
इव ।
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२९५ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं .
[तृतीय पर्व अनन्तदर्शन-ज्ञान-चीर्या-ऽऽनन्दमयात्मने । सर्वातिशयपात्राय तुभ्यं योगात्मने नमः॥९॥ इन्द्रादिपदवीप्राप्तिः कियदेतजगत्पते । । तव शुश्रूषया यमात् त्वादृशैरपि भूयते ॥ ९१॥
इति स्तुत्वा घुसनाथे तूष्णीकत्वमुपेयुषि । प्रारेभे भगवानेवं सर्वज्ञो धर्मदेशनाम् ॥ ९२ ॥ आत्मनः सर्वमप्येतदन्यत् तदिह तत्कृते । कृत्वा कर्म भवाब्धौ खं पातयत्यबुधो जनः ॥ ९३॥ यत्रान्यत्वं शरीरस्य वैसदृश्याच्छरीरिणः । धन-बन्धु-सहायानां तत्रान्यत्वं न दुर्वचम् ॥ ९४ ॥ यो देह-धन-बन्धुभ्यो भिन्नमात्मानमीक्षते । क्व शोकशङ्कुना तस्य हन्ताऽऽतङ्कः प्रतन्यते ॥ ९५ ॥ इहान्यत्वं भवेद् भेदः स वैलक्षण्यलक्षणः । आत्म-देहादिभावानां साक्षादेव प्रतीयते ॥ ९६ ॥ देहाद्या इन्द्रियग्राह्या आत्माऽनुभवगोचरः । तदेतेपामनन्यत्वं कथं नामोपपद्यते ? ॥ ९७ ॥
आत्म देहादिभावानां यद्यन्यत्वं स्फुटं ननु । ततो देहप्रहारादौ कथमात्मा प्रपीड्यते ? ॥९८॥ 10 सत्यं येषां शरीरादौ भेदबुद्धिर्न विद्यते । तेषां देहप्रहारादीवात्मपीडोपजायते ॥ ९९ ॥
ये तु देहा-ऽऽत्मनोहेंदं सम्यगेव प्रपेदिरे। तेषां देहप्रहारादावपि नाऽऽत्मा प्रपीड्यते ॥१०॥ 'मेदं विद्वान् न पीड्येत पितृदुःखेऽप्युपस्थिते । आत्मीयत्वाभिमानेन भृत्यदुःखेऽपि मुह्यति ॥ १०१॥ अस्वत्वेन गृहीतः सन् पुत्रोऽपि पर एव हि । स्वकीयत्वेन भृत्योऽपि वपुत्रादतिरिच्यते ॥ १०२ ॥ सम्बन्धानात्मनो जन्तुर्यावतः कुरुते प्रियान् । तावन्तो हृदये तस्य जायन्ते शोकशङ्कवः ॥ १०३॥ सर्वमन्यदिदं तसाजानीयात् पटुधीर्जनः । कस्यापि हि विनाशात् तन्न मुह्येत् तत्त्ववर्त्मनि ॥ १०४ ॥ अस्यन् ममत्वमृल्लेपं तुम्बीफलमिवाचिरात् । भवं तरति शुद्धात्मा परिव्रज्याधरो नरः॥१०५॥ ___एवं च देशनां श्रुत्वाऽबुध्यन्त बहवो जनाः । प्रव्रज्यां जगृहुः केपि श्रावकत्वमथापरे ॥१०६ ॥ विदर्भाचा गणभृतः पञ्चनवतिरभूवन् । ते चक्रुादशाङ्गी च स्वामिवागनुसारतः ॥ १०७॥
खामिनो देशनान्ते च विदर्भो गणभृद्वरः । वाम्यद्धिपीठाध्यासीनो विदधे धर्मदेशनाम् ॥ १०८ ॥ 20 विदर्भेऽपि गणधरे देशनाविरते सति । नमस्कृत्य प्रभुं जग्मुः खं खं स्थानं सुरादयः॥१०९॥
तत्तीर्थजन्मा मातको नीलाको गजवाहनः । बिल्वधरं पाशधरं विभ्राणो दक्षिणौ करौ॥११०॥ दधद् वामौ च दोर्दण्डौ नकुला-ऽङ्कुशधारिणौ । सुपार्श्वखामिनः पार्श्वेऽभवच्छासनदेवता ॥ १११ ॥ तथोत्पन्ना शान्तादेवी स्वर्णरुग् गजवाहना । वरदं साक्षसूत्रं च विभ्राणा दक्षिणौ भुजौ ॥ ११२ ॥ सशूला-ऽभयदौ बाहू दधाना दक्षिणेतरौ । भर्तुः शासनदेव्यासीत् सदा सन्निधिवर्तिनी ॥ ११३ ॥
विजहार ततोऽन्यत्र खामी ग्राम-पुरादिषु । बोधयन् भव्यभविनः पङ्कजानीव भास्करः ॥ ११४ ॥ साधुत्रिलक्षी साध्वीनां सहत्रिंशत्सहस्रिका । चतुर्लक्षी पूर्विणां तु सहस्रौ त्रिंशदन्वितौ ॥ ११५ ॥ सहस्राणि नव पुनरवधिज्ञानधारिणाम् । साधैकनवतिशती मनःपर्ययशालिनाम् ॥ ११६ ॥ एकादश सहस्राणि केवलज्ञानिनां पुनः । वैक्रियलब्धिसहस्राः पश्चदश त्रिशत्यपि ॥११७॥
अष्टौ च वादलब्धीनां सहस्राः सचतुःशताः । द्वे लक्षे सप्तपश्चाशत् सहस्राः श्रावकाः पुनः ॥ ११८ ॥ 30 श्राविकाणां पञ्चलक्षी सहजैः सप्तभिर्वियु । परिवारेऽभवद् मर्तुः पृथ्वीं विहरतः सतः ॥ ११९ ॥
आत्मा अनुभवगोचरः' इति पदविभागः। * °दावपि पी सङ्घ ॥ २ भेदस्य ज्ञाता । ३ अनिजत्वेन । + जाननन्यत्र धी सह ॥ ४ ममत्वरूपं मृत्तिकालेपम् अस्यन्-दूरीकुर्वन् । ५ स्वामिवचनानुसारेण । ६ करयोः विशेषणम् । ७ सुवर्णकान्तिः। ८ अक्षसूत्रेण सहितम् । ९ भव्याः योग्याः, भविनः प्राणिनः। १०वियु रहिता।
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पञ्चमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
२९५ आ केवलानवमास्या विंशत्यङ्ग्या च वर्जिते । पूर्वलक्षे गते स्वामी गत्वा सम्मेतपर्वतम् ॥१२० ॥ जगत्वामी समं तत्र मुनीनां पञ्चभिः शतैः । तपः प्रपेदेऽनशनं सेव्यमानः सुरा-ऽसुरैः॥१२१॥ युग्मम्॥ मासान्ते फाल्गुने कृष्णसप्तम्यां मूलगे विधौ । समं तैर्मुनिभिः खामी जगाम पदमव्ययम् ॥ १२२ ॥ पश्च लक्षाणि कौमारे पृथिवीपालने पुनः । युक्ता विंशतिपूर्वाङ्या पूर्वलक्षाश्चतुर्दश ॥ १२३ ॥ न्यूनं विंशतिपूर्वाझ्या पूर्वलक्षं पुनव्रते । इत्यायुः श्रीसुपार्श्वस्य पूर्वलक्षाणि विंशतिः ॥ १२४॥ 5 श्रीपद्मप्रभनिर्वाणात् सुपार्श्वखामिनितिः । गतेष्वर्णवकोटीनां सहस्रेषु नववभूत् ॥ १२५ ॥
अच्युतप्रभृतयोऽथ सुरेन्द्राः स्वामिनो मुनिजनस्य च तस्य ।
अग्निसंस्करणपूर्वमकुर्वन् मोक्षपर्वमहिमानमखर्वम् ॥ १२६ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित महाकाव्ये तृतीये पर्वणि श्रीसुपार्श्वखामिचरितवर्णनो नाम पश्चमः सर्गः॥
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१ चम्ने मूलनक्षत्रं गते।
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२९६
[तृतीयं पर्व
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीत
षष्ठः सर्गः। श्रीचन्द्रप्रभजिनचरित्रम् ।
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वन्दे ध्वस्तमहामोहध्वान्तामानन्ददायिनीम् । चन्द्रप्रभामिव गिरं चन्द्रप्रभजिनप्रभोः ॥१॥ चरितं कीर्तयिष्यामि चन्द्रप्रभजिनेशितुः । भव्यानां भविनां मोहहिमान्यातपोपमम् ॥ २॥ धातकीखण्डद्वीपस्य प्राग्विदेहस्य मण्डने । विजये मङ्गलावत्यामस्ति पू रत्नसश्चया ॥३॥ पद्मो राजाऽभवत् तस्यां पनायाः पनवद् गृहम् । भोगावत्यां भोगिराज इवोर्जितपराक्रमः ॥ ४ ॥ सेव्यमानोऽपि गन्धवैदिव्यसङ्गीतकारिभिः । अत्येप्सरोभिर्वारस्त्रीजनैश्च परिवारितः॥५॥ दिव्याङ्गरागनेपथ्यदुकूलैश्च मनोरमैः । विभूष्यमाणसर्वाङ्गश्रीविशेषोऽपि सर्वदा ॥ ६ ॥
भूमिपालैः पाल्यमानशासनोऽपि दिवानिशम् । नित्यमक्षीणकोशोऽपि सदा सुस्थप्रजोऽपि हि ॥७॥ 10 सर्वथा दुःखलेशस्याप्यनास्पंदतया स्थितः । संसारवासवैराग्यं स भेजे तत्वविद्वरः ॥८॥
___ चतुर्भिः कलापकम् । भवस्य च्छेदनायाथ गिरेरिव पविं हरिः । अग्रहीत् स परिव्रज्यां युगन्धरगुरोः पुरः॥९॥ विविधाभिग्रहो दान्तो विहितेन्द्रियनिग्रहः । स्वविग्रहेऽप्यनाकाङ्क्षश्चिरं सोऽपालयद् व्रतम् ॥१०॥ महारत्नं महामूल्यैरिव स्थानैस्तु कैरपि । दुरर्जमर्जयामास तीर्थकृन्नाम कर्म सः ॥११॥ कालेन क्षपयित्वाऽऽयुव॑तंद्रोः प्रथमं फलम् । विमानं वैजयन्ताख्यं स जगाम महातपाः ॥ १२ ॥
इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् क्षेत्रे च भरताभिधे । पुरी चन्द्राननेत्यस्ति क्षितेराननसन्निभा॥१३॥ तस्थामनेकरत्नाढ्या विभात्यापणवीथिका । उद्रेचिताम्भोविभवं भाण्डमम्भोनिधेरिव ॥१४॥ नानाकाराण्यगाराणि नानावर्णानि तत्र च । अदभ्राणीव सन्ध्याघ्राण्यवतीर्णानि भूतले ॥१५॥ तदुधानेषु दृश्यन्ते चारणाः प्रतिमास्थिताः । आशिरः-पादनिष्कम्पाः पुंरुपा इव पर्वताः ॥ १६ ॥ तस्यां च वासागारेषु सत्नेषु प्रतिविम्बितैः । खैरेव" केयमन्येति कुप्यन्ति 'प्रेयसि स्त्रियः॥१७॥
तस्यामासीन्महासेनः सेनाच्छन्नमहीतलः । महीपतिः पतिरपामिवाधृष्यशिरोमणिः ॥ १८॥ तद्विक्रमस्य समभूद् भक्तो भृत्य इवानिशम् । प्रतापस्तत्कियां कुर्वन्नुर्वीविजयलक्षणम् ॥ १९॥ अलग्यशासने तसिन् शाँसत्यवनिमण्डलम् । अभूदाजन्मविरतः परखहरणे जनः ॥२०॥ अलब्धमध्योऽब्धिरिव शशीवातिमनोरमः । कल्पद्रुरिव दातेन्द्र इवाधीशश्च सोऽभवत् ॥ २१॥ कपाटपृथुले तस्योरःस्थलेऽनन्यमानसा । हंसीव गङ्गापुलिने रमा रेमे निरन्तरम् ॥ २२ ॥
तस्याऽऽसील्लक्ष्मणा नाम पत्नी सम्पूर्णलक्षणा । मुखलक्ष्म्यातिहारिण्या विजेत्री शशलक्ष्मणः॥२३॥ लावण्यपूरमसमं सर्वाङ्गीणं दधत्यपि । पीयूषमेव साऽवर्षद् दृशापि च गिराऽपि च ॥ २४ ॥
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ध्वान्तम् तमः। २ महद् हिमम् हिमानी। ३ रखसञ्चया नाम पू:-नगरी। * सर्वास्वपि प्रतिषु पनो नामाऽभवत् इति पाठो वर्तते॥ ४ भोगावती नाम शेषनागनगरी। ५ अप्सरसम् अतिक्रान्ताभि:-अप्सरसोऽपि अधिकसुन्दराभिः ६ अङ्गराग:अनविलेपनम् । ७ दुःखलेशेन रहितोऽपि इत्यर्थः। ८ वशरीरे। ९ दुखेन अर्जितुं शक्यम्-दुर्लभम् । १. प्रतवृक्षस्य । ११ यस अम्भोविभवः दूरीकृतः ततश्च प्रकटीभूतम् भाण्डम् इत्यर्थः । उद्रेचितं-भाषायाम् 'उलेचेखें'। अथवा यथा मुक्कासु अम्भोविभवःभाषायाम् पाणी अधिकं भवति तथा यत्र भाण्डे उद्वेचितः-उद्विक्तः अधिकः अम्भोविभवः । १२ अदभ्रम-अधिकम् । १३ पुरुषरूपाः। १४ रत्नमयेषु वासगृहेषु । १५ स्वैरिणी इव का इयमन्या? इति । १६ प्रेयसि-प्रिये पत्यौ। १७ शासतिपासनं कुर्वति।१८दाता इन्द्रः इति पदविभागः। १९ कपाटवत् पृथुले-विस्तीर्ण । २० चन्द्र या विजयते इति भावः।
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सर्ग: ]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
सा स्थम्भोरुहाणीव विकचानि पदे पदे । पादाभ्यां रोपयामास विचरन्त्यतिमन्थरम् ॥ २५ ॥ तस्या वो गत्यां च कौटिल्यं न तु चेतसि । मध्यप्रदेशे तुच्छत्वं न पुनर्मतिसम्पदि ॥ २६ ॥ तस्या गुणचमूं सर्वामपि सर्वातिशायिनीम् । अलञ्चकार सेनानीरिव शीलगुणो महान् ॥ २७ ॥
इत वैजयन्तस्थः स जीवः पद्मभूपतेः । त्रयस्त्रिंशत्पयोराशिसङ्ख्यमायुरपूरयत् ॥ २८ ॥ च्युत्वा च लक्ष्मणादेव्याः कुक्षाववततार सः । चैत्रस्य कृष्णपञ्चम्यामनुराधागते विधौ ।। २९ ।। तदानीं लक्ष्मणादेवी तीर्थकजन्मसूचकान् । चतुर्दश महास्वमान् सुखसुप्ता निरैक्षत ॥ ३० ॥ तं गर्भं रत्नगर्भेव रत्नसर्वस्वमुज्वलम् । सुखेन धारयामास लक्ष्मणादेव्यलक्षितम् ॥ ३१ ॥ पौषस्य कृष्णद्वादश्यामनुराधास्थिते विधौ । चन्द्राङ्कं चन्द्रवर्णं च सुतरत्नमस्त सा ॥ ३२ ॥ तदा चाऽऽसनकम्पेन ज्ञात्वा जन्माष्टमार्हतः । सूतिकाकर्म चक्रुः षट्पञ्चाशद्दिकुमारिकाः ॥ ३३ ॥ जन्मस्त्रात्रोत्सवचिकीरथ सौधर्मवासवः । अनैषीन्मेरुशिरसि स्वामिनं सुमनोवृतः || ३४ ॥ अतिपाण्डुकम्बलायां शिलायां परमेश्वरम् । विधायाङ्के निषसाद रत्नसिंहासने हरिः ॥ ३५ ॥ अथाऽच्युतप्रभृतयस्त्रिषष्टिरपि वासवाः । स्वामिनं स्त्रपयामासुरानुपूर्व्योलसमुदः || ३६ ॥ ईशानेन्द्राङ्कपर्यङ्के निवेश्य स्वामिनं ततः । शक्रोऽपि स्त्रपयामास वृषशृङ्गोत्थितैर्जलैः ॥ ३७ ॥ दिव्याङ्गरागनेपथ्य वस्त्रैरभ्यर्च्य भक्तितः । भगवन्तमिति स्तोतुमारेभे पाकशासनः ॥ ३८ ॥
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१ विचरन्ती - चलन्ती । २ देवैः परिवृतः । ३ हास्यास्पदं यथा स्यात् तथा । ४ उत्- ऊध्वं पादा यस्य स उत्पादः । टिट्टिभो भाषायाम् 'टिटोडी' स्वकीयान् पादान् गगनस्य आधाररूपान् संबुध्य ऊर्ध्वमेव धारयति इति लोकवादः । * "दि हद सं० ॥ + 'हसे' सङ्घ० ॥ ६ 'चन्द्रप्रभ' इति नाम चकार । ७ कलभो हस्तिशिशुः ।
५ कराः
किरणाः ।
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वामनन्तगुणं स्तोतुं प्रवृत्तोऽस्मि हसौस्पदम् | आधारबुद्ध्या गगनस्योत्पाद इव टिट्टिभः ॥ ३९ ॥ व्यापिप्रज्ञस्त्वत्प्रभावात् क्षमोऽस्मि नु तव स्तवे । दिशोऽश्रुतेऽलेशोऽपि पौरस्त्यानिलसङ्गमात् ॥ ४० ॥ भविनां दृष्टमात्रो वा ध्यातमात्रोऽपि वा प्रभो ! । कर्मपाशच्छेदनायापूर्वं शस्त्रं किमप्यसि ॥ ४१ ॥ शुभानां कर्मणामद्य जगत्यभ्युदयः खलु । पङ्कजानामिवाऽऽदित्ये त्वयि विश्वतमछिदि ॥ ४२ ॥ निजं फलमदत्त्वाऽपि गलिष्यत्यशुभं मम । शेफालिकापुष्पमिव निशाकरकैराहतम् || ४३ ॥ प्रव्रज्याधारि रूपं ते दूरे विश्वाभयप्रदम् । मूर्त्त्याऽनयाऽपि भगवन् ! दुःखं हरसि जन्मिनाम् ॥ ४४ ॥ 20 कर्माणि भवमूलानि च्छेत्तुमत्राऽऽगमः प्रभो ! । द्रुमानिवोन्मूलयितुं वने मत्तमतङ्गजः ॥ ४५ ॥ अलङ्कारो यथा मुक्ताहारौंदिर्हृदयस्य मे । बहिरेष तथाऽन्तस्त्वं भूयास्त्रिभुवनेश्वर ! ॥ ४६ ॥
स्तुत्वेति प्रभुमीशानादादाय च पुरन्दरः । नीत्वा च लक्ष्मणादेवीपार्श्वमुञ्चद् यथास्थिति ||४७|| महीपतिर्महासेनोऽप्यथाकार्षीन्महोत्सवम् । अन्यत्राप्युत्सवायैव जातोऽर्हन् किं पुनर्गृहे ? ॥ ४८ ॥ गर्भस्थेऽस्मिन् मातुरासीच्चन्द्रपानाय दोहदः । चन्द्राभचैष इर्त्यांह्वचन्द्रप्रभमनुं पिता ॥ ४९ ॥ ज्योत्स्नागौरप्रभापूरपरिवेषमनोरमम् । वैजयन्तस्थितस्येव रूपं भर्तुः शिशोर्बभौ ॥ ५० ॥ लतानामिव धात्रीणामाकर्षन् पाणिपल्लवान् । दिने दिने कलभवद् ववृधे परमेश्वरः ॥ ५१ ॥ अप्राप्तं देवभावेऽपि स्वेच्छाप्राप्तमिव प्रभुः । बालत्वमन्वभूज्ज्ञानत्रयभागपि मुग्धवत् ॥ ५२ ॥ नानाविधाभिः क्रीडाभिर्लल शैशवं विभुः । कथाभिरतिरम्याभिः पन्थानं पथिको यथा ॥ ५३ ॥ शिशुत्वसरितः पारं स्त्रीवशीकारकार्मणम् । प्रपेदे यौवनं स्वामी सार्धधन्वशतोन्नतिः ॥ ५४ ॥
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ तृतीयं पर्व विद॑न् भोगफलं कर्माऽऽदेशं पित्रोश्च पालयन् । जगत्पतिरुपायंस्ताऽनुरूपा राजकन्यकाः ॥ ५५ ॥ पूर्वलक्षद्वये सार्धे जन्मतोऽतिगते सति । पितृभ्यामर्थितोऽत्यर्थ चतुर्विंशाङ्गसंयुताः ॥ ५६ ॥ पूर्वलक्षास्तु षट् सार्धा अनैपीत् पालयन्महीम् । अनध्यायमिवाध्यायरतो दीक्षोत्सुकः प्रभुः ॥५७॥ युग्मम् ।।
आयुक्तैरिव मौहूर्तेरथ लौकान्तिकामरैः । अज्ञापि दीक्षासमयं स्वयं जानन्नपि प्रभुः ॥ ५८ ॥ आढ्यो वित्रजिषुरिव प्रविव्रजिषुरुच्चकैः । दानं प्रदातुमारेभे खामी संवत्सरावधि ॥ ५९॥ संवत्सरान्ते चलितासनैरेत्य सुरेश्वरैः । दीक्षाभिषेको विदधे स्वामिनः किङ्करैरिव ॥ ६० ॥ ततो मनोरमां नाम शिविकां श्रीमनोरमाम् । वाम्यारुरोह नृ-सुरा-ऽसुरेन्द्रपरिवारितः ॥ ६१॥ स्तूयमानो गीयमानः प्रेक्ष्यमाणो जनैर्मुदा । सहस्राम्रवणं नामोपवनं भगवानगात् ॥ ६२ ॥ शिविकातः समुत्तीर्य रत्नालङ्करणादिकम् । अपि रत्नत्रयं प्रेप्सुस्तत्याज परमेश्वरः ।। ६३ ॥ पौषकृष्णत्रयोदश्यां में च मैत्रेऽपरेऽहनि । समं नृपसहस्रेण षष्ठेन प्राव्रजत् प्रभुः ॥ ६४ ॥ मर्त्य क्षेत्रस्थितप्राणिमनोद्रव्यप्रकाशकम् । मनःपर्ययमुत्पेदे तुर्य ज्ञानं ततः प्रभोः ॥६५॥ पद्मखण्डपुरे राज्ञः सोमदत्तस्य समनि । पारणं परमान्नेन द्वितीयेऽह्नि प्रभुळधात् ॥ ६६ ॥ दिव्यं च वसुधारादिपञ्चकं विदधेऽमरैः । रत्नपीठं तेन राज्ञा त्वरीत्पादाङ्कितावनौ ॥ ६७ ।। हिमान्याऽप्यपराभूतः पराभूतार्कतेजसा । अकम्पितः समीरैश्च कृतावश्यायदुर्दिनैः॥ ६८ ॥ हैमनेन निशीथेन हिमीकृतसरोम्भसा । अखण्ड्यमानप्रेतिमः प्रतिमानविवर्जितः ॥ ६९ ॥ अरण्ये व्याघ्र-सिंहादिदुःश्वापदभयानके । पुरे च श्राद्धबहुले "निर्विशेषगति-स्थितिः॥ ७० ॥ एकाकी निर्ममो मौनी निर्ग्रन्थो ध्यानतत्परः । त्रीन् मासान् विजहारोवीं छद्मस्थः परमेश्वरः ॥ ७१ ॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ विहरन् भगवान् भूयः सहस्राब्रवणं ययौ । तस्थौ प्रतिमया तत्र पुन्नागस्य तरोस्तले ॥ ७२ ॥ 20 द्वितीयशुक्लध्यानान्ते तस्थुषोऽथ जगत्पतेः । प्रणेशुओतिकर्माणि हिमवच्छिशिरात्यये ॥ ७३ ।।
फाल्गुनासितसप्तम्यामनुराधागते विधौ । स्वामिनः कृतषष्ठस्योत्पेदे केवलमुज्ज्वलम् ॥ ७४ ॥ सुरा-ऽसुरेन्द्राः सद्योऽपि क्षेत्रे योजनमात्रके । चक्रुः समवसरणं देशनाथ जगद्गुरोः ॥ ७५ ॥ सुरैः सञ्चार्यमाणानि स्वर्णाजानि नव क्रमात् । मन्यासैः पुनानस्तत् प्राग्द्वारा प्राविशत् प्रभुः॥७६ ॥
तत्र चाष्टादशधनुःशतोचं चैत्यपादपम् । प्रभुः प्रदक्षिणीचक्रे पालयन्नहिती स्थितिम् ॥ ७७ ॥ 25 तीर्थाय नम इत्युच्चैर्वाचमुच्चारयन् प्रभुः । रत्नसिंहासने तत्र न्यषदत् पूर्वदिसुखः ॥ ७८ ॥
प्रविश्य च यथाद्वारं यथास्थानमवास्थित । चतुर्विधोऽपि श्रीसङ्घः ससुरा-ऽसुर-मानुषः ॥ ७९ ॥ पञ्चाङ्गस्पृष्टभूपृष्ठः प्रणम्य परमेश्वरम् । जम्भारिभक्तिरभसादारेभे स्तोतुमित्यथ ॥ ८० ॥
सुरा-ऽसुर-नरैर्मूर्ध्नि धार्यमाणमिदं प्रभो! । शासनं ते विजयते त्रिलोकीचक्रवर्तिनः ॥ ८१॥ ज्ञानत्रयधरः पूर्व मनःपर्ययभृत् ततः । केवली चाधुना दिष्ट्या दृष्टस्त्वमधिकाधिकम् ॥ ८२॥
* विदन भोगफलम् इत्यादिकः अयं श्लोकः संवृ० मो० नास्ति ॥ १ कर्म विदन् पित्रोश्च आदेशं पालयन् इति भावः । २ पाणिग्रहणं चकार । । अनाध्या संवृ०॥ ३ अनध्यायः अवकाशदिवसः। ४ अध्यायरतः अभ्यासतत्परः। ५ मौहतेः मुहूर्तवेदिभिः, आयुक्तैः आयोजितैः। ६ ज्ञापितः। सुरासुरैः संवृ०॥ ७ अनुराधानक्षत्रे। मं मुनिस संवृ०॥ ८ विदधे-अमरैः वर्षणं चके, राजा च रत्नपीटं चकार । ९ प्रतिमाः तपोविशेषरूपाः अभिग्रहाः। १० प्रतिमानम्-उपमानं सादृश्यामिति यावत् । १ भयस्थाने भक्तस्थाने च यः समानचित्तः इति यस्य गतिः स्थितिश्च निर्विशेषा-एकरूपा। १२ अत्ययःअतिक्रमणम् । १३ क्रमाः-चरणाः, न्यासः-स्थापनम् । १४ पूर्वदिशास्थितद्वारेण । १५ अर्हत्ताम्-अर्हद्भावमिति । १६ जम्मारि:इन्द्रः, रभसो बेगः।
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पष्ठः सर्गः] त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
२९९ तव ज्ञानमिदं नाथ ! केवलाभिधमुज्वलम् । विश्वोपकारकुजीयाच्छाया मार्गतरोरिव ॥ ८३ ॥ तावदेवान्धकाराणि न यावद् दिवसेश्वरः । मदान्धास्तावदेवेभा यावत्पश्चाननो न हि ॥ ८४ ॥ तावदेव हि दारियं न यावत् कल्पपादपः । तावदेव पयोदौस्थ्यं न यावद् वार्षकोऽम्बुदः ॥ ८५ ॥ तावदेव हि सन्तापो न यावत् पूर्णचन्द्रमाः । कुबोधास्तावदेवेह न यावत् त्वं निरीक्ष्यसे ॥ ८६ ॥ दृश्यसे नित्यमपि यैः सेव्यसे च शरीरिभिः । ताननुमोदयामीश ! सर्वदाऽपि प्रेमद्वरः ॥ ८७ ॥ इदानीं त्वत्प्रसादेन त्वदर्शनफलं मम । सम्यक्त्वमुत्तममिदं भूयादाजन्म निश्चलम् ॥ ८८ ॥
इति स्तुत्वा सुन शीरे स्थिते सति जगद्गुरुः । प्रारेभे देशनामेवं गिरा स्तनितधीरया ॥ ८९ ॥ अनन्तक्लेशकल्लोलनिलयो भवसागरः । तिर्यगूर्द्धमधो जन्तून् क्षिपत्येष प्रतिक्षणम् ॥ ९०॥ एक निवन्धनं तस्य क्रियते प्राणिभी रतिः । अशुचौ कृमिभिरिव यदत्रापि शरीरके ॥ ९१ ॥ रसा-ऽसँग्-मांस-मेदोऽस्थि-मञ्ज-शुक्रा-ऽत्र-वर्चसाम् । अशुचीनां पदं कायः शुचित्वं तस्य तत् कुतः ॥९२॥10 नवस्रोतःस्रवद्विरसनिःस्यन्दपिच्छिले । देहेऽपि शौचसङ्कल्पो मैंहामोहविजृम्भितम् ।। ९३ ॥ शुक्र-शोणितसम्भूतो मलनिःस्यन्दवर्द्धितः । गर्भे जरायुसञ्छन्नः शुचिः कायः कथं भवेत् ? ॥ ९४ ॥ मातृर्जग्धान-पानोत्थरसनाडीक्रमागतम् । पायं पायं विवृद्धः सन् शौचं मन्येत कस्तंनोः १ ॥९५॥ दोषधातुमलाकीणं कृमि-गण्डूपदास्पदम् । रोगभोगिगणैर्जग्धं शरीरं को वदेच्छुचि १ ॥ ९६ ॥ सुखादून्यन्न-पानानि क्षीरेक्षुविकृती अपि । भुक्तानि यत्र विष्ठायै तच्छरीरं कथं शुचि ? ॥ ९७॥ 15 विलेपनार्थमासक्तः सुगन्धिर्यक्षकर्दमः । मलीभवति यत्राऽऽशु क शौचं तत्र वर्मणि ? ॥९८॥ जम्ध्वा सुगन्धि ताम्बूलं सुप्तो निश्युत्थितः पंगे । जुगुप्सते वक्रगन्धं यत्र तत् किं वपुः शुचिः॥९९॥ स्वतःसुगन्धयो गन्ध-धूप-पुष्प-गादयः। यत्सङ्गाद् यान्ति दौर्गन्ध्यं सोऽपि कायः शुचीयते ? ॥१०॥ अभ्यक्तोऽपि विलिप्तोऽपि धौतोऽपि घटकोटिभिः। न याति शुचितां कायः शुण्डाँघट इवाऽशुचिः॥१०॥ मृजला-ऽनल-वाताशुंस्नानैः शौचं वदन्ति ये । गतानुगतिकैस्तैस्तु विहितं तुषकण्डनम् ॥ १०२॥ 20 तदनेन शरीरेण कार्य मोक्षफलं तपः । क्षाराब्धे रत्नवद् धीमानसारात् सारमुद्धरेत् ॥ १०३॥
धर्मदेशनया भर्तुरनया च शरीरिणः । बहवः प्रत्यबुध्यन्त प्रात्रश्च सहस्रशः ॥ १०४॥ भर्तुस्विनवतिर्दत्तादयो गणभृतोऽभवन् । उत्पादादित्रिपद्या ते द्वादशाङ्गीमसूत्रयन् ॥ १०५॥ देशनान्ते प्रभोः पादपीठस्थो गणभृद्वरः । विदधे देशनां दत्तो दत्तबोधः शरीरिणाम् ॥ १०६॥ तस्यापि देशनाप्रान्ते खं खं स्थानं सुरादयः । जग्मुर्नागरयुवानो वीतसङ्गीतका इव ॥ १०७॥ 25
तत्तीर्थभूर्हरिद् यक्षो विजयो हंसवाहनः । दधानो दक्षिणे चक्र भुजे वामे तु मुद्गरम् ॥ १०८॥ मैरालयाना पीताङ्गी भृकुटी नाम देव्यपि । दधती दक्षिणी बाहू खड्ग-मुद्गरधारिणौ ॥ १०९॥ वामौ फलक-परशुलाञ्छितौ बिभ्रती भुजौ । तदा भगवतोऽभूतामुभे शासनदेवते ॥ ११० ॥
॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ वर्षणशीलः वार्षुकः । २ मिथ्याज्ञानानि । ३ अविरतिमान्-व्रतप्रत्याख्यानत्यागादिधर्मरहितः प्रमद्वरः। ४ इन्द्रे । ५ स्तनितं मेघगर्जितम् । ६ 'प्राणिभिः रतिः' इति पदविभागः । रतिः आसक्तिः। ७ असृग् रुधिरम् । अघ्राणि-भाषायाम्'आंतरडां'। ८ विस्रम्-लोहितम् भाषायाम्-लोही। * महन्मो° संवृ० सङ्घ० ॥ मिलिनस्यन्द° सङ्घ ॥ ९ जग्धं भक्षितम् । १० पायं पायम्-पीत्वा पीत्वा ।। स्तनौ सङ्घ०॥ ११ क्षीरविकृतिः इक्षुविकृतिश्च । एते द्वे विकृती अन्यासामपि धृतशर्करादिविकृतीनामुपलक्षणम् । १२ शरीरे। १३ भक्षयित्वा। १४ प्रातःकाले। १५ शुचिः इव दृश्यते। १६ तैलेन अभ्यक्तः। १७ मद्यघटः। १८ अंशवः किरणाः तैः सूर्यस्नानम् । १९ तुषकण्डनम्-भाषायाम् 'फोफां खांडवा'। २०क्षाराद समुद्रात् । २१ समाप्तसंगीतश्रवणाः। २२ हंसवाहना।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[तृतीयं पर्व अमुक्तसन्निधिस्ताभ्यां सर्वातिशयभाजनम् । व्योमेव चन्द्रो व्यहरत् पृथ्वी चन्द्रप्रभप्रभुः ॥ १११ ॥
सार्धा द्विलक्षी साधूनां साध्वीलक्षत्रयी पुनः । सहस्राशीतिसहिता द्वे सहस्रे तु पूर्विणाम् ॥११२ ॥ शताशीतिः सावधीनां मनःपर्ययिणां तथा । तथा दश सहस्राणि केवलज्ञानधारिणाम् ॥ ११३ ॥ जातवैक्रियलब्धीनां सहस्राणि चतुर्दश । वादलब्धिमतां सप्तसहस्री षट् शतानि च ॥ ११४ ॥ सार्धे लक्षे श्रावकाणां श्राविकालक्षपञ्चकम् । सहस्रैर्नवभिन्यूनं परिवारोऽभवत् प्रभोः ॥ ११५ ॥ पूर्वलक्षं त्रिमासोनं चतुर्विंशाङ्गवर्जितम् । विहत्य केवले खामी ययौ सम्मेतपर्वतम् ॥ ११६ ॥ समं मुनिसहस्रेण प्रपेदेऽनशनं प्रभुः । सुरा-ऽसुरैः सेव्यमानो मासं चास्थात् तथास्थितः ॥११७ ॥ सर्वयोगनिरोधेन निष्कम्पं ध्यानमास्थितः । तत्क्षणं क्षीणभवोपग्राहिकर्मचतुष्टयः ॥ ११८ ॥
नभस्यकृष्णसप्तम्यां श्रवणस्थे निशाकरे । समं तैमुनिभिः स्वामी जगाम परमं पदम् ॥ ११९ ॥ 10 कौमारे पूर्वलक्षे द्वे सार्धे राज्यस्थितौ पुनः । पूर्वलक्षाः षट् च सार्धाश्चतुर्विंशाङ्गसंयुताः ॥ १२० ॥
चतुर्विंशत्यङ्गहीनं पूर्वलक्षं पुनर्बते । इत्यायुः पूर्वलक्षाणि दश चन्द्रप्रभप्रभोः ॥ १२१ ॥ सुपार्श्वस्वामिनिर्वाणाच्छ्रीचन्द्रप्रभनिवृतिः । शतेष्वर्णवकोटीनां व्यतीतेषु नवस्त्रभृत् ॥ १२२ ।।
इति मोक्षमुपेयुषः प्रभोतिनां चैव शरीरसंस्क्रियाम् ।।
विधिवद् विदधुः सुरेश्वराः, पुनरेव त्रिदिवं प्रपेदिरे ॥ १२३ ॥ 15 ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीये
पर्वणि चन्द्रप्रभखामिचरितवर्णनो नाम षष्टः सर्गः॥
* प्रभः प्र संवृ०॥ सार्धद्वि० संबृ०॥ नं केवलात् प्रभृति प्रभः। विहत्य मोक्षकालको ययौ संवृ. सङ्घ० ॥ १ योगाः व्यापाराः, सर्वक्रियानिरोधेन । २ नभस्यः-भाद्रपदमासः। ॥णाश्चन्द्रप्रभस्य निवृतिः संवृ०॥ रसक्रिया संबृ०॥
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सप्तमः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
सप्तमः सर्गः। श्रीसुविधिनाथचरित्रम् ।
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वन्दे श्रीपुष्पदन्तस्य पुष्पदामेव निर्मलम् । जगत्रयशिरोवाचं शासनं पापनाशनम् ॥१॥ नवमस्याहतस्तस्यानवमं चरितं प्रभोः । तत्प्रभावात् प्रभविष्णुधिषणः कीर्तयाम्यदः ॥ २॥ पुष्करवरद्वीपार्थे प्राग्विदेहेषु पुष्कले । विजये पुष्कलावत्यामस्ति पूः पुण्डरीकिणी ॥३॥ 5 तस्यां पर्यामभन्नाम्रा महापद्मो महीपतिः । महाहिमादौ गम्भीरो महापद्म इव हदः॥४॥ आजन्मस्वीकृतस्तस्य शैशवे यौवनेऽपि च । धर्मो वपुःश्रिया सार्धमवर्धत यथोत्तरम् ॥५॥ स विरत्या विहीनेन मुहूर्तेनाप्ययत । धनेन वृद्धिहीनेन वृद्ध्याजीव इवान्वहम् ॥ ६ ॥ धर्मकृत्यानि कर्वाणो राज्यकत्यानि सोऽकरोत । वारिपाणमिवाध्वन्यस्तरन्नध्वतरङ्गिणीम ॥७॥ सम्यक् श्रावकधर्म स निजं कुलमिवामलम् । सुचिरं पालयामास प्रमादरहितः सुधीः॥८॥ 10 प्रायः सन्तोषनिष्ठोऽपि न धर्मे सन्तुतोष सः । स्तोकधर्मानपि परान् मेने चाभ्यधिकान् खतः ॥९॥ दिव्यास्त्रमिव युत्पारे भवपारयियासया । परिव्रज्यां स जग्राह जगन्नन्दगुरोः पुरः॥ १० ॥ नियूंढः श्रावकधर्मे दृढं सोऽपालयद् व्रतम् । कृतसंलेखन इवानशनं मारणान्तिकम् ॥ ११॥ एकावलीप्रभृतिभिः स तपोभिः सुदुस्तपैः । अर्हद्भक्त्यादिभिश्वोच्चैस्तीर्थकृन्नाम निर्ममे ॥ १२ ॥ एवंविधैरनुष्ठानैर्निजायुरतिवाह्य सः । विमाने वैजयन्ताख्ये महर्द्धिरमरोऽभवत् ॥१३॥
इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् भरतार्धे तु दक्षिणे । काकन्दीत्यस्ति नगरी श्रीविशेषगरीयसी ॥ १४ ॥ भान्ति तत्रौकसां मुक्तावेचलाः पुष्पधन्वनः । मनस्विनीवशीकारजपमाल इवाऽमलाः ॥१५॥ तत्राऽऽयतनसङ्गीतगीतमुच्चैश्चतुर्विधम् । प्रपद्यते खेचरीणां गतेः स्तम्भनमन्त्रताम् ॥ १६ ॥ उद्दण्डपुण्डरीकाढ्या विशंदापा जलाशयाः । व्यक्तोडुशरदभ्रां द्यामनुकुर्वन्ति तत्र च ॥ १७॥ दूरादप्यभिगम्यन्ते नीयन्ते पाद्यपात्रताम् । प्रीण्यन्ते चोचितैरथुस्तस्यां गुरुवदर्थिनः ॥ १८ ॥ 20 सुग्रीवो नाम समभूद् ग्रैवेयकमिवावनेः । ग्रैवेयकामर इव श्रिया तत्र महीपतिः॥१९॥ तस्याऽऽज्ञा नगरा-ऽरण्य-सागरेषु गिरिष्वपि । सिद्धमत्रायुधमिव न क्वापि प्रत्यहँन्यत ॥ २० ॥ तस्मादद्रेरिव प्रादुर्भूता नीतितरङ्गिणी । उत्कल्लोलयशोवारिः प्रासरत् सागरावधि ॥ २१॥ यशोराशिपयोराशिस्तस्यो:शशिरोमणेः । विस्तृताः कीर्तिसरितो जग्रसे सर्वभूभृताम् ॥ २२ ॥ विरामः सर्वदोषाणामभिरामाऽमलैर्गुणैः । सर्वरामाँशिरोरत्नं तस्य रामेति पत्यभूत् ॥ २३ ॥ 25
१ अवमम् अधमम् , अनवमम् उत्तमम् । २ वृद्ध्याजीवः भाषायाम् 'व्याजखाऊ'। ३ जलपानम् । अध्वन्यः प्रवासी। ४ अन्यान् जनान् अल्पधर्मयुक्तान् अपि स्वतः अधिकान् उत्तमान् अमन्यत । ५ दृढमनाः। ६ संलेखना जीवितावसानप्राये समये क्रियमाणः संस्तारकः, मारणान्तिकम् मरणसामीप्यम् तत्र क्रियमाणं तपः । * मर संवृ० मो० ॥ ७ एकावलीनामकहारवत् यत्र तपसि उपवासादिभिः सूक्ष्मता स्थूलता अतिस्थूलता च क्रियते तद् 'एकावली'तपः । एवं रत्नावली-मुक्तावल्यादीनि तपांसि बोध्यानि । ८ अतिवाह्य समाप्य समाप्तं कृत्वा। ९ अवचूला ध्वजसंलग्ना अधोमुखा गुच्छाः, गृहाणां ध्वजे संबद्धाः मुक्कामयाः अधोमुखा मुक्तागुच्छा इति भावः। १० आयतने-गृहे गायक-गायिकादिभिः संगीतं यद् गीतम् गानम् । चतुर्विधता च गानस्यनर्तनं १ अभिनयः २ वादनं ३ भालापादिभिः गानं च ४ इति । ११ अर्को दण्डः यस्य तद् उद्दण्डं तादृशं पुण्डरीकम्-कमलम् तैः आढ्याः-पूर्णाः । १२ विशदाः आपः येषु तादृशाः जलाशयाः। १३ यत्र शरदि आकाशे उडूनि-तारकाणि व्यक्तानि । जलाशयाः गगनरूपाः, पुण्डरीकाणि च तारकरूपाणि । १४ यत्र दातारः याचकानां सम्मुखं गच्छन्ति। १५ गैवेयकम्-ग्रीवायाः भाभरणम् । १६ न कापि स्खलिता। १७ रामाः स्त्रियः।
त्रिपष्टि. ३९
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३०२ कलिकालसर्वजश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[तृतीयं पर्व निसर्गमानोज्ञकभूदृशामानन्ददायिनी । गगने चन्द्रलेखेव सैकैवाभून्महीतले ॥ २४ ॥ पक्षद्वयेन शुद्धेन राजन्ती मधुरखरी । सा पत्युर्मानसे राजहंसीवोवास सर्वदा ॥२५॥ रतिर्न रतिमन्वाप न प्रीतिः प्रीतिमाययौ । रूपेणाप्रतिरूपेण भृशं तस्याः पराजिता ॥ २६ ॥ सुग्रीवनृपतेस्तस्याश्चान्योऽन्यमनुरूपयोः । क्रीडतोरगमत् कालो रोहिणी-शशिनोरिव ॥ २७॥
इतश्च वैजयन्तस्थो महापद्मस्य भूपतेः । जीवोऽपूरयदायुः खं त्रयस्त्रिंशतमर्णवान् ॥ २८॥ फाल्गुनासितनवम्यां मूलस्थे रजनीकरे । च्युत्वा ततस्तस्य जीवो रामाकुक्षाववातरत् ॥ २९॥ ददर्श च तदा देवी महाखमांश्चतुर्दश । गजादींस्तीर्थकृजन्मसूचकान् विशतो मुखे ॥३०॥ जगदाधारहेतुं तं देवी गर्भ दधार सा । क्रीडन्तं मत्तकलभं निम्नगेव हिमाद्रिजा ॥ ३१॥
अथ मार्गशीर्षकृष्णपञ्चम्यां मूर्लंगे विधौ । श्वेतवर्ण मॅकराङ्क सुतरत्नमसूत सा ॥ ३२ ॥ षट्पञ्चाशद् दिक्कुमार्यस्ततो भोगङ्करादयः । स्वामिनः स्वामिमातुश्च सूतिकर्माणि चक्रिरे ॥ ३३ ॥ सौधर्मकल्पाधिपतिराभियोग्य इवामरः। आदाय स्वामिनं भक्त्या मेरुशैलशिरो ययौ ॥ ३४ ॥ तचूलाया दक्षिणतोऽतिपाण्डुकम्बलास्थिते । सिंहासन उपाविक्षच्छक्रोऽङ्कारोपितप्रभुः ॥ ३५ ॥ अच्युता भक्तितस्तत्राच्युताद्यास्त्रिदशेश्वराः । त्रिषष्टिः स्नपयामासुः स्वामिनं तीर्थवारिभिः ॥ ३६॥ अथेशमैशानपतेः सौधर्मेशः समार्पयत् । रेक्ष्यवस्तु स्वयामान्ते यामिकस्येव यामिकः ॥ ३७॥ अथ स्वामिनमीशानोत्सङ्गासीनं दिवस्पतिः । मपयामास वृषभशृङ्गोत्थैर्गन्धवारिभिः ॥ ३८ ॥ अङ्गरागैर्नवैश्चर्चामर्चा चाऽऽभरणादिभिः । आरात्रिकं च कृत्वेति प्रभुं तुष्टाव वासवः ॥ ३९ ॥ __ धर्महर्म्यदृढस्तम्भ! सम्यग्ज्ञानसुधाह्रद ! । जगदानन्दजीमूत ! जय त्रिभुवनेश्वर ! ॥४०॥ जगदीश ! तव ब्रूमः किं नामातिशयान्तरम् ? । यन्माहात्म्यगुणक्रीती त्रिलोकी याति दासताम् ॥४१॥
स्वर्गराज्येऽपि न भ्राजे तथा दास्ये यथा तव । भात्यद्रौ न तथा रत्नमप्यनिकटके यथा ॥ ४२ ॥ 20 शिवं यियासुरायासीर्वैजयन्ताच्छिवान्तिकात् । मार्गभ्रान्तस्य लोकस्य मार्ग दर्शयितुं ध्रुवम् ॥ ४३॥ भरतक्षेत्रगेहस्य चिरात् त्वमसि दैवतम् । निःशङ्कं तत्र धर्मोऽद्य गृहस्थ इव नन्दतु ॥ ४४ ॥
नि: । अवतारणतां यात सर्वोऽयं दिविषद्गणः ॥४५॥ ज्योत्स्नायिते प्रभापूरे लीयमानानि सस्पृहम् । दिष्ट्या त्वयि चकोरन्ति लोचनानि चिरात् प्रभो! ॥४६॥ वासागारे सभायां वा तिष्ठतश्चलतोऽपि मे । त्वन्नाममत्रस्मरणमस्तु सर्वार्थसिद्धिदम् ॥ ४७॥
जिनेश्वरमिति स्तुत्वा गृहीत्वा च सुरेश्वरः । नीत्वा च रामास्वामिन्याः पार्थे न्यास यथास्थिति ४८ कुशला सर्वविधिषु गर्भस्थेऽस्मिन् जनन्यभूत् । पुष्पदोहदतो दन्तोद्गमोऽस्य समभूदिति ॥ ४९ ॥ सुविधिः पुष्पदन्तश्चेत्यभिधानद्वयं विभोः । महोत्सवेन चक्राते पितरौ दिवसे शुभे ॥५०॥ युग्मम् ॥ जन्मतः प्रभृति स्वामी दर्शयन्नन्तरं महत् । क्रमेण ववृधे मेपसङ्क्रान्तेरिव वासरः ॥५१॥
अवाप च जगन्नाथो यौवनं रूपपावनम् । धनुःशतोचः श्वेताङ्गः क्षीरोद इव मूर्तिमान् ॥५२॥ 30 खामी भवविरक्तोऽपि भृशं पित्रनुरोधतः । उपयेमे राजकन्याः श्रियो विजयिनीः श्रिया ॥५३॥
* मनो संबृ० मो० ॥ १ मानोज्ञकम् -सौन्दर्यम् । २ मातृ-पितृपक्षद्वयेन, हंसीपक्षे पक्ष भाषायाम् 'पांख' इति । +रा। स्वप संवृ०॥ ३ रतिः प्रीतिश्च कामस्य भार्ये । ४ मूलनक्षत्रस्थे । ५ विशतः-प्रवेशं कुर्वतः। ६ चन्द्रे मूलनक्षत्रं गते । ७ मकरः चिह्न यस्य । ८ द्वितीयान्तम् ।। तात)भक्तयस्त मो० संल. सच ॥ ९ रक्षणीयं वस्तु । यामः प्रहरः । यामिकः प्राहरिका, भापायाम् 'पहेरावाळो'। १० जीमूतो मेघः। ११क्रीती भाषायाम् 'खरीदेली'। १२ शोभां प्राप्नोमि । १३ सिद्धशिलानामकं स्थानं शिवम् , तस्य अन्तिकान समीपान । ' "पस्याप्यति सह ॥ १४ ज्योत्स्नासमाने। १५ चकोरवत् आचरन्ति । पि वा । त्वन्नाममन्त्रस्मरणं मेऽस्तु स संबृ०॥ १६ स्थापयामास । १७ मेषसंक्रान्तेः आरभ्य ।
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सप्तमः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । गतायां पूर्वपञ्चाशत्सहरुयां जन्मतः प्रभुः । अलुब्धः पितृदाक्षिण्याद् राज्यभारमुपाददे ॥ ५४॥ साष्टाविंशतिपूर्वाङ्गं कालं तावन्तमेव हि । साम्राज्यं पालयामास विधिवत् सुविधिप्रभुः ॥ ५५॥
ईयेष च व्रतं खामी ते च लौकान्तिकामराः । तत्कृते प्रेरयामासुश्चाटुकारा इव प्रभुम् ॥५६॥ गतकामो यथाकामं चिन्तामणिरिवार्थिनाम् । ददौ दानं जगन्नाथस्ततः संवत्सरावधि ॥ ५७ ॥ पर्यन्ते तस्य दानस्य जन्मकाल इवामरैः । विधिवद् विदधे दीक्षाभिषेकः परमेशितुः ॥५८॥ 5 ततः सूरप्रभा नामाध्यारुह्य शिविकां प्रभुः । वृतः सुरा-ऽसुर-नरैः सहस्राम्रवणं ययौ ॥ ५९॥ मार्गकृष्णषष्ठयां मूलेऽपराह्ने षष्ठपूर्वकम् । समं राज्ञां सहस्रेण प्रव्रज्यामाददे प्रभुः ॥६०॥ द्वितीयेऽह्नि श्वेतपुरे पुरे पुष्पनृपौकसि । चकार परमानेन पारणं परमेश्वरः ॥६१॥ विदधुर्वसुधारादिपञ्चकं च दिवौकसः । रत्नपीठं स्वामिपादस्थाने पुष्पनृपः पुनः ॥ ६२॥ एकाङ्गो निर्ममोऽसङ्गः सहमानः परीषहान् । छमस्थो विजहाराथ चतुर्मासी जगत्पतिः ॥ ६३॥ 10 आजगाम प्रभुर्भूयः सहस्राम्रवणं वनम् । मालूरतरुमूले चावतस्थे प्रतिमाधरः ॥ ६४ ॥ आरूढक्षपकश्रेणेरपूर्वकरणक्रमात् । ऊर्जशुक्लतृतीयायां मूलेऽभूत् केवलं प्रभोः॥६५॥ ततः समवसरणं व्यधीयत सुरा-ऽसुरैः । पूर्वद्वारेण तत्राथ प्रविवेश जगद्गुरुः ॥६६ ॥ तत्र द्वादशकोदण्डशतोचं चैत्यपादपम् । प्रभुः प्रदक्षिणीचक्रे सर्वातिशयशोभितः ॥ ६७॥ 'तीर्थाय नम' इत्युक्त्वाऽध्यास्त सिंहासनं प्रभुः। प्राअखो दिक्षु चान्यासु तद्रूपाणि व्यधुः सुराः॥६८॥15 यथास्थानमथान्येऽपि निषेदुरमरादयः । प्रणम्याथ प्रभुं शक्रः स्तोतुमेवं प्रचक्रमे ॥ ६९॥
वीतरागोऽसि चेद् रागः पाणिपादे कथं तव । कौटिल्यं चेत् त्वया मुक्तं किं केशाः कुटिलास्तव ॥७॥ प्रजानां यदि गोपस्त्वं दण्डहस्तोऽसि किं न हि ?। निःसङ्गो यदि वाऽसि त्वं तत्किं त्रैलोक्यनाथता ७१ यदि त्वं निर्ममस्तत् किं सर्वत्र करुणापरः । त्यक्तालङ्करणश्चेत् त्वं तत् किं रत्नत्रयप्रियः ॥७२॥
श्वस्याप्यनुकूलश्चेत् तत् किं मिथ्यादृशां द्विषन् ? । खभावसरलश्चेत् त्वं छअस्थोऽस्थाः कथं पुरा॥७३॥ 20 दयावान् यदि वाऽसि त्वंन्यग्रहीमन्मथं कथम् ? । यदि च त्वं गतभयो भवाद् भीतोऽसि तत् कथम् ॥७४॥ यापेक्षापरोऽसि त्वं तत् किं विश्वोपकारकः? । अंदीप्तो यदि वाऽसि त्वं दीप्तंभामण्डलः कथम् ॥७५॥ यदि शान्तस्वभावस्त्वं तत् कुतस्तप्तवांश्चिरम् । अरोषणोऽसि यदि च रुषितः कर्मणां कथम् ? ॥ ७६ ॥ अविज्ञेयस्वरूपाय महयोऽपि महीयसे । सिद्धानन्तचतुष्काय तुभ्यं भगवते नमः ॥७७ ॥
विरचय्य स्तुतिमिति तूष्णीके सति वासवे । भगवान् सुविधिखामी विदधे देशनामिति ॥ ७८ ॥25 अनन्तदुःखसम्भारनिधानं खल्वयं भवः । प्रभवश्वाऽऽस्रवस्तस्य विषस्येव महोरगः ॥७९॥ मनो चाकायकर्माणि योगाः कर्म शुभा- शुभम् । यदाश्रवन्ति जन्तूनामाश्रवास्तेन कीर्तिताः ॥ ८॥ मैन्यादिवासितं चेतः कर्म सूते शुभात्मकम् । कषाय-विषयाक्रान्तं वितनोत्यशुभं पुनः॥ ८१॥ शुभार्जनाय निर्मिथ्यं श्रुतज्ञानाश्रितं वचः । विपरीतं पुनर्जेयमशुभार्जनहेतवे ॥ ८२॥ शरीरेण सुगुप्तेन शरीरी चिनुते शुभम् । सततारम्भिणा जन्तुघातकेनाशुभं पुनः ॥ ८३॥
30 कषाया विषया योगाः प्रमादा-विरती तथा । मिथ्यात्वमार्त-रौद्रे चेत्यशुभं प्रति हेतवः ॥ ८४॥ यो कर्मपुद्गलादानहेतुः प्रोक्तः स आश्रवः । कर्माणि चाष्टधा ज्ञानावरणीयादिभेदतः ॥ ८५ ॥
१ इच्छां चकार । २ मालूरः बिल्ववृक्षः। * तलमू संवृ० ॥ ३ ऊर्जः कार्तिकः। *पुरः संवृ०॥ ४ अदीप्तः अकोधः। ५ दीप्तम्-सुशोभितम्। ६ तपः कृतवान् । ७ रोषयुक्तः। ८ महते। ९प्रभवः उत्पत्तिस्थानम् । १० मिम्बारह वर-सत्यम् । श्लोकोऽयं संदृ० नास्ति ।
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कलिकाल सर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ तृतीयं पर्व
८६ ॥
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ज्ञान-दर्शनयोस्तद्वत् तद्धेतूनां च ये किल । विघ्नं निह्नव पैशुन्याऽऽशातना-वात- मत्सराः ॥ ज्ञान- दर्शनाचारकर्महेतव आस्रवाः । देवपूजा गुरूपास्तिः पात्रदानं दया क्षमा ॥ ८७ ॥ सरागसंयमो देशसंयमोऽकामनिर्जरा । शौचं बालतपश्चेति सद्वेद्यस्य स्युराश्रवाः ॥ ८८ ॥ दुःख-शोक-वधास्तापा-ऽऽक्रन्दने परिदेवनम् । स्वान्योभयस्थाः स्युरसद्वेद्यस्यामी इहाऽऽश्रवाः ॥ ८९ ॥ 5 वीतरागे श्रुते स धर्मे सर्वसुरेषु च । अवर्णवादिता तीत्रमिध्यात्वपरिणामिता ॥ ९० ॥ सर्वज्ञ-सिद्धि-देवापह्नवो धार्मिकदूषणम् । उन्मार्गदेशना ऽनर्थाग्रहोऽसंयत पूजनम् ॥ ९१ ॥ असमीक्षितकारित्वं गुर्वादिष्ववमानना । इत्यादयो दृष्टिमोहस्याऽऽश्रवाः परिकीर्तिताः ॥ ९२ ॥ कषायोदयतस्तीत्रपरिणामो य आत्मनः । चारित्रमोहनीयस्य स आश्रव उदीरितः ।। ९३ ।। प्रासनं सकन्दर्पोपहासो हासशीलता । बहुप्रलापो दैन्योक्तिर्हासस्यामी स्युराश्रवाः ॥ ९४ ॥ 10 देशादिदर्शनौत्सुक्यं चित्रे रमण- खेलने । परचितीवर्जनं चेत्याश्रवाः कीर्त्तिता रतेः ॥ असूया पापशीलत्वं परेषां रतिनाशनम् । अकुशलप्रोत्साहनं चाsरतेराश्रवा अमी ॥ स्वयं भयपरीणामः परेषामथ भापनम् | त्रासनं निर्दयत्वं च भयं प्रत्याश्रवा अमी ॥ परशोकाविष्करणं स्वशोकोत्पाद - शोचने । रोदनादिप्रसक्तिच शोकस्यैते स्युराश्रवाः ॥ चतुर्वर्णस्य सङ्घस्य परिवाद - जुगुप्सने । सदाचारजुगुप्सा च जुगुप्सायाः स्युराश्रवाः ॥ 15 ईर्ष्या-विषयगा च मृषावादोऽतिवक्रता । परदाररतासक्तिः स्त्रीवेदस्याऽऽश्रवा इमे ॥ स्वदारमात्र सन्तोषोनी मन्दकषायता । अवक्राचारशीलत्वं पुंवेदस्याऽऽश्रवा इति ॥ स्त्री-पुंसानङ्गसेवाग्राः कषायास्तीत्रकामता । पाखण्डस्त्रीतभ्रंशः पण्ढवेदाश्रवा अमी ॥ १०२ ॥ साधूनां गर्हणा धर्मोन्मुखानां विघ्नकारिता । मधु-मांसाविरतानामविरत्यभिवर्णनम् ॥ १०३ ॥ विरताविरतानां चान्तरायकरणं मुहुः । अचारित्रगुणाख्यानं तथा चारित्रदूषणम् ॥ १०४ ॥ 20 कषाय- नोकषायाणामन्यस्थानामुदीरणम् । चारित्रमोहनीयस्य सामान्येनाऽऽश्रवा अमी ॥ १०५ ॥ पञ्चेन्द्रियप्राणिवधो बह्वारम्भ- परिग्रहौ । निरनुग्रहता मांसभोजनं स्थिरवैरता ।। १०६ ।। रौद्रध्यानं मिथ्यात्वाऽनन्तानुबन्धिकषायते । कृष्ण-नील- कपोताश्च लेश्या अनृतभाषणम् ॥ १०७ ॥ परद्रव्यापहरणं मुहमैथुन सेवनम् । अवशेन्द्रियता चेति नरकायुष आश्रवाः ॥ १०८ ॥ उन्मार्गदेशना मार्गप्रणाशो गूढचित्तता । आर्त्तध्यानं सशल्यत्वं मायाऽऽरम्भ - परिग्रहौ ॥ १०९ ॥ 25 शीलवते सातिचारे नील- कापोतलेश्यता । अप्रत्याख्यान कषायास्तिर्यगायुष आश्रवाः ।। ११० ।। अल्प परिग्रहाऽऽरम्भ सहजे मार्दवा ऽऽर्जवे । कापोत- पीतलेश्यत्वं धर्मध्यानानुरागिता ॥ १११ ॥ प्रत्याख्यानकषायत्वं परिणामश्च मध्यमः । संविभाग विधायित्वं देवता- गुरुपूजनम् ॥ ११२ ॥ पूर्वालाप- प्रियालापौ सुखप्रज्ञापनीयता । लोकयात्रासु माध्यस्थ्यं मानुषायुष आश्रवाः ॥ ११३ ॥ सरागसंयम देशसंयमोकामनिर्जरा । कल्याणमित्रसम्पर्को धर्मश्रवणशीलता ॥ ११४ ॥ पात्रे दानं तपः श्रद्धा रत्नत्रयाविराधना । मृत्युकाले परीणामो लेश्ययोः पद्म- पीतयोः ॥ ११५ ॥ बालें तपोऽग्नि-तोयादिसाधनोल्लम्बनानि च । अव्यक्तसामायिकता दैवस्याऽऽयुष आश्रवाः ।। ११६ ।।
१०० ॥ १०१ ॥
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ફે૦૪
१ ज्ञानहेतुषु ज्ञाने स विन्नः, निह्नवः-अपलाप:, पैशुन्यम्, आशातना, घातः, मत्सरः इत्यते ज्ञानावरणहेतवः । २ भावारकम् - आवरणरूपम् । ३ सर्वज्ञस्य सिद्धेः देवानां च अपह्नवः-अपलापः । ४ अधिक हसनम् । ५ देशः प्रदेश:भङ्गोपाङ्गानि इति । ६ परचित्तस्य आकर्षणम् । ७ भयदर्शनम् । ८ परिवादः - निन्दा जुगुप्सा-घृणा । ९ उन्मुखाः तत्पराः । १० भम्यचिरास्थितानाम् । ३१ धर्म मार्गस्य नाशः । * ●ख्यानाः क० सं० ॥ १२ विवेकरहितं तपः-अज्ञानतपः ।
९६ ॥
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सप्तमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
३०५ मनो-चाकायवक्रत्वं परेषां विप्रतारणम् । मायाप्रयोगो मिथ्यात्वं पैशुन्यं चलचित्तता ॥ ११७ ॥ सुवर्णादिप्रतिच्छन्दकरणं कूटसाक्षिता । वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शाद्यन्यथापादनानि च ॥ ११८ ।। अङ्गोपाङ्गच्यावनानि यत्र-पञ्जरकर्म च । कूटमान-तुला-कर्मा-ऽन्यनिन्दा-ऽऽत्मप्रशंसनम् ॥ ११९ ।। हिंसा-ऽनृत-स्तेया-ब्रह्म-महारम्भ-परिग्रहाः । परुषा-ऽसभ्यवचनं शुचिवेषादिना मदः ॥ १२० ॥ मौखर्या-ऽऽक्रोशौ सौभाग्योपघातः कार्मणक्रिया । परकौतूहलोत्पादः परहास-विडम्बने ॥ १२१ ॥ 5 वेश्यादीनामलङ्कारदानं दावाग्निदीपनम् । देवादिव्याजाद् गन्धादिचौर्य तीवकषायता ॥ १२२ ॥ चैत्य-प्रतिश्रया-ऽऽराम-प्रतिमानां विनाशनम् । अङ्गारादिक्रिया चैवाशुभस्य नाम्न आश्रवाः ॥ १२३ ॥ एत एवान्यथारूपास्तथा संसारभीरुता । प्रमादहानं सद्भावार्पणं क्षान्त्यादयोऽपि च ॥१२४ ॥ दर्शने धार्मिकाणां च सम्भ्रमः स्वागतक्रिया । आश्रवाः शुभनाम्नोऽथ तीर्थकुन्नाम्न आश्रवाः ॥ १२५ ॥ भक्तिरर्हत्सु सिद्धेषु गुरुषु स्थविरेषु च । बहुश्रुतेषु गच्छे च श्रुतज्ञाने तपस्विषु ॥१२६॥ आवश्यके व्रत-शीलेष्वप्रमादो विनीतता । ज्ञानाभ्यासस्तपस्त्यागौ मुहुर्ष्यानं प्रभावना ॥१२७ ॥ सङ्घ समाधिजननं वैयावृत्यं च साधुषु । अपूर्वज्ञानग्रहणं विशुद्धिर्दर्शनस्य च ॥ १२८॥ आद्यन्ततीर्थनाथाभ्यामेते विंशतिराश्रवाः । एको द्वौ वा त्रयः सर्वे वाऽन्यैः स्पृष्टा जिनेश्वरैः ॥ १२९ ॥ परस्य निन्दा-ऽवज्ञोपहासाः सद्गुणलोपनम् । सदसदोपकथनमात्मनस्तु प्रशंसनम् ॥ १३० ॥ सदसद्गुणशंसा च सद्दोषाच्छादनं तथा । जात्यादिभिर्मदश्चेति नीचैर्गोत्राश्रवा अमी ॥ १३१॥ 15 नीचैर्गोत्रावविपर्यासो विगतगर्वता । वाकाय-चित्तैर्विनय उच्चैर्गोत्राश्रवा अमी ॥ १३२ ॥ दाने लाभे च वीर्ये च तथा भोगोपभोगयोः। सव्याजा-ऽव्याजविघ्नोऽन्तरायकर्मण आश्रवाः॥ १३३ ॥ तदित्याश्रवजन्माऽयमपारो भवसागरः । प्रव्रज्यायानपात्रेण तरणीयो मनीषिणा ॥ १३४ ॥ कुमुदानीन्दुभासेवाबुध्यन्त बहवस्तदा । धर्मदेशनया भर्तुः प्रावजंश्च सहस्रशः ॥ १३५ ॥ अष्टाशीतिराहाद्या आसन् गणभृतः प्रभोः । देशनान्ते च विदधे वराहो धर्मदेशनाम् ॥ १३६ ॥ 20 गणभृद्देशनान्तेऽयुः स्खं खं स्थानं सैंरा-ऽसुराः । नन्दीश्वरस्य मध्येन कुर्वन्तोऽष्टाह्निकोत्सवम् ॥ १३७॥
तत्तीर्थजन्मा त्वजितः श्वेताङ्गः कूर्मवाहनः । बिभ्राणो दक्षिणी वाहू मातुलिङ्गा-ऽक्षसूत्रिणौ ॥१३८॥ वामौ तुं नकुल-कुन्तधारिणौ धारयन् मुजौ । नित्यमासन्नवासीद् भर्तुः शासनदेवता ॥ १३९ ॥ तथोत्पन्ना सुताराख्या गौराङ्गी वृषवाहना । वरदं साक्षसूत्रं च विभ्राणा दक्षिणौ भुजौ ॥ १४० ॥ कलशा-कुशिनौ बाहू दधाना दक्षिणेतरौ । पारिपार्श्विक्यभून्नित्यं भर्तुः शासनदेवता ॥ १४१॥ 25 ताभ्यामधिष्ठिताभ्यर्णः कृपारसमहार्णवः । विजहार जगन्नाथो जगतीं बोधयन् जनान् ॥ १४२ ॥
साधुद्विलक्षी साध्वीनां लक्षं विंशसहस्रयुकू । अवधिज्ञानिनामष्टौ सहस्राः सचतुःशताः ॥ १४३ ॥ सहस्र पूर्विणां साधं मनःपर्ययिणां पुनः । पञ्चसप्ततिशत्येषा केवलज्ञानिनामपि ॥ १४४ ॥ जातवैक्रियलब्धीनां सहस्राणि त्रयोदश । सञ्जातवादलब्धीनां सहस्राणि पडेव हि ॥१४५ ॥ सैकोनत्रिंशत्सहस्रा श्रावकाणां द्विलक्ष्यथ । श्राविकाणां चतुर्लक्षी द्वासप्ततिसहस्रयुक् ॥ १४६ ॥ 30
कृत्रिमसुवर्णादि कृत्वा सत्यसुवर्णादित्वेन प्रकटनम् । २ अन्यपदार्थानां वर्णादिपरावर्तन कृत्वा मूलपदार्थरूपतया व्यवहारः, यथा कृत्रिमं घृतम्-'वेजिटेबल धी'। ३ देवादिनिमित्तम्। ४ प्रतिश्रयः -उपाश्रयः दानशाला वा। ५ सम्भ्रमः-आदरः। ६ अवश्यकर्तग्यरूपप्रतिक्रमणादिकम् । ७ सेवा। ८ तदिति-तेन पूर्वोक्तेन प्रकारेण । * सुरेश्वराः संबृ०॥ +च संवृ०॥ १ भम्पर्णम्-सामीप्यम् । १. मेषां बादलभिः -प्रतिवाअवश्यविजयरूपा।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ तृतीयं पर्व
ऊनमष्टाविंशत्यङ्गया चतुर्मास्या च केवलात् । पूर्वलक्षं विहरतः परिवारोऽभवत् प्रभोः ॥ १४७ ॥ ॥ पञ्चभिः कुलकम् ॥
सम्मेताद्रिं ततो गत्वा ऋषीणां दशभिः शतैः । प्रपेदेऽनशनं स्वामी मासं चास्थात्तथास्थितः ॥ १४८ ॥ नर्भस्यकृष्ण नवम्यां मूले मे तैः सहर्षिभिः । शैलेशी ध्यानलीनः सन् स्वाम्यगादव्ययं पदम् ॥ १४९ ॥ 5 कौमारे पूर्वलक्षार्धमथ राज्यस्य पालने । युक्तमष्टाविंशत्याऽङ्गैः पूर्वलक्षार्धमेव हि ॥ १५० ॥ अष्टाविंशत्यङ्गहीनं पूर्वलक्षं पुनर्वते । इत्यायुः पूर्वलक्षे द्वे सुविधिखामिनोऽभवत् ॥ १५१ ॥ श्रीचन्द्रप्रभनिर्वाणात् सुविधिस्वामिनिर्वृतिः । सागरोपमकोटीनां गतायां नवतावभूत् ।। १५२ ।। विधिवदमरनाथाः कायसंस्कारपूर्व, मुनिदशशतयुक्तस्यार्हतोऽष्टाधिकस्य ।
शिवगतिमहिमानं चक्रिरे निःसमानं, तदनु सपरिवाराः स्वं स्वमीयुर्विमानम् ॥ १५३ ॥ सुविधिखामिनिर्वाणाद् गते काले कियत्यपि । हुण्डावसर्पिणीदोषात् साधूच्छित्तिरजायत ॥ १५४ ॥ स्थविरश्रावकान् धर्ममथापृच्छन्नतद्विदः । पन्थानं पथसम्मूढाः पथिकान् पथिका इव ॥ १५५ ॥ किञ्चित् कथयतां तेषां धर्ममात्मानुसारतः । अर्थपूजां विदधिरे ते जनाः श्रावकोचिताम् ॥ १५६ ॥ पूजया जातगर्द्धास्ते शास्त्राण्यासूत्र्य तत्क्षणम् । महाफलानि दानानि विविधान्याचचक्षिरे ॥ १५७ ॥ कन्यादानं महीदान प्रदानमयँसामपि । तिलदानं च कार्पासंदानं दानं गवामपि ॥ १५८ ॥ स्वर्णदानं रौप्यदानं प्रदानं सद्मनामपि । अश्वदानं गजदानं शय्यादानमथापरम् ॥ १५९ ॥ दानं महाफलं सर्वमत्रामुत्र च निश्चितम् । एवं व्याचख्युराचार्यभूय ते गृभवोऽन्वहम् ॥ १६० ॥ दानस्य चोचितं पात्रमात्मानं व्याचचक्षिरे । अपात्रं चापरं सर्वमखवहादुराशयाः ॥ १६१ ॥ अप्येवं वञ्चकास्तेऽयुर्लोकानां गुरुतां तदा । निर्वृक्षदेशे क्रियते घेरण्डस्यापि वेदिका ॥ १६२ ॥ जज्ञे तीर्थोच्छेद् एवं समन्तात्, क्षेत्रेऽस्मिन्नाऽऽशीतलखामितीर्थम् । एकच्छत्रं विप्रखेदैस्तदानीं, चक्रे राज्यं निश्युलूकैरिवोच्चैः ॥ १६३ ॥ मिथ्यात्वमाऽऽशान्तिजिनेश मित्थमन्येष्वभूत् षट्सु जिनान्तरेषु । तीर्थप्रणाशादभवच्च तेषु, मिथ्यादृशामस्खलितः प्रचारः ॥ १६४ ॥
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॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीये पर्वणि सुविधिखामिचरितवर्णनो नाम सप्तमः सर्गः ।
१ ध्यानस्थः । २ नभस्य:- भाद्रपदमासः । ३ साधूनाम् उच्छेदः । ४ ये धर्म न विदन्ति ते । *अथ पू° संवृ० मो० ॥ ५ धनेन पूजाम् । ६ गर्धः - आसक्तिः । ७ अयः लोहः । एतच्च अन्यधातूनाम् उपलक्षणम् । सर्व सुखार्थेहा संदृ० ॥ ८ अखर्वम् - अत्यधिकम् । ९ वेदिका - चतुष्कोणम् आसनम्, भाषायाम् ' बाजोठ' इति । १० शीतलस्वामितीर्थम् अवधिं कृत्वा सस आरभ्य । ११ शान्तिजिनतीर्थपर्यन्तम् ।
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अष्टमः सर्गः ]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
अष्टमः सर्गः । श्रीशीतलनाथचरित्रम् ।
श्रीशीतलजिनेन्द्रस्य पादाः शीतरुचेरिव । बोधयन्तः कुंवलयं सन्तु वः शिवतातयः ॥ १ ॥ इदं जगत्रयश्रोत्र शीतलीकारकारणम् । शीतलस्य भगवतश्चरितं कीर्तयिष्यते ॥ २ ॥ पुष्करवरद्वीपार्धे प्राविदेहविभूषणे । विजये वत्ससंज्ञेऽस्ति सुसीमा नाम पूर्वरा ॥ ३ ॥ तस्यां पद्मोत्तराख्योऽभून्नृपः सर्वनृपोत्तरः । अनुत्तरविमानिभ्य इवैकः कश्चिदागतः ॥ ४॥ अलशासने सर्वप्राणिनां करुणापरे । सोदराविव तत्राऽऽस्तां वीर - शान्ताभिधौ रसौ ॥ ५ ॥ उपायैर्वर्धयस्तैस्तैः सोऽनैपायैरनेकशः । नित्यं धर्मे जजागार भाण्डागार इवेश्वरः ॥ ६ ॥ अद्य श्वो वा भृशममुं त्यजामीति स चिन्तयन् । संसारवासे विदेशस्थायीवास्थादनास्थया ॥ ७ ॥
अन्यदा राज्यमुत्सृज्य प्राज्यमप्यश्मखण्डवत् । स्रस्ताघसूरिपादान्ते स प्रव्रज्यामुपाददे ॥ ८ ॥ व्रतानि निरतीचाराण्याचरन्नार्जयत् सुधीः । स तीर्थकृन्नामकर्म स्थान कैरागमोदितैः ॥ ९ ॥ विविधाभिग्रहैस्तीत्रैस्तपोभिर्विविधैरपि । जन्मातिवाह्य सकलं सोऽभवत् प्राणतेश्वरः ॥ १० ॥ 1
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इतश्व जम्बूद्वीपेऽस्मिन् क्षेत्रे चात्रैव भारते । श्रीभद्रं भद्रिलपुरं नामास्ति प्रवरं पुरम् ॥ ११ ॥ परिखावलयेनोच्चैः प्राकारस्तत्र काञ्चनः । जम्बूद्वीपजगत्यब्धिवलयेनेव शोभते ॥ १२ ॥ सायमार्पणवीथीषु प्रदीप्ता दीपधोरणी । तत्र संलक्ष्यते स्वर्णकण्ठिकेव पुरश्रियः ॥ १३ ॥ ऋद्ध्या महत्या भुजङ्ग-वृन्दारकविलासभूः । भोगावत्यमरावत्योरिव सारेण तत् कृतम् ॥ १४ ॥ तस्मिंश्च सत्रशालासु महेभ्यै भजनार्थिनः । भोज्यन्ते विविधैर्भोज्यैरुत्सवे खजना इव ॥ १५ ॥ तस्मिन् दृढरथो नाम नामितारातिमण्डलः । अभूद् भूमण्डलं व्याप्य स्थितोऽब्धिरिव भूपतिः ॥ १६ ॥ स महर्षिगणेनापि वर्ण्यमानैर्निरन्तरम् । अधिकाधिक मत्रीज्यद् गुणैरप्यगुणैरिव ॥ १७ ॥ प्रत्यर्थिभ्यो बलादात्तामर्थिभ्यः स श्रियं ददौ । अदत्तादानदोषस्य प्रायश्चित्तमिवाऽऽचरन् ॥ १८ ॥ तस्याग्रतो भूपतयः कृतभृलुठना मुहुः । सर्वाङ्गालिङ्गितभुवो भूपतित्वं चिराद् ययुः ॥ १९ ॥ ज्ञानोपदेशलेशोऽपि तस्मिन् गुरुजनैः कृतः । वितस्तार महाप्राज्ञे सलिले तैलविन्दुवत् ॥ २० ॥ मन्दाकिनीव सरितां सतीनामग्रतःसरा । तस्याभूद् हृदयानन्दा पत्नी नन्देति नामतः ॥ २१ ॥ मन्दमन्दपदन्यासैर्विचरन्त्या मनोरमम् । गतौ शिष्या इवैतस्या राजहंस्योऽपि लक्षिताः ॥ २२ ॥ सुगन्धिमुखनिःश्वासं यद् यत् किञ्चिदुवाच सा । प्रपेदे वचनं तत् तद् भ्रमराकृष्टिमत्रताम् ॥ २३ ॥ रूपवत्या अभूत् तस्याः स्वस्मिन्नेवोपमानता । विहायसो महत्त्व हि नोपमानं भवेत् परम् ॥ २४ ॥ स्यूते च खगुणैः खान्ते दृढं दृढरथस्य सा । अभूद् दृढरथोऽप्यस्या उत्कीर्ण इव चेतसि ॥ २५ ॥
इत प्राणते कल्पे पद्मोत्तरमहीपतेः । जीवः स्वायुरपूरिष्ट विंशतिं सागरोपमान् ॥ २६ ॥ च्युत्वा राधे कृष्णषष्ठयां पूर्वाषाढास्थिते विधौ । पद्मोत्तरनृपजीवो नन्दाकुक्षाववातरत् ॥ २७ ॥
१ कुमुदम् पृथ्वीवलयं च । २ शिवविस्तारकारिणः । ३ अनपाय:- निर्दोषः । ४ भाण्डागारः 'भंडार' इति भाषा । ५ परदेशवासी इव । ६ आगमे हि तीर्थकरनामहेतूनि विंशतिः निमित्तानि प्रसिद्धानि । ७ प्राणतस्वर्गस्येन्द्रः । ८ आपणः हट्टः । ९ धोरणी श्रेणिः । १० दानशालासु ११ लजां प्राप । १२ सर्वाङ्गः भुवं संस्पृश्य नमस्कृत्य ययुः । १३ उत्कीर्णः - 'कोरेलो' भाषा । १४ वैशाखे ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीत
[तृतीयं पर्व नन्दास्वामिन्यपि तदा सुखसुप्ता व्यलोकयत् । चतुर्दश महास्वमांस्तीर्थकृजन्मसूचकान् ॥ २८ ॥ माघस्य कृष्णद्वादश्यां पूर्वापाढागते विधौ । श्रीवत्साझं स्वर्णवर्णं श्रीनन्दाऽसूत नन्दनम् ॥ २९ ॥ अष्टाधोलोकवास्तव्या ऊर्द्धलोकजुषोऽष्ट च । अष्टाऽष्टौ रुचकदिशां चतस्रो विदिशां पुनः ॥ ३० ॥ मन्त्रकद्वीपमध्यस्थाश्चतस्रश्चलितासनाः । षट्पञ्चाशद् दिकुमार्यः सूतिकर्मेत्य चक्रिरे ॥३१॥ शकोऽप्युपेत्य तत्राऽऽशु गृहीत्वा स्वामिनं स्वयम् । सुमेरुपर्वतशिरस्युपेयाय वृतोऽमरैः ॥ ३२ ।। अतिपाण्डुकम्बलायां रत्नसिंहासनोपरि । अङ्काधिरोपितपतिर्दिवस्पतिरुपाविशत् ॥ ३३ ॥ हदिनीनाथ-हदिनी-हृदादिभ्यः समाहृतः। अस्यषिञ्चन जलैनाथमथेन्द्रा अच्युतादयः॥ ३४॥ ईशानाङ्के प्रभुं न्यस्य शक्रोऽप्यस्लपयत ततः। विक्रतस्फाटिकवपविषाणामोदर्जलैः॥ ३५॥ दिव्याङ्गरागैश्चर्चित्वाऽर्चित्वा चाऽऽभरणादिभिः । जगत्पतिमिति स्तोतुं समारेभे दिवस्पतिः ॥३६ ।। ___ जयेक्ष्याकुकुलक्षीररत्नाकरनिशाकर ! । जगन्मोहमहानिद्राविद्रावणदिवाकर ! ॥३७॥ खामालोकयितुं त्वां च स्तोतुं त्वामर्चितुं तथा । आशंमाम्यात्मनोऽनन्ता दृशो जिह्वा भुजा अपि ॥३८॥ खामिन् दशमतीर्थेश ! तव पादारविन्दयोः । न्यस्तान्यमूनि पुष्पाणि सम्पन्नं तु फलं मयि ॥ ३९ ॥ अमन्दं दददानन्दं दुःश्वतापार्दितात्मनाम् । मर्त्यलोकेऽवातरस्त्वं जीमूत इव नूतनः ॥ ४० ॥ वसन्तसमयेनेव दर्शनेन तव प्रभो ! । स्युरद्य नूतनश्रीकाः प्राणिनः पादपा इव ।। ४१॥ त्वदर्शनपवित्राणि यानि तानि दिनानि मे । दिनानि शेषाणि पुनः कृष्णपक्षतमस्विनी ॥ ४२ ॥ स्यूनानीवाऽऽत्मना नित्यं कुकर्माणि शरीरिणाम् । त्वयाऽद्य विघटन्तां द्रागयस्कान्तेन लोहवत् ।। ४३॥ अन्न वा दिवि वा तिष्ठस्तिष्ठन्नन्यत्र वा क्वचित् । त्वद्वाहनमहं भूयां त्वामेव हृदये वहन् ॥ ४४ ॥ __ एवं दशममर्हन्तं स्तुत्वा दशर्शतेक्षणः । आदायाऽऽनीय चामुश्चन्नन्दापाचँ यथास्थिति ॥ ४५ ।। चक्रे बहरभेनापि कारीमोक्षादिनोत्सवः । जगतोऽपि हि मोक्षाय तादृशां जन्म पावनम् ॥ ४६ ॥ राज्ञः सन्तप्तमप्यङ्गं नन्दास्पर्शन शीत्यभूत् । गर्भस्थेऽस्मिन्निति तस्य नाम शीतल इत्यभूत् ॥ ४७ ॥ हुसत्कुमारकालाधारीन्द्रवि सेवितः । ववृधेऽम्भोधिवेलावद् जगन्नाथो दिने दिने ॥ ४८॥ शैशवं व्यत्यलाविष्ट क्रमेण परमेश्वरः । शैशवाद् यौवनं चाऽऽप ग्रामात् पुरमिवाऽध्वगः ॥ ४९ ॥ प्रभुर्नयतिधन्वोचो रराजाऽऽजानुबाहुकः । पार्श्वतो लम्बमानोरुवल्लीक इव पादपः ॥ ५० ॥
विषयेषु निरीहोऽपि पितृभ्यां प्रार्थितः प्रभुः । चकार पाणिग्रहणं पिण्डादानमिव द्विपः ॥५१॥ 25 अथ पूर्वसहस्राणां गतायां पञ्चविंशतौ । जग्राह पितृदाक्षिण्याद् राज्यं श्रीशीतलप्रभुः ॥ ५२ ॥
पञ्चाशत्पूर्वसहस्रीमपूर्वभुजविक्रमः । पूर्वक्रमागतं राज्यं शशास विधिवत् प्रभुः ॥ ५३ ॥ ___ अथ संसारसंवासाद् व्यरज्यत प्रभोर्मनः । आसनानि प्रचेलुश्च लौकान्तिकदिवौकसाम् ॥ ५४ ॥ अयुध्यन्ताऽवधिज्ञानादेवं ते त्रिदिवौकसः । जम्बूद्वीपाभिधे द्वीपे भरतार्थे च दक्षिणे ।। ५५ ॥
दशमो भगवानर्हन् व्रतेच्छुर्वर्तते ततः । तं वयं प्रेरयामोऽद्य सदाकृत्यमिदं हि नः ॥ ५६ ॥ युग्मम् ।। 30 विमृश्यैवं ब्रह्मलोकात् सुराः सारस्वतादयः । एत्य विज्ञपयामासुरिति स्वामिनमानताः॥ ५७ ।।
अरण्यस्रोतसीवासिंस्तीर्थाभावेन दुस्तरे । संसारे विश्वकृपया तीर्थ नाथ ! प्रवर्तय ।। ५८ ॥
१ सूतिकर्म एत्य-आगत्य । २ दिवस्पतिः-इन्द्रः। ३ हृदिनीनाथः-समुद्रः, हदिनी-नदो। ४ विद्रावणम्-नाशनम् । ५ 'अनन्ताः' इत्यादीनि चत्वारि पदानि द्वितीयान्तानि । ६ जीमूतः-मेघः। ७ शेपाणि दिनानि अमावास्यारूपाणि इति भावः। ८ स्यूतम्-सम्बद्धम् । ९ त्वद्वाहनम्-रवद्भक्तिधारक इति । १० दशशतेक्षणः-सहस्रनयनः, इन्द्र इत्यर्थः। ११ कारामोक्षादिनाबन्दिजनमोक्षादिना उत्सवः। * °च्य तते सच ॥ १२ अरण्यस्रोत:-अरण्यस्थितः जलाशयः। १३ तीर्थम्-उत्तरणस्थानम्, भाषायाम् 'घाट' इति ।
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अष्टमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम्
३०९ इत्युदित्वा ययुर्ब्रह्मलोकं लौकान्तिकामराः । शीतलखाम्यपि ददौ दानं संवत्सरावधि ॥ ५९॥ अन्ते च तस्य दानस्य सुरेन्द्रैश्चलितासनैः । दीक्षाकल्याणकलानं विदधे शीतलप्रभोः॥६॥ कृताङ्गरागो भगवानामुक्तांशुकभूषणः । त्रिजगद्भूषणं नाथो दत्तबाहुर्बिडौजसा ॥ ६१॥ अन्यैरपि धृतच्छत्र-चामरादिः सुरेश्वरैः । अध्यारुरोह शिविकारत्नं चन्द्रप्रभाभिधम् ॥ ६२ ॥ युग्मम् ॥ सुरा-ऽसुरसहस्राणां सहस्रैः परिवारितः । सहस्राम्रवणं नाम खपुरोपवनं ययौ ॥ ६३॥ ततस्तितीर्घः संसारं भारवद् भूषणादिकम् । उज्झाञ्चकार झगिति प्रभुः शिवगतिप्रियः ॥ ६४ ॥ शक्रन्यस्तं देवदूष्यांशुकमसंस्थले दधत् । पञ्चभिर्मुष्टिभिः केशानुचखान जगत्पतिः ॥ ६५ ॥ क्षीरोदे न्यस्य तान् केशान् शके पुनरुपेयुषि । निषिद्धतुमुले बद्धाञ्जलौ द्वाःस्थ इव स्थिते ॥६६॥ सुरा-सुर-नरेन्द्राणां प्रत्यक्षमपरेऽहनि । माघस्य कृष्णद्वादश्यां पूर्वाषाढास्थिते विधौ ॥ ६७ ॥ समं नृपसहस्रेण कृतषष्ठतपाः प्रभुः । सावद्ययोगविरतिप्रतिज्ञां प्रत्यपद्यत ॥ ६८॥
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॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ तुर्य ज्ञानं प्रभोजज्ञे मनःपर्ययसञकम् । कृत्वा प्रणामं च ययुः खं खं स्थानं सुरादयः ॥ ६९ ।।
द्वितीयेऽह्नि रिष्टपुरे पुनर्वसुनृपौकसि । पारणं परमान्नेन विदधे शीतलप्रभुः ॥ ७० ॥ चक्रे च वसुधारादिपञ्चकं विबुधैस्ततः । स्वर्णपीठं पुनस्तत्र पुनर्वसुनृपो व्यधात् ॥ ७१॥ विविधाभिग्रहधरः सहमानः परीषहान् । छद्मस्थतया त्रीन् मासान् व्यहार्षीच्छीतलप्रभुः ॥ ७२ ॥ 15 सहस्राम्रवर्ण भूयोऽप्याजगाम जगद्गुरुः । तत्र प्रतिमया तस्थावधस्तात् प्लक्षशाखिनः ॥७३॥ भटो वैप्रमिवाऽऽरुह्य शुक्लध्यानं द्वितीयकम् । जघान घातिकर्माणि रिपूनिव जगद्गुरुः ॥ ७४ ॥ पौषकृष्णचतुर्दश्यां पूर्वाषाढागते विधौ । केवलज्ञानमुत्पेदे शीतलखामिनस्ततः ।। ७५ ॥
वप्रैस्त्रिभिश्चतुारै रान-सौवर्ण-राजतैः । ततः समवसरणं चक्रुर्देवाऽसुरेश्वराः॥ ७६ ॥ तत्र प्रविश्य प्रारद्वारा प्रदक्षिण्यकरोत् प्रभुः । चैत्यवृक्षमशीत्यप्रदशधन्वशतोन्नतम् ॥ ७७ ॥ 'नमस्तीर्थायेति वदन पूर्वसिंहासने प्रभुः । न्यषदद् दिक्षु चान्यासु तद्रूपाण्यमरा व्यधुः ॥ ७८ ॥ तत्र तस्थुर्यथास्थानमथान्येऽप्यमरादयः । स्वामिवाचं प्रतीच्छन्तः स्तनितं वर्हिणा इव ॥ ७९ ॥ खामिनं शीतलमथ शिरःसंस्पृष्टभूतलः । नमस्कृत्साअलिधर इति वज्रधरोऽस्तवीत् ॥ ८०॥
त्वत्पादपङ्कजनखद्युतिजालजलप्लेवैः । स्नायं स्नायं पुनन्ति खं धन्यास्त्रिभुवनेश्वर ! ॥८१॥ भास्करेणेव गगनं हंसेनेव महासरः । पार्थिवेनेव नगरं शोभते भारतं त्वया ॥ ८२॥ आलोकस्तिमिरेणेव सूर्यास्तेन्दूदयान्तरे । मिथ्यात्वेन पराभूतो धर्मस्तीर्थद्वयान्तरे ॥ ८३ ॥ जगदन्धमिदं जज्ञे निर्विवेकविलोचनम् । अपथेषु प्रववृते दिसूढमिव सर्वतः ॥ ८४॥ अधर्मो धर्मबुद्ध्या चाऽदेवता देवताधिया । गुरुबुद्ध्या चाऽगुरवो भ्रान्तैर्जगृहिरे जनैः॥८५॥ नरकावटपाताय जगत्यस्मिनुपस्थिते । निसर्गकरुणाम्भोधिस्तत्पुण्यैस्त्वमवातरः ॥८६॥ मिथ्यात्वाशीविषो लोके प्रभविष्णुरसौ चिरम् । तावदेव न यावत् ते प्रसरेद् वचनामृतम् ॥ ८७॥ 30 तन्मिथ्यात्वापसारेण सम्यक्त्वं जगतोऽधुना । भावि प्रभो! केवलं ते घातिकर्मक्षयादिव ॥ ८८॥
इत्थं स्तुत्वा स्थिते शके भगवान् शीतलप्रभुः। गिरा सुधामधुरया विदधे देशनामिति ॥ ८९॥
१ भामुक्तम्-परिहितम् । २ असः-स्कन्धः। ३ वप्रः-दुर्गः। * °तैः । समवसरणं चक्रुर्देवास्ततः सुरा-ऽसुराः संबृ०॥ ४ बर्हिणाः-मयूराः। ५प्लव:-जलपूरम् । ६ सायं स्नायम्-अधिकं स्नात्वा। ७ सूर्यास्तस्य चन्द्रोदयस्य च अन्तरे । ८ भवट:-कूपः। ९ आशीविष:-दंष्ट्राविषः सर्पः।
त्रिषष्टि. ४.
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३१. कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीत
[ तृतीयं पर्व संसारे क्षणिकं सर्व नानादुःखनिबन्धनम् । मोक्षाय यतितव्यं तद् भवेन्मोक्षस्तु संवरात् ॥ ९० ॥ सर्वेषामाश्रवाणां तु निरोधः संवरः स्मृतः । स पुनर्भिद्यते द्वेधा द्रव्य-भावविभेदतः ॥ ९१ ॥ यः कर्मपुद्गलाऽऽदानच्छेदः स द्रव्यसंवरः । भवहेतुक्रियात्यागः स पुनर्भावसंवरः ॥ ९२॥ येन येन ह्युपायेन रुध्यते यो य आश्रवः । तस्य तस्य निरोधाय स स योज्यो मनीषिभिः ॥ ९३॥ क्षमया मृदुभावेन ऋजुत्वेनाप्यनीहया । क्रोधं मानं तथा मायां लोभं रुन्ध्याद् यथाक्रमम् ॥ ९४ ॥ असंयमकृतोत्सेकान् विषयान् विषसन्निभान् । निराकुर्यादखण्डेन संयमेन महामतिः ॥ ९५॥ तिसृभिर्गुप्तिभिर्योगान् प्रमादं चाप्रमादतः । सावद्ययोगहानेन विरतिं चापि साधयेत् ॥ ९६ ॥ सद्दर्शनेन मिथ्यात्वं शुभस्थैर्येण चेतसः । विजयेताऽऽत-रौद्रे च संवरार्थं कृतोद्यमः ॥ ९७ ॥ यथा चतुष्पथस्थस्य बहुद्वारस्य वेश्मनः । अनावृतेषु द्वारेषु रजः प्रविशति ध्रुवम् ॥ ९८ ॥ प्रविष्टं स्नेहयोगाच्च तन्मयत्वेन बध्यते । न विशेन च बध्येत द्वारेषु स्थगितेषु तु ॥ ९९ ॥ यथा वा सरसि क्वापि सारैर्विशेजलम । तेष त प्रतिरुद्धेष प्रविशेन मनागपि॥१००॥ यथा वा यानपात्रस्य मध्ये रन्धेर्विशेञ्जलम् । कृते रन्ध्रपिधाने तु न स्तोकमपि तद् विशेत् ॥ १०१॥ योगादिष्वाश्रवद्वारेष्वेवं रुद्धेषु सर्वतः । कर्मद्रव्यप्रवेशो न जीवे संवरशालिनि ॥ १०२ ॥
संवरादाश्रवद्वारनिरोधः संवरः पुनः । क्षान्त्यादिभेदाद् बहुधा तथैव प्रतिपादितः॥१०३ ॥ 15 गुणस्थानेषु यो यः स्यात् संवरः स स उच्यते । मिथ्यात्वानुदयात् परस्थेषु मिथ्यात्वसंवरः॥१०४॥
तथा देशविरत्यादौ स्यादविरतिसंवरः । अप्रमत्तसंयतादौ प्रमादसंवरो मतः ॥१०५॥ प्रशान्त-क्षीणमोहादौ भवेत् कषायसंवरः । अयोग्याख्यकेवलिनि सम्पूर्णो योगसंवरः ॥ १०६॥ संवृतः संवरेणैवं भवस्यान्तं व्रजेत् सुधीः । निश्छिद्रयानपात्रेण सांयात्रिक इवाम्बुधेः ॥ १०७ ।।
प्रभोस्तया देशनया प्रबुद्धा बहवो जनाः । प्रव्रज्यां जगृहुः केपि केऽपि श्रावकतां पुनः ॥ १०८ ॥ 20 आनन्दाद्या एकाशीतिः प्रभोर्गणभृतोऽभवन् । देशनान्ते प्रभोश्चक्रेऽथाऽऽनन्दो धर्मदेशनाम् ॥१०९॥
आनन्ददेशनान्ते च नमस्कृत्य जगद्गुरुम् । स्थानं निजनिजं जग्मुः सुरा-ऽसुर-नरेश्वराः ॥ ११० ॥
तत्तीर्थभूर्ब्रह्मनामा यक्षरूयक्षश्चतुर्मुखः । पद्मासनः श्वेतवर्णश्चतुर्भिर्दक्षिणैर्भुजैः ॥ १११ ॥ मातुलिङ्ग-मुद्गरभृत्-सपाशा-ऽभयदायिभिः । वामेस्तु नकुल-गदा-ऽङ्कुशा-ऽक्षसूत्रधारिभिः ॥ ११२ ॥ तथोत्पन्ना त्वशोकेति मुद्गवर्णाऽदवाहना । बिभ्राणा दक्षिणौ बाहुदण्डौ वरद-पाशिनौ ॥ ११३ ॥ फैला-ऽङ्कुशधरौ बाहू वहन्ती दक्षिणेतरौ । उभे अभूतां दशमार्हतः शासनदेवते ॥ ११४ ॥ उपासमानस्ताभ्यां च विजहे शीतलप्रभुः । ततः पूर्वसहस्रांस्त्रिमासोनां पञ्चविंशतिम् ॥ ११५ ॥
लक्षं मुनीनां साध्वीनां लक्षमेकं षडुत्तरम् । चतुर्दशपूर्वभृतां चतुर्दश शतानि च ॥ ११६ ॥ अवधिज्ञानधराणां द्वासप्ततिशती पुनः । सार्धाः सप्त सहस्रास्तु मनःपर्ययधारिणाम् ॥ ११७ ॥ शतानि सप्ततिरथ केवलज्ञानधारिणाम् । जातवैक्रियलब्धीनां सहस्रा द्वादशैव तु ॥ ११८ ॥ शतानि चाष्टपञ्चाशद् वादलब्धिमतां पुनः । श्रावकाणामुभे लक्षे नवाशीतिसहरुयपि ॥ ११९ ॥ श्राविकाणां चतुर्लक्ष्यष्टपञ्चाशत्सहस्रयुकू । इति जज्ञे परीवारः प्रभोर्विहरतः सतः ॥१२० ॥
मोक्षकालेऽथ सम्प्राप्ते सम्मेताद्रिं ययौ प्रभुः। प्रपेदेऽनशनं तत्र सहस्रेणार्षिभिः सह ॥ १२१ ॥ मासान्ते वैशाखकृष्णद्वितीयायां निशाकरे । पूर्वाषाढागते स्वामी मोक्षेऽगात् तैः सहर्षिभिः ॥ १२२ ॥ कुमारभावे पूर्वाणां सहस्राः पञ्चविंशतिः । पञ्चाशत् पूर्वसहस्राः पृथिवीपरिपालने ।। १२३ ॥
१ उत्सेक:-उत्सेचनम्-पोषणम् । २ निराकुपात्-ति अध्याहार्यम्। ३ विजयेत-पराजिते कुर्यात् । ४ ध्यक्षः-त्रिनेत्रः। .र्णाजवा संवृ०॥ पाशाइराघरोबार विनती द° संबृ० ।
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अष्टमः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् प्रव्रज्यापालने पूर्वसहस्राः पञ्चविंशतिः । एवमायुः पूर्वलक्षमभूच्छ्रीशीतलप्रभोः ॥ १२४ ॥ सुविधिस्वामिनिर्वाणानिर्वाणं शीतलप्रभोः । सागरोपमकोटीषु व्यतीतासु नववभूत् ॥ १२५ ॥
श्रीशीतलस्य मुनिभिः सह तैर्विमुक्तिमासेदुषो दिविषदां पतयो यथावत् ।
निर्वाणयानमहिमानमुदारशोभं चक्रुर्ययुर्निजनिजं पुनरेव लोकम् ॥ १२६ ॥ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीये पर्वणि
श्रीशीतलखामिचरितवर्णनो नामाष्टमः सर्गः ॥
॥ समाप्तं च तृतीयं पर्व ॥ श्रीसम्भवप्रभृतितीर्थकृतां तृतीयेऽष्टानां चरित्रमिह पर्ववरेऽष्टसर्गे । ध्येयं पदस्थमिव वारिरहेऽष्टपत्रेऽनुध्यायतो भवति सिद्धिरवश्यमेव ॥ १॥
॥ ग्रन्थाग्रम्-१८०४॥
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पदस्वम्-शब्दरूपम्-जपरूपमिति ।
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॥ अर्हम् ॥ ॥ नमः श्रीधर्मकथानुयोगव्याख्यातृभ्यः स्थविरेभ्यः ॥
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविनिर्मित त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् ।
श्रीश्रेयांसजिनादिद्वाविंशतिशलाकापुरुषचरितप्रतिबद्धं चतुर्थं पर्व ।
प्रथमः सर्गः। श्रीश्रेयांसजिनादिचरितम् ।
श्रीश्रेयांसप्रभोः पादाः श्रेयो विश्राणयन्तु वः । निःश्रेयसपथालोकदीपायितनखांशवः ॥१॥ श्रीश्रेयांसजिनेन्द्रस्य पवित्रितजगत्रयम् । लैवित्रं कर्मवल्लीनां चरित्रमिदमुच्यते ॥२॥ पुष्करवरद्वीपार्धे प्राग्विदेहेषु सुन्दरे । विजये कच्छसज्ञेऽस्ति नाम्ना क्षेमेति पूर्वरा ॥३॥ महीभृन्मौलिमुकुटधृष्टाझिनलिनद्वयः । राजा नलिनगुल्मोऽभूद् गुणैरमलिनः सदा ॥ ४ ॥ स खामी मत्रिणो मत्रबलाकृष्टरिपुत्रियः । सुरराष्ट्रोपमं राष्ट्रं सर्वारिष्टविवर्जितम् ॥ ५॥ दुर्गाणि जितवैतात्यविद्याधरपुराणि तु । कोशांश्च श्रीदसर्वसाधरीकारपरायणान् ॥६॥ बलं हस्त्यश्व-पादात-स्थच्छादितभूतलम् । असुहृद्धृदयक्षेत्रकर्षकान् सुहृदोऽपि च ॥७॥ राज्यस विकलाङ्गत्वं मा भूदिति धिया व्यधात् । जगदेकमहाबाहुबईहुँदन्तेयविक्रमः ॥ ८॥
चतुर्भिः कलापकम् ॥ वपु-यौवन-लक्ष्मीणां साराणामप्यसारताम् । सोऽमन्यत महाप्राज्ञो विवेकामलमानसः॥९॥ 10 कुमोजनेनाहरिव निशामिव कुशय्यया । कियन्तमपि सोऽनैषीत् कालं राज्येन शुद्धधीः॥१०॥ राज्यं रुजमिवोत्सृज्य तत्त्वतौषधिमानसः । वज्रदत्तर्षिणा दत्तां दीक्षामादत्त धर्मधीः॥११॥ तप्यमानस्तपस्तीनं सहमानः परीषहान् । कर्मेव क्रशयनङ्ग विजहार स निर्ममः ॥१२॥ अहंद्वक्त्यादिमिस्तैस्तैः स्थानः प्रवचनोदितैः । उपार्जयामास दृढं तीर्थकन्नामकर्म सः॥ १३ ॥ महातपाः शुमध्यानश्चतुःशरणतत्परः । काले प्राप्तावसानः स महाशुक्रदिवं ययौ ॥ १४ ॥ 15
ततश्च जम्बूद्वीपेऽसिन् भरतक्षेत्रभूषणम् । रत्ननूपुरवद् भूमेरस्ति सिंहपुरं पुरम् ॥ १५॥
विषाणयन्तु यच्छन्तु । २दीपायिता:-दीपसमानाः। ३लचित्रम्-छेदकम् । बाहृदम्तेय:-न्द्रः। ५ अर्हत्सिर-साधु-धर्मस्पं शरणचतुष्कम् । * मे रसं सिं० सं०॥
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३१४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[चतुर्थं पर्व सङ्क्रान्ततारका रत्नवलभ्यस्तत्र वेश्मनाम् । श्रियं सदन्तशारस्य शारपट्टस्य विभ्रति ॥ १६ ॥ तद्वप्रमेखलासचैर्विश्रान्ता भान्ति वारिदाः । चक्षुरक्षाकृते दत्ताः कजलस्थासका इव ॥ १७ ।। वरिष्ठवनिताचारमञ्जमञ्जीरशिञ्जितैः। वितन्यते श्रियो देव्या नित्यं सङ्गीतकोत्सवः ॥१८॥ रत्नावकरवाहीनि स्रोतांस्यपि तदोकसाम् । यान्ति रत्नाकरस्रोतस्तुलां वर्षति वारिदे ॥ १९ ॥ आढ्यम्भविष्णुर्यशसा प्रभविष्णुर्भुजौजसा । विष्णुराज इति मापस्तत्राभूद् विष्णुविक्रमः ॥ २० ॥ तत्रेन्द्रियजयो नाम गुणो बीजमिवावनौ । सस्यराशिमिवाऽसूत गुणराशिं समुज्वलम् ॥ २१॥ प्रणते च विपक्षे च तुष्टा रुष्टाश्च तदृशः । ययुः स्वयंवरस्रक्त्वं श्रियोऽपि च भियोऽपि च ॥ २२ ।। दानधर्म इबौचित्यात् सूनृतेनेव भारती । अवदातेन यशसा शुशुभे तस्य विक्रमः ॥ २३ ॥
गुणानां शौर्य-गाम्भीर्य-धैर्यादीनां स भूयसाम् । नित्यं क्रीडनसङ्गीतनिकेतनमिवाभवत् ॥ २४ ॥ 10 जिष्णोरिव शची रूपभ्राजिष्णुर्विष्णुरित्यभूत् । द्वितीयेव मही स्थैर्यात् पत्नी तस्य महीपतेः ॥ २५ ॥
शिरीपसुकुमारस्य सा निजाङ्गस्य भूपणम् । निशातं खड्गधारावत् सतीव्रतमधारयत् ॥ २६ ॥ यथाऽभूदप्रतिच्छन्दो विक्रमेण स भूपतिः । तथा साऽप्यप्रतिच्छन्दा रूपलावण्यसम्पदा ॥ २७ ॥ अलैंसा सा गतावेव न पुनर्धर्मकर्मणि । मध्यप्रदेश एवाभूत् तुच्छो न पुनराशये ॥ २८ ॥ तस्या राज्ञोऽपि च मिथोऽनुस्यूतमनसोरिख । अक्षया प्रीतिरभवदविघ्नं रममाणयोः ॥ २९ ॥
इतश्च शुक्रे नलिनगुल्मस्य पृथिवीपतेः । जीवः प्रकृष्टसङ्ख्यं स निजमायुरपूरयत् ॥३०॥ ज्येष्ठस्य षष्ठ्यां कृष्णायां श्रवणस्थे निशाकरे । च्युत्वा ततस्तस्य जीवो विष्णुकुक्षाववातरत् ॥ ३१ ॥ नारकाणामपि सुखमुध्योतश्च जगत्रये । जज्ञे तदा क्षणं स्याद्धि कल्याणेष्वर्हतामिदम् ॥ ३२ ॥ सङ्क्षिप्त इव वैतादयः श्वेतवों महागजः । समत्स्यः शरदम्भोद इवोच्छृङ्गः सितो वृषः ॥ ३३ ॥
उत्पुच्छो विधृतच्छत्र इव केसरिपुङ्गवः। साभिषेका महालक्ष्मीर्मुर्त्यन्तरमिवाऽऽत्मनः ॥ ३४ ॥ 20 सुगन्धि सुमनोदाम मूर्तमिव यशः स्वकम् । सुधाकुण्डमिव ज्योत्स्नाप्लुतः पर्वनिशाकरः ॥ ३५ ॥
मार्तण्डमण्डलं दीपं दिवः सीमन्तरत्नवत् । ध्वजवलपताकश्च सशाख इव पादपः ॥ ३६ ॥ पूर्णकुम्भो गरीयांश्च निधानं श्रेयसामिव । महापद्म पद्मसरः पद्मह्रद इवापरः॥ ३७ ॥ आरुरुक्षुरिव दिवमुत्कल्लोलो महार्णवः । अनुज पालकस्येव विमानवरमायतम् ॥ ३८॥
रत्नपुञ्जश्च सर्वस्वमिव रत्नाकरोद्धृतम् । निर्धूमश्चानलो 'भीममण्डलस्यानुहारकः ॥ ३९ ॥ 25 एते तदा विष्णुदेच्या महास्वमाश्चतुर्दश । मुखे विशन्तोऽदृश्यन्त तीर्थजन्मसूचकाः ॥ ४०॥
तपस्यकृष्णद्वादश्यां श्रवणे खगिलाञ्छनम् । स्वर्णवर्णं विष्णुदेवी सुखेन सुषुवे सुतम् ॥ ४१॥ अथाधोलोकवास्तव्या अष्टो भोगङ्करादयः । दिकुमार्यः समाजग्मुर्विज्ञायाऽऽसनकम्पतः ॥ ४२ ॥ तीर्थकृन्मातरं नत्वा 'मा भेपी'दिपूर्वकम् । आत्मानं ज्ञापयित्वा च कृत्या संवर्तकानिलम् ॥ ४३ ॥
परितः सूतिकागारमायोजनमथासृजन् । स्वामिमातुरदूरे ता गायन्त्यश्चावतस्थिरे ॥४४॥ युग्मम् ।। 30 नन्दनोद्यानकटस्था ऊर्ध्वलोकजुषोऽष्ट च । एत्य मेघङ्कराद्या दिक्कन्या देवीं प्रणम्य च ॥ ४५ ॥
१ बलभीमपरादमयं गृहाच्छादनम् । २ दन्तशार:-दन्तमयः शारः, भाषायाम्-'दांतनो पायो'। ३शारपट्टःपाशकपः। ४ कजलस्थासक: कजलातलकम् । ५ चारः-गतिः । मीरम्-भूपुरम् । शिक्षितम्-भूषणध्वनिः। ६ अवकर:उत्करः। ७ भने शत्रो च । ८ जिष्णु:-इन्द्रः। ९ तीक्ष्णम् । १० अप्रतिच्छन्दः-अनुपमानः । ११ अलसा-मन्थरा आलस्ययुक्ता च । १२ तुच्छा-कृशा क्षुद्रा च । १३ श्रवणनक्षत्रस्थिते । १४ ऊर्ध्वपुच्छः। १५ पूर्णिमाचन्द्रः। १६ स्वर्गस्य सीमन्तरववत्, भाषायाम्-'सीमन्त' इति 'सेंथो'। १७ अनुजः-लघुभ्राता। १८ भौमः-मङ्गलः । अनुहारक: अनुसारी। १९ तपस्य:-फाल्गुनः। २० खड्गी-गण्डकः, भाषायाम् 'गेंडो' इति । २१ आयोजनम्-योजनपर्यन्तम् ।
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प्रथमः सर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम्
३१५ खं ज्ञापयित्वा कृत्वा च दुर्दिनं गन्धवारिभिः । सिषिचुः क्ष्मां सूतिवेश्मपरितो योजनावधिम् ॥ ४६॥ विदधुः पुष्पवृष्टिं चाधाक्षुधूपं च सुन्दरम् । गायन्त्योऽर्हद्गुणांस्तस्थुर्विष्णुदेव्या अदूरतः ॥ ४७॥
॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ मचकस्य च पौरस्त्या देव्यो नन्दोत्तरादयः। अपाच्याः समाहाराद्याः प्रतीचीनास्त्विलादयः॥४८॥ अलम्बुसाद्यास्तूदीच्या अष्ट प्रत्येकमेत्य ताः । नत्वाऽर्हन्तं तदम्बां च ज्ञापयित्वा स्वमुच्चकैः ॥ ४९ ॥ 5 धृत्वा दर्पण-भृङ्गार-व्यजन-श्वेतचामरान् । पूर्वादिदिक्क्रमेणास्थुर्गायन्त्यः स्वामिनो गुणान् ॥ ५० ॥
॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ चतस्र एत्य चित्राद्या रुचकस्य विदिग्भवाः । तद्वन्नत्वा विदिश्वस्थुर्गायन्त्यो दीपपाणयः ॥५१॥ चतस्रो रुचकान्तस्था रूपाद्या दिक्कुमारिकाः । अर्हन्तमर्हदम्बां च नत्वा वज्ञप्तिपूर्वकम् ।। ५२ ॥ चतुरङ्गुलकोत्कर्ष स्वामिनालमखण्डयन् । खनित्वा विदरं तत्र निचख्नुस्तञ्च तन्क्षणात् ॥ ५३॥ 10
॥ युग्मम् ॥ विदरं वज्ररत्नस्तदाऽऽपूर्योपरि तस्य च । बबन्धुर्निविडं पीठं दुर्वया द्रागपूर्वया ॥ ५४॥ सूतिकावेश्मनस्तस्य चक्रुस्तिसृषु दिक्षु ताः । सिंहासनचतुःशालँवन्ति रम्भागृहाणि च ॥ ५५ ॥ हस्तेऽर्हन्तं गृहीत्वार्हन्मातरं च भुजे तथा । अपारम्भागृहचतुःशालसिंहासने न्यधुः ॥ ५६ ॥ शतपाकादिभिस्तैलैरुभावभ्यज्य तत्र ताः। गन्धद्रव्यैः सूक्ष्मपिष्टैः सुस्पर्शमुदवर्तयन् ॥ ५७॥ 15 प्राच्यरम्भागृहचतुःशालसिंहासने ततः । तौ न्यस्याऽस्लपयन् गन्ध-पुष्प-शुद्धोदकैश्च ताः ॥ ५८ ॥ ततस्ताः परिधाप्योभी वस्त्रा-ऽलङ्करणादिकम् । उदगम्भागृहचतुःशालसिंहासने न्यधुः ॥ ५९॥ गोशीर्षचन्दनं दग्ध्वा सद्यो रणिकृताग्निना । तद्भसना ववन्धुस्ता रक्षाग्रन्थि द्वयोरपि ॥ ६० ॥ पर्वतायुभवेत्याशीःपूर्वकं स्वामिकर्णयोः । ताः समास्फालयामास रत्नपाषाणगोलकौ ॥ ६१ ॥ अर्हदर्हजनन्यौ तास्ततः सूतिगृहेऽनयन् । तयोरनतिरेऽस्थुर्गायन्त्यो मङ्गलान्यथ ॥ ६२ ॥ 20
अथ शक्रः समागत्य स्वामिनः सूतिकागृहम् । पालकेन विमानेन प्रदक्षिण्यकृत द्रुतम् ॥ ६३॥ ऐशान्यां पालकं मुक्त्वा सूतिवेश्म प्रविश्य सः । अर्हन्तमर्हदम्बां च नमश्चके पुरन्दरः ॥६४॥ दत्त्वाऽवस्वापिनी देव्याः पार्थेऽर्हत्प्रेतिरूपकम् । विन्यस्याथ विचक्रे स पञ्च रूपाण्यथाऽऽत्मनः ॥६५॥ एकेन प्रभुमुद्धृत्य च्छत्रमन्येन चामरे । अन्याभ्यां वज्रं चान्येन पुरोरूपेण सोऽचलत् ॥६६॥ क्षणान्मेरावतिपाण्डुकम्बलामासदच्छिलाम् । शक्रः सिंहासने तत्राऽऽसाश्चक्रेऽङ्कस्थितप्रभुः ॥ ६७ ॥25 अथाऽच्युतप्रभृतयः कल्पेन्द्रा नव ते तथा । इन्द्रा भवनपतयो विंशतिश्चमरादयः॥६८॥ द्वात्रिंशद् व्यन्तराधीशाः कालप्रभृतयोऽपि च । सूर्या-चन्द्रमसाविन्द्रौ ज्योतिष्काणामुभौ पुनः॥६९ ॥ इति त्रिपष्टिस्तत्रेयुर्जन्मस्नात्रकृते प्रभोः । विचक्रुः पूर्णकुम्भादीन्द्राज्ञयाऽथाऽऽभियोगिकाः ॥ ७० ॥ अथाऽच्युतप्रभृतयः सर्वेऽपीन्द्रा यथाक्रमम् । स्वामिनः स्वपनं चक्रुः पवित्रैस्तीर्थवारिभिः ।। ७१॥ अथेशानपतेरङ्के शको न्यस्य जगत्पतिम् । विचक्रे दिक्कतुष्केपि चतुरः स्फाटिकान् वृपान् ॥ ७२ ॥ तेषां शृङ्गोद्गतैरन्ते मिलित्वा विनिपातिभिः । स्वामिनं स्वपयामास शक्रः शुचिभिरम्बुभिः ।। ७३ ॥ 30
दुर्दिनम्-मेघजं तमः, भाषायाम् 'वादळां' इति । २ अधाधुः-ज्वालयामासुः। ३ दीपहस्ताः। ४ स्वपरिचयदानपूर्वकम् । ५ गतः, भाषायाम् 'खाडो' । दूर्वा भाषायाम् 'धरो' इप्ति। ६ चतुःशालम्-गृहप्रकारः, "चोसाल" इनि भाषायाम् । ७ अभ्यज्य-विलिप्य । ८ न्यस्य-स्थापयित्वा। ९ परिधाप्य-परिधाम कारयित्वा । १० उदग्-उत्तरम् । ११ अरणिकाष्टघर्षणेन अग्निर्जायत इति प्रसिद्धम् । * °त्त्वाऽपस्वा संवृ०॥ १२ प्रतिरूपकम्-प्रतिबिम्बम्-प्रतिमाम् । १३ पूर्णकुम्भादि इन्द्राज्ञया इति सन्धिविश्लेषः। ।मि संवृ०॥ १४ पतद्भिः।
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३१६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थं पर्व संहत्य स्फाटिकानुक्ष्णः कृत्वा चर्चादिकं प्रभोः । उत्तार्याऽऽरात्रिकं चेति स्तोतुं शक्रः प्रचक्रमे ॥७४॥
सर्वकल्याणकश्रेष्ठं जन्मकल्याणकं तव । विश्राणयतु कल्याणं कल्याणीभक्तिके मयि ॥ ७५ ॥ स्लपयाम्यथ चर्चामि ? किमर्चामि ? स्तवीमि किम् ? । त्वामितीश ! न तृप्तिमें त्वदाराधनकर्मणि ॥७६॥ वृषः कुतीर्थिकव्याघ्रत्रासितस्त्वयि रक्षके । अमुष्मिन् भरतक्षेत्रे स्वैरं चरतु सम्प्रति ॥ ७७ ॥ अद्य खयमधिष्ठाय हृदयायतनं मम । दिष्ट्या देवाधिदेव ! त्वं सनाथीकुरुषेतराम् ।। ७८ ॥ न तथा भूषणं नाथ ! ममैभिर्मुकुटादिभिः । यथा शिरोऽग्रलुठितैस्त्वत्पादनखरश्मिभिः ॥ ७९ ॥ न तथा त्रिजगन्नाथ ! स्तूयमानस्य मागधैः । मम प्रमोदो भवति त्वद्गुणान् स्तुवतो यथा ॥ ८०॥ रत्नसिंहासनस्थस्य न हि मध्येसभं तथा । उच्चैस्त्वं त्वत्पुरो भूमिनिषण्णस्य यथा मम ॥ ८१॥ खाराज्यसम्भवामेतां न काङ्गामि स्वतन्त्रताम् । परतत्रश्चिरं भूयां नाथेन भवता प्रभो ! ॥ ८२ ॥ इति स्तुत्वा गृहीत्वेशं गत्वार्हन्मातुरन्तिके | संहत्याऽर्हत्प्रतिच्छन्दा-ऽवस्वापिन्यौ न्यधारिः ॥ ८३ ॥ स्वामिसतिगृहाच्छको मेरुशैलादथापरे । इन्द्रा जग्मुर्यथास्थानं विमृष्टा इव सेवकाः ॥ ८४॥
महान्तमुत्सवं चक्रे विष्णुराजोऽप्यथ प्रगे । तदा प्रमोदो मेदिन्यामेकच्छत्र इवाभवत् ॥ ८५ ॥ जिनस्य मातापितरावुत्सवेन महीयसा । अभिधां श्रेयसि दिने श्रेयांस इति चक्रतुः ॥ ८६ ॥ धात्रीभिः शक्रादिष्टाभिाल्यमानोऽथ पञ्चभिः । पिवन शक्राऽऽहितसुधं स्वाङ्गुष्ठं स्वाभ्यवर्धत ॥ ८७ ॥ ज्ञानत्रयधरोऽपीशो मौग्ध्यं बाल्योचितं दधौ । चण्डांशुरपि न प्रातश्चण्डतामवलम्बते ॥ ८८ ॥ सुरा-ऽसुर-नृकुमारैः क्रीडन् कालेन शैशवात् । आरोहद् यौवनं स्वामी स्यन्दनादिव कुञ्जरम् ॥ ८९॥ अशीतिधनुरुत्तुङ्गः स्वामी पित्रुपरोधतः । पर्यणैषीद् राजकन्या भववैराग्यभागपि ॥ ९ ॥ जन्मतो वर्षलक्षाणां गतायामेकविंशतौ । पितुः प्रार्थनया नाथः पृथ्वीभारमुपाददे ॥ ९१॥ द्विचत्वारिंशतं वर्षलक्षाणि क्षोणिमण्डलम् । ररक्षाऽक्षीणमहिमा श्रेयांसः श्रेयसां निधिः ॥ ९२ ॥ ___स्वामी भवविरक्तोऽथ दीक्षामादित्सुरुत्सुकः । 'प्रैयतोपेत्य शकुनैरिव लौकान्तिकामरैः ॥ ९३ ॥
शक्रादेशात् कुबेरेण प्रेरितैर्जुम्भकामरैः । अर्थेन पूर्यमाणेन खाम्यदाद् दानमाब्दिकम् ॥ ९४ ॥ वत्सरान्ते समेत्येन्द्रर्जिनेन्द्रस्य व्यधीयत । दीक्षाभिषेकः कर्मारिविजयायेव सत्वरम् ॥ ९५ ॥ दिव्याङ्गरागलिप्ताङ्गो रत्नभूषणभूपितः। मङ्गल्यदिव्यवसनो मूर्तिस्थमिव मङ्गलम् ॥ ९६ ॥ विनीतेनेव भृत्येन दत्तवाहुविडोजसा । अपरेन्द्रैरपि च्छत्र-चामरादिधरैर्वृतः ॥९७ ॥
आरुह्य रत्नैर्विमलां शिविकां विमलप्रभाम्।समावृतः सुर-नरैः सहस्राब्रवणं ययौ।।९८॥त्रिभिर्विशेषकम्।। शिविकातः समुत्तीर्य तत्रौउँझद् भूषणादिकम् । देवदूष्यं देवराजन्यस्तं स्कन्धे दधार च ॥ ९९ ॥ फाल्गुनस्य त्रयोदश्यां कृष्णायां श्रवणे प्रभुः । पष्ठेनोदेखनत् केशान् पूर्वाह्ने पञ्चमुष्टिना ॥ १० ॥ केशान् शक्रः समादाय खोत्तरीयाश्चलेन तान् । चिक्षेप च क्षीरनिधौ समीरण इव क्षणात् ॥१०१॥
निषिद्धे वज्रिणा मुष्टिसंज्ञया तुमुले ततः । प्रभुश्चारित्रमारोहद् विश्वाभयविभौवनम् ॥ १०२॥ 30 विश्वनाथेन सह च सहस्रमवनीभुजः । राज्यं तृणवदुत्सृज्य समुपाददिरे व्रतम् ॥ १०३ ॥
शाश्वतार्हत्प्रतिमानां कुर्वन्तोऽष्टाह्निकोत्सवम् । सुरा-ऽसुराधिपतयः खं खं स्थानं ततो ययुः ॥ १०४ ॥ द्वितीयेऽहनि सिद्धार्थपुरे नन्दनृपौकसि । पारणं परमानेन चकार परमेश्वरः ॥१०५॥
१ स्फटिकमयान् वृषभान् । २ मङ्गलमयभक्तियुते । ३ वृषो धर्मः बलीवर्दश्च। ४ उच्चस्त्वम्-उच्चस्थानस्थितत्वम् । ५ स्वर्गराज्यम्। ६ भवेयम् । ७ संहृत्य-अपहृत्य । ८ सर्वत्र समानः-एकरूपः। ९ यत्र इन्द्रेण सुधा स्थापिता। १० सूर्यः ।
विवाहं चकार । १२ प्रैर्यत+उपेत्य । १३ वार्षिकम् । १४ तत्याज । १५ उत्पाटयामास । १६ पवनः। १७ सर्वेषाम् भभबकारकम् , जगतो वा अभयकारकम् ।
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प्रथमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
३१७ अमरैर्वसुधारादिपञ्चकं विदधे ततः । रत्नपीठं स्वामिपादस्थाने नन्दनृपेण तु ॥१०६॥ ततः स्थानादथ स्वामी ग्रामा-ऽऽकर-पुरादिषु । अप्रतिबद्धो विहाँ प्रावर्तत समीरवत् ॥ १०७ ॥ ___ इतश्च पुण्डरीकिण्यां प्राग्विदेहशिरोमणौ । पुर्यभूत् सुबलो राजा स महीं चिरमन्वशात् ॥१०८॥ पार्थे मुनिवृषभर्षेः प्रव्रज्य समये च सः। तपस्तप्त्वा च मृत्वा च विमानेऽनुत्तरे ययौ ॥ १०९ ॥ इतः पुरे राजगृहे विश्वनन्दिमहीपतेः । पन्यां प्रियङ्गो विशाखनन्दी नाम सुतोऽभवत् ॥११०॥ 5 विश्वनन्दिनरेन्द्रस्यावरजो युवराउभूत् । विशाखभूतिर्मतिमान् वीर्यवान् विनयी नयी ॥ १११॥ विशाखभूतेर्भार्यायां धारिण्यां तनयोऽभवत् । मरीचिजीवः सुकृतैरनन्तरभवार्जितैः ॥ ११२ ॥ विश्वभतिरिति नाम पितरौ तस्य चक्रतः । धात्रीजनाल्यमानो व्यवर्धिष्ट क्रमाच्च सः॥११३॥ कलाकलापं सोऽध्यैष्ट प्रपेदे सकलान गणान अङ्गस्य मर्तनेपथ्यं क्रमात प्राप च यौवनम ॥११४॥ सान्तःपुरः स चिक्रीडोद्याने पुष्पकरण्डके । मनोज्ञतरुभूयिष्ठे भृमिष्ठ इव नन्दने ॥ ११५ ॥ 10 विशाखनन्दी क्रीडेच्छुस्तत्र राजसुतोऽप्यभूत् । तत् तूद्यानं न जात्वासीद् रहितं विश्वभूतिना ॥११६॥ विशाखनन्दिजननीदास्यः पुष्पार्थमागताः । तत्रापश्यन् विश्वभूतिं क्रीडन्तं सप्रियाजनम् ॥११७॥ सेाः प्रियङ्गुदेवीं ताः समुपेत्येदमूचिरे। यौवराजिर्विश्वभूतिरेव राजेह नापरः ॥ ११८ ।। सान्तःपुरोऽपि हि सदोद्याने पुष्पकरण्डके । स क्रीडति बहिस्ते तु सुतस्तिष्ठति वारितः ॥ ११९ ॥ तच्छुत्वा कुपिता देवी प्राविशत् कोपवेश्मनि । किमेतदिति सा सद्यो राज्ञा पृष्टाऽब्रवीदिदम् ॥ १२० ॥ 15 गजेव रमते विश्वभूतिः पुष्पकरण्डके । त्वयि सत्यपि मे सूनुर्बहिस्तिष्ठति रङ्कवत् ॥ १२१ ॥ राजाऽप्यूचे व्यवस्थेयं कुलेऽस्माकं हि मानिनि ! । क्रीडत्येकसिन् कुमारे द्वितीयः प्रविशेन हि ॥१२२॥ इत्याख्यातेऽपि भूपेन सा नाऽबुद्ध मनस्विनी । उपायज्ञस्ततो राजा यात्राभेरीमवादयत् ॥ १२३ ॥ आज्ञा पुरुषसिंहाख्यः सामन्तो न करोति नः । इति तसै प्रस्थिताः स इत्युक्तिं च नृपोऽकरोत् ॥१२४॥ तच्छुत्वा सम्भ्रमाद् विश्वभूतिरेत्याऽब्रवीदिदम् । मयि सत्यपि किं तातः स्वयं युद्धाय यास्यति ॥१२५॥20 इत्याद्युक्त्वा सनिबन्धं निवार्य पृथिवीपतिम् । विश्वभूतिबेलयुतस्तत्सामन्तभुवं ययौ ॥ १२६॥ श्रुत्वा कुमारमायान्तं स सामन्तः ससम्भ्रमम् । अभ्येत्य भृत्यवद् भक्त्या निनाय निजवेश्मनि ॥१२७॥ खामिन् ! किं करवाणीति वदन्नग्रे कृताञ्जलिः । हस्त्यश्वाद्युपँदादानाद् विश्वभूतिमरञ्जयत् ॥१२८॥ विरुद्धादर्शनाद् विश्वभूतिर्निववृते ततः । पथा यथागतेनैव को हि कुप्येदनांगसे १ ॥ १२९॥ ___ इतश्च विशाखनन्दी राज्ञोद्याने प्रवेशितः । देशं भ्रान्त्वा विश्वभूतिरप्यागात् तत्र पूर्ववत् ॥१३०॥25 विशाखनन्दी मध्येऽस्तीत्युदित्वा वेत्रपाणिना । वारितः स तथैवाऽस्थान्मयोंदा-स्थामवारिधिः ॥१३१॥ दध्यौ चैवं विश्वभूतिस्तदाऽहममुतो वनात् । वनद्विप इवाऽऽकृष्टश्छमना ही! करोमि किम् ? ॥१३२॥ एवं कुमारः कुपितः कपित्थं फलमालिनम् । मुष्टिना ताडयामास दन्तेनेव मतङ्गजः ।। १३३ ॥ कपित्थैः पातितैश्छन्नां परितस्तदधोभुवम् । प्रदर्शयन् विश्वभूतिस्तमूचे वेत्रधारिणम् ।। १३४ ॥ इत्थङ्कारं पातयामि सर्वेषां वः शिरांस्यपि । यदि ज्यायसि मे ताते भक्तिर्न ह्यन्तरा भवेत् ॥ १३५ ॥ 30 यदर्थ वचनोपाय एवं हन्त ! प्रवर्तते । तदलं मम तैर्भोगीपणेर्भोगिंभोगवत् ॥ १३६ ॥
समीरः-पवनः। २ पुरि+अभूत् । * इतश्चाऽऽसीद् राजगृहे विश्वनन्दीति भूपतिः। विशाखनन्दी तत्पत्यां प्रियङ्गी तनयोऽभवत् ॥ संवृ०॥ ३ लघुबन्धुः युवराड् अभूत् । ४ भरतपुत्रस्य मरीचे वः। तस्य कथा प्रथमपर्वणि धर्णिता। ५ आकारयुक्तं नेपथ्यम् । ६ युवराजपुत्रः। ७ उपदा-उपायनम् । ८ निरपराधाय। ९ वेत्रपाणिः-द्वारपाला । १० मर्यादायाः स्थान:-पराक्रमस्य च समुद्रः। ॥ फलशोभितं कपित्थवृक्षम् , भाषायाम् 'कपित्थ' इति 'कोठे'। १२ भोगी-सर्पः मोगा-फणा।
भिषा ४१
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थ पर्व
१४४ ॥
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एवमुक्त्वा विश्वभूतिर्विभृर्ति तृणवअहौ । सम्भूतमुनिपादान्ते गत्वा च व्रतमाद्दे ।। १३७ ॥ तच श्रुत्वा विश्वनन्दी सान्तःपुरपरिच्छदः । सहितो युवराजेन स्वयं तत्र समाययौ ॥ १३८ ॥ सूरिपादान् नमस्कृत्य विश्वभूतिमुपेत्य च । विश्वनन्दी निरानन्दः सगद्गदमदोऽवदत् ॥ १३९ ॥ अस्मानापृच्छय सर्व त्वमकार्षीर्वत्स ! सर्वदा । सहसा कृतवानेतत् किमस्मद्भाग्यसङ्क्षयात् १ ॥ १४० ॥ त्वय्याशा राज्यधरणे ताताऽस्माकं सदैव हि । अकाण्डे किर्मभाङ्गीस्तां त्वं त्राता व्यसनेषु नः ॥ १४१ ॥ वाद्यापि तं वत्स ! भोगान् यदृच्छया । रमस्व स्वैरमुद्याने प्राग्वत् पुष्पकरण्डके ॥ १४२ ॥ विश्वभूतिरथावोचदलं मे भोगसम्पदा । सुखं वैषयिकमिदं वस्तुतो दुःखमेव हि ॥ १४३ ॥ पाशन्ति भवकारायां स्वजन स्नेहतन्तवः । जन्तव स्तैर्हि मुह्यन्ति लालाभिरिव मर्कटाः ॥ किञ्चिन्नातः परं वाच्यश्चरिष्यामि तपः परम् । परलोके सह याति सहायीभूय तत् खलु 10 इति तेनोदिते राजा सानुतापो ययौ गृहम् । विश्वभूतिर्मुनिरपि व्यहार्षीद् गुरुणा सह ॥ षष्ठाष्टमादिनिरतो गुरुशुश्रूषणोद्यतः । क्रमात् सोऽधीतसूत्रार्थो भूयांसं कालमत्यगात् ॥ गुरोरनुज्ञयैकाकि विहारप्रतिमाधरः । स विहर्तुं प्रववृते ग्रामा-ssकर - पुरादिषु ॥ १४८ ॥ विविधाभिग्रहपरो विहरन्नेकदा च सः । विश्वभूतिर्महासाधुर्जगाम मथुरां पुरीम् ॥ १४९ ॥ पैतृष्वसेयीमुद्रोढुं मथुराराजकन्यकाम् । विशाखनन्दी तत्राऽऽगात् तदा च सपरिच्छदः । १५० ।। 15 विश्वभूतिश्व मासान्तपारणाय परिभ्रमन् । विशाखनन्दिशिविरं निकषा समुपाययौ ॥ १५१ ॥ विशाखनन्दिने यान्तं पुरुषास्तमदर्शयन् । विश्वभूतिकुमारोऽसाविति व्याहारिणो मुहुः ॥ १५२ ॥ विशाखनन्दिनो रोषः सद्यस्तद्दर्शनादभृत् । गवैकया च पर्यस्तो विश्वभूतिस्तदाऽपतत् ॥ १५३ ॥ विशाखनन्दी हसित्वा विश्वभूति मदोऽवदत् । कपित्थपातनं स्थाम तत् केदानीमहो । गतम् ॥ ॥ १५४ ॥ विशाखनन्दिनं दृष्ट्वा विश्वभूति रेंमर्षणः । गृहीत्वा शृङ्गयोस्तां गां भ्रमयामास लवत् ।। १५५ ।। 20 ततो निवृत्तो दध्यौ च विश्वभूतिरिदं हृदि । मय्यद्यापि सरोषोऽयं निःसङ्गेऽपि हि दुर्मनाः ।। १५६ ।। अनेन तपसोग्रेण मृत्यवेऽस्य भवान्तरे । भूयासं भूरिवीर्योऽहं निदानं चेति सोऽकरोत् ॥ १५७ ॥ सम्पूर्ण कोटिवर्षायुरनालोच्य च तन्मृतः । महाशुक्रे विश्वभूतिरुत्कृष्टायुः सुरोऽभवत् ।। १५८ ।।
इतश्च पोतनपुरं पुरमस्त्युच्चगोपुरम् । अपाग्भरतवर्षार्धभ्रुवो मुकुटसन्निभम् ॥ १५९ ॥ अभूत् पुरे तत्र रिपुप्रतिशत्रुर्महीपतिः । शोभमानो गुणैस्तैस्तै रहर्पतिरिवांशुभिः ॥ १६० ॥ षाड्गुण्येन स षट्खण्ड्या भरतक्षेत्रवद् बभौ । उपायैरपि चतुर्भिर्दन्तैरिव सुरद्विपः || १६१ ॥ स सिंह इव शौर्येण स्तम्बेरंम इवौजसा । कन्दर्प इव रूपेण धिया गुरुरिवाऽभवत् ॥ १६२ ॥ अवनी साधनविधावतिप्रकटपाटवौ । मिथो धी- विक्रमौ तस्य व्यभूष्येतां भुजाविव ॥ १६३ ॥ भद्रेति नाम्ना महिषी भद्राणां भद्रमास्पदम् । बभूव भूपतेस्तस्य भूरिर्वाऽऽत्तशरीरिका ॥ १६४ ॥ पतिभक्त्या कवचिता यमिकीव ररक्ष सा । अनारतं जागरूका शीलं रत्ननिधानवत् ॥ १६५ ॥ 30 अक्ष्णोः सुधावर्तिरिव राज्यलक्ष्मीरिवाङ्गिनी । मूर्त्ता कुलव्यवस्थेव चकासामास साऽनिशम् ॥ १६६ ॥ च्युत्वा सुबलजीवोsपि स विमानादनुत्तरात् । अन्यदा तु महादेव्यास्तस्याः कुक्षाववातरत् ॥ १६७ ॥
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25
३१८
१४५ ॥
१४६ ॥
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१ भग्नां चकार । २ दिलासं कुरु । ३ बन्धनरूपा भवन्ति । ४ लाला भाषायाम 'लाल' इति 'मर्कट' इति भाषायाम् करोळियो । ५ पितृष्वसुः पुत्रीम् । पितृष्वसा भाषायाम् 'फई' इति । ६ समीपम् । ७ पर्यस्तः- आघातं प्रापितः । ८ स्वामपराक्रमः । ९ अमर्षणः असहनशीलः । १० पूलः भाषायाम् 'पूळो' इति । ११ १३ गुरुः- वाचस्पतिः । १४ आतशरीरिका पहराशी शरीरधारिणी भूः पृथिवी इव । पहरेदार' । १० सुधाया वर्तिः इव । वर्तिः भाषायाम् 'वाट-दीवेट' |
गोपुरम-द्वारम् । १२ स्तम्बेरमः हस्ती ।
१५ कवचयुक्तां | १६ यामिकी- भाषायाम्,
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प्रथमः सर्गः1
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । ददर्श सख्सुप्ता च यामिन्याः पश्चिमे क्षणे । चतुरः सा महास्वमान सूचकान् बलजन्मनः ॥ १६८ ॥ तदेव परमानन्दजनिताभिभवादिव । दूरं गतःयां निद्रायां राज्ञी राज्ञे व्यजिज्ञपत् ॥ १६९ ॥
दन्सावलश्चतुर्दन्तः स्फटिकाद्रिनिभो मया । दृष्टो विशन् स्ववक्रान्तरंभ्रान्तरिख चन्द्रमाः ॥ १७ ॥ शरदभ्रमिवाऽऽवर्त्य निर्मितो निर्मलद्युतिः । ककुंभानुच्चककुदोऽथ गर्जन्जुवालेधिः ॥ १७१ ॥ निशाकरः कराकरैर्दूरदूरं प्रसारिभिः । कर्णावतंसरचनां चिन्वन्निव दिशामथ ॥ १७२ ॥ ततश्च पौरुन्निद्रैमञ्जुगुञ्जन्मधुव्रतैः । पूर्ण सरः शतँमुखीभूय गायदिवोच्चकैः ॥ १७३ ॥ खामिन्नमीषां समानां फलं किमिति शंस मे । प्रष्टुमर्हो न सामान्यजनो हि स्वममुत्तमम् ॥ १७४ ।। राजाऽपि व्याजहाराथ देवि ! देव इव श्रिया । लोकोत्तरंबलो भावी बलभद्रस्तवाऽऽत्मजः ॥ १७५ ॥ श्वेतरश्मिमिव प्राची श्वेतवर्ण महाभुजम् । अशीतिधनुरुत्तुङ्ग कालेनाऽसूत सा सुतम् ॥ १७६ ॥ पुत्ररत्ने समुत्पने स तत्र पृथिवीपतिः । चक्ररत्ने चक्रवर्तीवोत्सवं व्यधितोच्चकैः ॥ १७७॥ शुमेऽहनि शुभ चन्द्रे विच्छेदेन महीयसा । चकागऽचल इत्याख्यां तस्य सूनोर्महीपतिः ॥ १७८ ॥ दिने दिने वपुश्छायां वितन्वन्नधिकाधिकाम् । अवर्धत स धात्रीभिः सारणीभिरिवाधिपः ।। १७९ ॥ __ अचलस्य तु जातस्य गते काले कियत्यपि । भद्रा देवी दधौ गर्भ प्रसूनमिव केतकी ॥ १८० ॥ सर्वलक्षणसम्पूर्णा पूर्णे काले नृपप्रिया । असूत सा दुहितरं जाह्नवीव सरोजिनीम् ।। १८१ ॥ वस्था मृगाङ्कवाया मृगशावकचक्षुषः । मृगावतीति विदधे नामधेयं महीभुजा ॥ १८२॥ अङ्कादक सञ्चरन्ती तापसानां मृगीव सा । वृद्धिमासादयामास निष्प्रत्यहं मृगेक्षणा ॥ १८३॥ तया कटिस्थया धाग्यो विचरन्त्यो गृहाङ्गणे । गृहस्थणा इव रत्नशालभङ्ग्यश्चकाशिरे ॥ १८४॥ बाल्यं क्रमेण लचित्वा प्रपेदे साऽथ यौवनम् । सरोज्जीवनजीवातु वपुर्लक्ष्मीविशेषकम् ॥ १८५ ॥ तस्या वक्र दन्तपत्रमिवेन्दोभृलताच्छलात् । नेत्रे च कृष्णधवले संभृङ्गे इव कैरवे ॥ १८६ ॥ कण्ठश्च लैंटभो नौलमिव वक्रसरोरुहः । पञ्चेषोरिव तूणीरौ पाणी च सरलाङ्गुली ॥ १८७॥ 20 वपुर्लावण्यसरितश्चक्रवाकाविव स्तनौ । मध्यं कृशतरं भूरि स्तनभारश्रमादिव ।। १८८॥ क्रीडावापी सरस्येव नाभिर्गाम्भीर्यशालिनी । तटी रत्नाचलस्येव श्रोणिभित्तिर्गरीयसी ॥ १८९ ॥ ऊरू च कदलीस्तम्भविभ्रमौ क्रमवर्तुलौ । पादौ सरलजङ्घाकावुन्नालेनलिने इव ॥ १९० ॥ एवं विभक्तावयवा नव्यया यौवनश्रिया । अपि विद्याधरस्त्रीणामधिदेवीव साऽशुभत् ॥ १९१॥
यौवनश्रीरवर्धिष्ट मृगावत्या यथा यथा । भद्राया ववृधे चिन्ता तद्वरार्थे तथा तथा ॥ १९२ ॥ 25 चिन्ता ममेव राज्ञोऽपि वरार्थेऽस्यां भवत्विति । तां प्रास्थापयदन्येधुर्भद्रादेवी तदन्तिके ॥ १९३ ॥ स्मरेषुजातवैधुर्यात् तां पुत्रीत्यविदन्निव । विचिन्तयामास रिपुप्रतिशत्रुरिदं हृदि ॥ १९४ ॥ अहो ! किमपि सौन्दर्य जै!मस्त्रं मनोभुवः । जगत्रयस्वैजयलीलादुर्ललितं तनोः ॥ १९५ ॥ सुलभं भूमिसाम्राज्यं वर्गसाम्राज्यमप्यहो! । इयं तु दुर्लभा मन्ये बाला हृदयवल्लभा ॥ १९६ ॥
१ परमानन्देन जनितात् पराजयाद् इव निद्रा दूरं गता। २ दन्तावल:-हती। ३ अभ्रान्तर्-अभ्रमध्ये चन्द्र इव । ४ ककुभान्-बलीवर्दः । उच्चककुदः-महास्कन्धः। ५ वालधि:-पुच्छम। ६ उन्निद्रम्-विकसितम् । ७ शतमुखैः संयुकं भूत्वा । ८ अर्हः-योग्यः । ९ लोकोत्तरबल:-अलांकिकबलः। १.विच्छदः-वैभवः। १. छाया-कान्तिः। १२ प्रसूनम्-कुसुमम् । १३ शावकः-शिशुः। १४ निष्प्रत्यूहम्-निर्विघ्नम्। १५ स्थूणा-स्तम्भः । शालिमञ्जी-पुत्तलिका। १६ जीवातुः-जीवनौषधम् । १७ विशेषकम्-तिलकम्। १८ इन्दोः दन्तपत्रम् , भाषायाम् दांतियो। १९ भ्रमरसहिते। २० लटभः-सुन्दरः। २१ नालम् कमकदण्ड इव । २२ 'पाणी' प्रथमाद्विवचनम् । २३ श्रोणिः-कटिः। २४ क्रमेण गोलाकारौ। २५ उजालनलिने-ऊर्चनाळयुके कमले। नालम्-कमलदण्डः। २६ विजयकारि। २७ बैणम्-सीसमूहः। *जये युवत्या ललि° संवृ०।जये अस्या दुर्ल सं०॥
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कलिकालसर्वशश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थ पर्व सुरा-ऽसर-नरेन्द्राणां पुण्येभ्योऽप्यतिशायिभिः । उपस्थितेयं मे पुण्यैर्जन्मान्तरशतार्जितैः ॥ १९७ ॥ एवं विचिन्त्य नृपतिः प्रियालापपुरःसरम् । अङ्कमारोपयामास तां सद्यः प्राणवल्लभाम् ॥ १९८॥ अनुरागे स आरोप्य स्पर्शा-ऽऽलिङ्गन-चुम्बनैः । तां जरत्कञ्चुकिवरैरन्तःपुरमनाययत् ॥ १९९ ॥
पौरलोकान् समाहृय सह प्रकृतिभिस्ततः । लोकापवादरक्षार्थमपृच्छत पृथिवीपतिः ॥२०॥ मदीयभूमौ ग्रामेषु पुरेष्वन्यत्र वा क्वचित् । यत् समुत्पद्यते रत्नं तत् कस्येति निवेद्यताम् ॥ २०१॥ लोकोऽप्यूचे भवद्भूमौ यद् रत्नं जायते क्वचित् । तस्य स्वामी भवानेव नान्यो भवितुमर्हति ॥ २०२॥ इति तं निर्णयं स त्रिर्गृहीत्वा पृथिवीपतिः । तेषां द्राग् दर्शयामास निजकन्यां मृगावतीम् ॥ २०३ ॥ इत्युवाच च तान् भूयः कन्यारत्नमिदं हि मे । इदानीं परिणेष्यामि स्वयं युष्मदनुज्ञया ॥ २०४ ॥ इत्युक्ते लजिताः पौरा ययुर्निजनिजं गृहम् । गान्धर्वेण विवाहेन पर्यणैषीच तां नृपः ॥२०५॥ वसुतायाः पतिरभूत् तेन तस्य महीपतेः । नाम प्रजापतिरिति पप्रथे पृथिवीतले ॥ २०६ ॥
नवं कुलकलङ्कं तं हसनीयं जनेऽखिले । महालजाकरं पत्युः श्रुत्वा भद्राऽत्यलज्जत ॥ २०७॥ सहाऽचलेन पुत्रेण साऽचालीद् दक्षिणापथे । श्रेयान् स देशो नो यत्र श्रूयन्ते दुर्जनोक्तयः ॥२०॥ मातुः कृते दक्षिणस्यां विश्वकर्मेव नूतनः । माहेश्वरीति नगरीमस्थापयदथाऽचलः ॥ २०९ ॥
तां च श्रीद इवाऽयोध्यामाहृत्याऽऽहृत्य सर्वतः । हिरण्यैः पूरयामास बलदेवोऽचलाभिधः ॥ २१०॥ 15 कुलीनैः सचिवैरात्मरक्षैर्दासजनैर्वृताम् । मूं मिव पुरीदेवीं मातरं तत्र सोऽमुचत् ॥ २११॥
भद्रापि स्त्रीशिरोरत्नं शीलालङ्करणा सती । देवपूजादिषट्कर्मरता तस्यामवास्थित ॥ २१२ ॥ भक्तिमान् बलदेवोऽपि तत् पोतनपुरं ययौ । यादृशस्तादृशो वाऽपि पूजनीयः पिता सताम् ॥ २१३ ॥ शुश्रूषमाणः पितरं पूर्ववत् तत्र चाऽचलः । तस्थौ न पूज्यचरितं चर्चयन्ति मनीषिणः ॥ २१४ ॥
राजाऽपि स्थापयामास तामग्रमहिपीपदे । मृगावती मुंगदृशं मृगेलक्ष्मेव रोहिणीम् ॥ २१५॥ 20 कियत्यपि गते काले महाशुक्रात् परिच्युतः। विश्वभूतिमुने वस्तस्याः कुक्षाववातरत् ॥ २१६॥
यामिन्याः पश्चिमे यामे सूचका विष्णुजन्मनः । देव्या ददृशिरे स्वमाः सप्तेते सुखसुप्तया ॥ २१७॥ तत्राऽऽदौ केसरियुवा कुङ्कुमारुणकेसरः । इन्दुलेखानिभनखश्चमरोपमबालधिः ॥२१८ ॥ कुञ्जराभ्यां पूर्णकुम्भहस्ताभ्यां क्षीरवारिभिः । क्रियमाणाभिषेका च पद्मा पद्मासनस्थिता ॥ २१९ ॥
ध्वंसमानो महाध्वान्तं दोषाऽपि जनयन्त्रहः । उद्दण्डतेजःप्रसरस्त्विषामधिपतिस्ततः ॥ २२० ॥ 25 स्वच्छ-स्वादुपयःपूर्णः पुण्डरीकार्चिताननः । सोवर्णघण्टिकः पुष्पमाली कुम्भस्ततोऽपि च ॥ २२१॥
नानाजलचराकीर्णो रत्नसम्भारभासुरः । गगनोदेश्चिकल्लोलस्ततः कल्लोलिनीपतिः ।। २२२ ॥ पञ्चवर्णमणिज्योतिःप्रसरेगगनाङ्गणे । विपश्चितेन्द्रचापश्री रत्नानां सञ्चयस्ततः ।। २२३ ।। धूमध्वजश्च निघूमो ज्वालापल्लविताम्बरः । दृशोः सुखंकरालोकः सप्तमश्चेति सप्तं ते ॥ २२४ ॥
उद्बुद्धया तयाऽऽख्यातान् स्वमान् व्याख्यन्महीपतिः। अर्धचक्री तव सूनुनूनं देवि! भविष्यति ॥२२५॥ 30 राज्ञा सद्यः समाहूय पृष्टा नेमित्तिका अपि । स्वप्नांस्तथैव व्याचख्युर्विसंवादो न धीमताम् ।। २२६ ।।
पूर्णे काले च सा देवी सर्वलक्षणलक्षितम् । अशीतिधनुरुत्तुङ्गं कृष्णाङ्गं सुपुवे सुतम् ॥ २२७ ।। प्रससाद कैकुपचंक्रमुल्ललास वसुन्धरा । जहर्ष च जनः सर्वस्तस्येव नृपतेर्मनः ॥ २२८ ॥
१जरत्कञ्चकिनः-वृद्धकञ्चकिनः; कझुकी- अन्तःपुररक्षकः। २ प्रकृतिः प्रधानमण्डलम् । ३ अयोध्यानगरीम् । ४ आकारचारिणी नगरीदेवीमिव । * मृगनेत्रां मृ° संकृ॥ ५ मृगलक्ष्मा-चन्द्रः । ६ दोषा-रात्रिः। ७ स्विद-कान्तिः, तदधिपतिः सर्यः। घण्टिका-भाषायाम 'घंटडी'। ९ उनञ्जी-ऊर्ध्वगामी। १० विपश्चितम्-विस्तीर्णम् । ११धूमध्वजा-अग्निः । १२ अम्बरम्-गगनम् । सुखाक संवृ०॥ सप्तके संबृ०॥ १३ ककुपचक्रम्-दिशामण्डलम् । 'चक्रं प्रापोग्लासं वसु संवृ०॥
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प्रथमः सर्ग:] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
३२१ कारागारात् पुरा बद्धान् गोपो गा इव वाटकात् । हृष्टो रिपूनपि रिपुप्रतिशत्रुरथामुचत् ॥ २२९ ॥ यथाकामं ददौ सोऽर्थानर्थिभ्यः कामधेनुवत् । कर्तुं स्थानमिवैष्यन्त्या अर्धचक्रधरश्रियः ॥ २३० ॥ तथाऽभूदुत्सवः प्राज्यो जने तस्मिन् निरन्तरः । यथा सपुत्रजन्मेव सोद्वाह इव सोऽभवत् ॥ २३१ ॥ मङ्गल्यपाणयो नार्यो ननृतू राजवेश्मनि । मिथः सङ्घर्षतो ग्रामागमाश्लेषपराः पुरः ॥ २३२ ॥ स्थाने स्थाने तोरणानि सङ्गीतानि पदे पदे । अजायन्त पुरे तस्मिन्नभितो राजवेश्मवत् ॥ २३३ ॥ 5 दृष्ट्वा वंशत्रयं पृष्ठे त्रिपृष्ठ इति भूपतिः । नास तस्याकरोत् सूनोरुत्सवेन महीयसा ॥ २३४ ॥ लाल्यमानः स धात्रीमी रम्यमाणोऽचलेन च । वासुदेवस्त्रिपृष्ठाख्यो व्यवर्धत शनैः शनैः ॥ २३५॥ स बालो बलभद्रेण प्रवणत्पादघरिः । अग्रेसरेण चिक्रीड प्रतिकारेण हस्तिवत् ॥ २३६ ॥ लीलयैव महाप्राज्ञः स उपाध्यायसाक्षिकम् । प्रतिबिम्बमिवाऽऽदेर्शो जग्राह सकलाः कलाः ॥ २३७ ॥ क्रमेण कवर्चहरो दृढोरस्को महाभुजः । बभूव बलभद्रस्य सवया इव सोऽनुजः ॥ २३८॥ 10 असञ्जातान्तरौ नित्यं क्रीडन्तौ भ्रातरावुभौ । बभ्राजाते मूर्तिमन्तौ पक्षाविव सिता-ऽसितौ ॥ २३९ ॥ नील-पीताम्बरधरौ तौ ताल-गरुडध्वजौ । अशोमेतां स्वर्णशैला-ऽञ्जनाद्री इव जङ्गमौ ॥ २४०॥ क्रीडयापि प्रचलतोस्तयोरचल-कृष्णयोः । पादन्यासैर्वज्रपातैरिवाऽकम्पत मेदिनी ॥ २४१॥ तयोरारूढयोः प्रौढ्दन्तिनोऽपि नृदन्तिनोः । कुम्भस्थले करतलाऽऽस्फाललीलां न सेहिरे ॥ २४२ ॥ ताभ्यां पर्यस्यमानानि क्रीडया दोभिरुर्जितैः । वल्मीकन्ति स शृङ्गाणि महाशिखरिणामपि ॥२४३॥ 15 दैत्यादिभ्योऽपि निर्भीका वितरेभ्यस्तु का कथा ? । तौ कुमारावजायेतां शरण्यं शरणार्थिनाम् ॥ २४४ ॥ विनाञ्चलं न त्रिपृष्ठो न त्रिपृष्ठं विनाञ्चलः । एकात्मानौ द्विशरीराविव तौ सह चेरतुः ॥ २४५ ॥ ___ इतश्चाऽऽसीत् पुरे रत्नपुरे नीलाञ्जनामः । प्रतिविष्णुरश्वग्रीवो मयूरग्रीवनन्दनः ॥२४६ ॥ सोऽशीतिधनुरुत्तुङ्गो नवनीरधरच्छविः । चतुरशीत्यब्दलक्षामितायुर्महाभुजः ॥ २४७ ॥ तस्य दोर्दण्डयोः कण्डूर्नाऽशाम्यद् वैरिकुट्टनैः । सिंहस्येव महाँकुम्भिकुम्भस्थलविपाटनैः ॥ २४८॥ 20 महौजाः स महाबाहुर्महाहवैकुतूहली । पिप्रिये" न तथा ननैयुध्यमानैर्यथाऽरिभिः ॥ २४९॥ नित्यं नेत्रारविन्दानामश्रुघृष्टिं प्रवर्तयन् । तत्प्रतापोऽरिनारीषु वारुणास्त्रमिवाऽभवत् ॥ २५० ॥ तस्य चाऽऽक्रान्तदिक्कक्र करे चक्रमलक्ष्यत । उत्पातभूतो द्विषतां द्वितीय इव भास्करः ॥ २५१ ॥ हृदयस्थो विदित्वाऽस्मान् विरुद्धान् मा वधीदिति । नाभक्तिं मनसाऽप्यस्य विदधुर्वसुधाधिपाः ॥ २५२॥ योगिनः परमात्मानमिव तं हृदयानिजात् । न जातूत्तारयामासुः सर्वेऽपि पृथिवीभुजः ॥ २५३॥ 25 स आघाटशिलास्तम्भीभूतवैताख्यपर्वतम् । त्रिखण्डं भरतक्षेत्रमात्मसौंदकृतौजसा ॥ २५४ ॥ द्वे च विद्याधरश्रेण्यौ वैताढ्याद्रेर्भुजाविव । विद्यौजोभ्यां परीजिग्ये स विद्याधरपुङ्गवः ॥ २५५ ॥ मागधेश-प्रभासेश-वरदामाधिपैरसौ । प्राभृतैरर्चयाञ्चक्रे सुरैरपि नृपैरिव ॥ २५६ ॥ राज्ञां मुकुटबद्धानां सहस्राः षोडशाऽनिशम् । तच्छासनं मुकुटवद् धारयामासुरूर्जितम् ॥ २५७ ॥ एकातपत्रं साम्राज्यं मुञ्जानः स महाभुजः । अतिवाहितवान् कालं पृथव्यामिन्द्र इव स्थितः ॥२५८ ॥30
१ वाटक:-भाषायाम् 'वाडो'। २ पुत्रजन्मसहित इव, विवाहसहित इव । उद्वाहः विवाह । ३ पृष्ठम्-भाषायाम् 'पीठ' 'वासो' । अयं समग्रः श्लोकः 'यदवोचाम' इत्युल्लिख्य अक्षरशः समुद्धतः आचार्यहेमचन्द्रेण अभिधानचिन्तामणिकोशस्वोपझटीका. याम् कां. ३ श्लो० ३५९ पृ. २७९ । ४ घर्धरिः-भाषायाम् 'घुघरी। ५ आदर्श:-भाषायाम् 'अरिसो-दर्पण'। ६ कवचहर:कवचहरणसमर्थः। ७ शोभितौ स्तः। प्रौढगजाः । दन्ती-गजः, नररूपदन्तिनोः। ९ परिक्षिप्यमाणानि । १० वरुमीकसाभानि भवन्ति । वक्ष्मीकम्-भाषायाम् 'बांबी-राफडो' इति । ११ प्रसूः-पुत्रः। १२ नीरधरो मेघः। छविः कान्तिः । शम्भी -जः। १४ आहवः-समराङ्गणम् । १५ पिप्रिये-प्रसन्नतां प्राप्तः। १६ अभक्तिः अनादरः । १७ आघाटः सीमा । १० भास्मसातू-अभीनम्, भकृत मोजसा-इति विभागः। १९ मोजा भारता। २. पराजयं प्राप।
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[चतुर्थ पर्व
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं स्वच्छन्दं क्रीडतोऽन्येचुरश्वग्रीवस्य भूपतेः । अरिष्टांभ्रमिवाऽऽकाशेऽकाण्डे चिन्तेति हृद्यभूत् ॥ २५९ ॥ __ अपागभरतवर्षार्धे ये केऽपि वसुधाभुजः। मद्धजस्थानि तेऽमजेन्नम्भोधौ भूधरा इव ॥ २६० ॥ पृथिव्यामेकमल्लस्य तस्यापि वधको मम । मृगेष्विव मृगेन्द्रस्य को राजसु भविष्यति ? ॥ २६१ ॥ दुर्ज्ञानमेतदथवा ज्ञास्यामीति विमृश्य सः । अश्वबिन्दु निमित्तझं द्वाःस्थेनाऽऽजूहवत् क्षणात् ।। २६२ ।। राज्ञा स्ववचनं पृष्टः स तु नैमित्तिकोऽवदत् । शान्तं पापं प्रतिहतममङ्गलमिदं वचः ॥ २६३ ॥ तवाशेषजगजिष्णोरन्तकोऽप्यन्तको न हि । वराकः कोऽपरो नाम मनुष्येषु भविष्यति ॥ २६४ ॥ हयग्रीवोऽप्युवाचैवमर्थवादं विहाय भोः ! । यथार्थ ब्रूहि मा भैपीर्नह्याप्त चाटुभाषिणः ॥ २६५ ॥ राज्ञैवं साग्रहं पृष्टः सोऽथ नैमित्तिकाग्रणीः । लनादिकं विचार्येति व्याजहार स्फुटाक्षरम् ॥ २६६ ॥ धर्षयिष्यति यो दूतं चण्डवेगाभिधं तव । पश्चिमान्तस्थसिंहस्य यश्च हन्ता तवापि सः ॥ २६७ ॥ प्रवासी स्तनितेनेव म्लानो वाचा तया नृपः । कृत्वा कृत्रिमपूजां तं व्यसृजद् वैरिदूतवत् ॥ २६८ ॥ राजा केसरियूनाऽथ देशे तेनोद्वसीकृते । शालीनारोपयत् सिंहवधकज्ञानहेतवे ॥ २६९ ॥ रक्षार्थ शालिवापानां स क्रमात् पृथिवीपतीन् । षोडशसहस्रसङ्ख्यान् निदिदेश विशांपतिः ॥ २७० ॥ गत्वा क्रमात् ते सन्नद्धा नृपाः पञ्चाननात् ततः। तान् शालिक्षेत्रिणोरक्षन् गोभ्यः क्षेत्राणि गोपवत् ॥२७१॥
सावहित्थमथाऽऽस्थानीमास्थाय पृथिवीपतिः । इत्यूचेऽमात्य-सेनानी-सामन्तादीन् सभासदः ॥२७२॥ अधुना नृप-सेनानीप्रभृतीनां महाभुजः । कुमारः कश्चिदप्यस्ति किमसामान्य विक्रमः १ ।। २७३ ॥ तेऽप्यूचुर्देव! तेजस्वी सति कस्तिग्मतेजसि । प्रभञ्जने क ओजस्वी ? रहस्त्री को गरुत्मति ? ॥ २७४॥ को गौरवी मेरुगिरौ ? गम्भीरः कश्च सागरे । विक्रमाक्रान्तविक्रान्ते त्वयि को नाम विक्रमी ? ॥२७५॥
॥ युग्मम् ॥ राजाऽप्युवाच चाटूक्तिरियं भोः! न तु वास्तवम् । बलिनो यद् बलिभ्योऽपि बहुरत्ना हि भूरियम् ॥२७६॥ 20: ततश्च तेषु कोऽप्येकः सचिवश्चारुलोचनः । वाचस्पतिरिवोवाच वाचा स्फुटयथार्थया ॥ २७७ ॥
प्रजापतिनृपस्य स्तः कुमारावमरोपमौ । मर्त्यवीरान् मन्यमानौ तृणाय सकलानपि ॥ २७८ ॥ सभा विसृज्य राजाऽथ विससर्ज प्रजापतेः । अन्तिके चण्डवेगं तं दृतमर्थेन केनचित् ॥ २७९ ॥ रथिभिः सादिभिः सारैः संसार कतिभिर्दिनः । दृतः स पोतनपुरं स्वामितेज इवाङ्गवत् ॥ २८०॥
तत्र प्रजापतिनृपः सर्वालङ्कारभूषितः । सहाञ्चल-त्रिपृष्ठाभ्यां सामन्तैरप्यनेकशः ॥ २८१ ॥ 25 सेनापति महामात्य-पुरोधःप्रमुखैरपि । वृतः प्रधानपुरुषैर्यादोभिरिव पाशैभृत् ।। २८२ ॥
विचित्रचारीकरणा-ऽङ्गहारोद्वृत्तनर्तकम् । ध्वनन्मृदङ्गनिर्घोषघोषितव्योमकन्दरम् ॥ २८३ ॥ सुव्यक्तगीतोद्गारेण सञ्जीवापितवेणुकम् । विपश्चितंग्राम-रागविपश्चीरचितश्रुति ॥ २८४ ॥ तालानुसारैः प्रक्रान्तगीतसङ्गीतकं तदा । निःशकं कारयन्नासीन्महर्द्धिक इवामरः ॥ २८५ ॥
॥पञ्चभिः कुलकम् ॥
१ उपद्रवजनकम् अभ्रम् । २ अनवसरे । ३ स्थाम शौर्यम्। ४ अमजन्-बुडिताः। * मृगेष्वपि मृ संवृ०॥ ५ अन्तकः-यमः, अन्तकः-विनाशकारी। राशति सा संबृ०॥ यो हन्ता स तवापि हि संवृ०॥ ६ उद्वसम्निर्जनम् , भाषायाम् 'उजड' इति । नां क्रमेण पृथिवीपतीन् । स षोडश सहस्राणि निदि° संवृ०॥ ७ पञ्चाननः सिंहः। ८ अवहित्था आकारगोपनम् । ९तिग्मतेजाः सूर्यः । प्रभञ्जनः वायुः । रहस्वी वेगवान् । गरुत्मान् गरुडः। 1स्वी जवी को वा गरु संवृ०॥ १० वीरान् तृणतुल्यान् मन्यमानौ। ११ सादिनः अश्ववाराः । १२ ससार-जगाम । १३ जलदेवरूपः वरुणः। १४ चारीकरणं गत्या अभिनयः । अङ्गहारः शारीरिकः अभिनयः। उत्तम् तं गमनम् । १५ सजीवापित०-वेत. नावस्कृतः। १६ विपश्चितः विस्तीर्णः। १७विपञ्ची-बीणा।
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प्रथमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
३२३ अनिषिद्धगतिःस्थैर्विद्युद्दण्ड बोच्चकैः । तत्राऽऽस्थाने प्रविवेश चण्डवेगो झटित्यपि ॥ २८६ ॥ अकस्मादागतं दृष्ट्वा ससामन्तः प्रजापतिः । स्वामिवत् खामिदूतं तमभ्युदस्थात् ससम्भ्रमम् ॥ २८७ ॥ महत्या प्रतिपत्त्या तमुपावेशयदासने । स्वामिनो वाचिकं सर्वमपृच्छच्च स भूपतिः ॥ २८८ ॥ सङ्गीतकस्य सञ्जज्ञे भङ्गोऽकाण्डे तदागमात् । आगमाध्ययनस्येव विद्युदालोकमात्रतः ॥ २८९ ॥ गृहं निजनिजं जग्मुः सर्वे सङ्गीतकारिणः । स्वामिनि व्यग्रचित्ते हि नावकाशः कलावताम् ॥ २९०॥ ।
तं रङ्गभङ्गकर्तारं दृष्ट्वा भृशममर्षणः । पार्श्वस्थं पुरुषं कश्चित् त्रिपृष्ठः पृष्टवानिति ॥ २९१ ॥ अये ! कोऽसमयज्ञोऽयं पशुः पुरुषरूपभृत् । अज्ञापितस्वाऽऽगमनः प्राविशत् तातपर्षदि ? ॥ २९२ ॥ अभ्युत्तस्थौ कथं दृष्ट्वा तात एनं ससम्भ्रमः १ । निषिद्धश्च कथं नैष प्रविशन् वेत्रपाणिना? ॥ २९३ ॥ अथेत्थं कथयामास त्रिपृष्ठाय स पूरुषः । दूतो राजाधिराजस्य हयग्रीवस्य नन्वयम् ॥ २९४ ॥ त्रिखण्डे भरते ह्यसिन् राजानस्तस्य किङ्कराः । ततस्तस्येव दूतस्याप्यभ्युत्तस्थौ पिता तव ।। २९५ ॥ 10 द्वाःस्थेनापि निषिद्धस्तन्नायमौचित्यवेदिना । ने श्वाऽप्यास्कन्धतं यस्मात् स्वामिनः किं पुनः पुमान् ? ।।२९६॥ असिन् प्रसादिते राजा हयग्रीवः प्रसीदति । तत्प्रसादेन राज्यानि राज्ञां नन्दन्ति सम्प्रति ।। २९७ ॥
खलीकृतेऽवज्ञयाऽसिन् हयग्रीवः खलीभवेत् । दृतदृष्ट्यनुसारेण प्रवर्तन्ते हि भूभुजः ॥ २९८ ॥ खलीभूते स्वामिनि हि कृतान्त इव दुःसहे । नेष्यते जीवितमपि नृपै राज्ये तु का कथा ? ॥ २९९ ॥ अभाषिष्ट त्रिपृष्ठोऽपि न जात्या कोऽपि कस्यचित् । स्वामी वा सेवको वाऽपि शक्त्यधीनमिदं खलु ॥३००॥15 वायात्रेण न तं तावत् पँर्यस्यामोऽधुना वयम् । स्वप्रशंसेवाऽन्यनिन्दा सतां लज्जाकरी खलु ।। ३०१॥ तातन्यकारकारं तमुत्तानशयमोजसा । छिमग्रीवं हयग्रीवं करिष्ये समये न्वहम् ।। ३०२ ।। प्राप्तकालमिदं तावत् तातेनैष विसृज्यते । यदा तदा निवेद्यं मे करोम्यस्योचितं यथा ।। ३०३ ॥ सोऽनुमेने प्रमान् राजविरुद्धमपि तद्वचः । राजबद् राजपुत्रोऽपि मान्यो राजानुजीविनाम् ॥ ३०४ ॥ निजाधिकारिणमिव समुद्दिश्य प्रजापतिम् । राजप्रयोजनान्यूचे चण्डवेगोऽपि कानिचित् ॥ ३०५ ॥ 20 तथेति प्रतिपद्यार्थमावर्य प्राभृतादिना । प्रजापतिनरेन्द्रेण चण्डवेगो व्यसृज्यत । ३०६ ।। __स प्रीतः सपरीवारः प्रतस्थे स्वपुरी प्रति । जगाम पोतनपुराद् बहिः स्यन्दनमास्थितः ।। ३०७ ॥ ज्ञात्वा त्रिपृष्ठस्तं यान्तं पुरोभूय सहाऽचर: । दवाऽनल इवाध्वन्यं सोनिलो रुरुधेतराम् ॥ ३०८ ॥ त्रिपृष्ठ इत्यभाषिष्ट धृष्ट ! पापिष्ठ ! दुष्ट !! । दूतमात्रत्वमप्याप्य राजवद् वर्तसे पशो! ।। ३०२॥ सङ्गीतरङ्गभङ्गं त्वं मूर्खाऽकार्यथा तथा । अमुमूर्षुः पशुरपि कोऽन्यः कुर्यात् सचेतनः ? ॥ ३१० ॥ 25 गृहे गृहस्थमात्रस्याप्यायातो भूपतिः स्वयम् । ज्ञापयित्वा प्रविशति नीतिरेषा मनीषिणाम् ॥ ३११ ॥ त्वं भुवं स्फोटयित्वेवाऽज्ञातोऽकाण्डे समागमः । तातेनर्जुस्वभावेन सत्कृतश्चासि तन्मुधा ॥ ३१२ ॥ दुर्विनीतो यया शक्त्या तां प्रकाशय सम्प्रति । इदं ते दुर्नयतरोः फलं दाग दर्शयाम्यहम् ।। ३१३ ॥ इत्युक्त्वा मुष्टिमुद्यम्य त्रिपृष्ठः प्रपिनष्टि तम् । तावत् तावत् पुरैःस्थायेत्यूचे मुशलपाणिना ।। ३१४ ॥ अलमत्र प्रहारेण कुमार! नरकीटके । न चपेटा शृगालेषु क्रोशस्वपि मृगद्विषः ॥ ३१५ ॥ 30 दत इत्येष नो वध्यः प्रतीपान्याचरन्नपि । ब्राह्मण्येन द्विजन्मेव विरूपमपि हि ब्रुवन् ।। ३१६ ॥
वाचिकम्-संदेशः। २ आगमः आगमनम् । ३ सति विधुदालोके आगमस्वाध्यायनिषेधः शास्त्रे श्रूयते, मन 'असज्झाय' नामा जैनपरम्परायां प्रसिद्धः। ४ वेत्रपाणि:-द्वारपालः। ५ यस्मात् स्वामिन:-स्वामिसम्बन्धी श्वा-सारमेयः-कुकरः अपि न बास्कन्यते, पुमान् सु कथम् आर म्दनीयः ? । पार..न्दनम-रोमनम्। ६ अपमानिते। . आ अपामः । ८ तासान का. निणम् । ९ गजभृत्यानाम् । १० नजाधीनकर्मकरमिव । ११ संतोष्य । १२ पवनसहिनः दबानल इस अन्यम्-पथिकम ।
॥ भूतकाल-अद्यतन-द्वितीयपुरुष-एकवचन । १४ तातेन ऋजुस्वभावेन' इति विभागः। *रः स्थि-वस्यूचे संवृ०॥ १५ सुभमपाणि:-बलदेवः। १६ चपेटा-भाषायाम् 'सापोट-भडबोत' इति । १७ मृगद्विद-सिंहः। १८ ब्राह्मणत्वेन ।
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३२४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थ पर्व तदत्र संहर रुषं पुरुषे परुषेऽपि हि । दन्तिनां दन्तघातस्य स्थानं नैरण्डपादपः ॥ ३१७ ॥ इत्युक्तो बलभद्रेण त्रिपृष्ठो मुष्टिमुद्यताम् । करपाशं करीवाऽऽशु संहृत्येत्यादिशद् भटान् ॥ ३१८ ॥ जीवितव्यं विमुच्यैकं रङ्गभङ्गविधायिनः । अस्थाऽपहरताऽशेषमपरं दूतपाप्मनः ॥ ३१९ ॥ तमाज्ञया कुमारस्य यष्टिभिसृष्टिभिर्भटाः । अताडयन् सारमेयं प्रविष्टमिव वेश्मनि ॥ ३२० ॥ अपजहुरशेषं तत् तस्यालङ्करणादिकम् । प्रापितस्य वधस्थानं वध्यस्याऽऽरक्षका इव ॥ ३२१॥ प्रहारान् वश्चयमानः प्राणत्राणकृते चिरम् । क्रीडाकार इवेभस्य सोऽलुठत् पृथिवीतले ॥ ३२२ ॥ परितस्तत्परीवारो मुक्त्वा प्रहरणादिकम् । जीवग्राहं पलायिष्ट भक्ष्यं सन्त्यज्य काकवत् ।। ३२३ ॥ कुट्टयित्वा रासभवल्लुञ्चित्वा कलविङ्कवत् । विन विटवत् तं तु कुमारावीयतुहम् ॥ ३२४ ॥
विदाञ्चकार तत् सर्वं जनश्रुत्या प्रजापतिः । एवं विचिन्तयामास सशल्य इव चेतसि ॥ ३२५ ॥ अहो ! मम कुमाराभ्यां युक्तं नाऽऽचरितं ह्यदः । कस्याग्रे कथयाम्येतत् खेनाश्वेनेव पातितः ? ॥३२६ ॥ न धर्षितश्चण्डवेगोऽश्वग्रीवः किन्तु धर्षितः । दूता हि प्रतिरूपाणि प्रभूणां सञ्चरन्त्यमी ॥ ३२७ ॥ न यावद् यात्यसौ तावदनुनेयः प्रयत्नतः । यत उत्तिष्ठति 'शिखी निर्वाप्यस्तत एव हि ॥ ३२८ ॥ एवं विचिन्त्य पुरुषैः प्रधानैस्तं महीपतिः । आनाययदनुनीय वचोभिः प्रेमपेशलैः ॥ ३२९॥
चकार सविशेषां च प्रतिपत्तिं कृताञ्जलिः । कुमारकृतकालुष्यप्रक्षालनजलप्लुतिम् ।। ३३० ॥ 15 चतुर्गुणं महामूल्यं तस्य च प्राभृतं ददौ । प्रकोपशान्तये शीतोपचारमिव दन्तिनः ॥ ३३१ ।।
ऊचे च राजा यद् वेत्सि योवनेऽभिनवे सति । कुमारका दुर्ललिताः सामान्यश्रीमतामपि ॥ ३३२॥ विशेषतो मम स्वामिप्रसादोद्भूतसम्पदा । निरँगलौ कुमारौ तावेदान्तौ वृषभाविव ।। ३३३ ॥ बढताभ्यामपराद्धं त्वयि यद्यपि मानद ।। दःस्वममिव विस्मार्य तथाप्येतत त्वया सखे।। ३३४ ॥
आवयोरक्षता प्रीतिः सदा सोदरयोरिव । त्याज्या नैकपदे साऽद्य मन्मनोवृत्तिकोविद ! ॥ ३३५॥ 20 कुमारयोर्दुर्ललितमिदं च भवताऽनघ ! । नाश्वग्रीवाय विज्ञाप्यं निकषोऽयं क्षमावताम् ।। ३३६ ॥
इति सामसुधावृष्ट्या शान्तकोपहुताशनः । चण्डवेगोऽप्युवाचैवं गिरा स्नेहादचण्डया ॥ ३३७ ॥ स्वया सह चिरात् प्रेम्णा कोपोऽपि न मया कृतः। राजन् ! क्षन्तव्यमिह किं ? त्वत्पुत्रौ न ममापरौ ॥३३८॥ डिम्भानां दुर्नये दण्डो धुपालम्भः प्रकीर्तितः । निवेदनं राजकुले नेति लोकेऽपि हि स्थितिः ॥ ३३९ ॥ राज्ञे विज्ञपयिष्यामि नेदृक्षं त्वत्कुमारयोः । कवलः शक्यते क्षेप्तुं नाक्रष्टुं हस्तिनो मुखात् ॥ ३४० ॥ विब्धीभव तद् राजन् ! गच्छामि विसृजाऽद्य माम् । मनागपि न कालुष्यं विद्यते मम चेतसि ॥३४१॥ इत्युक्तवन्तं तं दूतं परिरम्य स्वबन्धुवत् । विरचय्याञ्जलिं राजा विससर्ज प्रजापतिः ।। ३४२ ॥ ___ अश्वग्रीवान्तिकं दूतः स ययौ कतिभिर्दिनैः । तद्धर्षणकथा त्वग्रे वर्धापकपुमानिव ॥ ३४३ ॥ तदा हि चण्डवेगस्य त्रस्तः सर्वपरिच्छदः । त्रिपृष्ठोद॑न्तमखिलं शशंसाऽऽगत्य भूपतेः॥ ३४४ ।।
दूतोऽद्राक्षीद् हयग्रीवमुद्रीवं रक्तलोचनम् । जगत्कवलनोद्युक्तमिव वैवस्वतं स्थितम् ।। ३४५॥ 30 मन्ये मद्धर्षणोदन्तो राज्ञो व्यज्ञपि केनचित् । दूतोऽपि निश्चिकायैवमिनितज्ञा हि सेवकाः ॥ ३४६ ॥
राज्ञा पृष्टः स आचख्यौ वृत्तान्तमभितोऽपि तम् । उग्राणां स्वामिनां ह्यग्रे कोऽन्यथा वक्तुमीश्वरः ॥३४७॥
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'न+एरण्डपादपः' इति विभागः। २ सारमेयः-कुकुरः। ३ जीवनाई पलायिष्ट-'जीव लईने भाग्यो' इति भाषायाम् । ४ कल विकाः-भाषायाम् 'चकलो'। ५ वाचा अपमानं कृत्वा । ६ शिखी-अग्निः । निर्वाप्य-शमनीयः। ७ प्रतिपत्ति:-आदरः। ८ निरर्गल:-स्वच्छन्दः। ९ तौ+ अदान्तो' इति । * त् पुरास का०॥ १० अनघः-निर्दोषः। १५ निकषः परीक्षा। १२ डिम्भाः-बालाः। ३ विन्धः विश्वासयुक्तः। १५ तदपमानकथा । १५ वर्धापक:-भाषायाम् 'वधामणी देनारो मनुष्य'। १६उदन्तः-वृत्तान्तः। १.वैवस्वतः-बमः। १४निधिकाय-निश्चयं चकार । इजिवम्-मनोवृत्तिः ।
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प्रथमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
३२५ सरन् खप्रतिपन्नं च दूत एवं व्यजिज्ञपत् । भक्तोऽहमिव ते देव ! स्वयं राजा प्रजापतिः ॥ ३४८ ॥ यच्चके तत् कुमाराभ्यां सा वालसुलभाज्ञता । खिद्यते त्वधिकं तेन कर्मणा स कुमारयोः ॥ ३४१॥ अतिशेषे यथा शक्त्या त्वमशेषेषु राजसु । तथाऽतिशेते भक्त्या च प्रजापतिनृपस्त्वयि ॥ ३५० ॥ कुमारदोषेणाऽऽत्मानं स गर्हति चिरं नृपः । त्वच्छासनमुपादत्ताऽदत्त चेदमुपायनम् ।। ३५१ ॥ इत्युक्त्वाऽवस्थिते दूते हयग्रीवो व्यचिन्तयत् । दृष्टैकप्रत्यया जज्ञे तस्य नैमित्तिकस्य वाक् ॥ ३५२ ॥ 5 प्रत्ययश्चेद् द्वितीयोऽपि स सिंहवधलक्षणः । भविष्यति तदा मन्ये शङ्कास्थानमुपस्थितम् ॥ ३५३ ॥ विमृश्यैवं तदा दूतान्तरेणाथ प्रजापतिम् । त्रायस्व शालिक्षेत्राणि सिंहादिति समादिशत् ॥ ३५४ ॥ प्रजापतिः समाहूय कुमारावित्यभाषत । फलितं वां दुर्ललितमकाण्डे सिंहरक्षया ॥ ३५५ ॥ आज्ञा चेत खण्ड्यतेऽकाण्डे हयग्रीवोऽन्तकायते । तदाज्ञा खण्ड्यते नो चेत तदा सिंहोऽन्तकायते॥३५६॥ असावुभयथाऽस्माकमपमृत्युरुपस्थितः । तथापि सिंहरक्षार्थ वत्सौ ! गच्छामि सम्प्रति ॥ ३५७ ॥ 10 कुमारावूचतुतिमश्वग्रीवस्य पौरुषम् । ज्ञातो भयङ्कर इति स येन पशुना पशुः ॥ ३५८ ॥ तिष्ठ तात ! ब्रजिष्यावो हनिष्यावोऽचिरेण तम् । सिंह नृसिंह ! का तत्र स्वयं यात्रा तव प्रभो! ॥३५९ ।। सविषादं जगादैवं प्रजापतिनृपोऽप्यथ । क्षीरकण्ठावनभिज्ञौ कृत्या-ऽकृत्येषु कर्मसु ॥ ३६० ॥ एकं तावद् कृतं कर्म तिष्ठद्भ्यां गोचरेऽपि मे । व्यालेभदुर्ललिताभ्यां भो ! भवद्भ्यां कुमारकौ ! ॥३६१ ॥ तस्यापि कर्मणः सद्यः फलमेतदुपस्थितम् । दूरस्थौ यत् करिष्येथे तत्फलं किं भविष्यति ? ॥ ३६२ ॥ 15 अथ त्रिपृष्ठः प्रत्यूचे केयं सिंहविभीषिका । दयते तेन बालेन बालानामिव भूभुजाम् ? ॥ ३६३॥ कृत्वा तात! प्रसादं नौ तिष्ठत्वत्रैव सम्प्रति । गत्वा सिंहं हनिष्यावः सहाऽश्वग्रीववाञ्छितैः ।। ३६४॥ इत्थं कथमपि क्षमापं तौ प्रतीक्ष्य प्रजग्मतुः । सारस्वल्पपरीवारौ तां सिंहाध्युषितां भुवम् ॥ ३६५ ॥ सिंहेन निहतानेकभटास्थीनि गिरेरधः । कुमारौ तद्यशोराशिमिव मूर्त्तमपश्यताम् ॥ ३६६ ॥ तुङ्गवृक्षाधिरूढांस्तौ शालिक्षेत्रकृपीवलान् । पप्रच्छतुरिति क्षमापैः सिंहोऽयं रक्षितः कथम् ॥ ३६७॥ 20 आचख्युः क्षेत्रिणोऽप्येवं हे वीराविह भूभुजः । सन्नद्धैः कुञ्जरवरैस्तुरङ्गैः स्यन्दनैभटैः ।। ३६८ ॥ विरचय्य महाव्यूहं सिंहस्याकाघुरन्तरे । संवरं स्रोतस इव दीर्घिकामिव दन्तिनः ॥ ३६९ ॥ हन्यमानैर्दीयमाणैः सैनिकैस्तैर्महाभुतः । सिंहादसाद् ररक्षुनः प्राप्तजीवितसंशयाः ॥ ३७० ॥
॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ इति तेषां वचः श्रुत्वा मित्वा चाऽचल-केशवौ । सैन्यं निधाय तत्रैवाध्यातां सिंहगुहाममि ॥ ३७१ ॥25 तयोश्च स्थनिर्घोषान्मेघनि?पसोदरात् । बन्दियोपादिव नृपः सिंहः सद्यो व्यबुद्ध सः॥ ३७२ ॥ किश्चिदुन्मीलयन नेत्रे कृतान्तस्येव दीपिके । तस्येव चामरं धुन्वन्नुदारां केसरच्छटाम् ॥ ३७३ ॥ रसातलद्वारमिव जृम्भया स्फाटयन भुखम् । किञ्चिदाकुश्चितग्रीवः प्रेक्षाश्च स केसरी ॥३७४॥ युग्मम् ॥ रथमात्रपरीवारी तो नरों वीक्ष्य केवलो । अवज्ञया प्रसुष्वाप सोऽथ कृत्रिमनिद्रया ॥ ३७५ ॥ सर्वाभिसारिभिर्भूपैर्दत्वा हस्त्यादिभिर्वलिम् । शालिक्षेत्राणि रक्षद्भिर्गर्वमारोपितो ह्यसौ ॥ ३७६ ॥ 30 आमेत्युक्तोऽचलेनाथ पुरोऽभ्येत्य च किञ्चन । मल्लो मल्लमिवाऽऽह्वास्त नृसिंहः सिंहपुङ्गवम् ॥३७७॥ विष्णोस्तमृर्जितं शब्दमाकर्योत्कर्णिताऽऽननः । विसिमिये सोऽपि सिंहो वीरः कोऽपीति चिन्तयन्।।३७८॥
१ स्वप्रतिज्ञामित्यर्थः। २ अतिशयवान् असि । अतिशेते-अतिशययुक्तः वर्तते । ३ दुश्चेष्टितम् । ४ अन्तकः-यमः तत्समशः। आज्ञाखण्डने हयग्रीवः यमसदृशः । आज्ञापालने कृते सिंहः यमसदृशः। ५ क्षीरकण्ठः-बालः। ६ व्यालेभः-उन्मत्तगजः। ७ सिंहभयम् । ८ आवाभ्याम्-आवयोपरि । त्वा च बलके मुद्रिते । अभि-मुखम् । १० विपक्षः। ११ उस्कर्णितम्-अर्ध्वकर्णम् । आननम्-मुखम् ।
त्रिषधि,४३
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थ पर्व
कर्णौ शिरसि सुस्तब्धौ स्थलस्थाविव कीलकौ । अतीव पिङ्गले नेत्रे दीप्ते इव विभीषिके ॥ ३७९ ॥ अस्त्रागारं यमस्येव वक्रं दंष्ट्रारदाकुलम् । वक्राद् बहिः स्थितां जिह्वां पातालादिव तक्षकम् ॥ ३८० ॥ मौस्तोरणमिव मुखस्योपरि दंष्ट्रिकाम् । अन्तर्ज्वलन्महाकोपानलस्येव शिखाः सटाँः ॥ ३८१ ॥ नखांश्च प्राणिनां प्राणाकर्षणङ्कटकानिव । लुलन्तं पुच्छदण्डं च बुभुक्षितमिवोरगम् ॥ ३८२ ॥ 5 बिभेद् व्यात्ताननः पञ्चाननो ब्रूत्कारैदारुणः । साक्षादिव रसो रौद्रो निर्जगाम गुहागृहात् ॥ ३८३ ॥ ॥ पञ्चभिः कुलकम् ॥
अतुच्छपुच्छदण्डेन प्रचण्डेन स केसरी । भूतलं ताडयामास वज्रेणेन्द्र इवाचलम् ॥ ३८४ ॥ पुच्छाच्छोननादेन तेन शुः समन्ततः । सच्चानि तूर्यनादेन याँदांसीवान्तरम्बुधेः ॥ ३८५ ॥ आर्य ! तिष्ठ मयि सति योद्धुं तेऽवसरो न हि । इति त्रिपृष्टस्तत्रैवाऽवातिष्ठिपदथाऽचलम् ॥ ३८६ ॥ 10 पदातिना रथस्थस्य युध्यमानस्य मेsमुना । क्षत्रधर्मोचितं नैतदिति विष्णुर्जहौ रथम् ॥ ३८७ ॥
rant मे निरस्त्रेण युद्धमित्यपि नोचितम् । इत्यस्त्राण्यपि तत्याज वीरव्रतधनो हरिः ॥ ३८८ ॥ एह्येहि भो ! समित्क हरे ! तव हराम्यहम् । इति त्रिपृष्टोऽभाषिष्ट स्थामतोऽतिपुरन्दरः ॥ ३८९ ॥ तदेव वचनं सोऽपि कोपाटोपसमुत्कटः । अद्रिप्रेतिरखव्याजाद् व्याजहारेव केसरी ॥ ३९० ॥
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केसरियुवा चेत्थं चिन्तयामास चेतसि । अहो ! अमुष्य बालस्य भृशं रभसकारिता ॥ ३९९ ॥ विना सैन्यं यदायातः स्यन्दनाद् यदवातरत् । यच्च तत्याज शस्त्राणि यन्मामाह्वास्त चोच्चकैः ॥ ३९२ ॥ उच्चपेटः प्रति सर्पं मण्डूक इव दुर्मतिः । धृष्टतायाः फलमसौ प्राप्नोत्विति विमृश्य सः ॥ ३९३ ॥ खे खेचररथ त्रस्त केसरिभ्रमदः क्षणम् । तत उत्पुच्छयमानो ददौ फालां स केसरी ॥ ३९४ ॥ तस्य चापततोऽप्योष्ठौ पाणिभ्यां स पृथक् पृथक् । संदेशाभ्यां दन्दशूकस्येव जग्राह केशवः ।। ३९५ ॥ एकेनौष्ठेन चाकर्षनेकतोऽन्येन चान्यतः । चटच्चटिति तं विष्णुः पेंटपाटमपाटयत् ॥ ३९६ ॥ 20 अत्रान्तरे जनैः सभ्यैरिव वैतालिकैरिव । रोर्दैः कुक्षिम्भरिर्भूरिश्चक्रे जयजयारवः ॥ ३९७ ॥ कौतुकान्मिलिता व्योम्नि विद्याधर- सुरासुराः । मलयानिलवत् तत्र पुष्पवृष्टिं वितेनिरे ॥ ३९८ ॥ तेच सिंहशरीरस्य देले क्षिप्ते क्षणात् क्षितौ । परिपुस्फुरतुः कामममर्षामुक्तचेतने ॥ ३९९ ॥ महता सोऽपमानेन परतत्रशरीरकः । द्विधाभूतोऽपि हि हरिः स्फुरनेवमचिन्तयत् ॥ ४०० ॥ अहो ! प्रौढैरपि नृपैः सन्नद्धसुभटावृतैः । सास्त्रैरपि न सोढोऽस्मि योऽहं पविरिवापतन् ॥ ४०१ ॥ 25 बालेनैकाकिनाऽनस्त्रेणामुना मृदुपाणिना । हा ! हतोऽस्मीति खेदो मे न पुनर्वधमात्रतः ॥ ४०२ ॥ एवं च चिन्तया तस्य वेतो दन्दशूकवत् । ज्ञात्वाऽभिप्रायमित्यूचे मधुरं विष्णुसारथिः ॥ ४०३ ॥ लीलानिर्भिन्नमत्तेभाऽपराभूत ! चमूशतैः । मृगराज ! किमेवं त्वमभिमानेन ताम्यसि । ॥ ४०४ ॥ अयं खलु भटष्ठत्रिपृष्ठो नाम भारते । प्रथमः शार्ङ्गिणां बालो वयसा न तु तेजसा ।। ४०५ ॥ नरेषु सिंहः खल्वेष पशुषु त्वं तु तत् तव । हतस्यानेन का व्रीडा श्लाघा प्रत्युत तद्रणे ॥ ४०६ ॥
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* पिङ्गे नयने दी° सं० ॥ १ दंष्ट्रा - दाढा । रदाः दन्ताः । आकुलम् - व्याप्तम् - परिपूर्णम् । २ यमगृहतोरणम् । ३ 'सटाः' - भाषायाम् ' सिंहकेशवाळी -याळ' इति । ४ ' अंकुटक' इति भाषायाम् ' अंकोडो' नामकम् आकर्षणसाधनम् । ५ पूर्वोक्तानि नेत्रादि पुच्छान्तानि बिभ्रत् धारयन् । ६ गर्जनाभयङ्करः । ७ यादांसि - हिंस्राणि जलचराणि । अन्तर्-मध्ये, अम्बुधेः- समुद्रस्य । ८ युद्धरूपां कण्डूम् । ९ अद्विप्रतिध्वनिमिषेण । १० प्रसारितपाणिः । अत्र 'पाणि' शब्देन 'चपेटा- पंजो' इति भाषायाम् । ११ पुच्छं ऊर्ध्वं वर्तुलाकारेण प्रसारयन् । १२ भाषायाम् - 'संदेश' इति 'सांडसो' इति नाम्ना प्रसिद्धं सर्पग्रहणसाधनम् । १३ वस्त्रच्छेदवत् । १४ आकाश भूम्यन्तरालपूरकः । १५ खण्डद्वयम् । १६ कम्पमानस्य । १७ प्रष्ठः - अग्रणीः । १८ भार्डी- वासुदेवः ।
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प्रथमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
३२७ तस्येति वचसा शान्तः सुधावृष्ट्येव केसरी । मृत्वा बद्धवाऽऽयुरुत्पेदे नारको नरकावनौ ॥४०७॥ हयग्रीवाज्ञया तत्र तद्वृत्तं ज्ञातुमेयुषाम् । विद्याधराणां तच्चर्पियन्नूचेऽचलानुजः ॥ ४०८ ॥ तस्स घोटककण्ठस्य चकितस्य पशोरपि । अस्य सिंहस्य चर्मेदमर्म्यतां वधसूचकम् ॥ ४०९॥ वाच्यश्च वाचिकमिदं स्वादुभोजनलम्पटः । निश्चिन्तो भव विश्रब्धं भुञ्जीथाः शालिभोजनम् ॥ ४१०॥ तथेति प्रत्यपद्यन्त ते विद्याधरदारकाः । बलभद्र-त्रिपृष्ठौ तु जग्मतुर्नगरं निजम् ।। ४११॥ 5 प्रणेमतुः पितुः पादौ तत्र तौ भ्रातरावुभौ । बलस्तु कथयामास तमुदन्तमशेषतः ॥ ४१२॥ पुनर्जाताविव सुतौ मेने राजा प्रजापतिः । तेन सनृतसन्धेनं सूनुना चात्यमोदत ॥ ४१३ ॥ ते च विद्याधरा वाजिग्रीवस्य तमशेषतः । त्रिपृष्ठोदन्तमाचख्युर्वज्रपातसहोदर्रम् ॥ ४१४ ॥ __ इतश्च वैताढ्यगिरौ दक्षिणश्रेणिभूषणम् । नगरं रथनूपुरचक्रवालाऽऽख्यमस्ति तत् ॥ ४१५॥ तत्र च ज्वलनजटी तेजसा ज्वलनोपमः। आसीदसामान्यऋद्धिर्विद्याधरनरेश्वरः ॥ ४१६॥ 10 बभूव तस्य महिषी प्रीतेः परममास्पदम् । नाम्नैव वायुवेगेति हंसीव त्वलसा गतौ ॥ ४१७ ॥ तस्यां राज्यां तस्य राज्ञः सूनुः समुदपद्यत । स्वप्नेऽर्कालोकनादर्ककीर्तिरित्यभिधानतः ॥ ४१८॥ खमे स्वयम्प्रभाधौताऽऽशेन्दुलेखाविलोकनात् । स्वयम्प्रभेत्यभिधया क्रमेण तनयाऽप्यभूत् ॥ ४१९ ॥ सम्प्राप्तयौवनं यौवराज्ये राजा महाभुजम् । अर्ककीति विनिदधे कीर्तिगङ्गाहिमाचलम् ॥ ४२० ॥ खयम्प्रभाऽपि सम्प्राप क्रमयोगेन यौवनम् । वनस्थलीव सुभगङ्करणी मधुसम्पदम् ॥ ४२१॥ 15 मुखचन्द्रमसा रेजे राका मूर्तिमतीव सा । केशपाशतमिस्रणाऽमावास्येव च देहिनी ॥ ४२२ ॥ तस्याः कर्णान्तगे नेत्रे कर्णोत्तंसाम्बुजे इव । कर्णौ च प्रसरन्त्योईक्सरस्योः संर्वराविव ॥ ४२३ ॥ पाणि-पादा-ऽधरदलै रक्तैर्वल्लीव पल्लवैः । साऽभात् कुचाभ्यां चोच्चाभ्यां क्रीडाँद्रिभ्यामिव श्रियः ॥४२४॥ आवर्त इव लावण्यसरितो नाभिराबभौ । अन्तरद्वीपसदृशी तस्याः श्रोणी च विस्तृता ॥ ४२५ ॥ तस्याः सर्वाङ्गसौभाग्यनिधेः प्रतिनिधिर्न हि । सुरस्त्रीष्वसुरस्त्रीषु विद्याधरवधूष्वपि ॥ ४२६॥ 20
अथाऽभिनन्दन-जगन्नन्दनौ चारणौ मुनी । विहायसा विहरन्तौ पुरे तत्र समेयतुः ॥ ४२७ ॥ ऋध्या महत्या श्रीदेवीमूर्त्यन्तरमिवेयुषी । स्वयम्प्रभाऽपि तो गत्वा ववन्दे मुनिपुङ्गवौ ॥ ४२८॥ तद्देशनां समाकर्ण्य कर्णामृतरसायनम् । सम्यक्त्वं प्रतिपेदे सा'नीलीरागमिव स्थिरम् ॥ ४२९ ॥ सम्यक् श्रावकधर्म सा प्रत्यश्रौषीत् तदन्तिके । प्रमाद्यन्ति शुभात्मानो न हि ज्ञात्वा मनागपि ॥४३०॥ ततोऽन्यतो जग्मतुस्तौ विहाँ मुनिपुङ्गवौ । साऽप्यन्यदा पर्वदिने प्रत्यपद्यत पौषधम् ॥ ४३१॥ 25 पारणेच्छुर्द्वितीयेऽह्नि कृत्वार्चादि जिनेशितुः । समानीय च तच्छेषामर्पयामास सा पितुः ॥ ४३२ ॥ स विद्याधरभूपालः सद्यः प्रमदमेदुरः । शीर्षेऽध्यारोपयच्छेषामुत्सङ्गे च खयम्प्रभाम् ॥ ४३३ ।। तां दृष्ट्वोद्यौर्वनां राजा वरान्वेषणकर्मणि । चिन्ताप्रपन्नः समभूद् ऋणमग्नः पुमानिव ॥ ४३४ ॥ विसृज्य सप्रसादं तां वरं तदुचितं नृपः । सुश्रुतादीन् समाहूय परिपप्रच्छ मत्रिणः ॥ ४३५ ॥ ___ अथाऽऽदौ सुश्रुतोऽवादीदस्ति रत्नपुरे पुरे । राजा नीलाञ्जनादेवी-मयूरग्रीवयोः सुतः॥४३६॥ 30 स साधितानेकविद्यस्त्रिखण्डभरतेश्वरः । विद्याधरेन्द्रोऽश्वग्रीवाभिधानः प्रवरो वरः ॥ ४३७॥ मत्री बहुश्रुतोऽप्यूचे समतिकान्तयौवनः । स्वयम्प्रभायाः स्वामिन्या न योग्यः खल्वयं वरः ॥४३८॥
१'घोटककण्ठ' इति हयग्रीवस्य पर्यायवाचकं नाम। * °काः । त्रिपृष्ठ-बलभद्री तु संवृ०॥ २ उदन्तः-वृत्तान्तः । ३ संधा-प्रतिज्ञा। ४ सहोदरम्-तुल्यम् । । सीवत् त्व. संवृ० सं० ॥ ५ सहजप्रभा० । तिं न्यधाद राज्ये कीर्ति संह ॥ ६ सौभाग्यकारिणीं वसन्तशोभाम् । रोधको इव । ८ क्रीडापर्वताभ्याम् । ९ सौभाग्येन समानः। १० नील्या इव स्थिररागम् ; नीली-'गळी' इति भाषायाम्। ११ अर्चाविशेषाम्-मानजलम् । १२ उद्यौवना-विकसमानयौवना ।
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३२८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थं पर्व तिष्ठन्ति चोत्तरश्रेण्यां बहवो बाहुशालिनः । रूप-यौवन-लावण्यवन्तो विद्याधरोत्तमाः ॥ ४३९ ॥ तेषां च मध्यादेकस्य कस्याप्येषा मृगेक्षणा । विचार्य दीयतां देवानुरूपं योगमिच्छता ॥ ४४० ।। अथाऽऽवभाषे सुमति म मन्त्री महीपतिम् । युक्तमुक्तमनेनेदमायुक्तेन तव प्रभो ! ॥ ४४१॥ अत्राद्रावुत्तरश्रेणिहारनायकतां गता । प्रभङ्करा नाम नगर्यनेकाद्धततकभः॥ ४४२॥ ओजो दधन् माघवनं तत्र मेघवनाभिधः । प्रातमध इवामोघः समस्ति पृथिवीपतिः॥ ४४३ ॥ सधर्मचारिणी तस्य नामतो मेघमालिनी । मालतीपुष्पमालेव शीलसौरभंसालिनी ॥ ४४४ ॥ अस्ति विद्युत्प्रभो नाम नामिताशेषभूपतिः । कन्दर्प इव रूपेणाप्रतिरूपेण तत्सुतः ॥ ४४५ ॥ तयोरस्ति च दुहिता ज्योतिर्मालेति नामतः । देवकन्येव निःसीमरूपलावण्यसम्पदा ॥ ४४६ ॥
विद्युत्प्रभकुमारस्योचिता देवी स्वयम्प्रभा । विद्युद् वारिधरस्येव द्युतिद्योतितदिअखा ॥ ४४७ ॥ 10 अर्ककीर्तिकुमारस्य ज्योतिर्मालोचिता पुनः । कन्याविनिमयेनाऽस्तु द्वयोरपि महोत्सवः ॥ ४४८॥
श्रुतसागरनामाऽथ व्याजहारेति भूपतिम् । कन्येयं रत्नभूता ते केन श्रीरिव नॉर्थ्यते ? ॥ ४४९॥ विद्याधरकुमाराणां सर्वेषामेतदर्थिनाम् । निर्विशेषत्वजनको युज्यतेऽस्याः स्वयम्बरः ॥ ४५० ।। कस्मैचिदन्यथैकस्मै ददतः कन्यकां तव । भावी विद्याधरैः साधं विरोधस्तेन किं मुधा? ॥ ४५१ ॥
सर्वेषां मत्रिणां मन्त्रं श्रुत्वैवं तान् विसृज्य च । सम्भिन्नश्रोतसं नामाऽपृच्छन्नमित्तिकं पुनः॥४५२॥ 15 अश्वग्रीवस्य वाऽन्यस्य विद्याधरवरस्य वा । निजकन्यां प्रयच्छामि यद्वाऽस्त्वस्याः स्वयम्बरः ॥४५३॥
स नैमित्तिक इत्यूचे साधुभ्योऽश्रौषमित्यहम् । यत्पृष्टो भरतेनाऽऽख्यद् भगवानृषभध्वजः॥४५४॥ त्रयोविंशतिरर्हन्तोऽवसर्पिण्यां हि मत्समाः । एकादश भविष्यन्ति राजानस्त्वत्समाः पुनः ॥ ४५५ ॥ बला नव वासुदेवा नवार्धभरतेश्वराः। नव प्रत्यर्थिनस्तेषां तेऽप्यर्धभरतेश्वराः॥५६॥
तत्र हत्वा हयग्रीवं त्रिपृष्ठो भोक्ष्यते हैरिः । सविद्याधरनगरां त्रिखण्डा भरतावनिम् ॥ ४५७ ॥ 20 सर्वविद्याधरैश्वर्यं तुभ्यमेष प्रदास्यति । कन्येयं दीयतामसै पृथिव्यां नेदृशोऽपरः॥ ४५८ ॥
हृष्टो नैमित्तिकं राजा सत्कृत्य विससर्ज तम् । दृतं तदर्थे मारीचिं प्रेषीच्चोपप्रजापति ॥ ४५९ ॥ सोऽथ विद्याधरो गत्वा प्रजापतिमहीपतिय । नत्वा स्वं ज्ञापयित्वा च विनयेनेत्यभाषत ॥ ४६० ॥ __ अस्ति ज्वलनजटिनो विद्याधरमहीपतेः । कन्या खयम्प्रभा नाम ललामाऽशेषयोषिताम् ॥४६१॥
अनुरूपवरार्थेऽस्याश्चिरं चिन्तापरायणः । अरोचकी कविरिख तस्थावग्निजटी नृपः ॥ ४६२ ॥ 25 मत्रिभिर्मत्रयमाणोऽप्युपलेभे न कञ्चन । अनुरूपं वरं राजाऽपृच्छन्नैमित्तिकं ततः ॥ ४६३ ॥
नैमित्तिकेन सम्मिन्नश्रोतसाऽऽख्यायि यत् सुता। अनुरूपा त्रिपृष्ठाय प्राजापत्याय दीयताम्॥४६४॥ प्रथमो वासुदेवोऽयं भोक्ष्यते चार्धभारतम् । श्रेणिद्वयाधिपत्यं वः प्रसन्नश्च प्रदास्यति ॥ ४६५ ॥ एवं नैमित्तिकगिरा प्रीतो मां प्राहिणोत् प्रभुः । तामादातुं त्रिपृष्ठार्थे स्वामिस्तदनुमन्यताम् ॥ ४६६ ॥
प्रीतः प्रजापतिनृपस्तथेति प्रतिपद्य ताम् । विससर्ज यथौचित्यदानपूर्वमखर्वधीः ॥ ४६७॥ 80 अश्वग्रीवाशङ्कया च नृपो ज्वलनजव्यपि । तामुद्वाहयितुं कन्यां प्रजापतिपुरं ययौ ॥ ४६८ ॥
सविद्याधरसामन्तः सामात्य-बल-वाहनः । तस्थौ तन्नगरोपान्ते मर्यादायामिवार्णवः ॥ ४६९ ॥ सप्रधानपरीवारः प्रजापतिरथ खयम् । तस्याभिमुखमागच्छत् सर्वस्याभ्यागतो गुरुः ॥ ४७० ॥ द्वयोरपि महासैन्ये मिलिते प्रीतियोगतः । चकासामासतुर्गङ्गा-यमुनाश्रोतसी इव ।। ४७१॥ ____ * गर्यस्त्यनैकाद्भत संवृ०॥ १ अनेकाश्चर्यकरपदार्थस्थानम् । २ इन्द्रसम्बन्धि । ३ अमोघः-सफलः। भिशालि मु०॥ माऽपि व्या संवृ०॥४न याच्यते। ५ वासुदेवः। ६सर्वस्त्रीणां परमनकृष्टा। ७ रुविरहितः। तस्थौ वह्निजटी मु०॥ त्यं च प्रसन्नस्ते प्रमु०॥ ॐ महाबुद्धिः। ९ महान् ।
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प्रथमः सर्गः]
विषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । उभावपि गजारूढौ सामान्यनतिपत्तितः । अन्योऽन्य परिरेभाते सामानिकसुराविव ॥ ४७२ ॥ तयोद्वयोः क्षितिभुजोः सूर्याचन्द्रमसोरिव । द्राक सङ्गमेन दिवसः स पर्व दिवसोऽभवत् ॥ ४७३ ॥ आर्पयञ्चावासभुवं विद्याधरमहीभुजे । मैनाकायेव पाथोधिः प्रजापतिमहीपतिः॥ ४७४ ॥ तत्र विद्याधरा विद्याबलाद् व्यरचयन् पुरम् । विचित्रहर्म्यरुचिरं द्वितीयमिव पोतनम् ॥ ४७५ ॥ पुरस्य तस्य मूर्धन्ये प्रासादे दिव्यतोरणे । उवास ज्वलनजटी मेराविव दिवाकरः ॥ ४७६ ॥ सामन्ता-ऽमात्य-सेनानीप्रमुखा अपरेऽपि हि । ऊपुर्यथाहं हर्येषु विमानेष्विव नाकिनः ॥ ४७७॥ विद्याधरेन्द्रमापृच्छय प्रजापतिनृपोऽपि हि । जगाम स्वाश्रयं वेलानिवृत्त इव वारिधिः ॥ ४७८ ॥ भोज्या-ऽङ्गराग-नेपथ्यप्रभृति प्राभृतं ततः । विद्याधरनरेन्द्राय प्रजिघाय प्रजापतिः ॥ ४७९ ॥ विवाहार्थमकार्यतामुभाभ्यां रत्नशालिनौ । मण्डपौ चमर-बल्योः सभे इव शुभाकृती ॥ ४८०॥ द्वयोरपि गृहेऽभूवन् धवलामङ्गलानि च । जरत्कुलस्त्रीरचितशिक्षाचार्यकलीलया ॥ ४८१ ॥ 10 चान्दनेनाङ्गरागेण भ्राजमानः सुगन्धिना । नीलरत्नप्रतिमेव करीन्द्रमधिरूढवान् ॥ ४८२ ॥ आवृतोऽनुवरीभूय सक्योभिर्नृपात्मजैः । ययौ त्रिपृष्ठो ज्वलनजटिवेश्म स्ववेश्मतः ॥ ४८३ ॥ वेश्माये तोरणस्याधस्तस्थावथ बलानुजः । पौरस्त्य इव मार्तण्डः प्रतीच्छन्नघमण्डलम् ॥ ४८४ ॥ मङ्गलानि कुलस्त्रीषु गायन्तीषु ततो हरिः । भग्नाग्निसम्पुटः सानुवरो मोतगृहं ययौ ॥ ४८५ ॥ सदशश्वेतवसनां नयनानन्दनां हरिः । शशिप्रभामिव मूत्ता तत्रापश्यत् स्वयम्प्रभाम् ॥ ४८६ ॥ 15 उभावथाऽऽसाञ्चकाते एकस्मिन्नासने शुभे । स्वयम्प्रभा त्रिपृष्टश्च चित्रा-चन्द्रमसाविव ॥ ४८७ ॥ झल्लरीवाद्यनादेन लग्ने संसूचिते तयोः । योजयामास हस्ताब्जे पुरोधाः सम्पुटाविव ॥ ४८८ ॥ दृक्तारामेलकस्ताभ्यामुभाम्यां च व्यधीयत । नवोद्गमप्रेमतरोः सेचनोदकसनिमः ॥ ४८९ ॥ खयम्प्रभा त्रिपृष्ठश्च तथैव मिलितौ ततः । उपेयतुर्वेदिमध्यं वल्ली-विटपिनाविव ॥ ४९०॥ समिद्भिः पिप्पलादीनामन्तर्वेदि द्विजातयः । ज्वलनं ज्वालयामासुर्हविराहुतिपूर्वकम् ॥ ४९१ ॥ प्रदक्षिणीचक्रतुस्तौ प्रदक्षिणशिखोद्गमम् । वेदिवहिं वेदमन्त्राध्यापकेषु द्विजन्मसु ॥ ४९२ ।। इत्थं खयम्प्रभां देवीं परिणीय बलानुजः । तया सहाऽऽरुह्य वशी प्रतस्थे स्वगृहं प्रति ॥ ४९३ ॥ उलूलुध्वनिना तूर्यनादेन च महीयसा। उत्कर्णिताऽयमहरिजंगाम स्वगृहं हरिः॥ ४९४ ॥ __तदाऽज्ञासीद्धयग्रीवस्तद्वृत्तं चरचक्षुषा । अप्रेऽपि सिंहकथया क्रुद्धश्चक्रोध चाधिकम् ॥ ४९५ ॥ एवं च दध्यौ ज्वलनजटिना मयि सत्यपि । स्त्रीरनं दीयतेऽन्यस्मै रत्न रत्नाकरे हि यत् ॥ ४९६ ॥ 25 तस्या दातुरुपादातुस्तस्य चान्ते व्रजत्वसौ । तां कन्यां याचितुं दूतो दूतो हि प्रथमो नये ॥ ४९७ ॥ एवं विमृश्य मनसाऽनुशिष्य च रहः खयम् । व्यसृजन्नूतनं दूतं स पोतनपुरे पुरे ॥ ४९८॥ स दूतः सत्वरं गत्वा समीरणकुमारवत् । वेश्म ज्वलनजटिनः प्रविवेशेत्युवाच च ॥ ४९९ ।। दक्षिणभरतक्ष्माध लोकार्धमिव वज्रिणः । प्रशासितुर्हयग्रीवस्याऽऽज्ञया त्वां वदाम्यदः ॥ ५०० ।। तव स्वयम्प्रभानाम कन्यारत्नं गृहेऽस्ति भोः!। तां गत्वा स्वामिने देहि रत्नं नान्यस्य भारते ॥५०१।।30
स्वामी वः सकुटुम्बानामश्वग्रीवः सुताऽपि तत्। तस्याऽस्तु दीयते हन्त ! किं शिरो नयने विना? ॥५०२॥ - अश्वग्रीवं पुराऽऽराद्धं पुत्र्यदानात् प्रकोपयन् । किं हारयसि फूत्कृत्य त्वमहो! ध्मांतकाञ्चनम् १ ॥५०३।।
१ आलिङ्गिती। २ मैनाको नाम पर्वतः। ३ निवासं चक्रुः । ४ प्रेषयामास । ५ 'कृ' धातोः प्रेरणायां यस्तनी-अन्यपुरुषद्विवचनम् । ६ 'धवला' भाषायाम्-'धोळ' इति प्रसिद्धम् । ७ शिक्षकगुरुलीलया वृद्धस्त्रीभिः निर्मितानि । * "आदतो' सङ्घ० ॥ ८ अनुवरः, भाषायाम् 'अणवर' इति । ९ भाषायाम् 'मायर' इति प्रसिद्धम् । १० उपविष्टौ। ११ यज्ञह विम्यैः । । पिप्पला सं० ॥ १२ वेदिमध्ये । १३ हस्तिनीम् । १४ उलूल:-मङ्गलध्वनिः। १५ अर्श्वकर्णाः अर्यम्णः-सूर्यस्य हरयःअश्वाः येन सः, एतद् हरेः विशेषणम् । १६ वायुकुमारवत् । १७ भाषायाम्-'फूंक मारीने'। १८ अग्नितापितसुवर्णम् ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थ पर्व
इत्युक्तस्तेन दूतेनोवाच ज्वलनजन्यपि । दत्ता कन्या त्रिपृष्ठाय कन्यादानं सकृत् खलु ॥ ५०४ ॥ अन्यस्यापि प्रदत्तस्य वस्तुनः स्वामिता न हि । किं पुनः कुलकन्याया विचारयतु स स्वयम् ।। ५०५ ।। इत्युक्तः सोऽग्निजटिना दूतोऽन्तः कलुषः खलु । उपत्रिपृष्ठमगमन्निसृष्टार्थो हि स प्रभोः ॥ ५०६ ॥ त्रिपृष्टं चेत्यभाषिष्ट समादिशति मदिरा । क्ष्मामण्डलाऽऽखण्डलस्त्वामश्वग्रीवो जगज्जयी || ५०७ ॥ 5 अस्मदर्हा कन्यकेयमज्ञानादाददे त्वया । विमुग्धपथिकेनेव राजोद्यानतरोः फलम् ॥ ५०८ ॥
ईशोsहं वः सबन्धूनां रक्षिताः स्य चिरं मया । तत् कन्यां मुञ्च भृत्यानां प्रमाणं स्वामिशासनम् ||५०९ || विकटभ्रकुटीभङ्गभीमभालस्थलस्ततः । रक्तेक्षण- कपोलश्रीस्त्रिपृष्टः प्रत्युवाच तम् ॥ ५१० ॥ स एवं जगति न्यायं प्रवर्तयति ते प्रभुः । अग्रेगूरिव लोकानामहो ! तस्य कुलीनता ।। ५११ ॥ तेन स्वविषये मन्ये विध्वस्ताः कुलयोषितः । मार्जारयूनः पुरतः किं दुग्धमवशिष्यते १ ॥ ५१२ ।। अस्मासु खामिता तस्य कुतो हन्ताऽमुना पथा ? । अन्यत्रापि स्वामिताऽस्य गत्वर्येवाचिरादपि ।। ५१३ ।। शालिभोजनस्येव तृप्तवान् जीवितस्य चेत् । स्वयम्प्रभामुपादातुं तदत्राऽगच्छतु स्वयम् ॥ ५१४ ॥ दूतत्वेन न वध्योऽसि गच्छ मा तिष्ठ सम्प्रति । तमेव हि हनिष्यामो हयग्रीवमिहाऽऽगतम् ।। ५१५ ॥ इत्युक्तो विष्णुना दूतः प्रतोदेनेव ताडितः । गत्वा शीघ्रं सर्वमाख्यदश्वग्रीवाय भूभुजे ॥ ५९६ ॥ तदाकर्ण्य हयग्रीवो लोहितायितलोचनः । प्रस्फुरद्दंष्ट्रिका केशो दशनैरधरं दशन् || ५१७ ॥ 15 वेपमानवपुर्भीमभ्रकुटीविकटार्लिकः । विद्याधरवरानेवं सावज्ञा- कोपमादिशत् ॥ ५९८ ॥ युग्मम् ॥
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अहो ! दैवेन दुर्बुद्धिर्दताऽग्निर्जानः खलु । कृकलास इवाऽर्कस्य यः स्यादभिमुखो मम ॥ ५१९ ॥ आभिजात्यमहो ! तस्य कीदृशं ? यो विहाय माम् । खसुतापतिपुत्रेणाऽऽत्मकन्यां पर्यणाययत् ॥ ५२० ॥ मूर्खो मुमूर्षुरेकः स तावज्ज्वलनजव्यहो ! । प्रजापतिर्द्वितीयोऽन्यः सापत्नभगिनीसुतः ॥ ५२१ ॥ अपरश्च पितुः शालः स्वज्ञातेयेन नित्रपाः । मां प्रत्यारम्भमिच्छन्ति शृगाला इव जागरम् ।। ५२२ ।। ॥ युग्मम् ॥ विद्रावयत तान् गत्वा पवनास्तोयदानिव । शार्दूला इव हरिणान् हरयैः कुञ्जरानिव ।। ५२३ ।।
अथ विद्याधराः सर्वे रणकण्डूलबाहवः । तया स्वाम्याज्ञाऽहृष्यंस्तृषिता इव वारिणा ।। ५२४ ।। पृथक् पृथग युत्प्रतिज्ञां कुर्वाणा भुजशालिनः । स्फोटयन्त इव दिवं भुजास्फोटोद्भवै रवैः ॥ ५२५ ॥ उक्त्वा मित्रेष्विवाऽमित्रेष्वपि सङ्ग्रामकौतुकात् । मम प्राग् मा परो जैषीदित्यन्योऽन्यमतित्वराः ॥५२६॥ कशाभिस्ताडयन्तोऽश्वान् प्रेरयन्तो यतैर्गजान् । प्राजन्तः प्राजनैधुर्यानं निघ्नन्तो यष्टिभिर्मयान् ॥५२७॥ नर्तयन्तो निशातासीन् स्फारयन्तः स्फुरान् मुहुः । सज्जायन्तश्च तूणीरान् वादयन्तो धनुर्गुणान् ॥ ५२८ ॥ भ्रामयन्तो मुद्रांश्च चालयन्तो महागदाः । स्फाटयन्तस्त्रिशैल्यांश्च दधानाः परिघानपि ।। ५२९ ॥ केsपि खेन समापेतुर्भुवा केऽपि च कौतुकात् । प्रापुच पोतनपुरमश्वग्रीवस्य ते भटाः ॥ ५३० ॥ ॥ षभिः कुलकम् ॥
तेषां कलकलं श्रुत्वा दूरतोऽपि प्रजापतौ । किमेतदिति संभ्रान्तेऽवादीज्वलनजय्यदः ॥ ५३१ ॥ अमी खलु हयग्रीवेणाऽऽदिष्टाः सुभटा इह । आयान्त्यायान्तु यूयं तु प्रेक्षध्वं मम कौतुकम् ।। ५३२ ||
१ त्रिपृष्टसमीपम् । २ उभयपक्षयोः अभिप्रायं संबुध्य स्वप्रतिभया प्रतिवक्ति संदिष्टः संश्व कार्याणि करोति सः निसृष्टार्थः । ३ 'यूयम्' इति शेषः । ४ अग्रेगः - अग्रणीः । ५ गमनशीला - नाशशीला । ६ भाषायाम् 'परोणो' नामकं वृषभादिताडनसाधनम् । ७ भाषायाम् ' दाटीना केशो' । ८ अलिकम् - कपालम् । Q. कृकलासः - 'काकीडो' इति भाषायाम् । १० प्रत्यारम्भःसंग्रामः । ११ जागर:- सिंहः । १२ सिंहाः । १३ कण्डूलम् - 'खंजवाळवाळु ' - 'चळवाळु' इति भाषायाम् । १४ युद्धप्रतिज्ञाम् । १५ यताः - अङ्कुशाः । १६ प्राजना:- 'परोणा' इति भाषायाम् । १७ बलीवर्दान् । १८ उष्ट्रान् । १९ स्फुराः 'टाल' इति भाषायाम् । * त्रिशल्लीश्च सं० का० ।
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प्रथमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
३३१ मा त्रिपृष्ठो माञ्चलो वा संप्रहार्पोन्ममाऽग्रतः । इत्युत्सुकः परिकरं बद्धोत्तस्थौ रणाय सः ॥५३३॥ प्रजह्वयुगपत्तस्मिन्नश्वग्रीवभटाः क्रुधा । स्वपक्षे हि विपक्षस्थे स्यादमझे विशेषतः ॥ ५३४ ॥ निरास तेषां शस्त्राणि शस्त्रैज्वलनजट्यपि । अपवादैरिवोत्सगान सोऽपवादबहिष्कृतः॥५३५ ॥ उपदुद्राव तान् सर्वान् निशातशरदृष्टिभिः । तेम्बेरमानिवोत्पातमेघः कैरकवृष्टिभिः ॥ ५३६ ॥ विद्याबलाद् दोर्बलाच तेषां दर्प चिरोद्भवम् । जहार ज्वलनजटी वॉर्तिकः फणिनामिव ॥ ५३७ ॥ 5 इत्यभाषत तानग्निजटी द्राग यात यात रे!। निर्माथान् वः समायातान् वराकान् को हनिष्यति ? ॥५३८॥ मध्येकृत्य हयग्रीवं नाथमायात पर्वते । रथावर्ते वयमपि समेष्यामोऽचिरादपि ॥ ५२९ ॥ तेनैवमुक्ताः सावज्ञं हयग्रीवमटा द्रुतम् । काकनाशं प्रणेशुस्ते प्राणानादाय भीरवः ॥ ५४० ॥ मपीलिप्तैरिवामन्दमन्दाक्षमलिनैर्मुखैः । तेऽपि गत्वा तदाचख्युमेयूरग्रीवसूनवे ॥ ५४१ ॥ हुताशन इवाऽऽहुत्या तद्वैचोभिरदीप्यत । सद्यो नीलाञ्जनासूनुरक्षय्यभुजविक्रमः ॥ ५४२॥ 10 कोपाऽरुणकरालाऽक्षः स रक्ष इव भीषणः । सामन्ताऽऽमात्यसेनानीप्रभृतीनेवमादिशत् ॥ ५४३ ॥ सर्वे सर्वाभिसारेण भोः समागच्छत द्रुतम् । चलत्विदानी नः सैन्यमुढेल इव सागरः ॥ ५४४ ॥ सत्रिपृष्ठाऽचलं साग्निजटिनं तं प्रजापतिम् । संहराम्येष समरे द्राग् धूमो मशकानिव ॥ ५४५ ॥ इत्युक्तवन्तं सामर्षमश्वकन्धरमुद्धरम् । धीगुणग्रामधामोचे सचिवग्रामणीरिदम् ॥ ५४६ ॥ त्रिखण्डं भरतं स्वामी लीलयैवाऽजयत् पुरा । कीत्यै लक्ष्म्यै च तजन्ये धुरिजातोऽसि दोष्मताम् ॥५४७॥15 इदानीमेकसामन्तविजयायोद्यतः स्वयम् । कां कीर्तिमथ का लक्ष्मीमर्जयिष्यति नः प्रभुः ॥ ५४८ ॥ न्यूनस्य विजयेऽपि स्यान्नोत्कर्षः कोऽपि दोष्मताम् । का श्लाघा हरिणवघे हरेः करिविदारिणः ॥५४९॥ न्यूनेन विजये दैवात् सर्वोऽप्येकपदे व्रजेत् । पूर्वाऽर्जितो यशोराशिविचित्रा हि रणे गतिः ॥ ५५०॥ सिंहवध-चण्डसिंहधर्षणप्रत्ययादपि । सत्यनैमित्तिकगिरा तत्र शङ्काऽऽस्पदं महत् ॥ ५५१॥
दासनगणो धर्तमत्रोचितः प्रभोः । महागजोऽपि ह्यज्ञात्वा धावन पड़े निमज्जति ॥५५२॥ 20 सोऽस्तु रभसाकारी क्वचिच्छरभवद् द्रुतम् । उत्पत्य भसयते सेत्स्यत्यासीनस्यापि ते हितम् ॥५५३॥ तितिक्षितमथेदृक्षं न क्षमोऽसि क्षमापते ! । आदिश्यतां तर्हि सैन्यं त्वत्सैन्यं हि सहेत का? ॥ ५५४॥ तथ्यां पथ्यां च तद्वाचमवामन्यत भूपतिः । मन्यावन्तर्मधुनीव चेतनास्तु कुतो नृणाम् ? ॥५५५॥ कातरोऽसीति सचिवं तं निर्भर्त्य सरोषणः । क्षणेन वादयामासाऽऽयुक्तैः प्रस्थानदुन्दुभिम् ॥ ५५६ ॥ तेन दुन्दुभिशब्देन सद्यः सर्वेऽपि सैनिकाः । एयुः सर्वाभिसारेण दूरात् पार्थस्थिता इव ।। ५५७ ॥ 25 स्नानागारं हयग्रीवो गत्वा मुंङ्गारवारिभिः । गङ्गातरङ्गैरुत्तुङ्गैः सलौ हंस इवाऽमलैः ॥ ५५८ ॥ उन्मृष्टाङ्गो दुकूलेन दिव्यधूपैश्च धूपितः । शुभ्रीकृताङ्गो गोशीर्षचन्दनैनन्दनाऽऽहतैः ॥ ५५९ ॥ संवीतसदशश्वेतवस्त्रो बद्धाऽसिधेनुकः । पुरोधःकृततिलकः स राजतिलकस्ततः ॥ ५६०॥ वैतालिकैः स्तूयमानो विशदच्छत्रचामरः । मदसिक्तावनितलमारुरोह महागजम् ॥ ५६१ ॥
॥ त्रिभिर्विशेषकम् ।। 30 दुर्वारैरिणैरवै रथैश्च परिवारितः । प्रचचाल हयग्रीवश्चलयनचलानपि ॥ ५६२ ॥
१ दूरीचकार । २ गजान् । ३ करका:-'करा' इति भाषायाम् । ४ सर्पवशकारी गारुडिकः । ५ यथा काका नश्यन्ति तथा। ६ मन्दाक्षम्-लज्जा । *तद्वाचाभिः का०। ७ राक्षसः। ८ सर्वतः अभिमुखतया सर्वसामध्या वा। ९ अर्बवेलायुक्तः-'वेला' भाषायाम् 'वेळ'-'भरती' इति । १० जन्यम्-युद्धम् । ११ बाहुबलवताम् । 1 °घा हारि० सं०।१२ एकपदेशीघ्रम् । का पदम्-सं० का। १३ बालकः त्रिपृष्ठः । १४ अपमानितां चकार । १५ 'मन्यौ अन्तर्मधुनि-इति विभागः । अन्तर्मधुनि मदिरायां पीतायाम् । १°वं निर्भय॑ रोमहर्षणः सं०। १६ भृङ्गार:-सुवर्णपात्रम् । कृताङ्गरागो गो सं० का०। १७ नन्दनवनादानीतैः । १८ सिधेनुका-मुरिका। १९ अचल्लाः-पर्वताः।
पाडण्य
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थं पर्व गच्छतस्तस्य सहसोद्भूतचण्डानिलेन तु । छत्रस्याऽऽन्दोल्यमानस्य दण्डोऽभज्यत वृक्षवत् ॥ ५६३ ॥ अनोकहात् पुष्पमिव तारकेव नभस्तलाद । हयग्रीवशिरसस्तत् पपाताऽऽतपवारणम् ॥ ५६४ ॥ मदस्तदानीं करिणस्तस्य चाशुष्यदञ्जसा । सरसी ज्येष्टमासीव शरदीव च कईमः ॥ ५६५ ॥ मोमूत्र्यते स तत्कालं कालभीत इव द्विपः । ररास विरसं चापि नोडुरं च शिरो दधौ ॥ ५६६ ॥ रजोवृष्टिरसृष्टिर्दिवा नक्षत्रवीक्षणन् । उल्कापातस्तडित्पात इत्युत्पाताश्च जज्ञिरे ।। ५६७ ॥ दीनखरं प्ररुदितं सौरमेयैरुदाननैः । आविर्भूतं च शशकैश्चिल्लीभिर्धान्तमम्बरे ॥ ५६८ ॥ काकोलैश्चक्रिरे रोला गृधैरुपरि जृम्भितम् । स्थित ध्वजे कपोतेनेत्यासनेशकुनान्यपि ॥ ५६९ ॥ नाश्वग्रीवो दुनिमित्ताऽशकुनान्यप्यजीगणत् । यमपाशैरिवाऽऽकृष्टः किं तु प्रायादनँगैलः ॥ ५७० ॥
विद्याधरैर्गतोत्साहैर्नृपैरप्यरणोत्सुकैः । आकृष्टैर्विष्टिभिरिव स्वाधीनैरप्यवेष्ट्यत ॥ ५७१ ॥ 10 संपूर्णसैन्यः कतिभिः प्रयाणैराससाद सः। परिष्कृतरथावत तं रथावर्तपर्वतम् ।। ५७२ ॥
उपत्यकायां तस्याद्रेर्विजयादयगिरेरिव । विद्याधरक्लान्युपुरश्वग्रीवस्य शासनात् ॥ ५७३॥ ___ इतश्च पोतनपुरे स विद्याधरपुङ्गवः । उवाच ज्वलनजटी बलभद्रबलानुजौ ॥ ५७४ ॥ नैसर्गिक्याऽपि वः शक्त्या प्रतिमल्लो न कश्चन । प्रेमभीरुर्वदामीदं प्रेमास्थानेऽपि भीप्रदम् ॥ ५७५ ।।
स विद्यादुर्मदो दोष्मानूष्मलोऽनेकयुञ्जयी । हयग्रीवः खलूद्ग्रीवः शङ्कनीयो न कस्य हि ? ॥ ५७६ ॥ 15 विद्या विना हयग्रीवादन्यूनं युवयोरपि । तथापि तं युवां हन्तुं समर्थों परमर्थये ॥ ५७७ ॥
युवाभ्यामत्र कर्तव्यो विद्यासिद्ध्यै श्रमो मनाक् । यथा विद्याकृतं मायायुद्धं तस्य वृथा भवेत् ॥ ५७८ ॥ तथेति प्रतिपेदानौ शुचिवस्त्रौ समाहितौ । विद्याः सोऽन्वशिषत् प्रीतमना ज्वलनजट्यथ ॥ ५७९ ॥ मत्रबीजाक्षराण्यन्तः स्मरन्तौ भ्रातरावुभौ । अत्यवाहयतां सप्तरात्रमेकाग्रमानसौ ।। ५८० ॥
सप्तमे दिवसे जातकम्पे फणिपतौ सति । ध्यानाऽऽरूढौ बलोपेन्द्रौ विद्याः समुपेतस्थिरे ॥ ५८१ ॥ 20 गारुडी रोहिणी चैव भुवनक्षोभणी तथा । कृपाणस्तम्भनी स्थामशुम्भनी व्योमचारिणी ॥ ५८२ ॥
तमिस्रकारिणी सिंहवासिनी वैरिमोहिनी । वेगाऽभिगामिनी दिव्यकामिनी रन्ध्रवासिनी ॥ ५८३ ॥ कृशानुवर्षिणी नागवासिनी वारिशोषिणी । धरित्रीदारिणी चक्रमारणी बन्धमोचनी ॥ ५८४ ॥ विमुक्तकुन्तला नानारूपिणी लोहशृङ्खला । कालराक्षसिका छन्नदशदिक तीक्ष्णशूलिनी ॥ ५८५ ॥
चन्द्रमौलिश्च विजयमङ्गला ऋक्षमालिनी । सिद्धताडनिका पिङ्गनेत्रा वचनपेशला ॥ ५८६ ॥ 25 वनिताहिफणा घोरघोपिणी भीरुभीषिणी । विद्या इत्यादयः प्रोचुर्वशे मो युवयोरिति ।। ५८७॥ पारयामासतुानं सिद्ध विद्यावुभावपि । पुण्याऽऽकृष्टं स्वयं सर्व किं किं न सान्महात्मनाम् ? ॥५८८॥
अथ त्रिपृष्ठः सज्येष्ठः श्रेष्ठेऽह्नि विपुलेवलः । प्रजापतिज्वलनजट्यादिभिः प्रीस्थितोच्चकैः॥५८९॥ तुङ्गैस्तुरङ्गै रङ्गद्भिर्वेगिभिर्गरुडेरिव । जयश्रीवेश्मभिर्वर्यास्कन्दनैः सन्दनैरपि ।। ५९० ॥
मदोद्धुरैः कुञ्जरैरप्यतिनिर्जरकुंञ्जरैः । शादुलरिव चोत्कालगामिभिर्वरपत्तिभिः ।। ५९१ ॥ 30 नभश्चरभूचरैश्च द्यां मां च छादयन् भृशम् । शकुनैरनुकूलैः प्रेर्यमाणः स्वजनैरिव ।। ५९२ ॥
चण्डानिलेन-प्रचण्डपवनेन। २ वृक्षात् । ३ उन्नतम् । असृग्-रुधिरम् । ५ ऊर्ध्वमुखैः श्वानः । ६ चिल्ली 'समळी' इति भाषायाम् । 'चिल' इति हिन्दीभाषायाम् । ७ काकोला:-वनकाकाः। ८ रोला-रडारोळ' इति भाषायाम् । ९ आसन्+अशकुनानि-अपशकुनानि । १. उद्धतः । ११ विष्टि:-नरक हठात् क्षेपः। १२ परिष्कृतः स्थावतः स्थभ्रमणमार्गः यत्र तम् । १३ उपत्यका-तलहट्टी। १४ नैसगिकी-सहजा । १५ प्रचण्डः। १६ 'अनेकयुध्+जयी' इति विभागः। + सिद्धौसं०। १७ स्वीकृतवन्तौ। १८ समागताः। सिंहवाहिनी-सं० ।।श्रीदारणी नागबन्धनी बन्ध -सं० । °चुर्वशाः स्मो-सं० । १९ प्रास्थित-प्रस्थानं कृतवान् । २० आस्कन्दनम्-पराभवः। २. देवहस्तितोऽपि अधिकशोभायुतैः ।
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प्रथमः सर्गः ] ____ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
तूर्यनादैर्दिशो भिन्दन हेषा-हितबृंहितैः । सैन्यप्राग्भारभारेण कम्पयंश्च वसुन्धराम् ॥ ५९३ ॥ हरिः स्वदेशसीमान्ते शिलास्तम्भमिवोच्चकैः । भूक्षोदकरथावतॊ रथावर्ताद्रिमासदत् ॥ ५९४ ॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ रणतूर्याण्यवाद्यन्त सैन्ययोरुभयोरपि । दिवौकस इवाहातुं युद्धसभ्या भवन्त्विति ॥ ५९५॥ रणसोत्कण्ठयोरुचैस्त्रिपृष्ठ-हयकण्ठयोः। समापन्नान्यनीकानि देव-दैत्येन्द्रयोरिव ॥ ५९६ ॥ 5 तेषां संनह्यतामुच्चैः सैन्यानां तुमुलो दिशः । तुरङ्गमचमूक्षुण्णक्षोणिरेणुरिवारुणत् ॥५९७ ॥ सैन्यकेतुस्थितैः सिंहैः शरभैःपिभिर्गजैः । प्लवङ्गैश्च रराज द्यौररानीव भीषणा ॥५९८ ॥ बन्धवो नारदस्येव कलिकेलिकुतूहलाः । संसृप्तकाश्च संचेरुर्भटोत्साहनकर्मठाः ॥५९९ ॥
अथोपचक्रमेऽनीकमग्रानीकैयोरपि । द्यां कुर्वद्भिः शरश्रेण्या प्रोत्पतत्पतगामिव ।। ६०० ॥ अग्रानीकैस्तयोर्युद्धे शस्त्राग्निरुदभून्महान् । दवाग्निरिव शाखाग्रैः संघर्षेऽरण्यवृक्षयोः ॥ ६०१॥
10 शस्त्राशस्त्रि प्रवृत्तानां भटानाममितौजसाम् । संफेटोऽभूद् रणमुखे जलधौ यादसामिव ॥ ६०२॥ अश्वग्रीवस्याग्रसैन्यं त्रिपृष्ठस्याग्रसेनया । चक्रे पराअखं वार्द्धिवेलयेव नदीजलम् ।। ६०३ ॥ अग्रसैन्यस्य भङ्गेनाङ्गुल्यग्रस्येव तत्क्षणात् । विद्याधरवरा वाजिग्रीवगुंह्याः प्रचुक्रुधुः ॥ ६०४ ॥ तेऽभवन्नाहवोत्ताला वेतालाश्चण्डबाहवः । पिशाचा यमसाचिव्यलब्धमुद्रा इवोच्चकैः ॥ ६०५॥ विकटोत्कटदन्तानि पृथुवक्षस्तटानि च । श्यामभीमानि रक्षांसि शृङ्गाणीवाचनागिरेः ॥ ६०६ ॥ 15 लाललाङ्गलाऽऽपातस्फाटितक्षोणिमण्डलाः। मण्डेलाग्रक्रियाकारिनखाः केसरिणोऽपि च ॥ ६०७ ॥ शुण्डादण्डैस्तृणपूललीलोल्लालितदन्तिनः । उत्पादकाश्च शरभा उच्छृङ्गा इव पर्वताः ॥ ६०८॥ पुच्छराच्छोटयन्तः क्ष्मां "मोटयन्तो रदैर्दुमान् । सिंहस्तम्बेरमाकारकरालाश्च वरालकाः ॥ ६०९ ॥ अन्येऽपि द्वीपि-शार्दूल-वृपैदंश-वृकादयः । क्रव्यादाः श्वापदास्तिर्यग्भूता इव निशाचराः ॥ ६१० ॥
॥षभिः कुलकम् ॥20 कुर्वन्तो भीषणान् नादानाह्वयन्त इवान्तकम् । वरूथिनी त्रिपृष्ठस्य ते वेगादुपदुद्रुवुः ॥ ६११ ॥ __ अथ म्लानमुखाः सर्वे भग्नोत्साहाः क्षणादपि । एवं विचिन्तयामासुः प्राजापत्यस्य सैनिकाः॥६१२।। मार्गभ्रान्ता वयमिह परेतनगरे किमु । राक्षसानां किमावासे विन्ध्यस्थल्यां किमागताः! ॥६१३ ।। भूतान्येतानि सत्त्वानि क्रूराण्यश्चंगलाऽज्ञया । संग्रहतुं सहाऽस्माभिः स्वस्थानेभ्यः किमाययुः ॥६१४॥ मन्ये कन्यानिमित्तो नः प्रलयोऽयमुपस्थितः । स्थितं नः पौरुषेणाऽद्य त्रिपृष्ठश्चेत् स्वयं जयी ॥ ६१५ ॥25 एवं चिन्ताप्रपन्नेषु तेषु व्यापनबुद्धिषु । पराङ्मुखीभवत्तूंचे त्रिपृष्ठं वह्निजट्यदः ॥ ६१६ ॥ विद्याधराणां मायेयं न किञ्चित् पारमार्थिकम् । वेश्यहं सर्पघर्ष हि सो जानाति नाऽपरः॥ ६१७ ॥ अशक्तिः खयमाख्याता स्वस्सैभिर्मन्दबुद्धिभिः । शक्तः क एवं कुरुते बालस्येव विभीषिकाम् ॥६१८॥ तदुत्तिष्ठ महावीर ! समारोह महारथम् । उत्तुङ्गादवरोहन्तु मानशैलाच्च विद्विषः ॥ ६१९ ॥
हेषा-अश्वशब्द:-'हणहणाट' इति भाषायाम् । बृंहितम्-गजगर्जनम् । २ स्वर्गवासिनः। *समनह्यन्तानीकानिसं० का०॥ ३ षष्ठीबहुवचनम् । ४ अवरोधको जातः। ५द्वीपिन:-चित्रकाः 'दीपडा'-'चित्ता' इति भाषायाम् । ६ दीर्घमरण्यमरण्यानी। युद्धाद् अनिवर्त्तकाः। यत्र पक्षिण उड्यन्ते तादृशाऽऽकाराम् । ९ गृह्याः-संबन्धिनः। १० आहवः युद्धम् , तन्न उत्ताला उत्कटाः । ११ लाङ्गलम्-पुच्छम् , तद्रूपं लागलम्-हलम् , तस्य आपातः । १२ मण्डलायम्-असिः-तरवारिः । ३५ अईपादाः। १४ मोटयन्त:-भाषायाम् 'मरडी नाखता'। १५ वृषदंश:-बिलाडः । पदाः स्वैरं तिर्यग्गता निशा-सं०॥ ११ सेनाम् । १७ प्रेवनगरे। १८ अश्वगल:-अश्वग्रीवः। १९ नष्टबुद्धिषु। २० 'परापुखीभवत्सु+उचे' इति विभागः।
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कलिकाल सर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
| चतुर्थ पर्व
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त्वयि च स्यन्दनारूढे देवेऽपि च दिवाकरे । समुद्यतकरे कस्य तेजो जृम्भिंष्यते ननु || ६२० ॥ इत्युक्ते वह्निज टिना सैन्यमाश्वासयन् निजम् । त्रिपृष्ठो रथिनां प्रष्ठोऽध्यारुरोह महारथम् || ६२१ ॥ रथं सांग्रामिकं रामोऽप्यारुरोह महानुजः । न मुञ्चत्यन्यदाऽप्येकं सोऽनुजं किं पुनर्युधि ॥ ६२२ ॥ विद्याधराश्च ज्वलनजदिप्रभृतयो रथान् । समारुरुहुरत्युचैः सिंहा इव गिरिस्थलीम् ॥ ६२३ ॥ 5 पुण्याकृष्टास्ततो देवास्त्रिपृष्ठाय समार्पयन् । शार्ङ्गं नाम धनुर्दिव्यं गदां कौमोदकीमपि ।। ६२४ ॥ पाञ्चजन्याभिधं शङ्खं कौस्तुभं नामतो मणिम् । खङ्गं च नन्दकं नाम वनमालेति दाम च ।। ६२५ ।। ददु बलभद्राय हलं संवर्तकाभिधम् । सौनन्दं नाम मुसलं चन्द्रिकानामिकां गदाम् || ६२६ || तां दृष्ट्वा परे वीराः सर्वे सर्वात्मनाधिकम् । संभूय समयुध्यन्तै युध्यन्तकसुता इव ॥ ६२७ ॥ शङ्खरत्नं पाञ्चजन्यं जन्यनाटकनान्दिकाम् । त्रिपृष्टो वादयामास वाऽऽपूरितदिङ्मुखम् || ६२८ || 10 संवर्त पुष्करावर्त गर्जितेनेव तस्य तु । क्षुभ्यन्ति स्म प्रणादेन हयर्कन्धरसैनिकाः ॥ ६२९ ॥
केषाञ्चित्पेतुरस्त्राणि पत्राणीव महीरुहाम् । सापसारा इवाऽन्ये तु स्वयं पेतुर्महीतले । ६३० ॥ भीरवः फेरव इव प्रणेशुः केऽपि च द्रुतम् । नेत्रे पिधाय लीत्वा च केऽप्यस्थुः शशका इव ।। ६३१ ॥ उलूकवत् प्रविविशुः कन्दरात केचन । केचिदारार्टिषुः शङ्खा इव वारिवहिष्कृताः ॥ ६३२ ॥ अभूतपूर्वमम्भोधिसंशोषणमिवात्मनः । सैन्यभङ्गं समाकर्ण्य हयग्रीवोऽब्रवीन्निजान् ॥ ६३३ ॥ करे ! विद्याधरा ! याथ त्रस्ताः शङ्खध्वनेरपि । वृषभध्वनितस्येव मृगप्रभृतयो वने ॥ ६३४ ॥ को दृष्टो विक्रमस्तस्य त्रिष्टष्टस्थाऽचलस्य वा । यत्रस्ताः पशुवद् यूयं चैश्चापुरुषदर्शनात् ॥ ६३५ ॥ नानारणजयोद्भूतं युष्माभिहरितं यशः । श्रीच्छिदेऽञ्जनलेशोऽपि धौतस्य श्वेतवाससः ॥ ६३६ ॥ व्यावर्तध्वमिदं वो हि दैवात् स्खलितमागतम् । नभश्चराणां भवतां केऽपरे भूमिचारिणः १ ॥ ६३७ ॥ युध्यध्वं माऽथवा यूयं सभ्यीभवत केवलम् । अहं खलु हयग्रीवः साहाय्यार्थी रणे न हि ॥ ६३८ ॥ 20 इत्युक्ता हयकण्ठेन नमत्कण्ठास्त्रपावशात् । विद्याधरा ववलिरे। शैलस्खलितसिन्धुवत् ॥ ६३९ ।। रथस्थो व्योमयानेन क्रूर ग्रह इवापरः । द्विपो ग्रसितुमव्यग्रो हयग्रीवोऽप्यथाचलत् ॥ ६४० ॥ वर्ष वाणैः पापाणैः शल्यैरस्त्रैरथापरैः । अधित्रिपृष्टसैन्यं सोऽखमेव इव नूतनः ॥ ६४१ ॥ अस्त्रवृष्ट्या तयाऽक्काम्यत् त्रैपृष्ठमखिलं बलम् । धीरा अपि हि किं कुर्युर्भूचरा व्योमचारिषु १ ॥ ६४२ ॥ राम- त्रिपृष्ठ - ज्वलन जटिनः स्यन्दनस्थिताः । उत्पेतुर्नभसा सद्यः समं विद्याधरैर्निजैः ॥ ६४३ ॥ 25 नभस्युभयतो विद्याधरा युयुधिरेऽधिकम् । विद्याशक्तिं दर्शयन्तो गुरुष्विव परस्परम् ॥ ६४४ ॥ भूचरा भृचरैः सार्धं सैन्ययोरुभयोरपि । क्रुध्यन्तः समयुध्यन्त गजा इव गजैर्वने ॥ ६४५ ॥ विद्याधराणामन्योऽन्यं शस्त्रैः प्रहरतां भृशम् | अदृष्टपूर्वाऽसृग्वृष्टिरुत्पातकृदिवाभवत् ॥ ६४६ ॥ अन्योऽन्याऽऽघातशब्देन शब्दायितनभस्तलम् । दण्डसंगीतवत् कैश्चिद् दण्डादण्डि प्रचक्रमे ।। ६४७ ॥ खड्गदण्डैः सदोर्दण्डचण्डिमान केचन । डिण्डिमानिव कोणेन विपक्षान् पर्यताडयन् ॥ ६४८ ॥
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१ सजीकृतहस्ते । २ वृद्धि प्राप्स्यति । ३ श्रेष्ठः । 'त पितृवैराः सुता - सं० ॥ ४ 'युधि + अन्तकसुता' इति पदविभागः । अन्तकः यमः ५ संवर्त्तपुष्करावर्तः - प्रलयकालिकस्तन्नामा मेघः । ६ हयकन्धरः - अश्वग्रीवः । ७ अपस्मारो नाम विशेषप्रकारको वातव्याधिः, यत्र देहकम्पपूर्वकं मूर्च्छा आगच्छति । ८ फेरुः शृगालः । ९ दृष्टिपथातीता भूत्वा 'संताई जईने' 'छुपाई जईने' इति भाषायाम् । १० राटिं चक्रुः- भाषायाम्- 'राडोपाडी' | ११ जलनिर्गताः । १२ अत्र हेत्वर्थद्योतकपञ्चम्यर्थेऽपि षष्ठी 'वृषभगर्जनात्' इत्यर्थः । १३ चञ्चापुरुषो नाम पक्षिभयजननाय कृषिक्षेत्रे ऊर्ध्वकृतः तृणमयो वस्त्रमयो वा पुरुषाकृतिविशेषः- भाषायाम् 'चाडिया' इति प्रतीतिः । १४ कज्जललवोऽपि - भाषायाम् 'कालो बाघ' । । रे वेलाऽवलितसिन्धु - सं० ॥ १५ त्रिष्टष्ठसैन्यस्य अधिउपरि-इत्यर्थः । । या क्लान्तं त्रै-सं० ॥ १६ दण्डसंगीतम् - भाषायाम् 'दांडिया रास' इति । १७ कोणः - वीणादादनकाष्टम् ।
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प्रथमः सर्गः ]
त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरितमहाकाव्यम |
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मिलन्तः केचिदन्योऽन्यमन्यजन्यजयाऽसहाः । स्फारानास्फोटयामासुः स्फुरकान् कांस्यतालवत् ॥ ६४९ ॥ शक्तीः प्रचिक्षिपुः केऽपि सीमन्तितनभस्तलाः । तडत्तडिति कुर्वाणास्तमितस्तोयदा इव ॥ ६५० ॥ शल्यैः प्रववृषुः केचिदुरगैरिव दारुणैः । पत्रिभिः प्रस्फुरत्पत्रैः पत्रिराजैरिवापरे ॥ ६५१ ॥ बँले द्वयोरुत्पतितैः पतितैश्चैवमायुधैः । नानायुधमयीव द्यौर्धरित्रीवाऽभवत् तदा ॥ ६५२ ॥ सद्य छच्चा करोपात्तैः केऽपि प्रत्यर्थिमौलिभिः । अलक्ष्यन्त रणक्षेत्रे क्षेत्रपाला इवोद्भटाः || ६५३ ॥ रम्बा व नागायैरश्वायैः किन्नरा इव । सद्यः कबन्धोपरिष्टात् पतितैः केऽपि रेजिरे । ६५४ ॥ सद्यश्छिन्नैः परिकरे पतित्वाऽवस्थितैः क्षणम् । नाभ्यास्थानीव भूतानि स्वशीर्षैः केऽपि चाssवभुः ||६५५ ॥ कबन्धास्ताण्डवं चक्रुः केषाञ्चिदपि दोष्मताम् । सुँरीस्वयंवरोद्भूतसम्मदेनेव भूयसा ।। ६५६ ।। शिरांस्यमुञ्चन हुङ्कारान् केषाञ्चित् पतितान्यपि । कबन्धारोहणे मन्त्रानुगृणन्तीव सादरम् ॥ ६५७ ॥ एवं प्रवृत्ते समरे कल्पान्त इव दारुणे । प्रत्यर्श्वकन्धररथं त्रिष्टष्टः प्रैरर्यद् रथम् || ६५८ ॥ रामोsपि प्रेरयन् रथ्यान् रथिनामग्रणीरथ । ययौ स्नेहगुणाऽकृष्ट स्त्रिपृष्ठरथसन्निधिम् ॥ ६५९ ॥ हयग्रीवोsपि संपश्यन्नारक्ताभ्यामतिक्रुधा । प्रसारिताभ्यां नेत्राभ्यां तौ पिपासन्निवान्रवीत् ॥ ६६० ॥ तिचण्ड सिंह युवयोः कतरेण रे ! । कतरः पश्चिमान्तस्थसिंहघातेन दुर्मदः ॥ ६६१ ॥ कतरः स्ववधाषैव विषकन्यामिवोच्चकैः । कन्यां ज्वलनजदिनः पर्यणैषीत् स्वयम्प्रभाम् ॥ ६६२ ॥ कतरः स्वामिनमपि मूढधीर्मन्यते न माम् । कतरो दत्तफालो मैय्यादित्य इव वानरः ॥ ६६३ ॥ कुतो हेतोरियत्कालं सैन्यक्षय उपेक्षितः । कस्येदानीमवष्टम्भाद् युवां मां समुपस्थितौ ॥ ६६४ ॥ प्रतिंतरे बालौ ! युध्येथां च मया सह । क्रमेण युगपद् वापि सिंहेन कलभाविव ।। ६६५ ॥
अथाऽचल कनिष्ठस्तमभाषिष्ट कृतस्मितः । अहमेष त्रिष्टष्टोऽसि कर्त्ता त्वद्द्तघर्षणम् || ६६६ ॥ पश्चिमान्तहरिं हन्ता परिणेता स्वयम्प्रभाम् । अमन्ता स्वामिनं त्वां च चिरं चं त्वामुपेक्षिता ॥ ६६७ ॥ बलो नामाग्रजोऽयं मे बलेन बलसूदनः । प्रतिमल्लो न यस्यास्ति त्रैलोक्ये कीदृशो भवान् ॥ ६६८ ।। 20 अलं सैन्यक्षयेणेति तवाप्यभिमतं यदि । गृहाणास्त्रं महाबाहो ! ममैवासि रणातिथिः ।। ६६९ ।। अस्त्वावयोर्द्वन्द्वयुद्धं पूर्यतां भुज्रकौतुकम् । सभ्यीभूयावतिष्ठन्तु सैनिका उभयोरपि ॥ ६७० ॥ तथेति प्रतिपेदानौ हयग्रीव - बलानुजौ । वारयामासतुः सैन्यान्याहवाद् वेत्रपाणिभिः ।। ६७१ ।। न्यस्यैकं** लॅस्तके हस्तमपरं वैटनीतटे । चक्रेऽधिज्यं हयग्रीवो यमभ्रूभीषणं धनुः ॥ ६७२ ॥ रणश्रीकेलिसंगीततन्त्रीमिव धनुर्गुणम् । पाणिना वादयामास मयूरग्रीवनन्दनः ॥ ६७३ ॥ शॉर्ङ्गमारोपयामास शार्ङ्गपाणिरपि क्षणात् । द्विपां विनाशपिशुनं निशामत्स्यमिवोद्गतम् ॥ ६७४ ॥ वज्रनिर्घोपवद् घोरं मृत्यो चाहानमत्रकम् । द्विषां बलहरं विष्णुर्धन्वघोषमकारयत् ।। ६७५ ॥ वाणमाष्य करण्डादिव पन्नगम् । चापे संधाय चाकर्णं चकर्ष हयकन्धरः ।। ६७६ ।। कटाक्षमित्र कालस्य कल्पान्ताः शिखामिव । भौभिर्ज्वलन्तं तं वाणमुल्वणं प्रमुमोच सः ॥ ६७७ ॥ तमापतन्तं वाणेन सद्यो मुक्तेन केशवः । चिच्छेदार्जलताच्छेद म विच्छेद पराक्रमः ॥ ६७८ ॥ प्रथमेनेव वाणेन लाघवादपरेण तु । हयग्रीवस्य धन्वाऽपि निचकर्त्ताचलानुजः ॥ ६७९ ॥
१ स्फुरका: - फलकाः भाषायाम् 'ढाल' इति । २ पत्रम् - बाणाग्रम्, पक्षं च । ३ पत्रिराज:- गरुडः । * बलैर्द्वयो" सं० ॥ ४ गणपतयः । ५ कबन्धः - क्रियायुक्तं मस्तकरहितं शरीरम् - भाषायाम् 'धड' इति । ६ नाभौ आस्यं मुखं येषां तानि । ७ 'देवीस्वयंवर' इत्यर्थः । यद् द्रुतम् - सं० ॥ ९ रम्यान् रथयुक्त - घोटकान् । + निधिः का० । १० मयि - मद्रूपे आदित्ये । ११ युवां प्रतिवचनं वदतम् । १२ अवगमयिता । ॥ च त्वमुपेक्षितः - सं० ॥ भूयेऽव - सं० का० ॥ ** 'कं हस्तके-सं० ॥ १३ लस्तकम् - धनुर्मध्यम् । १४ अटनी-धनुषः अग्रम् । १५ शृङ्गनिर्मितं धनुः शार्ङ्गम् । धनुर्घोष सं० ॥ १६ भा-प्रभा । | "छेदेक्षुल-सं० का० ॥ १७ निचकर्त्त - चिच्छेद ।
८ अश्वकन्धरः - हयग्रीवः ।
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३३६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थं पर्ष भूयो भूयो हयग्रीवो धनुर्यद् यदुपाददे । तत् तत् त्रिपृष्ठश्चिच्छेद तन्मनोरथवच्छरैः ॥ ६८० ॥ पत्रिणाच्छिददेकेन ध्वजं प्रतिहरेहरिः । दूरं पर्यास चान्येन रथमेरण्डखण्डवत् ॥ ६८१॥ कुपितोऽथ हयग्रीवः समारुह्य रथान्तरम् । दूरादागाच्छरैर्वर्षन् धारासारैरिवाम्बुदः ॥ ६८२ ॥
न रथः सारथिर्नापि न त्रिपृष्ठो न चापरम् । अदृश्यत हयग्रीवशरदुर्दिनडम्बरे ॥ ६८३ ॥ 5 निरास शरवृष्टिं तां त्रिपृष्टः शरवृष्टिभिः । रश्मिच्छटाभिर्भगवानन्धकारमिवार्यमा ॥ ६८४ ॥
अथ क्रुद्धो हयग्रीवः सोदरामिव विद्युतः । वयस्यां कुलिशस्येव मारेरिव च मातरम् ॥ ६८५ ॥ जिह्वामिवाहिराजस्य शक्तिं शक्तिमतां वरः । समुचिक्षेप शैलेयीं शैलसारो महाभुजः ॥ ६८६॥ क्वणरिकाश्रेणिं कीनाशस्येव नर्तकीम् । राधाचक्रमिव स्तम्भेऽभ्रमयत् तां स मूर्धनि ॥ ६८७ ॥ विमानिभिर्दत्तमार्गा विमानभ्रंशभीरुभिः । अधित्रिपृष्ठं तामाशु सर्वस्थाम्ना मुमोच सः ॥ ६८८ ॥ दण्डं द्वितीयं दोर्दण्डं तृतीयं समवर्तिनः । त्रिपृष्ठोऽप्याददे दोष्णा रथात् कौमोदकी गदाम् ॥ ६८९ ॥ तया जघान तां शक्तिमापतन्ती बलानुजः । हस्तीव हस्तदण्डेन क्रीडाकारकभस्त्रिकाम् ॥ ६९०॥ स्फुलिङ्गैरुल्वणैः सोल्काशतपातं वितन्वती । क्षणेन कणशो भूत्वा पपात भुवि लोष्टवत् ॥ ६९१॥ दन्तमैरावणस्येवोद्धृतमेकं भयानकम् । परिघ परिधेनाथ मुमोच हयकन्धरः ॥ ६९२ ॥
समापतन्तं तमपि गदयाऽखण्डयद्धरिः । महोरगमिव त्रोटिकोट्या पत्ररथेश्वरः ॥ ६९३ ॥ 15 वज्राकरशिलासारं दंष्ट्रां पितूंपतेरिव । स्वसारं तक्षकस्येव हयग्रीवोऽमुचत् गदाम् ॥ ६९४ ॥
अभासीदन्तरिक्षेऽपि मङ्गु तामप्यधोक्षजः । वालुकामोदकमिव कौमोदक्या महाभुजः ॥ ६९५ ॥ एवं भग्नेषु शस्त्रेषु विलक्षो वाजिकन्धरः। विधुरे बन्धुवद् वीरः पन्नगासमथासरत् ॥ ६९६ ।। चापे संधाय नागास्त्रं मुमोचोदभवनथ । अनेकशः प्रस्फुटतो वल्मीकादिव पन्नगाः॥ ६९७ ॥
धावन्तः स्फारफुत्कारा भूमौ नभसि चाहयः । पातालकल्पं विदधुस्तिर्यग्लोकं क्षणादपि ॥ ६९८ ॥ 20 प्रलम्बा दारुणाः कृष्णाः स्फुरन्तस्ते महाऽहयः । सद्यः सहस्रधोद्भूतकेतुशङ्कां वितेनिरे ॥ ६९९ ॥
मृत्योरिवावसस्तैः सः सर्पद्भिरम्बरे । अपासर्पन दूरदूरं चकिताः खेचरस्त्रियः॥ ७००॥ जज्ञे त्रिपृष्टसैन्यानामप्याशङ्का महीयसी । स्वामिप्रभावाज्ञत्वेन भक्त्या च भवतीदृशम् ॥ ७०१॥ गारुडास्त्रमथो धन्वन्यारोप्य गरुडध्वजः । मुमोचमोचादलवत् तस्य शस्त्रस्य पन्नगान् ॥ ७०२॥ प्रादुरासन् गरुत्मन्तो विदधानाः प्रसारिभिः । स्वर्णच्छत्रशताकीर्णामिव द्यां पक्षडम्बरैः ॥७०३॥ युग्मम् ।। तेषां च पक्षमत्कारादपि नेशः समन्ततः । महाऽहयस्तमांसीव सहस्रकिरणोदमात ॥ ७०४॥ वीक्षापन्नः पन्नगास्त्रमपि वीक्ष्य निरर्थकम् । प्रदध्यावस्त्रमाग्नेयं दुर्धरं यकन्धरः ॥ ७०५ ॥ आमेयवाणं धनुपि संधाय व्यसृजच सः । ज्वालाभिरभितन्वानमुल्काशतमयीं दिवम् ॥ ७०६ ॥ मग्नं प्रदीपन इव त्रिपृष्ठस्याखिलं बलम् । और्वभीताब्धियादोवत् तदाकुलमजायत ।। ७०७ ॥ जहषुर्जहसुब्रैमुरुत्पेतुर्ननृतुर्जगुः । तालाश्च ददुरुत्ताला हयग्रीवस्य सैनिकाः ॥ ७०८ ।।
१क्षिप्तवान् । २ 'रथम् एरण्डखण्डवत्' इति पदविभागः । ३ घरिका-भाषायाम् 'घुघरीओ' । ४ समवर्तीयमः। ५ भस्त्रिका-धमनी अत्र क्रीडनकरूपा लघुर्धमनी ज्ञेया। * °घं तं प्रत्यमोघं मु-सं०॥ ६ नोटिकोटि:-चन्नुअग्रभागः। ७ गरुडः। 1 °सारां दं-सं० का० ॥ ८ पितृपतिः-यमः। ९ भज्यमानात् । १० केतुशङ्का-ध्वजशङ्का । ११ अवसर्पः-चरः । १२ भवति-ईदृशम्' इति विभागः । १३ मोचा-क्रदली। १४ पक्षसूत्कारः-पक्षध्वनिः। १५ विस्मितः।
विस्तारयन्तम् । १७ और्वः-वडवानलः ।
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प्रथमः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । ततो धनुपि संधाय वारुणास्त्रमवारणम् । क्रोधारुणेक्षणस्तूर्णममुश्चदचलानुजः ॥ ७०९ ॥ उन्नेमुर्जलदाः सद्यो हरेरिव मनोरथाः । हयग्रीवाननमिव श्यामयन्तो नभस्तलम् ॥ ७१० ॥ वपुः प्रावृषीवाब्दा धारासारैर्निरन्तरैः । दवाग्निमिव शस्त्राग्निं शमयन्तः समन्ततः ॥ ७११ ॥ एवं तृणवदत्राणि प्रेक्ष्य भग्नानि शार्जिणा । प्रतिविष्णुरमोघं स्वं चक्रं सस्मार मारिकृत् ॥ ७१२ ॥ ज्वालाशतैर्दीप्यमानमरान्तरशतैरिख । समाकृष्य समानीतं मार्तण्डस्यन्दनादिव ।। ७१३ ॥ प्रसह्यापहतमेकमन्तकस्येव कुण्डलम् । परितः कुण्डलीभूय तक्षकाहिमिव स्थितम् ॥ ७१४ ॥ प्रवणत्किङ्किणीजालं त्रासयन खेचरानपि । स्मृतमात्रोपस्थितं तत् स जग्राहेत्युवाच च ॥ ७१५ ॥
क्षीरकण्ठोऽस्यरे! बाल ! भ्रूणहत्येव ते वधात् । इदानीमप्यहि त्वं हणीयेऽद्याप्यहं त्वयि ॥ ७१६॥ न परिस्खल्यते क्वापि कुण्ठीभवति न क्वचित् । पविः पविधरस्येव चक्रमस्त्रमिदं हि मे ॥ ७१७॥ मुक्तं चेन्मुच्यसे प्राणैर्विकल्पो न हि कश्चन । क्षत्राभिमानं मा धेहि विधेहि मम शासनम् ॥ ७१८॥ 10 बालोऽसि तन्मया क्षान्तं पूर्वदर्ललितं तव । बालत्वचापलेनैव याहि जीव ! यदृच्छया ॥७१९॥
मित्वोवाच त्रिपृष्ठोऽपि वृद्धोऽसि हयकन्धर!। कोऽन्यथा प्रलपेदेवमुन्मत्त इव दुर्वचः ॥ ७२०॥ बालोऽपि केसरी नेभीन् महतोऽपि पलायते । महतोऽपि हि किं सात तायवालोऽपसर्पति ? ॥ ७२१॥ बालोऽपि सन्ध्योरक्षोभ्यः किं क्षुभ्यति दिवाकरः? । बालोऽपि किमहं त्वत्तोऽपसामि रणाङ्गणे ? ॥७२२॥ शस्त्राणां प्राक् प्रयुक्तानां दृष्टं तावद् बलं त्वया । विमुच्यास्यापि वीक्षस्व किमवीक्ष्यैव गर्जसि ? ॥ ७२३ ॥15 ___ इत्याकर्ण्य हयग्रीवो व्योमाब्धेरौर्ववह्निवत् । शिरसि भ्रंमयामास तच्चक्रमतिभीषणम् ॥ ७२४ ॥ भ्रमयित्वा चिरतरं सर्वस्थाम्ना मुमोच सः । चक्रं तच्यवमानार्कमण्डलभ्रान्तिदं क्षणम् ॥ ७२५ ॥ यक्षःस्थले शैलशिलाविशालकठिने हरेः। चपेटयैव तच्चक्रं पपात न तु धारया ॥ ७२६ ॥ आहतस्तस्य चक्रस्य तुम्बाग्रेण दृढीयसा । पपात मूछितो विष्णुः कुलिशेनेव ताडितः ॥ ७२७ ॥ तस्थौ तत्रैव तच्चक्रं प्रतिजाग्रदिवाम्बरे । हाहारवः समुत्तस्थौ विष्णुसैन्येऽखिलेऽपि हि ॥ ७२८ ॥ प्रतिपक्षप्रहारेण भ्रातरं प्रेक्ष्य मूच्छितम् । मुमूर्च्छ नो हतोऽप्याशु बलभद्रः प्रियानुजः ॥ ७२९ ॥ सिंहनादं हयग्रीवश्चक्रे सिंह इवोच्चकैः । तत्सैन्यैर्जयशंसीव चक्रे किलकिलारवः ॥ ७३० ॥ लब्धसंज्ञःक्षणाद् रामः श्रुत्वा तं चोर्जितं ध्वनिम् । अस्थाने कस्य होऽयमिति पप्रच्छ सैनिकान् ॥७३१॥ तेऽप्यचर्देव ! दृष्टानां कुमारस्यापदाऽधना । हयग्रीवस्य सैन्यानामिदं गर्जितमंर्जितम ॥ ७३२॥ ऊचे रामोऽपि मद्वन्धोरपि व्यापत्तिरस्ति किम् । रथे शेते क्षणमसौ रणश्रान्तो ममानुजः ॥ ७३३ ॥25 मद्वन्धोापदमिमां व्यलीकां स्वमनीषया । तर्कयित्वा प्रहृष्टानामेप हर्ष हराम्यहम् ॥ ७३४ ॥ अरे! तिष्ठ हयग्रीव ! सरथं सपरिच्छदम । गदया चूर्णयाम्यद्य सद्यो मशकमष्टिवत ॥ ७३५ ॥ इत्युत्पाट्य गदां शृङ्गं रथावर्तगिरेरिव । दधाव यावत् तावच त्रिपृष्टः प्रत्यबुध्यत ।। ७३६ ॥ आर्य ! भवतः कोऽयमायासो मयि सत्यपि । इति ब्रुवन् सुप्त इव समुत्तस्थौ जनार्दनः ॥ ७३७ ॥ त्रिपृष्ठमुत्थितं दृष्ट्वा ग्रामादिव समागतम् । दोर्दण्डाभ्यामायताभ्यामालिलिङ्गाथ लागली ॥ ७३८ ॥ 30 खेशप्रबोधपिशुनो हृदि शल्यायितो द्विपाम् । हर्षकोलाहलचके हृषीकेशस्य सैनिकैः ॥ ७३९ ॥
१ वारयितुमशक्यम् । २ श्याम कुर्वन्तः । ३ प्राबृषि-मेघसमये । ४ स्यन्दन:-रथः । ५ क्षीरकण्ठो बालः । ६ भ्रणम्-र्भः। ७ लजां प्रामोमि। ८ इन्द्रस्य। ९क्षत्रियत्वाभिमानम् । * °लोडसीति म-सं० ॥ द्धिो हि हय-का०॥ १० 'न इभान्' इति विभागः। ११ तायबाल:-गरुडः। १२ संध्याराक्षसेभ्यः। "सि भ्रामया -सं०॥ पतिदक्षिणम्-सं०॥ व पर्वतः-सं०॥ १३ आपदा-तृतीयान्तम् । १°पि मे व-सं०॥ १४ लागली-बलरामः । १५ स्वस्वामिप्रबोधसूचकः, प्रबोधः-मुर्छारहितः ।
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३३८ कलिकालसर्वजश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थं पर्व प्रायश्चित्तमिवादित्सु प्रहारकृतपाप्मनः । ईक्षाञ्चके समीपस्थं तच्च चक्रमधोक्षजः ॥ ७४० ॥ तेजोभीमं तदादाय दायादमिव भास्वतः । बलभद्रकनिष्ठोऽपि ससौष्ठवमदोऽवदत् ॥ ७४१ ॥ ऊर्जितं गर्जितं तादृक् कृत्वा यन्मुमुचे मयि । दृष्टं त्वयोजश्चक्रस्वामुष्याद्राविव दन्तिनः ॥ ७४२ ॥ गच्छ गच्छाऽधुनाऽपि त्वं स्थविरं पापवृत्तिकम् । मार्जारमिव को नाम त्वां हनिष्यति दुर्मते ! ॥७४३॥
इति श्रुत्वा हयग्रीवो दशनैरधरं दशन् । प्रकोपात् कम्पमानाङ्गः सभ्रूभङ्गोऽब्रवीदिति ॥ ७४४ ॥ अमुना लोहखण्डेन मत्तः प्राप्तेन रे शिशो! । किं नु मत्तस्तरोः त्रस्तंफलेनाऽऽप्तेन पॉवत् ॥ ७४५॥ मुञ्च मुश्च त्वमप्येतत् सारं पश्य ममापि च । चक्रमापतदप्येतद् दलयिष्यामि मुष्टिना ॥ ७४६ ॥ ततः प्रकुपितश्चक्रं भ्रमयित्वा नभस्तले । मुमोच हयकण्ठाय वैकुल्लोऽकुण्ठशक्तिकः ॥ ७४७॥
तच कर्ताऽश्वकण्ठस्य कण्ठं कदलिकाण्डवत् । निजेनैव हि चक्रेण हन्यन्ते प्रतिचक्रिणः ॥ ७४८॥ 10 मुदितैः खेचरैः पुष्पवृष्टिः शिरसि शाङ्गिणः । निदधे विदधे चोच्चैर्मुदा जयजयारवः ॥ ७४९ ॥
हयग्रीवस्य सैन्येऽपि सदैन्ये रुदितध्वनिः । समुत्तस्थौ प्रतिरवै रोद॑सी अपि रोदयन् ।। ७५० ॥ हयग्रीवाङ्गसंस्कारमग्निना स्वजना व्यधुः । निर्वापमिव कुर्वन्तः पतद्भिर्नयनाश्रुभिः ॥ ७५१ ॥ विपद्य च हयग्रीवः सप्तम्यां नरकावनौ । नारकोऽभूत् त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमजीवितः ।। ७५२ ॥
अत्रान्तरे नभस्युच्चैरूचेऽमरवरैरिति । भो भो नृपतयः! सर्वे सर्वतो मानमुज्झत ॥ ७५३ ॥ विमुञ्चत हयग्रीवपक्षपातं चिरादृतम् । त्रिपृष्टं शरणं श्रेष्ठमुपाध्वं किन्तु भक्तितः ॥ ७५४ ॥ प्रथमो वासुदेवोऽयमुदपद्यत खल्विह । त्रिखण्डभरतक्षेत्रावनेभर्ती महाभुजः ॥ ७५५ ॥ ___ इति दिव्यां गिरं श्रुत्वा हयग्रीवस्य भूभुजः । सर्वेऽप्युपेत्य शिरसा प्रणेमुरचलानुजम् ॥ ७५६ ॥ रचिताञ्जलयश्चैवमूचुरस्माभिरत्र यत् । अज्ञानात् परतत्रत्वाचापराद्धं सहस्व तत् ॥ ७५७ ।।।
अतः परं वयं नाथ ! त्वदीयाः किङ्करा इव । करिष्यामस्तवैवाज्ञां तदाज्ञापय नः प्रभो! ॥ ७५८ ॥ 20 प्रत्युवाच त्रिपृष्ठोऽपि नापराधोऽस्ति कोऽपि वः । क्षत्रियाणां क्रमो ह्येष युद्धं स्वाम्याज्ञया खलु ॥७५९।।
विमुञ्चत प्रतिभयमयं स्वाम्यस्मि वोऽधुना । मदीयीभूय वर्तध्वं स्वस्वराज्येष्वतः परम् ॥ ७६० ॥ एवमाश्वास्य तान् राज्ञस्त्रिपृष्ठः सपरिच्छदः । जगाम पोतनपुरं पुरन्दर इवापरः ॥ ७६१ ॥ पुनश्च पोतनपुराद् दिग्जयाय जनार्दनः । साग्रजो निर्ययौ रनैश्चक्राद्यैः सप्तभिर्वृतः ॥ ७६२ ॥
जिगाय मागधं पूर्वं पूर्वाशामुखमण्डनम् । दक्षिणाशाशिरोदाम वरदामानमप्यथ ।। ७६३ ।। 25 पश्चिमाशाकृतोद्भासं प्रभासं च सुरोत्तमम् । विद्याधरेन्द्रानुभयवैतादयश्रेणिगानपि ॥ ७६४ ॥ युग्मम् ॥
श्रेणिद्वयाधिपत्यं चादत्ताग्निजटिने हरिः । फलन्ति हि महात्मानः सेविताः कल्पवृक्षवत् ॥ ७६५ ॥ दक्षिणं भरतस्यार्धं साधयित्वैवमुच्चकैः । दिग्यात्राया न्यवर्तिष्ट त्रिपृष्टः स्वपुरोन्मुखः ॥ ७६६ ।। चक्रधरस्वार्द्धऋद्ध्यार्धनाभाद् दोर्वलेन च । प्रयाणैः कतिभिः प्राप मगधान् माधवस्ततः ॥ ७६७ ॥
ददर्श कोटिपुरुषोत्पाट्यां तत्र महाशिलाम् । इलाया इव तिलकमिलेशतिलकोऽथ सः ॥ ७६८ ॥ 30 वामेन भुजदण्डेन लीलया तां शिलां हरिः । छत्रॉयमाणामुद्दधे मूर्ध्न ऊर्च नभस्तले ॥ ७६९ ॥
१ प्रहारजन्यपापस्य । २ अधोक्षजः-वासुदेवः-त्रिपृष्ठः । ३ यदमुचो म-का० ॥ यद् +अमुच:-'अमुचः' इति अद्यतनभूतकाले द्वितीयपुरुषैकवचनम् । ४ 'अमुष्य+अद्रौ' इति विभागः। ५ नीचैः पतितेन फलेन प्राप्तेन । ६ बलम् । ७ वैकुण्ठःवासुदेवः त्रिपृष्ठः । ८ अश्वग्रीवस्य । ९ आकाशम् पृथ्वी च । १० मृतमुद्दिश्य दीयमानो जलाञ्जलिः निवापः । ११ उज्झतमुन्नत । * रणश्रेष्ठ -सं०॥ वनेभोक्ता-का०॥ १२(१) चक्रम् , (२) वनमाला, (३) नन्दकनामा असिः, (४) कौस्तुभमणिः, (५) पाञ्चजन्यः शङ्खः, (६) कौमोदकी गदा, (७) शाङ्ग धनु:-इत्येवं सप्त रत्नानि । १३ 'अर्ध+ऋज्या' अत्र "लुति हस्त्रो वा" [२.२.२.] इत्यनेन ह्रस्वत्वे सन्धेरभावः । १४ 'तिलकम् इलेशतिलकः' इति विभागः । १५ छत्रसमानाम् ।
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प्रथमः सर्गः ]
त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरितमहाकाव्यम् ।
नृपैर्लोकैश्च तद्वाहुस्थामालोकनविस्मितैः । त्रिष्पृष्टस्तुष्टुवे सुष्ठु सौष्ठवैर्मागधैरिव ॥ ७७० ।। तां विमुच्य यथास्थानं प्रस्थितः कतिभिर्दिनैः । नगरं पोतनपुरं श्रियो धाम जगाम सः ॥ ७७१ ॥ मौक्तिकस्वस्तिकाकीर्णं सतारकमिवाम्बरम् । सेन्द्रचापशतमिव तोरणश्रेणिशोभितम् ॥ ७७२ ॥ आवृष्टवारिदमिव वारिसिक्तमहीतलम् । उद्विमानमिवोत्तुङ्गैर्मञ्च रुचिरभाजनैः ॥ ७७३ ॥ त्योः प्रकृतोद्वाहमिव मङ्गलगीतिभिः । पिण्डीभृतजीवलोकमिव संमेदसंपदा || ७७४ ॥ प्रविवेश द्विपारूढः संपन्नः प्रौढसंपदा । श्रीपतिः पोतनपुरं पुरं नवमिव श्रियः ॥ ७७५ ॥ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ प्रजापतिर्ज्वलन जट्यचलोऽन्येऽपि भूभुजः । त्रिपृष्टस्यार्धचक्रित्वाभिषेकं विदधुस्ततः ॥ ७७६ ।। इतस्तया द्वौ मासौ विहरन् विभुः । श्रेयांसो भगवान् ग्राप सहस्राम्रवर्णं वनम् ॥ ७७७ ॥ तत्राशोकतरोर्मूले स्वामिनः प्रतिमाजुषः । द्वितीयशुक्लध्यानान्ते वर्तमानस्य निचले ॥ ७७८ ॥ ज्ञान- दृष्ट्यावरणीये मोहनीयान्तरायके । प्रणेशुर्घातिकर्माणि तापे मदनपिण्डवत् ॥ ७७९ ॥ युग्मम् ॥ Shiraणपञ्चदश्यां श्रवणस्थे निशाकरे । पष्ठेन तपसा भर्तुरुदपद्यत केवलम् ।। ७८० ॥ देवैः समवसरणे रचिते तत्र देशनाम् । एकादशी जिनपतिर्विदधेऽतिशयान्वितः ॥ ७८१ ॥ तया देशनया भर्तुः प्रबुद्धा भूरिजन्तवः । विरतिं सर्वतः केऽपि जगृहुदेशतोऽपरे ।। ७८२ ॥
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शुभ गणभृतः पट्सप्ततिरथाभवन् । स्वामिनस्त्रिपदीं श्रुत्वा द्वादशाङ्गीमसूत्रयन् ॥ ७८३ ॥ तत्तीर्थभूरीश्वराख्यो यक्षरूयक्षो वक्षस्क । वृपयानो मातुलिङ्गगदिदक्षिणदोर्द्वयः ॥ ७८४ ॥ नकुलाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणेतरबाहुकः । श्रेयांसखामिनो जज्ञे तदा शासनदेवता ॥ ७८५ ॥ तथैव मानवी देवी गौराङ्गी सिंहवाहना । वरदं मुगरिणं च दधती दक्षिणौ करौ ॥ ७८६ ॥ वामौ च विभ्रती पाणी कुलिशाङ्कुशधारिणौ । पारिपार्श्विक्यभूद् भर्तुस्तदा शासनदेवता ॥ ७८७ ॥ ताभ्याममुक्तसान्निध्यो विहरन् परमेश्वरः । अन्येद्युः पोतनपुरं पुरप्रवरमाययौ । ७८८ ॥
और
धामाऽऽजगाम-का० ॥ १ प्रतिओकः - प्रतिगृहम् । २ संमदः - हर्षः ।
१७
ज्ञानावरणीयम्, दर्शनावरणीयं च । ४ 'मदन' इति भाषायाम् 'मीण' । माघे कृ - सं० ॥ धर्मम् । ६ श्वेतकान्तिः । ॥ गदाद-सं० ॥ ७ कुलिशम्-वज्रम् । Î कलशाङ्कुश - सं० का० ८ शुद्धां चक्रुः । ९ जानुप्रमाणाः । १० शीर्षशेखरकम् । ११ तपनीयम् - सुवर्णम् तेन निर्मितम् । ईशा - सं० ॥ t स्याधिम' सं० ॥ # भिर्विभान् मु० ॥
३३९
तत्र च स्वामिसमवसरणायैकयोजनाम् । मरुत्कुमारा ममृजुर्मेधाच सिपिचुः क्षितिम् ॥ ७८९ ॥ स्वर्णरत्नोपलैस्तां च बबन्धुर्व्यन्तरामराः । जानुदनीः सुमनसः पञ्चवर्णाश्च चिक्षिपुः ॥ ७९० ॥ तोरणानि प्रतिदिशं भ्रूभङ्गानिव तद्दिशाम् । ते चक्रुस्तद्भुवो मध्ये मणिपीठं च पावनम् ॥ ७९१ ॥ तत्राधो राजतं वप्रं सखर्णकपिशीर्षकम् । शीर्षोत्तंसंमिव क्षोणेर्विदधुर्भुवनाधिपाः ॥ ७९२ ॥ सरनकपिशीर्षं च तपनीयमथापरम् । खंज्योतिषेव ज्योतिष्काः प्राकारं विदधुः सुराः ॥ ७९३ ॥ माणिक्यकपिशीर्षं च दिव्यरत्नशिलामयम् । विमानपतयो वयं तातीयीकं विचक्रिरे ॥ ७९४ ॥ सतोरणा चतुर्द्वारी प्रतिवप्रमजायत । देवच्छन्दक ऐशान्यां मध्यवप्रस्य मध्यतः ॥ ७९५ ।। मध्यप्राकारगर्भोर्व्यां विचक्रे व्यन्तरामरैः । षष्ठ्युत्तरनवधनुःशतोच चैत्यपादपः ।। ७९६ ।। तस्याधो मणिपीठो विदधुश्छन्दकं च ते । रत्नसिंहासनं साङ्घ्रिपीठं प्राच्यां तदन्तरे ।। ७९७ ।। तत्रान्यदपि यत् कृत्यं तचक्रुर्व्यन्तरामराः । भक्तिमन्तोऽप्रमादेनायुक्तेभ्योऽप्यतिशेरते ।। ७९८ ॥ श्रेयांसोऽथ प्रभुयमस्थितैश्छत्रैस्त्रिभिर्व्यभात् । वीज्यमानश्चामराभ्यां यक्षाभ्यां पार्श्वयोर्द्वयोः ॥ ७९९ ॥
30
प्ररूढ प्रौढसंमद:-सं० का० ॥
5
देशतः विरतिम्-श्रावक
॥
** 'र्तुः सदा -सं० ॥ १२ स्वतेजसा ।
** क
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कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थ पर्व
I
इन्द्रध्वजेन च पुरोगामिना परिशोभितः । स्वयं ध्वनदुन्दुभिना बन्दिनेोक्तमङ्गलः ॥ ८०० ॥ भामण्डलेन जिष्णुः सूर्येणेवोदयाचलः । सुरासुरनरैः कोटिसंख्यातैः परिवारितः ॥ ८०१ ॥ देवैः संचार्यमाणेषु क्रमेण च पुरः पुरः । नवसु स्वर्णपद्मेषु विन्यस्यन् पादपङ्कजे ॥ ८०२ ॥ अधिष्ठितः पुरोदेशं धर्मचक्रेण भास्वता । ततः समवसरणं पूर्वद्वाराऽविशद् विभुः ॥ ८०३ ॥ तत्र स्वागतिकमिव रणत् पट्चरणाखैः । त्रिः प्रदक्षिणयामास चैत्यवृक्षं जगद्गुरुः || ८०४ ॥ वदन् 'नमस्तीय' इति छन्दकाम्भोजकर्णिकम् । सिंहासनमलञ्चक्रे पूर्वाशाऽभिमुखः प्रभुः ।। ८०५ ॥ रत्नसिंहासनासीनान्यपराखपि दिवथ । स्वामिनः प्रतिविम्बानि विचक्रुर्व्यन्तरामराः || ८०६ ॥ प्रविश्य पूर्वद्वारेण निषेदुः साधवः क्रमात् । वैमानिकस्त्रियः साध्यचोर्ध्वा एवावतस्थिरे ॥ ८०७ ॥ प्रविश्यापीच्यद्वारेण नत्वाऽर्हन्तं च नैर्ऋते । अतिष्ठन् भवनपति - ज्योतिष्क- व्यन्तरस्त्रियः ॥ ८०८ ॥ प्रविश्य पश्चिमद्वारार्हन्तं नत्वाऽवतस्थिरे । भवनाधिपति ज्योतिर्व्यन्तराश्च मैरुद्दिशि ।। ८०९ ॥ प्रविश्य चोत्तरद्वारा भगवन्तं प्रणम्य च । क्रमेण तस्थुरैशान्यां वैमानिकनरस्त्रियः ॥ ८१० ॥ इत्थं तृतीये वग्रेऽस्याच्छ्रीमान् संघचतुर्विधः । तिर्यञ्चो मध्यमे वप्रेऽधस्तने वाहनानि तु ॥ ८११ ॥ तदा च राजपुरुषास्त्रिपृष्ठायार्धचक्रिणे । खामिनं समवसृतं संमैदादाचचक्षिरे ॥। ८१२ ॥ सद्यः सिंहासनं हित्वा पादुके परिमुच्य च । स्वामिदिक्सन्मुखं स्थित्वा ववन्दे खामिनं हरिः ।। ८१३ ॥ 15 स्थित्वा सिंहासने रूप्यकोटीरर्धत्रयोदश । स्वाम्यागमनशंसिभ्यः प्रददावचलानुजः ॥ ८१४ ॥ ऋद्ध्या महत्या सहितो बलभद्रेण शार्ङ्गभृत् । ययौ समवसरणं शरणं सर्वदेहिनाम् ।। ८१५ ।। तत्प्रविश्योत्तरद्वारा नत्वाऽर्हन्तं यथाविधि । सोऽनुशक्रं निषसाद समं मुसलपाणिना ।। ८१६ ॥ प्रणम्य स्वामिनं भूयो भक्तिभावितया गिरा । इन्द्रोपेन्द्रवलाः स्तोतुमेवमारेभिरे ततः ॥ ८१७ ॥
अमन्दानन्दनिःस्यन्ददायिने परमेश्वर ! । मोक्षकारणभूताय मोक्षायैव नमोऽस्तु ते ॥ ८१८ ॥ 20 तव दर्शनमात्रेऽपि कर्माण्यन्यानि विस्मरन् । आत्मारामी भवेद् देही किं पुनः श्रुतदेशनः ॥ ८१९ ॥ क्षीरोदः किमुदीर्णोऽसि कल्पवृक्षः किमुद्रतः । वर्णुकान्दोऽवतीर्णो वा स्वामिन्! संसारजन्मिनाम् ||८२० || uttarata विश्वास हैः क्रूरकर्मभिः । एकादशो जिनेन्द्रस्त्वं त्राता ज्योतिष्मतां पतिः ।। ८२१ ।। वक्ष्वाकुकुलं नाथ ! निसर्गेणापि निर्मलम् । निर्मलीक्रियतेऽत्यन्तं स्फटिकाइमेव वारिणा ।। ८२२ ॥ जगत्रयस्य निःशेषसंतापहरणात् प्रभो ! । पादमूलं तवाशेपच्छायाभ्योऽप्यतिरिच्यते ।। ८२३ || 25 त्वत्पादपद्मयोभृङ्गीभूय संप्राप्तसंमदः । नाहं भुक्त्यै न वा मुक्त्यै स्पृहयालुर्जिनेश्वर ! ॥ ८२४ ॥
भवे भवे भवदीयौ चरणौ शरणं मम | अभ्यर्थये जगन्नाथ ! त्वत्सेवा किं न साधयेत् ? ।। ८२५ ॥ इति स्तुत्वा विरतेषु वासवोपेन्द्रसीरिषु । श्रेयांसः श्रेयसां हेतुं प्रारेभे देशनामिति ॥ ८२६ ॥
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३४०
असावपारः संसारः स्वयम्भूरमणाब्धिवत् । कर्मोर्मिभिर्भ्राम्यतेऽस्मिंस्तिर्यगूर्ध्वमधो जनः || ८२७ ॥ चर्माम्भस्य निलेनेव भेषजेन रसा इव । कर्माण्यष्टापि जीर्यन्ति ध्रुवं निर्जरयैव हि ॥ ८२८ ॥ 30 संसारवीजभूतानां कर्मणां जरणादिह । निर्जरा सा स्मृता द्वेधा सकामा कामवर्जिता ॥ ८२९ ॥
ज्ञेया सकामा मिनाकामा त्वन्यदेहिनाम् । कर्मणां फलवत् पाको यद् उपायात् स्वतोऽपि च ।। ८३० ॥ सदोपमपि दीप्तेन सुवर्ण वह्निना यथा । तपोऽग्निना तप्यमानस्तथा जीवो विशुध्यति ।। ८३१ ॥
"ख्यानैः सं० ॥ ५ दक्षिणद्वारेण | २ वायव्यकोणे । ३ हर्षात् । ४ वर्षणशीलः वर्षुकः । + रधन्वनि मु० ॥ इत्यर्थये का० सं० ॥ ५ सीरी -बलदेवः । ६ ताम्-प्रतयुक्तानां निर्जरा ज्ञानपूर्विका अन्येषां तु अज्ञानपूर्विकः । ७ यथा फलं स्वयं पक्कं भवति, उपायादपि पक्कं क्रियते, एवं कर्मणां विपाकोऽपि बोध्यः ।
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प्रथमः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । अनशनमौनोदयं वृत्तेः संक्षेपणं तथा । रसत्यागस्त नुक्लेशो लीनतेति वहिस्तपः ॥ ८३२ ॥ प्रायश्चित्तं वैयावृत्यं स्वाध्यायो विनयोऽपि च । व्युत्सर्गोऽथ शुभध्यानं पोढेत्याभ्यन्तरं तपः॥ ८३३ ।। दीप्यमाने तपोवह्नौ बाह्ये चाभ्यन्तरेऽपि च । येमी जरति कर्माणि दुर्जराण्यपि तत्क्षणात् ॥ ८३४ ॥ यथा हि पिहितद्वारमुपायैः सर्वतः सरः । नवैर्नवैर्जलापूरैः पूर्यते नैव सर्वथा ॥ ८३५ ।। तथैवाश्रवरोधेन कर्मद्रव्यैर्नर्नवैः । अयं न पूर्यते जीवः संवरेण समावृतः ॥ ८३६ ॥ यथैव सरसस्तोयं संशुष्यति पुराचितम् । दिवाकरकरालांशुपातसंतापितं मुहुः ॥ ८३७ ।। तथैव पूर्वसंबद्धं सर्व कर्म शरीरिणाम् । तपसा ताप्यमानं सत् क्षयमायाति तत्क्षणात् ॥ ८३८ ॥ निर्जराकरणे बाह्याच्छ्रेष्ठमाभ्यन्तरं तपः । तत्राप्येकातपत्रत्वं ध्यानस्य मुनयो जगुः ॥ ८३९ ॥ चिरार्जितानि भयांसि प्रबलान्यपि तत्क्षणात । कर्माणि निर्जरन्त्येव योगिनो ध्यानशालिनः॥८४०॥ यथैवोपैचितो दोषः शोषमायाति लङ्घनात् । तथैव तपसा कर्म क्षीयते पूर्वसंचितम् ॥ ८४१ ॥ 10 यथा वा मेघसंघाताः प्रचण्डपवनैर्हताः । इतस्ततो विशीर्यन्ते कर्माणि तपसा तथा ॥ ८४२ ॥ प्रतिक्षणं प्रभवन्त्यावपि संवर-निर्जरे । प्रकृष्येते यदा मोक्षं प्रसुवाते तदा ध्रुवम् ॥ ८४३ ॥ निर्जरां निर्जरों कुर्वस्तपोभिर्द्विविधैरपि । सर्वकर्मविनिर्मोक्षं मोक्षमामोति शुद्धधीः ॥ ८४४ ।। एवं देशनया भर्तुर्बहवः प्राव्रजन् जनाः । सम्यक्त्वं प्रतिपेदाते बलभद्र-हरी पुनः ॥ ८४५ ॥
पूर्णायामादिपौरुष्यां व्यसृजद् देशनां विभुः । त्रिपृष्ठपुम्भिश्चानिन्ये चतुःप्रस्थमितो बलिः ॥८४६॥15 खाम्यग्रे तत्र चोत्क्षिप्तः सोऽग्राबधं सुरैः पतन् । शेषस्य पतितस्यार्धं राज्ञाऽन्यदितरैजनैः ॥ ८४७ ॥ निर्गत्य चोत्तरद्वारा मध्यवानिवेशिते । देवच्छन्द रत्नमये निषसाद ततः प्रभुः ॥ ८४८ ॥ षट्सप्ततिगणधरग्रामणी!शुभस्ततः । वाम्यविपीठाध्यासीनो विदधे धर्मदेशनाम् ॥ ८४९ ॥ सोऽपि द्वितीयपौरुष्यां व्यसृजद् धर्मदेशनाम् । स्वं खं स्थानं ययुः सर्वेऽपीन्द्रोपेन्द्रबलादयः ॥ ८५० ।। ततः स्थानात् प्रभुरपि प्रभाकर इवापरः । ज्ञानालोकं वितन्वानो विजहार महीतलम् ॥ ८५१॥ 20 साधूनां चतुरशीतिसहस्राणि महात्मनाम् । लक्षमेकं च साध्वीनां सहस्रत्रयसंयुतम् ।। ८५२ ॥ चतुर्दशपूर्वभृतां त्रयोदश शतानि तु । षट्सहस्यवधिमतां मनःपर्ययिणामपि ॥ ८५३ ॥ सार्धानि षट्सहस्राणि केवलज्ञानशालिनाम् । जातवैक्रियलब्धीनामेकादशसहस्यथ ॥ ८५४ ॥ पञ्चैव च सहस्राणि वादलब्धिमतां पुनः । लक्षद्वयं श्रावकाणां सहस्रा नवसप्ततिः ॥ ८५५ ॥ अष्टाचत्वारिंशता च सहस्रैरधिकानि तु । चत्वारि लक्षाणि तथा श्राविकाणां शुभात्मनाम् ॥ ८५६ ॥ 25 आकेवलाद् द्विमासोनवर्षलक्षैकविंशतिम् । महीं विहरतो जज्ञे परिवारः प्रभोरयम् ॥ ८५७ ।। मोक्षकालं विदित्वां खं प्रभुः संमेतमेत्य च । समं मुनिसहस्रेणानशनं प्रत्यपद्यत ॥ ८५८ ॥ मासमेकं तथा स्थित्वा शैलेशीध्यानमास्थितः । नभाकृष्णतृतीयायां धनिष्ठास्थे निशाकरे ॥ ८५९ ॥ अनन्तदर्शनज्ञानवीर्यानन्दमयात्मकः । समं तैर्मुनिभिः प्राप भगवान् परमं पदम् ॥ ८६० ॥ ___ कौमारे स्वामिनो वर्षलक्षणामेकविंशतिः । द्विचत्वारिंशदब्दानां लक्षाण्यवनिपालने ॥ ८६१॥ 30 प्रव्रज्यापालने वर्षलक्षाणामेकविंशतिः । इत्यायुश्चतुरशीतिवर्षलक्षाण्यजायत ।। ८६२ ॥ पइविंशतिसहस्रारवर्षपदक्षष्टिलक्षकैः । अन्धिशतेन चोनाया अब्धिकोटेयतिक्रमे ॥ ८६३ ॥
औनोदर्यम्-उनोदरताम्-बुभुक्षाऽपेक्षया स्वल्पं भोजनम् । २ व्रतयुक्तः । ३ तत्रापि-आम्यन्तरे तपसि ध्यानस्य श्रेष्ठत्वम् इति भावः। ४ वर्धितः शरीरदोषः। ५ कर्मनिर्भरणरूपाम्, निर्जरणम्-ध्वंसः। * भिर्विवि० सं० ॥ क्षं प्रामो० सं०॥ ६ "प्रस्थ:-'एक शेर' इति ख्यातस्य"-अमरकोशटीका-कां०२ श्लो. ८९ । . 'अग्राहि+अर्धम्' इति विभागः। ८ मालोकम्वेजा। त्वाऽथ सं०॥ १नभ:-श्रावणो मासः। पत्रिंश सं०॥
त्रिषष्टि, ४
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[पतुर्थ पर्व श्रीमच्छीतलनाथस्य मोक्षकालादनन्तरम् । श्रेयांसवामिनो जज्ञे निर्वाणगमनोत्सवः ।।८६४॥ युग्मम्॥ चक्रे निर्वाणकल्याणं संगीर्वाणैः पुरन्दरैः । महतामन्तकालोऽपि पर्वणे न पुनः शुंचे ॥ ८६५ ॥ द्वाविंशतान्तःपुरस्त्रीसहविलसन् सुखम् । त्रिपृष्ठोऽपि ततः खायुः कियदप्यत्यवाहयत् ॥ ८६६ ॥ खयम्प्रभायां जज्ञाते शार्ङ्गपाणेरुभौ सुतौ । ज्येष्ठः श्रीविजयो नाम कनिष्ठो विजयायः॥८६७॥ रतिसागरमग्नस्य त्रिपृष्ठस्यान्यदान्तिके । आजग्मुर्गायनाः केपि सौवर्यादतिकिन्नराः ॥ ८६८ ॥ गायन्तस्तेऽतिमधुररागवैविध्यबन्धुरम् । हृषीकेशस्य हृदयं जहुः सर्वकलानिधेः ॥ ८६९ ॥ सदा त्रिपृष्ठः पार्श्वस्थांश्चक्रे गीतगुणेन तान् । रज्यन्त्यन्येऽपि गीतेन किं पुनस्तदिग्रणीः ॥ ८७० ॥ अन्यदा तु विभावयाँ विष्णोस्तल्पे निषेदुषः । तैस्तारं गातुमारेभे गन्धर्वैरिव वज्रिणः॥,८७१ ॥ तद्गीताक्षिप्तहृदयः करीवाथ जनार्दनः । एकं वारस्थितं शय्यापालमेवं समादिशत् ॥ ८७२ ॥ निद्राममाणेष्वसासु गायतो गायनानमून् । विसृजेस्त्वं वृथाऽऽयासः स्वामिन्यनवधायके ॥ ८७३ ॥ सथेति प्रतिपेदे स शय्यापालः प्रभोर्वचः । शाङ्गिणोऽपि क्षणानिद्रा मुंद्रयामास लोचने ॥ ८७४ ॥ शय्यापालोऽपि तान गीतलोभाद् विसृजति स न । विषयाक्षिप्तमनसा गैलेद्धि खामिशासनम् ॥८७५॥ यामिन्याः पश्चिमे यामे प्रबुद्धोऽधोक्षजस्ततः । तथैव गायतोऽश्रौषीत् तानक्षीणकलखरान् ॥ ८७६ ॥ किं विसृष्टास्त्वया नामी स्पष्टकष्टास्तपस्विनः । इति पृष्टस्त्रिपृष्ठेन शय्यापालोऽब्रवीदिदम् ॥ ८७७॥ अमीषामेव गीतेन व्याक्षिप्तहृदयः प्रभो! । व्यस्राक्षं गायनान् नैतान् व्यस्मार्प स्वामिशासनम् ॥८७८॥ ततः प्रकुपितः सद्यः कृत्वा चाकोरसंवरम् । प्रातरके इव प्राची सभामध्यास्त केशवः ॥ ८७९ ॥ तत्र स्मृत्वा निशावृत्तं शय्यापालं प्रदर्श्य तम् । आरक्षपुरुषानेवं समादिक्षदधोक्षजः ॥ ८८०॥ अमुष्य प्रियगीतस्य कर्णयोः क्षिप्यतां ध्रुवम् । तप्तं त्रपु च तानं च दोषः कर्णकृतो ह्ययम् ॥ ८८१॥ शय्यापालं तमेकान्ते तेऽपि नीत्वा तथा व्यधुः । दुर्लक्ष्यं शासनं ह्युग्रशासनानां महीभुजाम् ।। ८८२ ॥ शय्यापालोऽपि पश्चत्वं प्राप वेदनया तया । दुर्विपाकं वेदनीयकर्माऽवभाञ्च शार्ङ्गभृत् ॥ ८८३ ॥ नित्यं विषयसंसक्तो राज्यमूर्छापरायणः । खदोलावलेपेन तृणाय गणयञ्जगत् ।। ८८४ ॥ प्राणातिपाते निःशङ्को महारम्भपरिग्रहः । क्रूरेणाध्यवसायेन शीर्णसम्यक्त्वभूषणः ॥ ८८५ ॥ नारकायुर्निबध्याब्दलक्षाशीतिं चतुर्युताम् । अतीत्यायुस्त्रिपृष्ठोऽगात् सप्तमी नरकावनिम् ॥ ८८६ ॥
तत्रावासे प्रतिष्ठाने पञ्चधन्वशतोन्नतः । त्रयस्त्रिंशत्सागरायुः सोऽपश्यत् कर्मणां फलम् ॥ ८८७ ॥ 25 त्रिपृष्ठस्साब्दसाहस्राः कौमारे पञ्चविंशतिः । तावन्तो मण्डलीकत्वेऽब्दसाहस्रं च दिग्जये ।। ८८८ ॥
ध्यशीतिवर्षलक्ष्येकोनपश्चाशत्सहस्रयुक् । राज्ये चेति चतुरशीत्यब्दलक्षायुषो मितिः ॥ ८८९ ॥ अथाचलोऽपि शोकेन भ्रातृपञ्चत्वजन्मना । परावभूवे सद्यः खर्भानुना भानुमानिव ॥ ८९० ॥ विवेश्यप्यविवेकीव भ्रातृस्नेहवशादथ । करुणखरमित्युच्चैर्विललाप हलायुधः ॥ ८९१ ॥
उत्तिष्ठ बन्धो ! निर्बन्धः कोऽयं शयनकर्मणि । अदृष्टपूर्वमालस्यं किं नृसिंहस्य तेऽधुना ॥ ८९२ ।। 30 द्वारि भूपतयः सर्वे त्वत्पादान द्रष्टुमुत्सुकाः । अदर्शनानाप्रसादस्तेषु युक्तस्तपस्विषु ॥ ८९३ ॥ क्रीडयाऽपि न ते मौनमियद् बान्धव ! युज्यते । भृज्यते हृदयं त्वद्वाक्सुधासारं विना मम ॥ ८९४ ॥
गीर्वाण:-देवः । २ उत्सवाय । शोकाय । ४ गानोपजीविनः । ५ सुस्वरत्वेन किलरेग्योऽपि अतिसुन्दरगानशीलाः । * धुरं रा.सं.का.॥ ६ संगीतविदा श्रेष्ठः। शय्यायाम् । ८ वार:-परिपाटिः, 'वारो' इति भाषायाम् ! ९ असावधाने । • मिमील, 'मीच्यां' इति भाषायाम् । ११ गलेत्-विस्मरेत् । १२ विष्णुः । १३ आकारगोपनम् । १४ सभायाम् उपविष्टः, "अधेः शी" [२.२.२०] इति द्वितीया। तां द्रुतम् सं०॥ १५ 'तृणाय' इत्यत्र "मभ्यस्यानावादि." [२.१.३५.] इति सूत्राचतुर्थी। १६ वर्षलक्षी+एकोन इति विभागः। ७ स्वर्भानुः राहुः। आग्रहः। ९भूमाते-पय-चक्षते ।
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वा सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । महोत्साहस्य सततं गुरुभक्तस्य वत्स ! ते । निद्रा च मदवज्ञा च न संभवति सर्वथा ॥ ८९५ ॥ हा! हतोऽस्म्युग्रविधिना किमापतितमस्य मे । इति क्रन्दन् महीपृष्ठे मुशली मूञ्छितोऽपतत् ।। ८९६ ॥ लब्धसंज्ञः क्षणेनापि समुत्थाय च लागली । हा! भ्रातर्घातरित्युच्चैः क्रन्दन्नकेऽग्रहीद्धरिम् ॥ ८९७ ॥ वृद्धैः प्रबोधितः सोऽथ धैर्यमालम्ब्य च क्षणम् । अनुजस्याङ्गसंस्कारादिकं कर्म समापयत् ॥ ८९८ ॥ कृतौर्ध्वदेहिको भ्रातुः सरणेन मुहुर्मुहुः । मुमोच लोचनैर्वारि श्रावणाम्भोदवद् बलः ॥ ८९९ ॥ 5 महाटण्यामिवोद्याने श्मशान इव वेश्मनि । गृहस्रोतःखिंव क्रीडासरःस्रोतखिनीष्वपि ॥ ९०० ॥ अपि बन्धुसमाजेषु वैरिवृन्देष्विवानिशम् । न रतिं बलभद्रोऽगादल्पवारिणि मत्स्यवत् ॥९०१॥ युग्मम् ॥ श्रेयांसखामिपादानां सरन् श्रेयस्करी गिरम् । संसारासारतां ध्यायन् विषयेभ्यः पराशुखः ॥९०२॥ खजनाना परोधात् स्थित्वाऽहानि च कानिचित् । ययौ बलोधर्मघोषाचार्यपादान्तमन्यदा॥९०३।। युग्मम् शुश्राव देशनां तस्मादर्हद्वागनुवादिनीम् । विशेषाद् भवनिर्वेदैमाससाद तयाँ बलः॥९०४॥ 10 सद्यो जग्राह दीक्षां च तत्पादान्ते स शुद्धधीः । अनुष्ठाने प्रवर्तन्ते ज्ञात्वा खलु महाशयाः ॥९०५॥ स सम्यक् पालयन मूलगुणोत्तरगुणान् गुणी । सर्वत्र समतां विभ्रत् सहमानः परीपहान् ॥ ९०६ ॥ वायुरिवाप्रतिबद्धो भुजङ्गम इवैकदृक् । कश्चित् कालं विजहार ग्रामा-ऽऽकर-पुरादिषु ॥९०७॥ युग्मम् ।।
अथाब्दलक्षाण्यतिवाह्य पश्चाशीति निसर्गामलचित्तवृत्तिः । कर्माणि सर्वाण्यपि घातयित्वा प्रापाचलः सिद्धिपदे निवासम् ॥ ९०८॥ 15 ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थे पर्वणि श्रीश्रेयांसजिनत्रिपृष्ठाचलाश्वग्रीवचरितवर्णनो
नाम प्रथमः सर्गः संपूर्णः॥
बळदेवः। * °व सुखं क्रीडास्रोत सं०॥ २ आमहात्। ३ वैराग्यम् । ६०००सं०का॥
तयाचलः सं०॥
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[चतुर्य पर्व
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
द्वितीयः सर्गः। श्रीवासुपूज्यचरितम् ।
नमः श्रीवासुपूज्याय विश्वपूज्याय तायिने । इन्द्रोपेन्द्रकिरीटाग्रुघृष्टाशिनखपतये ॥१॥ अर्हन्तमिव रूपस्थध्यानस्थो विश्वपावनम् । वक्ष्यामि तस्य चरितं चन्द्रादप्यतिनिर्मलम् ॥२॥ पुष्करवरद्वीपार्धे प्राग्विदेहविभूषणे । विजये' मङ्गलावत्यामस्ति पू रत्नरञ्चया ॥३॥ तयां पनोत्तरो नाम विश्वपद्मोत्तरः सदा । बभूव राजा रजनीराजराजेव वल्लभः ॥ ४ ॥ अधारयम् मनसि स जैनं शासनमुज्वलम् । तदीयमिव राजानो नित्यं शिरसि भक्तितः ॥५॥ तस्य लक्ष्मीश्च कीर्तिश्च गुणानामेकवेश्मनः । युग्मजाते इव भृशं ववृधाते सहैव हि ॥६॥
पृथ्वी समुद्रसंव्यानां पृथ्वीपतिशिरोमणिः । परिखामेखलामेकपुरीमिव शशास सः ॥७॥ 10 चपलाचपला लक्ष्मीर्वयोवद् गत्वरं वपुः । पद्मदलायोबिदन्दुवच पुण्यं विनश्वरम् ॥ ८॥
विश्लेषिणो बन्धवोऽपि मार्गसंपृक्तपान्थवत् । इत्यजस्रं भावयन् स भववैराग्यमासदत् ॥ ९॥ युग्मम् ॥ वज्रनाभगुरोः पादमूले गत्वा महामनाः । अन्येधुराददे दीक्षां मुक्तिश्रीप्राप्तितिकाम् ॥१०॥ अर्हनत्यादिभिस्तैस्तैः स्थानकैः कैश्चिदुज्वलैः । सुधीरुपार्जयामास तीर्थकृनाम कर्म सः ॥ ११ ॥ खड्गधारातिनिशितं पालयित्वा चिरं व्रतम् । विपद्याभूत सुरः कल्पे प्राणताख्ये महर्द्धिकः ॥१२॥
इतश्च जम्बूद्वीपस्य भरतार्धेत्र दक्षिणे । पुर्यस्ति नाम्ना चम्पेति चर्पकोत्सवद् भुवः ॥ १३ ॥ तत्र चैत्येषु रत्नाश्मभित्तिषु प्रतिबिम्बितः । वैक्रियाणीव रूपाणि धारयन् लक्ष्यते जनः ॥ १४ ॥ चन्द्राश्मबद्धः सोपानैर्निशि निःस्यन्दिवारिभिः । तत्र स्वयञ्जलाः क्रीडादीर्घिकाः प्रतिमन्दिरम् ॥ १५ ॥ सपधूमवल्लीभिर्वासागाराणि तत्र च । पातालभवनानीवोरगीभिर्भान्त्यनेकशः ॥१६॥ क्रीडत्पुरवधूकानि तत्र क्रीडासरांसि च । निर्यदप्सरसः क्षीरोदधेर्दधति विभ्रमम् ॥ १७ ॥ लीलया षड्जबहला गायन्त्यः षड्जकैशिकीम् । भवन्ति केकिकेकानां तत्र संवादिकाः स्त्रियः॥१८॥ ताम्बूलीबीटकभृतो भान्ति तत्रेभ्यवेश्मसु । नार्योऽध्यापयितुं हस्तन्यस्तक्रीडाँशुका इव ॥ १९॥ तत्रासीद् वासव इवौजसा वसुरिव त्विषा । वसुपूज्य इतीक्ष्वाकुवंश्यो वसुमतीपतिः ॥२०॥ स कुर्वन् गर्जितमिव याचकाहींनडिण्डिमैः । पृथिवीं प्रीणयामास धनैर्वाभिरिवाम्बुदः ॥ २१ ॥ विचेरुः क्रीडया पृथ्व्यां तस्यानीकान्यनेकशः । न पुनर्दिग्जयकृते प्रतापाक्रान्तविद्विषः ॥ २२ ॥ दुष्टानां शासके तसिनाज्ञासारे महीभुजि । दस्युनाम नामकाण्डेष्वदृश्यत जनेषु न ॥ २३ ॥ पवित्रं धारयामास हृदि सर्वज्ञशासनम् । श्रीवत्समिव शश्वत् स वत्सलो धर्मशालिषु ॥ २४ ॥ खान्ववायसरोहंसी रतिरूपविजित्वरी । जया नाम महादेवी तस्यासीत् प्रीतिभाजनम् ॥ २५॥ सा जाह्नवीव गम्भीरा वक्रमन्थरगामिनी । पूर्वाम्भोधिमिवास्तापं वसुपूज्यमनोऽविशत् ॥ २६ ॥
* अमृष्टांति सं० का० ॥ + ये पुष्कलाव सं०॥ १ समग्रलक्ष्म्या उत्तमः। नीजानिवजनवल्लभः सं० का०॥ २ समुद्रवस्खाम् । इणिः । सर्वो परिखामेक सं०॥ ३ चपला-विद्युत् , चपला-चञ्चला। ४ वियोगिनः। ५ स्थानैर्ष. बाहगोत्रकः। ६ चम्पकशेखरकवत् । * लक्षितो ज° सं०॥ ७ सहजसिद्धजलाः। हलां गा का० सं०॥ ८ मयूरध्वनीनाम्। संवाहिकाः सं०॥ ९ 'बीटक' इति भाषायाम्-'बीडं। १० क्रीडाथै पालिताः शुकाः हस्ते स्थापिता याभिः।
वसुः-सूर्यः। १२ याचकानाम् भामनणाय वाचमानैः डिण्डिमैः। १३ दस्योः नामानि केवलं कोशे एव । धर्मशीलि. मु.॥ स्याभूतु सं०॥ १४वक्रम्, मन्थरम्-मन्दं मन्दम् । १५ अस्ताघम्-भाषायाम् 'अथाग' इति ।
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द्वितीयः सर्गः1
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । सद्भक्त्या परमात्मेव शुद्धस्फटिकनिर्मले । वसुपूज्यनृपोऽप्यस्याः सदा चेतस्यवर्तत ॥२७॥ रूपेण लवणिम्ना च गुणैस्तैश्चानुरूपयोः । तयोर्विलसतोः कालः कोऽप्यद्वैतसुखो ययौ ॥ २८ ॥ इतः कल्पे प्राणताख्ये पद्मोत्तरमहीपतेः । जीवः स्वमायुरुत्कृष्टं सुखमनोऽत्यवाहयत् ॥ २९ ॥ ज्येष्ठस्य शुद्धनवम्यां चन्द्रे शतभिषग्गते । स च्युत्वा प्राणताज्जीवो जयाकुक्षाववातरत् ॥ ३०॥ ईक्षाश्चक्रे तदानीं च तीर्थजन्मसूचकान् । सुखसुप्ता जयादेवी महाखमांश्चतुर्दश ॥ ३१॥ मृगाङ्कमभ्रलेखेवाद्रिगुहेव मृगाधिपम् । तं गर्भ धारयामास जया स्वामिन्यनुत्तमम् ॥ ३२॥ फाल्गुनश्यामभूतेष्टातिथौ भेऽपि च वारुणे । रक्तवर्ण महिषाकं साऽसूत समये सुतम् ॥ ३३ ॥ संजातासनकम्पाः षट्पञ्चाशद्दिकुमारिकाः । स्वामिनः स्वामिमातुश्च सूतिकमैत्य चक्रिरे ॥३४॥ शक्रोऽपि पालकारूढस्तत्रैत्य सपरिच्छदः । स्वामिवत् स्वामिभवनं प्रदक्षिण्यकरोद् द्रुतम् ॥ ३५ ॥ सत् प्रविश्य जयादेव्या दत्त्वाऽपस्तापनी हरिः । पार्श्वेऽर्हत्प्रतिबिम्बं च न्यस्याभूत् पञ्चमूर्तिकः ॥ ३६ ॥10 मूत्यैकयाऽग्रहीनाथमातपत्रमथान्यया । द्वाभ्यां तु चमरे वल्गनन्यया तु पुरो ययौ ॥ ३७॥ सुमेरावमराधीशोऽतिपाण्डुकम्बलां शिलाम् । गत्वा सिंहासन उपाविक्षदकाहितप्रभुः ॥ ३८॥ अथाच्युतप्रभृतयस्त्रिषष्टिरपि वासवाः । खामिनं स्वपयामासुः कुम्भस्तीर्थपयोभृतैः ॥ ३९॥ ईशानकल्पाधिपतेरके जिनपतिं ततः । शक्रो निवेशयामास खकीय इव चेतसि ॥४०॥ जिनेन्द्रस्य चतसृषु ककुप्सु स्फाटिकान् वृषान् । चतुरो भक्तिचतुरो विचकार पुरन्दरः ॥४१॥ 15 तद्विषाणोत्थितैस्तोयैः स्त्रपयामास स प्रभुम् । अन्येन्द्रनपनविधिवलक्षण्यविचक्षणः ॥ ४२ ॥ उक्ष्णस्तानुपसंहृत्य स्वामिनोऽङ्गं प्रमृज्य च । विलिम्पति स्म गोशीर्षचन्दनेन दिवस्पतिः ॥४३ ॥ दिव्यैर्विभूषणैर्वस्त्रैरभ्यर्च्य कुसुमैरपि । रचिताऽऽरात्रिको नाथमस्तवीदिति वासवः ॥४४॥
चक्रिणां नैव चक्रेण गदया नार्धचक्रिणाम् । न चेशानस्य शूलेन न वज्रेण ममापि वा ॥४५॥ न चास्त्रैरपरेन्द्राणां यानि भेद्यानि जातुचित् । तानि कर्माणि भिद्यन्ते दर्शनेनापि नाथ! ते ॥ ४६॥ 20 नैव क्षीरोदवेलाभिर्न प्रभाभिः क्षपापतेः । नैव वारिधरासारैर्न च गोशीर्षचन्दनैः ॥४७॥ न वा निरन्तर रम्भारामैः शाम्यन्ति ये खलु । सर्वे ते दुःखसंतापाः शीर्यन्ते दर्शनेन ते ॥४८॥ न ये नानाविधैः काँथैचूर्णैश्च विविधैर्न ये । न च प्राज्यैः प्रलेपैर्ये न च ये शस्त्रकर्मभिः ॥४९॥ न च मत्रप्रयोगैर्ये छिद्यन्ते जातु देहिनाम् । आमयास्ते प्रलीयन्ते दर्शनेनापि ते प्रभो ! ॥५०॥ खलूक्त्वा यदि वाऽनल्पमल्पमेतद् ब्रवीम्यहम् । यत् किश्चिदप्यसाध्यं तत् साध्यते दर्शनेन ते ॥५१॥25 त्वदर्शनस्यास्य फलमिच्छाम्येतजगत्पते ! । भूयो भूयः संप्रतीव भवद्दर्शनमस्तु मे ॥५२॥ एवं जिनपतिं स्तुत्वा गृहीत्वा च दिवस्पतिः । गत्वा पार्श्वे जयादेव्या मुमोच प्रणनाम च ॥ ५३ ॥ हृत्वाऽपस्खापनी देव्यास्तच्चाहत्प्रतिरूपकम् । ततो द्यां प्रययौ शक्रो मेरुतोऽन्ये तु वासवाः ॥ ५४ ॥ उत्सवं वसुपूज्योऽपि चक्रे सूर्य इवोदयम् । चेतांसि कमलानीव जगतोऽपि विकासयन् ॥ ५५ ॥ वसुपूज्य-जयादेव्यौ वासुपूज्य इति स्वयम् । यथार्थ नाम चक्राते शुभेऽहनि जगत्पतेः ॥५६॥ 30 शक्रसंक्रमिताङ्गुष्ठसुधया स्वाम्यवर्धत । धांव्योऽन्यकर्मभिर्धात्र्योऽर्हतां न स्तन्यदा यतः ५७॥ पञ्चभिर्वासवादिष्टधात्रीभिः परमेश्वरः । छायावत् सहयात्रीभिर्लाल्यमानो व्यवर्धत ॥ ५८॥ रत्नवर्णमयैर्दिव्यैः कदाचिदपि गेन्दुकैः । शङ्खलाभिर्वज्ररत्नसंकुलाभिः कदाचन ॥ ५९ ॥
* देवी देवी व सं० ॥ १ "भूतेष्टा तु चतुर्दशी"-अभिधानचिन्ता० कां० २ श्लो० ६५। २ वल्गन् वेगेन गच्छन् । तेषां शृङ्गोत्थितस्तोयैः सं०॥ ३ काथा:-भाषायाम् 'काढा-उकाळा' इति। ४ धाग्यो मातरः। दानतःसं.. ५ सहनिवासाभिः। ६ गेन्दुकाः-भाषायाम् 'गेंद-दडा' इति । मलाः 'सांकल' इति भवेत् ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीत कदाचिच भ्रमरकैामिभिर्भमरैरिव । कदाऽप्यामलकीवृक्षारोहणैः सर्पणं मिथः ॥६॥ कदाचिद् वेगयानेनान्तर्धानेन कदाचन । कदाचित् फालदानेन कदाऽप्युत्पतनेन च ॥३१॥ कदाचिद् वारितरणैः सिंहनादैः कदाचन । कदाचिन्मुष्टियुद्धेन नियुद्धेन कदाचन ॥ ६२॥ आगतैः सवयोभूय देवासुरकुमारकैः । बाल्योचितं प्रभुः क्रीडन् व्यत्यलशिष्ट शैशवम् ॥ ६३ ।।
॥ पञ्चमिः कुलकम् । स सप्ततिधनुस्तुङ्गः सर्वलक्षणलक्षितः । मृगीदृशां संवैननं प्रपेदे यौवनं प्रभुः॥६४॥ वसुपूज्य-जयादेव्यौ वात्सल्यादपरेऽहनि । इत्यूचाते वासुपूज्यं भवसौख्यपरामुखम् ॥ ६५ ॥ जातेनापि त्वयाऽस्माकं जगतश्च मनोरथाः । पूर्णास्तथाऽपि वक्ष्यामः कस्तृप्येदमृतस्य हि ॥ ६६ ॥ मध्यदेशे वत्सदेशे गौडेषु मगधेषु च । कोसलेषू तोसलेषु तथा प्राग्ज्योतिषेष्वपि ॥ ६७ ।। नेपालेषु विदेहेषु कलिङ्गेधूत्कलेषु च । पुण्ड्रेषु ताम्रलिप्तेषु मूलेषु मलयेष्वपि ॥ ६८॥ मुद्गरेषु मल्लवर्तेषु च ब्रह्मोत्तरेषु च । अपरेष्वपि देशेषु पूर्वाशाभूषणेष्वपि ॥ ६९ ॥ डाहलेषु दशार्णेषु विदर्भेष्वश्मकेषु च । कुन्तलेषु महाराष्ट्रेष्वन्ध्रेषु मुरलेषु च ॥ ७० ॥ क्रथ-कैशिक-सूर्पार-केरल-द्रमिलेषु च । पाण्ड्य-दण्डक-चौडेषु नाशिक्य-कौङ्कणेषु च ॥ ७१ ।।
कौवेर-चानवासेषु कोल्लाद्रौ सिंहलेषु च । अपरेष्वपि देशेषु दक्षिणाशाविवर्तिषु ॥ ७२ ॥ 15 अपरेष्वपि राष्ट्रेषु सुराष्ट्र-त्रिवणेषु च । दशेरकेष्वर्बुदेषु कच्छेष्वावर्तकेषु च ॥ ७३ ॥
तथा ब्राह्मणवाहेषु यवनेष्वथ सिन्धुषु । अपरेष्वपि राष्ट्रेषु पश्चिमामध्यवर्तिषु ॥ ७४ ॥ शक-केकय-वोकाण-हूण-वानायुंजेषु च । पञ्चालेषु कुलूतेषु तथा कश्मीरकेष्वपि ॥ ७५ ॥ कम्बोजेषु वाल्हीकेषु जाङ्गलेषु कुरुष्वथ । कौबेरीवर्तिषु तथा मण्डलेष्वपरेष्वपि ॥ ७६ ।।
याम्याभरतक्षेत्रसीमसेतुनिभे गिरौ । वैताट्येऽप्युभयश्रेण्यो नाजनपदेषु च ॥ ७७ ।। 20 कुलीनाः कृतिनः शूरा महाकोशा यशस्विनः । चतुरङ्गबलोपेताः प्रजापालनविश्रुताः ॥ ७८ ॥
निष्कलङ्काः सत्यसंधा नित्यं धर्मेऽनुरागिणः । नरेन्द्राः खेचरेन्द्राश्च ये केचिदिह तेऽधुना ॥ ७९ में तुभ्यं दातुं निजाः कन्या महाप्राभृतपाणिभिः । अश्रान्तं प्रेषितैदूतैः प्रार्थयन्ते कुमार ! नः ॥ ८॥
॥ चतुर्दशभिः कुलकम् ॥ तेषामसाकमप्युच्चैः पूर्यतां तन्मनोरथः । तव तत्कन्यकानां च विवाहोत्सवदर्शनात् ॥ ८१॥ गद्यतां राज्यमप्येतत कुलक्रमसमागतम । वाकेऽस्माकमचितं व्रतादानमतः परम ॥ ८२॥ वासुपूज्यकुमारोऽपि व्याजहारेति ससितम् । भवतां युक्तमेवैतत् पुत्रप्रेमोचितं वचः ॥१३॥ परं संसारकान्तारे भ्रामंभ्राममसावहम् । सार्थवाहबलीवर्द इव खिन्नोऽसि संप्रति ॥ ८४ ॥ कुत्र कुत्र न वा देशे कुत्र कुत्र पुरे न वा । कुत्र कुत्र न वा ग्रामे कुत्र कुषाकरे न वा ॥५॥
कुत्र कुत्र न वाऽटव्यां कुत्र कुत्र गिरौ न वा । कुत्र कुत्र न वा नद्यां कुत्र कुत्र नदे न वा ॥ ८६ ॥ 30 कुत्र कुत्र न वा द्वीपे कुत्र कुत्रार्णवे न वा । नानारूपपरावतैरनन्तकालमभ्रमम् ॥ ८७॥
एष छेत्स्यामि संसारं नानायोनिभ्रमास्पदम् । अळं कन्योद्वाहराज्यैः संसारतरुदोहदैः ॥ ८८ ॥
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भ्रमरकाः-'भमरडा' इति भाषायाम्। २ पणः-प्रतिक्षावाक्यम्, 'होड-शरत' इति भाषायाम्। ३ सन्तान भाषायाम् 'संताई जर्बु'-'संताकूकडी' नामनी रमत । ४ बाहुयुद्धेन । ५ वशीकरणम् । * षु सास सं०॥ षु मुझे सं०॥ 1शिक्ये कोङ्क सं०॥ कावेर सं०॥ ॥ देवसमेषु लाटेषु सुराष्ट-द्रविणेषु च सं०॥ व्यानर्तका सं०॥ नायजे सं०॥ # क्षेत्रे सी सं०॥ मारते । सं०॥ मन्तं का-सं०॥
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द्वितीयः सर्गः ]
त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरितमहाकाव्यम् ।
प्रव्रज्या - केवलज्ञान-निर्वाणगमैनैरपि । जन्मनैवोत्सवो भावी तातस्य जगतोऽपि च ॥ ८९ ॥ वसुपूज्यनृपोऽप्येवमभ्यधात् सास्रलोचनः । भवन्तं हन्त ! जानामि संसारतरणोत्सुकम् ॥ ९० ॥ इदं जन्म पारमिव भवाम्भोधेस्त्वमासदः । ज्ञातं तैस्तैर्महास्वनैस्तीर्थकुज्जन्मसूचकैः ॥ ९१ ॥ असंशयं त्वया तीर्ण एवैष भवसागरः । दीक्षा - केवल - निर्वाणोत्सवाश्च खलु भाविनः ॥ ९२ ॥ अवान्तरोत्सवमिमं किं तु वाञ्छामि तावकम् । अप्यस्मत्पूर्वपुरुषैर्मुमुक्षुभिरनुष्ठितम् ॥ ९३ ॥ तथा क्ष्वाकुवंशादिर्भगवानृषभध्वजः । सुमङ्गलां सुनन्दां चोपयेमे पितृशासनात् ॥ ९४ ॥ पितुरेवाज्ञया राज्यं ससर्जापालयच्च सः । भोगांश्च शुक्त्वा समये प्रव्रज्यां समुपाददे ॥ ९५ ॥ पश्चादप्यात्तया मोक्षं दीक्षया प्राप स प्रभुः । मोक्षो ग्राम इवासन्नः सुप्रापस्त्वादृशां खलु ।। ९६ ।। अन्ये प्यजितनाथाद्याः श्रेयांसान्ताः पितुर्गिरा । उदूहुरुहुंश्व महीं ततो मोक्षमसाधयन् ॥ ९७ ॥ भवानपि करोत्वेवं पूर्वाननुकरोतु च। विवाह- राज्यवहन - दीक्षा - निर्वाणसाधनैः ॥ ९८ ॥ वासुपूज्य कुमारोऽपि सश्रयमभाषत । तात ! ज्ञाताऽस्मि पूर्वेषां सर्वेषां चरितान्यहम् ॥ ९९ ॥ किं त्वत्र संसारपथे न हि केनापि कस्यचित् । स्वकुलेऽन्यकुले वाऽपि कर्मसादृश्यमीक्ष्यते ॥ १०० ॥ सावशेषाणि कर्माणि तेषां भोगफलानि हि । तद् तानि चिच्छिदुर्भोगैस्ते ज्ञानत्रयधारिणः ॥ १०१ ॥ न मे भोगफलं कर्म किञ्चिदप्यवशिष्यते । मोक्षप्रत्यूहभूतं तन्नैवमादेष्टुमर्हथ ॥ १०२ ॥
लिमिः पार्श्व इति भाविनोऽपि त्रयो जिनाः । अकृतोद्वाहसाम्राज्याः प्रवजिष्यन्ति मुक्तये ॥ १०३ ॥ | 15 श्रीवरश्वरमश्वान्नीषोग्येन कर्मणा । कृतोद्वाहोऽकृतराज्यः प्रवजिष्यति 'सेत्स्यति ॥ १०४ ॥ ततश्च कर्मवैचित्र्यात् पन्था नैकोऽर्हतामपि । विचार्येत्यनुजानीथ मा भूत प्रेमकातराः ॥ १०५ ॥ एवं प्रबोध्य पितरौ वर्षलक्षेषु जन्मतः । गतेष्वष्टादशस्वीशो जज्ञे दीक्षार्थमुत्सुकः ॥ १०६ ॥ ज्ञात्वा चासनकम्पेन स्वामिदीक्षाक्षणं क्षणात् । ब्रह्मलोकादुपाजग्मुस्तत्र लौकान्तिकामराः ॥ १०७ ॥ ते त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य प्रणम्य च जगद्गुरुम् । इति विज्ञपयामासुः स्वामिन् ! तीर्थं प्रवर्तय ॥ १०८ ॥ 20 एवं विज्ञाप्य यातेषु तेषु कल्पं निजं पुनः । अदत्त वार्षिकं दानमवदानपरः प्रभुः ॥ १०९ ॥ तानान्तेभ्येत्य दीक्षाभिषेकोत्सवमीशितुः । इन्द्राश्चक्रुः प्रावृडन्त इन्द्रोत्सवमिव प्रजाः ॥ ११० ॥ तत पृथिवीं नाम सुरासुर - नरैः कृताम् । समारुरोह शिबिकां सिंहासनविभूषिताम् ॥ १११ ॥ तत्राङ्घ्रिपीठन्यस्ताङ्घिर्मणिसिंहासनस्थितः । राजहंस इव स्वर्णाम्भोरुहोत्सङ्गमास्थितः ॥ ११२ ॥ कैचिदग्रस्थितैः स्वस्वशस्त्रोल्लोलनलालसैः । दिव्यच्छत्रकरैः कैश्चित् कैश्चिच्चामरधारिभिः ॥ ११३ ॥ तालवृन्तधेरैः कैश्चित् कैचिंच्चामरधारिभिः । पुष्पदामधरैः कैश्चिद् वासवैः परिवारितः ॥ ११४ ॥ अमरैरसुरैर्मत्यैः सेव्यमानो जगत्पतिः । विहारगृहमित्युच्चैर्ययावथ वनोत्तमम् ॥ ११५ ॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥
घृताङ्कराखादहः परपुटैः कलखनैः । प्रस्तूयमानस्तवन इव भक्तिप्रकर्षतः ॥ ११६ ॥ अनिलान्दोलन स्रस्तकुसुमस्तबकच्छलात् । प्रदीयमानाघ इव प्रत्यग्राशोकपादपैः ॥ ११७ ॥ उच्छलच्चम्पकाशोकमकरन्दापदेर्शतः । पादाचयै ढौक्यमानपाद्योदक इवामरैः ॥ ११८ ॥ अमन्दलवली पुष्पमधुपानोन्मदिष्णुभिः । रोलॅम्बललनावृन्दैः कृतोल्लुरिवोच्चकैः ॥ ११९ ॥
* मनैर्मम । सं० ॥ १ तव इदम् । २ परिणीताः । ३ ऊढाः- धृता इत्यर्थः । ४ सस्नेहम् । ५ उद्वाहः- विवाहः । १ सिद्धो भविष्यति । ↑ "ल्यं जिनः पु' सं० ॥ ७ अवदानम्-पराक्रमः । प्रभोः सं० ॥ ८ उत्सङ्गः - क्रोडः । ९ उल्लालनम् - भाषायाम् - अकालवं । 8 °श्चित् स्तवनकारिभिः । सं० ॥ १० कोकिलैः । ११ प्रत्यग्रः नवीनः । १२ अपदेशतः - मिषतः । ॥ पादाचान्यै दौं° सं० ॥ १३ रोलम्बो भ्रमरः । ** कृतोल्लास इवो -सं० ॥ १४ उद्धलुः मङ्गलध्वनिः ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
उत्फुल्लसुमनोभूरिभाराऽऽनमितमूर्धभिः । कर्णिकारैरुपक्रान्तनमस्कार इवाधिकम् ॥ पुष्पाभरणरम्याभिर्लोलपल्लवपाणिभिः । वासन्तीभिः प्रमोदेनारब्धनृत्य इवाग्रतः ॥ शोभाविशेषं जनयँल्लता-पादप- वीरुधाम् । प्रविवेश तदुद्यानं स्वामी मंधुरिवापरः ।।
15
5 शिविकात स्तदोत्तीर्य स्वामी सग्भूषणादिकम् । मुमोच फाल्गुने मासि पत्राणीव महीरुहः ॥ इन्द्रन्यस्तं देवदूष्यं स्कन्धदेशे समुद्वहन् । चतुर्थेन पञ्चमुष्टिकेशोत्पाटनपूर्वकम् ॥ १२४ ॥ फाल्गुनस्याभावास्यायां वारुणे भेऽपरेऽहनि । राज्ञां पह्निः शतैः सार्धं प्रात्राजीत् परमेश्वरः ॥ १२५ ॥ युग्मम् ।। सुरासुरनराधीशा नमस्कृत्य जगद्गुरुम् । स्थानं निजनिजं जग्मुर्दानान्ते याचका इव ॥ १२६ ॥ महापुरे द्वितीयेऽह्नि सुनन्दनृपसद्मनि । चकार परमान्नेन पारणं परमेश्वरः ॥ १२७ ॥ 0 देवैश्व विदधे दिव्यवसुधारादिपञ्चकम् । रत्नपीठं सुनन्देन चाङ्घ्रिस्थाने जगद्गुरोः ॥ १२८ ॥ ततः स्थानादथान्येषु ग्रामा-ssकर - पुरादिषु । प्रावर्तिष्ट विहाराय समीरण इव प्रभुः ।। १२९ ।।
30
१२० ॥ १२१ ॥ १२२ ॥
[ चतुर्थ वर्ष
इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् भरतार्थेऽत्र दक्षिणे । पुरं विन्ध्यपुरं नामास्त्यवन्ध्यं सर्वसंपदाम् ॥ १३२ ॥ तत्र नाम्ना विन्ध्यशक्तिर्विन्ध्याद्रिरिव सारतः । आसीन्नृपतिशार्दूलः शत्रुर्तेल महानिलः ॥ १३३ ॥ मिथः संसृजतोस्तस्य कोदण्डभुजदण्डयोः । प्रचुक्षुभुर्भूमिभुजो ग्रहयोः क्रूरयोरिव ॥ १३४ ॥ नितान्ताऽऽरक्तया क्रूरभ्रकुटीभङ्गभीमया । गिलन्निव स दृष्ट्वाऽपि नश्यद्भिर्ददृशेऽरिभिः ।। १३५ ॥ शिश्रिये सोऽरिभिरपि निजजीवितकाम्यया । तेऽदुश्च दण्डे सर्वस्वं प्राणान् रक्षेद् धनैरपि ॥ १३६ ॥ एकदा सर्वसामन्तामात्याद्यैः परिवारितः । स औस्थान्यामुपाविक्षत् सुधर्मायामिवाद्रिभित् ॥ १३७ ॥ 20 आजगाम चरको वेत्रिणा च प्रवेशितः । नमस्कृत्योपविश्याग्रे व्यजिज्ञपदिदं शनैः ॥ १३८ ॥
॥ सप्तभिः कुलकम् ॥
१२३ ॥
इतश्च नगरे पृथ्वीपुरे नृपशिरोमणिः । नाम्ना पवनवेगोऽभूद् भवं सोऽन्वंशिषच्चिरम् ॥ १३० ॥ पार्श्व श्रवणसिंहर्षेरादाय समये व्रतम् । दुस्तपं स तपस्तप्त्वा विपद्यागादनुत्तरे ॥ १३१ ॥
जानासि देव ! यदिह भरतार्थेऽस्ति दक्षिणे । लक्ष्मीनिधानं साकेतमिति नाम्ना महापुरम् ॥ १३९ ॥ आँर्षभेरिव सेनानीः प्रभूतबलसंपदा । पर्वतो नाम तत्रास्ति महाबाहुर्महीपतिः ॥ १४० ॥ स्वरूपेणोर्वशी-रम्भापराभवनिबन्धनम् । धनं रतिपतेस्तस्य वेश्याऽस्ति गुणमञ्जरी ॥ १४१ ॥ तस्या वदननिर्माणावशिष्टैः परमाणुभिः । विदधे वेधसा मन्ये पूर्णिमारजनीकरः ॥ १४२ ॥ 25 किमस्मदधिकं हन्त ! लावण्यं क्वापि शुश्रुवे । इति प्रष्टुमिव दृशौ तस्याः कर्णावुपेयतुः ॥ १४३ ॥ तस्या वक्षसि वक्षोजौ तथा वैशाल्यशालिनौ । यथा तयोरुपमानं तावेव हि न चापरम् ॥ १४४ ॥ मध्यं चातिकृशं तस्याः सहवासोत्थसौहृदात् । समर्पितर्परीणाहमिवोच्चैः स्तनकुम्भयोः ॥ १४५ ॥ पाणी पादौ च रेजाते तस्या राजीवकोमलौ । कङ्केल्लिपल्लवायासकारिणौ रागसंपदा ॥ १४६ ॥ सा गीते कलकण्ठीव नृत्ते स्वयमिवोर्वशी । वीणावाद्ये च मधुरे तुम्बुरोरिव सोदरा ॥ १४७ ॥ नारीषु रत्नभूता सा देवस्यैव हि युज्यते । युवयोरुचितो योगः स्वर्णमण्योरिवास्तु तत् ॥ १४८ ॥ भोज्येनालवणेनेव मुखेनेवापचक्षुषा । अचन्द्रया रजन्येव किं ते राज्येन तां विना ॥ १४९ ॥ इत्याकर्ण्य वचो राजा याचितुं गुणमञ्जरीम् । उपपर्वतकं प्रैषीन्मन्त्रिणं दूतकर्मणा ॥ १५० ॥ चालैर्वाहनैर्व्योम तरद्भिरिव रंहसा । गत्वा स साकेतपुरं नृपं पर्वतमभ्यधात् ॥ १५१ ॥
१ वसन्तः । २ शशास । ३ सारो बलम् । ४ तूलम् भाषायाम्- 'रु' इति । ५ सभायाम् । ६ इन्द्रः । ७ ऋषभपुत्रस्य भरतस्य सेनानीः इव । ८ परीणाहो विस्तारः । ९ राजीवम् - कमलम् । * कङ्किल्लिप सं० ॥ कलि:- अशोकवरुः । १० तुम्बुरु गानक कानिपुणतमो गायकजातिविशेषः । ११ पर्वतनृपसमीपम् । १२ द्रुतगतिभिः ।
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द्वितीयः सर्गः ]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् नान्यस्त्वत्तो विन्ध्यशक्तिस्तस्मात् त्वमपि नापरः । द्वयोरभेद एवेह वार्धिकल्लोलजालवत् ॥ १५२ ॥ द्वयोरप्येक एवात्मा विभिन्ने वपुषी परम् । त्वदीयं यत् तदीयं तत् तदीयमपि तावकम् ॥ १५३॥ तव चै स्तूयते वेश्या नामतो गुणमञ्जरी । स्वान्तिकं विन्ध्यशक्तिस्तामानाययति कौतुकात् ॥१५४॥ सा स्वबन्धोः स्वतुल्यस्य याचमानस्य दीयताम् । दाने साधारणस्त्रीणां ग्रहणे च न गर्हणा ॥ १५५ ॥ इत्युक्तो मत्रिणा तेन यष्टिस्पृष्ट इवोरगः । कोपकम्प्राधरदलोऽवदत् पर्वतकोऽप्यदः ॥ १५६ ॥ 5 उच्यते स कथं बन्धुर्विन्ध्यशक्तिर्दुराशयः । प्राणेभ्योऽपि प्रियां यो मे याचते गुणमञ्जरीम् ॥१५७॥ मुहूर्तमपि न स्थातुं विना यामलमस्म्यहम् । तां तेनादित्सुना प्राणा अप्युपादित्सिता मम ॥ १५८ ॥ दासीमपि न दास्यामि किं पुनर्गुणमञ्जरीम् । अस्तु मित्रममित्रो वा विन्ध्यशक्तिः स्वशक्तितः॥१५९॥ उत्तिष्ट गच्छ त्वं तस्मै गत्वाऽऽख्याहि यथातथम् । राज्ञां भवन्ति दूता हि यथावस्थितवादिनः॥१६०॥ उत्थाय सोऽपि सचिवः साचिविक्षिप्तलोचनः। आरुह्य वाहनान्यागाद् विन्ध्यशक्तेरथान्तिकम् ॥१६१॥10 पर्वतकव्यतिकरं तं व्याचख्यावशेषतः । हुँताहुतिरिवार्चिष्मान् क्रुधा जज्वाल तत्प्रभुः ॥ १६२॥ मैत्री चिरभवां लुप्त्वा मर्यादामिव सागरः। विन्ध्यशक्तिश्वचालाऽभिपर्वतं गर्वपर्वतः ॥ १६३ ॥ पर्वतोऽप्याजगामाभिमुखं स्वबलवाहनः । शूराणां ह्यभिगमनं सुहृदीवासुहृद्यपि ॥ १६४ ॥ द्वयोरप्यग्रसैन्यानां युद्धं प्रववृते ततः । चिराद् दोर्दण्डकण् तिरुजाऽपनयनौषधम् ॥ १६५ ॥ अभ्यसर्पभवासर्पन सैन्ययोरुभयोरपि । भटाः परस्परं वेदियोधिनो द्विरदा इव ।। १६६ ॥ 15 कुन्तप्रोतोऽपि 'हुँ' कुर्वन् कश्चिदस्खलितं भटः । तन्तुप्रोतो मगिरिव संचचाराभिवैरिणम् ॥१६७ ॥ धनुर्धरवरोन्मुक्तनिरन्तरशरैरभूत् । अभिलूनशरवणारण्यभूरिख युद्धभूः ॥ १६८ ॥ पतद्भिः परिधैः शल्यैर्गदाभिर्मुद्गरैरपि । सपैरिव परप्राणहरैक्नशिरे दिशः ॥ १६९ ॥ इतः क्षणं क्षणमितः सैन्ययोरुभयोरपि । जयः समोऽभवज्योत्स्नाग्रसरः पेक्षयोरिव ॥ १७० ॥ अथ सर्वाभिसारेण धनुरास्फालयन् स्वयम् । रथारूढः पर्वतकः समरायोदतिष्ठत ॥ १७१॥ 20 युगपदाणवर्षेण परसैन्यं तिरोदधे । अन्तरिक्षमिवानीकप्रोत्खातावनिपांसुभिः ॥ १७२ ॥ केसरीवेभयूथेषु परसैन्येषु स क्षणात् । महान्तं प्रलयं चक्रे कृतान्तस्येव भोजनम् ॥ १७३ ॥ अरुध्यमानप्रसरो विन्ध्यशक्तेर्बलानि सः। मङ्क्ष प्रभञ्जनो वृक्षानिवाभानीन्महाबलः॥ १७४ ॥ क्रुद्धः स्वसैन्यभङ्गेन विन्ध्यशक्तिर्महाभुजः । परान् संहर्तुमुत्तस्थे कालरात्रेरिवानुजः ॥ १७५ ॥ न सेहे पर्वतानीकैर्विन्ध्यशक्तिः समापतन् । कुरङ्गैरिव शार्दूलः सुँपर्णः पन्नगरिव ॥ १७६ ॥ 25 सोऽथ विद्रुतसैन्यं तं स्थितं पर्वतकं पुरः। रणायाऽऽह्वास्त कोदण्डदोर्दण्डबलगर्वितः ।। १७७ ।। नाराचैस्तद्वलैरर्धचन्द्रर्यमरदैरिव । भूभुजौ युयुधाते तावन्योऽन्ययुद्धकाशिणौ ॥ १७८ ॥ रथं रथ्यान सारथिं च रथिनौ तावथो मिथः । ममन्थतुः परिभवाऽऽपमित्यकधराविव ॥ १७९ ।। ततोऽपररथारूढावाटतुरुभावपि । विन्ध्यशक्ति-पर्वतको कल्पान्ते पर्वताविव ॥ १८० ॥ सर्वशक्त्या विन्ध्यशक्तिनृपः पर्वतकं नृपम् । चक्रे निरस्त्रं निर्वीय द्विजिह्वमिव निर्विषम् ॥ १८१॥ 30 ___ * च श्रूयते सं०॥ १ आदित्सुः-प्रहीतुगिच्छुः । २ उपादित्सिताः ग्रहीतुमिच्छाविषयीकृताः। । सावि:-तिर्यक्वक्रम् । ४ हुता माहुतिः यस्मिन् । ५ पर्वतसंमुखम् । । 'खं सव० सं०। ६ कण्डूतिरुजा-भाषायाम् 'चळखंजवाळ' । ७ वेदिः परिष्कृता भूमिः तस्यां योधिनः। सर्वतः छिन्नम्-अभिलनम् । ९शुक्ल-कृष्णपक्षयोः। .समराय युद्धाय, उदतिष्ठत-उस्थितः-सजो जातः । ११ अनीकेन सैन्येन प्रोस्खाताभिः 'उखेडेली-उडाडेली' भवनिधूलिभिः। १२ 'केसरी इव इमइति विभागः। १३ शत्रून् । १४ गरुडः । । "चैस्तोमरैरर्ध-सं० ॥ व्यवधकाशि-सं०॥ १५ भापमिलाकम् विनिमयेन(भाइबदले)-आनीतं धनादि। १६ अभिआरतुः-अभिजग्मतुः।
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कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थ पर्व
महेभेनेव कलभोऽभिभूतो विन्ध्यशक्तिना । पलायिष्ट पर्वतकः पश्चादनवलोकयन् ॥ १८२ ॥ अथाऽग्रहीद् विन्ध्यशक्तिर्वेश्यां तां गुणमञ्जरीम् । हस्त्याद्यन्यच्च सर्वखं तस्य श्रीर्यस्य विक्रमः ॥ १८३ ॥ आपूर्ण इव पाथोदो निवृत्य रणसागरात् । कृतकृत्यो विन्ध्यशक्तिर्ययौ विन्ध्यपुरं ततः ॥ १८४ ॥ फालाच्युत इव द्वीपी प्रलम्बादिव वानरः । रणभग्नः पर्वतकः कष्टं तस्थौ तदादि सः ॥ १८५ ॥ पराभूत्या तया हीणो नृपः पर्वतकोऽपि हि । संभवाचार्यपादान्ते परिव्रज्यामुपाददे ॥ १८६ ॥ सतपो दुस्तपं तेपे निदानं चाकरोदिति । विन्ध्यशक्तेर्वधायाहं भूयासमपरे भवे ॥ १८७ ॥ 'तुषैरिव स माणिक्यं विक्रीयेत्थं महत् तपः । कृत्वाऽन्तेऽनशनं मृत्वा चाभवत् प्राणते सुरः ॥ विन्ध्यशक्तिर्भवे भ्रान्त्वा चिरमेकत्र जन्मनि । जिनलिङ्गमुपादाय मृत्वा कल्पामरोऽभवत् ॥ च्युत्वा च विजयपुरे पत्यां श्रीधरभूपतेः । श्रीमत्यामजनि श्रीमाँस्तारको नाम दारकः स सप्ततिधनुस्तुङ्गः कञ्जलश्यामलाकृतिः । द्विसप्तत्यब्दलक्षायुर्वभूवामितदोर्घः ॥ १९१ ॥ सोऽन्ते पितुः प्राप चक्रं भरतार्थमसाधयत् । भवन्ति ह्यर्ध भरतखामिनः प्रतिविष्णवः ॥। १९२ ।। इतश्च द्वारका नाम सुराष्ट्रमुखमण्डनम् । पश्चिमाम्भोधिकलोल धौत वप्रतलाऽस्ति पूः ॥ १९३ ॥ अजिह्मविक्रमस्तस्यां विश्वाक्रमनिवारणः । जिष्णोः सब्रह्मचारी ब्रह्मेत्यासीन्महीपतिः ॥ १९४ ॥ अन्तःपुरप्रधाने च तस्याभृतामुभे प्रिये । सुभद्रोमे गङ्गा-सिन्धू लवणाम्भोनिधेरिव ॥ १९५ ॥ 15 प्रेयसीभ्यां समं ताभ्यां चिरं वैषयिकं सुखम् । ब्रह्माऽन्वभूत् सुष्ठु रति- प्रीतिभ्यामिव मन्मथः ॥ १९६॥
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इतश्च पवन वेगजीवोऽनुत्तरतश्युतः । महादेव्याः सुभद्राया उदरे समवातरत् ॥ १९७ ॥ सुखसुप्ता तदानीं च सुभद्रा देव्युदैक्षत । हलभृजन्मशंसित्रीं महास्वनचतुष्टयीम् ॥ १९८ ॥ पुण्डरीकमिव गङ्गा प्राचीव तुहिबंद्युतिम् । समयेऽसूत सा सूनुं स्फटिकोपलनिर्मलम् ॥ १९९ ॥ कारामोक्षादिना यच्छञ्जगतोऽपि परां मुदम् । सूनोर्विजय इत्याख्यामकार्षीद् ब्रह्मभूपतिः ॥ २०० ॥ 20 विभिन्नकर्मायुक्ताभिर्धात्रीभिः सोऽथ पञ्चभिः । लाल्यमानो ययौ वृद्धिं सहैव स्ववपुः श्रिया ॥ २०९ ॥ चलत्काञ्चनं ताडङ्को लोलरत्नललन्तिकैः । हेमासिधेनुरुचिरसौवर्णकटिसूत्रकः ॥ २०२ ॥ पादबद्धरणरणद्रत्नघर्घरमालिकः । काकपक्षधरः क्रीडन् स कस्य न ददौ मुदम् ॥ २०३ ॥ युग्मम् ॥ प्रच्युत्य प्राणतात् सोऽपि जीवः पर्वतभूपतेः । सरस्यां हंसवदुमादेव्याः कुक्षाववातरत् ॥ २०४ ॥ सुप्ता सप्त महाखमान् शङ्गभृजन्मसूचकान् । मुखे प्रविशतोऽद्राक्षीदुमादेवी तदैव हि ॥ २०५ ॥ ततो नवसु मासेषु दिनेष्वर्थाष्टमेषु च । पूर्णाम्भोदमिव प्रावृट् सा श्यामं सुषुवे सुतम् ॥ २०६ ॥ ब्रह्माऽथ परमब्रह्मनिमग्न इव संमदात् । अर्थिनः प्रीणयँश्चक्रे स्नोर्जन्ममहोत्सवम् ॥ २०७ ॥ शुभेषु ग्रह-नक्षत्र - तिथि- वारेषु सोत्सवम् । स्नोर्द्विपृष्ट इत्याख्यां यथार्थामकरोनृपः ॥ २०८ ॥ अङ्गणोद्भूतकङ्केल्लिमिव तापसयोषितः । पञ्चभिः कर्मभिः पञ्च धात्र्यस्तं पर्यलालयन् ॥ २०९ ॥ धावन्तमुल्ललन्तं वा धात्र्यस्तं स्वैरचारिणम् । 'पॅरिष्ठवं पारदवन्नादातुं पाणिनाऽशकन् ॥ २१० ॥ 30 पितुर्मातुर्ज्यायसश्च भ्रातुः सह मुदाऽन्वहम् । दर्शयन्नन्तरं स्वस्य द्वितीयो ववृधे हरिः ॥ २११ ॥ कट्यां हृदि च पृष्ठे च स्कन्धदेशे च तं मुहुः । विजयो धारयामास धात्री षष्ठीव सौहृदात् ॥ २१२ ॥ अवर्तस्थौ ययौ शिंगे न्यषीदद् बुभुजे पपौ । द्विपृष्ठोऽप्यनुविजयं स्नेहकार्मणयत्रितः ॥ २१३ ॥
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१८८ ॥
१८९ ॥
१९० ॥
२१ फालो - भाषायाम् - 'फाल भरवी' । २ प्रालम्बः शाखा । ३ ततः प्रभृति । ४ लज्जितः । ५ भवेयम् इत्यर्थः । ६ 'तुष' इति-भाषायाम्- 'दुंसां - फोफां' । ७ विश्व आक्रमण निवारकः । ८ तुहिनद्युतिः- चन्द्रः । ९ कारा- कारागृहम्, 'केद' इति भाषायाम् । १० ताडङ्कः–कुण्डलम् । ११ ललन्तिका -कण्ठभूषा लम्बमाना । १२ असिधेनुः - छुरिका । * रणझण' सं० ॥ १३ बालानां शिखा काकपक्षः । १४ शार्ङ्गभृत् वासुदेवः | १५ चञ्चलम् । १६ द्विपृष्ठभ्राता तश्चामा बलदेवः । । 'तस्थे य° सं० ॥ १७ निद्रां प्रकार ।
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द्वितीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम्
३५१ निमित्तीकृत्य चाचार्यमलवयात् पितृशासनात् । काले कला जगृहतुर्लीलया सीरि-शाह्मिणौ ॥ २१४ ॥ अलब्धमध्यौ धवलश्यामलौ तौ सहोदरौ । क्षीरोद-लवणाम्भोधी इवाऽभातां वपुम॒तौ ॥ २१५ ॥ नीलपीताम्बरधरौ तौ ताल-गरुडध्वजौ । मेनाते तारकस्याज्ञां बालावपि च न क्वचित् ॥ २१६ ॥ आज्ञातिक्रमदोर्वीयर्याधृष्यत्वादिकमेतयोः। दृष्ट्वा गत्वा तारकाय स्पशः स्पष्टमदोऽवदत् ॥ २१७॥ देव! द्वारवतीभर्तुस्तनयावतिदुर्मदौ । आज्ञां तव न मन्येते वाय्वग्नी इव तौ युतौ ॥ २१८॥ कौशलं सर्वशस्त्रेषु विद्यानामपि सिद्धयः । उदपद्यन्त दोर्दण्डस्थामालङ्करणं तयोः ॥ २१९ ॥ न चैतौ प्रतिभासेते देव ! त्वां प्रति शोभनौ । अतः परं यदुचितं तदाचर चरोऽस्म्यहम् ॥ २२० ॥ तारकः कोपतरलः प्रस्फुरन्नेत्रतारकः । आदिक्षदिति सेनान्यमसामान्यपराक्रमम् ॥ २२१ ॥ सर्वात्मनाऽपि सजित्वा पुरस्ताद् भट ! वादय । प्रयाणभम्भामद्यैव सामन्ताह्वानदृतिकाम् ॥ २२२ ॥ निहन्तव्यः सपुत्रोऽपि जिह्मधीब्रह्मभूपतिः । संजायते व्याधिरिव द्विपन विषमुपेक्षितः ॥ २२३ ॥ 10 अथैवं सचिवोऽवोचत् सम्यग्देवाञ्चधारय । अद्य यावत् स सामन्तः पतिर्वा ब्रह्मभूपतिः ॥ २२४ ॥ विना मिषमकाण्डेऽपि यात्रा तं प्रति नोचिता । एवं ह्यन्यकृतीनामपि शङ्काऽऽस्पदं भवेत् ॥ २२५ ॥ साशङ्के न हि विश्वासो विश्वासेन विना पुनः। मंत्रादेशादिकं नैव तद्विना स्वामिताऽपि का ? ॥२२६॥ कश्चिदुद्भाव्यतां तस्यापराधो व्यपदेशतः । सुलभः स हि दृप्तस्य तस्य पुत्रद्वयौजसः ॥ २२७ ॥ प्राणेभ्यो वल्लभीभूतान् करिणस्तुरगांश्च सः । याच्योऽन्यानि च रत्नानि प्रेष्य संदेशहारकम् ॥ २२८ ॥15 न चेत् प्रदास्यते तद् वः स वध्योऽनेन मन्तुना । नापवादो भवेल्लोके सापराधं निगृह्णताम् ॥ २२९ ॥ याचितं दास्यते वाऽथ तदान्वेष्यं छलान्तरम् । सर्वोऽपि सापराधो हि छलमन्विष्यते यदा ॥ २३० ॥ साधु साध्वित्यमात्यं तमभिधाय तदैव हि । ब्रह्मणे प्राहिणोद् दूतं रहः संदिश्य तारकः ॥ २३१ ॥ आशु गत्वा द्वारवत्यां ब्रह्माणं सदसि स्थितम् । विजयेन द्विपृष्ठेन चान्वितं स उपास्थित ॥२३२॥ प्रतिपच्या महत्या तमुपवेश्य स भूपतिः । चिरं सप्रेम चालप्य पप्रच्छाऽऽगमकारणम् ॥ २३३ ॥ 20 सोऽप्यूचे द्वारकानाथ ! त्वां संप्रत्यादिशत्यदः । स्वामी नस्तारको वैरिबाहुदापहारकः ॥ २३४ ॥ राज्ये त्वदीये ये केपि प्रवराः करिणो हयाः। यानि चान्यानि रत्नानि प्रेष्यन्तां तानि नः कृते ॥२३५॥ दक्षिणे भरतार्धे हि वस्तु यत् किश्चिदुत्तमम् । भरतार्धाधीश्वरस्य तन्ममैवापरस्य न ॥ २३६ ॥ इत्युक्त्या कुपितः सद्यो मृगेन्द्र इव हक्कया । अभाषिष्ट द्विपृष्ठस्तं जिघत्सुरिव चक्षुषा ॥ २३७ ॥ ज्यायान् वंश्यो न सोऽस्माकं त्राता दाता न चापि सः । राज्यं निजं शासतां नः कथं स्वामी बभूव सः॥ 25 अथो मृगयतेऽसत्तो हस्त्यश्वादि भुजौजसा । भुजौजसा वयं तर्हि ततोऽपि मृगयामहे ॥ २३९ ॥ गच्छ दूताधुनैवासान् विद्धि तत्र समागतान् । हस्त्यश्वादि ग्रहीतुं त्वत्स्वामिनः शिरसा समम् ॥२४॥ इत्युत्कटकटुं वाचं द्विपृष्ठस्य निशम्य सः । रुषितस्त्वरितं गत्वा तारकाय न्यवेदयत् ॥ २४१॥ इभगन्धेन गन्धेभ इव विष्णुगिरा तया । श्रुतया तारकः क्रुद्धो यात्राभम्भामवादयत् ॥ २४२ ॥ सद्यः सैन्यानि सेनान्यः सामन्ता मत्रिणोऽपि च । राजानो बद्धमुकुटाः सुभटाश्च महारथाः ॥२४३ ।। 30 वीर्यकण्डूलदोर्दण्डाश्चिराय समरार्थिनः । सैनाभयोऽन्तकस्येव राजानमुपतस्थिरे ॥ २४४ ॥ महीकम्प-तडित्पात-काकरोलादिभिर्भृशम् । सूच्यमानाशुभोदोऽप्यचालीत् तारकस्ततः ॥ २४५॥
दूतः। * नान्यं महासेनाप-सं०॥°स्तादथ वा सं०॥ २ जिह्मम्-वक्रम् । जत्तिा व सं०॥ ३ निमितम्। प्रकृतयः प्रधानादिराजमण्डलम् प्रजाश्च । ५ आशङ्कायुक्त। ६ मन्त्रः-आणा आदेशः माशा। . निमित्ततः।
दूतम् । ९ मन्तु:-अपराधः। १० एकान्ते। * "स्त युयुत्सु सं०॥ ११ जिघत्सुः-खादितुमिच्छुः । १२ असत्पात् । ३वत:-तव स्वामितः। १४ याचामहे। १५ गन्धप्रधानेन हस्तिना। १६ यात्राभम्भा-युद्धभेरिः। १७ सबान्धवाः। १८काकरोल: 'काका' इति काकध्वनिः भाषायाम्-'कागारोल' इति। १९ उदक:-भविष्यन् परिणामः।
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३५२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थ पर्व स प्रयाणैरविच्छिन्नैः क्रोधाध्मातोऽर्धचक्रभृत् । अर्धमार्गमलविष्ट द्रापिष्टमपि हि द्रुतम् ॥ २४६ ॥ सब्रह्म-विजयाऽनीकस्तत्र तस्याग्रतोऽपि हि । द्विपृष्ठोऽप्याहवोत्कण्ठी कैण्ठीरव इवाऽऽययौ ॥ २४७॥ अङ्गोच्छ्वासासकृत् त्रुट्यत्सर्वसन्नाहजालिकाः । द्वयोः संवर्मयामासुः सैनिकाः कथमप्यथ ॥ २४८ ॥ तयोरभूत् संप्रहारो महासंहारकारणम् । मृत्योरभ्यवहाराय महानसगृहोपमः ॥ २४९ ॥ निपेतुरुभयत्रापि लक्षशश्छत्रमौलयः । न संख्याऽप्यन्ययोद्धृणां पतितानामबुध्यत ॥२५० ॥ पुण्डरीकवती छत्रैः पूरिता रक्तवारिभिः । रणभूरभवत् क्रीडाँवापी पितृपतेरिख ॥ २५१ ॥ जैत्रं रथमथारुह्य द्विपृष्ठः पर्यपूरयत् । पाञ्चजन्यं जन्यजयाह्वानमत्रोपमध्वनिम् ॥ २५२ ॥ सिंहनादादिव मृगा हंसा इव धनखनात् । पाञ्चजन्यध्वनेस्तारात् त्रेसुस्तारकसैनिकाः ॥ २५३ ॥ त्रस्तान् स्वसैनिकान् दृष्ट्वा हेपंयित्वा निवर्त्य च । द्विपृष्ठं स्वयमभ्याट रथमारुह्य तारकः ॥ २५४ ॥ विजयेनान्वीयमानो लाङ्गलाऽयोनधारिणा । शाङ्गमारोपयच्छाङ्गी सुत्रामेवर्जुरोहितम् ॥२५५ ॥ अधिज्यधन्वा तदनु तारकोऽपीपुंधेरिघुम् । आकृष्य संदधे मृत्योरूर्जितामिव तर्जनीम् ॥ २५६ ॥ समोच तारकोऽपीषु हरिश्चिच्छेद चेषुणा । मोक्ष-च्छेदावितीपूणामभूतामसकृत् तयोः ॥ २५७ ॥ गदा-मुद्गर-दण्डादीन्यायुधान्यपराण्यापि । तारको यानि चिक्षेप प्रत्यस्तैस्तान्यहन हरिः ॥ २५८ ॥ तारकोऽथाग्रहीच्चक्रं क्रूरनकं रणोदधेः । द्विपृष्ठं चेत्यभाषिष्ट कोप-स्मितचलाधरः ॥ २५९ ॥ दार्विनीतो यद्यपि त्वं त्वां न हन्मि तथापि हि । चिरसेवकपुत्रोऽसि बालोऽसीत्यनुकम्पया ॥ २६०॥ विजयावरजोऽप्यूचे मितस्तबकिताधरः । अनुकम्पां शार्ङ्गपाणौ मयि कुर्वन् न लज्जसे ? ॥२६१॥ यद्यपि त्वं विपक्षोऽसि तथाऽप्यसि तितिक्षितः । जरसाऽऽसन्नमृत्योस्ते कः कर्ता मृतमारणम् ॥ २६२ ॥ अस्य चक्रस्य यद्याशा तदेतदपि मुञ्च भोः! । अकृतार्थीकृतेऽत्रापि गच्छेमुक्तस्तथाऽप्यसि ॥ २६३ ॥
इति द्विपृष्ठवचसा तिलाग्निरिव वारिणा । प्रदीप्तस्तारकश्चक्र भ्रमयामास मूर्धनि ॥ २६४ ॥ 20 नभसि भ्रमयित्वा तद् द्विपृष्ठाय मुमोच सः। जाज्वल्यमानं कल्पान्तविद्युत्वानिव विद्युतम् ॥ २६५॥
तत् तु तुम्बाग्रघातेन पपात हृदये हरेः । रूपान्तरपरावृत्तकौस्तुभश्रीविडम्बकम् ॥ २६६ ॥ क्षणं तेन प्रहारेण मृञ्छितः पतितो रथे । वीज्यते स विजयेनाञ्चलव्यजनपाणिना ॥ २६७॥ लब्धसंज्ञः क्षणाच्छाी रिपोश्चक्रं समीपगम् । जाँतभेदमिवामात्यं तदादायात्रवीदिदैम् ॥ २६८॥
चक्रं तवास्त्रसर्वखं दृष्टा तच्छक्तिरीदशी । जीवग्राहं याहि जीवन् नरो भद्राणि पश्यति ॥ २६९ ॥ 25 प्रत्यूचे तारकोऽप्येवं चक्रमेतन्मयोज्झितम् । "लेष्टुं श्वेव परिक्षिप्तं गृहीत्वा किं भर्षस्यहो ! ॥ २७० ॥
मुश्च मुश्च त्वमप्येतद् गृहीत्वाऽप्येष मुष्टिना । यदि वा चूर्णयिष्यामि ताडयित्वाऽऽमलोष्टंवत् ॥२७१॥ भ्रमयित्वाऽथ तच्छाी भ्राम्यदर्कभ्रमप्रदम् । खेचरांस्वासयचक्रं मुमोच प्रतिविष्णवे ॥ २७२ ॥ तारकस्य शिरस्तेन नलिनीनाललीलया । चिच्छेद पुनरापेते शाह्मिणः करकोटरे ॥ २७३ ॥
द्विपृष्ठस्योपरिष्टाच्च पुष्पवृष्टिः पपात खात् । तारकस्योपरि त्वन्तःपुरस्त्रीवर्गदृग्जलम् ॥ २७४॥ 30 नृपास्तारैकगृह्यास्तु वृत्तिमाश्रित्य वैतसीम् । अत्रायन्त द्विपृष्ठात् स्वं शक्तेष्वौपयिकं ह्यदः ॥ २७५ ॥
१ दीर्घतमम् । २ आहवः युद्धम् । ३ कण्ठीरवः सिंहः । ४ संवर्मयामासुः-सन्नाहं चक्रुः । ५ अभ्यवहारो भोजनम् । ६ महानसम्-रसवतीस्थानम् । ७ यमस्य । ८ जन्यम्-युद्धम् । ९ तारम्-उग्रम् । १० लजित्वा। ११ लाङ्गल-अयोध्नधारिणा, अयोध्न:-प्रहरणविशेषः । १२ सुत्रामा इव ऋजुरोहितम् इति पदविभागः। सुत्रामा-इन्द्रः 'ऋजुरोहितम्' धनुविशेषः । १३ 'इषुधेः इषुम्' इति विभागः। १४ प्रति-अस्त्रैः। १५ अहन् जघान । १६ अवरजः कनीयान् । १७ प्रलयमेघ इव । १८ जातः मेदः द्विधाभावः छेदो वा यत्र। * "दिति । सं०॥ जीवैय॒हम्-सं०॥ १९ लेष्टुः-भाषायाम्'-ढे'-ढेला' इति २. 'भषसि-अहो' इति विभागः । लोष्टुव सं०॥ २१ त्रासयत्-त्रासं कुर्वत् । रापच्च शा सं०॥ २२ भापते आपतितम् । २३ तारकपक्षीयाः। २४ वेतसवृत्तिः-नम्रता। अथायन्त द्विपृष्ठान्तं खं सं०॥
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द्वितीयः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् यात्रारम्भेण तेनैव भरता स दक्षिणम् । अशेष साधयामास साधीयःसाधनावृतः ॥ २७६ ॥ स मागध-वरदाम-प्रभासाधिपतीनपि । लीलयैवाजयद् देवानेकसामन्तमात्रवत् ॥ २७७ ॥ दिग्यात्राया निवृत्तोऽथ माधवो मागधान् ययौ । तत्र कोटिनरोत्पाट्यां ददर्श च महाशिलाम् ।। २७८ ॥ वैरिवामः स वामेन दोष्णा तामुदपाटयत् । आललाटं कमलिनी करीन्द्र इव लीलया ॥ २७९ ॥ सां निधाय यथास्थानमग्रणीः सर्वदोष्मताम् । प्रपेदे द्वारकां विष्णुर्दिनैः कतिपयैरपि ॥ २८०॥ 5 सिंहासनेऽध्यासितस्य ब्रह्मणा विजयेन च । विष्णोश्चक्रेऽर्धचक्रित्वाभिषेकोऽथाखिलैर्नृपः ॥ २८१ ॥
इतश्च मासं छद्मस्थो विहृत्य त्रिजगत्पतिः । दीक्षोद्यानं वासुपूज्यो विहारगृहमागमत् ॥ २८२ ।। पाटलाया अधो भर्तु_तिकर्माणि तुत्रुटुः । द्वितीय शुक्लध्यानान्ते तमांसीव निशात्यये ॥ २८३ ॥ माघशुक्लद्वितीयायां चन्द्रे शंतभिषग्जुपि । केवलज्ञानमुत्पेदे चतुर्थेन जिनेशितुः ॥ २८४ ॥
स्वामी दिव्ये च समवसरणे देशनां व्यधात् । सूक्ष्मादीनां गणभृतां षष्टिं षडधिकां तथा ॥ २८५।10 तत्तीर्थभूः कुमाराख्यो यक्षो हंसरथः सितः । मातुलिङ्ग-शरधरौ धारयन् दक्षिणौ करौ ॥२८६॥ । वामौ च नकुलधनुर्धारिणौ धारयन् भुजौ । वासुपूज्यजिनेन्द्रस्याभवच्छासनदेवता ॥ २८७ ॥ तथोल्पना श्यामवर्णा चन्द्रा नामाश्ववाहना । दक्षिणौ वरद-शक्तिधारिणौ दधती भुजौ ॥ २८८ ॥ पाणी पुष्प-गदायुक्तौ विभ्रती दक्षिणेतरौ । भर्तुः शासनदेव्यासीत् सदा सन्निधिवर्तिनी ॥ २८९ ॥ ताभ्यामधिष्ठिताभ्यों भगवान् विहरन् भुवम् । द्वारकायाः परिसरभुवमन्येधुराययौ ॥ २९० ॥ 15 शक्रायैस्तत्र समवसरणं निर्ममेऽमरैः । चत्वारिंशद् धनुरष्टशतोचाऽशोकपादपम् ॥ २९१॥ तत्र प्रदक्षिणीकृत्याशोकं तीर्थानतिं वदन् । सिंहासने निषसाद प्रामुखः परमेश्वरः ॥ २९२ ॥ प्रभोश्च प्रतिरूपाणि देवा दिक्ष्वपरास्वपि । विचक्रुस्त्रीणि तादृक्षाण्येवोच्चैस्तत्प्रभावतः ॥ २९३ ॥ न्यपीदच्च यथास्थानं श्रीमान् संघश्चतुर्विधः । मध्यवरे तु तिर्यश्चोऽधोवने वाहनानि तु ॥ २९४ ॥ तदा च राजपुरुषा द्रुतमभ्येत्य शाङ्गिणे । स्वामिनं समवसृतमाचख्युः फुल्लचक्षुषः ॥ २९५ ॥ 20 सार्धा द्वादश रूप्यस्य कोटीस्तेभ्यो ददौ हरिः । ययौ समवसरणं विजयेनान्वितस्ततः ॥ २९६ ॥ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य प्रणम्य च जगद्गुरुम् । आमाचकेऽनुशकं स समं लागलपाणिना ॥ २९७ ॥ भूयो नत्वा जगन्नाथं गिरा भक्तिसनाथया । स्तोतुमारेभिरे शक-द्विपृष्ठ-विजयास्ततः ॥ २९८ ॥
नितान्तभीषणमितः प्रसृतं मोहदुर्दिनम् । प्रतिक्षणमितश्वाशा वेला इव नवा नवाः ॥ २९९ ॥ महायाद इवेतश्च दुर्वारो मकरध्वजः । इतश्च विषयाः पापाः प्रौढा दृष्पवना इव ॥ ३०॥ इतः कषायाः क्रोधाद्या महावर्ता इबोल्बणाः । राग-द्वेषादयश्चेतो नगदन्ता इवोत्कटाः ॥ ३०१ ।। महोर्मय इवेतश्च नानादुःखपरम्पराः । इतश्चात-रौद्रध्यानमौर्वानल इवोच्चकैः ॥३०२॥ इतश्च ममता वेत्रवल्लीव स्खलनाऽऽस्पदम् । इतश्च व्याधयोऽनल्पा नक्रस्तोमा इवोद्धताः ॥ ३०३ ॥ असिन्नपारे संसारे पारावारेऽतिदारुणे । पतितानुद्धर चिरात् प्राणिनः परमेश्वर ! ॥३०४ ॥ परेषामुपकाराय केवलज्ञानदर्शने । तवेमे त्रिजगन्नाथ ! तरोः पुष्प-फले इव ॥ ३०५ ॥
30 कृतार्थमद्य मे जन्म कृतार्थो विभवोऽद्य मे । कर्त लेभे मयाऽयं यत त्वत्सपोमहोत्सवः ॥ ३०६॥ स्तुत्वेति तूष्णीं प्राप्तेषु सुरेन्द्रोपेन्द्र-सीरिपु । श्रीवासुपूज्यो भगवानारेभे देशनामिति ॥ ३०७॥ संसारसागरेऽमुष्मिन् शमिलायुगयोगवत् । कथञ्चित् प्राप्य मानुष्यं भाव्यं धर्मपरैनरैः ॥ ३०८॥
शत्रुप्रतिकूलः। २ शतभिषग्नक्षत्रयुते । ३ उपवासेन । ४ अभ्यर्णम्-समीपम् । ५ 'नमो तित्थस्स' इत्येवंरूपेण तीर्थप्रणामम् । ६ हलधरेण । ७ और्वानलः वडवानलः। ८ भाषायाम्-'मेतरनी वेल'। ९ नक्रः हिंस्रः जलचरविशेषः। १० सपर्या-पूजा। भाषायाम्-'समेल' या बलीवर्दयोक्त्रयोजने उपयुज्यते ।
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.३५४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थं पर्व खाख्यातः खलु धर्मोऽयं सर्वैरपि जिनोत्तमैः । यं समालम्बमानो हि न मजेद् भवसागरे ॥३०९ ॥ संयमः सूनृतं शौचं ब्रह्माकिञ्चनता तपः । शान्तिार्दवमृजुता मुक्तिश्च दशधा स तु ॥ ३१०॥ धर्मप्रभावतः कल्पद्रुमाद्या ददतीप्सितम् । गोचरेऽपि न ते यत् स्युरधर्माधिष्ठितात्मनाम् ॥ ३११॥
अपारे व्यसनाम्भोधौ पतन्तं पाति देहिनम् । सदा संविधवाकबन्धुधर्मोऽतिवत्सलः ॥ ३१२ ॥ 5 आप्लावयति नाम्भोधिराश्वासयति चाम्बुदः । यन्महीं स प्रभावोऽयं ध्रुवं धर्मस्य केवलम् ॥ ३१३ ॥
न ज्वलत्यनलस्तिर्यग् यदुवं वाति नानिलः । अचिन्त्यमहिमा तत्र धर्म एव निवन्धनम् ॥ ३१४ ॥ निरालम्बा निराधारा विश्वाधारा वसुन्धरा । यच्चावतिष्ठते तत्र धर्मादन्यन्न कारणम् ॥ ३१५ ॥ सूर्या-चन्द्रमसावेतौ विश्वोपकृतिहेतवे । उदयेते जगत्यस्मिन् नूनं धर्मस्य शासनात् ॥ ३१६ ॥
अबन्धूनामसौ बन्धुरसखीनामसौ सखा । अनाथानामसौ नाथो धर्मों विश्वैकवत्सलः ॥ ३१७ ॥ 10 धैर्मो नरक-पातालपातादवति देहिनः । धर्मो निरुपमं यच्छत्यपि सर्वज्ञवैभवम् ॥ ३१८॥
अयं दशविधो धर्मो मिथ्याग्भिन वीक्षितः। योऽपि कश्चित् क्वचित् प्रोचे सोऽपि वामात्र नर्तनम् ॥३१९॥ तत्त्वार्थो वाचि सर्वेषां केषाञ्चन मनस्सपि । क्रियायामपि ननति नित्यं जिनमतस्पृशाम् ॥ ३२०॥ वेदशास्त्रपराधीनबुद्धयः सूत्रकण्ठकाः। न लेशमपि जानन्ति धर्मरतस्य तत्वतः ॥ ३२१॥
गोमेध-नरमेधा-ऽश्वमेधाद्ययरकारिणाम् । याज्ञिकानां कुतो धर्मः प्राणिघातविधायिनाम् ॥ ३२२ ॥ 15 अश्रद्धेयमसद्भूतं परस्परविरोधि च । वस्तु प्रलपतां धर्मः कः पुराणविधायिनाम् ? ॥ ३२३ ॥
असद्भूतव्यवस्थाभिः परद्रव्यं जिघृक्षताम् । मृत्-पानीयादिभिः शौचं स्मार्तादीनां कुतो ननु ? ॥ ३२४ ॥ तकालव्यतिक्रान्तौ भ्रणहत्याविधायिनाम । ब्राह्मणानां कुतो धर्मो ब्रह्मचर्यापलापिनाम?॥ ३२५॥ अदित्सतोऽपि सर्वस्वं यजमानाजिघक्षताम। अर्थाथै त्यजतांप्राणान क्वाऽकिञ्चन्यं द्विजन्मनाम?॥३२६॥ स्वल्पेष्वप्यपराधेषु क्षणाच्छापं प्रयच्छताम् । लौकिकानामृषीणां न क्षमालेशोऽपि दृश्यते? ॥ ३२७ ॥ जात्यादिमददुर्वृत्तपरिनर्तितचेतसाम् । क मार्दवं द्विजातीनां चतुराश्रमवर्तिनाम् ? ॥ ३२८ ॥ दम्भसंरम्भगर्भाणां बकवृत्तिजुषां वहिः । भवेदार्जवलेशोऽपि पाखण्डव्रतिनां कथम् ? ॥ ३२९ ॥ गृहिणी-गृह-पुत्रादिपरिग्रहवतां सदा । द्विजन्मनां कथं मुक्तिो भैककुलवेश्मनाम् ॥ ३३०॥ अरक्त-द्विष्ट-सूढानां केवलज्ञानशालिनाम् । अनवद्या तत इयं धर्मस्वाख्या ततोऽर्हताम् ॥ ३३१ ।।
रागाद् द्वेषात् तथा मोहाद् भवेद् वितथवादिता । तदभावे कथं नामाहतां वितथवादिता ॥ ३३२ ॥ 25 ये तु रागादिभिर्दोषैः कलुपीकृतचेतसः । न तेषां समृता वाचः प्रसरन्ति कदाचन ॥ ३३३ ॥
तथा हि याग-होमादिकाणीप्टानि कुर्वताम् । वापी-कूप-तडागादीन्यपि पूर्वान्यनेकशः ॥ ३३४ ॥ पशूपघाततः स्वर्गिलोकसौख्यं विमार्गताम् । द्विजेभ्यो भोजनैर्दत्तैः पितृप्तिं चिकीर्षताम् ॥ ३३५ ॥ घृतंयोन्यादिकरणैः प्रायश्चित्तविधायिनाम् । पञ्चस्वापत्सु नारीणां पुनरुद्वाहकारिणाम् ॥ ३३६ ॥
अपत्यासंभवे स्त्रीषु क्षेत्रजापत्यवादिनाम् । सदोषाणामपि स्त्रीणां रजसा शुद्धिवादिनाम् ॥ ३३७ ॥ 30 श्रेयोबुद्ध्यावरहतच्छागशिश्नोपजीविनाम् । सौत्रामण्यां सप्ततन्तौ सीधुपानविधायिनाम् ॥ ३३८ ॥
गूंथाशिनीनां च गवां स्पर्शतः पूतमानिनाम् । जलादिनानमात्रेण पापशुद्ध्यभिधायिनाम् ॥ ३३९ ॥
सु-सुष्टप्रकारेण, आख्यातः-कथितः-स्वाख्यातः। २ सविधम-समीपम्। * एतत्पद्यानन्तरं सं० प्रती पद्यमेतदधिक विद्यते-"रक्षोयक्षोरगव्यानव्यालानलगरादयः। नापकर्तुमलं तेभ्यो यैर्धर्मः शरणं श्रितः"॥ ३ कण्ठे सूत्रम्यज्ञोपवीतरूपं धरन्ति ते-द्विजाः। ४ अध्वरः यज्ञः। ५ स्मृतिम्-मनुस्मृति-प्रभृति-स्मृतिशास्त्रम्-अनुसरन्ति ते स्मार्ताः । * भकर्तृणाम् सं०॥ ६ 'शोधयताम्' षष्टी-बहुवचनम्-। ७ अपुत्रत्वे सति । ८ स्वभार्यायां कुलजेन अन्येन वा पुरुषेण पुत्रोत्पादनं वदन्ति तेषाम् । ९ ऋतुकाले आगतेन रजसा। १० 'सौत्रामणि'-'सप्ततन्तु' एतौ विशेषयज्ञौ। ११ गूथम्मलम्-विष्ठा ।
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द्वितीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
३५५ वटा-ऽश्वत्था-ऽऽमलक्यादिद्रुमपूजाविधायिनाम् । वह्नौ हुतेन हव्येन देवप्रीणनमानिनाम् ॥ ३४०॥ भुवि गोदोहकरणाद् रिष्टशान्तिकमानिनाम् । योषिद्विडम्बनाप्रायव्रतधर्मोपदेशिनाम् ॥ ३४१॥ जटापटल-भस्माङ्गराग-कौपीनधारिणाम् । अर्क-धत्तूर-मालूरैर्देवपूजाविधायिनाम् ॥ ३४२॥ कुर्वतां गीतनृत्यादि पुतौ वादयतां मुहुः । मुहुर्वदननादेनाऽऽतोद्यनादविनोदिनाम् ॥ ३४३॥ असभ्यभाषापूर्वं च मुनीन् देवान् जनान् प्रताम् । विधाय व्रतभङ्गं च दासीदासत्वमिच्छताम् ।।३४४॥ 5 अनन्तकायकन्दादि-फल-मूल-दलाशिनाम् । कलत्र-पुत्रयुक्तानां वनवासजुषामपि ॥ ३४५॥ भक्ष्याभक्ष्ये पेयापेये गम्यागम्ये समात्मनाम् । योगिनाम्ना प्रसिद्धानां कौलाचार्यान्तवासिनाम् ॥३४६॥ अन्येषामपि जैनेन्द्रशासनास्पृष्टचेतसाम् । क्व धर्मः क फलं तस्य तस्य वाख्यातता कथम् ॥ ३४७॥ जैनेन्द्रस्यापि धर्मस्य यदत्रामुत्र वा फलम् । आनुषङ्गिकमेवेदं मुख्यं मोक्षं प्रचक्ष्यते ॥ ३४८॥ ससहेतौ कृषौ यद्वत् पलालाद्यानुषङ्गिकम् । अपवर्गफले धर्मे तद्वत् सांसारिकं फलम् ॥ ३४९ ॥ 10
एवं तां देशनां श्रुत्वा भूयांसः प्रावजञ्जनाः। प्राप द्विपृष्टः सम्यक्त्वं श्रावकत्वं च लागली ॥३५०॥ पूर्णायामादिपौरुष्यां व्यसृजद् देशनां प्रभुः। द्वितीयां पौरुषी यावत् सूक्ष्मो गणधरो व्यधात् ॥३५१॥ ततः स्थानादथान्यत्र विजहार जगद्गुरुः । स्थानं निजनिजं जग्मुरिन्द्रोपेन्द्रबलादयः ॥ ३५२ ॥ द्वासप्ततिः सहस्राणि श्रमणानां महात्मनाम् । साध्वीनां लक्षमेकं तु संयमश्रीजुषां खलु ॥ ३५३॥ चतुर्दशपूर्वभृतां सहस्रं द्वे शते तथा । अवधिज्ञानिनां पञ्च सहस्राः सचतुःशताः ॥३५४॥ 15 मनःपर्यययुक्तानामेकषष्टिः शतानि तु । षष्टिः शतानि विमलकेवलज्ञानशालिनाम् ॥ ३५५ ॥ जाता वैक्रियलब्धीनां सहस्राणि दशैव हि । वादलब्धिमतां सप्तचत्वारिंशच्छतानि तु ॥ ३५६ ॥ श्रावकाणामुभे लक्षे सहस्रा दश पञ्च च । श्राविकाणां चतुर्लक्षी सपट्त्रिंशत्सहस्रिका ॥ ३५७ ॥ चतुःपञ्चाशतं वर्षलक्षाणां मासवर्जितम् । आकेवलाद् विहरतः परिवारः प्रभोरभूत् ॥ ३५८ ॥ ज्ञात्वा च मोक्षमासनं ययौ चम्पां जगत्पतिः । प्रपेदेऽनशनं तत्र पइभिर्मुनिशतैः समम् ॥ ३५९ ॥ 20 मासान्ते चाषाढशुक्लचतुर्दश्यां निशाकरे । उत्तरभद्रपदास्त्रे सशिष्योऽगाच्छिवं विभुः ॥ ३६० ॥ अष्टादशाब्दलक्षाणि कुमारत्वे व्रते पुनः । चतुःपञ्चाशदित्यायुर्लक्षा द्वासप्ततिः प्रभोः ॥ ३६१ ॥ श्रेयांसप्रभुनिर्वाणाद् वासुपूज्यस्य निर्वृतिः। सागरेषु चतुःपञ्चाशत्यतीतेष्वजायत ॥ ३६२ ।। गीर्वाणेन्द्राः सगीर्वाणां निर्वाणमहिमोत्सवम् । स्वामिनः स्वामिशिष्याणामप्यकार्पुर्यथाविधि ॥ ३६३ ॥ द्विपृष्ठवासुदेवोऽपि महारम्भपरिग्रहः । मृगारिरिव निःशङ्को देववञ्च प्रमद्वरः ॥ ३६४ ।। भोगान् यथेच्छं भुञ्जानः पालयित्वायुरात्मनः । विपद्य षष्ठीमगमन्नरकोवीं तमःप्रभाम् ॥ ३६५ ॥
॥युग्मम् ॥ द्विपृष्टस्य कौमारेऽब्दलक्षं पादोनवर्जितम् । तदेव मण्डलीकत्वे दिग्जयेऽब्दशतं तथा ॥ ३६६ ॥ राज्ये सप्तत्यब्दलक्षी तथा नवशताधिका । वत्सरैकोनपञ्चाशत्सहस्रीत्यायुरूर्जितम् ॥ ३६७ ॥ बलभद्रोऽपि पादोनकोटिहायनजीवितः । तस्थौ कथञ्चिदेकाकी स्वभ्रातृस्नेहमोहितः ॥ ३६८ ॥ 30
श्रीवासुपूज्यवचनसरणेन बन्धुमृत्या च माढतरमेव भवाद् विरक्तः ।
आत्तव्रतो विजयसूरिपदाब्जमूले काले विपद्य च शिवं विजयो जगाम ॥ ३६९ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थे पर्वणि श्रीवासुपूज्य-द्विपृष्ट-विजय-तारकचरितवर्णनो। नाम द्वितीयः सर्गः।
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पुतम्-नितम्बस्य विशेषभावः। * विधायिनाम सं०॥ २ अन्तबासिनः शिष्याः। ३ सदेवाः ।
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ॐ नमो विमलनाथाय निष्कर्मविमलात्मने । धर्मखाख्यात तागङ्गाप्रभवैकहिमाद्रये ॥ १ ॥ त्रयोदशार्हतस्तस्य चरित्रमिदमुच्यते । जगत्पवित्रीकरणं तीर्थोदकमिवामलम् ॥ २॥ धातकीखण्डद्वीपे प्राग्विदेहे विजये पुनः । भरताख्ये पुरीरत्नं नामतोऽस्ति महापुरी ॥ ३ ॥ तत्र पद्मागृहं पद्मसेनो नाम महीपतिः । अपां पतिरिवाधृष्योऽभिगम्यश्चाभवद् गुणैः ॥ ४ ॥ स्वशासनमिवावन्यां स चित्ते जैनशासनम् । अखण्डप्रसरं चक्रे धुर्यो बलिविवेकिनाम् ॥ ५ ॥ दुर्वेश्मनीव संसारे सोमुष्मिन् निवसन्नपि । सदैव धारयामास वैराग्यमधिकाधिकम् || ६ || स एवं भवनिर्विण्णः सर्वगुप्ताभिधं गुरुम् । ययौ महीरुहवरं मार्गखिन्न इवाध्वगः ॥ ७ ॥ 10 दीक्षां जग्राह तत्पार्श्वे सम्यक् तां प्रत्यपालयत् । 'रोरो धनमित्र प्राप्तमनात्मज इवात्मजम् ॥ ८ ॥ अर्हद्भक्त्यादिभिः स्थानैर्यथाविधिनिषेवितैः । ऊर्जितैरर्जयामास तीर्थकुन्नाम कर्म सः ॥ ९ ॥ चिरं तीव्रं तपस्तप्त्वा पूरयित्वाऽऽयुरात्मनः । मृत्वा कल्पे सहस्रारे महर्द्धिः सोऽमरोऽभवत् ॥ १० ॥
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इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् भरतक्षेत्रभूषणम् । पुरं काम्पील्यमित्यस्ति दिवः खण्डमिव च्युतम् ॥११॥ तत्र चैत्यानि चन्द्राश्म पुत्रिकाक्षरदम्बुभिः । कलयन्ति निशीथिन्यां यत्रधारागृहश्रियम् ॥ १२ ॥ 15 हैमाः कुम्भाः प्रभासन्ते तत्र गेहोर्ध्वभूमिषु । खर्णानान्याहितानीव निवासाय सदा श्रियः ॥ १३ ॥ विचित्र हर्म्यप्रासादजीकं तद्राजत । विधातुरालेख्यमिव सृजतो "दिविषत्पुरीम् ॥ १४ ॥ दैवेनाप्यभिभूतानां शरणार्थमुपेयुपाम् । वैज्रवर्मेव तत्राभूत् कृतवर्मेति भूपतिः ॥ १५ ॥ गङ्गाजलं तद्यशश्व स्पर्धयेव परस्परम् । परितः प्रीणयत् पृथ्वीं प्रपेदे निधिमम्भसाम् ॥ १६ ॥ नाभूत् पराङ्मुखो जातु याचकेष्विव सोऽरिषु । पराङ्मुखः परस्त्रीषु परनिन्दास्विवाभवत् ॥ १७ ॥ महविवस्वतस्तस्य समरे परिपन्थिनः । न सोढुमशकंस्तेजोऽन्धकारादिव निर्गताः ॥ १८ ॥ पादच्छाया सदा तस्य महावटतरोवि । कुब्जीभूय प्रणामेन सिषेवे वसुधाधर्वैः ।। १९ ।। बभूव तस्य श्यामेति श्यामेव तुहिनद्युतेः । सधर्मचारिणी सर्वशुद्धान्तमुखमण्डनम् ॥ २० ॥ कुलश्रीरिव सा मूर्त्ता सतीत्रतमिवाङ्गवत् । रूप-लावण्यलक्ष्मीणां प्रत्यक्षेवाधिदेवता ॥ २१ ॥ मन्दं मन्दं मराली देवी संचरति स्म सा । नित्यमेव पतिध्यानव्याकुलेनेव चेतसा ॥ २२ ॥ बभूव सा भूचरीषु स्त्रीष्वसाधारणा तथा । यथाऽर्हति स्म तत्सख्यं देवी श्रीरथवा शची ॥ २३ ॥ यत्र यत्र खामिनी सा चचार पृथिवीतले । तत्र तत्रान्वगालक्ष्मीर्यामिकीव दिवानिशम् ॥ २४ ॥
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कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
तृतीयः सर्गः ।
श्रीविमलनाथचरित्रम् |
[ चतुर्थ पर्व
इतः कल्पे सहस्रारे पद्मसेनमहीपतेः । स जीवः पूरयामास स्वमायुः परमस्थिति ।। २५ ।। शुद्धद्वादश्यां राधस्योत्तरभद्रपदासु भे । सोऽथ च्युत्वा ततः श्यामा देवीकुक्षाववातरत् ॥ २६ ॥ मुखे प्रविशतस्तीर्थकरजन्माभिसूचकान् । श्यामादेवी महास्वनां चतुर्दश ददर्श सा ॥ २७ ॥ 30 पूर्णे काले माघशुक्ल तृतीयायां निशाकरे | उत्तरभद्रपदास्थे स्वोच्चस्थेषु ग्रहेषु च ॥ २८ ॥
1
१ स्वाख्याता - सुप्रसिद्धिः । २ लक्ष्मीस्थानम् । ३ अनुप्यः - अनभिभवनीयः । ४ अभिगम्यः - आश्रयणीयः । ५ निर्विण्णःखिनः । ६ दरिद्रः । ७ अपुत्रः । ८ पुत्रिका - पुत्तलिका | ९ रात्रौ । १० स्वर्गम् । १५ वज्रमयकवचः
१२ शत्रवः ।
१३ प्रतिहारी । १४ उत्कृष्ठस्थितिकम् ।
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तृतीयः सर्गः 7
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
सुतं सूकरलक्ष्माणं तपनीयोपमद्युतिम् । ज्ञानत्रयधरं श्यामास्वामिनी सुषुवे सुखम् ॥ २९ ॥ स्वामिनः स्वामिमातुश्च सूतिकर्मैत्य सर्वतः । षट्पञ्चाशद्दिकुमार्यश्रेटिका इव चक्रिरे ॥ ३० ॥ एत्य शक्रो मेरुशैले नीत्वाऽङ्के न्यस्य च प्रभुम् । अतिपाण्डुकम्बलीस्थे सिंहासन उपाविशत् ॥३१॥ त्रयोदशं जिनेन्द्रं तं सुरेन्द्रा अच्युतादयः । त्रिषष्टिः स्त्रपयामासुः क्रमशस्तीर्थवारिभिः ॥ ३२ ॥ ईशानाङ्के निवेश्येशं शक्रोऽप्यस्त्रपयञ्जलैः । वृषशृङ्गोत्थितैः शैलशृङ्गोत्थैरिव निर्झरैः ॥ ३३ ॥ स्वामिनं देवदुष्येण वाससा वासवः स्वयम् । आर्द्र स्नानीयपानीयैर्माणिक्यवदमार्जयत् ॥ ३४ ॥ गोशीर्षचन्दनैः श्यामानन्दनं नन्दनाहृतैः । स व्यलिम्पद् वपुर्लग्नं देवदूष्यभ्रमप्रदैः ॥ ३५ ॥ विचित्रैर्दामभिर्दिव्यैर्वस्त्रालङ्करणैरपि । अर्चित्वाऽऽरात्रिकं कृत्वा प्रभुं शक्रोऽस्तवीदिति ॥ ३६ ॥ मोहेन तिमिरेणेव परितोऽपि प्रसारिणा । नितान्तकोपनैर्नक्तञ्चरैरिव जटाधरैः ॥ ३७ ॥ बुद्धिसर्वस्वहरणैश्चार्वाकैस्तस्करैरिव । अत्यन्तमायानिपुणैर्गोमायुभिरिव द्विजैः ॥ ३८ ॥ भ्रमद्भिर्मण्डलीभूय कौलाचार्यैर्वृकैरिव । उलूकैरिव पाखण्डैर्वल्गद्भिरपरैरपि ॥ ३९ ॥ सिद्धेनेव विवेकाक्षं मिथ्यात्वेन विलुम्पता । सद्भूतानां पदार्थानामविज्ञानेन सर्वतः ॥ ४० ॥
*
१ तपनीयम् - सुवर्णम् । इति भाषायाम् । ३ शृगालैः कर्मैव रुग- तस्मिन् औषधरूपाः ।
।
४८ ॥ 20
भूरिमयं कालो यामिन्येव जगत्पते ! । प्रभातं त्वधुना जज्ञे त्वया नाथेन भाखता ॥ ४१ ॥ त्वत्पादपद्यामासाद्य लङ्घितालङ्घिता खलु । निम्नैरपि हि संसारनिम्नगा निम्नगा जनैः ॥ ४२ ॥ भवच्छासननिःश्रेणिमधिरुह्या चिरादपि । मन्येऽध्यासितमेवोच्चैर्लोकाग्रं भव्यजन्तुभिः ॥ ४३ ॥ अस्माकमप्यनाथानां चिरान्नाथोऽस्युपस्थितः । निदाघातपतप्तानां पान्थानामिव वारिदः ॥ ४४ ॥ इत्थं त्रयोदशं तीर्थकरं स्तुत्वा पुरन्दरः । गत्वा यथागतं श्यामास्वामिनी पार्श्वतोऽमुचत् ॥ ४५ ॥ शक्रः स्वामिगृहान्मेरोस्त्वन्येन्द्राः स्वं स्वमास्पदम् । प्रययुः कृतकल्याणयात्राः सायात्रिका इव ॥ ४६ ॥ नरेन्द्रः कृतवर्माऽपि शर्मवान् विश्वशर्मदम् । ऋद्ध्या महत्या विदधे सूनोर्जन्ममहोत्सवम् ॥ ४७ ॥ गर्भस्थे जननी तस्मिन् विमला यदजायत । ततो विमल इत्याख्यां तस्य चक्रे पिता स्वयम् ॥ arat सुरस्त्रीभिर्लाल्यमानो जगत्पतिः । सुरैश्च स्वयोभूय रम्यमाणो व्यवर्धत ॥ ४९ ॥ षष्टिधन्वोन्नतः स्वामी क्रमेण प्राप यौवनम् । अष्टोत्तरसहस्रेण लक्षणानां च लक्षितः ॥ ५० ॥ स पित्रोरुपरोधेन भववैराग्यभागपि । राज्ञां पुत्रीरुपायंस्त भोग्यंकर्मरुगौषधीः ॥ ५१ ॥ कौमारे पञ्चदशाब्दलक्षी मुल्लय मेदिनीम् । अशात् पितृगिरा मान्या पित्राज्ञा ह्यर्हतामपि ॥ ५२ ॥ गतेषु वर्षलक्षेषु त्रिंशत्यवनिपालने । भवाब्धेस्तंरणे तरीं दीक्षावेलामचिन्तयत् ॥ ५३ ॥ सारस्वतप्रभृतयोऽभ्येत्य लोकान्तिकामराः । तीर्थं प्रवर्तय स्वामिन्नित्यूचुश्च जगद्गुरुम् ॥ ५४ ॥ ददौ च वार्षिकं दानं द्रविणैर्नृम्भकाहृतैः । याचकेभ्यो यथायाचं कल्पद्रुम इवावनौ ।। ५५ ।। दानान्ते विदधुर्दीक्षाभिषेकं विमलप्रभोः । विमलैर्निजमनोवत् सुमनः पतयोऽम्बुभिः ॥ ५६ ॥ आमुक्त दिव्यालङ्कारवस्त्रो दिव्यविलेपनः । शिविकां देवदत्ताख्यामारुरोह ततः प्रभुः ॥ ५७ ॥ सुरासुरनराधीशैः परितोऽपि समावृतः । तया शिविकया स्वामी सहस्राम्रवणं ययौ ॥ ५८ ॥ उद्यानपालबालाभिस्तदा शिशिर भीरुभिः । वेश्मप्रीत्या सेव्यमानलताकुञ्जपरम्परम् ।। ५९ ।। भविष्यदद्भुत श्रीकैर्माकन्दचकुलादिभिः । संह्यमानहिमानीकं तपस्यद्भिरिव द्रुमैः ॥ ६० ॥
८ शासनं चकार । + 'रणत संबृ० का० ॥ शेषाः । 1 °पि परावृ संबृ० का० ॥ १० सामाना हिमसंहतिः यस्मिन् तत् ।
त्रिषष्टि. ४६
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'लास्थासि सं० ॥ | 'यैरत्नस्तम्भमिवामृजत् । सं० ॥ २ लग्नम् - धृतम् ' लागेलु'
४ पथावर । ५ समुद्रयायिनः, नौवणिजः ।
६ समानवयोयुता भूत्वा । ७ भोग्यं
९ जृम्भका - त्रियग्जृम्भकाख्या देवनि -
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
चतुर्थ पर्व प्रत्यौः कूपपानीयैश्छायाभिर्वटभूरुहाम् । रिरंसुपौरद्वन्द्वानों निषिद्धशिशिरव्यथम् ॥ ६१ ॥ शीतातप्लवगैः पुञ्जीकृतगुञ्जाफलेक्षणात् । नागरस्त्रीविरचितसितज्योत्स्नातरङ्गितम् ॥ ६२ ॥ कृतसितमिव सेरलवलीकुन्दकोरकैः । प्रविवेश तदुधानं भगवान् विमलप्रभुः ॥ ६३॥
॥पञ्चभिः कुलकम् ।। शिबिकातः समुत्तीर्य त्यक्त्वा चाभरणादिकम् । स्कन्धे च वासवन्यस्तं देवदृष्यांशुकं दधत् ।। ६४॥ माघस्य शुक्लचतुर्थी जन्मऋक्षे परेऽहनि । समं नृपसहस्रेण षष्ठेन प्रानजत् प्रभुः ॥६५॥ युग्मम् ॥ द्वितीयेऽसि धान्यकटपुरे' जय नृपौकसि । पारणं परमानेन चकार विमलप्रभुः॥६६॥ विदधे विबुधैस्तत्र वसुधारादिपञ्चकम् । रत्नपीठं स्वामिपादस्थाने जयनृपेण तु ॥ ६७ ॥ ततः स्थानादथान्यत्र ग्रामाकरपुरादिषु । प्रावर्तत विहाराय छमस्थः परमेश्वरः ॥ ६८ ॥ ___ इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् विदेहेष्वपरेषु च । नन्दितुलित्र आनन्दकर्या पुर्यामभून्नृपः ॥ ६९ ॥ चक्षुष्मानपि चक्षुष्मान् विवेकेन बभूव सः । ससहायश्च खङ्गेन महासैनिकवानपि ॥ ७० ॥ जन्मतोऽपि भवोद्विमो जानानः सर्वमस्थिरम् । दधार पैतृकं राज्यमपि पालयितुं क्रमम् ॥ ७१॥ मनसा प्रागपि त्यक्तं त्यक्त्वा राज्यमथान्यदा । प्रत्रयां सुव्रताचार्यपादान्ते स उपाददे ॥७२॥
विविधाभिग्रहधरश्चरित्वा दुश्वरं तपः । कृत्या चानशनं मृत्वाऽनुत्तरे समभूत् सुरः ॥ ७३ ॥ 15 अत्रैव जम्बूद्वीपे च पुर्यां भरतभूपणे । श्रावस्त्यां धनमित्राख्यो बभूव पृथिवीपतिः ॥ ७४॥
धनमित्रनरेन्द्रस्य स्नेहादतिथितां गतः । पुयां तत्रैव चावात्सीद् बलि म महीपतिः ॥ ७५ ॥ धनमित्रोऽन्यदा रेमेऽक्षयूतं बलिना समस् । अक्षीणबुद्धिविभवो गैमेन च चरेण च ॥ ७६ ॥ पत्तीनामिव सारीणां वध-बन्धपरौ मिथः । विपञ्चयामासतुस्तौ चूतं रणमिवोत्कटम् ॥ ७७ ॥
सर्वात्मना जेतुकामौ तावन्योऽन्यं नरेश्वरौ । स्वं पणीचक्रतू राज्यं द्यूतान्धानां कुतो मतिः ॥ ७८ ॥ 20 अथ हारितवान् राज्यं धनमित्रनृपो निजम् । रोरपुत्र इवाश्रीक एकाङ्गश्चाभवत् क्षणात् ॥ ७९ ॥
अवस्तुभूय स भ्राम्यन् कश्मलो जीर्णकर्पटः । भूताविष्ट इव प्राप सर्वत्राप्यवमाननाम् ॥ ८॥ सोटन्नितस्ततोऽन्येधुर्ददर्शर्षि सुदर्शनम् । पपौ च देशनां तस्माद् यूषं रोगीव लड्वितः ॥८१॥ प्रतिवुद्धः परिव्रज्यां जग्राह च तदन्तिके । चिरं च पालयामासापमानं तमविस्मरन् ॥ ८२ ॥
फलेन तपसोऽमुष्य वधाय बलिभूपतेः। भवान्तरेऽहं भूयासं निदानमपि स व्यधात ॥८३॥ 25 इत्थं कृतनिदानः सन् मृत्वाऽनशनकर्मणा । उदपायच्युते कल्पे प्रकृष्टायुःस्थितिः सुरः॥८४॥
यतिलिङ्गमुपादाय बलिः कालेन गच्छता । विपद्य समभूत् कल्पे महर्द्धिरमरोत्तमः ॥ ८५॥ च्युत्वा च भरतक्षेत्रे स नन्दनपुरेऽभवत् । देव्यां सुन्दयां समरकेसरिमापतेः सुतः ॥८६॥ स्निग्धाञ्जनद्यतिवपुः पष्टिधन्वोन्नताकृतिः। षष्टिवत्सरलक्षायरभाटद्भतविक्रमः॥८७॥
आवैताढ्यं प्रतापाढ्यो भरतार्धमसाधयत् । अभृच्च प्रतिविष्णुः स मेरकाख्योऽधचक्रभृत ॥८८॥ 30 वायोः पुर इवौजखी तेजखीव रवेः पुरः। न कोऽपि तस्य पुरतः प्रतिमल्लोऽभवन्नृपः ॥ ८९ ॥
दैवस्येव न तस्याज्ञां व्यत्यलशिष्ट कश्चन । रक्षाशिखाबन्धमिव मूनी सर्वेऽप्यधुः पुनः ॥९॥ __ इतश्च भरतक्षेत्रे द्वारकायामभूत् पुरि । समुद्र इव गम्भीरो रुद्रो नाम महीपतिः ॥ ९१ ॥
श्री-पृथिव्याविव साक्षात् सुप्रभा पृथिवीति च । तस्याभूतामुझे कान्ते कान्ते रूप-गुणश्रिया ॥ ९२ ॥ ___ *नां प्रशान्तशि° संवृ०॥ १ प्लवगा:-वानराः। ।रे नृपजयोक मु०॥ २ क्षीरेण । 'तैर्वलि संवृ.. ३-४ गम-चरौ चूतक्रीडा कलाभेदौ । ५ द्यूतक्रीडोपयुक्तं वस्तु सारीति कथ्यते । ६ मलिनः। ७ कर्पट:-'कपडु' इति भाषायाम् ८ अवमानात् । ९ रसम् । मपि म मु०॥ १० "निया' भाषायाम् ।
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तृतीयः सर्गः ]
त्रिपटिशला कापुरुषचरित महाकाव्यम् ।
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rial नन्दिमित्रस्य सोऽनुत्तरविमानतः । प्रच्युत्य सुप्रभादेव्या उदरे समवातरत् ॥ २३ ॥ चतुरोऽथ महास्वमान् हलसृजन्मसूचकान् । सुखसुप्ता निशाशेषे सुप्रभादेव्युदैक्षत ॥ ९४ ॥ ततो नवसु मासेषु दिनेष्वर्थाष्टमेषु च । सुप्रभा सुषुवे सूनुमनूनं शशितो रुचा ।। ९५ ।। भद्र इत्यभिधां तस्य विदधे रुद्रभूपतिः । कुलभद्रश्रिया सार्धं व्यवर्धिष्ट क्रमेण सः ।। ९६ ।। धनमित्रस्य जीवोsपि प्रच्युत्याच्युतकल्पतः । उत्पेदे पृथिवीकुक्षौ सरसीव सरोरुहम् ॥ ९७ ॥ साऽपि सप्त महास्मान् शार्ङ्गभृजन्मसूचकान् । सुखसुप्ता निशाशेषेऽपश्यत् प्रविशतो मुखे ॥ ९८ ॥ संपूर्ण समये साऽपि श्यामाङ्गमतिभासुरम् | असूत सूनुं वैर्यं वैरगिरिभूरिव ।। ९९ । स्वयम्भूरिति तस्यापि नामधेयं प्रमोदभाक् । विदधे रुद्रभूपाल उत्सवेन महीयसा ॥ १०० ॥ नित्यमेव हि धात्रीभिः पाल्यमानः स पञ्चभिः । व्यवर्धिष्ट समितिभिर्मुनेरिव तपोऽनवम् ॥ १०१ ॥ भद्र स्वयम्भुवौ प्रीत्या संगच्छेते स्म सर्वदा । प्रवाहाविव तौ गाङ्ग-यामुनौ श्वेतमेचकौ ॥ १०२ ॥ सेहिरे न तयोः पादघातान् राजकुमारकाः । तत्पादपरिघातेन भ्रश्यन्ति स्नादयोऽपि यत् ॥ १०३ ॥ नील-पीतांशुकभृतौ तौ ताल-गरुडध्वज । चलन्तौ क्रीडयाऽप्युव पर्यचालयतामिमाम् ॥ १०४ ॥ अभ्यासः सर्वशस्त्रेषु सर्वशास्त्रेषु चाभवत् । दोषीर्य-बुद्ध्योतारुण्यमिव लक्ष्मीविशेषकृत् ।। १०५ ।। पुरीपरिसरेऽन्येद्युः क्रीडन्तौ तावपश्यताम् । हस्त्यश्वकोशबहुलं सारखं शिविरं स्थितम् ॥ १०६ ॥ सुहृदा सुहृदाऽथवा । इति लाङ्गलिना पृष्टः प्रोवाच सचिवात्मजः ॥ १०७ ॥ भुजा शशिसौम्येन मेरकायार्धचक्रिणे । प्रेषितं प्राभृतमिदं दण्डे जीवितकाम्यया ।। १०८ ।। तच्छ्रुत्वा कुपितः शार्ङ्गपाणिरेवमवोचत । किं नः संपश्यमानानां दण्डस्तस्मै भविष्यति १ ॥ १०९ ॥ arat मेकः कोऽयं यः किलामा सत्स्वपि । पार्थिवान् दण्डयत्येवं द्रष्टव्यं तस्य पौरुषम् ॥ ११० ॥ गृह्यतां सर्वमप्येतदाच्छिद्य स्वयमोजसा । करमुत्क्षिप्य तानेवं स्वकीयानादिशद् भटान् ॥ गदामुद्गरदण्डाद्यैः शशिसौम्यस्य सैनिकान् । तद्भटास्ताडयामासुः फलितानिव पादपान् ॥ अतर्कितद्रोहिभिस्तैः प्रसुप्ता इव सौप्तिकैः । हन्यमानाः प्रणेशुस्ते प्राणानादाय काकवत् ॥ ११३ ॥ हस्त्यश्वाद्याददे पश्चात् तत्सर्वं शार्ङ्गपाणिना । क्षत्रियाणां गुणो ह्येष परश्रीहरणं हठात् ॥ ११४ ॥ ताभ्यामपहृतं द्रव्यं मेरायार्धचक्रिणे । शशंसुः शशिंसौम्यस्य नराः पूत्कारकारिणः ।। ११५ ।। तदाकर्ण्य परिक्रुद्धो निर्मर्याद इवान्तकः । मेरकोऽधिसभं भीमभ्रकुटीकोऽब्रवीदिति ॥ ११६ ॥ पादाहतिः खरेणेव पिण्डमत्तेन दन्तिनः । कुटुम्बिकसधर्मिण्या हालिकेनेव कुट्टनम् ॥ ११७ ॥ चपेटाघटनमिव मण्डूकेन फणाभृतः । स्वमृत्यवे कृतमिदमनात्मज्ञेन रौद्रिणा ॥ ११८ ॥ - पक्षोमः पीलिकानामिव पर्यन्तकारणम् । विपरीता मतिः पुंसां भवेद् दैवे पराङ्मुखे ॥ ११९ ॥ सपितृभ्रातरं नव्यभ्रातृव्यकमुपस्थितम् । हनिष्याम्येष तं दस्युभित्र प्राभृतहारिणम् ॥ १२० ॥ अथैकः सचिवोऽवोचद् बाल्यात् ताभ्यामिदं कृतम् । रुद्रेण भूभुजा दीर्घं सेवितोऽसीति मा कुपः ॥ १२१ ॥ मन्ये न संमतं राज्ञो रुद्रस्यैतद् भविष्यति । आरिराधयिषैवास्ति तस्य त्वां स्वामिनं प्रति ॥ १२२ ॥ स्वामिनः प्रथमे कोपे नद्याः पूरे च कः पतेत् । एवमाशङ्कया नूनं रुद्रभूपो विलम्बते ॥ १२३ ॥ देव ! प्रसीदादिश मां तदभीतिं प्रयच्छं च । आनेष्यामि प्राभृतं तत् सविशेषमहं ततः ॥ १२४ ॥
१११ ॥
११२ ॥
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* ये विडू° सं० ॥ १ समितयः--र्यादयः पञ्च । २ मेचक:-कृष्णः । ३ बराक:- 'रोक' 'बीचारो' इति भाषायाम् ।
४ अपहृत्य ।
६ हालिक:- हलभृत् 'खेडूत' इति भाषायाम् । ७ पिपी५ सुप्तेष्वाक्रामकैः । शिसौम्यीया न सं० ॥ लिकानां पक्षोत्पत्तिर्म रणसंसूचिका - इति भावार्थः । ८ आराधयितुमिच्छ । च्छत । आ' का० च्छ वा । आ° सं० ॥
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[चतुर्थं पर्व आमित्युक्तो मेरकेण स द्रुतं द्वारकां ययौ । भद्र-स्वयम्भूसहितं रुद्रं चैवमभापत ॥ १२५ ॥ किमेतत् तव पुत्राभ्यामज्ञानान्नृपते ! कृतम् । हन्यते न खलु श्वाऽपि स्वामिनो मुखलजया ॥ १२६ ॥ एवमप्यर्प्यतां सर्वं न ते दोषो भविष्यति । छादयिष्यत्यात्मजयोर्दोषमज्ञानतैव हि ॥ १२७ ॥
अथ स्वयम्भूरित्यूचे स्वामिभक्त्या भवानिदम् । तातं प्रत्यार्यभावेन चार्यधीर्वक्ति साधु तत् ॥१२८॥ 5 धीरीभूय निरीक्षध्वं तस्याच्छिन्नमिदं कियत् । आच्छेत्स्यामो महीं सर्वां वीरभोग्या हि भूरियम् ॥१२९।।
आर्यस्य बलभद्रस्य दोष्णोर्मम च को बलम् । सहिष्यते कृतान्तस्य कुपितस्येव संगरे ॥ १३० ॥ एकं तमेव हत्वाऽहं भोक्ष्येऽर्धभरतं स्वयम् । किमन्यैः कुट्टितैर्भूपैर्बहुभिः कीटकैरिव ॥ १३१ ॥ तेनापि दोर्बलेनात्तं भरतार्ध न पैतृकम् । तन्न्यायेन ममाप्यस्तु बलिनो बलिनामपि ॥ १३२॥
इत्युक्त्या विस्मितो भीतो हीतश्च सचिवोऽथ सः । गत्वा द्रुतं मेरकाय समाचख्यौ यथातथम् ॥१३३॥ 10 मत्तेभ इव संक्रुद्धस्तस्य दुःश्रवया गिरा । कम्पयन् क्ष्मां सैन्यभारैः प्रतस्थे भेरकस्ततः ॥ १३४ ॥
इतः स्वयम्भू रुद्रेण भद्रेण च समन्वितः । प्रतस्थे द्वारकापुर्याः कन्दरादिव केसरी ॥ १३५ ॥ जनयन्तौ जनक्षोभं भैरवी रौद्र-मेरको । राई-सौरी इवैकत्र क्रमेणाथ समेयतुः ॥ १३६ ॥ अभूच्छत्रप्रहाराग्निकरालितदिगन्तरः । तत्सैन्ययोः संप्रहारः ग्रहाण इव दारुणः ॥ १३७ ॥
खयम्भूः पूरयामास पाश्चजन्यमथ स्वयम् । अशेषद् द्विपदुच्चाटमन्त्रोपममहास्वनम् ॥ १३८ ॥ 15 पाञ्चजन्यध्वनेस्तस्मात् त्रेसुमेरकसैनिकाः । न हि केसरिबूत्कारं श्रुत्वा तिष्ठन्ति वारणाः ॥ १३९ ॥
सैन्यान् संस्थापयामास ताम्रचूडानिव स्वयम् । मेरको रथमारुह्य डुढौकेऽभिस्वयम्भुवम् ॥ १४० ॥ किं मुधा सैन्यसंहारेणेति व्याहारिणौ मिथः । आस्फालयामासतुस्तौ धनुरेकधनुधरौ ॥ १४१ ॥ उद्वाहमण्डपमिव विदधानी जयश्रियः । मार्तण्डच्छादिभिर्वाणजालैभवप्यवर्षताम् ॥ १४२ ॥ बाणवृष्ट्या बाणवृष्टिं तौ निराचक्रतुर्मिथः । विषं विषेणेव हुताशनेनेव हुताशनम् ॥ १४३ ॥ सहस्रशः शरकरैः प्रसरद्भिविराजिनौ । अर्काविवोद्गतौ द्वौ तौ ददृशाते भयङ्करौ ॥ १४४ ॥ पाणिर्गतागतं कुर्वन्निषङ्गधनुरन्तरे । अलक्ष्योऽलक्ष्यत तयोरुर्मिकातेजसैव हि ॥ १४५ ॥ पाणिस्तदैव तूणीरे तदैव हि धनुर्गुणे । पतन् द्वैरूप्यभृदिवाभात् तयोर्लघुहस्तयोः ॥ १४६ ।। बाणैरजय्यं ज्ञात्वाऽरि मेरकोऽस्त्रैर्गदादिभिः । ववर्ष कल्पान्तमरुच्छैलशृङ्गैरिवोद्धतैः ॥ १४७ ॥ तानि स्वयम्भूः प्रत्यौभस्मसादकरोद् द्रुतम् । दृग्ज्वालाभिः करालाभिश्चक्षुर्विष इवोरगः ॥१४८ ॥ रणपारं जिगमिषुश्चक्रं सस्मार मेरकः । व्याधस्य सिञ्चान इव पाणौ तस्यापतञ्च तत् ॥ १४९ ॥ उदीरयामास ततो मेरकोऽपि स्वयम्भुवम् । क्रीडया युध्यमानेन मयैवासि भेटीकृतः ॥ १५० ॥ एष छेत्स्यामि ते शीर्ष गच्छ गच्छाधुनाऽप्यरे । काकानां तस्कराणां च नश्यतां का ननु त्रपा! ॥१५१॥ स्वयम्भूरप्युवाचैवं क्रीडायुद्धं यदीदृशम् । प्रेक्ष्यं तत् कोपयुद्धं ते तदर्थ ह्यहमागमम् ॥ १५२ ।।
आच्छिन्दन्तो द्विपां लक्ष्मी चीराश्चेत् तस्करास्तदा । प्रथमस्तस्करोऽसि त्वं प्रदत्ता तव केन सा ॥१५३॥ 30 मुक्त्वाऽपि चक्रं नष्टव्यं यत् त्वयाऽद्यापि नश्यताम् । काकानां तस्कराणां च नश्यतां का ननु त्रपा? ॥१५४॥
मुश्च मुश्चाथवा चक्र बलमस्यापि दृश्यताम् । अपि ते म्रियमाणस्य नानुतापो यथा भवेत् ॥ १५५॥ इत्युक्तो मेरकश्चक्रं व्योम्नि भौममिवापरम् । ज्वालाजालकरालं तद् भ्रमयित्वाऽमुचद् द्विपि ॥ १५६ ॥
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सौरिः-शनिः। २ प्रलयकाल इव; "हार इ" संबृ. का०॥ ३ गजाः। ४ कुक्कटान् । ५ वादिनी। * धनुर्व(ई)रघ संबृ०॥ द्भिश्चिराजनैः। अ' का०; जितौ। अ. संवृ०॥ ६ इषङ्गः- भाथु इति भाषायाम् । ७ अमिका-अङ्गुली । . 'सींचाणो' इति भाषायाम् । ९ भटो योधः। १० अपहरन्तः। ११ लक्ष्मीः । १२ भङ्गलग्रहम् ।
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तृतीयः सर्गः ]
त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरितमहाकाव्यम् ।
१६७ ॥
१६८ ॥
१६९ ।।
१७० ॥
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शार्ङ्गपाणेरुरःपीठं तेनाजने चपेटया । कांस्यतालं कांस्यतालेनेव प्रास्फलता दृढम् ॥ १५७ ॥ चक्रतुम्बाग्रघातेन स्वयम्भूस्तेन मूच्छितः । पपात स्यन्दनोत्सङ्गे क्षीबैवत् तरलेक्षणः ॥ १५८ ॥ दधार च तमुत्सङ्गे मुशली प्रियबान्धवः । वैत्साश्वसिद्याश्वसिहीत्युच्चरन् साश्रुलोचनः ॥ १५९ ॥ तैरेवाथुजलैर्भ्रातुः सिक्तो वक्षसि शार्ङ्गभृत् । लब्धसंज्ञः समुत्तस्थौ तिष्ठ तिष्ठेत्यरिं वदन् ॥ १६० ॥ उत्थायादाय तच्चक्रं कालचक्रमिव द्विषाम् । हरिर्मेरकमित्यूचे दृष्टः स्मेरेक्षणैर्निजैः ।। १६१ ॥ इदं सर्वा सर्वस्वं जीवितव्यमिदं च ते । तद्गतं पश्यतोऽप्यद्य शिरोरत्नमहेरिव ॥ १६२ ॥ कस्य तिष्ठस्वष्टम्भाद् गच्छ गच्छाधुना ननु । हन्ति स्वयम्भूर्न परान् समरादपगच्छतः ॥ १६३ ॥ मेरकोऽप्यब्रवीन्मुञ्च पश्यौजोऽस्य स्वमप्यहो ! । नाभूत् पत्युः कलत्रं या सा स्यादुपपतेः कथम् १ ॥ १६४ ॥ इत्युक्तः शार्ङ्गभृचक्रं भ्रमयित्वा मुमोच तत् । लीलया मौलिकमलं मेरकस्य चकर्त च ।। १६५ ।। स्वयम्भुवश्चोपरिष्टात् पुष्पवृष्टिर्दिवोऽपतत् । तथैव पृथिवीपृष्ठे कंबन्धो मेरकस्य च ॥ १६६ ॥ नृपैश्च मेरकायत्तैः स्वयम्भूः शिश्रिये क्षणात् । जन्ययात्रा हि सैवाभूत् परमन्यतरो वरः ॥ ततश्च साधयामास भरतार्थं सदक्षिणम् । दधद् दक्षिणपाणिस्थं चक्रं दिक्चक्रजित्वरम् ॥ दिग्यात्राया न्यवर्तिष्ट स्वयम्भूर्भूर्जयश्रियः । भरतार्धश्रिया स्वैरं रममाणो नवोढया ।। गच्छन् मार्गे शार्ङ्गपाणिर्मगधेषु ददर्श च । शिलां कोटिनरोत्पाट्यां कपालपुटवद् भुवः ॥ वामेनोत्पाटयामास बाहुना तामंधोक्षजः । लीलयाऽपि वसुमतीमधिभूः फणिनामिव ॥ १७१ ॥ शिलां तां न्यस्य तत्रैव दोष्मतां चित्रमादधत् । ययौ दिनैः कतिपयैः पुरीं द्वारवतीं हरिः ॥ १७२ ॥ तत्र रुद्रेण भद्रेण पार्थिवैरपरैरपि । स्वयम्भुवोऽर्धचक्रित्वाभिषेकोऽकारि सोत्सवैः ॥ १७३ ॥ वर्षद्वितयं छद्मस्थो विमलप्रभुः । विहृत्य दीक्षोपवनं सहस्राम्रवणं ययौ ॥ १७४ ॥ तत्र जम्बूले भर्तुरपूर्वकरणक्रमात् । क्षपकश्रेण्यारूढस्य घातिकर्माणि तुत्रुदुः ॥ १७५ ॥ षष्ट्यां सितायां पौषस्योत्तरभद्रपदासु भे । उदभूत् केवलज्ञानं षष्ठेन तपसा प्रभोः ॥ १७६ ॥ दिव्ये समवसरणे विदधे देशनां विभुः । गणेशाः सप्तपञ्चाशच्चाभूवन् मन्दरादयः ॥ १७७ ॥ तत्तीर्थेऽभूत् षण्मुखाख्यो यक्षः शिखिरथः सितः । दक्षिणैः फलचक्रेषुखङ्गपाशाक्षसूत्रिभिः ॥ १७८ ॥ वामैः सनकुलचक्रकोदण्डफलकांशुकैः । अभीदेन च दोर्दण्डैर्भर्तुः शासनदेवता ॥ १७९ ॥ तथोत्पन्ना विदिताख्या हरितालसमद्युतिः । पद्मारूढा वाणपाशधरदक्षिणपाणिका ॥ १८० ॥ कोदण्डनागसंयुक्तदक्षिणेतरबाहुका । श्रीमद्विमलनाथस्य जज्ञे शासनदेवता ॥। १८१ ॥ ताभ्याममुक्तसां निध्यस्ततः स्थानाज्जगद्गुरुः । विहरन्नन्यदा द्वारवत्याः परिसरं ययौ ।। १८२ ॥ शक्राद्यैस्तत्र समवसरणं विदधेऽमरैः । विंशत्यग्रधनुः सप्तशतोच्चाशोकपादपम् ।। १८३ ॥ तत्र प्रविश्य प्राग्द्वारा भगवां चैत्यपादपम् । त्रिः प्रदक्षिणयामास पालयन्नाहतीं स्थितिम् ॥ १८४ ॥ 'तीर्थाय नमः' इत्युक्त्वा पूर्वाशाभिमुखं ततः । सिंहासनमलञ्चङ्के धर्मचक्री त्रयोदशः ।। १८५ ।। यथाद्वारं प्रविविशुर्यथास्थानं स्थितिं व्यधुः । साधवोऽथार्थिका देवा देव्यो नार्यो नरा अपि ॥ १८६ ॥ 30 तदा च द्वारकां गत्वा त्वरितं राजपूरुषाः । स्वामिनं समवसृतं शशंसुः शार्ङ्गपाणये ॥ १८७ ॥ स्वाम्यागमनशंसिभ्यः स्वयम्भूः पारितोषिके । सार्धा द्वादश रूप्यस्य कोटीः प्रमुदितो ददौ ।। १८८ ॥ स्वयम्भूः सह भद्रेण भद्राणामेककारणम् । शीघ्रं समवसरणं जगाम प्रविवेश च ॥ १८९ ॥ १ 'खडतालां' इति भाषायाम् । २ स्यन्दनो रथः । ३ क्षीबो मत्तः । ४ वत्स ! आश्वसिहि आश्वसिहि इति ५ आलम्बनात् । ६ जारस्य । ७ 'घड' इति भाषायाम् । ८ जम्यम् - युद्धम् । ९ स्थानं जयलक्ष्म्याः । * श्च मासद्धि" का० ॥ १२ मयूरवाहनः । १३ अभयदेन ।
चरन् - इति १० इन्द्रः ।
विभागः । ११ स्वामी ।
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३६२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[चतुर्य पर्व तत्र प्रदक्षिणीकृत्य नत्वा च परमेश्वरम् । अनुशक्रं सभद्रोऽपि स्वयम्भूः समुपाविशत् ॥ १९० ॥ नत्वा जिनेन्द्रं भूयोऽपि रचिताञ्जलिसंपुटाः । एषमारेभिरे स्तोतुं वज्रभृच्छाङ्गभृद्धलाः ॥ १९१ ॥ देव ! त्वदर्शनेनाय दुःखं सांसारिकं ययौ । शरीरिणां भुवः पङ्क इव वार्षिकवारिणा ॥ १९२ ॥ पुण्योऽयं दिवसः स्वामिस्त्वदर्शननिवन्धनम् । यत्रामलीभविष्यामो दुःकर्ममलिना वयम् ॥ १९३ ॥ अङ्गावयवराजत्वं प्रत्यपधन्त नो दृशः । यास्त्वदर्शनमासाद्य सद्योऽधुः शुद्धिमात्मनः ॥ १९४ ॥ पूतास्त्वत्पादसंपर्काद् भरतक्षेत्रभूमयः । अपि ताः पापनाशाय किं पुनस्तव दर्शनम् ॥ १९५ ॥ मिथ्यादृशामुलूकानामिव त्वदर्शनं प्रभो ! । केवलालोकमार्तण्डतिरोभावनिबन्धनम् ॥ १९६ ॥ त्वदर्शनसुधापानसमुच्छसितवर्मणाम् । अद्य देव ! त्रुटिष्यन्ति कर्मबन्धाः शरीरिणाम् ।। १९७ ॥ विवेकदर्पणोन्मार्टिसमुत्पादनकर्मठाः । कल्याणतरुवीजाभाः पान्तु त्वत्पादपांसवः ॥ १९८ ॥ स्वामिन् ! पीयूषगण्डूष इव ते देशनावचः। संसारमरुमनानामस्तु नः स्वास्थ्यहेतवे ॥ १९९ ॥ स्तुत्वेति सत्सु तूष्णीकेष्विन्द्रोपेन्द्रवलेषु तु । विमलां विमलस्वामी प्रारेभे धर्मदेशनाम् ॥ २००॥ अकामनिर्जरारूपात् पुण्याजन्तोः प्रजायते । स्थावरत्वात् त्रसत्वं वा तिर्यक्त्वं वा कथञ्चन ॥२०१॥ मानुष्यमार्यदेशश्च जातिः सर्वाक्षपाटवम् । आयुश्च प्राप्यते तत्र कथञ्चित् कर्मलाघवात् ॥ २०२ ।। प्राप्तेषु पुण्यतः श्रद्धा-कथक-श्रवणेष्वपि । तत्त्वनिश्चयरूपं तद् बोधिरत्नं सुदुर्लभम् ॥ २०३ ॥ राज्यं वा चक्रभृत्त्वं वा शत्वं वा न दुर्लभम् । यथा जिनप्रवचने बोधिरत्यन्तदुर्लभा । २०४॥ सर्वे भावाः सर्वजीः प्राप्तपूर्वा अनन्तशः । बोधिन जातुचित् प्राप्ता भवभ्रमणदर्शनात् ॥ २०५॥ पुद्गलानां परावर्तेष्वनन्तेषु गतेनिह । उपाधं पुद्गलावते शेषे सर्वशरीरिणाम् ॥ २०६॥ सर्वेषां कर्मणां शेपेऽन्तःकोटीकोट्यवस्थितौ । ग्रन्थिभेदात् कश्चिदेव लभते बोधिमुत्तमाम् ॥ २०७ ।।
यथाप्रवृत्तिकरणादन्ये तु ग्रन्थिसीमनि । प्राप्ता अप्यवसीदन्ति भ्रमन्ति च पुनर्भवम् ॥ २०८ ॥ 20 कुशास्त्रश्रवणं सङ्गो मिथ्याग्भिः कुवासना । प्रमादशीलता चेति स्युर्बोधिरिपन्थिनः ॥२०९ ।।
चारित्रस्यापि संप्राप्तिदुर्लभा यद्यपीरिता । तथापि बोधिप्राप्तौ सा सफला निष्फलाऽन्यथा ॥ २१ ॥ अभव्या अपि चारित्रं प्राप्य ग्रैवेयकावधि । उत्पद्यन्ते विना बोधि प्राप्नुवन्ति न निवृतिम् ॥ २११॥ असंप्राप्ते वोधिरत्ने चक्रवर्त्यपि रवत् । संप्राप्तबोधिरत्नस्तु रङ्कोऽपि स्यात् ततोऽधिकः ॥ २१२ ।।
संप्राप्तबोधयो जीवा न रज्यन्ते भरे क्वचित । निर्ममत्वा भजन्त्येकं मुक्तिमार्गमनर्गलाः ॥ २१३ ॥ 25 श्रुत्वैवं देशनां भर्तुः प्रायेण पावजञ्जनाः । भेजे स्वयम्भूः सम्यक्त्वं श्रावकत्वं च सीरभृत् ॥ २१४ ॥
पूर्णायामादिपौरुष्यां व्यसाक्षीद् देशनां प्रभुः । ततस्तथैव तां चक्रे मन्दरो गणभृद्वरः॥२१५ ॥ पूर्णद्वितीयपौरुष्यां देशनां सोऽप्यपारयत् । स्वं खं स्थानं ययुश्चेन्द्रोपेन्द्र-भद्रादयोऽपि हि ॥ २१६ ॥ ततः स्थानात पुर-ग्रामा-ऽऽकर-द्रोणमुखादिषु । व्यहरद् विमलस्वामी लोकानुग्रहकाम्यया ॥ २१७ ॥ अष्टपष्टिः सहस्राणि श्रमणानां महात्मनाम् । आर्यिकाणां लक्षमेकं शतैरष्टभिरन्वितम् ॥ २१८ ।। चतुर्दशपूर्वभृतामेकादश शतानि तु । अवधिज्ञानिनामष्टचत्वारिंशच्छतानि तु ॥ २१९ ॥ शतानि पञ्चपञ्चाशन्मनःपर्ययधारिणाम् । तावन्त्येव तु शतानि केवलज्ञानिनामपि ॥ २२० ॥ जातवैक्रियलब्धीनां शतानि नवतिः पुनः । संजातवादलब्धीनां त्रिसहस्री द्विशत्यपि ॥ २२१ ॥ श्रावकाणामुभे लक्षे सहस्राष्टकसंयुते । श्राविकाणां चतुर्लक्षी चतुस्त्रिंशत्सहस्रयुक् ॥ २२२ ॥
परि
ग्योदय दिनं स्वा" संवृ॥ वर्म-वपुः । २ गण्डप:-गंटदो' इति भापायाम्। ३ सर्वेन्द्रियपटुता। म्पथी-शत्रुः। ५ मोक्षम् ।। प्यां विससर्ज दे संवृ० टि०॥ नि च । का० ॥
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तृतीयः सर्गः ]
त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
द्विवर्षोनां पञ्चदशाब्दलक्षीं केवलात् परम् । महीं विहरमाणस्य परिवारोऽभवत् प्रभोः ॥ २२३ ॥ || पभिः कुलकम् ॥
ज्ञात्वा निर्वाणमासन्नं संमेताद्रिं ययुः प्रभुः । षभिः साधुसहस्रैव सहानशनमाददे || २२४ ॥ मासं स्थित्वा शुचिकृष्ण सप्तम्यां पौष्णगे विधौ । मुनिभिस्तैः समं स्वामी जगाम पदमव्ययम् ॥ २२५ ॥ निर्वाणमहिमा भर्तुः संयतानां च सर्वतः । उपेत्य विदधे तत्र पुरुहूतादिभिः सुरैः ॥ २२६ ॥ कौमारे पञ्चदशान्दलक्षास्त्रिंशदिलाऽवने । व्रते पञ्चदशेत्यायुः प्रभोः पष्ट्यब्दलक्ष्यभूत् ।। २२७ ।। श्रीवासुपूज्यनिर्वाणाद् विमलस्वामिनिर्वृतिः । सागराणां त्रिंशति तु व्यतीतायामजायत ॥ २२८ ॥ स्वयम्भूरपि चैश्वर्यमदेन प्रभविष्णुना । परिलुप्तविवेकः सन् क्रूरकर्माकरोन्न किम् ? ॥ २२९ ॥ पष्टिं वत्सरलक्षाणि संपूर्यायुर्निजं हरिः । तैस्तैः खकर्मभिः षष्ठीं जगाम नरकावनीम् ॥ २३० ॥ स्वयम्भुवः कुमारत्वे द्वादशाब्दसहस्यभूत् । सैव मण्डलिकत्वे च नवत्यब्दी तु दिग्जये ।। २३१ ॥ 10 राज्ये वेकोनषष्ट्यब्दलक्षाण्यथ सहस्रकाः । पञ्चसप्ततिरधिका दशाग्रैर्नवभिः शतैः ॥ २३२ ॥
भद्रोऽपि सोदर विपत्तिशुचा विरक्त आचत्रतोऽथ मुनिचन्द्रमुनेः समीपे । षष्टिं च पश्च च निजायुषि वर्षलक्षान् नीत्वा विपद्य च पदं परमं प्रपेदे ॥ २३३ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थे पर्वणि श्रीविमलनाथ - स्वयम्भू-भद्र-मेरकचरितवर्णनो नाम तृतीयः सर्गः ॥ ३॥
NANDRAILER
द्विमासोनां सं० ॥ + "युः विभुः । का० ॥
१ शुचिः आषाढः । २ पृथ्वीपालने ।
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[चतुर्भपई
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
चतुर्थः सर्गः। श्रीअनन्तनाथचरितम् ।
पायादनन्तस्वामी वः सिद्धानन्तचतुष्टयः । इहापि देहिनां मोक्ष इवानन्तसुखप्रदः॥१॥ श्रीमतोऽनन्तनाथस्य चरित्रमिदमुच्यते । यानपात्रमिवापारसंसाराम्भोधितारणे ॥२॥ धातकीखण्डद्वीपे प्राग्विदेहे विजये पुनः । ऐरावताख्येऽरिष्टेति नगर्यस्ति गरीयसी ॥३॥ राजा पद्मरथो नाम तस्यामासीन्महारथः। द्विषद्रथिरथव्यूहस्खलनकमहागिरिः॥४॥ स जित्वाऽपि द्विषोऽशेषान् साधयित्वाऽखिलामिलाम् । न तृणायाप्यमंस्तैना मोक्षश्रीसाधनोत्सुकः॥५॥ विहारलीलामुद्याने जलक्रीडां च वापीषु । गन्धर्वाणां च मधुरसंगीतकविलोकनम् ॥ ६ ॥
वारणाऽश्वादियानानां गतिवैचित्र्यदर्शनम् । वसन्तकौमुदीप्रायक्रीडोत्सवनिरीक्षणम् ॥ ७॥ 10 नाटकप्रभृतिदशरूपकाभिनयोत्सवम् । स्वर्विमानप्रतिमानवासौकोवसनं तथा ॥८॥ विचित्रवस्त्रनेपथ्याङ्गरागाकल्पकल्पनम् । न रागात् सोऽन्वभूत् किन्तु लोकयात्रानुवर्तनात् ॥९॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ कश्चिंदप्यतिवाद्येवं कालं सोऽथ विवेकवान् । चित्तरक्षगुरोः पादमूले दीक्षामुपाददे ॥ १०॥
अर्हद्भक्त्यादिभिः स्थानैस्तीर्थकुनाम कर्म सः । बद्धवा मृत्वा प्राणतस्य पुष्पोत्तरे सुरोऽभवत् ॥ ११ ॥ 15 इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् भरतार्धेऽत्र दक्षिणे । इक्ष्वाकुवंशगिरिभूरयोध्येत्यस्ति पूर्वरा ॥ १२ ॥
विमलस्वच्छपयसा परिखावलयेन सा । विराजते रतस्रस्तवेणीव वरंवर्णिनी ॥ १३ ॥ सुनिष्क्रमप्रवेशानि सत्संधीन्यर्थवन्ति च । सुभूमिकानि वेश्मानि नाटकानीव तत्र च ॥१४॥ तस्यां गृहोर्श्वभूमीषु काञ्चन्यो भान्ति जालिकाः । प्रत्येकं गृहलक्ष्मीभिराबद्धा मुकुटा इव ॥ १५ ॥ तत्र चैत्येष्वहंदोंपुष्पगन्धवहोऽनिलः । तापनाशाय लोकानां भवत्यमृतनस्यवत् ॥ १६॥ तस्यामासीत् सिंह इव विक्रमेणातिशायिना । अग्रेसरो नृसिंहानां सिंहसेनो महीपतिः ॥१७॥ उपचारं प्रयच्छन्तः स्वस्स कल्याणकाम्यया । तस्याधिदैवतस्पेव भक्त्या भूमिभुजोऽभवन् ॥ १८ ॥ अग्रणीर्गुणिनां तैस्तैः सोऽवदातैनिजैर्गुणैः । जगदापीणयामास करिव निशाकरः ॥ १९॥ काममर्थ च धर्म च स दधौ स्वखमात्रया । सेवाऽऽगतान् राजपुत्रानिवौचित्यविचक्षणः ॥२०॥
सधर्मचारिणी तस्याभवद् धर्मस्य वासभूः । सुयशा नाम यशसा खशीलेनैव शालिनी ॥ २१॥ 25 अम्बा-जनक-श्वशुरान्ववायानां बभूव सा । मन्दाकिनीव जगतां त्रयाणामेकपावनी ॥ २२ ॥
वक्रस्येन्दुः प्रतिनिधिदृशोरनुजमम्बुजम् । कण्ठस कम्बुरालेख्यं दोष्णोविसलता सखी ॥ २३ ॥ कुम्भः सनाभिः स्तनयो भेर्विवरमात्मभूः । प्रतिबिम्बं नितम्बस्य कूलिनीपुलिनावनिः ॥ २४ ॥
*हतुलनै संबृ०॥ १ प्रतिमानम्-प्रतिबिम्बम्-सादृश्यम्। २ ओक:-हर्म्यम्-गृहम् । ३ आकल्पकल्पनम्-भूषणपरिधानम् । ४ लोकवृत्यनुसरणात् । न किञ्चि° संबृ० का०॥ ५ इक्ष्वाकुवंश एव गिरिस्तस्य भूः स्थानम् अथवा इक्ष्वाकुवंशय गिरिभूः गङ्गा पवित्रत्वात् । ६ रतिप्रसङ्गे विशीर्णवेणीव । स्तवस्त्रेव मु०॥ ७ उत्तमरमणी। ८ सुष्टु गमनागमनहाराणि। ९ सुष्टुपर्वाणि, अन्यत्र नाटकस्याङ्गविशेषः सन्धिः। १० साधनवन्ति। रायुक्ता, मु. रामुक्का का०॥ Tन्धहरोऽनि मु०॥ ११ नस्सम्-घ्राणम् । १२ उपायनम् । ** °न्त आत्मक मु०॥ १३ मात्रा-औचित्यम् । १४ भन्दा वायः-वंशः। १५ शङ्खस्तस्याः कण्ठस्य चित्रमासीत् । १६ बिसलता कमलनाललता बाहोः सखीभूता मासीत् । १७ गुहा नामे पुत्ररूपाऽभूत् । १८ नद्याः सिकतावनिः।
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भातुर्थः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । उर्वोरवरजा रम्भा पादयोः पद्ममन्तिषद् । तस्याः सर्वाङ्गरम्यायाः किं किं न ह्यतिशाय्यभूत् ॥ २५ ॥
॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ इतश्च प्राणते कल्पे जीवः पद्मरथस्य सः। प्रकृष्टस्थितिकं स्वायुः सुखमनोऽत्यवाहयत् ॥ २६ ॥ श्रावणासितसप्तम्यां रेवतीस्थे निशाकरे । ततश्युत्वा सुयशसो देव्याः कुक्षाववातरत् ॥ २७ ॥ ददर्श च महास्वमान् कुञ्जरादींश्चतुर्दश । सुखसुप्ता निशाशेषे देव्यर्हजन्मसूचकान् ॥ २८॥ 5 रोधकृष्णत्रयोदश्यां पौष्णे मे श्येनलाञ्छनम् । सुवर्णवर्ण सुयशाः स्वामिनी सुषुवे सुतम् ॥ २९ ॥ अथ ऊर्ध्व रुचकेभ्योऽभ्येत्य सद्योऽप्यथार्हतः । षट्पञ्चाशद्दिकुमार्यः सूतिकर्माणि चक्रिरे ॥३०॥ सौधर्मकल्पाधिपतिस्तत्रोपेत्य प्रणम्य च । प्रभुमादाय वियता मेरुशैलशिरो ययौ ॥ ३१ ॥ अतिपाण्डुकम्बलायां शिलायां तत्र वासवः । सिंहासन उपाविक्षदुत्सङ्गारोपितप्रभुः ॥ ३२॥ इन्द्रास्त्रिषष्टिरभ्येत्याच्युतप्रभूतयस्ततः। क्रमेणास्पयन नाथमाहतैस्तीर्थवारिभिः ॥३३॥ ईशानाधिपतेरके महासारं न्यधात् प्रभुम् । शक्रस्तद्भारवहनश्रमेणेव गरीयसा ॥ ३४ ॥ विकृतस्फाटिकमहाचतुर्वृषविषाणजैः । वारिभिः पयामास वासवः परमेश्वरम् ॥ ३५ ॥ वाससा देवदृष्येण प्रमृज्येशं विलिप्य च । अर्चित्वाऽऽरात्रिकं कृत्वा सौधर्मेन्द्रोऽस्तवीदिति ॥ ३६ ॥ __तवाग्रे भूमिलठनैर्ये हि भूरेणुनाञ्चिताः । गोशीर्षचन्दनेनाङ्गरागस्तेषां न दुर्लभः ॥ ३७॥ भक्त्यैकमपि यैः पुष्पं त्वन्मूर्धन्यधिरोप्यते । ते छेत्राशून्यशिरसः संचरन्ति निरन्तरम् ॥ ३८॥ 15 अङ्गरागस्तवाङ्गे यैरेकदापि विधीयते । देवदूष्यांशुकधरास्ते भवन्ति न संशयः ॥ ३९ ॥ निधीयते भवत्कण्ठे पुष्पदामैकदाऽपि यैः । लुठन्ति तेषां कण्ठेषु दोलताः सुरयोषिताम् ॥ ४० ।। ये वर्णयन्त्येकदापि त्वद्गुणानतिनिर्मलान् । ते गीयन्ते सुरस्त्रीभिरपि लोकातिशायिनः ॥४१॥ ये चारुचारीचतुरं भक्त्या वल्गन्ति ते पुरः । ऐरावणकरिस्कन्धासनं तेषां न दुर्लभम् ॥ ४२ ॥ ध्यायन्ति परमात्मानं ये त्वां देव! दिवानिशम् । त्वादृशीभूय ते लोके ध्येयतां यान्ति सर्वदा ॥४३॥20 स्नात्राङ्गरागनेपथ्याकल्पप्रभृतिकल्पने । अधित्वन्मेऽधिकारोऽस्तु सदापि त्वत्प्रसादतः ॥४४॥ इति स्तुत्वा जिनपतिं गृहीत्वा च दिवस्पतिः । गत्वा च सुयशोदेव्याः पार्श्वेऽमुञ्चद् यथास्थिति ॥४५॥ नन्दीश्वरे शाश्वताहेत्प्रतिमाष्ष्टाहिकोत्सवम् । कृत्वा शक्रोऽपरेऽपीन्द्राः खं खं स्थानं पुनर्ययुः॥४६॥
गर्भस्थेऽसिञ्जितं पित्राऽनन्तं पैरवलं यतः । ततश्च चक्रेऽनन्तजिदित्याख्या परमेशितुः ॥४७॥ योगी ध्यानामृतमिव निजाङ्गुष्ठात् सुधां पिबन् । अस्तन्यपोऽप्यवर्धिष्ट क्रमेण परमेश्वरः ॥४८॥ 25 शैशवं व्यतिचक्राम क्रमादिन्दुरिव प्रभुः । पञ्चाशद्धनुरुत्तुङ्गः प्रतिपेदे च यौवनम् ॥ ४९ ॥ निचिन्वानो हेयबुद्ध्या मार्गस्थित इवाश्रयम् । पित्राज्ञयाऽनन्तनाथश्चके दारपरिग्रहम् ।। ५०॥ अर्धाष्टमेषु लक्षेषु गतेषु शरदामथ । स्वामी पित्रनुरोधेन राज्यभारमुपाददे ॥५१॥ वर्षलक्षाः पञ्चदश पालयित्वा वसुन्धराम् । दधार चिन्तां मनसि दीक्षायै सिंहसेनभूः ॥ ५२ ॥ ब्रह्मलोकात् सुरा लौकान्तिकाः सारखतादयः । तीर्थ प्रवर्तय स्वामिन्नित्यूचुः परमेश्वरम् ॥ ५३॥ 30 जुम्भकैर्जुम्भभिच्छिष्टकुबेरप्रेरितैः सुरैः । पूर्यमाणेन वित्तेन वर्षदानं ददौ विभुः ॥५४ ॥ तस्य दानस्य पर्यन्ते भवपर्यन्तकामिनः । दीक्षाभिषेकं विदधुः सुरा-ऽसुर-नृपाः प्रभोः ॥ ५५॥
पभं पादयोरन्तिषद् शिष्यः। २ राधः-वैशाखः। ३ आकाशमार्गेण । ४ विषाणम्-शूङ्गम् । * °सवा दे का.. ५नयुचमतकाः। चारुया चारी नृत्ये गमनप्रकारस्तया चतुरं यथा स्यात् तथा । नृत्यन्ति । ८त्वयि ९ सैन्नम्। १० निवयं कुर्वाणः बागलुङया। स्मभूच्छिा जुम्भमुदखेन बिहा भावतः ।
त्रिषष्टि, ४०
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[चतुर्थ पर्व आमुक्तचित्रनेपथ्यवस्त्रमाल्यो जगत्पतिः । ततः सागरदत्ताख्यामारोहच्छिविकां वराम् ॥५६॥ शक्रादिभिर्धतच्छत्रचामरव्यजनः प्रभुः । तया शिबिकयोद्यानं सहस्राम्रवणं ययौ ॥ ५७ ॥ दोलाऽऽन्दोलनसंसक्तनागरस्त्रीजनैर्मुहुः । तदानीं गच्छदागच्छत्खेचरीभिरिवाकुलम् ॥ ५८॥
प्रत्यग्रपल्लवातात्रैविलंलगृङ्गकुन्तलैः । अशोकैर्मधुना मत्तैरिव घूर्णद्भिराचितम् ॥ ५९॥ 5 क्रीडाश्रान्तपुरस्त्रीणां श्रमसर्ववहारिभिः। चूतैरुत्पल्लवै रम्यं तालवृन्तधरैरिव ॥ ६०॥
कर्णिकारैः कर्णिकाभिरिवोद्यन्माधवश्रियः । रुचिरं काञ्चनारैश्च काश्चनैस्तिलकैरिव ॥ ६१ ॥ उदीर्णखागतमिव वनं तदेवकोकिलम् । प्रविवेश जगन्नाथो जगन्मन इवोन्मनाः ॥ ६२ ।।
॥ पञ्चभिः कुलकम् ॥ ततः सागरदत्तातो दत्तहस्तो बिडौंजसा । उत्तीर्योज्झाञ्चकारालङ्कारप्रभृतिकं प्रभुः ॥ ६३ ॥ 10 राधकृष्णचतुर्दश्यां रेवत्यामपरेऽहनि । षष्ठेन प्रावजत् स्वामी सहस्रेण समं नृपैः ॥ ६४ ॥
वन्दित्वा खामिनमथ पुरुहूतादयोऽखिलाः । खं खं स्थानं ययुः सद्यः कृतकायों इवामराः॥६५॥
द्वितीयेऽह्नि वर्धमानपुरे विजयवेश्मनि । पारणं परमानेन चकाराहश्चतुर्दशः॥६६॥ तत्र चक्रे सुंधान्धोभिर्वसुधारादि पञ्चकम् । रत्नपीठं तु विजयेनाभिन्यासपदे प्रभोः ॥ ६७ ॥
ततः स्थानादपच्छंद्रा छमस्थः परमेश्वरः । प्रावर्तिष्ट विहाराय सहमानः परीषहान् ॥ ६८ ॥ 15 इतश्च जम्बूद्वीपेऽलिन् प्राग्विदेहेषु सुन्दरी । पुरी नन्दपुरीत्यस्ति परमानन्दजन्मभूः ॥ ६९ ॥
नृपो महाबलस्तत्र दत्तशोकोऽरियोषिताम् । अभूदशोकशाखीव खकुलोद्यानभूषणम् ॥ ७० ॥ संसारवासवैराग्यं स दधार महामनाः । विदग्धनागर इव ग्रामवासविरक्तताम् ॥ ७१ ॥ स वृषभर्षिपादाजमूले गत्वोदमूलयत् । पञ्चभिर्मुष्टिभिः केशांश्चरित्रं प्रत्यपादि च ॥७२॥ उद्यानमिव चारित्रं पालयित्वा महाफलम् । स विपद्य समुत्पेदे सहस्रारेऽमरो वरः ॥ ७३ ॥
इतोऽस्य जम्बूद्वीपस्य क्षेत्रे भरतनामनि । कौशाम्बीत्यस्ति नगरी पुरन्दरपुरोपमा ॥ ७४॥ समुद्रदत्त इत्यासीद् दत्तमुद्रोऽरितेजसाम् । समुद्र इव गम्भीरस्तस्यां वसुमतीपतिः ॥ ७५ ॥ पत्नी तस्याभवन्नन्दा नयनानन्दचन्द्रिका । रूपेण रूपाहङ्कारहरणी सुरयोषिताम् ॥ ७६ ॥ नृपस्य तस्य मलयपवमानो मधोरिव । मित्रं मलयभूनाथोऽभ्याययौ चण्डशासनः ॥ ७७॥
समुद्रदत्तस्तं प्रीत्या महत्या निजसमनि । सादरः सोदरमिवाभोजयत् सपरिच्छदम् ॥ ७८॥ 25 मृगाक्षी तत्र सोऽद्राक्षीनन्दामानन्दिनीं दृशोः । पत्नी समुद्रदत्तस्य समुद्रस्येव जाह्नवीम् ॥ ७९ ॥
स्तब्धाङ्गः कीलित इव मरास्त्रैरतिदुःसहैः । जातस्वेदो विप्रलम्भानलधर्मादिवोल्बणात् ॥ ८० ॥ सर्वाङ्गमप्यॉरितप्रेमेव पुलकेन च । भिन्नखरो ग्रहग्रस्त इव तस्था वपुर्गुणैः ॥ ८१ ॥ प्रकम्पमानसर्वाङ्गस्तदाश्लेष इवोत्सुकः । शुचेव वैवर्ण्यधरस्सँदसंप्राप्तिजन्मया ॥ ८२॥ बाष्पेण लुप्तनयनः कामान्ध्यमिव धारयन् । तदप्राप्त्या मृत्युमिवानेतुं प्रलयमाश्रयन् ॥ ८३॥
दोला-हिंडोळो' इति भाषायाम् । २ विलुलन्तो न्याता ये भ्रमरास्ते एव कुन्सलास्तैः। ३ व्याप्तम् । ४ कर्णिकारैः, काशनारैः-तबामकपुष्पविशेषः । ५ कोकिलाभिरवकीर्णम् । ६ उत्सुकः। ७ इन्द्रेण । ८ उपवासद्वयेन। ९ देवैः। १.निष्कपट:-ऋजुस्वभाव इत्यर्थः। ११ यथा चतुरनागरिकः ग्रामीणतायाः विरज्यते तथैवोदारचेताः प्रभुः संसारोद्विमः संजातः । *थो (थ) प्रययौ संवृ०॥ १२ भागतः। १३ विप्रलम्भो वियोगः, स एवानकोऽग्निस्तेन धर्मः उष्णस्तस्मात् । १४ भारित:पुलकितः। १५ भूताविष्टः । १६ तस्या नन्दाया अलाभाजातेन शोकेन पाण्डुतां दधदिव । १७ तस्यां नम्बायामेव लयं तन्मयतां पारवा, कामास प्रकृतिकपणत्वाद् नन्दामम्वरेण सर्वमपि नमिच्छन् इत्यर्थः।
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धनुर्यः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । नन्दामालोक्य तत्कालं सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दरीम् । कां कामवस्थां न प्राप मान्मथीं चण्डशासना ॥४॥
॥पञ्चभिः कुलकम् ॥ समुद्रदत्तदत्तोकस्युवासाथ निशास्वपि । लेभे न निद्रां कामातों रोगात इव सोऽस्तधीः ॥ ८५ ॥ तांस्ताननुदिनं नन्दाप्राप्युपायाम् विचिन्तयन् । कञ्चित् कालं व्यतीयाय मित्रव्याजेन स द्विषन् ॥४६॥ समुद्रदत्ते विश्वस्ते स नन्दामपरेऽहनि । हृत्वा जगाम शकुनिरिव रत्नावली द्रुतम् ॥ ८७ ॥ रक्षसेव हृतां तेन बलिना छलिना च ताम् । प्रत्याहाँ सोऽसमर्थो वैराग्यं परमं ययौ ॥८८॥ हृदयस्थेन शल्येनेवापमानेन तेन सः । यमानोऽग्रहीद् दीक्षा श्रेयांसमुनिसंनिधौ ॥ ८९॥ अत्युग्रं स तपस्तेपे तपसोऽस्य फलेन तु । नन्दाहर्तुर्वधाय स्यां निदानमिति चाकरोत् ॥ ९ ॥ अमुना स निदानेन मितीकेत्य तपःफलम् । विपद्य कालयोगेन सहस्रारेऽभवत् सुरः ॥ ९१ ॥ मृत्वा कालक्रमाच्चण्डशासनोऽपि महीपतिः । भवाब्यावर्तभृतासु बभ्रामानेकयोनिषु ॥ ९२ ।। 10 स चात्र भरते पृथ्वीपुरे विलासभूपतेः । गुणवत्यां कलत्रेऽभून्मधुरित्याख्यया सुतः ॥ ९३ ॥ स त्रिंशद्वर्षलक्षायुस्तापिच्छकुसुमच्छविः । पञ्चाशद्धनुरुत्तुङ्गो जङ्गमोऽद्रिरिवाबभौ ॥ ९४ ॥ शुशुमे स महाबाहुर्द्विशुण्ड इव दिग्गजः । पृथुलोरस्तटश्रीकः सानुमानिव जङ्गमः ॥ ९५ ॥ लीलयाऽपि महास्थाम्नस्तस्य चमतो मही । भारासहा ननामेव तृणपूर्ण इवावंटः ॥ ९६ ॥ शस्त्राशस्त्रिकथां श्रुत्वा पूर्वेषां पृथिवीभुजाम् । स शुशोच खदोर्वीर्य प्रतिमल्लमवाप्नुवन् ॥ ९७ ॥ 16 जित्वा भरतवर्षा त्रिखण्डं ग्रामलीलया । स एवमसमस्थामा नामेन्दौ खमलीलिखत् ॥ ९८ ।। चक्राकान्तद्विपञ्चक्रः शक्रतुल्यश्च विक्रमात् । अभूव प्रत्यर्धचक्री स चतुर्थः पुरुषौर्यमा ॥ ९९ ।। अभूदुत्कटदोरकूटकुट्टितारिभटोद्भटः । वैरिश्रीभोगलटभः कैटभः सोदरोऽस्य तु ॥ १०॥
तदा च द्वारकापुयां सोमसूर्यसमो गुणैः । सोम इत्याख्यया ख्यातो बभूव पृथिवीपतिः ॥१०१॥ तस्याभूतामुमे पन्यौ तत्रैका स्निग्धदर्शना । सुदर्शनाऽन्या तु सीता शीतयुतिसमानना ॥ १०२.॥ 20 इतश्च स सहस्रारान्महाबलवरः सुरः । च्युत्वा सुदर्शनादेव्या उदरे समातरम् ।। १०३ ॥ तदा सुदर्शनादेवी सीरभृजन्मसूचकान् । चतुरो यामिनीशेषे महाखमानुदैक्षत ॥ १०४ ॥ ततो मासेषु नवसु दिनेष्वर्धाष्टमेषु च । देवी सुदर्शनाऽसूत सुतं सितरुचिप्रभम् ॥ १०५॥ कृतार्थयार्थिवर्गानुत्सवेन महीयसा । तस्य सुप्रभ इत्याख्यां विदधे सोमभूपतिः ॥१०६ ।। सहस्राराद् दिवश्युत्वा पूर्णायुः सोऽपि कालतः। जीवः समुद्रदत्तस्य सीताकुक्षाववातरत् ।। १०७ ॥25 तदा साऽपि महाखमाञ्च्छाङ्गभृजन्मसूचकान् । सप्त सुप्ता निशाशेषेऽद्राक्षीत् प्रविशतो मुखे ॥ १०८॥ संपूर्णे समये साऽपि नीलरत्नामलत्विषम् । तनयं जनयामास सर्वलक्षणलक्षितम् ॥ १०९ ॥ शाङ्गपाणेश्चतुर्थस्य तस्याथ दिवसे शुभे । पुरुषोत्तम इत्याख्यां यथार्थामकरोत् पिता ॥ ११०॥ नीलपीताम्बरौ तालताक्ष्यकेतू महाभुजौ । तावभातां सहचरौ प्रीत्या युग्मभवाविव ॥ १११॥
कामसंबन्धिनीम् । २ ओको गृहम् । उवास 'वस्' धातोः परोक्षायामन्यपुरुषैकवचनम् । इनिजंगाम। * "पराहर संवृ०॥ ४ यथानिमित्तमुदिश्य तथासंकल्पकरणम् , भाषायाम् 'निया''। ५ अमितं तपसः फलम् , परं वन्मितं परिमाणयुचं कधु कृत्वा। ६ आवतः परिवर्तनम् । ७ तापिच्छ:-तापिन्छः "तापिञ्छस्तु तमालः स्यात्" [अमि०वि० का. सो. २१२] । • पर्वतः। ९ महाबलवतः। १० गर्ता। "चन्द्रे खं नामालिखत् अर्थात् तस्य चन्द्रलोकपर्यन्ता कीर्तिः प्रासरद। ११ चक्रम्-समूहः। 1 चक्रश संवृ० त् । समभूवर्ध संवृ० ॥ १३ भर्यमा-सूर्यः । ४ बटमा-म्बा बनाइदि देवशम्दाद संस्कृतम् । वासरत् ।का।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थ पर्व
११२ ॥
निमित्तीकृत्य चाचार्य सर्वा जगृहतुः कलाः । पूर्वजन्मप्रभावोऽयं तादृशां हि महात्मनाम् ॥ क्रीडाघातमपि तयोर्ना सहन्तापरे भटाः । स्पृशन्नपि गजो हन्ति जिघ्रन्नपि च पन्नगः ॥ ११३ ॥ लीलावमिव श्रीणां तौ क्रमेणाङ्गपावनम् । यौवनं च प्रपेदाते बलेन पवनोपमौ ॥ ११४ ॥ ज्यायसो लाङ्गलादीनि शार्ङ्गादीनि कनीयसः । जैत्राणि ददिरे देवै रत्नानि नररत्नयोः ॥ ११५ ॥
।
महाबलौ बल-हरी तौ दृष्ट्वा कलिकौतुकी । प्रतिविष्णोर्मधोर्धाम जगामोत्पत्य नारदः ॥ ११६ ॥ तं दत्ता नमस्कृत्य कृत्यज्ञोऽभिदधे मधुः । महामुने ! स्वागतं ते दिव्या दृष्टिपथेऽसि नः ॥ ११७ ॥ मदीयाः किङ्कराः सर्वे भरतार्थेऽत्र भूभुजः । ते मागधवरदाम प्रभासेशाश्च नाकिनः ।। ११८ ॥ तत्र वस्तुना येन येन देशेन वा तव । योऽर्थस्तं ब्रूहि निःशङ्कं यथा यच्छामि नारद ! ॥ ११९ ॥ नारदोऽप्यब्रवीदेवं क्रीडयाऽहमिहागमम् । न मेऽर्थोऽर्थेन केनापि न वा देशेन केनचित् ॥ १२० ॥ 10 भरतार्घेश ! इति तु त्वं मुधैव विकत्थ्यसे । बन्धैर्थवादः सर्वोऽपि किं यथार्थी भवेत् क्वचित् ॥ १२१ ॥ अर्थलोभादर्थिजनैः स्तूयमानेन धीमता । लज्जितव्यं प्रत्युतापि प्रत्येतव्यं न जातुचित् ॥ १२२ ॥ बलिभ्योऽपि बलितमा महद्भ्योऽपि महत्तमाः । दृश्यन्ते ह्यत्र जगति बहरला वसुन्धरा ॥ १२३ ॥ मधुरन्तर्भवत्कोपोऽन्तः शिखीव शमीतरुः । सद्यो दष्टाधररदो नारदं प्रत्यभाषत ।। १२४ ॥ भरताsत्र गङ्गाः का नाम महती नदी । वैताढ्यात् को महानद्रिः कश्च मत्तो बलाधिकः १ ॥ १२५ ॥ 15 मन्यसे यं बलीयांसं तमाख्याहि यथा क्षणात् । शरभः कैलभस्येव तस्यैौजो दर्शयामि ते ।। १२६ ।। किं मत्तेन प्रमत्तेनाप्यवज्ञातोऽसि केनचित् । स्तुतिव्याजेन यस्याद्य विधित्ससि वधं द्विज ! ॥ १२७ ॥ अथोचे नारदोऽप्येवं नाहं मत्तप्रमत्तयोः । गच्छामि पार्श्व तन्मे स्यात् तदवज्ञा कथं ननु ! ॥ भरतार्घेश्वरोऽस्मीति निजायामद्य पर्षदि । यदवादीर्मा स्म वादीर्भूयस्तद्धि हँसाय ते ॥ १२९ ॥ द्वारकायां तु सोमस्य सुप्रभः पुरुषोत्तमः । तनयौ किं त्वया राजन् ! जनश्रुत्याऽपि न श्रुतौ ॥ १३० ॥ 20 महाबलौ महाबाहू अन्योऽन्यं प्रीतिशालिनौ । मूर्तिमन्तौ पवमान - ज्वलनाविव दुःसहौ ॥ शक्रेशानाविव दिवोऽवतीर्णौ कौतुकादिह । दोष्णैकेनाप्युद्धरेतां तौ सर्वोधिधरां धराम् ॥ भरतेऽधिष्ठिते ताभ्यां सिंहेनेव महावने । अज्ञानाद् गर्जसि कथं मदान्ध इव सिन्धुरः कोपारुणेक्षणद्वन्द्वो र्द्वन्द्वेच्छुरिव तत्क्षणात् । दशनैर्दशनान् घर्षन्मधुराजोऽभ्यधादिदम् ॥ यदात्थ तदमिथ्या चेत् स्वैरं तत् क्रीडितुं यमः । मया निमत्र्यतेऽद्यैष रणं द्रष्टुं भवानिव ॥ 25 निःसोमं निःसुप्रभं च तथा निःपुरुषोत्तमम् । करोमि द्वारकाराज्यं पश्य युत्प्रतिभूरिव ॥ इत्युक्त्वा नारदमुनिं विसृज्य प्राहिणोदथ । अनुशिष्य रहो दूतं सोमसोमसुतान् प्रति ॥ १३७ ॥ गत्वाऽऽशु सोमं ससुतं सौजस्कः सोऽभ्यभाषत । ओजायन्तेऽनोजसोऽपि दूताः स्वाम्योजसा खलु ॥ १३८ ॥ teri दर्पण विनीतानां च वत्सलः । प्रचण्डदोर्बलजयी क्षत्रत्रतमहाधनः ॥ १३९ ॥
१२८ ॥
॥
१३६ ॥
5
३६८
१३१ ॥
१३२ ॥
दी से रैरिव याम्यार्थ भरत क्षेत्रवर्तिभिः । राजहंसैः कुलोद्भूतैः सेव्यमानपदाम्बुजः ॥ १४० ॥ 30 वैताढ्यदक्षिणश्रेणिविद्याधरनृपैरपि । दत्तदण्डः प्रचण्डाज्ञ औखण्डल इवापरः ॥ १४१ ॥ भैरतार्थोद्यानमधुरर्धचक्रधरो मधुः । त्वां शासितुं प्राहिणोन्मां श्रूयतां तदिदं नृप ! ॥ १४२ ।। ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥
१३३ ॥
१३४ ॥
१३५ ॥
'डायात सु० ॥ क्रीडारूपमाघातमपि । १ अर्धः पूजाविधिः । + कथ्यसे । संवृ० का० ॥ २ बन्दिजनैर्गीय मानोऽर्थवादः स्तुतिपाठः । ३ अन्तर्मध्ये शिखी वह्निर्यस्य सः । ४ गजपोतस्य । ९ °मि च । संवृ० ॥ ५ विधातुं कर्तुमिच्छसि 1 ६ हास्याय भवति । ७ समुद्र - गिरिसहितां महीम् । ८ गजः । ९ युद्धेच्छुः । १० युद्धसाक्षी । + तप्ता का ११ दासीपुत्रैरिव । १२ इन्द्रः । १३ भरतार्थमेवोधानं तस्मिन् मधुर्वसन्तसदृशः ।
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मतु सर्ग:]
त्रिवष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । त्वां कामं मचिकारीति पुरा संविद्महे वयम् । पुत्रौजसाऽद्यान्यथाभूरिति संशृण्महे जनात् ॥ १४३ ॥ उन् बदि त्वं में एवासि न कश्चित् ते विपर्ययः । स्वामिने प्रेष्यतां दण्डो मर्यादीकृत्य कुञ्चिकाम् ॥१४४॥ भर्तुः प्रसादाद् भूयोऽपि तव सर्व भविष्यति । आदत्ते ह्यम्बु यद् भानुः पुनरुज्झति भूरि तत् ॥१४५॥ रखाप्रसादात् सदपि सर्वखं तव यास्यति । श्रियः स्वामिनि रुष्टे हि न तिष्ठन्ति भयादिव ॥ १४६ ॥ दरे वा सम्पदः सन्तु यत् स्वामिनि विरोधिते । कलत्र-पुत्र-मित्रादि जीवितं च कुतस्तव ॥ १४७॥ 5 कृत्वा स्वामिन आदेशं देशं शाधि यथास्थिति । गिरस्ताः सन्तु मोघास्त्वत्पिशुनानां शुनामिव ॥१४८॥ अथोद्यद्रोषपरुषं बभाषे पुरुषोत्तमः । दूतत्वेन न वध्योऽसि तेनेदं कद्वदावदः ॥ १४९ ॥ किमुन्मत्तोऽथवा मत्तः प्रमत्तोऽथ पिशाचधीः । ईदृग्माषी त्वं त्वदीश ईदृग्भापयिता च सः ॥ १५०॥ यथा क्रीडासु बालानां स्वेच्छया कोऽपि बालकः । नृपायते तथा मूढः सोऽपि स्वामीयते स्वयम् ॥१५१॥ प्रतिपत्रः कदाऽसाभिः स्वामित्वेन स दुर्मदः । इष्टं वचःप्रमाणं चेदिन्द्रीभवति किं न सः ॥ १५२ ॥10 प्राज्यराज्यबलेनाद्य सोझो मयि समागतः । "तिमिस्तटे वेलयेव मरिष्यति न संशयः ॥ १५३ ॥ गच्छानय रणाय खं स्वामिनं दण्डकामिनम् । तस्य प्राणैः सहादास्ये दासीमिव हठाच्छ्रियम् ॥ १५४ ॥ स एवमुक्तः पुरुषोत्तमेन रुषितो ययौ । सर्वं च मधवेऽशंसद् दुःशंसमपि तद्वचः॥१५५ ॥ शार्जिणो वाचिकेनोचैः श्रुतमात्रेण तेन च । स्तनितेनेव शरभः "संरम्भं विदधे मधुः॥१५६ ॥ सोऽवादयत् क्षणाद् यात्राभेरी भैरवभाऋतिम् । श्रूयमाणां खेचरीभिः पिधाय श्रेवसी भिया ॥ १५७॥15 राजभिर्बद्धमुकुटैर्महावीर्येर्महाभटैः । सेनानीभिरमात्यैश्च सामन्तैरपरैरपि ॥ १५८ ॥ सैनिकै रणशौण्डीरैः खस्य मूर्त्यन्तरैरिवं । समावृतः स प्रतस्थे मायारूप इवामरः ॥ १५९ ॥ युग्मम् ॥ नाजीगणद् दुनिमिचाशकुनानि स दोर्मदी । कालपाशैरिवाकृष्टो देशसीमां द्रुतं ययौ ॥ १६० ॥ पारापतपणीवागात् तत्कालं तत्र शायपि । सोम-सुप्रभसेनानीसेनाभिः परिवारितः ॥ १६१ ॥ आशूपविश्य करभान रभसादुभयोरपि । वर्माण्याददिरे सैन्यैर्धनूंष्यास्फालितानि च ॥ १६२ ॥ 20 उड्डीनमुच्चकैः काण्डमकाण्डे प्रलयप्रदम् । रक्षःकुलमिव व्योमन्य पानसमुत्सुकम् ॥ १६३ ॥ प्रेर्यमाणा महामात्रैरपसृत्याभिसृत्य च । चतुर्दन्तेन युद्धेनायुध्यन्त वरदन्तिनः॥१६४॥ एकसिन् मोचके कुन्तमन्यसिन् मुद्गरं पुनः । पाणौ कृपाणं बिभ्राणाः सादिनोऽत्वरयन् हयान् ॥१६५॥ निर्घोषेणाातेघोरेण जगदाधिर्यदायिनः । भिन्नसिन्धुतटानीव मिमिलुः स्यन्दना मिथः॥१६६ ।। आस्फालयन्तः फलकान्यास्फलन्तः परस्परम् । अस्यसि विदधुर्वीराः पत्तयो बाहुशालिनः ॥ १६७ ॥ 25 अभञ्जि मधुसैन्येन विष्णुसैन्यं क्षणादपि । द्रुमखण्ड प्रचण्डेनौत्पातिकेनेव वायुना ॥ १६८॥ रथिना बलभद्रेणान्वीयमानो रथी हरिः । अपूरयत् पाञ्चजन्यमजन्यमिव विद्विषाम् ॥ १६९ ।। पाञ्चजन्यस्य नादेन तत्कालं मधुसैनिकाः । त्रेसुः केऽपि मुमूर्छः केऽप्यपतन् केऽपि भूतले ॥१७०॥ इत्थं विधुरमालोक्य सैन्यं मधुरपि स्वयम् । धनुरास्फालयन् स्फारमाह्वास्त पुरुषोत्तमम् ॥ १७१ ॥ अधिज्यीकृत्य तरसा शाङ्ग शाप्यवादयत् । रोदसी वादयदिव गरीयस्या प्रतिश्रुता ॥ १७२॥ 30
हातेनाऽभिहितत्वादन प्रथमा। २ पूर्ववद् भक्तिकारी। ३ वैपरीत्यम् । ४ उद्घाटन-साधनम् , 'कुंची' भाषायाम् । ५व्यर्थाः, असख्याः इति यावत्। ६ कुत्सितमत्यन्तं वदतीति कद्वदावदः। ७ मत्स्यः। *पुरुषः परुष रु. संवृ०॥
संदेदोन। ५ कलमः। १० कोपम् । भाकृतिम् मु०॥ ११ भयङ्करभाकारध्वनिम् । १२ कौं। १३ युद्धकुशलैः।
व | परावृ० संबृ०॥ १४ पारापत:-कपोत:; 'पारेवु' भाषायाम् । १°पवेश्य संबृ० का०॥ १५ शरम् । १६ रुधिरपा. नोचतम् । १७ हस्तिपकः 'महावत' भाषायाम् । १८ भनवाराः। न्यास्फाल° संवृ. ॥ १९ असिभिरसिभिहीत्वा प्रवृत्तमिदं युद्धम् । २० उत्पातसंवन्धिना । २१ उत्पातमिव। २२ प्रतिध्वनिना।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[चतुर्थ पर्व कर्षकर्ष निषङ्गात् ताविपून मुमुचतुः शितान् । अन्योऽन्यं मृत्यवे सानिव वार्तिकवादिनौ ॥ १७३ ॥ जयलक्ष्म्या इव प्राणान् बाणान् बाणैरुभावपि । व्यवच्छेदकलाच्छेदौ चिच्छेदाते परस्परम् ॥ १७४ ॥ एवमस्त्रान्तरैरखान्तराण्यपि मिथस्तयोः । रज्जुकर्तमकृत्यन्त रणो ह्येवं समौजसाम् ॥ १७५ ॥
अन्योऽन्यसाम्यकुपितो दिदर्शयिषुरन्तरम् । चक्रं सस्मार च मधुस्तत्पाणौ तत् पपात च ॥ १७६ ॥ 5 जिघांसुरप्यभिदधे मधुर्विस्फुरिताधरः। भो! याहि याहि किं बाल्यात् व्याघीदन्तान् विष्टक्षसि ॥१७७॥
को नाम मे बलोत्कर्षस्त्वयि बाले निबर्हिते । किं रम्भोन्मूलने स्थामवर्णनं वरदन्तिनः ॥ १७८ ॥ एषोऽपि सुभटम्मन्यस्तव ज्यायान् ममाग्रतः । लघीयान् कुञ्जर इव महानपि गिरेः पुरः ॥ १७९ ॥ व्याजहार प्रतिहरिं हरिरप्युल्लससितः । तमांसि हन्ति प्रौढानि बालोऽपि हि दिवाकरः ॥१८॥ अग्निः स्फुलिङ्गमात्रोऽपि कक्षं दहति सर्वतः । तेजः प्रमाणं वीराणां तेजसां कीदृशं वयः। ॥ १८१॥
॥युग्मम् ॥ तदलं ते विलम्बेन मुञ्च चक्रमशङ्कितः । व्यालोऽपि गरलं मुक्त्वा शाम्येन पुनरन्यथा ॥ १८२ ॥ अङ्गुल्यामूर्मिकीकृत्य सलीलं मधुरप्यथ । भ्रमयामास तच्चक्रमलातमिव बालकः ॥ १८३ ॥ मुमोच च मधुश्चक्रं तत् पपाताथ शाङ्गिणः । वक्षस्तुम्बाग्रघातेन चुम्बदुल्बणतेजसा ॥ १८४ ॥ विष्णुस्तेन प्रहारेण मूछितः स्यन्दनेऽपतत् । उत्प्लुत्य बलभद्रेण खोत्सङ्गे च न्यधीयत ॥ १८५ ॥ भ्रात्रङ्गसंगादमृतस्नपनादिव केशवः । अवाप्तसंज्ञस्तच्चक्रं मधोः प्राणानिवाददे ॥ १८६ ॥ अथ शार्ङ्गधरोऽप्येवमूचे मद्वत् त्वमत्र भोः!। मा स स्था गच्छ गच्छाशु स्पर्धा सिंहेन का शुनः॥१८॥ मधुरप्यभ्यधत्तैवं मुश्च चक्रं त्वमप्यहो! । गर्जन् शरन्मेघ इव किमात्मानं विकत्थसे ॥ १८८॥ एवमुक्तवतस्तस्य चक्र मुक्त्वा जनार्दनः । अपातयच्छिरो भूमौ फलं तालतरोरिव ॥ १८९ ॥ पुष्पवर्षेः सुरैः शाङ्गी साधु साध्विति तुष्टुवे । हा नाथ ! नाथ! क्वासीति निजैस्तु शुशुचे मधुः ॥१९०॥ जन्ने केशवसेनान्या कैटभोऽपि महाभटः । शिश्रिये चापरैः सद्यः श्रीपतिमधुपार्थिवैः ॥ १९१॥ समागधवरदामप्रभासाधीश्वरं ततः । अपाग्भरतवर्षाधं साधयामास शाङ्गभृत् ॥ १९२ ॥ शिलां कोटिनरोत्पाट्यां मगधेष्वथ माधवः । उत्पादय लीलयाऽऽनन्दी पिधानमिव सोऽमुचत् ॥१९३॥ समुद्रेणापि दत्तार्घ इवोत्कल्लोलपाणिना । अथाययौ द्वारवती स्वपुरीं पुरुषोत्तमः ॥ १९४ ॥
तत्र सोमेन रामेण पार्थिवैरपरैरपि । विष्णोश्चक्रेऽर्धचक्रित्वाभिषेकः परया मुदा ॥ १९५॥ 25 ईतस्त्रिवर्षी छमस्थो विहत्याऽनन्तजिजिनः । समाययावुपवनं सहस्राम्रवणाभिधम् ॥ १९६ ॥
तत्राशोकतले भर्तुानान्तरविवर्तिनः । संसारस्येव मर्माणि घातिकर्माणि तुत्रुटुः ॥ १९७॥ राधकृष्णचतुर्दश्यां रेवतीस्थे निशाकरे । षष्ठेन तपसा भर्तुरुदपद्यत केवलम् ॥ १९८ ॥
चक्रे च दिव्ये समवसरणे देशनां प्रभुः । पञ्चाशतं गणधरान् यशःप्रभृतिकानपि ॥ १९९ ॥ ___ तत्तीर्थभूश्च पातालख्यास्यो मकरवाहनः । रक्तो दोभिः पद्मखड्गपाशिभिर्दक्षिणैस्त्रिभिः ॥२०॥ 30 वामैनकुलफलकाक्षसूत्रसहितैः पुनः । श्रीमतोऽनन्तनाथस्य जज्ञे शासनदेवता ॥ २०१॥
तथोत्पन्नाङ्कुशा नाम गौरागी पद्मवाहना । दोर्दण्डाभ्यां दक्षिणाभ्यां खड्गं पाशं च बिभ्रती ॥२०२॥ दक्षिणेतरबाहुभ्यां दधती फलककाङ्कुशौ । अनन्तखामिनो जज्ञे तथा शासनदेवता ॥ २०३ ॥ ताम्यामुपासिताभ्यो भगवान् विहरन् भुवि । प्रापत् पुरीं द्वारवतीं मोक्षद्वाराँग्रेगूः प्रभुः ॥२०४॥
१ कृष्ठा कृष्ट्वा । २ विषवैद्यवादिनौ । ३ छेकौ-कुशलौ । ४ नाशिते । ५ रम्भा-कदली। ६ तृणम् । ७ विषम् । ८ उल्काम् । * उत्पत्य संवृ०॥ ९ प्रगल्भसे। १० आच्छादनम् । इति त्रिव संवृ०॥ ११ त्रिमुखः। १२ अप्रगूर-अप्रेसरः।
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चतुर्थः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । शक्राद्यैस्तत्र समवसरणं विदधेऽमरैः । षट्कार्मुकशतोत्तुङ्गचैत्यपादपभूषितम् ॥ २०५॥ तत्र द्वारेण पूर्वेण प्रविश्यानन्तजिजिनः । त्रिः प्रदक्षिणयामास तमुच्चैश्चैत्यपादपम् ॥ २०६॥ कृत्वा तीर्थनमस्कारं पूर्वसिंहासने प्रभुः । प्रा खो न्यषदत् तस्थौ श्रीसंघश्च यथास्थिति ॥ २०७॥ खामिनः प्रतिरूपाणि त्रीणि दिक्षु तिसृष्वपि । रत्नसिंहासनस्थानि विचक्रुर्व्यन्तरामराः ॥२०८॥ तथा च समवसृतं तीर्थनाथं चतुर्दशम् । गत्वा शशंसुः पुरुषोत्तमायायुक्तपूरुषाः ॥२०९॥ 5 सार्धा द्वादश रूप्यस्य कोटीस्तेभ्यः प्रदाय च । ययौ समवसरणं बलभद्रयुतो हरिः ॥२१॥ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य तीर्थनाथं प्रणम्य च । अनुशकमुपाविक्षत् साग्रजः पुरुषोत्तमः ॥२११ ॥ भूयो नत्वा जिनेन्द्रं ते देवेन्द्रोपेन्द्रसीरिणः । भक्तिगद्गदया वाचा स्तोतुमारेभिरे ततः ॥ २१२ ॥ देहभाजां मनोवित्तं विषयैस्तस्करैरिव । तावदुल्लङ्ख्यते यावनं त्वमेषामधीश्वरः ॥ २१३ ॥ प्रेसर्पत्कोपतिमिरं दृशोऽन्धकरणं नृणाम् । दूरादपसरत्येव त्वदर्शनसुधाञ्जनात् ॥ २१४ ॥ 10 मानेन भूतेनेवात्तास्तावदज्ञाः शरीरिणः । यावद् भवद्वचो मत्र इव तैर्न हि शुश्रुवे ॥ २१५ ॥ त्वत्प्रसादात् त्रुटन्मायोनिगडानां शरीरिणाम् । संप्राप्तार्जवयानानां मुक्तिर्न हि दैवीयसी ॥ २१६ ॥ यथा यथा देहभाजो निरीहास्त्वामुपासते । चित्रं तथा तथा तेषामस्युत्कृष्टफलप्रदः ॥२१७ ॥ संसारसरितो राग-द्वेषौ द्वे श्रोतसी इव । तद्द्वीप इव माध्यस्थ्ये स्थीयते तव शासनात् ॥ २१८ ॥ देहिनां निर्वृतिद्वारप्रवेशोत्सुकचेतसाम् । मोहान्धकारदीपत्वं त्वं धारयसि नापरः ॥ २१९ ॥ 15 विषयः कषायरागद्वेषमोहैरनिर्जिताः । भूयास त्वत्प्रसादेन प्रसीद परमेश्वर ! ॥ २२० ॥ स्तुत्वैवं कृतमौनेषु शकमध्वरिसीरिषु । अनन्तनाथो भगवान् विदधे देशनामिति ॥ २२१ ॥
अंतत्वविदुरो जन्तुरमार्गज्ञ इवाध्वगः । असिन् संसारकान्तारे बम्भ्रमीति दुरुत्तरे ॥ २२२ ॥ जीवाजीवावाश्रवश्च संवरो निर्जरा तथा । बन्धो मोक्षश्चेति सप्त तत्त्वान्याहुर्मनीषिणः ॥ २२३ ॥ तत्र जीवा द्विधा ज्ञेया मुक्तसंसारिभेदतः । अनादिनिधनाः सर्वे ज्ञान-दशेनलक्षणाः ॥ २२४ ॥ मुक्ता एकखभावाः स्युर्जन्मादिक्केशवर्जिताः । अनन्तदर्शनज्ञानवीर्यानन्दमयाश्च ते ॥ २२५ ॥ संसारिणो द्विधा जीवाः स्थावर-त्रसभेदतः । द्वितयेऽपि द्विधा पर्याप्ता-ऽपर्याप्तविशेषतः ॥ २२६ ॥ पर्याप्तयस्तु पडिमाः पर्याप्तत्वनिबन्धनम् । आहारो वपुर्रक्षाणि प्राणो भाषा मनोऽपि च ॥ २२७ ॥ स्युरेकाक्ष-विकलाक्ष-पञ्चाक्षाणां शरीरिणाम । चतस्रः पञ्च षट् चापि पर्याप्तयो यथाक्रमम् ॥ २२८॥ एकाक्षाः स्थावरा भूम्यप्तेजोवायुमहीरुहः । तेषां तु पूर्वे चत्वारः स्युः सूक्ष्मा बादरा अपि ॥ २२९ ॥ 25 प्रत्येकाः साधारणाश्च द्विप्रकारा महीरुहः । तेन पूर्वे बादराः स्युरुत्तरे सूक्ष्म-बादराः ॥ २३०॥ असा द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियत्वेन चतुर्विधाः । तत्र पञ्चेन्द्रिया द्वेधा संज्ञिनोऽसंज्ञिनोऽपि च ॥ २३१ ॥ शिक्षोपदेशालापान ये जानते तेऽत्र संज्ञिनः । संप्रवृत्तमनःप्राणास्तेभ्योऽन्ये स्युरसंज्ञिनः ॥ २३२॥ स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षुः श्रोत्रमितीन्द्रियम् । तस्य स्पर्शो रसो गन्धो रूपं शब्दश्च गोचरः ॥ २३३ ॥
*खो निषसादाथ श्री संबृ०॥ स्थितेः। का०॥ आयुक्त:-सचिवः । न त्वं तेषा' संवृ० का०॥ चक्षु. पस्तिमिरमिव क्रोधान्धरणो म संचार निगड-बन्धः, 'बेडी' भाषायाम्। ३ अतिरे। तेष फलप्रदः' इति विभागे त्वमिति शेषः। ५ प्रवाहौ। ६ अतत्त्वज्ञः। ७ स्थावराः साश्चेति। ८ इन्द्रियाणि। ९एकेन्द्रियाणां पतना, विकलेन्द्रियाणां पत्र, पञ्जेन्द्रियाणां पद पर्याप्तयः क्रमशः हः। तत्र तु संबृ. का०॥ १. प्रत्येका बादरा एव ।
साधारणाः। १२ प्रतिमन्तो मन:-प्राणा येषां ते। १३ विषयः ।
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३७२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[चतुर्थ पर्व द्वीन्द्रियाः कृमयः शङ्खा गण्डूपदा जलौकसः । कपर्दाः शुक्तिकाद्याश्च विविधाः कृमयो मताः ॥२३४॥ युका-मन्कुण-मत्कोट-लिक्षाद्यास्त्रीन्द्रिया मताः । पतङ्ग-मक्षिका-भृङ्ग-दंशाद्याश्चतुरिन्द्रियाः ॥ २३५ ॥ तिर्यग्योनिभवाः शेषा जल-स्थल-खचारिणः । नारका मानवा देवाः सर्वे पश्चेन्द्रिया मताः ॥ २३६ ॥ मनो-भाषा-कायबलत्रयमिन्द्रियपश्चकम् । आयुरुच्छासनिःश्वासमिति प्राणा दश स्मृताः ॥ २३७ ॥ सर्वजीवेषु देहायुरुच्छासा इन्द्रियाणि च । विकलासंज्ञिनां भाषा पूर्णानां संज्ञिनां मनः ॥ २३८ ॥ उपपाद(त)भवा देव-नारका गर्भजाः पुनः । जरायुःपोताण्डभवाः शेषाः संमूर्छनोद्भवाः ॥ २३९ ॥ संमूर्छिनो नारकाश्च जीवाः पापा नपुंसकाः । देवाः स्त्री-पुंसवेदाः स्युर्वेदत्रयजुषः परे ॥ २४० ॥ सर्वे जीवा व्यवहार्यव्यवहारितया द्विधा । सूक्ष्मनिगोटा एवान्त्यास्तेभ्योऽन्ये व्यवहारिणः ॥ २४१॥ सचित्तः संवृतः शीतस्तदैन्यो मिश्रितोऽपि वा । विभेदैरान्तरैभिन्नो नवधा योनिरङ्गिनाम् ॥ २४२ ॥ प्रत्येकं सप्त लक्षाश्च पृथ्वी-चार्यग्नि-वायुषु । प्रत्येकानन्तकायेषु क्रमाद् दश चतुर्दश ॥ २४३ ॥ षट् पुनर्विकलाक्षेषु मनुष्येषु चतुर्दश । स्युश्चतस्रश्चतस्रश्च श्वधि-तिर्यक्-सुरेषु तु ॥ २४४ ॥ एवं लक्षाणि योनीनामशीतिश्चतुरुत्तरी । केवलज्ञानदृष्टानि सर्वेषामपि जन्मिनाम् ॥ २४५ ॥ एकाक्षा बादराः सूक्ष्माः पञ्चाक्षाः संज्यसंज्ञिनः । स्युद्धि-त्रि-चतुरक्षाश्च पर्याप्ता इतरेऽपि च ॥ २४६ ॥ एतानि जीवस्थानानि मयोक्तानि चतुर्दश । मार्गणा अपि तावत्यो ज्ञेयास्ता नामतो यथा ॥ २४७ ॥ गतीन्द्रिय-काय-योग-वेद-ज्ञान-कुधादयः। संयमा-ऽऽहार-दृग्-लेश्या-भव्य-सम्यक्त्व-संज्ञिनः ॥२४८॥
मिथ्यादृष्टिः सास्वादन-सम्यमिथ्यादृशावपि । अविरतसम्यग्दृष्टिविरताविरतोऽपि च ॥ २४९ ॥ प्रमत्तश्चाप्रमत्तश्च निवृत्तिबादरस्ततः । अनिवृत्तिबादरश्चाथ सूक्ष्मसंपरायकः ॥ २५० ॥ ततः प्रशान्तमोहश्च क्षीणमोहश्च योगवान् । अयोगवानिति गुणस्थानानि स्युश्चतुर्दश ॥ २५१॥ मिथ्यादृष्टिर्भवेन्मिथ्यादर्शनस्योदये सति । गुणस्थानत्वमेतस्य भद्रकत्वाद्यपेक्षया ॥ २५२ ॥ मिथ्यात्वस्यानुदयेऽनन्तानुबन्ध्युदये सति । सास्वादनसम्यग्दृष्टिः स्यादुत्कर्षात् षडावलीः ॥ २५३ ॥ सम्यक्त्वमिथ्यात्वयोगान्मुहूर्त मिश्रदर्शनः । अविरतसम्यग्दृष्टिरप्रत्याख्यानकोदये ॥ २५४ ॥ विरताविरतस्तु स्यात् प्रत्याख्यानोदये सति । प्रमत्तसंयतः प्राप्तसंयमो यः प्रमाद्यति ॥ २५५ ॥ सोऽप्रमत्तसंयतो यः संयमी न प्रमाद्यति । उभावपि परावृत्त्या स्यातामान्तर्मुहर्तिकौ ।। २५६ ॥
कर्मणां स्थितिघातादीनपूर्वान् कुरुते यतः । तस्मादपूर्वकरणः क्षेपकः शैमकश्च सः ॥ २५७ ।। 25 यदादरकपायाणां प्रविष्टानामिमं मिथः । परिणामा निवर्तन्ते निवृत्तिबादरोऽपि सः ॥२५८॥
परिणामा निवर्तन्ते मिथो यत्र न यत्नतः । अनिवृत्तिबादरः स्यात् क्षपकः शमकश्च सः ॥ २५९ ॥
३ भूम्यन्तर्गतजन्तुविशेषाः, 'गंडोळां' भाषायाम् । २ युका-मत्कुण-मरकोट-लिक्षाद्याः-भाषायाम्-'जू', 'मांकड', 'बगई', 'लीख' । ३ यथा द्वीन्द्रियाणां कायाऽऽयुरुच्छासाः स्पर्शन-रसनेन्द्रियद्वयं भाषा चेति षट् प्राणास्तथैव त्रीन्द्रियाणां चतुरिन्द्रियाणामसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां च क्रमात् स्वस्वेन्द्रियवृख्या सप्ताष्टौ नव च प्राणाः संज्ञिनां तु मनःसहिता दशेति तात्पर्यम् । ४ ये जीवा जरायुःपोताण्डभवास्ते गर्भजाः कथ्यन्ते। ५ गर्भजाः प्राणिनः। ६ ये सूक्ष्भनिगोदास्तेऽव्यवहारिणः। ७ सचिसादन्योऽचित्तः, संवृतविवृतादम्यो विवृतः, शीतादन्य उष्णः । ८ सचित्ताचित्तः, संवृत विवृतः शीतोष्ण इत्यर्थः। * °क्षाणि पृ° संबृ०॥ ९ प्रत्येकवनस्पतिकायेषु दशलक्षा, अनन्तकायेषु-साधारणवनस्पतिकायेषु चतुर्दशलक्षाः। १० नारक-तिर्यक्-देवेषु । इरा। सर्वज्ञोपशमुक्तानि स० संवृ०॥ १ बादरेकेन्द्रियाः सूक्ष्मैकेन्द्रियाः, संज्ञिपञ्चेन्द्रियाः, असंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः, द्वीन्द्रियाः, श्रीन्द्रियाः, चतुरिन्द्रियाश्चेति सप्त पर्याप्तास्तथैवापर्याप्ताश्चेति चतुर्दश जीवस्थानानि । नि जिनोक्ता संवृ०। १२ चतुर्वश ।
दादयः संबृ० का०॥ १३ क्रोधादयः कषायाः। १४ सम्यगमिथ्याग् इत्यस्य मिश्रगुणस्थानमित्यपि नामान्तरम् । १५ देशविरांतगुणस्थानम् । १६ अपूर्वकरणगुणस्थानमित्ययस्य नामान्तरम् । १७ उपशान्तमोहः इति नाम्ना प्रसिद्धिः। १८ सयोगिकेवली, १९ क्षपकश्रेणिकः। २० उपशमश्रेणिकः । २१ इममपूर्वकरणं प्रविष्टानां साधूनां यद्यस्माद बादरकषायाणां क्रोधादीनां परिणामा निवर्तन्तेऽतः स निवृत्तिबादरोऽपि कथ्यते ।
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चतुर्थः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
३७३ लोभाभिधः संपरायः सूक्ष्मकिट्टीकृतो यतः । स सूक्ष्मसंपरायः स्यात् क्षपकः शमकोऽपि च ॥ २६०॥ अथोपशान्तमोहः स्यान्मोहस्योमशमे सति । मोहस्य तु क्षये जाते क्षीणमोहं प्रचक्षते ॥ २६१ ॥ सयोगिकेवली घातिक्षयादुत्पन्न केवलः । योगानां च क्षये जाते स एवायोगिकेवली ॥२६२॥ इति जीवतत्त्वम्।। __ अजीवाः स्युर्धर्माधर्मविहायःकालपुद्गलाः । जीवेन सह पश्चापि द्रव्याण्येते निवेदिताः ॥ २६३ ॥ तत्र कालं विना सर्वे प्रदेशप्रचयात्मकाः। विना जीवमचिद्रूपा अकारश्च ते मताः ॥ २६४ ॥ 5 कालं विनाऽस्तिकायाः स्युरमूर्ताः पुद्गलं विना । उत्पाद-विगम-ध्रौव्यात्मानः सर्वेऽपि ते पुनः॥२६५ ॥ पुद्गलाः स्युः स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णस्वरूपिणः । तेऽणुस्कन्धतया द्वेधा तत्राबद्धाः किलाणवः ॥ २६६ ।। बद्धाः स्कन्धाबन्ध-शब्द-सौक्ष्म्य-स्थौल्याकृतिस्पृशः।अन्धकारा-ऽऽतपोद्योतभेदच्छायात्मका अपि ॥२६७॥ कर्म-काय-मनो-भाषा-चेष्टितोच्छासदायिनः । सुखदुःख-जीवितव्य-मृत्यूपग्रहकारिणः ॥ २६८ ॥ प्रत्येकमेकद्रव्याणि धर्माधर्मों नभोऽपि च । अमूर्तानि निष्क्रियाणि स्थिराण्यपि च सर्वदा ॥ २६९ ॥ 10 एकजीवपरिमाणसंख्यातीतप्रदेशकौ । लोकाकाशमभिव्याप्य धर्माधर्मों व्यवस्थितौ ।। २७० ॥ स्वयं गन्तुं प्रवृत्तेषु जीवाजीवेषु सर्वतः । सहकारी भवेद् धर्मः पानीयमिव यादसाम् ॥ २७१ ॥ जीवानां पुद्गलानां च प्रपन्नानां स्वयं स्थितिम् । अधर्मः सहकार्येष यथा छायाऽध्धयायिनाम् ॥ २७२ ॥ सर्वगं स्वप्रतिष्ठं स्यादाकाशमवकाशदम् । लोकालोको स्थितं व्याप्य तदनन्तप्रदेशभाक् ॥ २७३ ॥ लोकाकाशप्रदेशस्था भिन्नाः कालाणवस्तु ये । भावानां परिवर्ताय मुख्यकालः स उच्यते ॥ २७४ ॥ 15 ज्योतिःशास्त्रे यस्य मानमुच्यते समयादिकम् । स व्यावहारिकः कालः कालवेदिभिरामतः ॥ २७५ ॥ नवजीर्णादिरूपेण यदमी भुवनोदरे । पदार्थाः परिवर्तन्ते तत् कालस्यैव चेष्टितम् ॥ २७६ ॥ वर्तमाना अतीतत्वं भाविनो वर्तमानताम् । पदार्थाः प्रतिपद्यन्ते कालक्रीडाविडम्बिताः ॥ २७७ ॥
इति अजीवतत्त्वम् ॥ मनो-वचन-कायानां यत् स्यात् कर्म स आश्रवः । शुभः शुभस्य हेतुः स्वादशुभस्त्वशुभस्य सः ॥२७८॥20
इति आश्रवतत्त्वम् ॥ सर्वेषामाश्रवाणां यो रोधहेतुः स संवरः । कर्मणां भवहेतूनां जैरणादिह निर्जरा ॥ २७९ ॥
इति संवर-निर्जरे तत्त्वे ॥ सकपायतया जीवः कर्मयोग्यांस्तु पुद्गलान् । यदादत्ते स बन्धः स्याञ्जीवासातव्यकारणम् ॥ २८०॥ प्रकृति-स्थित्यनुभाव-प्रदेशा विधयोऽस्य तु । प्रकृतिस्तु स्वभावः स्याज्ज्ञानावृत्त्यादिरष्टधा ॥ २८१ ॥ 25 ज्ञान-दृष्ट्यावृती वेद्यं मोहनीयायुषी अपि । नाम-गोत्रान्तरायाश्च मूलप्रकृतयो मताः ॥ २८२ ॥ निष्कर्षोत्कर्षतः कालनियमः कर्मणां स्थितिः । अनुभावो विपाकः स्यात् प्रदेशोंऽशप्रकल्पनम् ॥ २८३ ॥ मिथ्यादृष्टिरविरतिप्रमादौ च क्रुधादयः । योगेन सह पञ्चैते विज्ञेया बन्धहेतवः ॥ २८४ ॥
इति बन्धतत्वम् ॥
*संवृ०.का. आदर्शयो स्त्येतत् पदद्वयम् ॥ १ विहापः-आकाशास्तिकायः। २ प्रदेशसमूहरूपाः । ३ ज्ञानावरणीयादि कर्म। 1देशिकौ । संबृ०॥ °याधिया संबृ०॥ संबृ. का. आदर्शयोः 'इति' पदं नास्ति ॥ | °स्य च । संव०॥
संवृ० का. आदर्शयोः 'इति आश्रवतत्वम्' इत्यस्य स्थाने 'आश्रवः' इति पदम् ॥ ४क्षयात् । संवृ० का आदर्शयोः 'इति संवर-निर्जरे तत्वे' इत्यस्य स्थाने 'संवरनिर्जरे' इति पदम् ॥ ५ अस्य बन्धस्य चत्वारः प्रकाराः-प्रकृतिः, स्थितिः, अनुभावः, प्रदेशश्चेति । ६ ज्ञानावरणादिः। ७ ज्ञानावरणम् , दर्शनावरणं च। ८ जघन्यतः उत्कृष्टतश्च कर्मणां कालनियमः सा स्थितिः। निकषेमु०॥ ९ कर्मणां विपाकोऽनुभावः । **ऋदादयः संवृ० का०॥tt संबृ० का. आदर्शयोः 'इति' पदं नास्ति ।
त्रिषष्टि. ४८
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
चतुर्थ पर्व अमावे हेतूनां घातिकर्मक्षयोद्भवे । केवले सति मोक्षः स्याच्छेषाणां कर्मणां ईये ।। २८५ ॥ सुरा-ऽसुर-नरेन्द्राणां यत् सुखं भुवनत्रये । स स्यादनन्तभागोऽपि न मोक्षसुखसंपदः ॥ २८६ ॥
इति मोक्षतत्वम् ।। एवं तवानि जानानो जनो जगति जातुचित् । न निमजति संसारे वारिधाविव तारकः ॥ २८७ ।। एवं देशनया भर्तुः प्राज्याः पर्यव्रजञ्जनाः । भेजे हरिस्तु सम्यक्त्वं श्रावकत्वं च सुप्रभः ॥२८८ ॥ ध्यासीवादिपौरुष्यां देशेनातो जगत्पतिः । यशास्तत्पादपीठस्थो गणभृद् देशनां व्यधात् ॥ २८९ ॥ तत्राप्यवस्पौरुभ्यां देशनाविरते सति । नत्वा प्रभुं ययुः स्वौकः शक्रोपेन्द्रबलादयः ॥ २९० ॥ ततः स्थानात् प्रभुरपि ग्रामा-ऽऽकर-पुरादिषु । प्रबोधयन् भव्यजन्तून् विजहार वसुन्धराम् ॥ २९१ ॥ षष्टिः षट च सहस्राणि श्रमणानां महात्मनाम । तथा चतुर्दशपूर्वभूतां नव शतानि च ॥ २९२ ॥ चनःसहस्त्री त्रिशती चावधिज्ञानशालिनाम । मनःपर्ययिणां पञ्च चत्वारिंशच्छतानि च ॥ २९३॥ तथा पश्च सहस्राणि केवलज्ञानधारिणाम । जातवैक्रियलब्धीनां सहस्त्राण्यष्टयोगिनाम ॥ २९४॥ त्रिसहस्री शते द्वे च वादलब्धिमतां पुनः । आर्यिकाणां सहस्राणि द्वापष्टिवीतपाप्मनाम् ॥ २९५ ॥ श्रावकाणां पुनर्लक्षद्वयं षष्टिः शतानि च । श्राविकाणां चतुर्लक्षी चतुर्दशसहरुयपि ॥ २९६ ॥ व्यब्दोनान्यब्दलक्षाणि सप्त सार्धानि केवलात् । महीं विहरमाणस्य परिवारोऽभवत् प्रभोः ॥ २९७ ॥ खं मोक्षकालं ज्ञात्वा तु संमेतादिममात् प्रभुः । साधुसप्तसहरुया च सहानशनमाददे ॥ २९८॥ मासान्ते चैत्रविशदपञ्चम्यां पौष्णगे विधौ । समं तैर्मुनिभिर्मोक्षं प्रपेदेऽनन्तजित् प्रभुः ॥ २९९ ।। स्वामिनः खामिशिष्याणां तेषां चाभ्येत्य वासवाः । सामराश्चक्रिरे तत्र निर्वाणमहिमोत्सवम् ॥ ३०॥ कौमारे सप्त लक्षाणि सार्धानि शरदामथ । पृथिवीपालने वर्षलक्षाणि दश पश्च च ॥ ३०१ ।।
अर्धाष्टमावर्षलक्षाः प्रव्रज्यापरिपालने । इति त्रिंशद्वर्षलक्षाण्यनन्तजित आयुषि ॥ ३०२ ॥ 20 विमलखामिनिर्वाणादनन्तस्वामिनिवृतिः । व्यतिक्रान्तेषु नवसु वारिराशिष्वजायत ॥ ३०३ ॥
स त्रिंशद्वर्षलक्षायुर्विष्णुरत्युग्रकर्मभिः । तमःप्रभाख्यामगमत् षष्ठी नरकमेदिनीम् ॥ ३०४ ॥ कौमारेऽन्दसप्तशती मण्डलित्वे त्रयोदश । वर्षशतान्यथाशीतिर्वर्षाणि ककुभां जये ॥ ३०५ ॥ राज्येऽन्दानामथैकोनत्रिंशल्लक्षी सहस्रकाः । नवतिः सप्त च नवशती विंशतिरस्य तु ॥ ३०६ ॥ सुप्रभः पञ्चपञ्चाशद्वर्षलक्षायुरुचकैः । स्वभ्रातुरवसानेन दुःखितोऽस्थाचिरं भुवि ।। ३०७ ।।
सोऽप्यथानुजविपत्तिविरक्त्याऽऽत्तव्रतो मुनिमृगाङ्कुशपायें ।
प्राप्य केवलमनन्तचतुष्की स्थानमापदपुनर्भवरूपम् ॥ ३०८ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थे पर्वणि श्रीअनन्तस्वामि-पुरुषोत्तम-सुप्रभ-मधुचरितवर्णनो
नाम चतुर्थः सर्गः संपूर्णः।
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* °ां जये।मु०॥ संवृ. का. आदर्शयोः पदद्वयं नास्ति ॥ १ बहवः। नान्ते ज० सं० का० ॥२ स्वस्वस्थानम् । पर्यायि संवृ०॥ ॥नां शताशीतिर्महात्मनाम् । संबृ. का० ॥ ३ नष्टपापानाम् । ४ विशदः-शुक्लः । ५ सार्धसतलक्षाः। ६ सागरोपमेषु । ** सुप्रभश्चाथ पश्चा संवृ०॥ ७ मोक्षरूपं स्थान प्राप्तः। धुवर्णनो मु०॥ संबृ० का० आदम्यो नात्येतत् पदम् ॥
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म: सर्ग: ]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । पञ्चमः सर्गः । श्रीधर्मनाथचरित्रम् |
धर्मगङ्गा हिमवतः कुतीर्थध्वान्तभाखतः । श्रीमतो धर्मनाथस्य चरणौ शरणं श्रये ॥ १ ॥ तस्यैव तीर्थनाथस्य चरित्रमिदमुच्यते । संसार सिन्धुतरणे सेतुबन्धवदयतम् ॥ २ ॥ धातकीखण्डद्वीपे प्राग्विदेहे भरताभिधे । विजये भद्रिलपुरं नाम्नाऽस्ति विपुलं पुरम् ॥ ३ ॥ तस्मिन् दृढरथो नाम महीपरिवृढोऽभवत् । दोर्भ्यां दृढाभ्यां भ्राजिष्णुर्दन्ताभ्यामिव कुञ्जरः ॥ ४ ॥ तेजांसि जसे राज्ञां ज्योतिषामिव भास्करः । तद्दण्डानां भाजनं च सोऽम्भोधिः सरितामिव ॥ ५ ॥ स महत्यपि साम्राज्ये नोत्सेकं जातुचिद् दधौ । विवेकी तूलतरलां जानन्नैद्रीमपि श्रियम् || ६ || तद्वैषयिकं सौख्यमाशुवन्नपि सोऽकरोत् । आगन्तुरिव संसारवासे नास्थां मनागपि ॥ ७ ॥ भोगेषूद्य वैराग्यः खशरीरेऽपि निःस्पृहः । स राज्यं प्राज्यमप्यौज्झच्छरीरमललीलया ॥ ८ ॥ संसारिकमहादुःखरोगैकभिषजस्ततः । ययौ स राजा विमलवाहनस्यान्तिकं गुरोः ॥ ९ ॥ तस्मादुपाददे रुच्या वेर्तनेनेव दुर्लभम् । चारित्ररत्नममलं स नृरत्न शिरोमणिः ॥ १० ॥ योगस्य मातरमिव समतामेव धारयन् । परीपहान् सहमानः स तेपे दुस्तपं तपः ॥ ११ ॥ आचान्तैः श्रुतगण्डूषैः पुण्यैस्तीर्थोदकैरिव । अपावयत् स आत्मानं विषयम्लेच्छदूषितम् ॥ १२ ॥ अद्भक्तिप्रभृतीनि स्थानकानि परामृशन् । सुधीरुपार्जयामास तीर्थकृन्नाम कर्म सः ॥ १३ ॥ काले च कृत्वाऽनशनं स विपद्य समाहितः । विमाने वैजयन्ताख्ये महर्द्धिरमरोऽभवत् ॥ १४ ॥
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इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन्नस्मिन् वर्षे च भारते । अस्ति रत्नपुरं नाम तत्तद्रत्नाकरः पुरम् ॥ १५ ॥ पार्श्वयो रेलसोपानरश्मिजालैर्मिथो युतैः । सेतुबद्धा इवाभान्ति तत्रोपवनदीर्घिकाः ॥ १६ ॥ सार्हच्चैत्यानि हैमानि सादर्शानि पदे पदे । तत्राख्यान्ति गृहाण्येव त्रिपुमर्थी सदोद्यताम् ॥ १७ ॥ स्मिन् मरकतैर्बद्धा शोभते मार्गभूर्निशि । प्रतिबिम्बितनक्षत्रा मुक्तास्वस्तिकभागिव ॥ १८ ॥ तत्रौकोनागदन्तानां कण्ठेष्विभ्यवधूजनैः । हाराः प्रलम्बिता यान्ति कण्ठाभरणरूपताम् ॥ १९ ॥ शीत मुद्यानवापीभिर्धर्मं हर्म्य महानसैः । वर्षा गजमदैर्विभ्रत् तत्कालत्रयभागिव ॥ २० ॥ तत्रासीन्नृपतिर्भानुर्भानुमानिव तेजसा । वैरिकक्षबृहद्भानुर्भानुच्चैरमलैर्गुणैः ॥ २१ ॥ परिमातुमलम्भूष्णुर्माभूदपि बृहस्पतिः । तांस्तांस्तरङ्गिणीनाथतरङ्गानिव तद्गुणान् ॥ २२ ॥ एकेन तेनतकरा नापश्यदपरं पतिम् । भूरियं कुलजातेव ललना शीलशालिनी ॥ २३ ॥ श्रियं स्वभावचपलां संयम्य मुँहदैर्गुणैः । खदोः स्तम्भे स्थिरीचक्रे स वारणवधूमिव ॥ २४ ॥ प्रौढप्रताप मार्तण्ड इव प्रत्यर्थिभूभुजाम् । संजहार स तेजांसि प्रदीपानामिवाभितः ॥ २५ ॥ विजेतुकामो नृपतीनध्यारोपयति स्म सः । न भ्रूलतामप्यलिके" किं पुनः कार्मुके गुणम् ।। २६ ।।
१ कृतीर्थमिव ध्वान्तं तस्मिन् सूर्यसदृशस्य । * णं थिये । मु० ॥ न्धमिवाय संबृ० ॥ २ विस्तृतम् । ३ महीपालः राजा दुयर्थः । ४ तेषां राज्ञां दण्डानाम् । ५ गर्वम् । ६ तुलवच्चञ्चलाम् । ७ अतिथिवत् । ८ मूल्येन । ९ पीतैः श्रुताण्येव गण्डूषालुकास्तः । १० समाधिमान् । ११ रत्नमयपङ्कीनां किरणैर्बद्ध सेतुका इव वाप्यः शोभन्ते इत्यर्थः । १२ नागदन्ताः दन्तकाः 'खुंटी' इति भाषायाम् । १३ वैरिण एव कक्षास्तेभ्यः बृहद्भानुरभिरित्र, गृहीतो हस्तोऽन्यत्र षष्ठांशभागो यस्याः सा । १५ हस्तिनीपक्षे रज्जुभिः । १६ भाले ।
दोदिताम् । सं० का० ॥ भान् शोभमानः । १४ आत्तो
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३७६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीत
[ चतुर्थ पर्व अभवत् तस्य पादाब्जोपासनेऽतिमधुव्रता । कलत्रं सुव्रता नाम लोकोत्तरसतीव्रता ॥ २७ ॥ कोकिलाभिः कलालापो हंसीभिर्गतिचातुरी । मृगीभिदृष्टिविक्षेपः शिक्षितानि ततो ध्रुवम् ॥ २८॥ लज्जा सहचरी तस्याः शीललक्ष्मीः प्रसाधिका । कोलीन्यं कञ्चकिवरः सहजोऽयं परिच्छदः ॥ २९ ॥ पतिभक्तिरलङ्कारस्तस्याः समुचिसोऽभवत् । अलङ्कार्यमलङ्कारजातं हारादि चापरम् ॥ ३० ॥ तदा च वैजयन्तस्थो जीवो दृढरथस्य सः । प्रकृष्टसुखनिमग्नो निजमायुरपूरयत् ॥ ३१ ॥ च्युत्वा ततो राधशुक्ल सप्तम्यां पुष्यगे विधौ । सुव्रतास्वामिनीकुक्षौ स जीवः समवातरत् ॥ ३२ ॥ गजप्रभृतिकांस्तीर्थकरजन्माभिसूचकान् । चतुर्दशमहास्वमांस्तदाऽदर्शच्च सुव्रता ॥ ३३ ।। माघशुक्लतृतीयायां पुष्ये भे वज्रलाञ्छनम् । स्वर्णवर्ण सुव्रतादेव्यस्त समये सुतम् ॥ ३४ ॥ दिक्कुमार्यः षट्पञ्चाशदेत्य भोगङ्करादयः । स्वामिनः स्वामिमातुश्च सूतिकर्माणि चक्रिरे ॥ ३५ ॥ तत्कालं पालकारूढः सौधर्मेन्द्र उपेत्य च । आदाय स्वामिनं निन्ये मेरुपर्वतमूर्धनि ॥३६॥ अपि पाण्डकम्बलायां रत्नसिंहासने हरिः। आसानके स्वाइसिंहासनारोपिततीर्थकत ॥ ३७॥ अथाच्युतप्रभृतिभिस्त्रिपष्ट्या वासवैः प्रभोः । विधिवद् विदधे स्नानं पवित्रस्तीर्थवारिभिः ॥ ३८॥ ईशानाङ्के निवेश्येशं स्नपयामास वज्रभृत् । विलिप्य पूजयित्वा च स्तोतुं चेत्युपचक्रमे ॥ ३९ ॥
नमस्तुभ्यं पञ्चदशायाहते परमेश्वर !। परमध्येयरूपाय परमध्यायिनेऽपि च ॥ ४० ॥ देवेभ्यो दानवेभ्योऽपि मान् मन्ये गरीयसः । त्रैलोक्यवन्द्यो यत्र त्वमुदभूस्तीर्थनायकः ।। ४१ ॥ अपाग्भरतवर्षेऽस्मिन् ममाद्यैवास्तु मर्त्यता । मोक्षसाधनसाधीयस्त्वच्छिष्यत्वजिघृक्षया ॥ ४२ ॥ नारकेभ्यो नाकसदां को भेदः सुखिनामपि । भवेद् येषां प्रमत्तानां न भवत्पाददर्शनम् ॥ ४३ ॥ विजृम्भितं तावदेव घूकैरिव कुतीर्थिकैः । न यावत् त्रिजगन्नाथ ! रवेरिव तवोदयः ॥४४॥ तव वर्षाम्बुदस्येव धर्मदेशनवारिणा । भरतार्धं सर इवाशेषं पूरिष्यतेऽचिरात् ॥ ४५ ॥ अनन्तान् देहिनो मुक्तिं प्रापयन् परमेश्वर ! । अरिदेशमिवो-शस्त्वं कर्ता भवमुद्वसम् ॥ ४६ ॥ त्वत्पादपद्मलीनेन षट्पदेनेव चेतसा । भगवन् ! कल्पवासेऽपि प्रयान्तु मम वासराः ॥ ४७ ॥
स्तुत्वेति स्वामिनं शक्रो गृहीत्वेशानवासवात् । नीत्वा च सुव्रतादेव्याः पार्श्वेऽमुञ्चद् यथास्थिति ॥४८॥ गर्भस्थेऽस्मिन् धर्मविधौ यन्मातुर्दोहदोऽभवत् । तेनास्य धर्म इत्याख्यामकार्षीद् भानुभूपतिः ॥ ४९ ॥
अत्यगाच्छैशवं स्वामी क्रीडन् सुरकुमारकैः । प्रापच्च यौवनं पश्चचत्वारिंशद्धनून्नतः ॥५०॥ 25 चिरेप्सितं पूरयितुं पित्रोः कौतूहलं प्रभुः । भोग्यकर्माणि भोक्तुं च चक्रे दारपरिग्रहम् ॥ ५१॥
वर्षलक्षद्वये साधे जन्मतोऽतिगते सति । पर्यग्रहीद् राज्यभारं स्वामी पित्रनुरोधतः ॥ ५२ ॥ पञ्चलक्षाणि वर्षाणां शशास वसुधां विभुः । प्राप्तकालां तदा दीक्षां चिन्तयामास च खयम् ॥ ५३॥ तीर्थं प्रवर्तय स्वामिनिति लौकान्तिकैः प्रभुः । विज्ञप्तो वार्षिकं दानं दीक्षाऽनाद्या मुखं ददौ ॥ ५४ ॥
अभिषिक्तोऽमरैर्नागदत्ताख्यां शिविकां विभुः । अधिरुह्य ययौ रम्यमुद्यानं वप्रकाञ्चनम् ॥ ५५ ॥ 80 प्रियङ्गुमञ्जरीपुञ्जमत्तगुञ्जदलिवजम् । पुन्नागोत्ससंदर्भव्याकुलोद्यानपालिकम् ॥५६॥
पौराङ्गनामृज्यमानस्वमुखं रो-रेणुभिः । शोभितं पुष्पितैः कुन्दैः स्मरायुधगृहैरिव ॥ ५७ ॥
१ मधुव्रतं भ्रमरमतिक्रान्ता भ्रमरीसदृशीत्यर्थः । २ अलङ्कारपरिधापिनी दासी । ३ श्रेष्ठः कञ्जकी-अन्तःपुराध्यक्षः। * °कृष्टं सु° मु० ॥ निर्मग्नो संवृ० का० ॥ वासरत् । का० ॥ थिङ्कर का० ॥ ४ मोक्षसाधने साधीयः श्रेष्ठं तव शिष्यत्वं तद् ग्रहीतुमिच्छया। ५ देवानाम् । शनावा मु०॥ ६ शत्रुदेशं यथा राजा निर्जनं करोति तथैवायमपि संसारमुद्वसं नाशं करिष्यतीत्यर्थः। ७ प्रियङ्गुलतायाः मञ्जरीणां पुजे मत्तोऽत एवं गुञ्जमलिवजो भ्रमरसमूहो यसिंस्तत् । ८ पुनागपुष्पाणामलङ्कारमथने व्याकुला उद्यानपालस्त्रियो यसिंस्तत् ।
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पञ्चमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
३७७ लवलीपुष्पलवनव्यग्रारामिकदारकम् । मुचुकुन्दमरन्दोदबिन्दुसातिभूतलम् ।। ५८ ॥ बद्धोर्वीकं मरकतैरिवोन्मरुचकं ततः । प्रविवेश तदुद्यानं शिशिरश्रीमयं प्रभुः ॥ ५९॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ माघशुक्लत्रयोदश्यां पुष्ये भे चापरेऽहनि । समं राजसहस्रेण पष्टेन प्रावजत् प्रभुः ॥ ६० ॥ द्वितीयेऽह्नि सौमनसे धर्मसिंहनृपौकसि । चकार परमान्नेन पारणं परमेश्वरः ॥ ६१॥ 5 दिव्यं समभवत् तत्र वसुधारादिपञ्चकम् । धर्मसिंहो व्यधाद् रत्नपीठं स्वामिपदावनौ ॥ ६२॥ निरपेक्षः शरीरेऽपि समीरण इवास्खलन् । ततः स्थानात प्रववृते मां विहर्तुं जगद्गुरुः ।। ६३ ॥
इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् विदेहेष्वपरेषु च । राजा पुरुषवृषभोऽशोकायामभवत् पुरि ॥ ६४ ॥ सदा विरक्तः संसारात् तात्त्विकः साविसश्च सः । पर्यव्राजीत् पादमूले प्रजापालमहामुनेः॥६५॥ दुस्तपं स तपस्तस्वा प्राप्ते काले विपद्य च । अष्टादशसमुद्रायुः सहस्रारे सुरोऽभवत् ॥ ६६ ॥ 10 गतेषु तस्य देवस्यायुषः पोडशवार्धिषु । इहैव पोतनपुरे राजा विकट इत्यभूत् ॥ ६७ ॥ कुञ्जरः कुञ्जरेणेव विजिग्ये स्वभुजौजसा । रणाङ्गणे राजसिंहाभिधानेन स भूभुजा ॥ ६८॥ पराजयेन तेनाथ ह्रिया राज्यं स्वसूनवे । दत्वा गत्वा चातिभूलेः पादान्ते व्रतमाददे ॥ ६९ ॥ तपः स तीव्र तेपे च निदानमिति चाकरोत् । भवान्तरे राजसिंहोच्छेदाय स्यामहं ध्रुवम् ॥ ७० ॥ इत्थं कृतनिदानः सन् कालयोगाद् विपद्य सः । कल्पे द्वितीय उत्पेदे द्वयंर्णवायुः सुरोत्तमः ॥७१ ॥ 15 राजसिंहनृपः सोऽपि चिरं भ्रान्त्वा भवार्णवम् । भरतान्तहरिपुरे निशुम्भोऽभून्महीपतिः ॥७२॥ स कृष्णवर्णः पश्चाग्रचत्वारिंशद्धनून्नतः । दशवत्सरलक्षायुर्भुव्यभूदुग्रशासनः ॥ ७३ ॥ अपाम्भरतवर्षाधु साधयित्वैकलीलया । प्रतिविष्णुः सोऽर्धचक्री पञ्चमः समजायत ॥ ७४ ।।
इतश्चात्रैव भरते नगरेऽश्चपुराभिधे । शिवो नामाभवद् राजा शिवानामेकमास्पदम् ॥ ७५ ॥ तस्याभूतामु पत्न्यौभे नामतो विजयारमके । नितान्तं वल्लभे मूर्तिमत्यौ कीर्तिश्रियाविव ॥ ७६ ॥ 20 पुरुषवृषभजीवः सहस्रारादथ च्युतः । चतुःस्वमाख्यातबलजन्माऽऽगाद् विजयोदरे ॥ ७७॥ पूर्णे काले च विजयास्वामिनी सुषुवे सुतम् । अवदातं वपुष्मन्तमिव पत्युर्यशश्चयम् ॥ ७८ ॥ उत्सवेन गरिष्ठेन शिवोऽथ दिवसे शुभे । सुदर्शनत्वात् तस्याख्यां सुदर्शन इति व्यधात् ॥ ७९ ॥ इतो विकटजीवोऽपीशानकल्पात् परिच्युतः । सप्तस्वमाख्यातविष्णुजन्मागादम्मकोदरे ॥ ८ ॥ अमूत समये साऽपि तनयं पूर्णलक्षणम् । इन्द्रनीलमणिनीलं नीलोत्पलमिवापगा ॥ ८१ ॥ एष सिंहः पुरुषेषु पौरुषेणातिशायिना । ततोऽस्य पुरुषसिंह इत्याख्यामकरोन्नृपः ॥ ८२ ॥ धात्रीजनाल्यमानौ क्रीडन्तौ तौ परस्परम् । नीलपीताम्बरौ तालतााडौ वृद्धिमीयतुः ॥ ८३ ॥ तौ साक्षिणमुपाध्यायं कृत्वा जगृहतुः कलाः । सावधानौ खंनिखातसंनिधाननिधानवत् ॥ ८४ ॥ अभूतां कवचहरौ भ्रातरौ तौ क्रमेण च । प्रतिमल्लाविव द्यावापृथिव्योश्च व्यराजताम् ॥ ८५ ॥ परस्परं स्नेहलो तावश्विनाविव सोदरौ । अत्यन्तभक्तौ च पितुर्व्यवर्तेतां पदातिवत् ॥ ८६ ॥ 30
अन्यदा कस्यचिद् दर्पभाजः पर्यन्तभूपतेः । साधनाय शिवः प्रैपीद् दिव्यास्त्रमिव सीरिणम् ॥ ८७॥ १ लवलीपुष्पाणां लगने छेदने व्याकुला उद्यानपालबाला यस्मिंस्तत् । २ मुचुकुन्दपुष्पाणां मकरन्दस्य जलबिन्दुभिराई भूतलं यस्य तत् । ३ उत्फुल्ला मरुचकवृक्षा यस्मिंस्तत् । ४ तन्नाम्नि नगरे। * °सारे ता संबृ०॥ ५ तत्त्ववेत्ता । + "तेच काले वि. संबृ०॥ ६ द्विसागरोपमायुः। ७ कल्याणानाम् । ८ चतुर्भिः स्वग्नराख्यातं बलभद्रस्य जन्म येन सः । ९ निर्मलम् । महता। १० सुष्ठ दर्शनं यस्य तस्य भावस्तत्त्वं तस्मात् । °वोऽपि द्वितीयात् कल्पतश्युतः मु०॥११ नदी । अन्तौ च प सं.॥डो ताववर्धताम् । संवृ०॥१२ यथा स्वेन निखातं समीपस्थं निधानं गृह्णाति तद्वत्।
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थ वर्ष
स्नेहात् पुरुषसिंहोऽपि तं प्रयाणानि कानिचित् । अन्वगात् प्रेमबन्धो हि वज्रलेपानुहारकः ॥ ८८ ॥ कथञ्चिद् बलभद्रेण प्रत्यादिष्टोऽनुयानतः । तत्रैवास्थाद्धरिः कष्टं यूथभ्रष्ट इव द्विपः ॥ ८९ ॥ विनोदैर्विविधैस्तत्र दुःखं भ्रातृवियोगजम् । स यावत् क्षपयंस्तस्थौ तावदागात् पितुः पुमान् ॥ ९० ॥ तेनार्पितं पितुर्लेखं मूर्धन्याधत्त माधवः । शीघ्रमागच्छ वत्सेति तत्रैक्षिष्टाक्षराण्यपि ॥ ९१ ॥
संभ्रान्तस्तमित्यूचे कच्चित् कुशलमम्बैयोः । कुशलं तातपादानां शीघ्राह्वानं च किं मम १ ॥ ९२ ॥ पुरुषोऽप्यब्रवीदेवमङ्गे दाहज्वरो महान् । उत्पन्नोऽस्तीति देवस्त्वां समाह्वयति सत्वरम् ॥ ९३ ॥ पितुर्दाहज्वरोदन्ताघ्रातात् सप्तच्छदादिव । विधुरः प्रास्थित हरिर्दुःखं नातः परं सताम् ॥ ९४ ॥ पेदे च द्वितीयेऽ नगरीं स्वां जनार्दनः । तादृग्दुःखं हि जात्यानां दवाग्नीयेत वर्त्मनि ॥ ९५ ॥ योज्यमानैः खण्ड्यमानैः क्वथ्यमानैरनेकशः । वर्त्यमानैश्च विविधैरौपधैर्व्यग्रकिङ्करम् ।। ९६ ॥ रसवीर्यविपाकज्ञैरौषधानां बलाबलम् | विचारयद्भिश्चतुरैर्वैद्यवयैरधिष्ठितम् ॥ ९७ ॥ आत्मरक्षै रक्ष्यमाणतुमुलं करसंज्ञया । द्वाःस्थैर्भूसंज्ञया दूरे स्थाप्यमानं भिषग्जनम् ॥ ९८ ॥ ज्वरार्तेनाश्रितं पित्रा प्रविश्य सदनं हरिः । आहरन्निव तद्दुःखमभृत् तद्दुःखदुःखितः ॥ ९९ ॥ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ प्राणमच्च पितुः पादौ पाणिभ्यां संस्पृशन् हरिः । बाष्पायमाणैर्नयनैः स्त्रपयन्निव भक्तितः ॥ १०० ॥ शिवः सुतकरस्पर्शाद् बाढमाश्वसिति स्म च । इष्टस्य दर्शनेनापि शं स्यात् स्पर्शेन किं पुनः १ ॥ १०१ ॥ भूयो भूयोऽपि शिवराट् संस्पृशन् पाणिना सुतम् । रोमाञ्च मधिकं दधे शैत्यमासादयन्निव ।। १०२ ॥ शिवराजोऽप्युवाचैवं कथं क्षामतरोदरः । शुष्काधरदलच त्वमुपदावमिव द्रुमः ॥ १०३ ॥
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अथ विष्णोः पुमानूचे देव ! देवस्य दारुणाम् । श्रुत्वा दशामिमां सद्यस्त्वां द्रष्टुमचद्धरिः ॥ १०४ ॥ द्वाभ्यां दिनाभ्यां चात्रागाद भुञ्जानोऽपिवन् पयः । त्वत्पादान् संस्मरन् भक्त्या स्मृतविन्ध्य इव द्विपः ॥ १०५ आकर्ण्य तच्च द्विगुणं दुःखभागादिशच्छिवः । गण्डे पिकवच्चक्रे किमनर्थान्तरं त्वया । ॥ १०६ ॥ गत्वा सपरिवारोऽपि भोजनावसरं कुरु । सर्वार्थसाधकः कायश्चलत्येष हि भोजनात् ॥ १०७ ॥ एवं पित्रा समादिष्टो भूयो भूयोऽपि साग्रहम् । सदुःखो बुभुजे किञ्चिद् विष्णुः समददन्तिवत् ॥ १०८ ॥ श्रीखण्डमप्यनादायावसानश्वान्यवाससी । नाटयन्नतिदुःखेनावत ते नकुलस्थितम् ॥ १०९ ॥ भुक्तमात्रो निजावासात् पादचारी जनार्दनः । पितुर्जगाम सदनं दीनाशेषपरिच्छदः ॥ ११० ॥ युग्मम् ॥ तत्र च प्रविशन् विष्णुर्जननी द्वाःस्थयैकया । अग्रेभूत्वा सकरुणं व्यज्ञपीदमुदैश्रिया ॥ १११ ॥ कुमार ! परित्रायस्व परित्रायस्व नन्वसौ । जीवत्यपि महाराजे देवीदं दुर्व्यवस्यति ॥ ११२ ॥ तदाकर्ण्य वचो विष्णुः संभ्रान्तो मातुरालयम् । जगाम वीक्षाञ्चक्रे च मातरं ब्रुवतीमिति ॥ ११३ ॥ पतिप्रसादादुद्भूता ये प्राज्या रत्नराशयः । अनन्तं काञ्चनं यच्च ये वा रजतसंचयाः ॥ ११४ ॥ मुक्तामया वज्रमया जात्यरत्नमयाच ये । संमिश्रा ये च नेपथ्यसमुद्रदायाः सहस्रशः ।। ११५ ।। यच्चान्यत् कोशसर्वस्वं सप्तक्षेत्र्यां तदर्प्यताम् । महापथप्रस्थितानां पाथेयं हीदमादिमम् ॥ ११६ ॥ एत्युर्विपत्तौ वैधव्यसहाऽस्मि न मनागपि । अहं तदग्रे यास्यामीत्यनलः सज्यतां द्रुतम् ॥ ११७ ॥
१ वज्रलेपसदृशः । २ निषिद्धः । ३ मात्रोः । ४ कुलीनानाम् । * 'मानभि° का० । 'मानान्तिषजनम् । सं० ॥ + का आदर्श नास्ति पदद्वयम् । ५ सुखम् । ६ अतिशयेन कृशमुदरं यस्य सः । ७ दावानलसमीपे । 1 भागदि' सं० ॥ ८ स्फोटकस्योपरि स्फोटकवत् । ६ पिक इव चक्रे सं० ॥ ॥ पणुः सगद्गदं वदन् । सं० ॥ ९ मदसहितो गजो यथा सदुःखं स्वल्पं भुङ्क्ते तद्वत् । १० चन्दनम् । ११ अवत स्थाने नकुलस्थितित्रत् । ** दया । व्यवतीत्यर्थः । १३ मरणे ।
संवृ० का० ॥
१२ अयोग्यं
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पञ्चमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
३७९ इति ब्रुवाणां जननी जननी दुःखसंपदः । उपेत्य नत्वा च हरिया॑हरद् गद्गदाङ्करम् ॥ ११८॥ मातर्मातस्त्वमपि मां मन्दभाग्यं किमुज्झसि । अहो ! विरुद्धं मे दैवं देव्यैवं यत् प्रचक्रमे ॥ ११९ ॥ अम्मादेव्यप्युवाचैवं तज्ज्ञैः सम्यक् परीक्षितः । त्वत्तातस्योपस्थितोऽयं रोगः प्राणहरो हरे! ॥१२०॥ नालं क्षणमपि श्रोतुं विधवेत्यक्षराण्यहम् । कौसुम्भधारिणी यास्याम्यग्रतस्त्वत्पितुस्ततः ॥ १२१ ॥ कृतार्थ मेऽभवजन्म पत्या शिवमहीभुजा । पुत्र ! त्वया च पुत्रेण पञ्चमेनार्धचक्रिणा ॥ १२२॥ 5 पत्युर्विपत्तौ यास्यन्ति मत्प्राणाः स्वयमेव हि । त्यक्ष्यामि तान् प्रविश्यानौ मा भून्मे हीनसत्त्वता ॥१२३॥ तत्क्षत्रियकुलाचारमाचरन्त्या ममाधुना । मा स भूरन्तरायस्त्वं वत्स! वात्सल्यतोऽपि हि ॥ १२४ ॥ समं सुदर्शनेन त्वं पुत्र ! नन्द मंमाशिषा । पत्युरग्रे प्रयाम्येषा कृष्णवत्मैकवर्मना ॥ १२५ ॥ अन्तिमा प्रार्थनां तेऽद्य कुमारैनां करोम्यहम् । निषेधकं विधेरैस्य त्वया वाच्यं न किश्चन ॥ १२६ ॥ एवमुक्त्वा तु सा स्वामिविपच्छ्रवणकातरा । परलोकपुरद्वारं प्रवेष्टमनलं ययौ ॥ १२७॥ 10 दुःखानुवन्धिभिर्दुःखैः श्लथाङ्गो वीवधैरिव । समेऽपि प्रस्खलत्पादः पितुः पार्श्व ययौ हरिः॥१२८ ॥ स्मरन् खां मातरं पश्यंस्तथा पितरमातुरम् । प्रतीकारासहो विष्णुः क्लीबमान्यपतद् भुवि ॥ १२९ ॥ राजा दाहज्वरार्तोऽपि बभाषे धैर्यमाश्रयन् । किमेतद् वत्स! कातयं स्वकुलानुचितं तव ॥ १३० ॥ इयं हि त्वद्भुजाधारा वत्स ! देवी वसुंधरा । अधैर्यानिपतनस्यां कथं नाम न लजसे ॥ १३१ ॥ त्वय्युच्चैः पुरुषसिंह इत्याख्याकारिणो मम । अज्ञानकारितां मा दास्त्वमेवं धैर्यमुत्सृजन् ॥ १३२ ॥ 15 एवं शाङ्गिणमाश्वास्य शिवराजः शिवाशयः। कालधर्म ययौ सायं कः कालं जेतुमीश्वरः ॥१३३ ॥ श्रुत्वा च मूञ्छितो विष्णुः पपात धरणीतले । महाद्रुमो वात्ययेव वातेनेव च वातकी ॥ १३४॥ अथ सिक्तः पयस्कुम्भैलब्धसंज्ञो जनार्दनः। हा तात! तात! तातेति क्रन्दबुत्तिष्ठति स्म च ॥ १३५॥ न किं संतप्यते तेऽङ्गं गुणः कस्यौषधस्य वा । प्रत्ययः कस्य वैद्यस्य सुख निद्राऽथवाऽद्य किम् ॥१३६॥ हि तात! प्रसादं मे कृत्वेति स्नेहमोहितः । प्रललाप क्षणं विष्णुर्विललाप च तत्क्षणम् ॥ १३७ ॥ 20 शाभृिद् धैर्यमादाय गोत्रवृद्धैः प्रबोधितः । अग्नौ पित्रङ्गसंस्कारं चकारागुरुचन्दनैः ॥ १३८ ॥ विधाय च निवापादि स्वपर्षदि निषद्य च । बलाय प्राहिणोल्लेखं पितृव्यापत्तिसूचकम् ॥ १३९ ॥ तं प्रान्तभूपतिं दृप्तं साधयित्वा बलोऽपि हि । दुःखार्तस्तेन लेखेन त्वरमाणः समाययौ ॥१४०॥ अन्योऽन्यकण्ठलग्नौ तौ मुक्तकण्ठप्ररोदिनौ । बलदेव-वासुदेवो रोदयामासतुः सभाम् ॥ १४१॥ बोध्यमानावाप्तजनैः कथञ्चिद् धैर्यमापतुः । जहतुश्च पितुः स्नेहं मन्दं मन्दमुभावपि ॥ १४२॥ 25 तिष्ठन्तौ विचरन्तौ च जल्पन्तौ मौनसंस्थितौ । दृशोरिवाने पितरं तौ ध्येयवदपश्यताम् ॥ १४३ ॥
तावेवं यावदासाते पितृशोकसमाकुलौ । तावदागात् तत्र दूतो निशुम्भस्यार्धचक्रिणः ॥१४४ ॥ द्वाःस्थेन कथितः पूर्व प्रविश्य च तदाज्ञया । बलदेव-वासुदेवौ स नत्वैवमभाषत ॥ १४५॥ श्रुत्वा लोकाच्छिवराजं धर्मराजपथस्थितम् । दधार शोकमस्तोकं निशुम्भः सुप्रभुः स वः ॥ १४६ ॥ युष्मपितुः सरन् भक्ति स कृतज्ञशिरोमणिः । युष्मत्पार्श्वे प्राहिणोन्मामुपदिश्येति बाँचिकम् ॥१४७ ॥ 30 अद्यापि हि युवां बालौ द्विषां परिभवास्पदम् । पदं च युवयोः पित्र्यं महदेतन्मयाऽर्पितम् ॥ १४८ ॥ कुमारौ मामुपेत्येह तिष्ठतं निरुपद्रवौं । नदीमध्यस्थितानां हि किं करोति दवानलः ॥ १४९॥
१ जनयित्रीम् । * °क्षरः। संबृ० का०। २ वैद्यैरित्यर्थः। जमदाशि। मु०॥ ३ कृष्णवर्मा वहिः । ४ मरणस्य । ५ भारैः। ६ समप्रदेशेऽपि । ७ रोगपीडितम् । ८ रोगोपायासमर्थः । ९ भीरुत्वम् । °लं यातु मु.॥ १० झन्झावातेनेव । ११ वातरोगी पुमान् । दुःखितस्ते मु०॥ १२ उचैःवरम् । मौनिनावपि का०॥ १३ यमराजमार्गस्थितं सुतमित्यर्थः। १४ संदेशम् ।
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३८० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[चतुर्थ पर्व लघीयांसौ गरीयांसौ विधातव्यौ मया युवाम् । चिरं कृताया वां पित्रा भक्तरानृण्यमिच्छता ॥१५०॥ इत्युक्तयोस्तयोः क्रोधोऽभूच्छोकश्च न्यवर्तत । रसान्तरेण हि रसो वाध्यते बलवानपि ॥ १५१ ॥ ध्रुवमुन्नमयन्नेकां किश्चित् साचीकृतालिकः । अथावभाषे पुरुषसिंहः सिंह इव क्रुधा ॥ १५२ ॥
इक्ष्वाकुकुलचन्द्रस्य तस्य विश्वोपकारिणः । अस्मत्पितुरस्तमये कस्कोऽभून्न शुचां पदम् ? ॥ १५३ ॥ 5 राजानोऽन्येऽपि शुशुचुर्निशुम्भोऽपि शुशोच यत् । तेन पैशून्यमस्य स्याद् दद्याचेन्नेति वाचिकम् ॥ १५४॥
बालकस्यापि सिंहस्य को हि देशं प्रयच्छति । प्रवर्धयति तं को वा कुतस्तस्य पराभवः ॥ १५५ ॥ इदानीमावयोरेवं स जल्पन किं न लञ्जते । आप्तत्वव्याजतोऽस्माकं न्यकारी स द्विषन् खलु ॥ १५६ ।। सोऽस्तु मित्रममित्रो वोदासीनो वा तव प्रभुः । निरपेक्षा वयं तस्य दोरपेक्षैव दोष्मताम् ॥ १५७ ॥
दूतोऽप्यूचे पितृतुल्यममित्रीकुर्वतोऽद्य तम् । सुव्यक्तं बालकत्वं ते शैवे! शिवमनिच्छतः॥ १५८ ॥ 10 त्वमद्याप्यनभिज्ञोऽसि राजनीतेः कुमारक ! । उत्पादयस्यरिं तत् तं कुक्षिमामृज्य शूलवत् ॥ १५९ ॥
त्वदुक्तं स्वामिने नैतद् वक्ष्ये तत् कुरु मद्वचः । त्वत्प्रसादात् क्षेममस्तु चिरं ते सह बन्धुना ॥ १६० ।। अन्यथा तु द्विषन् भावी स एव न चिरात् तव । तस्मिन् रुष्टे तान्ते च जीवितस्यापि संशयः॥१६१॥ एवं तदुक्त्याऽभ्यधिकमुद्यत्क्रोधोऽभ्यधाद्धरिः । त्वमेव दूत ! दूतोऽसि निरपेक्षः स्वजीविते ॥ १६२ ॥
दूतानां वाक्प्रपञ्चैकच्छेकानां त्वादृशां गिरा । निर्विषः फेटयेवाहिः से भेषयति पार्थिवान् ॥ १६३॥ 15 गच्छ माऽसद्वचो गोप्यं शंस खस्वामिनेऽखिलम् । शत्रुर्भावीति सोऽस्माभिर्वध्यंकोटौ कृतोऽस्त्यलम्॥१६४॥
एवमुक्तः ससंरम्भमुत्थाय रभसेन सः । दूतो गत्वा निशुम्भाय सर्वमाख्यद् यथातथम् ॥ १६५ ॥ तदाकर्ण्य वचः क्रुद्धो निशुम्भोऽरिनिशुम्भनः । सेनाभिश्छादयन्नुर्वी प्रतस्थेऽश्वपुरं प्रति ॥ १६६ ॥ निशुम्भं प्रस्थितं श्रुत्वा विष्णुनाऽप्यरिजिष्णुना । सद्यः सर्वाभिसारेण प्रतस्थे साग्रजन्मना ।। १६७॥
निशुम्भ-पुरुषसिंहौ मिथः प्रमथनोद्यतौ । संगच्छेते स्मार्धमार्गे मत्ताविव वनद्विपौ ॥ १६८॥ 20 युध्यन्ते स द्वयोः सैन्याः क्षोभयन्तोऽपि रोदसी । क्ष्वेडी-कार्मुकटङ्कार-करास्फालनशब्दितैः ॥ १६९ ॥
अजनिष्ट क्षणेनापि क्षयकाल इव क्षयः । अक्षौहिण्योरुभयोरप्यात्मरक्षानपेक्षयोः ॥ १७० ॥ अन्वीयमानो हलिना पवनेनेव पावकः । पाञ्चजन्यमपूरिष्ट शार्ङ्गधन्वा रथस्थितः ॥ १७१ ॥ महता तन्निनादेन परसैन्यानि सर्वतः । पतन्कुलिशनिर्दोषेणेव घोरेण चुक्षुभुः ॥ १७२ ॥
तिष्ठ तिष्ठ अँटम्मन्येत्युच्चकैराक्षिपन्नथ । रथी प्रतिहरियोद्धमुपतस्थे हरिं प्रति ॥ १७३ ॥ 25 आस्फालयामासतुस्तौ हरि-प्रतिहरी धनुः । कोपानमन्निजनिजभ्रकुटीभङ्गभीषणम् ॥ १७४ ॥
अवर्षतामुभौ बाणैर्धारासारिवाम्बुदौ । सिंहनादेवासयन्तौ मृगीरिव नभश्चरीः ॥ १७५ ॥ निरन्तरं निपतितैर्विशिर्खप्रकरैस्तयोः । वभार रणभूर्वेत्रच्छन्नवारिधिविभ्रमम् ॥ १७६ ॥ करमुक्तैर्यत्रमुक्तैर्मुक्तामुक्तैरथापरैः । आयुधैर्युयुधाते तो युद्धाम्भोधितिमिङ्गिलौ ॥ १७७ ॥
बलज्वालालिजिह्वालं करालं तीक्ष्णधारया । वज्रीव वज्रं समार निशुम्भश्चक्रमुच्चकैः ॥ १७८ ॥ 30 स्मृतमात्रोपस्थितं तदङ्गल्या भ्रमयन् दिवि । साँवष्टम्भोऽभ्यधत्तैवं निशुम्भः क्षोभणं वचः ॥१७९ ।।
* कोपोऽभू° संवृ० का ॥ १ वक्रीकृतभालः। स्तिसम' संवृ. ॥ २ यदि स ईशं वाचिकं न दद्यात् ती स्य शुचो ज्ञापकं स्यात् तत्तु नास्तीति भावः । ति । तं प्रवर्धयते को हि कु । संबृ०॥ ३ तिरस्कर्ता । ४ भुजापेक्षा। ५ हे शिवपुत्र!। °क! तेनोत्पादयसेऽरिं तं संबृ०॥ ६ मद्वचनानुसरणरूपात् त्वत्प्रसादादित्यर्थः । ७ यमरूपे । ८ छेकश्चतुरः। ९ फणया। स हि भेषयते नृपान् । संवृ०॥ १० वध्यगणनायाम् । ११क्ष्वेडा सिंहशब्दः। १२ अग्निः । ११ कुलिशं वज्रम् । १४ आरमानं भटं मन्यमानः। १५ विद्याधरीः। १६ बाणसमूहैः। १७ युद्धमेव समुद्रस्तसिस्तिमिनिलो मत्स्य विशेषौ। १८ सगर्वः ।
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पञ्चमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
३८१ अनुकम्प्योऽसि बालोऽसि का लज्जा तेऽपसर्पतः। तद्गच्छ मां वा सेवस्व किं ते श्वाऽपि न मन्त्रकृत् ? ॥१८०॥ चक्रेणानेन मुक्तेन दारयामि गिरीनपि । तवाभिनवकूष्माण्डकोमलस्य तु का कथा ? ॥ १८१ ॥ ऊचे पुरुषसिंहोऽथ तवेत्यूर्जितगर्जितम् । ओजश्चक्रस्य च प्रेक्ष्यमन्यास्त्रैः किं कृतं त्वया ? ॥ १८२ ॥ शैक्रधन्वेव मेघेन त्वया चक्रमिदं धृतम् । किं मे करिष्यते मूढ ! मुश्च पश्याम्यमोघताम् ॥ १८३ ॥ एवं पुरुषसिंहेन भाषितः परुषाक्षरम् । सर्वोजसाऽमुचच्चक्रं निशुम्भो निशुशुम्भिषुः ॥ १८४ ॥ 5 हरेरुरसि तुम्बाग्रभागेनास्फाल्य तद्रयात् । मोघीबभूव विन्ध्याद्रेस्तट्यामिव महागजः ॥ १८५॥ मूर्च्छया पुण्डरीकाक्षो मुकुलाक्षोऽपतत् ततः । मुंशलास्त्रेण सिषिचे चाथ गोशीर्षचन्दनैः ॥ १८६ ॥ उत्थाय लब्धसंज्ञस्तच्चक्रमादाय पाणिना । मा तिष्ठ गच्छ गच्छेति निशुम्भं प्रत्यभाषत ॥ १८७ ॥ मुश्च मुश्चेति वदतो निशुम्भस्य शिरस्ततः । चकर्त तेन चक्रेणार्धचक्री सोऽथ पञ्चमः ॥ १८८॥ पुष्पवृष्टिहरेर्मूर्ध्नि मूर्धन्यस्य तरविनाम् । पपात गगनात् सद्यो जयश्रीहाससन्निभा ॥ १८९॥ 10 तयैव यात्रया विष्णुर्भरतार्धमसाधयत् । सहस्रधा हि फलति व्यवसायो महात्मनाम् ॥ १९०॥ दिग्यात्राया निवृत्तोऽथ मगधेष्वागतो हरिः । दोष्णोद्दधे कोटिशिलां मृत्पात्रमिव लीलया ॥ १९१ ॥ मेदिनीं छादयन्नश्वैर्ययावश्वपुरं हरिः । विवेशितः पुरस्त्रीभिः कल्पितार्थः पदे पदे ॥ १९२ ॥ तत्र लाङ्गलिनाऽन्यैश्च राजभिभक्तिराजिभिः । अर्धचक्रधरत्वाभिपेकोऽक्रियत शाङ्गिणः ॥ १९३ ॥ ___ इतश्च भगवान् धर्मश्छद्मस्थो वत्सरद्वयम् । विहत्याभ्यागमद् दीक्षोपवनं वप्रकाञ्चनम् ॥ १९४ ॥ 15 दधिपर्णतले तत्र ध्यानान्तरंजुषः प्रभोः। पुष्ये मे पौषराकायां पष्ठेनाजनि केवलम् ॥ १९५ ॥ दिव्ये समवसरणे देशनां विदधे विभुः । अरिष्टादीन् गणभृतस्त्रिचत्वारिंशतं तथा ॥ १९६ ॥ तत्तीर्थभूः किंनराख्यख्यास्यः कूर्मरथोऽरुणः । दक्षिणैस्तु मातुलिङ्गिंगदाभृदभयप्रदैः ॥ १९७ ॥ वामैस्तु नकुलपद्माक्षमालामालिभिर्भुजैः । भ्राजिष्णुर्धर्मनाथस्य जज्ञे शासनदेवता ॥ १९८ ॥ तथोत्पन्ना च कन्दर्पा गौराङ्गी मत्स्यवाहना । उत्पलाङ्कुशधारिभ्यां दक्षिणाभ्यां विराजिता ॥ १९९ ॥20 दोम्यां तदितराभ्यां च पद्मिनाऽभयदेन च । प्रभोः शासनदेव्यासीत् सदा सनिधिवर्तिनी ॥२०॥ सेव्यमानः सदा ताभ्यां विहरन्नवनीमिमाम् । अपरेधुरुपागच्छत् पुरमश्वपुरं प्रभुः ॥ २०१॥ सद्यः समवसरणं चक्रे शक्रादिभिः सुरैः । चत्वारिंशत्पश्चधन्वशतोच्चाशोकपादपम ॥२०२॥ तत्र प्रविश्य कृत्वा च चैत्यवृक्षप्रदक्षिणाम् । नत्वा च तीर्थमध्यास्त पूर्वसिंहासनं प्रभुः ॥ २०३॥ रत्नसिंहासनस्थानि प्रतिबिम्बान्यथ प्रभोः। ताशि व्यन्तराश्चक्रुस्तिसृष्वन्यासु दिक्ष्वपि ॥ २०४॥ 25 यथास्थानं प्रविश्यास्थात् संघोऽपि स्वामिपर्षदि । तिर्यश्चो मध्यवग्रेऽस्थुस्तृतीये वाहनानि तु ॥ २०५॥ उपेत्य शीघ्रं पुरुषसिंहायोयुक्तपूरुषाः । स्वामिनं समवसृतमाख्यन्नुत्फुल्लचक्षुषः ॥ २०६॥ तेभ्यो द्वादश रुप्यस्य कोटीः सार्धा वितीर्य सः। आगात समवसरणं सुदर्शनसमन्वितः ॥ २०७॥ प्रभुं प्रदक्षिणीकृत्य नमस्कृत्य च भक्तितः । साग्रजोऽनुसहस्राक्षमुपाविक्षधोक्षजः ॥ २०८ ॥ भूयोऽपि स्वामिनं नत्वा शक्रशाङ्गिसुदर्शनाः । स्वामिभक्तायसंतुष्टा इति तुष्टुवुरुन्मुदः ॥ २०९॥ विजयस्व जंगच्चक्षुश्चकोरानन्दचन्द्रमः! । मिथ्यात्वध्धान्तमार्तण्ड ! धर्मनाथ! जगत्पते ! ॥ २१ ॥
१ श्वाऽपि तव विचारदाता किं नास्ति । * °गर्वितम् । ओ० संवृ०॥ २ इन्द्रचापः। ३ हन्तुमिच्छुः । ४ विफलीबभूव ५ मुशलमत्रं यस्य तेन बलदेवेन । ६ बलवताम् । ७ मृत्तिकापात्रम् । । 'रमुपेयुकः । पु० संवृ०॥ ८ त्रिमुखः। रूयाक्षः कृ संयु.॥लिङ्गग संवृ०॥९ सेवकाः । १० विष्णुः। ११ सइर्षाः । १२ जगतां चक्षुरेव चकोरस्तस्यानन्दे चन्द्रसमः ।
त्रिषष्टि, ४९
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३८२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थं पर्व चिरं व्यहाश्छिद्मस्थो गतछद्मा तथाऽप्यसि । अनन्तदर्शनोऽपि त्वं दर्शनान्तरबाधकः ॥ २११॥ त्वद्देशनापयःपूरैः परितः प्लावितात्मनाम् । अह्नाय कर्ममालिन्यमपयाति शरीरिणाम् ॥ २१२॥ तथा न मेघच्छायासु तरुच्छायासु नापि वा । यथा शाम्यति संतापः पादमूले तव प्रभो ! ॥ २१३ ॥ इह त्वदर्शनालोकनिस्सन्दवपुषः प्रभो!। पाञ्चालिकावदुत्कीर्णा इव भान्ति शरीरिणः ॥ २१४ ॥ पृथग्विरुद्धमप्येतदेकत्र मिलितं चिरात् । त्वत्प्रभावाजगद्धन्धो ! बन्धूभूतं जगत्रयम् ॥ २१५ ॥ त्रिखण्डभरतक्षेत्रमूलायतनदैवत ! । अनन्यशरणानस्मांस्त्रायस्व परमेश्वर! ॥ २१६ ॥ भूयो भूयो जगन्नाथ ! त्वामदः प्रार्थयामहे । त्वत्पादपङ्कजद्वन्द्वेऽस्मन्मनो भ्रमरायताम् ॥ २१७ ॥ एवं स्तुत्वा विरतेषु शक्र केशव-सीरिषु । विदधे भगवान् धर्मस्वाम्येवं धर्मदेशनाम् ॥ २१८॥
__ चतुर्वर्गेऽग्रणीर्मोक्षो योगस्तस्य च कारणम् । ज्ञान-श्रद्धान-चारित्ररूपं रत्नत्रयं च सः ॥२१९॥ 10 तत्त्वानुगा मतिर्ज्ञानं सम्यक्श्रद्धा तु दर्शनम् । सर्वसावद्ययोगानां त्यागश्चारित्रमिष्यते ॥ २२० ॥
आत्मैव दर्शन-ज्ञान-चारित्राण्यथवा यतेः । यत् तदात्मक एवैष शरीरमधितिष्ठति ॥ २२१॥ आत्मानमात्मना वेत्ति मोहत्यागाद् य आत्मनि । तदेव तस्य चारित्रं तज्ज्ञानं तच्च दर्शनम् ॥ २२२ ॥ आमाऽज्ञानभवं दःखमात्मज्ञानेन हन्यते । तपसाऽप्यात्मविज्ञानहीनैइछेत्तं न शक्यते ॥ २२३
अयमात्मैव चिद्रूपः शरीरी कर्मयोगतः । ध्यानाग्निदग्धकर्मा तु सिद्धात्मा स्यान्निरञ्जनः॥ २२४ ॥ 15 अयमात्मैव संसारः कषायेन्द्रियनिर्जितः । तमेव तद्विजेतारं मोक्षमाहुर्मनीषिणः ॥ २२५ ॥
स्युः कषायाः क्रोध-मान-माया-लोभाः शरीरिणाम् । चतुर्विधास्ते प्रत्येकं भेदैः संज्वलनादिभिः ॥२२६॥ पक्षं संज्वलनः प्रत्याख्यानो मासचतुष्टयम् । अप्रत्याख्यानको वर्ष जन्मानन्तानुबन्धकः ॥ २२७ ॥ वीतराग-यति-श्राद्ध-सम्यग्दृष्टित्वघातकाः । ते देवत्व-मनुष्यत्व-तिर्यक्त्व-नरकप्रदाः ॥२२८॥
तत्रोपतापकः क्रोधः क्रोधो वैरस्य कारणम् । दुर्गतेर्वर्तनी" क्रोधः क्रोधः शमसुखार्गला ॥ २२९ ॥ 20 उत्पद्यमानः प्रथमं दहत्येव स्वमाश्रयम् । क्रोधः कुंशानुवत् पश्चादन्यं दहति वा न वा ॥ २३०॥
अर्जितं पूर्वकोट्या यद्वपैरष्टभिरूनया । तपस्तत्तत्क्षणादेव दहति क्रोधपावकः ॥ २३१॥ शमरूपं पयः प्राज्यपुण्यसंभारसंचितम् । अमर्षविषसंपर्कादसेव्यं तत्क्षणाद् भवेत् ॥ २३२॥ चारित्रचित्ररचनां विचित्रगुणधारिणीम् । समुत्सर्पन क्रोधधूमो ध्यमलीकुरुतेतमाम् ॥ २३३ ॥
यो वैराग्यशमीपत्रपुटैः शमरसोऽर्जितः । शाकपत्रपुटाभेन क्रोधेनोत्सृज्यते स किम् ॥ २३४ ॥ 25 प्रवर्धमानः क्रोधोऽयं किमकार्यं करोति न । भाविनी द्वारका द्वैपायनक्रोधानले समित् ॥ २३५ ॥
क्रुध्यतः कार्यसिद्धिर्या न सा क्रोधनिबन्धना । जन्मान्तरार्जितोर्जस्विकर्मणः खलु तत् फलम् ॥ २३६ ॥ स्वस्य लोकद्वयोच्छित्त्यै नाशाय स्व-परार्थयोः । धिगहो ! दधति क्रोधं शरीरेषु शरीरिणः ॥ २३७ ॥ क्रोधान्धाः पश्य नियन्ति पितरं मातरं गुरुम् । सुहृदं सोदरं दारानात्मानमपि निघृणाः ॥ २३८ ॥
क्रोधवश्रेस्तदह्नाय शमनाय शुभात्मभिः । श्रयणीया क्षमेकैव संयमारामसारणिः ॥ २३९ ॥ 30 अपकारिजने कोपो निरोढुं शक्यते कथम् । शक्यते सत्त्वमाहात्म्याद् यद्वा भावनयाऽनया ॥ २४० ॥
अङ्गीकृत्यात्मनः पापं यो मां बाधितुमिच्छति । खकर्मनिहतायास्मै कः कुप्येत् बालिशोऽपि सन् ॥२४॥
गतं छद्म कपटं यस्य सः। २ शीघ्रम् । ३ मोक्षस्य । ४ योगः। * ज्ञानं तत्वावबोधः स्यात् स० संवृ० ॥ ५ यत् यस्मात् कारणात् दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक एवैष आत्मा ॥ ६ आत्मनोऽज्ञानभवम् । ७ कषायेन्द्रियजेतारं तमात्मानमेव मोक्षमाहुः । / जन्मपर्यन्तम् । ९ संज्वलनो वीतरागत्वधातकः प्रत्याख्यानश्च यतित्वघातक इत्याद्यनुक्रमेण । १० संज्वलनो देवस्वप्रद इत्यादि । ११ मार्गः। १२ अग्निवत् । १३ अमर्षः क्रोधः स एव विषं तस्य संबन्धात्। १४ अतिशयेन मलिनीकुरुते। १५ काष्ठरूपा भविष्यति। १६ निबन्धनं कारणम् । १७ निर्दयाः। १८ संयम एवारामस्तस्य सारणिः कुल्या। १९ स्वेनैव कर्मणा निहताय । २० मूर्योऽपि ।
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पचमः सर्गः ]
त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित महाकाव्यम् ।
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प्रकुप्याम्यपकारिभ्य इति चेदाशयस्तव । तत् किं न कुप्यसि स्वस्य कर्मणे दुःखहेतवे ॥ २४२ ॥ उपेक्ष्य लोष्टक्षेप्तारं लोष्टं दशति मंण्डलः । मृगारिः शरमुत्प्रेक्ष्य शरक्षेतारमृच्छति ॥ २४३ ॥ यैः परः प्रेरितः क्रूरैर्मह्यं कुप्यति कर्मभिः । तान्युपेक्ष्य परे क्रुध्यन किं श्रये पणश्रियम् ॥ २४४ ॥ भावी महावीरः क्षान्त्यै म्लेच्छेषु यास्यति । अयत्नेनागतां क्षान्ति वोढुं किमिव नेच्छसि ।। २४५ ॥ त्रैलोक्यप्रलयत्राणक्षमाश्चैदाश्रिताः क्षमाम् । कदलीतुल्यसत्त्वस्य क्षमा तव न किं क्षमा ॥ २४६ ॥ तथा किं नाकृथाः पुण्यं यथा कोऽपि न बाधते । स्वप्रमादमिदानीं तु शोचनङ्गीकुरु क्षमाम् ॥ २४७ ॥ क्रोधान्धस्य मुनेश्वण्डचण्डालस्य च नान्तरम् । तस्मात् क्रोधं परित्यज्य भजोज्वलधियां पदम् ।। २४८ ॥ महर्षिः क्रोधसंयुक्तः निःक्रोधः कूरगडुकः । ऋषिं मुक्त्वा देवताभिः स्तोप्यते क्रूरगड्डुकः ।। २४९ ।। अरुन्तुदैर्वचः शस्त्रैस्तुद्यमानो विचिन्तयेत् । चेत् तथ्यमेतत् कः कोपोऽथ मिथ्योन्मत्तभाषितम् ॥ २५० ॥ वधायोपस्थितेऽन्यस्मिन् हसेद् विस्मितमानसः । बधे मत्कर्मसंसाध्ये वृथा नृत्यति बालिशः ।। २५१ ।। 10 निहन्तुमुद्यते ध्यायेदायुषः क्षय एष नः । तदसौ निर्भयः पापात् करोति मृतमारणम् ।। २५२ ॥ सर्वपुरुषार्थचौरे कोपः कोपे न चेत् तव । धिक् त्वां स्वल्पापराधेऽपि परे कोपपरायणम् ॥ २५३ ॥ सर्वेन्द्रियग्लानिकरं प्रसर्पन्तं ततः सुधीः । क्षमया जाङ्गुलिकया जयेत् कोपमहोरगम् ।। २५४ ।। विनयश्रुतशीलानां त्रिवर्गस्य च घातकः । विवेकलोचनं लुम्पन्मानोऽन्थंकरणो नृणाम् ।। २५५ ।। जाति-लाभ - कुलैश्वर्य-चल-रूप- तपः श्रुतैः । कुर्वन् मदं पुनस्तानि हीनानि लभते जनः ॥ २५६ ॥ जातिभेदान्नैकविधानुत्तमाधममध्यमान् । दृष्ट्वा को नाम कुर्वीत जातु जातिमदं सुधीः ।। २५७ ॥ उत्तमां जातिमाप्नोति हीनामाप्नोति कर्मतः । तत्राशाश्वतिकीं जाति को नामासाद्य माद्यतु ।। २५८ ।। अन्तरायक्षयादेव लाभो भवति नान्यथा । ततश्च वस्तुतत्त्वज्ञो नो लाभमदमुद्वहेत् ॥ २५९ ॥
प्रसादशक्त्यादिभवे लाभे महत्यपि । न लाभमदमृच्छन्ति महात्मानः कथञ्चन ॥ २६० ॥ अकुलीनानपि प्रेक्ष्य प्रज्ञा श्री शीलशालिनः । न कर्तव्यः कुलमदो महाकुलभवैरपि ।। २६१ ।। किं कुलेन कुशीलस्य सुशीलस्यापि तेनैं किम् । एवं विदन् कुलमदं विदध्यान विचक्षणः ।। २६२ ।। श्रुत्वा त्रिभुवनैश्वर्यसंपदं वज्रधारिणः । पुर ग्राम धनादीनामैश्वर्ये कीदृशो मदः || २६३॥ गुणादपि श्येद् दोपवन्तमपि श्रयेत् । कुशीलस्त्रीवदैश्वर्यं न मदाय विवेकिनाम् ॥ २६४ ॥ महाबलोsपि रोगाद्यैरबलः क्रियते क्षणात् । इत्यनित्यबले पुंसां युक्तो बलमदो न हि ।। २६५ ।। बलवन्तोऽपि जैरसि मृत्यौ कर्मफलान्तरे । अबलाश्चेत् ततो हन्त । तेषां बलमदो मुधा ॥ २६६ ॥ सप्तधातुमये देहे चयापचयधर्मणः । जरा-रुजादिभावस्य को रूपस्य मदं वहेत् ॥ २६७ ॥ सनत्कुमारस्य रूपं भावि श्रुत्वा च तत्क्षयम् । को वा सकर्णः स्वप्नेऽपि कुर्याद् रूपमदं किल ! ॥ २६८ ॥ नभेयस्य तपोनिष्ठां श्रुत्वा वीरजिनस्य च । को नाम स्वल्पतपसि स्वकीये मदमाश्रयेत् ? ।। २६९ ॥ येनैव तपसा त्रुट्ये 'रसा कर्मसंचयः । तेनैव मंददिग्धेन वर्धते कर्मसंचयः ॥ २७० ॥ स्वबुद्ध्या रचितान्यन्यैः शास्त्राण्याघ्राय लीलया । सर्वज्ञोऽस्मीति मदवान् स्वकीयाङ्गानि खादति ।। २७१ ॥ 30 श्रीमद्गुणधरेन्द्राणां श्रुत्वा निर्माणधारणम् । कः श्रयेत श्रुतमदं सकर्णहृदयो जनः ॥ २७२ ॥ उत्सर्पयन् दोपशाखां गुणमूलान्यधो नयन् । उन्मूलनीयो मानदुस्तन्मार्दवसरित्प्लवैः ॥ २७३ ॥
१] श्वानः । २ शत्रुः । ३ भषणः श्वानः । * नेच्छति ॥ मु० ॥ ४ समर्था । ५ मर्मच्छिद्भिः । ६ सर्पापहारिण्या विद्यया । ७ भवान्तरे इत्यर्थः । जातिलाभमदं सु० [सं० ॥ ८ अनित्याम् । ९ परस्य राजादेः प्रसादः शक्तिः प्रभुत्वादिस्तदा देरुपये । १० कुलेन । ११ इन्द्रस्य । १२ नइयेत् । १३ कुलटास्त्रीवत् । १४ वृद्धत्वे । १५ आदिनाथस्य ऋषभस्य । १६ शीघ्रम् । १७ मदलितेन । १८ अन्यैराचार्यैः स्वयुद्ध्या लीलामात्रेण रचितानि शास्त्राण्याघ्राय किञ्चिज्ज्ञास्वेत्यर्थः । रणे । कः संवृ० ॥ १९ विस्तारयन् ।
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३८४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीत
[चतुर्थ पर्व मार्दवं नाम मृदुता तच्चौद्धत्यनिषेधनम् । मानस्य पुनरौद्धत्यं स्वरूपमनुपाधिकम् ॥ २७४ ॥ अन्तः स्पृशेद् यत्र यत्रोद्धत्यं जात्यादिगोचरम् । तत्र तस्य प्रतीकारहेतोमार्दवमाश्रयेत् ॥ २७५ ॥ सर्वत्र मार्दवं कुर्यात् पूज्येषु तु विशेषतः । येन पापाद् विमुच्येत पूज्यपूजाव्यतिक्रमात् ॥ २७६ ।।
मानाद् बाहुबलिर्बद्धो लताभिरिव पाप्मभिः । मार्दवात् तत्क्षणं मुक्तः सद्यः संप्राप केवलम् ॥ २७७॥ 5 चक्रवर्ती त्यक्तसंगो वैरिणामपि वेश्मसु । भिक्षायै यात्यहो! मानच्छेदायोमृदुमार्दवम् ॥ २७८ ॥
चक्रवर्त्यपि तत्कालदीक्षितो रङ्कसाधवे । नमस्यति त्यक्तमानश्चिरं च वैरिवस्यति ॥ २७९ ॥ एवं च मानविषयं ज्ञात्वा दोषमशेषतः । अश्रान्तमाश्रयेद् धीमांस्तन्निरासाय मार्दवम् ॥ २८०॥ असूनृतस्य जननी परशुः शीलशाखिनः । जन्मभूमिरविद्यानां माया दुर्गतिकारणम् ॥ २८१ ॥ कौटिल्यपटवः पापा मायया वकवृत्तयः । भुवनं वञ्चयमाना वश्चयन्ते स्वमेव हि ॥ २८२ ॥ कूटपाङ्गुण्ययोगेन च्छलाद् विश्वस्तघातनात् । अर्थलोभाच्च राजानो वश्चयन्तेऽखिलं जगत् ॥ २८३ ॥ तिलकैर्मुद्रया मत्रैः क्षामतादर्शनेन च । अन्तःशून्या बहिःसारा वश्चर्यन्ति द्विजा जनम् ॥ २८४ ॥ कूटाः कूटतुलामानाऽऽशुक्रियासातियोगतः । वश्चयन्ते जनं मुग्धं मायाभाजो वणिग्जनाः ॥ २८५॥ जटा-मौञ्जी-शिखा-भस-वल्कलाग्यादिधारणैः । मुग्धं श्राद्धं गर्धयन्ते पाखण्डा हृदि नास्तिकाः ॥२८६॥
अरक्ताभिर्भाव-हाव-लीला-गतिविलोकनैः । कामिनो रञ्जयन्तीभिर्वेश्याभिर्वश्चयते जगत् ॥ २८७ ॥ 15 प्रतार्य कूटैः शपथैः कृत्वा कूटकपर्दिकाम् । धनवन्तः प्रतार्यन्ते दुरोदरपरायणैः ॥ २८८ ॥
दम्पती पितरः पुत्राः सोदाः सुहृदो निजाः । ईशाभृत्यास्तथाऽन्येऽपि भाययाऽन्योऽन्यवञ्चकाः॥२८९॥ अर्थलुब्धा गतघृणा बन्दिकारमलिम्लुचाः । अहर्निशं जागरूकाश्छलयन्ति प्रमादिनम् ॥ २९० ॥ कौरवश्चान्त्यजाश्चैव स्वकर्मफलजीविनः । माययाऽलीकशपथैः कुर्वते साधुवञ्चनम् ॥ २९१ ॥
व्यन्तरादिकुयोनिस्था दृष्ट्वा प्रायः प्रमादिनः । क्रूराश्छलैर्बहुविधैर्वाधन्ते मानवान् पशून् ॥ २९२ ॥ 20 मत्स्यादयो जलचराश्छलात् स्वापत्यभक्षकाः । बध्यन्ते धीवरैस्तेऽपि माययाऽऽनॉयपाणिभिः ॥२९३॥
नानोपायमृगयुभिर्वञ्चनप्रवणैर्जडाः । निबध्यन्ते विनाश्यन्ते प्राणिनः स्थलचारिणः ॥ २९४ ॥ नभश्चरा भूरिभेदा वराका लावकादयः । वध्यन्ते माययाऽत्युग्रैः स्वल्पकग्रासगृभुभिः ॥ २९५ ॥ तदेवं सर्वलोकेऽपि परवञ्चकतापराः । स्वस्वधर्म सद्गतिं च नाशयन्ति स्ववञ्चकाः ।। २९६ ॥
तिर्यग्जातेः परं वीजमपवर्गपुरार्गला । विश्वासद्रुमदावाग्निर्माया हेया मनीषिभिः ॥ २९७ ॥ 25 मल्लिनाथः पूर्वभवे कृत्वा मायां तनीयसीम् । मायाशल्यमनुत्याय स्त्रीभावमुपयास्यति ॥ २९८ ॥
तदार्जवमहौषध्या जगदानन्दहेतुना । जयेज्जगद्रोहकरी मायां विषधरीमिव ॥ २९९ ॥ आर्जवं सरलः पन्था मुक्तिपुर्याः प्रकीर्तितः । आचार्यविस्तरः शेषतपस्त्यागादिलक्षणः ॥ ३०॥ भवेयुरार्जवजुषो लोकेऽपि प्रीतिकारणम् । कुटिलादुद्विजन्ते हि जन्तवः पन्नगादिव ॥ ३०१॥
१ अमृदु कठिनं च तन्मार्दवं चेत्यमृदुमार्दवम् । २ नमस्यति नमः करोति पूजयतीत्यर्थः। ३ वरिवस्यति वरिवः करोति सेवते इत्यर्थः । अत्र 'नमस्' 'वरिवस्' इत्यतः “नमोवरिवचित्रङ्गोऽर्चासेवाऽऽश्चर्ये" [३.४.३०] इति सूत्राद् अायाम् , सेवायाम् च यथाक्रमेण क्यन् प्रत्ययाद् नमस्य ति, वरिवस्यति इति सिद्ध्यतः। ४ निरन्तरम् । ५ असत्यस्य । ६ असत्यषागुण्यस्य सन्ध्यादेः प्रयोगेण । ७ दीनताप्रदर्शनेन । * °यन्तेऽखिलं ज° संवृ०॥ ८ आशुक्रिया-सत्वरक्रिया। ९ मौजी-मुञ्जस्य तृणविशेषस्य कटिमेखला। १० लोभयन्ति । ११ असत्यनाणकम् । १२ दुरोदरः-यूतम् । १३ मङ्गलपाठकरूपेण चौराः। १४ कर्मकराः। १५ आनायो जालं पाणौ हस्ते येषां तैः। १६ व्याधैः । १७ लावकः पक्षि विशेषः। १८ गृभुः-लोलुपः। 1 °यन्तः ख संवृ०॥ १९ सर्पिणीम् । २० त्रस्यन्ति ।
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पञ्चमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
३८५ अजिह्मचित्तवृत्तीनां भववासस्पृशामपि । अकृत्रिमं मुक्तिसुखं स्वसंवेद्यं महात्मनाम् ॥ ३०२ ॥ कौटिल्यशङ्कुना क्लिष्टमनसां वञ्चकात्मनाम् । परव्यापादनिष्ठानां स्वमेऽपि स्यात् कथं सुखम् ॥ ३०३॥ समग्रविद्यावैदुष्येऽधिगतासु कलासु च । धन्यानामुपजायेत बालकानामिवार्जवम् ॥ ३०४ ॥ अज्ञानामपि बालानामाजवं प्रीतिहेतवे । किं पुनः सर्वशास्त्रार्थपरिनिष्ठितचेतसाम् ।। ३०५ ॥ स्वाभाविकी हि ऋजुता कृत्रिमा कुटिलात्मता । ततः स्वाभाविकं धर्म हित्वा कः कृत्रिमं श्रयेत् ? ॥३०६।।5 छल-पैशून्य-वक्रोक्ति-वञ्चनाप्रवणे जने । धन्याः केचिनिर्विकाराः सुवर्णप्रतिमा इव ॥ ३०७ ॥ अपि श्रुताब्धिपारीणाः सर्वे गणभृत्तमाः । अहो ! शैक्षाश्चाश्रीषुरार्जवादहतां गिरः ॥३०८॥ अशेषमपि दुःकर्म ऋज्वालोचनया क्षिपेत् । कुटिलालोचनां कुर्वन्नल्पीयोऽपि विव॑र्धते ॥ ३०९ ॥ काये वचसि चित्ते च समन्तात् कुटिलात्मनाम् । न मोक्षः किन्तु मोक्षः स्यात् सर्वत्राकुटिलात्मनाम् ॥३१०॥ इत्युग्रं कर्म कौटिल्यं कुटिलानां विभावयन् । आश्रयेजुतामेकां सुधीनिर्वृतिकाम्यया ॥ ३११॥ 10 आकरः सर्वदोषाणां गुणग्रसनराक्षसः । कन्दो व्यसनवल्लीनां लोभः सर्वार्थवाधकः ॥ ३१२ ॥ धनहानः शतमक सहस्र शतवानपि । सहस्राधिपतिलक्ष कोटिं लक्षेश्वरोऽपि च ॥३१३॥ कोटीश्वरो नरेन्द्रत्वं नरेन्द्रश्चक्रवर्तिताम् । चक्रवर्ती च देवत्वं देवोऽपीन्द्रत्वमिच्छति ॥ ३१४ ॥ इन्द्रत्वेऽपि हि संप्राप्ते यदिच्छा न निवर्तते । मूले लघीयांस्तल्लोभः सराव इव वर्धते ॥ ३१५॥ हिंसेव सर्वपापानां मिथ्यात्वमिव कर्मणाम् । राजयक्ष्मेव रोगाणां लोभः सर्वागसां गुरुः ॥ ३१६ ॥15 अहो! लोभस्य साम्राज्यमेकच्छत्रं महीतले । तरवोऽपि निधिं प्राप्य पादैः प्रच्छादयन्ति यत् ॥ ३१७॥ अपि द्रविणलोभेन ते द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः । स्वकीयान्यधितिष्ठन्ति प्रानिधानानि मूर्च्छया ॥ ३१८॥ भुजङ्ग-गृह-गोधाः स्युर्मुख्याः पञ्चेन्द्रिया अपि । धनलोभेन लीयन्ते निधानस्थानभूमिषु ॥ ३१९ ॥ पिशाच-मुगल-प्रेत-भूत-यक्षादयो धनम् । स्वकीयं परकीयं वाऽप्यधितिष्ठन्ति लोभतः ।। ३२० ॥ भूषणोद्यानवाप्यादौ मूछितास्त्रिदशा अपि । च्युत्वा तत्रैव जायन्ते पृथ्वीकायादियोनिषु ॥ ३२१ ॥ 20 प्राप्योपशान्तमोहत्वं क्रोधादिविजये सति । लोभांशमात्रदोषेण पतन्ति यतयोऽपि हि ॥ ३२२ ॥ एकामिपाभिलाषेण सारमेया इव द्रुतम् । सोदा अपि युध्यन्ते धनलेशजिघृक्षया ॥ ३२३॥ लोभाद् ग्रामादिसीमानमुद्दिश्य गतसौहृदाः । ग्राम्या नियुक्ता राजानो वैरायन्ते परस्परम् ॥ ३२४॥ हास-शोक-द्वेष-हर्षानसतोऽप्यात्मनि स्फटम । स्वामिनोऽये लोभवन्तो नाटयन्ति नटा इव ॥ ३२५॥ आरभ्यते पूरयितुं लोभगतॊ यथा यथा । तथा तथा महचित्रं मुहुरेष विवधते ॥ ३२६ ॥ 25 अपि नामैष पूर्येत पयोभिः पयसां पतिः । न तु त्रैलोक्यराज्येऽपि प्राप्ते लोभः प्रपूर्यते ॥ ३२७॥ अनन्ता भोजनाच्छादविषयद्रव्यसंचयाः । भुक्तास्तथापि लोभस्य नांशोऽपि परिपूर्यते ॥ ३२८ ॥ लोभस्त्यक्तो यदि तदा तपोभिरफलैरलम् । लोभस्त्यक्तो न चेत् तर्हि तपोभिरफलैरलम् ॥ ३२९ ॥ मृदित्वा शास्त्रसर्वस्वं तदेतदवधार्यताम् । लोभस्यैकस्य हानाय प्रयतेत महामतिः॥ ३३०॥ लोभसागरमुद्वेलेंमतिवेलं महामतिः । संतोषसेतुबन्धेन प्रसरन्तं निवारयेत् ॥ ३३१॥
30 यथा नृणां चक्रवर्ती सुराणां पाकशासनः । तथा गुणानां सर्वेषां संतोषः प्रवरो गुणः ॥ ३३२॥ संतोषयुक्तस्य यतेरसंतुष्टस्य चक्रिणः । तुलया संमितो मन्ये प्रकर्षः सुख-दुःखयोः ॥ ३३३॥ स्वाधीनं राज्यमुत्सृज्य संतोपामृततृष्णया । निःसंगत्वं प्रपद्यन्ते तत्क्षणाचक्रवर्तिनः ॥ ३३४ ॥ निवृत्तायां धनेच्छायां पार्श्वस्था एव संपदः । अङ्गुल्या पिहिते कर्णे शब्दाद्वैतं हि जृम्भते ॥ ३३५॥
जिह्मः सरलः। २ संसारे स्थितानामपीत्यर्थः। ३ स्वयं ज्ञयेम्। ४ व्यापादः-नाशः । * °त् कुतः सु का०॥ ५ सर्वशास्त्राणामर्थे परिनिष्टितं लग्नं मनो येषां तेषाम् । ६ श्रुतसमुद्रस्य पारगामिनः। ७ शिष्याः। 1 °वर्धयेत् ॥ संबृ. का.॥ ८ सर्वपापानाम् । ९ मूलैः। १० मुद्गलाः-व्यन्तरचिशेपाः । ११ आमिषम्-मांसम् , भक्ष्यं वा । १२ अधिकारिणः । १३ आच्छादाःवस्त्राणि । १४ लोभरहितस्य पुरुषस्य तपःसदृशं फलं भवत्यत एव तपांसि निरफलानि, लोभसहितस्य च तपस्सु तप्तेष्वपि फलं न भवतीति तपांसि निष्फलानीति भावः । ३५ नाशाय। १६ वेलां मर्यादामतिक्रान्तस्तम्। १७ यतेः सुखस्य प्रकर्षश्चक्रिणश्च दुःखस्येत्यर्थः।
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१८६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थ पर्व संतोषसिद्धौ संसिद्धाः प्रतिवस्तुविरक्तयः । अक्ष्णोः पिधाने पिहितं ननु विश्वं चराचरम् ॥ ३३६॥ किमिन्द्रियाणां दमनैः किं कायपरिपीडनैः। ननु संतोषमात्रेण मुक्तिश्रीमुखमीक्षते ॥ ३३७ ॥ जीवन्तोऽपि विमुक्तास्ते ये मुक्तिसुखशालिनः । किं वा विमुक्तेः शिरसि शृङ्गे किमपि वर्तते ॥ ३३८॥ किं रागद्वेषसंकीर्ण किंवा विषयसंभवम । येने संतोषजं सौख्यं हीयेत शिवशर्मणः ॥ ३३९ ॥ परप्रत्यायनासारैः किं वा शास्त्रसुभाषितैः । मीलितामा विमृशन्तु संतोषास्वादजं सुखम् ॥ ३४०॥ चेत् कारणानुकारीणि कार्याणि प्रतिपद्यसे । संतोषानन्दजन्मा तन्मोक्षानन्दः प्रतीयताम् ॥ ३४१॥ यच तीनं तपःकर्म कर्मनिमूलनं जगुः । सर्वं तदपि संतोषरहितं विफलं विदुः॥ ३४२॥ कृषि-सेवा-पाशुपाल्य-वाणिज्यैः किं सुखार्थिनाम् । ननु संतोषपानात् किं नात्मा निवृतिमाप्यते ॥३४३॥
यत् संतोपवतां सौख्यं तृणसंस्तरशायिनाम् । न तत् संतोषवन्ध्यानां तूलिकाशायिनामपि ॥ ३४४ ॥ 10 असंतुष्टास्तॆणायते धनिनोऽपीशिनां पुरः । ईशिनोऽपि तृणायन्ते संतुष्टानां पुरः स्थिताः ॥ ३४५ ॥
आयासमानं नश्वयं चक्रिशक्रादिसंपदः । अनायासं च नित्यं च सुखं संतोषसंभवम् ।। ३४६॥ इति लोभं निराकर्तुं सर्वदोषनिकेतनम् । अद्वैतसौख्यसदनं सुधीः संतोषमाश्रयेत् ॥ ३४७ ॥ एवं जितकषायः सन्नत्रापि शिवसौख्यभाक् । परत्रावश्यमाप्नोति शिवं पुनरनश्वरम् ॥ ३४८॥ श्रुत्वैवं देशनां भर्तुः प्राज्याः पर्यव्रजञ्जनाः । सम्यक्त्वं तु हरिभजे श्रावकत्वं तु सीरभृत् ॥ ३४९॥ पूर्णायामादिपौरुष्यां व्यसृजद् देशनां प्रभुः। चक्रेऽरिष्टः स्वामिपादपीठस्थो गणभृत् ततः ॥३५०॥ अन्ते द्वितीयपौरुष्यां व्यस्राक्षीत् सोऽपि देशनाम् । नत्वाऽर्हन्तं ततो जग्मुः शक्र-विष्णु-बलादयः॥३५१॥ __ ततः स्थानादथान्यत्र सर्वातिशयशोभितः । भगवान् धर्मनाथोऽपि विजहार महीतलम् ॥ ३५२ ॥ चतुःषष्टिः सहस्राणि श्रमणानां महात्मनाम् । आर्यिकानां तु द्वाषष्टिः सहस्राः सचतुःशताः ॥ ३५३ ॥
तथा चतुर्दशपूर्वभृतां नवशतानि तु । अवधिज्ञानभाजां तु त्रिसहस्री सपदशती ॥ ३५४ ॥ 20 मनःपयेयिणां पञ्चचत्वारिंशच्छतानि त । तथा शतानि तान्येव केवलज्ञानशालिनाम॥
जातवेक्रियलब्धीनां मुनीनां शतसप्ततिः। द्वे सहस्रे शतान्यष्टौ वादलब्धिमतां पुनः ॥ ३५६ ॥ लक्षद्वयी श्रावकाणां चत्वारिंशत्सहस्रयुक् । श्राविकाणां चतुर्लक्षी त्रयोदशसहस्रयुक् ॥ ३५७ ॥ वर्षलक्षद्वयं साधं वर्षद्वितयवर्जितम् । आकेवलाद् विहरतः परिवारोऽभवत् प्रभोः ॥ ३५८ ॥
ज्ञात्वा तु मोक्षसमयं स्वामी संमेतमेत्य च । समं मुनिशतेनाष्टयुतेनानशनं व्यधात् ।। ३५९ ॥ 25 मासान्ते ज्येष्ठविशदपञ्चम्यां पुष्यगे विधौ । समं तैर्मुनिभिः स्वामी प्रपेदे पदमव्ययम् ॥ ३६० ॥
श्रीधर्मस्वामिनस्तेषां श्रमणानां च तत्क्षणम् । चक्रुनिर्वाणमहिमोत्सवं शक्रादयः सुराः ॥ ३६१॥ अनन्तवामिनिर्वाणाद् धर्मनाथस्य निर्वृतिः । अजायत व्यतिक्रान्ते सागराणां चतुष्टये ॥ ३६२ ॥ कौमारेऽब्दलक्षे सार्धे राज्ये पञ्चाब्दलक्ष्यभूत् । सार्धा व्रते व्यब्दलक्षीत्यब्दलक्षा दश प्रभोः ॥३६३॥
तैस्तैः पुरुषसिंहोऽपि सिंहवद्धिंस्रकर्मभिः । पूर्णायुः कालतोऽगच्छत् षष्ठी नरकमेदिनीम् ॥ ३६४ ॥ 30 कौमारेऽस्य व्यब्दशती मण्डलित्वे शतानि तु । सार्धानि द्वादशाब्दानां सप्तत्यब्दी तु दिग्जये ॥३६५॥ राज्ये तु नवलक्ष्यष्टानवतिश्च सहस्रकाः। शतानि त्रीण्यशीतिश्चेत्यब्दलक्षा दशायुप
पि ॥ ३६६॥ ततो बलः सप्तदशाब्दलक्षायुर्विनाऽनुजम् । कथञ्चिजीवितं दधे भ्रातृस्नेहवशंवदः ।। ३६७ ॥
द्राक् सुदर्शनभृतोऽन्तदर्शनादाशोकविवशः सुदर्शनः।।
कीर्तिसाधुनिकटेग्रहीद् व्रतं पूरितायुरपुनर्भवं ययौ ॥ ३६८ ॥ 35 इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थे पर्वणि
श्रीधर्मनाथ-पुरुषसिंह-सुदर्शन-निशुम्भचरितवर्णनो नाम पञ्चमः सर्गः। १ प्रतिवस्तुथु वेराग्यवन्तः। २ येन सुखेन मोक्षसुखस्य सौख्यं हीयेत । * °वकर्मणः ॥ का. ॥ ३ प्रत्यायनम्-साधनं विवरणं पाणिग्रहणं वा । ४ तृणमिव आचरन्ति । ५ बहवः। ६ विससर्ज । + क्ष्यथ सा संबृ०॥ ते द्विलक्षी चेत्य संवृ. ॥ प्राक् सुका० ॥ ७ सुदर्शननामकं चक्रं विभर्ति तस्य अर्द्धचक्रिणोऽवसानविलोकनात् ।
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सर्ग: ]
त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
षष्ठः सर्गः । श्रीमघवचक्रवर्तिचरितम् ।
भरतेऽत्रैव नगरे महीमण्डलनामनि । वासुपूज्यस्य तीर्थेऽभून्नानाऽमरपतिर्नृपः ॥ १ ॥ अनाथानामेकनाथः पृथिवीनाथपुङ्गवः । सुसाधुरिव चारित्रे स न्यायेऽवैहितोऽभवत् ॥ २ ॥ असौ पुष्पवृन्तेन नाजघान जनं क्वचित् । केवलं पालयामास यत्लेन नवपुष्पवत् ॥ ३ ॥ कामार्थी पादकण्टक धर्म तु किरीटवत् । अधरोत्तरभावेन स दधार विवेकवान् ॥ ४ ॥ अर्हन् देवो गुरुः साधुर्धर्मश्च करुणेति सः । मन्त्राक्षरमिवाध्यायदनुत्तरमुखप्रदम् ॥ ५ ॥ राज्यं जमिवान्येद्युरुत्सृज्य स महायशाः । परिव्रज्यामुपादत्त दत्तविश्वाभयः सुधीः ॥ ६ ॥ स समितिप्राप्तजयो गुप्तिरक्षणतत्परः । विधिवत् पालयामास प्रव्रज्यां राज्यवच्चिरम् ॥ ७ ॥ अनवद्यैर्मूलगुणैः स उत्तरगुणैरपि । अधिकं शुशुभे दिव्यरत्नालङ्करणैरिव ॥ ८ ॥ चिरं व्रतं पालयित्वा कालधर्ममुपेत्य सः । ग्रैवेयके मध्य मेऽभूदहमिन्द्रः सुरोत्तमः ॥ ९ ॥
इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् क्षेत्रे भरतनामनि । श्रावस्तीत्यस्ति नगरी नगरीणां गरीयसी ॥ १० ॥ गुणरत्नैरसंख्यातैः समुद्र ईव मूर्तिमान् । समुद्रविजयस्तत्र विजयी समभून्नृपः ॥ ११ ॥ आनन्ददायकत्वेन यदुत्वेन चानिशम् । मित्राणामप्यमित्राणां हृदयान्नोत्ततार सः ॥ १२ ॥ दोष्मतस्तस्य संग्रामेष्वात्मैवाजनि संमुखः । आकृष्टामलनिस्त्रिंशदर्पणप्रतिविम्बितः ॥ १३ ॥ प्रसह्य स्ववशीचक्रे सर्वा दिश इतीव सः । यशोऽलङ्करणं तासामावर्जन कृते ददौ ॥ १४ ॥ महीं गामिव गोपालः स जुगोप यथाविधि । अबाधया च समये करं दुग्धमिवाददे ।। १५ ।। पुण्य लावण्यभद्राङ्गी भद्राणामेकमास्पदम् । सधर्मचारिणी तस्याभवद् भद्रेति नामतः ॥ १६ ॥ धर्माविबाधया तस्य सुखं वैषयिकं तथा । सहानुभवतः कालो व्यतीयाय कियानपि ॥ १७ ॥
इतश्च ग्रैवेयकस्थ जीवोऽमरपतेः स तु । पूरयित्वा प्रकृष्टायुर्भद्राकुक्षाववातरत् ॥ १८ ॥ सुखसुप्ता तदा भद्रा महास्त्रमाँश्चतुर्दश । स्वास्ये प्रविशतोऽद्राक्षीच्चक्रभृजन्मसूचकान् ॥ १९ ॥ काले चासुत सा सूनुमनूनं पुण्यलक्षणैः । सुवर्णवर्णं सार्धद्विचत्वारिंशद्धनुन्नतम् ॥ २० ॥ पृथिव्यां मघवेवायं नूनं भावीति सान्वयाम् । चक्रेऽस्य मघवेत्याख्यां समुद्रविजयो नृपः ॥ २१ ॥ समुद्रवसनां सोऽनुसमुद्रविजयं जयी । अलम्भूष्णुरलञ्च द्यमन्वर्कमिवोडुपः ॥ २२ ॥ तस्यैकदाऽस्त्रशालायां तेजःप्रसरभासुरम् । समुत्पेद चक्ररलमिरम्मद इवाम्बुदे ॥ २३ ॥ यथास्थानमथान्यानि पुरोधः प्रभृतीन्यपि । तस्य रत्नानि सर्वाणि जज्ञिरे क्रमयोगतः ॥ २४ ॥ चक्रमार्गानुगः सोऽथ प्रस्थितो दिग्जिगीषया । ययों मागधतीर्थेशं प्राकसमुद्रविभूषणम् ।। २५ ।। तस्य नामाङ्कत्राणेन दूतेनेव संमेयुषा । एत्य मागधतीर्थेशः सवामेव समाश्रयत् ।। २६ । सोsपाच्यां वरदामानं पश्चिमायां पुनर्दिशि । प्रभासाधिपतिं देवं विजिग्ये मागधेशवत् ।। २७ ।। गत्वा च दक्षिणं रोधः सिन्धुदेवीमसाधयत् । ततो गच्छन्नाससाद चक्री वैताढ्यपर्वतम् ॥ २८ ॥ चक्रवर्त्यात्मसाच्चक्रे वैताढ्याद्रेि कुमारकम् । तदुपायनमादायानुतमिस्रं जगाम च ॥ २९ ॥
३८७
* ना नर" संवृ० ॥ का० ॥ १ पुङ्गवः-श्रेष्ठः । २ अप्रमत्तः । ३ कामाथ पादकण्टकाद् हेयी, धर्मे तु किरीटचन्तुकुट पादेयमित्यर्थः । ४ कामार्थावधरभावन धर्म चोत्तरभावनेत्यथः । ५ व्यवित् । । 'हाशयः । प' मु० ॥ ५ मित्राणामान न्ददरवेन । ६ शत्रूणां भयदत्वेन । ७ आकृष्टो योऽमलो निखिंशः खड्गः स एवं दर्पणस्तस्मन् प्रतिविम्बितः स राजा युद्धेषु स्वमेव पश्यति शत्रोरभावादित्यर्थः । ८ दिशो मां मा त्यजन्त्विति हताः ददावित्यर्थः । + 'सामव' मु० ॥ " 'वो नर° संबु. का. ॥ ९ सार्थकाम् । 'न्वयम् । च' सबृ. का. ॥ १० समुद्रो वसनं वस्त्रं यस्यास्तां पृथ्वी मित्यर्थः । ३१ समुद्र विजयस्य पश्चात् । १२ यथा सूर्यादनु चन्द्रः आकाशं भूषयति तथा। १३ मेघवद्धिः तडिदिति यावत् । १४ आगतेन । १५ तस्प्रतम् ।
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३८८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थ पर्व स तमिस्रागुहाद्वारे द्वारपालमिव स्थितम् । विधिवत् साधयामास कृतमालाभिधं सुरम् ॥ ३० ॥ तस्यादेशाच्चमूनाथः सिन्धुमुत्तीर्य चर्मणा । प्रत्यग्निष्कुटमाक्रामत् तस्याः पुनरुपाययौ ॥ ३१ ॥ सेनान्या दण्डरत्नेन कपाटोद्घाटने कृते । ससैन्यः प्राविशञ्चक्री गजरत्नेन तां गुहाम् ॥ ३२॥ अन्तर्विरचितालोकः काकिणीकृतमण्डलैः । कुम्भिदक्षिणकुम्भस्थमणिभाप्रसरेण च ॥ ३३ ॥ उत्तीर्य वैर्धकिकृतपद्यया चान्तरस्थिते । नद्यामुन्मग्ननिमग्नजले अत्यन्तदुस्तरे ॥ ३४ ॥ स्वयं विश्लिष्टकपाटेनोत्तरद्वारवर्मना । तस्या गुहाया निरगात् सह चम्बा स चक्रभृत् ॥ ३५ ॥ आपातनामकॉस्तत्र किरातानतिदुर्जयान् । मघवेवासुरभटान् विधिवन्मघवाऽजयत् ॥ ३६ ॥ सिन्धोश्च निष्कुटी प्रत्यगजयत् तच्चमूपतिः । स्वयं त्वसाधयद् गत्वा हिमाचलकुमारकम् ॥ ३७॥ मघवा चक्रवर्तीति कूटे ऋषभनामनि । आदाय काकिणीरत्नं लिलेख निजनाम सः॥ ३८ ॥ ततो निवृत्तो मघवा गङ्गायाः पूर्वनिष्कुटम् । सेनान्या साधयामास गङ्गादेवीं स्वयं पुनः ॥ ३९॥ वैताट्यपर्वतश्रेणिद्वयविद्याधरानपि । स तृतीयश्चक्रधरः साधयामास लीलया ॥ ४० ॥ खण्डप्रपाताद् द्वारस्थं नाट्यमालमथापरम् । यथाविध्यात्मसाचक्रे चक्रभृद् विधिकोविदः॥ ४१ ॥ खण्डप्रपातया सेनान्युद्घाटितकपाटया । वैताठ्यान्निरंगाच की पोतोऽर्णवजलादिव ॥ ४२ ॥ नवापि निधयस्तत्र गङ्गामुखनिवासिनः । बभूवुर्वशगास्तस्य नैसर्पप्रमुखाः सुखम् ॥ ४३॥ सेनान्या साधयामासं गाङ्ग पश्चिमनिष्कुटम् । इत्थं स च वशीचके पटखण्डमपि भारतम् ॥४४॥ संपूर्णचक्रिसामग्र्या भ्राजिष्णुर्मघवा ततः। श्रावस्तीनगरीमागान्मघवेवामरावतीम ॥४५॥ तत्र देवैर्नृदेवैश्च मघोनोऽनूनसंपदः । चक्रवर्तित्वाभिषेकोऽविधीयत यथाविधि ॥ ४६॥ अभिषिक्तोऽपि चक्रित्वे सेवमानोऽपि सन्ततम् । द्वात्रिंशता मुंकुटिनां सहस्रमैदिनीभुजाम् ॥४७॥
श्रीयमाणः पोडशभिः सहस्रधुसदामपि । निधिभिनवभिरपि परिपूर्णेप्सितोऽपि हि ॥४८॥ 20 चतुःषष्ट्या सहस्रैश्च शुद्धान्तहरिणीदृशाम् । नयनेन्दीवरस्रग्भिरज़मानोऽप्यनारतम् ॥४९॥
अन्येष्वपि प्रमादस्य स्थानेषु सुलभेषु सः । पिध्ये श्रावकधर्मे तु न जात्वासीत् प्रमद्वरः ॥५०॥ नानाविधानि चैत्यानि विमानानीव नाकिनाम् । जिनविम्बसनाथानि स्वर्णरत्नेय॑धत्त सः॥५१॥ यथैकः स पतिः पृथ्व्यास्तथा तस्याप्यजायत । अर्हन् देवः सुसाधुश्च गुरुर्धर्मो दयामयः ॥ ५२ ॥
सदा स चैत्यपूजासु तत्पूजाविव राजकम् । नोज्झाञ्चकार नियमं नित्यं नियमितेन्द्रियः॥ ५३ ॥ 25 अविरतश्रावकत्वेनातिवाह्यायुरात्मनः । सोऽन्तकाले परिव्रज्यामुपादत्त यथाविधि ॥ ५४॥
कौमारेऽब्दसहस्राणि पश्चविंशतिरस्य तु । मण्डलित्वेऽपि तावन्ति दशैव तु दिशां जये ॥ ५५॥ चक्रित्वे तु व्यब्दलक्षी सहस्रा नवतिस्तथा । व्रतकाले च पञ्चाशत्सहस्राः शरदां पुनः ॥५६॥
पश्चाब्दलक्षीमतिवाह्य जन्मतः पश्चामलात्मा परमेष्ठिनः स्मरन् ।
पश्चत्वमाप्येन्द्रसमानवैभवः सनत्कुमारेऽजनि सोऽमराग्रणीः ॥ ५७॥ 30
इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थे इत्याचाय
पर्वणि मघवचक्रवर्तिचरितवर्णनो नाम षष्ठः सर्गः।
१ चर्मरत्नेन । २ हस्तिनो दक्षिणकुम्भस्थले स्थितस्य मणेः कान्तिप्रसरेण । ३ वर्धकिरत्नेन कृता या पथा सेतुबन्धस्तया। * 'घवा वाऽसु' संबृ० ॥ टिं प्राज्यमज' संवृ०॥ स गङ्गायाः पूर्वनि' मु.॥ ४ मुकुटधारिणां राज्ञाम् । ५ आश्रीयमाणः। ६ पूर्यमाणे । ७ अन्तःपुरस्त्रीणाम् । ८ नयनान्येव कमलानि तेषां मालाभिः। ९ सदा। १० पितुरागते परम्परयेत्यर्थः । | पृथ्टयां त° का. ॥ र नीति च नित्यं संपृ. ॥ ** "तिस्तस्य मु.॥११ निर्मलारमा पञ्चपरमेष्ठिना मरमित्यर्थः ।
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सप्तमः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
सप्तमः सर्गः। श्रीसनत्कुमारचक्रिचरितम् ॥
अस्तीह काश्चनपुरं दधानं काश्चनश्रियम् । भोगावत्यमरपुरी-लङ्कादिभ्योऽतिशायिनीम् ॥१॥ तत्रासीद् विक्रमयशा नाम प्रवरविक्रमः । रिपुंस्त्रैणाश्रुनीरेद्धंप्रतापेरम्मदो नृपः ॥२॥ तस्य पञ्चशतान्यासन्नन्तःपुरमृगीदृशाम् । यूथभर्तुर्द्विपस्येव करिण्यः प्रेमलालसाः ॥३॥ तदा चासीत् पुरे तसिन् सार्थवाहो महर्द्धिकः । नागदत्तोऽभिधानेन निधानमिव संपदाम् ॥ ४॥ सौभाग्यलावण्यवती रूपातिशयशालिनी । विष्णोः श्रीरिव विष्णुश्रीर्नाम्ना तस्य गृहिण्यभूत् ॥५॥ अन्योऽन्यं नीलिकारागप्रेमाणौ तौ विजहतुः । अव्याहतस्सरक्रीडासरसौ सारसाविव ॥६॥ काकतालीयन्यायेन कथमप्येकदा तु सा । दृपथं विक्रमयशोवसुधाभतुराययौ ॥७॥ तां प्रेक्ष्य विक्रमयशा दस्युनेव मनोभुवा । लुण्ट्यमानविवेकस्वश्वेतस्येवमचिन्तयत् ॥ ८॥ अहो !f विलोचने अस्या मृग्या इव मनोरमे । बन्धुरः केशपाशश्च कलाप इव केकिनः ॥९॥ पक्कविम्बं द्विधाभूतमिवोष्ठौ कोमलारुणौ । पीनोन्नतौ कुचावेतौ स्मरक्रीडाचलाविव ॥१०॥ प्रत्यग्रे इव च लते भुजे सरलकोमले । मध्यं नितान्तं क्षामं च मुष्टिग्राह्यं पैवेरिव ॥ ११॥ शेवलालीव रोमावल्यावर्त इव नाभ्यपि । नितम्बः पुलिनमिव लावण्यसरितस्त्वसौ ॥ १२ ॥ रम्भास्तम्भाविवोरू च पादौ च कमले इव । किमन्यत् सर्वमप्यस्या मनो हरति कस्य न ? ॥ १३॥ 15 जराविक्लवचित्तत्वादनौचित्येन वेधसा । निवेशिता क्वाप्यपात्रे शक्रस्तम्भः श्मशानवत् ॥ १४ ॥ एतामपहरिष्यामि क्षेप्स्याम्यन्तःपुरे निजे । अनौचित्यनिवेशित्वदोषः स्रष्टुः प्रयातु च ॥१५॥ एवं मनसि निश्चित्य कन्दर्पविधुरोऽथ ताम् । जग्राह विक्रमयशा यशो म्लानीचकार च ॥ १६ ॥ अन्तरन्तःपुरं क्षिप्त्वा रमयामास तां सदा । विचित्रसरलीलाभिरेकतानः स भूपतिः ॥ १७ ॥ आविष्ट इव भूतेन धत्तूरमिव लीढवान् । अपस्मारमिव प्राप्तो मदिरामिव पीतवान् ॥ १८॥
20 आघ्रात इव सर्पण सन्निपातमिवाप्तवान् । विधुरस्तद्वियोगेन सार्थवाहो बभूव सः॥१९॥ युग्मम् ॥ तया सह वियुक्तस्य सार्थवाहस्य तस्य च । संयुक्तस्य च नृपतेः कालोऽगाद् दुःखंसौख्यकृत् ॥ २० ॥ विष्णुश्रिया रममाणे नृपे तस्मिन्निरन्तरम् । ईय॑या कार्मणं चक्रुः क्रुद्धाः शुद्धान्तयोषितः ॥ २१ ॥ कार्मणेन च सा तेन क्षीयमाणा क्षणे क्षणे । मूलवम्येव लतिका जीवितेन व्यमुच्यत ॥ २२ ॥ नृपोऽपि मृत्युना तस्या जीवन्मृत इव स्थितः । प्रलापी च विलापी च नागदत्त इवाभवत् ॥ २३ ॥ 25 नादत्त चानले क्षेप्तुं विष्णुश्रियं मृतामपि । प्रिया ममैषा प्रणयतूष्णीकेत्यनिशं वदन् ॥ २४ ॥ मत्रिणो मत्रयित्वाऽथ वञ्चयित्वा च भूपतिम् । अरण्ये चिक्षिपुर्नीत्वा तद्विष्णुश्रीकलेवरम् ॥ २५ ॥ स्वमासीरधुनैवेह किं प्रिये ! न निरीक्ष्यसे । तिरोधानक्रीडयाऽलं "वियोगस्य वयस्यया ॥ २६ ॥
रिपुस्त्रीसमूहस्याश्रुनीरेण इन्द्रो दीप्तः प्रताप एवं इरम्मदो मेधाग्निर्यस्य सः। * °णासनी मु.॥ + द्धप्रयाहेर का, द्धप्रतपेर काद्वि०॥ दृशः । यू० संबृ०॥ "मभाजनम् मु.॥ भ्योऽन्यनी मु०॥ * 'गप्रमा संबृ०॥ निर्बाधकामक्रीडायां रससहितौ। ३ लुण्ड्यमानं विवेक एव स्वं धनं यस्य सः।।। विलोकने मु०॥, नेत्रे । ४ सुन्दरः ।
कुची चैतौ संवृ. का. ॥ ५ नूतने । तान्तमा मु०॥ ६ वज्रस्य । शेवाला' का.॥ ७ तल्लीनः । ८ सार्थवाहस्य दुःखकृत्, नृपतेश्च सुखकृदित्यर्थः। ९ शुद्धान्त:-अन्तःपुरम् । १० वमिः वमनम्। 8 "तं तद्विष्णुश्रीकलेवरं प्रि० मु.॥ वियोगस्य मित्ररूपया तिरोधानक्रीडयाऽलमित्यन्वयार्थः।"योगं वरिवस्यया का॥
त्रिषष्टि. ५०
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थ पर्व नर्मणाऽपि वियोगाग्निर्माविद् युज्यते न हि । मदा तव किं नातिरावां ह्येकात्मकौ सदा ॥ २७॥ एकाकिनी किमगच्छः क्रीडासरिति कौतुकात् । क्रीडाद्रिमथवारोहः क्रीडोद्यानमथाभ्यगाः ॥२८॥ मां विना क्रीडसि कथमायाम्येष इति ब्रुवन् । तेषु तेषु प्रदेशेषु बभ्रामोन्मत्तवन्नृपः ॥२९॥
राज्ञश्च त्यक्तपानान्नवृत्तेर्गतवति व्यहे । मरणाशङ्किनोऽमात्यास्तस्या वपुरदर्शयन् ॥ ३० ॥ 5 अच्छभल्लवदैत्यन्तविसंस्थुलशिरोरुहम् । शशवच्छशरे वन्या कङ्कराकृष्टलोचनम् ॥ ३१ ॥
चर्वितोरसिजद्वन्द्वं गृधैः पिशितगृभुभिः । समाकृष्टात्रभारं च शिवाभिरॅशिवाकृति ॥ ३२ ॥ छादितं मक्षिकावृन्दैर्मधुमण्डकजालवत् । पिपीलिकाभिश्वाश्लिष्टं पातभग्नाण्डैजाण्डवत् ॥ ३३॥ पूतिगन्धि तदालोक्य सद्यो विष्णुश्रियो वपुः । विरक्तो विक्रमयशाश्चिन्तयामासिवानिति ॥ ३४ ॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ 10 अहो! असारे संसारे सारं वस्तु न किश्चन । सारबुद्ध्या धिगेतस्यां मोहिताः स्मः कियच्चिरम् ॥३५॥
आहार्यैरेव हि गुणैर्हरिद्रारागसन्निभैः। अहो ! ह्रियन्ते नारीभिर्न कश्चित् परमार्थवित् ॥ ३६ ॥ यकृच्छकृन्मल श्लेष्ममजास्थिपरिपूरिताः । स्नायुस्यूता बही रम्याः स्त्रियश्चर्मप्रसेविकाः ॥३७ ।। बहिरन्तर्विपर्यासः स्त्रीशरीरस्य चेद् भवेत् । तस्यैव कामुकः कुर्याद् गृध्रगोमायुगोपनम् ॥ ३८ ॥
स्त्रीशस्त्रेणापि चेत् कामो जगदेतजिगीषति । तुच्छपिच्छमयं शस्त्रं किं नादत्ते स मूढधीः १ ॥ ३९ ॥ 15 संकल्पयोनिनाऽनेन हहा ! विश्वं विडम्बितम् । तदुत्खनामि संकल्पं मूलमस्यैव सर्वतः ॥ ४०॥
एवं विचिन्त्य संसारविरक्तः स महामनाः । सुव्रताचार्यपादान्ते गत्वा दीक्षामुपाददे ॥ ४१ ॥ चतुर्थषष्ठमासादितपोभिर्देहनिस्पृहः । आत्मानं शोषयामास करैर्जलमिवार्यमा ॥ ४२ ॥ दुस्तपं स तपस्तावा कालयोगाद् विपद्य च । सनत्कुमारकल्पेऽभूत् प्रकृष्टायुः सुरोत्तमः॥४३॥
ततोऽप्यायुःक्षये च्युत्वा पुरे रत्नपुराभिधे । अजायत श्रेष्टिसुतो जिनधर्मोऽभिधानतः ॥ ४४ ॥ 20 आवाल्यादपि श्रावकधर्म द्वादशधापि हि । मर्यादामर्णव इव सदैव परिपालयन् ॥ ४५ ॥
आराधयस्तीर्थकरान् पूजयाऽष्टप्रकारया । एषणीयादिदानेन साधूश्च प्रतिलाभयन् ॥ ४६ ॥ असाधारणवासल्यात् साधर्मिकजनानपि । प्रीणयन् बन्धुवद् दानैः कश्चित् कालमलङ्घयत् ॥४७॥
॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ इतश्च नागदत्तोऽपि प्रियाविरहदुःखितः । आर्तध्यानान्मृतोऽभ्राम्यत् तिर्यग्योनिषु जन्तुषु ॥४८॥ * मवं भ्रान्त्वा चिरं सोऽथ पुरे सिंहपुराभिधे । अग्निशर्माऽभिधानेन द्विजन्मतनयोऽभवत् ॥ ४९ ॥ __कालेन च त्रिदण्डित्वं स आदाय समाययौ । पुरं रत्नपुरं तीब्रद्विमासादितपोरतः ॥५०॥
सत्र चासीत् पुरे राजा नामतो हरिवाहनः । स च भागवतोऽश्रौषीत् परिव्राजं तमागतम् ॥ ५१ ॥ राज्ञा निमत्रितस्तेन स पारणकवासरे । रोजौकस्यागतं देवाजिनधर्म ददर्श च ॥ ५२ ॥ ततः प्राग्जन्मवैरेण ऋषी रोषारुणेक्षणः । बभाषे योजितकरं नरेन्द्रं हरिवाहनम् ॥ ५३ ॥ पृष्ठेऽस्य श्रेष्ठिनो न्यस्यात्युष्णपायसभाजनम् । चेद् भोजयसि मां राजस्तदा भुञ्जेऽन्यथा न हि ।। ५४॥ पृष्ठेऽन्यपुंसो विन्यस्य स्थालं त्वां भोजयाम्यहम् । इत्युक्तो भूभुजा भूयः स क्रुद्धो मुनिरब्रवीत् ॥ ५५॥
भतिविस्तीर्णानि शिरोरुहाणि केशा यसिस्तद् वपुः । २ चर्वितस्तनयुग्मम् । ३ मांसलोलुपैः। ४ अशुमाकारम् । ५ यथा पतनेन भन्नं स्फुटितमण्डजस्याण्डं पिपीलिकाभिराश्लिष्यते तथा । * °ण्डमाण्ड मु० ॥ ६ पार्श्वस्थो मांसपिण्डो यकृत् ।
चर्मणा परिवृताः । ८ बहिर्यत् चर्म दृश्यते तदन्तर्भवेदन्तर्यम्मांसरुधिरादि चास्ति तद् बहिर्भवेदिति विपर्यासः । ९ कामदेवेन। मा बेन मु०॥ संकल्पमू' मु.॥ १० सूर्यः। 8 मारे कमु०॥ त्सल्यः सामु०॥ ** °ध्यानम् का.॥ ११ वैष्णवः। १२ राजगृहे। यति मां मु०॥
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सप्तमः सर्गः ]
त्रिषष्टिशला कापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
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अस्यैव पृष्ठे विन्यस्य स्थालमत्युष्णपायसम् । भुञ्जेऽहं भ्रूभुजां नाथाकृतार्थो यामि वा ध्रुवम् ॥ ५६ ॥ राजा भागवतत्वेन प्रेत्यपद्यत तद्वचः । जिनशासनबाह्यानां विवेकः कीदृशो नृणाम् ? ॥ ५७ ॥ राजाज्ञया दत्तपृष्ठो भुञ्जानस्य द्विजन्मनः । स्थालताएं सोऽधिसेहे दवानलमिव द्विपः ॥ ५८ ॥ कर्मणः प्राक्तनस्यैव मदीयस्य फलं ह्यदः । संख्याऽनेन त्रुटत्वेतदिति चाचिन्तयश्विरम् ॥ ५९ ॥ भुक्ते तस्मिन् समुच्चरुने सासृग्मांसवसारसान् । पृष्ठात् पायसपात्री सा सपङ्केच चिंतेष्टिका ॥ ६० ॥ गोको लोकमाहूय स्वकीयं सर्वमप्यथ । अक्षमयज्जिनधर्मो जिनधर्मविचक्षणः ॥ ६१ ॥ निर्माय चैत्यपूजां च साधुपार्श्वमुपेत्य च । जिनधर्मः परित्रज्यामुपादत्त यथाविधि ॥ ६२ ॥ निर्गत्य नगराच्छैलशृङ्गं समधिरुह्य च । संन्यस्य पैक्षं पूर्वस्यां कायोत्सर्गं व्यधत सः ॥ ६३ ॥ अपरास्वपि दिक्ष्वेवं कायोत्सर्ग स निर्ममे । त्रोटिभिंत्रोट्यमानोऽपि गृध्रकङ्कादिभिः खगैः ॥ ६४ ॥ सहमानो व्यथामेवं नमस्कारपरायणः । विपद्य कल्पे सौधर्मे स इन्द्रः समजायत ।। ६५ ।। मृत्वा त्रिदण्डिकः सोऽपि ह्याभियोगेन कर्मणा । शक्रस्य वाहनमभूदैरावण इति द्विपः ॥ ६६ ॥ सोsपि पूरावणायुत्वा जीवस्त्रिदण्डिनः । भवे भ्रान्त्वाऽसिताक्षाख्यो बभूव किल यक्षराट् ॥ ६७ ॥ इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् क्षेत्रे भरतनामनि । कुरुजाङ्गलदेशेऽभून्नगरं हस्तिनापुरम् ॥ ६८ ॥ तत्राश्वसेनोऽश्वसेनाच्छादिताव निमण्डलः । मण्डलाग्रजिताराति मण्डलोऽभून्महीपतिः || ६९ ॥ तस्मिंश्च गुणरत्नानां रोहणाचलसन्निभे । दुग्धे जलकृमिरिव न दोषकणिकाऽप्यभूत् ॥ ७० ॥ अस्याहं तृणवदिति सौभाग्यस्याभिकाङ्क्षया । असिधाराव्रतं कर्तुमिव श्रीस्तदसौ स्थिता ॥ ७१ ॥ आगष्वर्थेषु दधौ सहर्षमतिशायिनम् । व्यषीदच्च खेदित्सानुमानेन स्तोकयाचिषु ॥ ७२ ॥ अभूत् तस्य महादेवी सहदेवीति नामतः । काऽपि देवीव रूपेण महीतलमुपागता ॥ ७३ ॥ चिरं शक्रश्रियं भुक्त्वा कल्पात् पूर्णायुरादिमात् । स जीवो जिनधर्मस्य तस्याः कुक्षाववातरत् ॥ ७४ ॥ मुखे प्रविशतः स्वस्मिन् सहदेव्यपि तत्क्षणम् । कुञ्जगदीन् महास्वमाँश्चतुर्दश ददर्श सा ।। ७५ ।। समस्त सा सूनुं सर्वलक्षणलक्षितम् | अद्वैतरूपविभवं जात्यजाम्बूनदद्युतिम् ।। ७६ ॥ महोत्सवेन जगदानन्ददायिना । सनत्कुमार इत्याख्यां चक्रे तस्य महीपतिः ॥ ७७ ॥ कनकच्छेदगौराङ्गो बालो बाल इवोर्डेपः । प्रीणन् नेत्राणि लोकानां स क्रमेण व्यवर्धत ॥ ७८ ॥ अङ्कादङ्के नरेन्द्राणां संचरन् स व्यराजत । अरविन्दादरविन्दे सिंच्छद इवोच्चकैः ॥ ७९ ॥ रूपेणाप्रतिरूपेण स बालोऽपि मृगीदृशाम् । जहार दृष्टमात्रोऽपि नेत्राणि च मनांसि च ॥ ८० ॥ साङ्गानि शब्दशास्त्राणि समस्तज्ञानमातृकाः । पपौ गुरुमुखोद्गीर्णान्येष गण्डूषलीलया ॥ ८१ ॥ राज्यश्री भुवनस्तम्भान् खदोः स्तम्भानिवापरान् । स आददे शस्त्रशास्त्राण्यर्थशास्त्राणि चाभितः ॥ ८२ ॥ अन्या अपि कलाः सर्वाः कलयामास लीलया । क्रमेण वर्धमानः स कलानिधिरिवामलः ॥ ८३ ॥ स सार्धैकचत्वारिंशद्धनुरुन्नतविग्रहः । मर्त्यलोकादिव दिवं शैशवात् प्राप यौवनम् ॥ ८४ ॥ तस्याभूत् परमं मित्रं कालिन्दीसूरनन्दनः । महेन्द्रसिंह इत्याख्या ख्यातः प्रख्यातविक्रमः ॥ ८५ ॥ प्राप्ते वसन्ते सोऽन्येद्युः कालिन्दीसूनुना समम् । मकरन्दाख्यमुद्यानं कौतुकात् क्रीडितुं ययौ ॥ ८६ ॥ क्रीडाभिस्तत्र चित्राभिचिक्रीड सुहृदा समम् । सनत्कुमारो गीर्वाणकुमार इव नन्दने ॥ ८७ ॥
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१ स्वीचकार । २ अनेन मित्रेण कर्मच्छेदकरूपेण । * रसा पृ' संवृ० ॥ तेष्टका मु० ॥ ३ गृहम् । ४ अगसनं कृत्वा । ५ पार्श्वभागम् । ६ चचभिः । ७ पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारगणनापरायणः । सोऽथ पू° का० ॥ ९ शेऽस्ति म° का० ॥ ८ मण्डलाग्रेण खङ्गेन जितं शत्रुमण्डलं येन सः । ॥ णाद्रौ कदाचन दु° संवृ० ॥ ९ तस्य खड़े । १० दातुमिच्छाया अनुमाने.. नाकपार्थिषु । ११ जाम्बूनदम् स्वर्णम् । १२ चन्द्रः । १३ हंसः । १४ गुरुमुखान्निर्गतानि । ** मुद्वितादर्श 'महेन्द्रसूरः' इति नामोपन्यस्तम्, परं प्रस्तुतवर्णने सर्वत्र 'महेन्द्रसिंह' इति उपलभ्यते, तेनात्रापि तदेवाभिर्न्यस्तम् । १५] देवकुमारः।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीत
[चतुर्थ पर्व तदा च राज्ञोऽश्वपतिः प्राहिणोत् प्रा ते हयान् । धारापञ्चकचतुरान् सर्वलक्षणलक्षितान् ॥ ८८ ॥ नाम्ना जलधिकल्लोलं कल्लोलमिव चञ्चलम् । एकं सनत्कुमारस्वाप्ययामास वाजिनम् ॥ ८९॥ त्यक्त्वा क्रीडा कुमारस्तमारुरोह तुरङ्गमम् । हस्त्यश्वे राजपुत्राणां कौतुर्क सर्वतोऽधिकम् ॥ ९ ॥
कशामुरिक्षय चकेन वैल्गां चैकेन पाणिना । आसनास्पृष्टपयोण ऊरूभ्यां प्रेरयच्च तम् ॥ ९१॥ 5 पर्यधाविष्ट वेगेन पादैः क्ष्मामस्पृशंन्निव । गच्छन् बहुतरं व्योनि सोऽश्वान् द्रष्टुं रवेरिव ॥ ९२ ॥
वल्गया चकृषे सोऽश्वः कुमारेण यथा यथा । तथा तथा विपरीतशिक्षोऽधिकमधावत ॥ ९३ ॥ सादिनां राजपुत्राणां धावतामपि मध्यतः । निर्ययौ स क्षणादश्वोऽश्वमूर्तिरिव राक्षसः ॥ ९४ ॥ पश्यतामपि भूपानामुंडूनामिव चन्द्रमाः । स आरूढकुमारोऽश्वोऽभूददृश्यः क्षणादपि ॥ ९५॥ अश्वेन सूनुमाकृष्टं नदीपूरेण पोतवत् । प्रत्यानेतुमन्वचालीदश्वसेनोऽश्वसेनया ॥ ९६ ॥ यात्यसौ यात्यसावश्वः पदान्येतानि तस्य हि । फेनलालास्तस्य चेमा यावदाख्यदिदं जनः ॥ ९७॥ तावद् वांत्योदभूचण्डा पूर्णब्रह्माण्डभस्त्रिका । अकालिकी कालरात्रिरिवान्धंकरणी दृशाम् ॥९८॥
॥ युग्मम् ।। अपटीभिरिषौकासि दिशोऽच्छाद्यन्त रेणुभिः । स्तम्भितानीव सैन्यानि नोतु पादमप्यलम् ॥ ९९ ॥
पदफेनानि चिह्नानि गच्छतस्तस्य वाजिनः । अशेषाण्यपि भग्नानि पांसुकल्लोलमालया ॥१०॥ IB न निम्नं नोन्नतं नापि स्थपुटं न दुमाद्यपि । अलक्षि पाताल इव प्रविष्टोऽभूजनोऽखिलः॥१०१ ॥
मूढोपायाः सैनिकास्ते पर्याकुल्यभवन्नथ । अब्धावम्भःपूर्यमाणयानाः सांयात्रिका इव ॥ १०२ ॥ नत्वा महेन्द्रसिंहोऽश्वसेनमेवं व्यजिज्ञपत् । देव! दैवस्य घटना दुर्घटौं पश्य खल्वियम् ॥ १०३ ॥ अन्यथा हि कुमारः क दूरदेशो हयः क्व च । तत्र चीज्ञातशीले क कुमारस्याधिरोहणम् ॥ १०४॥
कुमारस्सापहरणं तेन दुर्वाजिना के च । क्व वा वात्येयमुद्दण्डरजश्छादितपथा ॥ १०५॥ 20 पर्यन्तसामन्तमिव दैवं जित्वा तथापि हि । आनेष्याम्यहमन्विष्य स्खमित्रं स्वामिसन्निभम् ॥ १०६ ॥
कन्दरेषु गिरीन्द्राणां तुङ्गेषु शिखरेषु च । निरन्तरस्तरुस्तोमदुर्गमास्वटवीषु च ॥ १०७ ॥ रोधोरन्धेषु पातालकल्पेषु सरितामपि । निर्जलेष्वपि देशेषु विषमेष्वपरेष्वपि ॥ १०८ ॥ ममाल्पपरिवारस्य क्वचिदेकाकिनोऽपि वा । ईषत्करं चरस्येव कुमारान्वेषणं प्रभो! ॥१०९॥
देवस्यामितसैन्यस्यासम्मातो यत्र कुत्रचित् । तन्नाह ह्रस्वरथ्यायां प्रवेश इव दन्तिनः ॥ ११० ॥ 25 भूयो भूयोऽप्येवमुक्त्वा पादलग्नेन तेन तु । निवर्तितोऽश्वसेनस्तु दुःखितो नगरं ययौ ॥ १११ ॥
मितसारपरीवारो दुर्वार इव वारणः । महेन्द्रसिंहः सहसा प्रविवेश महाटवीम् ॥ ११२ ।। पाषाणैः खैङ्गिविषाणोत्क्षिप्तैर्विषमपद्धतिम् । धर्मार्त्तप्रविशत्कोडेपङ्किलीकृतपल्बलाम् ॥ ११३ ॥ प्रौढभैल्लूकहिकाभिः प्रतिशब्दितगह्वराम् । गह्वरासीनशार्दूलकृतबूत्कारदारुणाम् ॥ ११४ ।। उत्फालचित्रककुलव्याकुलैणकुलाकुलाम् । गलितश्वापदैबढिवाहसैर्वेष्टितद्रुमाम् ॥ ११५॥
.पतेः प्रामु. ॥ भृतान् ह. मु. ॥ १ धारा-अश्वस्य गतिविशेषः । २ अश्वस्य ताडनी कशा 'चाबुक' इति भाषायाम् । ३ वल्गा-'लगाम' इति भाषायाम् । ४ आसनेनोपवेशनेनास्पृष्टं पर्याणं येन सः । शन्नपि ग' का॥ ५ विपरीता शिक्षा यस्य सः। ६ अश्ववाराणाम् । ७ नक्षत्राणाम् । ८ वायुसमूहो वात्या । $लिका का मु०॥ ९ यथा गृहाणि अपटीभिः यमनिकाभिश्छाद्यन्ते तथा। १० स्थापयितुम् । समप्रदेशम् । यो निखिलो जनः। संह॥ ** °टान्यस्य ख मु. ॥ १२ अज्ञातं शीलं यस्य तस्मिन्नश्वे। 11 °मारेणाधिरोहणम् संवृ० का.॥ कवा क का०॥ १३ रोधसा तीराणां रन्ध्रेषु । $षयेव का.॥ १४ टूतस्य । सम्मतो संबृ.॥ *नः खं दु: मु.॥ १५ खड्गी गण्डकः । * तिःप्र संवृ०॥ १६ क्रोडः सूकरः। १७ भलक:-क्षः। १८ एणकूलं मृगकूलम् । बोटं वाका॥ १९ वाइसैः अजगरैः।
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सप्तमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
३.९३ चमूरुचक्रराक्रान्तमार्गच्छायावनीरुहाम् । सिंहीसखीपयःपायिसिंहरुद्धाध्वनिम्नगाम् ॥ ११६ ॥ मत्तकुञ्जरभनाध्वशाखिशाखातिदुर्गमाम् । सनत्कुमारमन्वेष्टुं स विष्वक् तामगाहत ॥ ११७॥
॥ पञ्चभिः कुलकम् ॥ विकटां कण्टकितरुश्वापदैरैवटैः स्थलैः । महाटवीं तामटतस्तस्य सैन्यं व्यशीर्यत ॥ ११८ ॥ खिन्नखिनैर्मुच्यमानो मत्रिमित्रादिकैरपि । त्यक्तसंगो मुनिरिव स एकाकी क्रमादभूत् ॥ ११९ ॥ भूयो महानिकुञ्जेषु गिरीणां कन्दरेष्वपि । पल्लीपतिरिवैकोऽपि स बभ्राम धनुर्धरः ।। १२०॥ बृंहिते वननागानां सिंहगुञ्जारवेष्वपि । सोऽधावत् सनत्कुमारवीरध्वनितशङ्कया ॥ १२१ ॥ स्वमित्रं तत्र चापश्यन्नुच्छलनिर्झरधनौ । तदायिन्यतोऽधावत् प्रेम्णो हि गतिरीदृशी ॥ १२२ ॥ नदीकरिहरीनूचे मद्वन्धो निरेष यत् । स वः पार्श्वे ततो लभ्यं सर्व ोकांशदर्शनात ॥ १२३ ।। सर्वत्रोप्रेक्ष्य सहदमुच्चैरारुह्य शाखिनः । दिशो न्यरूपयद् भूयो मार्गभ्रान्त इवाध्वगः ॥ १२४ ॥ 10 बद्धशोक इवाशोकेष्वाकुलो बकुलेष्वपि । असहः सहकारद्रुष्वमल्लो मल्लिकास्वपि ॥ १२५ ॥ न्यकारी कर्णिकारेषु पाटलः पाटलास्वपि । दूरस्थः सिन्दुवारेषु सोत्कम्पश्चम्पकेष्वपि ॥ १२६ ॥ परामुखश्च मलयानिलेष्वपि खलेष्विव । स्फुटत्कर्णः कोकिलानां पञ्चमोचारितेष्वपि ॥ १२७ ।। अशान्ततापः पीयूषरश्मेरपि हि रश्मिषु । स वसन्तमतीयाय रोरैपुत्र इवैककः ॥ १२८ ॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ 15 कुकूलैरिव विस्तीर्णैः पादपद्मनखम्पचैः । भृज्यमानोऽकांशुतप्तैर्भूरजोभिः पदे पदे ॥ १२९॥ सद्यो निर्वाणदावाग्निभस्मदुःसंचरेऽध्वनि । पादतापमजानानोऽग्निस्तम्भमिव सूत्रयन् ॥ १३०॥ उष्णवात्याभिरनलज्वालाभिरिव भूरिभिः । वपुस्तापमगणयन् करी गिरिचरो यथा ॥ १३१ ॥ काथान् रोगीव सरितां पङ्किलान्यूमेलानि च। पिवन् पयांसि स ग्रीष्मं भ्राम्यन्नेकोऽत्यवाहयत् ॥१३२॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ 20 रक्षोभिरिव जीमूतैरुद्यद्विद्युन्मुखाग्निभिः । अक्षोभ्यमाणहृदयो विश्वविक्षोभणैरपि ॥ १३३ ॥ अखण्डप्रसरैर्धारासारैः शितशरैरिव । विध्यमानोऽपि संनद्ध इवामुह्यन् मनागपि ॥ १३४ ॥ पदे पदे वननदीगोन्मूलितपादपाः । दुस्तरा अप्यनायासं राजहंस इवोत्तरन् ॥ १३५॥ आक्रामन् पङ्किलं मार्ग वराह इव लीलया । मित्रान्वेषी पर्यटन् स वर्षा अप्यत्यवाहयत् ॥ १३६ ॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ 25 मूर्ध्नि चित्रातपं घोरं पादयोस्तप्तवालुकाः । सहमानोऽग्निशरावसंपुटान्तर्वसन्निव ॥ १३७ ॥ खच्छे तोये तोयजेषु हंसादिषु च पक्षिषु । अविश्रान्तमनाः क्वासि क्कासि मित्रैवमुट्टणन् ॥ १३८ ॥ मैंदगन्धिसप्तपर्णक्रुद्धधावितदन्तिनाम् । मध्येन गच्छन् दन्तीव वनान्तरसमागतः ॥ १३९ ॥ सख्येव पवमानेन प्रेययाणोऽजगन्धिना । अत्यगाच्छरदमपि स भ्रमन् शरदभ्रवत् ॥ १४० ॥
॥ चतुभिः कलापकम् ॥ 30 १ चमूरुः हरिणभेदः । २ सिंही सखीव सहचर इव तेन सह पयः पिबद्भिः सिंह रुद्धा मार्गसरितो यस्यां ताम् ॥ * °सखप संवृ० का०॥ ३ गतेः। ४ तन्मित्रमाशङ्कत इति तदाशङ्की। शङ्यान्य का० ॥ ५ यनैकांशदर्शनं तत्र सूर्व भवेदिति न्यायात् । चैत्र प्रे का॥ ६ आम्रवृक्षेषु । ७ तिरस्कर्ता। ८दीनपुत्रः। ५ तुपानलेः। नो. बग्नि संवृ०॥ १० वायूनां समूहो वात्या। | मणानि का०॥ ११ मेधैः । १२ तीक्ष्णबाणः । १३ वर्मितः। १४ चित्रा नक्षत्रं तस्य तापः। १५ कमलेषु। १६ मदो हस्तिमदस्तस्येव गन्धो यस्यैतादशेन सप्तपर्णवृक्षेण क्रुद्धा अत एव धाविताय ते दन्तिनश्च तेषाम् । १७ वायुना।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीत
[चतुर्थ ई उत्तरेण समीरेण हिमाद्रेरिव बन्धुना । हिमसात् क्रियमाणेषु सरसीसरिदम्बुषु ॥ १४१॥ दवाग्निनाऽप्यदायासु दह्यमानासु सर्वतः । जलान्तःपनकल्हारकैरवोत्पलपतिषु ॥ १४२ ॥ शीवार्तेषु किरातेषु दवानलमपीच्छुषु । हेमन्तमन्यतीयाय स बाढं दृढनिश्चयः॥१४३॥ ।
॥त्रिभिर्विशेषकम् ।। शीर्णेषु जानुदनेषु पुष्पपत्रेषु भूरुहाम् । छनाहिवृश्चिकेष्वजिन्यासं निःशङ्कमादधत् ॥ १४४ ॥ कर्णमर्माविद्भिरिव मर्मरैरंतिदुःश्रवैः । प्रबुद्धोत्कर्णपश्चास्यबूत्कारेश्वप्यकम्पितः ॥ १४५ ॥ प्रत्यग्रपल्लवाखादमात्रेणैवोदरम्भरिः । शिशिरं गमयामासाशिशिरो मिन्नपीडया ॥ १४६ ॥
॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ एवं सनत्कुमारस्यान्वेषणायाटतोष्टवीम् । एको महेन्द्रसिंहस्य जगाम परिवत्सरः ॥ १४७ ॥ तस्थामटव्यामन्येचुर्गत्वा कियदवस्थितः । दिशो विलोकयामास नैमित्तिक इधोन्मुखः ॥ १४८ ॥ ततः कारण्डवक्रौञ्चहंससारसपक्षिणाम् । क्षणादाकर्णयामास कोलाहलमनाकुलः ॥ १४९॥ मरुता पङ्कजामोदवाहिनाश्वासितश्च सः । सरः किश्चिदिहास्तीति निश्चिकायानुमानतः ॥ १५॥ आनन्दवाष्पतोयेन निश्चिन्वन् मित्रसंगमम् । सरोवरस्याभिमुखं स ययौ राजहंसवत् ॥ १५१॥ गच्छन्नग्रे च शुश्राव गीतं गान्धारबन्धुरम् । मधुरं वेणुनादं च वीणाकाणं च हारिणम् ॥ १५२ ॥ विचित्रवस्त्रनेपथ्यरमणीमध्यवर्तिनम् । मित्रं सनत्कुमारं स ददर्श प्रियदर्शनम् ॥ १५३ ॥ असौ प्रियसुहृत् किं मे माया कस्यापि कापि वा । इन्द्रजालमिदं किं वा हृदयानिर्गतोऽथ मे ।। १५४ ॥ इति सोऽचिन्तयद् यावत् तावत् कर्णरसायनम् । वैतालिकेन केनापि पठ्यमानमदोऽशृणोत् ॥ १५५ ॥ कुरुवंशसरोहंसाश्वसेनाब्धिनिशाकर! । सनत्कुमार! सौभाग्यमनोभव! चिरं जय ॥१५६ ॥
जय विद्याधरवधूदोलतालिङ्गनद्रुम! । आत्यम्भविष्णो ! वैतादयश्रेणिद्वयजयश्रिया ॥१५७ ॥ 20 एवं समाकर्ण्य सनत्कुमारस्य स दृक्पथम् । जगाम ग्रीष्मसंतप्तो जलाशयमिव द्विपः ॥ १५८ ॥
हर्षाश्रुधारया तुल्यं स पतन् पादपद्मयोः । अभ्युत्थायो त्य सनत्कुमारेणाभिषखजे ॥ १५९ ॥ उभौ होश्रु वर्षन्तौ वार्षिकाविव वारिदो । सविस्मयाँवप्रतक्यपरस्परसमागमात् ॥ १६०॥ साश्चर्वीक्ष्यमाणौ तौ विद्याधरकुमारकैः । महाासनयोरासाश्चक्राते रोमहर्षिणौ ॥ १६१॥ अनन्यदृष्टिमनसौ तावभूतां परस्परम् । योगिनाविव रूपस्थध्यानमुद्रापरायणौ ॥ १६२॥ सनत्कुमारकुमारयोगाद् दिव्यौषधादिव । तदा महेन्द्रसिंहस्य श्रमो रोग इवात्रुटत् ॥ १६३ ।। सनत्कुमारो हर्षाश्रु प्रमृज्याथ खचक्षुषोः । महेन्द्रसिंहमित्यूचे ससुधोद्गारया गिरा ॥ १६४ ॥ कथमत्र समायासीरेकाक्यासीः कथं नु वा । मामज्ञासीः कथं वाऽत्र कथं वा कालमक्षिपः ॥ १६५ ।। मद्वियोगे पितृपादाः कथं प्राणानधारयन् । कथं पितृभ्यामेकाकी प्रेषितोऽसीह दुर्गमे १ ॥ १६६ ॥ इति पृष्टः कुमारेण बाष्पगद्गदवागथ । महेन्द्रसिंहः प्राग्वृत्तमाचचक्षे यथातथम् ॥ १६७ ॥ ततः सनत्कुमारस्तं विद्याधरवधूजनैः । चतुरैः कारयामास मंजनं भोजनादि च ॥ १६८ ॥ महेन्द्रसिंहस्तदनु विसंयमेरलोचनः । सनत्कुमारमित्यूचे विनयाद् रचिताञ्जलिः ॥ १६९ ॥ वदा तेन तुरङ्गेणापहतः कियती भुवम् । तदादि मद्वियोगे च प्राप्त किमथवा त्वया ॥ १७ ॥ इयमृद्धिः कुतो वा ते प्रसीदाख्यातुमर्हसि । रहस्यभूतमेतत् ते गोपनीयं न चेन्मयि ॥ १७१ ॥ सनत्कुमार इत्युक्तश्चिन्तयामास चेतसि । आत्मकल्पे वयस्येऽस्मिन् गोपनीयं न किश्चन ॥ १७२ ॥
*षु जीर्णपणेषु जानुदनेषु भू मु०॥ १छन्नाः साश्च वृश्चिकाच येषु तेषु । । रवदु संवृ. ॥ २ पनाम: सिंहः। ३ तप्तः। शोऽवलो का० ॥ ४ मनोहरम् । ५ समम् । ६ उत्थाप्य । ७ तर्कितुमशक्यः परस्परसमागममान।
गमी। संवृ०॥ मो वेग संवृ०॥ आगतः । ९ नानम्। १. विस्मयेन प्रफुल्लनेत्रः। ११ तत्प्रभृति । १२ खखसी।
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सप्तमः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । परैरप्युच्यमानेन स्ववृत्तेन संताऽपि हि । महापुमांसो लजन्ते तत् खवृत्तं कथं त्रुवे ? ॥ १७३॥ भवत्वेवं तावदिति विनिश्चित्याश्वसेनमूः । इत्यादिदेश दयितां वामपार्श्वे निषेदुषीम् ॥ १७४॥
प्रिये बकुलमतिके! विद्यया वेद्यवेदिनि ! । अस्मै महेन्द्रसिंहाय तथ्यां कथय मत्कथाम् ॥ १७५ ॥ मुकुलीकुरुते नेत्राम्भोजे निद्रा तु मेऽधुना । इत्युदित्वा रतिगृहं सुषुप्सुः प्रविवेश सः॥ १७६ ॥ ततो बकुलमतिरप्यवोचत् तत्र वासरे। सखा ते वोजिना जहे युष्माकं पश्यतामपि ॥ १७७ ॥ प्रवेशितश्च महतीमटवीमतिदारुणाम् । रहाक्रीडास्थानमिव देवस्य सैमवर्तिनः ॥ १७८ ॥ गच्छन्नहि द्वितीयेऽपि सोऽश्वः पञ्चमधारया । मध्याह्ने क्षुत्पिपासातः कृष्ट्वा जिह्वामवास्थितः ॥ १७९ ॥ तस्साच्छ्वासापूर्णकण्ठात् स्तब्धपादात् तुरङ्गमात् । आर्यपुत्रोऽप्यवातारीत् प्रेपित्सोः कुट्टिमादिव ॥ १८०॥ छोटयित्वा तदुदंरबन्धिनं पट्टमायतम् । सोऽश्वादुत्तारयामास पर्याणकविके स्वयम् ॥ १८१ ॥ तुरङ्गमः स चूर्णित्वा पपात धरणीतले । सद्यश्च मुमुचे प्राणैः सहपातभयादिव ॥ १८२ ॥ 10 पिपासयाऽथार्यपुत्रः पयोऽन्वेष्टुमितस्ततः । तस्यामटव्यां बभ्राम नापश्यच्च मराविव ॥ १८३ ॥ सुकुमारतयाऽङ्गस्य दूरायांतश्रमेण च । दवदाहादटव्याश्च व्याकुलोऽभूत् सखा तव ॥ १८४ ॥ गत्वाऽदूरात् सप्तपर्णतरुमूले द्रुतं ततः । उपाविक्षन्मुकुलितेक्षणः क्षोण्यां पपात च ॥ १८५॥ तदा चामुं पुण्यवशाद् यक्षस्तद्वनदैवतम् । जलैः सिषेच सर्वाङ्ग शिशिरैरमृतोपमैः ॥ १८६ ॥ उत्थाय लब्धसंज्ञोऽसौ तद्दत्तं तत्पयः पपौ । कस्त्वं कुतो वा वारीदमित्यपृच्छच्च तं शनैः ॥ १८७ ॥ 18 यक्षोऽहमिह वास्तव्यो मानमात् त्वत्कृते पयः । इदं मया समानीतमित्याचख्यौ स यक्षराट् ॥१८८॥ आर्यपुत्रोऽवदद् भूयः संतापोऽङ्गे महानयम् । न विना मानससरोमजनादपयास्यति ॥ १८९ ॥ तवेच्छां पूरयाम्येष इत्युक्त्वा यक्षपुङ्गवः । कदलीसंपुटे क्षिप्वाऽमुं मानससरोऽनयत् ॥ १९० ॥ तत्र च स्मपयामाँसार्यपुत्रं स यथाविधि । गजराज गंजायुक्त इव शीतामलै लैः ॥ १९१ ॥ सर्वाङ्गीणं सुखस्पर्शेरपनिन्ये श्रमो जलैः । आर्यपुत्रस्य निपुणैः संवाहकजनैरिव ॥ १९२ ॥ सत्रासिताक्षो यक्षः प्राग्जन्मारिः सुहृदस्तव । हननाय समागच्छत् कृतान्त इव नूतनः ॥ १९३ ॥ अरे रे ! तिष्ठ सिंहेन क्षुधितेनेव कुञ्जरः । चिरादसि मया दृष्टः कियडूरं गमिष्यसि ? ॥ १९४ ॥ इस्यूजितं स तेर्जित्वा समुन्मूल्यैकमनीपम् । आर्यपुत्राय सोऽनार्यः प्राक्षिपद् यष्टिलीलया ॥ १९५ ॥ समापतन्तं हस्तेन निहत्यापातयद् द्रुमम् । तिं ते सखा प्रतिकारभखामिव मतङ्गजः ॥ १९६ ॥ ततो बहलधूलीभिरन्धकारमयं जगत् । अकालोत्पन्नकल्पान्तमिव यक्षश्चकार सः॥ १९७॥ स विचक्रे पिशाचाँश्च धूमधूम्रकलेवरान् । सोदरानन्धकारस्य दारुणाकारधारिणः ॥ १९८ ॥ । ज्वालाजालकरालास्यास्ते चित्या इव जङ्गमाः। अट्टहासं विमुश्चन्तः पतत्पविरवोपमम् ॥ १९९॥ पिङ्गकेशाः पिङ्गनेत्राः संदवा इव पर्वताः । लम्बजिह्वाः कोटरान्तःस्थिताहय इव द्रुमाः ॥ २०० ।। तीक्ष्णवका महादंष्ट्रा दधानाः कत्रिका इव । अधावन्तीध्यार्यपुत्रमधिमध्विव मक्षिकाः ॥२०१॥
॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ प्राम्यतो विकृताकारान् रङ्गादाविव नर्तकान् । आर्यपुत्रोऽपि तान् पश्यन् न विभाय मनागपि ॥२०२॥
सत्येनापि । * ° रेकुमारो वा का.॥ २ अश्वेन । ३ यमराजस्य । ४ गतिविशेषेण । ५ प्रपतितुमिच्छोः । दरं बन्धनं का. ॥ ६ पर्याणं अश्वपृष्ठाच्छादनम् , कविका वल्गानुगता 'चोकडा' इति ख्याता। °यानश्र संवृ० का.. भ्यामाकु संवृ. ॥ ७ तन्नाम्नः सरोवरात् । त्वा तं मा संबृ. का. . * "मास कुमारं स य संवृ. ॥ हस्तिपका। तिरस्कृत्य । १० वृक्षम्। || तं कुमारप्र संबृ. ॥ ११ गजग्रहणोपाय भूतां भस्वाम्-लोहधमनीम्, 'भट्ठी' इति भाषायाम् । १२ भन्नयः। ॥ दवानलसहिताः। ताधिकुमारमधि संबृ. ॥
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कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थ पर्व
पिशाचेभ्योऽप्यचकितमार्यपुत्रं तरखिनम् | अकालकालपाशा भैर्नागपाशैबन्ध सः ॥ २०३ ॥ आर्यपुत्रस्तु तान् सर्वांस्त्रोटयामास लीलया । हस्तोत्क्षेपेण हस्तीवाविहस्तो वल्लिमण्डपम् ॥ २०४ ॥ अमुं यक्षो विलक्षोऽथ करघा तैरताडयत् । महागिरिप्रस्थमिव लाङ्गूलाच्छोटनैर्हरिः ॥ २०५ ॥ आजघानार्यपुत्रस्तं वज्रसारेण मुष्टिना । महामात्र इव क्रुद्धी लोहगोलेन दन्तिनम् || २०६ ॥ 5 अयोवलयितेनाथ मुद्गरेण गरीयसा । आर्यपुत्रं न्यहन् यक्षस्तडितेवाद्रिमम्बुदः ॥ २०७ ॥ चन्दनद्रुमुन्मूल्य तेन वर्धिष्णुराहतः । यक्षः पपात भुव्युर्द्धशोषं शुष्क इव द्रुमः ॥ २०८ ॥ यक्षोऽपि शैलमुत्क्षिप्य लीलया गण्डशैलवत् । आर्यपुत्रस्योपरिष्टा चिक्षेपामर्षणः क्षणात् ॥ २०९ ॥ तेन शैलप्रहारेण जज्ञे निश्चेतनः क्षणम् । सायं नदीहद इव मीलितेक्षणपङ्कजः ॥ २१० ॥ लब्धसंज्ञो विधूयाद्रिं महावायुरिवाम्बुदम् । आर्यपुत्रः प्रववृते बाहुभ्यां योद्धुमुच्चकैः || २११ ॥ 10 दण्डेन दण्डभृदिव दोर्दण्डेन सखाऽपि तम् । चक्रे निहत्य ते कणशः सोऽमरत्वात् तु नामृत ॥ २१२ ॥
ततो विरसमारय मुमूर्षन्निव सूकरः । असिताक्षः पलायिष्ट वायवीयेन रंहसा ।। २१३ ॥ रणकौतुकवीक्षिण्यः सुरविद्याधराङ्गनाः । त्वन्मित्रे ववृषुः पुष्पाण्यृतुश्रिय इव स्वयम् ॥ २१४ ॥ अपराह्ने ततोऽचालीन्मानसाद् धीरमानसः । आर्यपुत्रो ययौ बाह्यां भुवं मत्त इव द्विपः ॥ २१५ ॥ नन्दनात् तत्र चायात असौ खेचरकन्यकाः । ईक्षाञ्चक्रे रूपवतीः मँरजीवातुसन्निभाः ॥ २१६ ॥ 15 सैंखा ते ताभिरप्यैक्षि हावभाव मनोहरम् । स्वयंवरस्रज इव क्षिपतीभिर्दृशोऽलसाः ॥ २१७ ॥
आविविकीर्षुः सद्भावमार्यपुत्र उपेत्य ताः । सुधामधुरया वाचा प्रोवाचार्यो वचखिनाम् ।। २१८ ॥ यूयं महात्मनः कस्य पुत्र्यः कुलविभूषणम् । युष्माभिर्भूषितं चेदमरण्यं केन हेतुना । ॥ २१९ ॥
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चुर्महाभाग ! विद्याधरमहीपतेः । श्रीमतो भानुवेगस्य वयमष्टापि कन्यकाः ॥ २२० ॥ इतश्चानतिदूरेऽस्ति तातस्य नगरी वरा । तामलङ्कुरु विश्रान्त्या राजहंस इवार्जिनीम् ॥ २२९ ॥ इत्युक्तः प्रश्रयात् ताभिः सखा ते तत्पुरीमगात् । सान्ध्यं विधिं कर्तुमिवाम्भोधौ भानुर्मम च ॥ २२२ ॥ वरचिन्ताशल्यभृतो विशल्यकरणौषधिः । ताभिः सखा ते स्वपितुरन्तिकेऽनायि सौविदैः ॥ २२३ ॥ अभ्युत्थानं भानुवेगः कृत्वैवं तमभाषत । दिष्ट्या नः सदनं पुण्यं पुण्यराशिर्यदागमः ॥ २२४ ॥ आकृत्याऽपि ज्ञायसे त्वं महावश्यो महाभुजः । इन्दोः क्षीरार्णवाजन्म मूर्त्त्याऽपि नुमीयते ।। २२५ ॥ यत् कन्यानां त्वमुचितो वरोऽसीति मयाऽर्थ्य से । इमाः परिणयाष्टापि रलं स्वर्णे हि योज्यते ॥ २२६ ॥ एवमभ्यर्थितस्तेन तदैव विधिपूर्वकम् । ता दिश्रिय इवाष्टापि पर्यणैपीत् सखा तव ।। २२७ ॥ ताभिः समं रतिगृहे सुप्तोऽसौ बद्धकङ्कणः । निद्रासुखं चान्वभवद् रत्नपर्यङ्कमास्थितः ॥ २२८ ॥ निद्रापराजितं चैतमसिताक्षः क्षणादपि । उत्क्षिप्यान्यत्र चिक्षेप बलिभ्योऽपि छलं बलिः ॥ २२९ ॥ पश्यन् सखा ते निद्रान्ते खं भूमिष्ठं सकङ्कणम् । एकाकिन मरण्यान्तदध्यौ किमिदमित्यथ ॥ २३० ॥ सावनटव्यन्तरेका की पूर्ववत् पुनः । अभ्रंलिहं ददशैकं प्रासादं सप्तभूमिकम् ॥ २३९ ॥ कस्यापि मायिनोऽदोऽपि मायाविलसितं किमु । इत्याभ्रंशन्नार्यपुत्रस्तं प्रासादं समासदत् ॥ २३२ ॥
*
१ बलिनम् । २ अमन्दः । 'डलम् ॥ संबृ. का. ॥ t तं च य' संबृ. ॥ ३ विषण्णः । + रघातयत् मु. ॥. त् । उपरिष्टात् कुमारस्य चिक्षे संबृ. ॥ ४ दण्डधारी वरुणो वा यमः । ॥ 'क्रे कुमारः क° सं. ॥ $ तु नोऽमृत ॥ का. ॥ ५ वायुसदृशेन । ** नाः । कुमारे व° संबृ. ॥ff वाल्यां भु° मु. ॥ 1 °ता सविद्याधरकम्य सं. ॥ ६ कामदेव जीवनतुल्याः । * कुमारस्ताभिसंवृ. ॥ ७ कमलिनीम् । ८ विनयात् । + भिः कुमारस्तत्पु संबृ. ॥ + भिः कुमारः स्व संबृ. ॥ ९ अन्तःपुरचारिभिः नपुंसकनरैः । ९ कृत्वेत्य मुम मु. ॥ नू कुमारो नि° संबृ. ॥ चित्ते किम (मित्यथ ॥ संबु. ॥ ९६ स पर्यटन्नटव्य संबृ. ॥ १० आकाशगामिनम् । ११ विचारयन् ।
#ध्यौं
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सप्तमः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । कस्याश्चिद् योषितस्तत्र कुररीकरुणखरम् । अश्रौषीद् रुदितं व्यक्तं वनान्तमपि रोदयत् ॥ २३३ ॥ आर्यपुत्रो दयावीरः प्रासादे तत्र सप्तमीम् । आरोहद् भूमिका धिष्ण्य विमानभ्रान्तिदायिनीम् ॥ २३४ ॥ सनत्कुमार कौरव्य! मम जन्मान्तरेऽपि हि । भर्ता भूयास्त्वमेवेति भूयो भूयोऽभिशंसिनीम् ॥ २३५॥ अश्रुपूर्णक्षणां दीनां कन्यामेकांमधोमुखीम् । रूपलावण्यपुण्याङ्गी सखा ते तत्र चैक्षत ॥ २३६ ॥ स्वनामश्रवणात् केयं ममेत्याशङ्कितोऽथ सः । पुरोभूयेत्यभाषिष्ट प्रत्यक्षेवेष्टदेवता ॥ २३७॥ भद्रे! सनत्कुमारः कः कासि त्वं किमिहागता । किं वा ते व्यसनं येन तं स्मरन्तीति रोदिषि ॥२३८॥ इत्युक्ता तेन सा बाला बलादाह्रादमीयुषी । पीयूषमिव वर्षन्ती गिरा मधुरयाऽवदत् ॥ २३९ ॥
साकेतपुरनाथस्य सुराष्ट्रस्य महीपतेः । देव्याश्च चन्द्रयशसः सुनन्दा नाम पुज्यहम् ॥ २४॥ कुरुवंशनभोभानोरश्वसेनस्य भूपतेः । सूनुः सनत्कुमारस्तु रूपन्यकृतमन्मथः ॥ २४१ ॥ स मनोरथमात्रेण भर्ता मम महाभुजः । तस्मै पितृभ्यां दत्ताऽस्मि यस्माद्दुदकपूर्वकम् ।। २४२ ॥ ततोऽकृतविवाहां मामेको विद्याधरात्मजः । स्वकुट्टिमादिहानैपीत् पैरस्वमिव तस्करः ॥ २४३ ।। इमं विकृत्य प्रासादं मामत्रैव विमुच्य च । क्वापि विद्याधरः सोऽगान्न जाने किं भविष्यति ॥ २४४ ॥ अवोचदार्यपुत्रोऽपि मा भैपीः कातरेक्षणे ! । सनत्कुमारः सोऽस्म्येष कौरव्यो यं सरस्यलम् ॥ २४५ ॥ प्रत्यभाषिष्ट साऽप्येवं चिराद् दृष्टिपथेऽद्य मे । देव ! देवेन सुस्वममिव दिष्ट्याऽसि दर्शितः ॥ २४६ ॥ एवं तयोरालपतोरागात क्रोधारुणेक्षणः । विद्याधरो वजवेगाभिधानोऽशनिवेगमः ।। २४७॥ उत्पाट्योल्लालयामास स विद्याधरदारकः । आर्यपत्रं समत्पातिखेचरभ्रमदायिनम ॥ २४८॥ हा नाथ नाथ! दैवेन निहताऽस्मीति भाषिणी । मूर्च्छया सा महीपृष्ठे शीर्णपर्णमिवापतत् ॥ २४९ ॥ क्रुद्धः सन्नार्यपुत्रोऽपि मुट्या मशकमुष्टिवत् । वौजसा वज्रवेगमवधीत् तं दुराशयम् ॥ २५० ॥ अक्षताङ्गस्तदभ्यर्णमार्यपुत्रः समाययौ । नेत्रनीलोत्पलानन्दं जनयंश्चन्द्रमा इव ॥ २५१॥ समाश्वास्य च तां सद्यः पर्यणैपीन्मनीष्यसौ । नैमित्तिकवरैः सा हि स्त्रीरत्नमिति सूचिता ॥ २५२ ॥ 20 आगात् तत्र क्षणेनापि वज्रवेगस्य सोदरा । कन्या सन्ध्यावली नामाकुप्यद् भ्रातृवधाच सा ॥ २५३ ॥ 'भर्ता ते भ्रातृवधको भावीति' ज्ञानिनां वचः। स्मृत्वाऽशाम्यत् क्षणेनापि स्वलोभः कस्य नोपरि ॥२५४॥ जयश्रीः सा द्वितीयेव स्वयंवरपरायणा । आर्यपुत्र नाथमिच्छन्त्युपतस्थे कुमारिका ॥ २५५ ॥ अनुज्ञातस्त्वत्सखाऽथानन्दसाजा सुनन्दया । गान्धर्वेण विवाहेन तामुपायंस्त रागिणीम् ॥ २५६ ॥ एत्य विद्याधरौ द्वौ च तदानीमाश्वसेनये । महारथं संसन्नाहमुपनीयेत्यवोचताम् ।। २५७ ॥ त्वया हतं वज्रवेगं गरुडेनेव पन्नगम् । विज्ञायाशनिवेगस्तत्पिता विद्याधरेश्वरः ॥२५८॥ विद्याधरबलच्छन्नदिक्को दिक्करिविक्रमः । त्वां योधयितुमेत्येष रोषक्षाराम्बुसागरः ॥ २५९ ॥ पितृभ्यां चन्द्रवेगेन भानुवेगेन चेरितौ । आवां श्वशुर्यों भवतः साहाय्यार्थे समागतौ ॥ २६० ॥ तत्प्रेषितं रथं चामुमारोहेन्द्ररथोपमम् । अमुं चाऽऽमुश्च सन्नाहं विजयस्व द्विषां बलम् ॥ २६१॥ चन्द्रवेग-भानुवेगौ वाहनैर्वायुवेगिभिः । साहाय्यायागतौ विद्धि निजे मूर्ती इवापरे ॥ २६२॥ 30 तौ तदानीमपि महावाहिनीको समेयतुः । चन्द्रवेग-भानुवेगावब्धी पूर्वापराविव ॥ २६३॥ तदा चाशनिवेगस्यागच्छतः सैन्यसञ्चयैः । उत्तस्थे तुमुलो व्योम्नि पुष्करावर्त्तकैरिव ॥ २६४ ॥
१ कुररीवत् करुणः स्वरो यस्मिन् । * °दितमसौ व मु.॥ कुमारोऽपि द. संबृ०॥ २धिष्ण्यं नक्षत्रं तारा वा। योऽपि शंसिनीम् ॥ मु. ॥ श्री कुमारस्तत्र संबृ०॥ ३ संकल्पपूर्वकम् । ४ परधनम् । $उवाच राजपु संवृ०॥ ५ अधीरेक्षणे । ६ अतिशयेन । ७ बुद्धिमान् । ८ भगिनी। ** °णा । अथार्यपुत्रं नाथीयन्त्यु संवृ०॥tta: कुमारोऽथा संवृ०॥ ९ अश्वसेनस्य पुत्राय । १० कवचसहितम् । ११ परिधेहि। 11 त्तस्थी तु मु.॥
त्रिषष्टि. ५१
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[ चतुर्थ पर्व
तदानीमार्यपुत्राय सन्ध्यावलिरदत्त सा । विद्यां प्रज्ञप्तिकां नाम भर्तृगृह्या हि योषितः ॥ २६५ ॥ आर्यपुत्रोsपि सन्नह्य समारुह्य च तं रथम् । रणायोत्कण्ठितस्तस्थौ क्षत्रिया हि रणप्रियाः ॥ २६६ ॥ चन्द्रवेग-भानुवेगादयो विद्याधरा अमुँम् । स्वसैन्यैर्वत्रिरे वैरियशोविधुविधुन्तुदाः ॥ २६७ ॥ गृहीत गृह्णीत हत हतेति च विभाषिणः । आगमन्नतिवेगेनाशनिवेगस्य सैनिकाः ॥ २६८ ॥ उभयोरप्ययुज्यन्त सैन्या दैन्यंविनाकृताः । ताम्रचूडा इदोत्पत्योत्पत्यामर्षात् प्रहारिणः ।। २६९ ॥ तेषां क्ष्वेडारवादन्यन्न किञ्चिच्छुश्रुवे तदा । तदायुधेभ्यो दीप्तेभ्यो नान्यत् किश्चित् त्वदृश्यत ॥ २७० ॥ अपासर्पनुपासर्पन् प्रहारानसकृद् ददुः । प्रतीषुश्च रणविदः सुभटाः कुञ्जरा इव || २७१ ॥ युद्धा चिरेण भग्नेषु सैनिकेषु द्वयोरपि । समुत्तस्थेऽशनिवेगो रथेनानिलवेगिना ।। २७२ ॥
भो भोः! क्व वज्रवेगारिर्यमागारनवातिथिः । इत्याक्षिपन् परानुचैः साधिज्यं विदधे धनुः ॥ २७३ ॥ 10 एषोऽहं वज्रवेगारिर्यमागारनवातिथिः । इति ब्रुवन्नार्य पुत्रोऽप्यार्ततज्यं धनुर्व्यधात् ॥ २७४ ॥ ततः प्रववृते युद्धं द्वयोरपि महौजसोः । शराशरि तिरोभूत दिवाकरकरोत्करम् ॥ २७५ ॥ द्वाप्यार्यपुत्र विद्याधरेशौ मारतत्परौ । युद्धा गदाद्यैरप्य त्रैरसंजातपराजयौ ॥ २७६ ॥ सार्पगारुत्मताग्नेयवारुणास्त्रैस्तु दारुणैः । दिव्यैरस्त्रैरयुध्येतामन्योऽन्यं बाध्यबाधकैः ॥ २७७ ॥ युग्मम् ॥ विद्याधरपतेश्चापमास्फाल्योन्मुञ्चतः शरम् । आर्यपुत्रः सायकेन जीवीं जीवमिवाच्छिदत् ॥ २७८ ॥ मण्डलाग्रमथाकृष्याशनिवेगस्य धावतः । यशोऽर्धमिव दोरधं निचकर्त्ताश्वसेनभूः ॥ २७९ ॥ भग्नैकदन्तो दन्तीव दंष्ट्रीवास्तै कंदंष्ट्रिकः । छिन्नैकभुजदण्डोऽपि सोऽतिक्रोधादधावत ॥ २८० ॥ ग्रहतुं धावतस्तस्य दर्शनैर्दशतोऽधरम् । विद्यार्पितेन चक्रेण शिरश्चिच्छेद मत्पतिः ॥ २८१ ॥ ततश्वाशनिवेगस्य राज्यलक्ष्मीः समन्ततः । मम भर्तरि संधाता विक्रान्तो हि श्रियां पदम् ॥ २८२ ॥ चन्द्रवेगप्रभृतिभिः समं विद्याधरेश्वरैः । गिरिं जगाम वैताढ्यमाश्व से निरशङ्कितः ॥ २८३ ॥ 20 विद्याधरमहाराज्याभिषेकोऽमुष्य तत्र च । विद्याधरेन्द्रैर्विदधे प्रपेदानैः पदातिताम् ॥ २८४ ॥ शाश्वतार्हत्प्रतिमानां तंत्रैषोऽप्रतिमर्द्धिकः । नन्दीश्वरे शक्र इव विदधेऽष्टाहिकोत्सवम् ॥ २८५ ॥ अथार्यपुत्रमन्येद्युर्विद्याधरशिरोमणिः । चन्द्रवेगो मम पिता सप्रश्रयमदोऽवदत् || २८६ ।। astra मया पूर्वपूर्वमहिमा मुनिः । ज्ञानरत्नाकरो दृष्टः स पृष्टः शिष्टवानिति ॥ २८७ ॥ वेदं बकुलमतिप्रमुखं कन्यकाशतम् । चक्री चतुर्थोऽत्र सनत्कुमारः परिणेष्यति ॥ २८८ ॥ कथं गम्यः कथं प्रार्थ्यः कन्या दातुमभूः स तु । इति चिन्ताजुषो मे त्वं भाग्यैरिह समागमः ॥ २८९ ॥ तत् प्रसीद शतं कन्या अमूः परिणय प्रभो ! । याञ्चा ह्यमोघा महताममोघं च ऋषेर्वचः ॥ २९० ॥ प्रार्थितो मम पित्रैवर्मंर्थिचिन्तामणिस्तदा । पर्यणैषीत् तव सुहृच्छतं कन्या मदादिकाः ।। २९१ ॥ कदाचिच्चारुसंगीतैः कदाचिद् वरनाटकैः । कदाप्याख्यानकवरैः कदाप्यालेख्यवीक्षणैः ॥ २९२ ॥ कदाचिद् दिव्यवापीषु जलक्रीडामहोत्सवैः । कदाप्युद्यानवीथीषु पुष्पोच्चयनकेलिभिः ।। २९३ ।। 30 कदाचिदन्याभिरपि क्रीडन् क्रीडाभिरेष ते । विद्याधरैः परिवृतोऽनैपीत् कालं सुखं सखा ॥ २९४ ॥ ।। त्रिभिर्विशेषकम् ॥
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३९८
शब्दात् ।
अपि । तं से संबृ० ॥ १ वैरिणां यश एव चन्द्रस्तस्मिन् राहुसदृशाः । २ दीनतारहिताः । ३ कुर्कुटाः । ४ गर्जना५ प्रतिजग्मुः । तिथे । इ° मु० ॥ ६ आतता विस्तीर्णा ज्या यस्मिन् । ७ तिरोभूतः सूर्यकिरणसमूहो यस्मिन् तत् । ८ धनुर्गुणम् । ९ नष्टैकदंष्ट्रः । १० दन्तैः । ११ संधास्यति । १२ विक्रमी । * षेकस्तत्र तस्य च संवृ० ॥ १३ प्राप्तैः । तत्र सोऽप्र° संवृ० ॥ ॥ मा मतिः । ज्ञा' संबृ० ॥ १४ कथितवान् । \ तदेवं ब संबृ० ॥ १५ चिन्तासेविनः चिन्तातुरस्येति यावत् । १६ याचकेषु चिन्तामणिसमानः । ** 'सं०' 'का०' इत्येतयोरादर्शयोर्नास्ति पदद्वयमेतत् ॥
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सप्तमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् ।
३९९ क्रीडानिमित्तमधुना विहागात् तव बान्धवः । मिलितस्त्वं च दलितो दुर्दैवस्य मनोरथः ॥ २९५ ।। इत्युक्तवत्यां बकुलमत्यां रतिनिकेतनात् । सनत्कुमारो निरगाभदादिव मतङ्गजः ॥ २९६ ॥ समं महेन्द्रसिंहेन विद्याधरसमावृतः । वैताढ्याद्रिं ततः सोऽगात् सुमेरुमिव वासवः ।। २९७ ॥ स कालं गमयन्नृद्धया महत्या परिबृंहितः । महेन्द्रसिंहेनान्येधुर्व्यज्ञपीदं यथोचितम् ।। २९८ ॥ तव ऋद्ध्याऽनया स्वामिन् ! मनो मे मोदतेतमाम् । पितरौ त्वद्वियोगातौ स्मारं स्मारं च सीदतः ॥ २९९ ॥ असौ सनत्कुमारोऽसौ महेन्द्र इति तन्मयम् । पितरौ पश्यतो विश्वं मन्ये तनयवत्सलौ ॥ ३०॥ तत् प्रसीदाभिगच्छामो नगरं हस्तिनापुरम् । आनन्दय पितृजनं शशाङ्क इव सागरम् ॥ ३०१॥ तेनेत्यभिहितः सख्या सोत्कण्ठः सोऽपि तत्क्षणात् । विद्याधराधिपशतैश्चमूयुक्तः समावृतः ॥ ३०२॥ विमानैर्भासुरैः कुर्वन् नानाऽऽदित्यमिवाम्बरम् । विद्याधरैः कैश्चिदपि विकृतातपवारणः ॥ ३०३ ॥ उद्भूतचामरः कैश्चित् कैश्चिदप्यूढपादुकः । कैश्विद् गृहीतव्यजन आत्तवेत्रश्च कैश्चन ॥ ३०४ ॥ 10 ध्रियमाणस्थगिकोऽन्यैः कथ्यमानपथोऽपरैः । दर्यमानविनोदोऽन्यैस्स्तूयमानगुणोऽपरैः ।। ३०५ ॥ कैरपि द्विरदारूढेरश्वारूढैश्च कैश्चन । कैश्विञ्च स्पन्दनारूढः खे कैश्चित् पादचारिभिः ॥ ३०६ ॥ सकलत्रः समित्रश्वामित्रशैलमहाशनिः । सनत्कुमारः संप्राप नगरं हस्तिनापुरम् ॥ ३०७ ॥
॥षइभिः कुलकम् ॥ पितरौ तत्र दुःखातौ पौराँश्च निजदर्शनात् । स समानन्दयद् ग्रीष्मतापाानिव वारिदः ॥ ३०८॥ 15 सनत्कुमारं स्खे राज्येऽश्वसेननृपतिबंधात् । महेन्द्रसिंह तत्सेनाधिपत्ये प्रीतमानसः ॥ ३०९॥ श्रीधर्मतीर्थकृत्तीर्थे स्थविराणामथान्तिके । परिव्रज्यां समादाय राजा स्वार्थमसाधयत् ।। ३१० ॥ राज्यं सनत्कुमारस्य परिपालयतः सतः । महारत्नान्यजायन्त चक्रादीनि चतुर्दश ॥ ३११ ॥ ततः स साधयामास चक्रमार्गानुगः स्वयम् । षट्रखण्डं भरतक्षेत्रं नैसर्पाद्यान् निधीनपि ॥ ३१२ ॥ देशभिर्वर्षसहस्रैः साधयित्वा स भारतम् । प्राविशद् रत्नभूतेन हस्तिना हस्तिनापुरम् ॥ ३१३॥ 20 प्रविशन्तं महात्मानमवधिज्ञानतोऽथ तम् । वीक्षाञ्चक्रे सहस्राक्षः साक्षात् स्वमिव सौहृदात् ॥ ३१४॥ सौधर्मेन्द्रः पूर्वजन्मन्यसौ मे तेन बान्धवः । इति स्नेहबशाच्छकः कुबेरमिदमादिशत् ।। ३१५ ॥ अयं शंकचरश्चक्री कुरुवंशाब्धिचन्द्रमाः । राज्ञोऽश्वसेनस्य सुतो महात्मा बन्धुवन्मम ।। ३१६ ॥ सनत्कुमारः षट्खण्डं साधयित्वाऽद्य भारतम् । स्वपुरं प्रविशत्येषोऽभिषेकोऽस्य विधीयताम् ॥ ३१७ ॥ हारं च शशिमालां चातपत्रं चामरे अपि । मकुटं कुण्डलयुगं देवदष्यद्वयीमपि ॥ ३१८॥
25 सिंहासनं पादके च पादपीठं च भासुरम् । सद्यः सनत्कुमारार्थ कुबेरस्यार्पयद्धरिः॥३१९॥ तिलोत्तमोर्वशीमेनारम्भातुम्बुरुनारदान् । अन्यानपीन्द्रस्तदभिषेकायाशु समादिशत् ॥ ३२० ॥ ततः कुबेरस्तः सार्धमेत्य नागपुरे वरे । आख्यत् सनत्कुमाराय तमादेशं दिवस्पतेः ॥ ३२१ ॥ सनत्कुमारानुज्ञातो विचकारैकयोजनम् । माणिक्यपीठं धनदो रोहणारेस्तटीमिव ॥ ३२२ ॥ सर्व मण्डपं दिव्यं मणिपीठं च मध्यतः । सिंहासनं तदुपरि विदधे धनदः क्षणात् ॥ ३२३ ॥ 30 क्षीरोदात् त्रिदशैरम्भोऽथानायि धनदाज्ञया । गन्धमाल्यादि चानयं सर्वेरपि च पार्थिवैः ॥ ३२४ ॥ सनत्कुमारं विज्ञप्य तत्र सिंहासनोत्तमे । कुबेर आसयामास शक्रप्राभृतमार्पयत् ॥ ३२५ ॥
* 'रपरावृ संवृ० ॥f 'दावग मु०॥ कैः परावृ संवृ०॥ १ स्थगी ताम्बूलकरकः । नास्त्येतत् पदद्धयं 'संवृ. 'का.' इत्येतयोरादर्शयोः॥ कृत्वा वर्षसहस्रेणैकातपत्रं सभा संवृ० का०॥प्रावि० संवृ०॥२ भूतपूर्वः शकः शकचरः। “भूतपूर्व प्रद" [७.२.७८.] इति सूत्रसंसिद्धेः। ६ क्रवर मु०॥ * हारांच संबू.॥३हसिनापुरे। रे पुरे।मु०॥ आख्यात् मु.॥ . इन्द्रस्य । °दि वान' संब० ॥ ॥ विज्ञाप्य संवृ० का० ॥ * °याचकेश संबका.
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[चतुर्थ पर्व तस्थौ सनत्कुमारस्य सामन्तादिः परिच्छदः । सामानिकादिको वज्रपाणेरिव यथोचितम् ॥ ३२६ ॥ तस्याथ चक्रवर्तित्वाभिषेकं पुण्यवारिभिः । राज्याभिषेकं श्रीनाभिसूनोरिव सुरा व्यधुः ॥ ३२७ ॥ मङ्गल्यं गीतमारेभे तुम्बुरुप्रमुखैरथ । पटहादीनि वाद्यानि त्रिदशैस्ताडितानि च ।। ३२८ ॥ रम्भोर्वशीप्रभृतिभिर्नर्तकीभिरनृत्यत । विचित्राण्यभ्यनीयन्त गन्धर्नाटकानि च ॥ ३२९ ॥ सनत्कुमारं त्रिदशा अभिषिच्यैवमुच्चकैः । वस्त्राङ्गरागनेपथ्यमाल्यैर्दिव्यैरयोजयत् ।। ३३० ॥ गजरत्नं गन्धवरमध्यारोह्य न्यवीविशत् । सनत्कुमारं मुदितः कुवेरो हस्तिनापुरे॥ ३३१ ॥ स्वपुरीवद् धनापूर्ण नगरं हस्तिनापुरम् । कृत्वा कुबेरोऽथ ययौ विसृष्टश्चक्रवर्तिना ॥ ३३२ ॥ राजभिर्बद्धमुकुटैः सामन्तैरपरैरपि । तस्याभिषेको विदधे स्वसंपद्वल्लिसारणिः ॥ ३३३ ॥ अभिषेकोत्सवात् तस्याभूत् पुरं हस्तिनापुरम् । द्वादशाब्दी दण्डशुल्कभटवेशादिवर्जितम् ॥ ३३४ ॥ स चक्री पालयामास पितेव विधिवत् प्रजाः। महाऋद्धिः शक्र इव करादिभिरपीडयन् ॥ ३३५ ॥ न समोऽस्य प्रतापेन यथा कश्चिदजायत । यथैवाप्रतिरूपेण रूपेणापि जगत्रये ॥ ३३६ ॥ । तदानीं च सुधर्मायां रत्नसिंहासनस्थितः । शक्रः सौदामनीं नाम नाटकं नाटयन्नभृत् ।। ३३७॥ अनवद्येन रूपेण सर्वरूपाभिभाविना । विसापयन् दिविषदस्तत्पर्षदि निषेदुपः॥ ३३८ ॥ देहप्रभाभिस्तिरयस्तेजांसखिलनाकिनीम् । ऐशानकल्पादभ्यागात् संगमस्तत्र चामरः ॥ ३३९ ॥
॥युग्मम् ॥ गतेऽथ तसिन् पप्रच्छुः शक्रमेवं दिवौकसः । अस्स लोकोत्तरं तेजो रूपं चानुपमं कथम् ? ॥ ३४० ॥ शक्रोऽप्यशंसदेतेन प्राग्जन्मनि कृतं तपः । आचामाम्लवर्धमानं तेनेमे रूपतेजसी ॥ ३४१ ॥ किमन्योऽपीदृशः कोऽपि विद्यतेज जगत्रये । इति भूयोऽमरैः पृष्टः सौधर्मेन्द्रोऽब्रवीदिदम् ।। ३४२॥
राज्ञः सनत्कुमारस्य कुरुवंशशिरोमणेः । यद्रूपं न तदन्यत्र देवेषु मनुजेषु च ।। ३४३ ।। 20 इति प्रशंसां रूपस्याश्रद्दधानावुभौ सुरौ । विजयो वैजयन्तश्च पृथिव्यामवतेरतुः ॥ ३४४ ॥
ततस्तौ विप्ररूपेण रूपान्वेषणहेतवे । प्रासादद्वारि नृपतेस्तस्थतुःस्थसन्निधौ ॥ ३४५ ॥ आसीत् सनत्कुमारोऽपि तदा प्रारब्धमजनः । मुक्तनिःशेषनेपथ्यः सर्वाङ्गाभ्यङ्गमुद्वहन् । ३४६ ॥ द्वारस्थौ द्वारपालेन द्विजाती तौ निवेदितौ । न्यायवर्ती चक्रवर्ती तदानीमप्यवीविशत् ॥३४७॥
सनत्कुमारमालोक्य विसयमेरमानसौ । धूनयामासतुर्मोलिं चिन्तयामासतुश्च तौ ॥ ३४८॥ 23 ललाटपट्टः पर्यस्ताष्टमीजनिजानिकः । नेत्रे कर्णान्तविश्रान्ते जितनीलोत्पलत्विषी ॥ ३४९ ॥
दन्तच्छदौ पराभूतपक्कविम्बफलच्छवी । निरस्तशुक्तिको कौँ कण्ठोऽयं पाश्चजन्यजित् ॥ ३५०॥ करिराजकराकारतिरस्कारकरी भुजौ । वर्णशैलशिलालक्ष्मीविलुण्टाकमुरस्थलम् ॥ ३५१॥ मध्यभागो मृगारातिकिशोरोदरसोदरः। किमन्यदस्य सर्वाङ्गलक्ष्मीर्वाचां न गोचरा ॥ ३५२ ॥
अहो! कोऽप्यस्य लावण्यसरित्पूरो निरर्गलः । येनाभ्यङ्गं न जानीमो ज्योत्स्नयोडुप्रभामिव ।। ३५३ ॥ 30 यथेन्द्रो वर्णयामास तथेदं भाति नान्यथा । मिथ्या न खलु भाषन्ते महात्मानः कदाचन ॥ ३५४ ॥
किंनिमित्तमिहायातौ भवन्तौ द्विजसत्तमौ ? । इत्थं सनत्कुमारेण पृष्टौ तावेवमूचतुः ॥ ३५५ ॥ लोकोत्तरचमत्कारकारकं सचराचरे । भुवने भवतो रूपं नरशार्दूल! गीयते ॥ ३५६ ॥ दूतोऽपि तदाकये तरङ्गितकुतूहलो । विलोकयितुमायातावावामनिवासव! ।। ३५७ ॥
श्रीभादीश्वरस्य । २ सर्वरूपतिरस्कारिणा । ३ निषण्णान् । ४ आच्छादयन् । * °नाम्। ईशा का० ॥ नास्त्येतत् पदं संवृ. 'का' इत्यादर्शयोः॥ षु वा । का०॥ ५ प्रारब्धं मजनं स्नानं येन । ६ द्विजौ। ७ रजनिजानिश्चन्द्रः। विम्बीफ' का०॥ विलुण्टाकचौरः। ९ वारकप्रभाम् । लशोभनम् संवृ०॥ १. अवनिपते !।
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सप्तमः सर्गः]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । वर्ण्यमानं यथा लोके शुश्रुवेऽस्माभिरद्भुतम् । रूपं नृप! ततोऽप्येतत् सविशेषं निरीक्ष्यते ॥ ३५८ ॥ ऊचे सनत्कुमारोऽपि सितविच्छुरिताधरः । इयं हि कियती कान्तिरङ्गेऽभ्यङ्गतरङ्गिते ॥ ३५९ ॥ इतो भूत्वा प्रतीक्षेथां क्षणमात्रं द्विजोत्तमौ ! । यावनिर्वय॑तेऽस्माभिरेष मज्जनकक्षणः ॥ ३६० ॥ विचित्ररचनाकल्यं भूरिभूषणभूषितम् । रूपं पुनर्निरीक्षेथां सरत्नमिव काश्चनम् ॥ ३६१ ॥ ततोऽवनिपतिः स्नात्वा कल्पिताकल्पभूषणः । साडम्बरः सँदोऽध्यास्ताम्बररत्नमिवाम्बरम् ॥ ३६२॥ 5 अनुज्ञातौ ततो विप्रौ पुरोभूय महीपतेः । निर्देध्यतुश्च तद्रूपं विषण्णौ दध्यतुश्च तौ ।। ३६३ ॥ क तद् रूपं व सा कान्तिः क तल्लावण्यमप्यगात् । क्षणेनाप्यस्य मानां क्षणिकं सर्वमेव हि ॥३६४ ॥ नृपः प्रोवाच.तौ कस्माद् दृष्ट्वा मां मुदितौ पुरा? । कमादकमादधुना विषादमलिनाननौ ? ॥३६५ ॥ ततस्तावूचतुरिदं सुधामधुरया गिरा । महाभाग! सुरावावां सौधर्मखर्गवासिनौ ॥ ३६६ ॥ मध्येसुरसभं शक्रश्चके त्वद्रूपवर्णनम् । अश्रद्दधानौ तद् द्रष्टुं मर्त्यमूर्त्याऽऽगताविह ॥ ३६७ ॥ शक्रेण वर्णितं यादृक् तादृगेव पुरेक्षितम् । रूपं नृप! तवेदानीमन्यादृशमजायत ॥ ३६८॥ अधुना व्याधिभिरयं कान्तिसर्वस्वतस्करैः । देहः समन्तादाक्रान्तो निःश्वासैरिव दर्पणः ॥ ३६९ ॥ यथार्थमभिधायेति द्राक् तिरोहितयोस्तयोः। विच्छायं खं नृपोऽपश्यद्धिमग्रस्तमिव द्रुमम् ॥ ३७० ॥
सोऽचिन्तयच्च धिगिदं सदा गर्दैपदं वपुः । मुधैव मुग्धाः कुर्वन्ति तन्मूछो तुच्छबुद्धयः ॥ ३७१ ॥ शरीरमन्तरुत्पन्नैयाधिभिर्विविधैरिदम् । दीयेते दारुणैर्दारु दारुकीटगणैरिव ॥ ३७२ ॥ 15 बहिः कश्चिद् यद्येतत् रोच्येत तथापि हि । नैयग्रोधं फलमिव मध्ये कृमिकुलाकुलम् ।। ३७३ ॥ रुजा लुम्पति कायस्य तत्कालं रूपसंपदम् । महासरोवरस्येव वारि सेवालवल्लरी ॥ ३७४ ॥ शरीरं श्रथते नाऽऽशा रूपं याति न पापधीः । जरा स्फुरति न ज्ञानं धिक स्वरूपं शरीरिणाम् ॥ ३७५ ॥ रूपं लवणिमा कान्तिः शरीरं द्रविणान्यपि । संसारे तरलं सर्व कुशाग्रजलबिन्दुवत् ।। ३७६ ॥ अाश्रीनविनाशस्य शरीरस्य शरीरिणाम । सकामनिर्जरासारं तप एव महत्फलम ॥ ३७७॥ इति संजातवैराग्यभावनः पृथिवीपतिः। प्रव्रज्यां स्वयमादित्सुः सुतं राज्ये न्यवीविशत् ।। ३७८ ॥ गत्वोद्याने सविनयं विनयन्धरसूरितः । सर्वसावद्यविरतिप्रधानं सोऽग्रहीद तपः ॥ ३७९ ॥ ___ महाव्रतधरस्यास्य दधानस्योत्तरान् गुणान् । ग्रामाद् ग्रामं विहरतः समतैकाग्रचेतसः ॥ ३८० ॥ गाढानुरागबन्धेन सर्व प्रकृतिमण्डलम् । पृष्ठतोऽगात् करिकुलं महायूथपतेरिव ॥ ३८१ ॥ युग्मम ॥ निष्कषायमुदासीनं निर्ममं निष्परिग्रहम् । तं पर्युपास्य षण्मासान् कथञ्चित् तस्यवर्तत ।। ३८२ ॥ 25 कृतषष्ठः पारणाय प्रविष्टो गोचरेऽन्यदा । लेमे चीनककूरं स सोजातक्रमभुक्त च ॥ ३८३ ॥ भूयोऽपि षष्ठभक्तान्ते तथैव कृतपारणात् । व्याधयोऽस्य ववृघिरे संपूर्णादिव दोहदात् ।। ३८४ ॥ कच्छूशोषज्वरश्वासारुचिकुक्ष्यक्षिवेदनाः । सप्ताधिसेहे पुण्यात्मा सप्त वर्षशतानि सः॥ ३८५ ॥ दुःसहान् सहमानस्य तस्याशेषपरीषहान् । उपेयनिरपेक्षस्य समपद्यन्त लब्धयः ॥ ३८६ ॥ कफविघुइजल्लमलविष्टामस्तथा परम् । सर्वमप्यौषधिरिति नामतः सप्त लब्धयः ।। ३८७ ॥ 30
अत्रान्तरे सुरपतिः समुद्दिश्य दिवौकसः । हृदि जातचमत्कारश्वकारेत्यस वर्णनम् ॥ ३८८ ॥
विचित्ररचनया सजीभूतम् । २ कल्पितानि नेपथ्यानि च भूषणानि च यस्य । ३ सभाम् । ४ सूर्यः। ५ अवलो. कयाचक्रतुः। ६ चिन्तयामासतुः। ७रोगस्थानम् । काष्ठकीटसमूहैः। ९ अभिप्रेतं भवेत् । * °ग्रोधफ संवृ०॥ १. अद्य वा श्वो वा अधश्वीनः। " समतयैकाग्रं चेतो यस्य तस्य । नास्त्येतत् पदं 'का' मादर्श।चर मुनिःले संवृका॥ १२ मजायावरण सहितम् । उपाय मु०॥ उसेयम् फलम् । मासीस्त संवृ०॥ नाम् का.॥
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं
[चतुर्थ पर्व चक्रवर्तिश्रियं त्यक्त्वा प्रज्वलत्तृणपूलवत् । अहो! सनत्कुमारोऽयं तप्यते दुस्तपं तपः ॥ ३८९ ॥ तपोमाहात्म्यलब्धासु सर्वास्खपि हि लब्धिषु । शरीरनिरपेक्षोऽयं स्वरोगान्न चिकित्सति ।। ३९० ॥ अश्रद्दधानौ तद्वाक्यं वैद्यरूपधरौ सुरौ । विजयो वैजयन्तश्च तत्समीपमुपेयतुः ॥ ३९१ ॥ ऊचतुश्च महाभाग! किं रोगैः परिताम्यसि । वैद्यावावां चिकित्सावो विश्वं स्वैरेव भेषजैः ॥ ३९२॥ यदि त्वमनुजानासि रोगग्रस्तशरीरकः । तदह्वाय निगृह्णीवो रोगानुपंचितांस्तव ॥ ३९३ ॥ ततः सनत्कुमारोऽपि प्रत्यूचे भोश्चिकित्सकौ! । द्विविधा देहिनां रोगा द्रव्यतो भावतोऽपि च ॥ ३९४ ॥ क्रोध-मान-माया-लोभा भावरोगाः शरीरिणाम् । जन्मान्तरसहस्रानुगामिनोऽत्यन्तदुःखदाः ॥३९५॥ ताँचिकित्सितुमीशौ चेद् युवां तर्हि चिकित्सतम् । अथो चिकित्सथो द्रव्यरोगाँस्तद् बत! पश्यतम् ॥३९६ ॥ ततोऽङ्गुलिं गलत्पामां शीणां खफविनुषा । लिवा शुलवं रसेनेव द्राक् सुवर्णीचकार सः ॥ ३९७ ॥ ततस्तामङ्गुली वर्णशलाकामिव भाखतीम् । आलोक्य पादयोस्तस्य पेततुः पोचतुश्च तौ ॥ ३९८ ॥ निरंपयिषू त्वद्रूपं यौ त्वामायातपूर्विणौ । तावेव त्रिदशावावां संप्रत्यपि समागतौ ॥ ३९९ ॥ सिद्धलब्धिरपि व्याधियाधां सोढा तपस्यति । सनत्कुमारो भगवानितीन्द्रस्त्वामवर्णयत् ॥ ४००॥ आवाभ्यां तदिहागत्य प्रत्यक्षेण परीक्षितम् । इत्युदित्वा च नत्वा च त्रिदशौ तौ तिरोहितौ ॥ ४०१ ॥
कौमारे वर्षलक्षाधं मण्डलित्वे तदेव हि । दशवर्षसहस्राणि कर्कभामुपसाधने ॥ ४०२॥ 15 चक्रित्वे नवतिवर्षसहस्राणि व्रते पुनः । वर्षलक्षमिति व्यब्दलक्षायुस्तुर्यचक्रिणः ॥ ४०३ ॥
ज्ञातेऽवसानसमयेऽनशनं प्रपद्य लक्षत्रयेण शरदां परिपूरितायुः। सुध्यानपञ्चपरमेष्ठिसनत्कुमारः कल्पे सुरः समजनिष्ट सनत्कुमारे ॥ ४०४ ॥ पश्चाहन्तः सीरिणः पञ्च पञ्चोपेन्द्राः पञ्चैतविषश्चक्रिणौ द्वौ । यत्रोक्ता द्वाविंशतिः सूत्ररत्नाम्भोधेस्तुर्य पर्व तद् वः श्रियेऽस्तु ।। ४०५॥ सूत्रात् किश्चिदुदीरितं कथाम्यः किञ्चिद् योगपटाच्च किश्चिदत्र । तेषु स्याद् यदि किश्चनापि मिथ्या मिथ्यादुष्कृतमस्तु तत्र सन्तः ॥ ४०६ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थे पर्वणि सनत्कुमारचरितवर्णनो नाम
सप्तमः सर्गः संपूर्णः।
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॥ समाप्तं चेदं चतुर्थ पर्व ।।
१ भाज्ञापयसि। २ वृद्धान् । 'नोऽनन्त का० ॥ ३ समयौं। * "त्सवो द्र संवृ०॥ ४ स्व श्लेष्मबिन्दुना । ५ तात्रम् । निरुरूपयिषू रूपं संवृ० का०॥ ६ दिशा जये। बलभद्राः। 6 वासुदेवाः। ९ प्रतिवासुदेवाः ।
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त्रिषष्टिशला कापुरुषचरिते महाकाव्ये द्वितीय तृतीय - चतुर्थ पर्वात्मके द्वितीये विभागे प्रथमं परिशिष्टम् ॥ श्लोकान्ममकारादिक्रमेणानुक्रमणिका ॥
लोक नं. पृष्ठ नं.
अ
२८७ ३२३
६० २५७
२०१ ३६२
अकरोदयतस्तस्य २३ २१४ अकरोदित्यमन्येन्द्र १९६ २६२ अकस्मादागतं दृष्ट्वा अकस्मादुन्म देनाथ अकाण्डेऽप्यप्रसादोऽयं १८१ १६२ अकामनिर्जरूपात अकाल इव कालाग्निः १७४ २३१ अकालं याssansaीती २९२ २४० अकाले कस्य कालेन ९८ २१७ अकुलीनानपि पेक्ष्य २६१ ३८३ अकोफ्नोऽनशिप अक्षतास्तदभ्यर्ण
७ २८४
२५१ ३९७ ५५५ १८३
अखतैरिव मुक्काम अक्ष्णोः सुधावर्तिवि १६६ ३१८
अखण्डदण्डमि
१३३ २३६
अत
अलतामिर्षाराम अगतानपि नस्तत्र ३२ २३३ अगोषिते रजनिधा ३४८ २६७ अभिः स्फुलिङ्गमात्रोऽपि १८१३७० अग्रणीगुणिनां तैस्तै: १९ ३६४ अग्रणी: सर्वदोषाणां ५४६ २४८ अग्रसैन्यस्य भङगेना ६०४ ३३३ अग्रानीकैस्तयोर्युद्धे ६०१ ३३३ अग्रेऽपि मन्यरं वान्यो १२१ १७० अग्रे पृष्ठे पार्श्वयोश्चा २७९ २६४ अमे सोपानपङ्गीना
२८९ १७५ १५ १८५
अङ्काद कौतुकेन
अाद नरेन्द्राणां
अङ्काद सेवस्ती
अङ्गभूतक कङ्कल्लि
७९ ३९१ १८३ ३१९ २०९३५० ३९ ३६५ ३९ ३०२ १९४३६२ १३८ १७१ २४१ ३८२
अराव raaaa
अनाशनिर्जितैः सर्व अङ्गीकृत्यात्मनः पापं
१३४ ३९३
२२९ २२१
कन. पृष्ठ नं.
अनुल्याभूमिकीकृत्य
१८३ ३७०
अङ्ग कृताङ्गरागो सा ४५९ २४५ अद्वेषु स्वामिनः स्वर्ण ४४२ १८० अपोदशभिन्यूनं १९५ २९०
अङ्गोच्छवासासकृत् त्रुटयत् २४८ ३५२ अङ्गोपाङ्गच्यावनानि
११९ ३०५
४४६ १९८
अङ्गोपाङ्ग - प्रकीर्णादि अण्डवीरमतिना
३४४ २६६
१८० ३१९
३१ ३९०
अचलस्य तु जातस्य अच्छभल्लवदत्यन्त अच्युतप्रभृतयोऽथ अच्युतः पारिजातादि अच्युता मक्तिस्तना
१२६ २९५
१८९ २६१
३६ ३०२
अच्युतेन्द्राशया कुम्भां १८३ २६१ अच्युतेन्द्रोऽप्याभियोग्यै २७२ २६४
१७० ३८०
६७ २२८
अजनिष्ट क्षणेनापि अजायत रजोवृष्टिः
अजायन्त च तत्कालं
७० २२८ ११५ १८८ ४०५ २६८
अजितस्वामिनः सैन्ये अजितस्वामिनिर्वाणात् अजितस्वामिनेऽन्येषां अतिस्वामिनो भ्राता अतिस्वामिनो भ्रातुः अजितस्वामिविच
५४ १८६ ६८ २३४ १४७ २३०
१०८ २२९
७६ १८७
३०२ ३८५
१९४ ३५०
२६३ ३७३
अजितोऽपीन्द्रियै रेमे अजिह्मा चित्तवृत्तीनां अजिह्मविक्रमस्तस्यां अजीचाः स्युधर्माधर्म अज्ञानाद् वञ्चितोऽस्माभिः १५१ १६२ अज्ञानामपि बालानां अामासुः अभ्जनाचलचूलाभिः अब चोच्चैः अशोभाराकाभि अहामारुरुहुः केचित अतलविदुरो बन्तु अतः परमहो ! तत्रा
३०५ ३८५ २२७ १९२
७२ १५९ ७७ २१६ ३३९ २२४ २२५ १९१ २२२ ३७१ ४४ २३३
श्लोक नं.
अतः परं वर्ष नाथ अतर्कितद्रोहिमस्तैः
अतिगूढं यचाते अतिचण्डत्वमालम्ब्य
अतिपाण्डुकम्बलायां
अतिपाण्डुकम्बलायां
अतिपाण्डुकम्बल
अतिपाण्डुकम्बलायां
अतिपाण्डुकम्बलायां
अतिपीयूषगण्डूषः अतिशेषे यथाशक्त्या अतुच्छपुच्छदण्डेन
अत्यच्छे रक्तमयैः
अत्यन्तदक्षिणो लोक
अत्यन्तशून्यमनसः अत्यागाच्छैशवं स्वामी अत्युग्रं स तपस्तेपे
अत्युदारां वसुधारा अत्र वा दिवि वा तिष्ठं अत्र सर्वेपरि स्वाति:
अत्र ह्यस्मद् शकन्दः अमाद्रानुत्तरश्रेणि अत्रान्तरे च प्रथमा अत्रान्तरे च सामन्ता
अत्रान्तरे जनैः सभ्यैः
अन्तरे नभस्युच्चैः
अगन्तरे समुत्तस्था
अत्रान्तरे सुरपतिः
अमायें साक्षिणः सर्वे
अनैव जम्बूद्वीपे च
अव जम्बूद्वीपेऽस्ति
अथ ऊध्वं रुचकेभ्यः
अथ कृत्वा समुद्घातं अथ द्रोपमीनः अथ गन्चोद दे अय चक्रधरादेशात् अथ व्यवचिह्नानि
पृष्ठ नं.
७५८ ३३८
११३ ३५९
१२२ १७००
२२१ १६४
३२ ३६५
३३ ३०८
३५ २९७४
१७१ २८१
४८३ १८१
१३४ २१८
३५० ३२५
३८४ ३२६
४६५ १८१ २४० १९२
१५८ २३६ ५० ३७६ ९० ३६७
५१६ १८२ ४४ ३०८० ५३५ २०१ १५१ २३० ४४२ ३२८ ८२३ २०९ १५६ २३६
३९७ ३२६ ७५३ ३३८०
५१ २५७५
३८८ ४०१. ५०६ २४७ ७४ ३५८३ २७५
३० ३६५ १६८ १७२. ६८५ ३३६५ १०९ २२१. २६९२२३९ १५५ २८९
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श्लोक नं. पृष्ठ नं. अथ जातस्य बालत्वे ४८ १५८ अथ तच्चक्रमर्चित्वा ६ २१४ अथ तत् तीर्थकृज्जन्म २६३ १७५ अथ तौव तत्कालं ४३० २४५ अथ तत्स्वामिनो वेश्म १६६ २६१ अथ तन्मेदिनीभतुः १५४ २१८ अथ ते पितरं नत्वा ६२ २२७ अथ ते मन्त्रिणोऽप्यूचुः ९६ २२८ अथ त्रिपृष्ठः स ज्येष्ठः ५८९ ३३२ . अथ पस्पर्श सेनानीः १६३ २१९ अथ पूर्वरुचकाद्रि १९८ १७३ अथ पूर्णों वशिष्टश्चा १७६ २६१ अथ पूर्वसहस्राणां . ५२ ३०८ अथ पौषस्य शुक्लैका ३४४ १९५ अथ प्रदक्षिणीकृत्य २६७ १९३ अथ बोधयितु भूपं २१५ २३८ अथ भूमिपतिः प्रीतः १९८ १६३ अथ भ्रष्टानि नष्टानि १८० १९० अथ मागधतीर्थाधि ८२ २१६. अथ मार्गशीर्पकृष्ण ३२ ३०२ अथ ग्लानमुखाः सर्वे ६१२ ३३३ अथ रक्षःपतिर्भीमो २७ २२६ अथ रत्नप्रभाभूमेः ५०४ २०० अथ रत्नमयं वप्र ३२५ २६६ अथ राज्ञः पुरोभूय ३४७ २४२ अथ लोभकषायस्य ३३८ १९५ अथ वल्गुः सुवल्गुश्च ६०४ २०३ अथ वार्षिकदानान्ते १८९ १९० अथवा सर्वमप्येत ८५७ २१० अथ विद्याधराः सर्वे ५२४ ३३० अथ विष्णोः पुमानूचे १०४ ३७८ अथ वैतालिकोऽसि त्वं? २४३ २३९ अथ शक्रः समागत्य ६३ ३१५ अथ शक्रो नमस्कृत्य २९२ २६५ अथ शक्रो नमस्कृत्य ३४१ २६६ अथ शाङ्गधरोऽप्येव १८७ ३७० अथ सर्वाभिसारेण १७१ ३४९ अथ संसारसंवासाद् ५४ ३०८ अथ साकेतनगरो १ २२६ अथ सान्तःपुरः सस्त्री ३५४ २२४ अथ सा विललावं ४५१ २४५ अथ सिक्तः पयस्कुम्भैः १३५ ३७९
श्लोक नं. पृष्ठ न. अथ सौधर्मकल्पेन्द्र: ४८२ ८१ अथ सौधमकल्पेन्द्रः ७१ २८ अथ सौधर्मकल्पेन्द्रः ८३ २९३ अथ स्वयम्भूरित्यूचे १२८ ३६० अथ स्वामिनमीशानो ३८ ३०२ अथ हारितवान् राज्यं ७९ ३५८ अथाऽग्रहीद् विन्ध्यशक्तिः १८३ ३५० अथाऽङ्ग स्वामिनःशको ६८९ २५२ अथाऽचलकनिष्ठस्त ६६६ ३३५ अथाऽचलोऽपि शोकेन ८९० ३४२ अथाऽच्युतप्रभृतयः ३६ २९७ अथाऽच्युतप्रभृतयः ३९ ३४५ अथाऽच्युतप्रभृतयः ६८ ३१५ अथाऽच्युतप्रभृतयः ७१३१५ अथाऽच्युतप्रभृतिभिः ३८ ३७६. अथाऽऽदौ सुश्रुतोऽवादी ४३६ ३२७ अथाऽधोलोकतो भोग १३७ २६० अथाऽधोलोकवास्तव्याः १६२ १७२ अथाऽधोलोकवास्तव्या ४२ ३१४ अथाऽऽनीयत पानीयं १६४ १९०. अथाऽऽपतुयौवनं तौ ५९ १८६ अथाब्दलशाण्यतिवा ९०८ ३४३ अथाऽभयकरां नामा २०५ २८१ अथाऽऽभरणसम्भारं २४९ १६४ अथाऽभिनन्दनजगत् ४२७ ३२७ अथाऽऽभियोगिका देवा ३५२ २२४ अथाऽऽभियोगिकान् देवान् २०९२६२ अथाऽभियोग्यैरानाटय १५७ २६० अथाऽऽयोजनगामिन्या ४३६ १९८ अथाऽऽरुरोह भगवान् २७४ २६४ अथार्यपुत्रमन्येयुः २८६ ३९८ अथावोचद् द्विजन्माऽपि १४६ २३६ . अथाऽस्ति सर्वमप्येतत् ९१८ २१२ अथेत्थं कथयामास २९४ ३२३ अथेत्थमजितस्वामी १५६ १८९ अथेन्द्र-भूपैर्विहिता ५९ २८६ अथेयेष प्रभुर्दीक्षां १०२ २७२ अथेशमैशानपतेः ३७ ३०२ अथेशानपतेरङ के ७२ ३१५ अथेषुमिषुधेमध्याद् ९४ २१६ अथैकः सचिवोऽवोचद् १२१ ३५९।। अथैवं मन्त्रिणोऽप्यूचुः १६३ १६२.
श्लोक न. पृष्ठ .. अथैवं सचिवोऽवोचत् २२४ ३५१ अथोचे जहूनुना नाथ १४८ २३० अथोचेऽजितनाथस्तं ८९ १८७ अथोचे पृथिवीशोऽपि ३४ २७६ अथोचे भगवाने ९४ २७८ अथोचे नारदोऽप्ये १२८ ३६८ अथोत्तस्थौ जगन्नाथो १५६ २७४ अथोत्थाय गणभृतां ८१८ २०९ अथोत्थाय नमस्कृत्य ६३८ २५१ अथोत्थायोत्तरद्वारा ३८१ २६८ अथोत्पपात स पुमान् ४१३ २४४ अथोद्यद्रोषपरुषं १४९ ३६९ अथोपचक्रमेऽनीक ६०० ३३३ अथोपशान्तमोह: स्यात् २६१ ३७३ अथो भगीरथोऽप्यम्भो ५६३ २४९ अथो मनोहरां नाम ६२ २९३ अथो मृगयतेऽस्मत्तो २३९ ३५१ अथोर्ध्वरुचकसंस्था १८८ १७२ अथोललोकतो मेघ १४१ २६० अथोल्लसस्मितज्योत्स्ना ४०० २४४ अथोवाचाऽजितस्वामी ८३ १८७ अदण्ड-शुक्लामभट ३६८ २२५ अदर्शयत् पादगति ५१ १८६ अदर्शयित्वा स्वगुणं २६७ २४० अदित्सतोऽपि सर्वस्वं ३२६ ३५४ अदीना अपि दैन्येन १६० २८९ अदृष्टपूर्ववद् दूरात् २४५ १६४ अदेवे देवबुद्धिर्या ८९१ २११ अद्य चन्दनगोधानां, १३ २३२ अद्य नैमित्तिकीभूय ३७२ २४३ अद्यश्वीनविनाशस्य ३७७ ४०१ अद्य श्वो वा भृशममु ७ ३०७ अद्य स्वयमधिष्ठाय ७८ ३१६ अद्यापि च कुटुम्बाय ७४ २५८ अद्यापि हि कियद् भुक्त १२२ १८८ अद्यापि हि युवां बालौ १४८ ३७८ अद्वैतेऽपि स ऐश्वर्ये ११७ १८८ अधर्मा धर्मबुद्धया च ८५ ३०९ अधारयन् मनसि स ५३४४ अधिज्यीकृत्य तरसा १७२ ३६९ अधिप्रभासतीर्थेश ११८ २१७. अधिरुह्य विमानानि ४१५ १७९
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श्लोक नं. पृष्ठ नं अधिरोप्य धनुमूनि ९३ २१६ 'अधिष्ठितः पुरोदेशं ८०३ ३४० अधिस्तनतटामुक्तः १३५ १७१ अधिस्वामि ततो जग्मुः ३७३ १७८ अधुना नृप-सेनानी २७३ ३२२ अधुनाऽपि युगान्तोऽयम् ५३९ २४८ अधुना प्लावयत्युच्चैः ३५० २४२ अधुना व्याधिभिरियं ३६९ ४०१ अधुनैव निवापादि ४९८ २४७ अधोमुखाः कण्टकाःस्युः ४२३ १९८ अध्यारोहति सोपान ३५७ २४२ अध्यासीना रथान केचिद् ७६ २२८ अनक्तस्निग्धमनस ३४३ २६६ अनन्तकर्मप्रचय १४२ २८८ अनन्तकालप्रचित ३९६ १९७ अनन्तकायकन्दादि ३४५३५५ अनन्तक्लेशकल्लोल ९० २९९ अनन्तज्ञान भगवन् ! ८८ २९३ अनन्तदर्शन-ज्ञान ९० २९४ अनन्तदर्शन-ज्ञान ८६० ३४१ अनन्तदुःखरूपाणि ९५ १६० अनन्तदुःखसंभार अनन्तवीर्यस्त्रिजगत् ३३९ १९५ अनन्तसैन्यगहन १९९ २२० अनन्तस्वामिनिर्वाणाद् ३६२ ३८६ अनन्तान् देहिनो मुक्तिं ४६ ३७६ अनन्ता भोजनाच्छाद ३२८ ३८५ अनन्यदृष्टिमनसौ १६२ ३९४ अनर्थ्यरत्नरचितां १३७ १७१ अनध्यस्वल्परुचिरा अनवद्येन रूपेण ३३८ ४०० अनवद्यमूलगुणैः ८ ३८७ अनशनमौनोदर्य
८६ २७७ अनशनमौनोदर्य ८३२ ३४१ अनाथानामेकनाथः २ ३८७ अनाद्यन्तस्य लोकस्य ४७७ १९९ अनाप्तैरिव पर्याप्त २२ २३२ अनात्त-रौद्रध्यानेन १३ २५५ अनार्येणाऽमुना बालो ९२० २१२ अनाहूतसहायस्त्वं ३४२ २६६ अनित्यं यौवनमपि ३६६ २६७ अनित्यं सर्वमप्यस्मि ३५१ २६७
लोक नं पृष्ठ नं अनिलान्दोलनस्रस्त ११७ ३४७ अनिवृत्तिवादयख्यं ३३७ १९५ अनिषिद्धगतिःस्थैः २८६ ३२३ अनीकैः पञ्चभिश्चाऽग्रे ३२२ १७६ अनुक्षितफलोदना ३४६ २६७ अनुकम्प्योऽसि बालोऽसि १८० ३८१ अनुग्राह्या मन्त्रिणोऽमी १२६ १८८ अनुचक्र ततश्चक्री १२७ २१७ अनुजज्ञे च तांश्चक्री ३५१ २२४ अनुज्ञातस्त्वत्सखाऽथा २५६ ३९७ अनुज्ञातौ ततो विप्रौ ३६३ ४०१ अनुज्ञावचनस्तेषां १७१ १६२ अनुत्तरविमानेभ्यः ३३ १६८ अनुत्तरविमानेषु ३०६ १६६ अनुत्तरविमानोषु ७८१ २०८ अनुनीय न्यधाद् राज्ये ९९ २७२ अनुभावेन कालस्य १८७ १९० अनुमन्यस्व गच्छामि ४११ २४४ अनुयोग-गणानुजे १५३ २७४ अनुरागे स आरोप्य १९९ ३२० अनुरूपवरार्थेऽस्याः ४६२ ३२८ अनुस्वामि दधावेऽथ ३४६ १७७ अन्तायां प्रतिज्ञायां ३३३ २४२ अनेकनृप-सामन्त २३७ १९२ अनेकवल्लीवलय १२० १६१ अनेन तपसोग्रेण १५७ ३१८ अनोकहात् पुष्पमिव ५६४ ३३२ अन्तः कृत्वा मणिस्तूपं ३५९ १९६ अन्तःपुरप्रधाने च १९५ ३५० अन्तर्बाह्यलावणक ६३९ २०४ अन्तर्विरचित्तालोकः ३३ ३८८ अन्त: स्पृशेद् यत्र यत्रो २७५ ३८४ अन्तरङ्गानरीन् जिष्णून् ८८ १६० अन्तरङ्गान् जये: शत्रन् २२४ १६४
अन्तरन्तःपुरं क्षिप्त्वा १७ ३८९ __ अन्तरायक्षयादेव २५९ ३८३
अन्तरिक्षस्थितं यक्ष ४ २१४ अन्तरे पुष्करिणीनां ७२८ २०७ अन्तिके स्वामिनो गन्तु २८१ १७५ अन्तिमां प्रार्थनां तेऽद्य १२६ ३७९ अन्ते च तस्य दानस्य ६० ३०९ अन्ते द्वादशयोजन्याः ११९ २१७
श्लोक नं. पृष्ठ नं. अन्ते द्वितीयपौरुष्यां ३५१ ३८६ अन्ते वार्षिकदानस्य २०४ २८१ अन्धकारीकृतदिशा २१ २५६ अन्धकारे दीपिकेव ८८५ २११ अन्धोऽस्मि बधिरो वाऽस्मि २६६ २४० अन्नमात्रमिव श्रीद ४०२ २४४ अन्यथा तु द्विषन् भावी १६१ ३८० अन्यथा हि कुमारः क्व १०४ ३९२ अन्यदा कस्यचिद् दर्प ८७ ३७७ अन्यदा चक्रिणश्चक्र २४६ २२१ अन्यदा तु विभावर्या ८७१ ३४२ अन्यदा दोहदान् देवी ५० २७६ अन्यदा द्वादशतपः ३२१ १९४ अन्यदा राज्यमुत्सज्य ८ ३०७ अन्यस्यापि प्रदत्तस्य ५०५ ३३० अन्यस्यापि बतादाने ८४ १८७ अन्या अपि कलाः सर्वाः ८३ ३९१ अन्यायं स निजस्यापि २७ १५८ अन्येचुरेकवास्तव्य ५९४ २५० अन्येऽपि देवा देव्यश्च ३१५ १७६ अन्येऽपि द्वीपि-शार्दूल ६१० ३३३ अन्येप्यजितनाथाद्याः ९७ ३४७ अन्येप्यासनकम्पेन १९७ १९१ अन्येषामपि जैनेन्द्र ३४७ ३५५ अन्येषामप्युपायानां ३६ २७६ अन्येष्वपि प्रमादस्य ५० ३८८ अन्यैरपि धृतच्छत्र ६२ ३०९ अन्यैरपि मदस्थानः ११९ १८८ अन्यैश्चमर-बालिवत् ४०२ १७९ अन्यैस्तेनार्जितं वित्त १३३ १८९ अन्योन्य कण्ठलग्नौ तौ १४१ ३७९ अन्यान्यं चेटवर्गाणां ५४१ १८३ अन्योन्य नीलिकाराग ६ ३८९ अन्योऽन्यं वैसदृश्ये हि १५८ २८० अन्योन्यसाम्यकुपितो १७६ ३७० अन्वयुङक्त ततो राजा २८० २४. भन्वीयमाना न्यग्ग्रीव ४६० २४५ अन्वीयमानां परितो २९४ १९४ अन्वीयमानो भगवान् ६३ २९३ अन्वीयमाना हलिना १७१ ३८० अपकारिजने कोपो २४० ३८२ अपजहरशेषं तत् ३२१ ३२४
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श्लोक नं. पृष्ठ नं. अपटीभिरिवौकांसि ९९ ३९२ अपत्यासंभवे स्त्रीषु ३३७ ३५४ अपनीतेन्धनभरः ३४२ १९५ अपस् च पितुः शालः ५२२ ३३० अपराधः कृतः कोऽपि १८२ १६२ अपराध परस्येव ७२५५ अपरानपरे विन्द्रा ६७८ २५३ अपरास्वपि दिक्ष्वेवं ६४ ३९१ अपराहणे ततोऽचालीन् २१५ ३९६ अपरेष्वपि तूर्येषु १७२ १९० अपरेष्वपि राष्ट्रषु ७३ ३४६ अपवादमवज्ञाय ९११ २१२ अपश्यत् तत्र चाऽनर्य १० २७५ अपसर्पत तत् तूण २३३ २२१ अपाक्पश्चिममार्गेण ८४ २१६ अपारद्वारा प्रविश्याऽहत् ३३७ २६६ अपारद्वारैत्य भवने ३८० १९६ अपाग्भरतधि ७४ ३७७ अपाग्भरतवर्षा २६० ३२२ अपाग्भरतवर्षेऽस्मि ४२ ३७६ अपारधोरसंसार १२० २२९ अपारे व्यसनाम्भोधौ ३१२ ३५४ अपारो दुस्तर चायं ४८ २८५ अपासर्पन्नुपासर्पन् २७१ ३९८ अपि कान्दविकादीना ३१ २५६ •अपि द्रविणलोभेन ३१८ ३८५ अपि धायाः समस्तायाः १११ २३५ अपि नामैष पूर्यत ३२७ ३८५ अपि नारकजन्तूनां २६५ १९३ अपि पाण्डुकम्बलायां ३७ ३७६ अपि प्रियसखीस्तत्र २२ २७५ अपि बन्धुसमाजेषु ९०१ ३४३ अपि वंशस्य संहर्ता ५४७ २४८ अपि श्रुतन्धिपारीणा ३०८ ३८५ अपि सम्पश्यमानस्य २८ २५६ अपौरुषेयं वचनं ९०० २१२ अप्कायतां पुनः प्राप्तः १०५ २८७ अप्यकाण्डे काण्डपट १९८ २२० अप्पलीकव्यलोकेन ४४० २४५ अप्यसौ पुष्पवृन्तेन ३ ३८७ अप्यहः सकलं भ्रान्त्वा ३२२५६ अप्यालोकनमात्रेण . ८७ २२८
लोक न. पृष्ठ नं. अप्युद्योतो जगत्रय्या ४१ २९२ अप्येवं वञ्चकास्तेऽयुः १६२ ३०६ अप्सराः किं व्यन्तरी किं ३१४ २२३ अप्रमत्तसंयतारख्य ३३५ १७५ अप्राप्त देवभावेऽपि ५२ २९७ अबन्धूनामसौ बन्धुः ३१७ ३५४ अबाधमान इतरान् १११ २५९ अबाधितौ मदस्थानः ४८ २७० अबुध्यन्ताऽवधिज्ञानात् ५५ ३०८ अभक्तिः किं मया देव १४४ १८९ अभक्तिर्वाऽस्तु विहिता १४५ १८९ अभग्नाभुग्नवृक्षाद्रि ३६५ २४३ अभजि मधुसैन्येन १६८ ३६९ अभ्रालिहेभशालाभिः ५१ २१५ अभ्रालिहेषु वृक्षेषु २४७ १९२ अभवत् तस्य पादाब्जो २७ ३७६ अभवन्मध्यतस्तस्यै २९२ १७५ अभवाय महेशाया ३४५ २६७ अभव्या अपि चारित्रं २११ ३६२ अभाङक्षीदन्तरिक्षेऽपि ६९५ ३३६ अभावे बन्धहेतूनां २८५ ३७४ अभाषिष्ट त्रिपृष्ठोऽपि ३०० ३२३ अभिधायेति तूष्णीकी २२७ १६४ अभिधायेति नागेन्द्रः ५७० २४९ अभिधायेति सम्यक्त्व ९३३ २१३ अभिनन्दननिर्वाणात् २६३ २८३ अभिषिक्तोऽपि चक्रित्वे ४७ ३८८ अभिषिक्तोऽमर नाम ५५ ३७६ अभिषिञ्चन्निव दृशा १७४ १६२ अभिषेकं जगद्भः ४९१ १८१ अभिषेकं महीभर्तुः ३६२ २२५ अभिषेकोत्सवात् तस्या ३३४ ४०० अभिषेकोपकरण १६५ १९० अभूच्चातिविनीतत्वाद् २२ २२६ अभूश्चिरमय कालो ४१ ३५७ अभूच्छस्त्रप्रहाराग्नि १३७ ३६० अभूतपूर्वमम्भोधि ६३३ ३३४ अभूतां कवचहरौ ८५ ३७७ अभूताल्पाणुचेलत्वे २९२ १६६ अभूत् तस्य महादेवी ७३ ३६१ अभूत्पुरे तत्र रिपु. १६० ३१८ अभूदाक्रान्तदिक्चक्रः ८१६७।।
श्लोक नं. पृष्ठ नं. अभूदिष्वाकुवंशस्य ४ १६७ अभूदुत्कटदोः कूट १.० ३.६७ अभ्यक्तोऽपि विलिप्तोऽपि १०१ २९९ अभ्यसर्पन्नवासर्पन् १६६ ३.४९ अभ्यासः सर्वशस्त्रेषु १०५ ३५९ अभ्युत्तस्थौ कथं दृष्ट्वा २९३ ३२३ अभ्युत्थानं भानुवेगः २२४ ३९६ अभ्युत्थानेऽर्चने दाने २९४ १६६ भमन्दं दददास्यन्दं ४० ३०८ अमन्दलवलीपुष्प ११९ ३४७ अमन्दं स्यन्दिनं तावद् ९७ २३४ अमन्दानन्दनिःयन्द ८१८ ३४० अमरा विदधुस्तत्र ६२ २८६ अमरेम्यः प्रवीचार ७१६ २०९ अमर रसुरैम त्यैः ११५ ३४७ अमरर्व सुधारादि १०६ ३१७ अमरो मागधपतिः ५२ २२७ अमर्त्यलोकवन्मर्त्य २०२ २६२ अमलं केवलज्ञान १२३ २७३ अमारिमाघोषयितु ५१ २७६ अमी खलु.हयग्रीवे ५३२ ३३० अमी च वान्ति सुखदाः ४३ २९२ अमी तच्छास्त्रसंवाद २८८ २४० अमी तावदिह त्यक्त्वा ३१ २३२ अमीषामेव गीतेन ८७८ ३४२ अमुक्तसन्निधिस्ताभ्यां १११ ३०० अमुक्तसन्निधिस्ताम्यां १८४ २९० अमुना लोहखण्डेन ७४५ ३३८ अमुना स निदानेन ९१ ३६७ अमु यक्षो विलक्षोऽथ २०५ ३९६ अमु लोकं समस्तंवा ८०१ २०९ अमुष्य प्रियगीतस्य ८८१ ३४२ अमुष्याऽप्यायुषो गर्भ ४७ १५८ अम्बरश्रीरयमला १५९ २८९ अम्बा-जनक-श्वशुरान् २२ ३६४ अम्भश्चर-स्थलचर २५५ २३९ अम्भोधयोऽपि मर्यादा २१६ २३८ अम्भोधौ युगशमिला ५४ १५९ अम्भो मागधार्थीयं अम्मादेव्यप्युवाचैव १२० ३७९ अयमात्मैव चिद्रपः २२४ ३८२ अमुल्लभ्यते वप्रः ३५३ २४२
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श्लोक नं. पृष्ठ नं. अयं खलु भटप्रष्ठः ४०५ ३२६ अयं च कालो रके च १५१ २३६ अयं दशविधो धर्मो ३१९ ३५४ अयं मत्प्रेयसीरूपो ३९९ २४४ अयं शकचरश्चक्री ३१६ ३९९ अयं साहसिकः किं वा २९१ २४० अयं हि सगरो नाम २१७ २२० अये ! कोऽसमयज्ञोऽयं २९२ ३२३ अयोध्यामण्डनं राज २३५ १९२ अयोवलयिते नाथ २०७ ३९६ अरक्त-द्विष्ट-मूढानां ३३१ ३५४ अरक्ताभिर्भाव-हाव २८७ ३८४ अरक्तो भुक्तवान् मुक्ति ७३ २८६ अरघट्टघटीन्याये ६४ १५९ अरण्यस्त्रोतसीवास्मिन् ५८ ३०८ अरण्ये व्याघ्र-सिंहादि ७० २९८ अरपाकाश्च हूणाश्च ६८० २०५ अरिष्टवृष्टिमच्छिन्नां २२३ २२० अरुध्यमानप्रसरो १७४ ३४९ अरुन्तुदैवचःशस्त्रः २५० ३८३ अरे ! तिष्ठ हयग्रीव ७३५ ३३७ अरे रे ! तिष्ठ सिंहेन १९४ ३९५ अरेरे देव ! कुत्रासि ? १८६ २३७ अरे वराकाः! किमिम २३२ २२१ अर्ककीर्तिकुमारस्य ४४८ ३२८ अर्चयामासुर स्ता ११६ २२९ अर्चित्वा देवतां तत्र ३९ २७६ अर्जयित्वा धनं देशा १४५ २७९ अर्जितद्रविणः सोऽपि ८८१ २११ अर्जितं पूर्वकोट्या यद् २३१ ३८२ अर्थलुब्धा गतवृणा २९० ३८४ अर्थलोभादर्थिजनैः १२२ ३६८ अर्थिनश्च स्वक-परान् ५३६ १८३ अर्थे भूयस्यपि प्राप्ते ३७१ २४३ अर्थे लभ्येऽतिरिक्तेऽपि ८४ २३४ अर्धाष्टमाः पूर्वलक्षाः १९४ २९० अर्धाष्टमाः वर्षलक्षाः ३०२ ३७४ अर्धाष्टभेषु लक्षेषु ५१ ३६५ अर्पयामास वसतिं ८७३ २११ अर्पयित्वा दण्डरनं ५५६ २४८ अर्भके स्थविरे वाऽथ १४० २३६ अर्ह तोऽहज्जनन्याश्च ५१९ १८२
श्लोक नं. पृष्ठ नं. अर्हत्प्रवचनसुधां ८ २८४ अर्हदहज्जनन्यौ ताः ६२ ३१५ अर्हद्भक्तिप्रभृतीनि १३ ३७५ अर्हद्भक्त्यादिभिस्तैस्तैः १३ ३१३ अर्हद्भक्त्यादिभिस्तैस्तैः ११ ३४४ अर्हद्भक्त्यादिभिः स्थानैः ७ ३५६ अर्हद्भक्त्यादिभिः स्थानः ११३६४ अर्हन्तमिव रूपस्थो १२ ३४४ अर्हन् देवो गुरुः साधुः २५ ३८७ अर्हन् देवो गुरुः साधुः १२५ २७९ अलङ्कारानलञ्चक्रे ३२ २०४ अलङ्कारो यथा मुक्ता ४६ २९७ अलघनीयां गुर्वाज्ञां ९४ २५८ अलङध्यशासने सर्व ५ ३०७ अलब्धमध्योऽब्धिरिव २१ २९६ अलब्धमध्यौ धवल २१५ ३५१ अलमत्र प्रहारेण ३१५ ३२३ अलम्बुसा मिश्रकेशी __ २१० १७३ अलम्बुसाद्यास्तूदीच्या अलं संसारवासेन १०३ २७२ अलसा सा गतावेव २८ ३१४ अलं सैन्यक्षयेणेति ६६९ ३३५ अलीकरांषपरुषं ५०९२४७ अलुब्धपूर्वा लुभ्यन्ति ५०४ २४७ अल्पो परिग्रहाऽऽरम्भौ १११ ३०४ अवतीर्य करिस्कन्धात् ८९ २१६ अवदद् ब्राह्मणोऽप्येवं ३६९ २४३ अवधिज्ञानतोऽज्ञासीत् ३८ १६८ अवधिज्ञानधराणां ११७ ३१० अवनीसाधनविद्या १६३ ३ १८ अवन्ति म देशोऽस्ति ९० २३४ अवन्दिष्ट जिनं शक्रः ४६ १६८ अवर्षतामुभौ बाणैः १७५ ३८० अवश्यकृत्यं भूतानां ७३ २१६ अवस्तुभूय स भ्राम्य ८० ३५८ अवान्तरोत्सवमिम ९३ ३४७ अवाप च जगन्नाथो ५२ ३०२ अवाप्नुयात् तरलता २१७ २३८ अविज्ञेयस्वरूपाय ७७ ३०३ अविज्ञेयस्वरूपे त्व ३८ २९२ अविमृश्यविधायित्वं २३९ २२१ अविमृश्यविधायित्वे १५४ २३०
श्लोक न. पृष्ठ न. अविरतश्रावकत्वे ५४ ३८८ अविषह्यप्रतापेन ४७ २१५ अविहस्तोदस्तहस्तैः ७९ २२८ अवेदनान् नारकांश्च ३१६ २४१ अवोचच्च सगरजाः १७१ २३१ अवोचदार्यपुत्रोऽपि २४५ ३९७ अशक्तिः स्वयमाख्याता ६१८ ३३३ अशरण्यमहो ! विश्व १४९ २७४ अशान्ततापः पीयूष १२८ ३९३ अशिवाश्च शिवाः कामं ६८ २२८ अशीतिधनुरुत्तुङ्गः ९० ३१६ अशीतित्रिंशदष्टा ४८७ २०० अशुल्क-दण्डामभट ५६७ १८४ अशेषमपि दुःकर्म ३०९ ३८५ अशेष राज्यव्यापारे अश्रद्धानौ तद्वाक्यं ३९१ ४०२ अश्रद्धयमसद्भूत ३२३ ३५४ अश्रद्धय मम ज्ञानं ३११ २४१ अश्रुपूर्णेक्षणां दीनां २३६ ३९७ अश्वग्री व पुराऽऽराद्ध ५०३ ३२९ अश्वग्रीवस्य वाऽन्यस्य ४५३ ३२८ अश्वग्रीवस्याग्रसैन्यं ६०३ ३३३ अश्वग्रीवान्तिक दूतः ३४३ ३२४ अश्वग्रीवाशङ्कया च ४६८ ३२८ अश्वरत्नं समारुह्य ३४ २१५ अश्वान् नियम्य काकिण्या २५६ २२१ अश्वेन सूनुमाकृष्टं ९६ ३९२ अष्टचत्वारिंशदंशा ५४२ २०१ अष्टप्रकारपूजाभिः ५५ २७६ अष्टमान्ते कृतस्नानः १७९ २१७ अष्टमान्ते च निष्क्रम्य ३३७ २२४ अष्टमान्ते नाटयमालो .. २६६ २२२ अष्टमान्ते रविरिवा ११६ २१७ अष्टमे च परिणम ५६१ २४९ अष्टषष्टिः सहस्राणि २१८ ३६२ अष्टाङ्गयाऽष्टादशाब्द्योने १६९ २७४ अष्टाङ्गेनाऽऽयुर्वेदेन १४४ २७३ अष्टाङ्गोनं पूर्वलक्ष १७४ २७४ अष्टाचत्वारिंशता च ८५६ ३४१ अष्टादश पूर्वलक्षी ६८३ २५२ अष्टादशाब्दलक्षाणि ३६१ ३५५ अष्टाधिकरणीग्रन्थान् २७८ २४०
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अष्टाऽधोलोकवास्तव्या अष्टानां महादेवीनां भापदगिरायत्र
येक नं.
अष्टापदं पुरमिप अष्टापदसमं स्थानं
अष्टापदाद्विपरिवा
अष्टपदाद्विपरिवा
अष्टापदाद्विपरि
अष्टापदाभ्यवर्त
अष्टाविंशतिरेवं च
५३६ २४८
५६४ २४९
५३८ २४८
७०० २०६
६५१ २०४
१५१ ३०६
५२६ १८२
अादिकान् सगरः
१५३ २१८
अष्टोत्तरं रत्नकुम्भ १३१ २१८ अष्टोदचक्रादेः १४७ २६० अटो व बादलम्बीनां १९८ २९४ अष्टौ तन्मध्यविष्कम्भे ५६१ २०२ असंख्यातान् समुल्लङ्घ्य ३६५ १७८ आस्य विनेशस्य ३४७ २६७ असम्जातफला वल्ल्य १९ २७५ असञ्जातान्तरौ नित्यं
अष्टाविंशतिसहस्त्रया
अष्टाविंशत्यङ्गहीनं चिमरेन्द्रः
असन्तुष्टास्तृणायन्ते
अभूतमस्वामि प्योधने
पृष्ठ नं.
३० ३०८
७३३ २०७
१२६ २२९
१३६ २३०
१३० २२९
१६७ २३०
असम्पभाषापूर्व व
असमीक्षितकासि
अवको द्गतश्याम संतोकान्
२३९ ३२१
३४५ ३८६
३२४ ३५४
२१२ ३६२ ३४४ ३५५
९२ ३०४ २३१ २६३
९५ ३१०
अन्तः केचिच्च
९ २३२
साद् विस्त्रसमानेषु २१६ १९१
असाधारणया ऋद्धया असाधारण वात्सल्यात् असारभित्यं संसारं असारेषु शरीरेषु असावटन्नटव्यन्त
१५ १५७ ४७ ३९० १७५ २९० ३५४ २६७
२३१ ३९६
८२७ ३४०
४३६ १९८
२०६ २३८
असावपारः संसारः
असावसारः संसारः
भसावसारः संसारो असावरमत्पूर्वजानां
१०६ २२९
असायमिनवः कोऽपि २८४ २४०
साविदानीं विजयाद् यथाऽस्माकं
३९ १६८ ३५७ ३२५
६
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
असि कस्त्वमियं का च २८६ २४३
२०६ २२०
असिरत्नं समाकृष्य असूतसमयेऽपि अनृतस्य जननी
८१ ३७७
२८१ ३८४
९६ ३०४
असूया पापशीतर अधिपत् किं मे १५४ ३९४ अविवा ७०५ २०६ असो सनत्कुमारीऽसौ ३०० ३९९ असो सम्पश्यमानानां
५४ २५७
अस्ति च क्षुद्रहिमवन्
अस्ति
अस्ति तत्र महानद्याः
४ १५७
अस्ति दुःखाकर लोके ८९ २३४ अस्ति विद्युभी नाम ४४५ २२८ अस्तीह काञ्चनपुर
१ ३८९ अस्त्रवृष्टया तयाsक्लाभ्यत् ६४२ ३३४ अस्त्वावयोर्द्वन्द्वयुद्ध ६७० ३३५ अस्त्रवेदः शरोरीव १५८ २१८ अस्यागार' यमस्येव ३८० ३२६ अस्ति मे निरस्त्रेण ३८८ ३२६ अस्पृष्टजनमार्गाणां
४५० १९८
५०८ ३३० अस्मद कम्प अस्मद्रश्या नृपाः पूर्वे १७५ १६२ अस्माकमप्यनाथानां ४४ ३५७ अस्मानापृच्छय सर्व त्वं १४० ३१८ अस्मासु स्वामिता तस्य ५१३ ३३० अस्त्राra area ५३४ २४८ अस्मिन्नपरे संसार
४२ २८५
अस्मिन्पारे संसारे
२५५ १६५
३०४ ३५३
अस्मिनारे संसारे अस्मिन्नसारे संसारे २५० २६३ अस्मिन् नितान्तवेराग्य ८०३ २०९ अस्मिन् प्रसादिन राजा १९७ ३२३ अस्मिन् वसति संवारे २९५ २६५
२६३ ३५२ ७०६ २०६
१०५ २९४
१६ २३२
अस्य चक्रस्य ययाशा
अस्य मध्यप्रदेशे तु
अस्पन् माय
अस्यां गिरितयम्प
६१६ २०३
४६१ ३२८
अस्याहं तृणवदिति
अस्यैव जम्बूदीपस्प अस्यैव पृष्ठे विन्यस्य अस्वत्वेन गृहीतः सन्
७१ ३९१ ३ २६९ ५६ ३९१ १०२२९४
नं.
पृष्ठ नं.
१८५ १६३ १४९ १६१ ३८७ २४३
९९ १६०
२५२ २३९ २२६ १७०
३५ ३९०
अहमेतां ग्रहीष्यामि अहं तु विविधक्रीडा अहं विद्याधरो विद्या अहं हि गृहवासस्थः
अहं हि सद्य उद्यान
अहं हि सौधर्मपतिः
७ २९१
अहो ! असारे संसारे अहो ! आश्चर्यमनिश अहो ! कमपि सौन्दर्य १९५ ३१९ अहो ! कोऽप्यस्य लावण्य ३५३ ४०० अहो ! दानमहो ! दानं १९८ २७३ अहो ! दानं महादानं २९५ १९४ अहो ! दैवेन दुर्बुद्धिः ५.१९३३० अहो ! प्रौढेरपि नृपैः ४०१ ३२६ अहो ! मम कुमाराभ्यां ३२६ ३२४ अहो ! सोमस्य साम्राज्ये ३१७ १८५ वयमियत्काल १५२ १६२ अहो! विलोचने अस्था ९ ३८९.
अहो ! स्मितं सुधावृष्टिः १६७२८९ आ ऐशानाच्च भवन ७९३ २०९ आ ऐशानात् समुत्पत्तिः ७८९ २०८ आकर सर्वदोषाणां
३१२ ३८५
तु
५१८ १८२
आकर्ण तच द्विगुणं १०६ ३७८ आत भगत् ९३५ २१३ आकस्मिकं महाध्वानं २३८ २४२ आकातिस्नाभ्यां १५८ २८९ आकाशाद् भूमिमध्याद् वा २९० २४० आ! किमेतदुपक्रान्तं १४५ २२० आ कीटादा च देवेन्द्रात् २६२ २६७ आफुले नागलोकं च १४० २३० आकृत्याsपि ज्ञायसे त्वं २२५ ३९६ आपला द्विमासोन ८५७ २४१ आमा १२० २९५ आकान्ताशेषदिक्कस्य आक्रान्तो युगपल्लज्जा आकामन् पहिलं मार्ग
आक्रामन् व्योमर
१९२ १९०
आक्रुष्टोऽपि स नाक्रोशत् २८७ १६६ आखोरावणकृते
३३ १५८ ४९२ २४६ १३६ १९२
२५९ २३९ आख्यच्च पर्षदे स्वस्यै १०० २१७ आरुयद् राजाऽपि तं देव्या ४३ २७६
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लोक नं.नं.
आगता च तरी ती २ १९८ २३८
आगतेष्वर्थषु दभी
आगतैः सवयोभूय
आगतः सभू
७२ ३९१
६३ ३४६
२२३ २६२
आगात् तत्र क्षणेनापि २५३ ३९७
आग्नेयवाणं धनुषि
७०६ ३३६
६८९ २०५
१९ ३८९
६६ २१६
आग्नेयादिषु तन्माना आघात इव सर्पेण आचकर्ष तमाकर्ण आचकर्ष श्रियो राश ११२ १८८ आचख्युः क्षेत्रिणोऽप्येवं ३६८ ३२५ आयपी प्रभुरवस्याः ८६१ २११ आचरूपी भगवानेवम् आयान्तः भुतगण्डूषः आचार्य पादान् वन्दित्वा ९४ १६० आचार्ययामपार्श्वस्था २५१ १६५ आचार्योऽप्यालला पैव १३९ १६१ आच्छिन्दता च राज्यानि १५६ १६२ आच्छिन्दन्तोद्विषां
१० २२६
१२ ३७५
१५२२६०
आजगाम च चैको
१३८ ३४८
आजगाम प्रभुभूविः
६४ ३०३
आजपाना पुस् २०६ ३९६ आजघ्नुर्झल्लरी: केsपि ४४९ १८० आजमदीपमगमत् १०६ १७० आजन्मस्वीकृतस्तस्य आजन्मानन्य साहाय्यो
५ ३०१ २१२९१
आज्ञप्ता वासवेनाऽथ १७९ १९० आज्ञया तस्य सद्योऽपि ३७६ १७८ आज्ञया सदां राज्ञो २७१ १७५ आशां कृत्वा ते ६०५ २५० आज्ञा चेत् खण्ड्यतेऽकाण्डे २५६.३२५ आज्ञातिक्रमदोवर्या २१७ ३५१ आज्ञा-पाय- विपाकानां ३३२ १९५ आज पुरुषसिंहारूयः
१२४ ३१७ ४४१ १९८ ३५९ २६७
२० ३१४
आज्ञो स्यादाप्तवचनं आइये निस्यं नृपं र आद्रयम्भविष्णुर्यशसा आयो वित्रजिषुरिव आततज्यधनुःपाणिः आपण दधार को आतिष्ठमानाः सकल आतोद्यपुवद् भन्ने
५९ २९८ ६३ २१५
४८५ १८१ १७७ १६२ १९१ २३७
A
लोक नं. पृष्ठ ने.
२८५ १७५ १४१ १८९
९८ २९४
९३ २९४
१७४२८०
आसताले नमि
आत्मचिन्तानुकूलेन आत्मदेहादिभावानां
आत्मनः सर्वमप्येतद्
आत्मपुत्रमुभयत्
आत्मरक्षीसह सेव आत्मरी रश्यमान आमसहायिके स्वतः
आत्माऽज्ञानभवं दुःखं आत्मानं तरुशाखाया
आत्मानं प
१६६ १७२
९८ ३७८
३९६ २४४ २२३ ३८२
६ २३२
५५ १६८
आत्मानमात्मना वेत्ति
२२२ ३८२
६२ २७७
आत्मानुरूपा रूपेण आत्मैव दर्शन - ज्ञान आइये मनिपादान्ते
२२१ ३८२
११७ २७८
:
आदाय तांश्र ते देवाः ४२४ १७९ आदावुत्क्षिप्ता म १०८ २७२ आदित्यशसः सून १२७ २३५ आदिदेश ततः शको ५६ १६८ आदिदेश विशामीशो २२७२३८ आदि देवताऽप्येवं १०९२३५ आदेशाला भ४२ १८६ आदेशाद भपतेस्तस्य ५७३ १८४ आदेशेन समं तासां आगे तामुद
१६१ १७१
२७५ २६४ ७५३ २०७ १२९ ३०५ ३४० २६६ ८७२८७ १२ ३८७
आदौ मदर्शनं नाम आयन्तती धनाथाभ्याम् आयवप्रेऽवास्थितं आये दिए नरके आनन्ददायकत्वेन आनन्दं नाटयन्नुच्चेः ४६२ १८१ आनन्दबाष्पतोयेन १५१ ३९४ आनन्दाद्या एकाशीतिः १०९ ३१० आनीय पर्या आवस्त्यां २५६ २६४ आनीयाssनीय पानीय १७ २१४ आपणानां सहसेस्तु
५८३ २०२ ३६ ३८८
आपातनामकस्तत्र
आपाता नाम दुष्पाताः आपित्यवपुरिय आपूर्ण इव पाथोदो पूर्णा देवकोटीभिः आपृच्छस्व परं गत्वा
२०० २२० ८० १६९
१८४ ३५० ३२४ १७६ ९६ २७८
श्लोक नं. पृष्ठ . आप्तमूर्च्छण १६३ २३६ आप्लावयति नाम्भोधिः ३१३ ३५४ आबाल्यादपि भावक
४५ ३९०
आकारक
७९० २०८
आभिजात्यमहो ! तस्य ५२० ३३० आभियोगिकवेयव
आमित्युको
आमित्युके कुमारेण
आमित्युक्तो मेर
आमुक्तचिमनेपथ्य
आमुक्तदिव्यालङ्कार आमेत्युक्तोऽचलेनाथ
आयतनप्रमाणेन
आयासमात्र नश्वर्य
आयुधानादिशति आयुकेरिव मौहले आयुःशेषे मासप
आयुः सागरसः स आयोजन गामिनीभिः आयोजनं सुमनसो आरक्ष इव दस्यूनां
आरभ्य केवलात् पूर्व आरभ्य केवोत्पत्ते आरभ्यते पूरयितुं
आरात् खण्डप्रपातायाः आरात्रिकमथो चकः
आराधिक सप्तशिल आराधयंस्तीर्थकरान्
आराममिव धर्मी आरामिक इवाऽऽराम
आरूढक्षपक श्रेणे
आरूढः पञ्चमीं धारा आरुषि दि आरुह्य पालकं शक्रः आयरनैर्विम आरोग्य स्वार आरोग्य दिव्यशिविका आरोग्य शिबिकामन्य
आर्जवं सरलः पन्था
३७८ १७८
१३५ २२९
८६ १६९
१२५ ३६०
५६ ३६६
५७ ३५७
३७७ ३२५
७१९ २०६
३४६ ३८६
४५१ २४५
५८ २९८
३११ १६६ ३१० १६६ १२२ २२९
२१९ २८२
१७३ २३१
३९६ २६८
६६५ २५२
३२६ ३८५ २६५ २२२ ११८ २२९ २२८ १९२
४६ ३९०
८१ १५९
५ २५५
६५ ३०३
३०५ २२३
३८ ३१४ १६४ २६० ९८ ३१६
२६० १६५ ६९२२५२ ६९३ २५२
३०० ३८४
आर्त्तानामसिंहरणे आर्यावास
आव तिष्ठ मावि सति २८६ ३२६
८२९१ ४७४३२९
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श्लोक नं. पृष्ठ नं. आ सौधमे शानकल्प ७५८ २०७ आस्फलत्सु मिथः कांस्य १७१ १९० आस्फालयन्तः फलका १६७ ३६९ आस्फालयामासतुस्तौ १७४ ३८० आहतस्तस्य चक्रस्य ७२७ ३३७. आहारकशरीराद ७१ १८७ आहाय रेव हि गुणैः ३६ ३९०
"
श्लोक नं. पृष्ठ न. आर्य देशा अमी एभिः ६७३ २०५ आयदेशे समुद्भूता १३० २८८ आर्यपुत्रस्तु तान् सर्वा २०४ ३९६ आर्य पुत्रोऽपि सन्नह्य २६६ ३९८ आयपुत्रोऽवदद् भूयः १८९ ३९५ आय पूत्रो दयावीरः २३४ ३९७ आर्यस्य बलभद्रस्य १३० ३६० आर्याय ! भवतः कोऽय ७३७ ३३७ आर्षभेरिख सेनानीः १४० ३४८ आलिङ्गिपुष्करमुखा २९० १७५ आलोकमात्र तं नत्वा ५८६ २४९ आलोकयलोकनालिं आलोकस्तिमिरेणेव ८३ ३०९ आवयोरक्षता प्रीतिः ३३५ ३२४ आवर्त इव लावण्य ४२५ ३२७ आवश्यके व्रतशीले १२७ ३०५ आवाभ्यां खड्गशङ्कग ४७८ २४६ आवाभ्यां तदिहागत्य ४०१ ४०२ आवामपि ग्रहीष्यावः ८१ १८७ आविश्चिकीर्षुः सद्भाव २१८ ३९६ आविभूत क्षणान्मेघ ५३ २५७ आविष्ट इव भूतेन १८ ३८९ आवृत्तवृन्तपद्माभ २४१ १६४ आवृतोऽनुवरीभूय ४८३ ३२९ आवृष्टवारिदमिव ७७३ ३३९ आवैताढय प्रतापाढयो ८८ ३५८ आशंसन्तीपु माङ्गल्य २७८ २६४ आशास्यते यत् प्रयत्नाद् १४६ २८९ आशु गत्वा द्वारवत्यां २३२ ३५१ आशूपविश्य करभा. १६२ ३६९ आश्चय' दर्शयिष्यामि ३२४ २४१ आश्चर्य भूतान्यन्यानि २५७ २३९ आसनादीनि संवीक्ष्य २६९ १६५ आसनादौ निषद्यायां २८५ १६६ आ सर्वाङ्ग प्रसरता ४४४ १८० आससाद क्रमेणाऽथा ५५९ २४८ आसाञ्चक्रे भ्रतशरो ७१ २१६ आसाद्यते दुरन्तेना ६५ २५७ आस्थितं मण्डलिकया ५३२ २०१ आसीत् तत्र धरो राजा २३ २८४ आसीत् सनत्कुमारोऽपि ३४६ ४०० आसीदस्मिन्नसामान्य ११८ २३५
इक्ष्वाकवो ज्ञात-हरि ६७४ २०५ इक्ष्वाकुकुलचन्द्रस्य १५३ ३८० इक्ष्वाकुवंशतिलक १२८ २७९ इच्छासम्पन्नसर्वार्थ ८.७ २०९ इतः कल्पे प्राणताख्ये २९ ३४५ इतः कल्पे सहस्रारे २५ ३५६ इतः कषायाः क्रोधाद्या. ३०१ ३५३ इतः क्षण क्षणमितः १७० ३४९ इतः पुरे राजगृहे ११० ३१७ इतः सदोद्यतो मृत्युः ७७ २५८ इतश्च कश्चिदप्यादयः १४३ २७९ इतश्च वेयकस्थ १८ ३८७ इतश्च छद्मस्थतया ७७७ ३३९ इतश्च जम्बूद्वीपस्य १२ २९१,
१३ ३४४, २१ २६९ इतश्च जम्बूदीपान्त १८ २८४ इतश्च जम्बूद्वीपेऽपा १०३ २५९ इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् १० ३८७,
११ ३०७, ११ ३५६, १२ ३६४, १३ २९६,
३०१, १५ ३७५, ६४ ३७७, ६८ ३९१,
श्लोक नं. पृष्ठ नं. इतश्च पुण्डरीकिण्यां १०८ ३१७ इतश्च पूर्णमेघेन ३२३ २२३ इतश्च पोतनपुरं १५९ ३१८ इतश्च पोतनपुरे ५७४ ३३२ इतश्च भगवान् धर्मः १९४ ३८१. इतश्च भरतक्षेत्रे ९१ ३५८ इतश्च ममता वेत्र ३०३ ३५३ इतश्च मास छद्मस्थो २८२ ३५३ इतश्च वर्षद्वितय १७४ ३६१ इतश्च विजयाच्च्युत्वा १८ १६७ इतश्च विशाखनन्दी इतश्च वैजयन्तस्थः २८ २९७,
२८ ३०२ इतश्च वैताढयगिरौ ४१५ ३२७ इतश्च शुक्रे नलिन ३० ३१४ इतश्च सगरस्याऽस्त्र १२१४ इतश्च समवसृत ३९९ १९७ इतश्च स सहस्रारा १०३ ३६७ इतश्चाजितनाथोऽपि १०१ १८८ इतश्चात्रैव भरते ७५ ३७७ इहचानतिदूरेऽस्ति २२१ ३९६ इतश्चाऽऽसीत् पुरे रल २४६ ३२१ इतस्ततः क्षिपन् पाणी १८ २७५ इतस्त्रिवर्षी छद्मस्थो १९६ ३७० इति चाऽचिन्तयमहं ११२ १६० इति चिन्तयतो धारा १२९ १६१ इति चिन्तयतो भतु २५२ २६३ इति चिन्तयतो राज्ञः ६७ १५९ इति चिन्तापरं नार्थ १३८ १८९ इति तं निर्णय स त्रिः २०३ ३२० इति तेनोदिते राजा १४६ ३१८ इति तेषां वचः श्रुत्वा ३७१ ३२५ इति त्रिषष्टिस्तत्रेयुः ७० ३१५ इति दिव्या गिरं श्रुत्वा ७५६ ३३८ इति द्रव्यादिसामग्री ४६४ १९९ इति द्विपृष्ठवचसा २६४ ३५२ इति न ज्ञायते नातं २२६ २३८ इति निश्चित्य रभसा ८४ २५८ इति पृष्टः कुमारेण १६७ ३९४ इति प्रतिक्षणमपि १२७ १८८ इति प्रशंसां रूपस्या , ३४४ ४००
६९ ३६६, १२१ २७८,
१३२ ३४८. इतश्च तस्यां यामिन्या ५२९ १८३ इतश्च द्वारका नाम १९३ ३५० इतश्च नगरे पृथ्वी १३० ३४८ इतश्च नन्दिषेणस्य २७ २९१. इतश्च नवमे कल्पे. ११२ २५९ इतश्च नागदत्तोऽपि ४८ ३९० इतश्च पवनवेग इतश्च प्राणते कल्पे २६.३०७,
२६ ३६५
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श्लोक नं. पृष्ठ न. इति प्राग्जन्मसंसिद्ध १९ २२६ इति प्राप्याऽपि सामग्री ५६ १६१ इति ब्रुवाणं ब्रह्माणं ३४५ २४२ इति वाणां जननी ११८ ३७९ इति मूलप्रकृतीनां ४७६ १९९ इति मोक्षमुपेयुषः १२३ ३०० इति लोभं निराकतु ३४७ ३८६ इति श्रुत्वा हयग्रीवो ७४४ ३३८ इति संजातवैराग्य ३७८ ४०१ इति सामसुधावृष्टया ३३७ ३२४ इति सोऽचिन्तयद् यावत् १५५ ३९४ इति स्तुत्वा गृहीत्वेशं ८३ ३१६ इति स्तुत्वा जगन्नाथ ६३१ २५१ इति स्तुत्वा जिनपति ४५ ३६५ इति स्तुत्वा धुसन्नाथे ९२ २९४ इति स्तुत्वा नमस्कृत्य १२८ २२९ इति स्तुत्वा प्रभुकिञ्चित् ४७९ १८१ इति स्तुत्वा प्रभु शक्रो ३०१ २६५ इति स्तुत्वा विरतेषु ८२६ ३४० इति स्तुत्वा सुनाशीरे ८९ २९९ इति स्तुत्वा हरिनाथ १९५ २८१ इतो वेयके जीवः ३३ २८५ इतो भूत्वा प्रतीक्षेथां ३६० ४०१ इतो विकटजीवोऽपी ८० ३७७ इतो विमाने विजये ४९ २७० इतोऽस्य जम्बूद्वीपस्य १ १६७,
७४ ३६६ इत्थं कथमपि क्षमापं ३६५ ३२५ इत्थङ्कारं च समव ३७० १९६ इत्थङ्कारं पातयामि १३५ ३१७ इत्थं कृतनिदानः स ७१ ३७७ 'इत्थं कृतनिदानः स ८४ ३५८ इत्थं चक्रिपदाभिषेक ३७० २२५ इत्थं च जन्मतः स्वामी ९८ २७२ इत्थं च भूमयः सप्त ५०२ २०० इत्थं चारित्रगात्रस्य २७५ १६५ इत्थं तृतीये वप्रेऽस्था ८११ ३४० इत्थं त्रयोदशं तीर्थ ४५ ३५७ इत्थं दशविधो धम ९० २७७ इत्थं पृथग्जन इव १६५ २३७ इत्थं महद्धिभिः शक्रः ३२० १७६ इत्थं विचार्य मनसा १६२ १८९
श्लोक नं. पृष्ठ नं. इत्थं विदन्नपि भवी ५१ १५८ इत्थं विधुरमालोक्य १७१ ३६९ इत्थं समवसरण ४३३ १९८ इत्थं सम्पश्यमानस्य ४१९ २४४ इत्थं स्तुत्वा स्थिते शक्रे ८९ ३०९ इत्थं स्वयम्प्रभां देवीं ४९३ ३२९ इत्यजस्त्र जन पाल्य ७१ २५८ इत्यधस्तात्तियगूद्धर्व ७९७ २०९ इत्यनित्यं विदन् सर्व ३७२ २६७ इत्यभाषत तानग्नि ५३८ ३३१ इत्यभाषिष्ट सा देवी १३३ २१८ इत्याकर्ण्य वचो राजा १५० ३४८ इत्याकण्य हयग्रीवो ७२४ ३३७ इत्याख्यातेऽपि भूपेन १२३ ३१७ इत्याज्ञां नगराध्यक्षो ३६९ २२५ इत्यादि चिन्तयन् राज ९६ २५८ इत्यादिभिदुनिमित्तैः . ९८ २३४ इत्याद्युक्त्वा सनिर्बन्धं १२६ ३१७ इत्युक्तः प्रतिहारेण ७१ २३४ इत्युक्तः प्रश्रयात् ताभिः २२२ ३९६ इत्युक्तयोस्तयोः क्रोधो १५१ ३८० इत्युक्तवत्यां बकुल २९६ ३९९ इत्युक्तवन्तं तं दूतं ३४२ ३२४ इत्युक्तवन्तं सामर्ष ५४६ ३३१ इत्युक्तः शाङ्गभृच्चक्र १६५ ३६१ इत्युक्तस्तेन दूतेनो ५०४ ३३० इत्युक्तः स्वामिना सोऽथ १६० १८९ इत्युक्तः सोऽगिजटिना ५०६ ३३० इत्युक्ता तेन सा बाला २३९ ३९७ इत्युक्तास्तै घमुखा २३४ २२१ इत्युक्ता यकाठेन ६३९ ३३४ इत्युक्ते लज्जिताः पौरा २०५ ३२० इत्युक्त वह्निजटिना ६२१ ३३४ इत्युक्तोऽजितनाथेन १४३ १८९ इत्युक्तो बलभण ३१८ ३२४ इत्युक्तो मन्त्रिणा तेन १५६ ३४९ इत्युक्तो मेरमा १५६३६० इत्युक्तो विष्णुना दूतः ५१६ ३३० इत्युक्त्या कुपितः सद्यो २३७ ३५१ इत्युक्त्या विस्मितो भीतो १३३ ३६० इत्युक्त्वा तत्र तूष्णीके ८५९ २१० इत्युक्त्वा न्यासमिव तं ३२१ २४१ इत्युक्त्वा नारदमुनि १३७ ३६८ इत्युक्त्वा भूपतिः सद्यो ५४ २७६ इत्युक्त्वा मुष्टिमुद्यम्य ३१४ ३२३ इत्युक्त्वा राक्षसपतिः ३८ २२७
"लोक नं. पृष्ठ नं. इत्युक्त्वाऽवस्थिते दूते ३५२ ३२५ इत्युक्त्वा सोऽपरेऽपीन्द्रा ५९ १६८ इत्युग्र कर्मकौटिल्यं ३११ ३८५ इत्युच्चकै?षणया ३६१ १७७ इत्युत्कटकटुं वाचं २४१ ३५१ इत्युत्पाटय गदां श्रङ्ग ७३६ ३३७ इत्युदित्वा तिरोभूय २२० २२० इत्युदित्वा ययुर्ब्रह्म ५९३०९ इत्युदित्वा स रोषेण ९१९ २१२ इत्युदित्वा स्थिते तस्मिन् ३७४ २४३ इत्युदीर्य महावीर्या २०३२२० इत्युदीय सहस्राक्षः ३३७ १७७ इत्युदीर्याऽजितस्वामि १४० १८९ इत्युवाच च तान् भूयः २०४ ३२० इत्यूचतुश्च ती युक्ता ९८ २७८ इत्यूचुस्ते वय गङ्गा २८० २२२ इत्यूजितं स तर्जित्वा १९५ ३९५ इत्येते नव निधयः २७९ २२२ इदं जगत्त्रयश्रोत्र २३०७ इदं जन्म पारमिव ९१ ३४७ इदं तु मास्म शङ्कवं ३६१ ३६७ इदं देवस्य साम्राज्य १६७ १६२ इदं प्रेष्यत केनेहा १०७ ३५९ इद विरुद्ध श्रद्धत्तां ६२६ २५० इदं सर्वास्त्रसर्वस्वं १६२ ३६१ इदानीं त्वत्प्रसादेन ८८ २९९ इदानीमावयोरेवं १५६ ३८० इदानीमेकसामन्त ५४८३३१ इन्द्रजालप्रयोगादौ ३६७ २४३ इन्द्रजाले मतिभ्रश ३७० २४३ इन्द्रजालमिदं ह्यद्य ३७६ २४३ इन्द्रत्वेऽपि हि संप्राप्ते ३१५३८५ इन्द्रध्वजेन च पुरो ८०० ३४० इन्द्रन्यस्त देवदूष्य १२४ ३४८ इन्द्रनीलम वान्त
४३ २७० इन्द्रा अपि समेत्यैव ५८ २७१ इन्द्राणां च चतुःषष्टे २३२ १९२ इन्द्रा द्वाषष्टिरन्यऽपि १९२ २६२,
४८० १८१ इन्द्रादिपदवीप्राप्तिः ९१ २९४ इन्द्राः परिवृता देवैः ४०९ १७९ इन्द्राश्चतुःषष्टिरूपे १९७ २९० इन्द्राश्चासनकम्पेन १२४ २५९ इन्द्राः सामानिकास्त्रायः ७७० २०८ इन्द्रास्त्रिषष्टिरभ्येत्या इन्द्रियाणां विषयेण ७८३ २०८ इन्द्रियार्थरसस्वादु
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१०
श्लोक नं. पृष्ठ नं. ईशावग्निकुमाराणां ५१२ २०० ईशोऽहं वः सबन्धूनां ५०९ ३३० ईश्वरो महेश्वरश्च १८० २६१ ईहामृगाऽश्व-वृषभैः २८६ १७५ ईहामृगै रत्नमयः १५९ १७१
"" उक्त्वा मित्रेष्विवाऽमित्रे ५२६ ३३० उक्ष्णस्तानुपसंहृत्य १९७ २६२
श्लोक नं. पृष्ठ नं. इन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्यत्र १४. २७३ इन्दोर्विमानं विष्कम्भा ५४१ २०१ इन्दौ विद्युत्कुमाराणां ५११ २०० इभगन्धेन गन्धेभ २४२ ३५१ इमं देवोऽपि भूभारं १६६ १६२ इमं विकृत्य प्रासादं २४४ ३९७ इमामाज्ञां समालम्ब्य ४४८ १९८ इय का ? पारिपाश्चिक्यः १२ २७५ इय खलु धरित्रो मे ३६ २५६ इयत्काल न कोऽप्यस्थाद् १७८ १६२ इयत्कालमहं स्त्री वा ४८६ २४६ इयमृद्धिः कुतो वा ते १७१ ३९४ इयं हि त्वद्भुजाधारा १३१ ३७९ इयहि पूर्व तेन स्त्री ३८८ २४३ इयेष च व्रतं स्वामी ५६ ३०३ इलादेवी सुरादेवी २०७ १७३ इष्वाकारपर्वताभ्यां ६४२ २०४ इह जीवस्य मा भूवन् २३३ २८२ इह त्वदर्शनालोक २१४ ३८२ इहातिघोरे संसारे १३३ १६१ इहान्यत्वं भवेद् भेदः ९६ २९४ इहापि दृश्यते लोके ११२ २७८ इहव तेऽवतिष्ठन्ते १३० १८९ इहैव भरतक्षेत्रे ३८१ २४३
उग्रेण तेजसाऽऽदित्यो १२६ २३५ उस्तपोभिर्विविधैः ३२८ १९५ उचितं साचतं वाऽपि ३७ २३३ उच्चपेटः प्रति सर्प ३९३ ३२६ उच्चैनीचैर्भवेद् गोत्र ४७४ १९९ उच्चैरुच्चैःश्रवःकल्पैः ६० २१५ उच्छलच्चम्पकाशोक ११८ ३४७ उच्छीर्षे कुण्डलद्वन्द्व ५०६ १८२ उच्छ्वास सह मेदिन्या ५३३ १८३ उच्यते स कथं बन्धुः १५७ ३४९ उज्झाञ्चकार तदनु २५६ १९२ उज्झाञ्चकार सगरः ४१३ १९७ उड्डीनमुच्चकैः काण्डं १६३ ३६९ उत्कटभ्रकुटीभीमो २४९ १७४ उत्कर्षेण चतुस्त्रिंशत् ७४७ २०७ उत्कील्यंन्ते त्वचयद्भिः १२१ २८८. उत्कृष्टया त्वरितया १७३ १७२ उत्कृष्टलक्षणशतैः ५८१ १८४ उत्केसरततिात्ता उत्क्षिप्तशैलशिखरे १६४ २३० उत्क्षिप्यमाणे धूपे च ४६८ १८१ उत्तमां जातिमाप्नोति २५८ ३८३ उत्तम्भनेनाऽद्रिरपि ५७ २३३ उत्तरङ्ग इवाम्भोधिः २५० १७४ उत्तरद्वारमार्गेण ६२१ २५० उत्तरस्मिन्नजनाद्रौ ५२४ १८२ उत्तरीयच्छन्नमुखाः १५७ २३६ उत्तरीयरुभयतो ५४९१८३ उत्तरेण प्रयाग च ५७४ २४९ उत्तरेण समीरेण १४१ ३९४ उत्तरे वर्षधराद्रि ५८८ २०२ उत्तिष्ठ गच्छ त्वं तस्मै १६०३४९
श्लोक नं. पृष्ठ नं. उत्तिष्ठ बन्धो ! निर्बन्धः ८९२ ३४२ उत्तीर्य कु-जरस्कन्धाद् ७७ १५९ उत्तीर्य वर्धकिकृत ३४ ३८८ उत्तीय वाहनेभ्योऽहं १११ १६० उत्तीर्योत्तीय चोत्सङ्गात् ५० २९२ उत्तङ्गशङ्गरुचिरः २३ १६७ उत्तोरणमुत्पताकम् ३४२ २२४ उत्तोरणामिव दिवं ४६७ १८१ उत्थाय लब्धसंज्ञोऽसौ १८७ ३९५ उत्थाय लब्धसंशस्तत् १८७ ३८१ उत्थाय शयनीयाच्च ४६ २७६ उत्थायादाय तच्चक्र १६१ ३६१ उत्थायाऽऽदाय शक्रोप ३७६ २६७ उत्पत्ति-विगम-ध्रौव्य ८१५ २०९ उत्पत्योत्पत्यो राजानो २०१ १६३ उत्पद्यमानः प्रथमं २३० ३८२ उत्पन्न केवलज्ञानः १०० १८८ उत्पन्न केवलानां तु ६६८ २५२ उत्पन्ना आय देशेऽपि १२९ २८८ उत्पन्ने स्वामिना ज्ञाने ३४६ १९५ उत्पाट्योल्लालयामास २४८ ३९७ उत्पृच्छो विधृतच्छत्र ३४ ३१४ उत्पेदे स्वामिनो ज्ञान २०७ २८१ उत्प्रासनं स कन्दर्पो ९४ ३०४ उत्फालचित्रककुल ११५ ३९२ उत्फालमर्कटकुल , ३१७ १९४ उत्फुल्लसुमनोभूरि १२० ३४८ उत्सङ्गे हृदये दोष्णोः १६ १८५ उत्सर्पयन् दोषशाखां २७३ ३८३ उत्सवं वसुपूज्योऽपि ५५ ३४५ उत्सवेन गरिष्ठेन ७९ ३७७ उत्साह-मन्त्र-प्रभुता ६ २६९ उत्साहादुत्प्लवमानैः ४६ २१५ उत्सृज्य तृणवद् राज्य २९१ २६५ उदकश्रेणेस्त्वमी भूता ३९३ १७८ उदग्द्वारा प्रविश्याऽथ ३३९ २६६ उदग्द्वारेण समव ४१६ १९७ उदररम्भाचतुःशाले १५६ २६० उदयन्निव मार्तण्डः ८० २१६ उदयाद्रेरिवाऽऽदित्यो ५८५ २४९ उदस्तपूर्णकुम्भाभ्यां २५ १६७
ईक्षाञ्चक्रे च तान् मङक्षु १७६ २३१ ईक्षाञ्चक्रे जगन्नाथ ३४५ १९५ ईक्षाञ्चक्रे तदानीं च ३१ ३४५ ईदृक्षमपि चेत्स्वामी २९६ २४१ ईदृगू विमानं शक्राज्ञा ३०७ १७६ ईर्यासमितिशालिन्य ५५३ १८३ ईर्ष्या-विषयगाद्धर्येच १०० ३०४ ईशानकल्पाधिपतेः ४० ३४५ ईशानवद् दक्षिणेन ३७२ १७८ ईशानाङ्कस्थित नार्थ ४१ २८५ ईशानाके निवेश्येशं ३३ ३५७, ३६ २९२, ३९ ३७६,,
१८५२८१ ईशानाङ्के प्रभु न्यस्य ३५ ३०८ ईशानाधिपतेरके ३४ ३६५ ईशानेन्द्राङ्कपर्य? ३७ २९७
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११
लोक नं. पृष्ठ नं. उष्णवात्याभिरनल १३१ ३९३ उष्णेन तप्तो नाऽनिन्द २७९ १६५
ऊचतुश्च महाभाग ! ३९२ ४०२ ऊचे च राजा यद् वेत्सि ३३२ ३२४ ऊचे पुरुषसिंहोऽथ १८२ ३८१ ऊचे विमाता वादोऽय १५१ २७९ ऊचे सनत्कुमारोऽपि ३५९ ४०१: ऊनमष्टाविंशत्यङ्गया १४७ ३०६ ऊरू च कदलीस्तम्भ १९० ३१९ ऊद्धववप्रान्तरावन्या ३२७ २६६ ऊद्धर्व विद्याभृच्छेणिभ्यां ६०९ २०३ ऊद्धा-अधोभागयो रज्जु ७९८ २०९ ऊर्जितं गर्जितं तादृक् ७४२ ३३८ ऊर्मयोऽपि हि गण्यन्ते १९१ २८१
श्लोक नं. पृष्ठ नं उदाजहार सगरो ५२४ २४७ उदासे शिबिका पूर्व २१० १९१ उदियाय च पूर्णेन्दुः १९७ २३८ उदीरयामास ततो १५० ३६० उदीरितमहादुःखा ८९ २८७ उदीरिते सूरिणैवं १४३ १६१ उदीर्णस्वागतमिव ६२ ३६६ उद्घाटितं गुहाद्वा १८९ २१९ उद्ण्डपुण्डरीकादया १७ ३०१ उद्दामदुन्दुभिध्वान ८२६ २१० उद्दामभ्रकुटीभीम १४२ २३० उद्दिश्य क्षुद्रहिमवत् २४८ २२१ उद्दिश्य तत्र तं नाग ५६० २४९ उद्धृतचामर: कैश्चित् ३०४ ३९९ उद्बुद्बुदरवैः कुम्भैः ४२५ १७९ उबुद्धया तयाऽऽख्यातान् २२५ ३२. उद्यानद्वारसौवर्ण ४१२ १९७ उद्यानपादप इव ९२ २७२ उद्यानपालबालाभिः ५९ ३५७ उद्यानमिव चारित्र ७३ ३६६ उद्यानादिप्रदेशेऽपि १३५ २७९ उद्यानादिषु ते स्वैरं ५० २२७ उद्यानादिषु रम्येषु १४ २६९ उद्यानेऽरिन्दमाचार्य २४७ १६४ उद्यानेषु विचित्रेषु ८१ २२८ उद्यानविपुलैस्तत्र २८ २७० उद्वाहमण्डपमिव १४२ ३६० उद्विग्ना यावदस्थात् सा ८७२ २११ उद्विद्रुममिवाऽम्भोधि २८२ १७५ उद्वीचिहस्तकैनृत्यन् १२१ २५९ उन्नतस्येव मेघस्य ८७ २९३ उन्नते पार्वतः किञ्चित् ५३ १६८ उन्नमद्बाहवश्चेलान् २९१ १९३ उन्नेमुजलदाः सद्यो ७१० ३३७ उन्मनायां विनिक्षिप्ता १९२ २१९ उन्मार्गदेशना मार्ग १०९ ३०४ उन्मृष्टाङ्गो दुकूलेन ५५९ ३३१ उन्मृष्टो गन्धकाषाय्या ६४३ २५१ उपचारं प्रयच्छन्तः १८ ३६४ उपचाराहणीयेषु ५५२ २४८ उपत्यकायां तस्याद्रः ५७३ ३३२ उपदुद्राव तान् सर्वान् ५३६ ३३१
लोक नं पृष्ठ नं उपपाद (त) भवा देव २३९ ३७२ उपमानपदं किं स्यात् ३६८ २६७ उपर्युपरि कल्लोल उपरि व्यन्तरश्रेण्यो ६१० २०३ उपरिष्टाच्चतुर्विशां ६३४ २०४ उपरिष्टाद् गणभृतां ८२० २०९ उपरिष्टाधस्ताच्च ६५२ २०४ उपरोधात् तयोः स्वं च ७३ १८७ उपलक्षयितुं तं च ४२० २४४ उपलक्ष्येव संसार ५८ २९२ उपवासे ततः षष्ठे ४० २७६ उपसर्गरनुदिनो १०१ २५८ उपसंगितामोदो ८२५ २०९ उपस्थितो युगान्तोऽयं ३६१ २४३ उपात्तोपायनः सोऽथ १२१ २१७ उपाध्यायेनाऽप्यभमा ४६ १८६ उपायनमुपादाय १२४ २१७ उपायं प्रायुक्त तुर्य ८ २५५ उपाययुरुपाध्यायाः ५३७ १८३ उपायैर्वर्धयस्तैस्तैः ६३०७ उपास्यमानस्ताभ्यां च ११५ ३१० उपास्यमानां तां ताभिः ११ २७५ उपेश्य लोष्टक्षेप्तारं २४३ ३८३ 'उपेतेषु चमूपाले १६७ १९० उपेत्य पुष्करोदेऽपि ४२७ १७९ उपेत्य पौरप्रवरा १७६ १९० उपेत्य शीघ्रं पुरुष २०६ ३८१ उपेत्याऽरिन्दमाचार्यान् ८९ १६० उभयोरपि चोर्ध्वाऽधो ५७ १५९ उभयोरेप्ययुद्धयन्त २६९ ३९८ उभाभ्यामिति विज्ञप्तो १५७ २८० उभावथाऽsसाञ्चक्राते ४८७ ३२९ उभावपि गजारूढौ ४७२ ३२९ उभावभ्यज्य तैलेन १५३ २६० उभौ हर्षाश्रु वर्षन्तौ १६० ३९४ उरःस्थलकराघात १८१ २३७ उरिवरजा रम्भा २५ ३६५ उलूकवत् प्रविविशुः ६३२ ३३४ उलूलुध्वनिना तूर्य ४९४ ३२९ उल्वणैर्बाध्यमानानां ४९८ १८२ उष्ट्रपृष्ठसमारूढः ३०८ २४१
" " ऋतुकालव्यतिक्रान्तौ ३२५ ३५४ ऋतुः साक्षादिव मधुः ६४ २७७ ऋद्धया महत्या चक्रस्य २७ २१४ ऋद्धया महत्या भुजङ्ग १४ ३०७ ऋध्या महत्या श्रीदेवी ४२८ ३२७ ऋद्धया महत्या सहितो ८१५ ३४० ऋषभस्वामितीर्थस्थ ९८ १८७ ऋषभस्वामिनिर्वाण १०० २२८ ऋषभस्वामिनो बिम्बं १०१ २२९ ऋषभस्वामिनो वंशे १९४ २३७ ऋषभस्वामिपुत्रेण ५५३ २४८ ऋषभा वर्धमाना च ७१४ २०६ ऋषभाविव गर्जन्ता ४७३ २४६ ऋषभे भरतश्चक्री
"ए" एक उत्पद्यते जन्तु २३० २८२,
१३२ १८९ एक उल्लालयन् वज्र ३४३ १७७ एक एव समादचे २३७ २८२ एककोश इव खड्गा २१४ २३८ एकच्छार्य क्षितिरुहैः २५४ १९२ एकजीवपरिमाण ३७० ३७३
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१२
श्लोक नं. पृष्ठ नं. एकं तमेव हत्वाहं १३१ ३६० , एकतः सर्वकृत्यानि ३९ २७० एकतः सर्वसौख्यानि ३२ २७६ एकं तावत् कृतं कर्म ३६१ ३२५ एकदाऽपि कृतान्यायं २२२ १६४ एकदा मासिकं च द्वि ३२२ १९५ एकदा सर्वसामन्ता १३७ ३४८ एकदेश इव स्वर्ग ५ १५७ एकं द्विजन्ममिथुन ८५१ २१० एक निबन्धनं तस्य ९१ २९९ एकपादेन फालाभं ११ २८४ एकयोजनमानेन एकयोजनसहरत्र ५५६ २०२ एकरश्मिधुतानीव ३०८ २६५ एकविंशसप्तदश ६३३ २०४ एकविंशोजनानां ५३२ २०१ एकः शक्रः प्रभु दधे ६९ २७१ . एकः शल्यायते किन्तु ९२ २५८ एकस्मिन् मोचके कुन्त १६५ ३६९ एकस्य धर्मचक्रित्वं ९२ १८७ एकस्यैकस्य चन्द्रस्य ५३९ २०१ एकसहस्त्रोनद्रोण २९१ २२२ एकः सुरपतिस्तेषु ३३९ १७७ एकाक्षा बादराः सूक्ष्माः २४६ ३७२ एकाक्षाः स्थावरा भूम्य २२९ ३७१ एकाकिना च जतव्यं १०७ २७८ एकाकिनी किमगच्छ: २८ ३९० एकाकी निर्ममो मौनी ७१ २९८ एकाकी मौननिरतो ७० २९३ एकाङ्गो निर्ममोऽसङ्गः ६३ ३०३ एकाङ्गोने पूर्वलक्षे ६७१ २५२ एकातपत्र' साम्राज्य २५८ ३२१ एकादश-द्वादशयोः ४१८ १७९ एकादश सहरत्राणि १६७ २७४,
११७ २९४ एकान्तदुःखदग्धानां २९० २६५ एकान्तानन्तसुखदः एकामिषाभिलाषेण ३२३ ३८५ एकावलीप्रभृतिभिः १२ ३०१ एकासनसमासीना ४३५ २४५ एकाहमपि निर्मोहः २६२ १६५
श्लोक नं. पृष्ठ नं. एकेन तेनात्तकरा २३ ३७५ एकेन प्रभुमुद्धत्य ६६ ३१५ एकेनौष्ठेन चाकर्ष ३९६ ३२६ एकोनत्रिंशतं पूर्व २०२ २८१ एकोनद्वात्रिंशल्लक्षा २६८ १७५ एकोऽपराधो भवन १७२ २३१ एकोऽयमेव जगति ४१९ १९७ एणीजङ्घाप्रतिरूपे एत एवान्यथारूपाः १२४ ३०५ एतत् तदेव वदनं ४३२ २४५ एतदेव कृते चैत्यं १३२ २२९ एतद् वलयविष्कम्भे ७०४ २०६ एतस्यामवनी तावद् ११७ २३५ एतस्यामवसर्पिण्यां
४२ १६८, १२५ २५९, १४९ १७१ एतस्यास्तनयो नायं १७६ २८० एतस्मिन् भरतक्षेत्रे ७८ २१६ एतानि जीवस्थानानि २४७ ३७२ एतान् गर्भस्थिते तीर्थ १०० १७० एतामपहरिष्यामि १५ ३८९ एतां चमत्कारकरी २२६ २८२ एतावन्तश्च भृङ्गारा ४२२ १७९ एते च विजयादेव्या ३६ १६८ एतं तदा विष्णुदेव्या ४० ३१४ एते ददृशिरे स्वप्नाः ८२ १६९ एत्य प्रदक्षिणापूर्व २१३ १७३ एत्य विद्याधरौ द्वौच २५७ ३९७ एत्य शक्रो मेरुशैले ३१ ३५७ एत्याऽपरेयुः सगरे ३४९ २२४ एभिः प्रलापैस्तदलं ३६ २३३ एभिः स्वप्नैपर्महादेवि ६९ १६८ एभिः स्वप्नैस्तव देवि! ५७ २७१ एयुश्चतस्त्र चित्राद्या १४८ २६० एयुश्चतस्त्रो रूपाद्या १४९ २६० एयुस्तत् सूतिकावेश्म १९१ १७२ एवमभ्यर्थितस्तेन २२७ ३९६ एवमन्तःपुरस्त्रीणां २३ २३२ एवमप्यर्प्यतां सर्व १२७ ३६० एवमस्त्विति राजाऽपि १६३ २८० एवमस्त्रान्तर रस्त्रा १७५ ३७० एवमात्मानुरूपं तौ ५६ १८६
श्लोक नं. पृष्ठ नं. एवमाभाषमाणस्य ५३३ २४८ एवमालप्य सत्कृत्य २४२ २२१ एवमालोच्य ते सर्वे ३८ २३३ एवमाश्वास्य तान् राज्ञः ७६१ ३३८ एवमाश्वास्य तान् सर्वान् ६० २३३ एवमासूत्र्य सूत्रामा २१३ २६२ एवमिन्द्राश्चतुःषष्टिः ४१७ १७९ एवमुक्तवतस्तस्य १८९३७० एवमुक्तः ससंरम्भं १६५३८० एवमुक्त्वा तु सा स्वामि १२७ ३७९ एवमुक्त्वा विश्वभूति १३७ ३१८ एवमुक्तः कुमारेण ७९ २७७ एवमुच्चैः प्रतिज्ञाय २५८ २३९ एवं कुमार: कुपितः १३३ ३१७ एवं कोलाहलं व्योम्नि २९७ १९४ एवं च चिन्तया तस्य ४०३ ३२६ एव च चिन्तयामासुः १४७ १७१ एव च तीर्थकृत्कर्मो ३०१ १६६ एवं च दथ्यौ ज्वलन ४९६ ३२९ एव च देशनां श्रुत्वा १०६ २९४ एवं च प्राक्प्राग्वलय ५०० २०० एवं च पालयन् राज्यं १२० १८८ एव च मानविषयं २८० ३८४ एवं च सेनापतिना २५४ १७४ एव चिन्ताप्रपन्नेषु ६१६ ३३३ एवं जहूनुकुमारेण १५५ २३० एवं जितकषायः स ३४८ ३८६ एवं जिनपतिं स्तुत्वा ५३ ३४५ एवं तत्त्वानि जानानो २८७ ३७४ एवं तदुक्त्याऽभ्यधिकं १६२ ३८० एवं तयोरालपतो २४७ ३९७ एवं तस्या ब्रुवाणायाः ४२५ २४४ एवं तां देशनां श्रुत्वा ३५० ३५५ एवं तीव्र तपस्तप्त्वा ३०४ १६६ एवं तृणवदस्त्राणि ७१२ ३३७ एवं दशममर्हन्तं ४५ ३०८ एवं देवविमानानां ७८० २०८ एव देशनया भर्तुः २८८ ३७४,
८४५ ३४१ एवं निसर्गसर्वाङ्ग २३२ २६३ एवं नैमित्तिकगिरा ४६६ ३२८
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श्लोक नं. पृष्ठ नं. एष सिंहः पुरुषेषु ८२ ३७७ एषां पृथक् पृथक् स्थाना ६२ १५९ एषोऽपि सुभटम्मन्यः १७९ ३७० एषोऽहं वज्रवेगारिः २७४ ३९८ एह्यहि भो! समित्कण्डू ३८९ ३२६
ऐशानदिश्यूद्धर्व-मध्य ८३२ २१० ऐशान-सनत्कुमार ७७६ २०८ ऐशान्यादिविदत्वन्त ६९१ २०६ ऐशान्यां पालकं मुकूत्वा ६४ ३१५
"ओ" औजो दधन् माघवनं ४४३ २२८ ओमित्यूचे विमाता तु १७० २८०
"और औदार्य-धैर्य-गाम्भीर्य , ३० १५८ औदासीन्येऽपि सततं २७५ १९३
श्लोक नं. पृष्ठ नं. एवं पित्रा समादिष्टो १०८ ३७८ एवं पुरुषसिंहेन १८४ ३८१ एवं प्रबोध्य पितरौ १०६ ३४७ एवं प्रवृत्ते समरे ६५८ ३३५ एवं प्रशस्तनामानो ७४२ २०७ एवं मनसि निश्चित्य १६ ३८९ एव मन्त्रिभिरप्युक्तः १९६ १६३ एव महादुःखहताः ९९ २८७ एव रुदित्वा विविधं ३३ २३३ एव लक्षाणि योनीना २४५ ३७२ एव वत्स ! विचारेण १९२ १६३ एव' वदन्त्यां पश्यन्तां ४२२ २४४ एव वसुमतीनाथे २४६ २३९ एवं विचित्रक्रीडाभिः २२६ २६२ एव विचित्रमानन्दात् ४५९ १८० एव विचिन्त्य नपतिः १९८ ३२० एवं विचिन्त्य पुरुषैः ३२९ ३२४ एवं विचिन्त्य संसार ४१ ३९० एवं विचिन्त्य सुचिरं १३ २८४ एवं विचिन्तयन् प्रीतैः ५८१ २४९ एव विज्ञप्य यातेषु १०९ ३४७ एवंविधैरनुष्ठानैः १३ ३०१ एवं विभक्तावयवा १९१ ३१९ एवं विमृश्य मनसा ४९८ ३२९ एवं विलापिनमथो २०३ २३८ एवं विश्वजनीनेन ८११ २०९ एवं शाङ्गिणमाश्वास्य १३३ ३७९ एवं सनत्कुमारस्य १४७ ३९४ एवं समाकर्ण्य सनत् १५८ ३९४ एवं स राजाऽभिहितः २६५ २४० एवं सुख वैषयिक ४४ २२७ एवं स्तुत्वा विरतेषु २१८ ३८२ एवं स्तुत्वा स्थिते शक्रे ८१ २८६ एवं स्थिते च सर्वज्ञो ४१ २२७ एवं स्वप्नफलं राज्ञो ७१ १६९ एवं स्वर्लोकवस्तूनि १७४ २९० एष छेत्स्यामि ते शीर्ष १५१ ३६० एष छेत्स्यामि संसारं ८८ ३४६ एषणीय कल्पनीय एषणीयं कल्पनीय ३०४ २६५ एष येषां प्रमाणेन २८५ २४०
. श्लोक नं. पृष्ठ नं. कथं वा कथयिष्यामः ४३ २३३ कथं संसारवैराग्य ९६ १६० कथान्तरे जगन्नाथ ८५२ २१० कदाचिच्च भ्रमरकैः ६० ३४६ कदाचिच्चातक इव ८६८ २११ कदाचिच्चारुसंगीतैः २९२ ३९८ कदाचिदन्याभिरपि २९४ ३९८ कदाचिद् दिव्यवापीषु २९३ ३९८ कदाचिद् वारितरणैः ६२ ३४६ कनकच्छेदगौराङ्गो ७८ ३९१ कन्दर्पशासनमिव २५० १६५ कन्दरेषु गिरोन्द्राणां १०७ ३९२ कन्यादान महीदानं १५८ ३०६ कपाटपृथुले तस्य २२ २९६ कपाटोद्धाटनं तच्च १८३ २१९ कपित्थैः पातितश्छन्नां १३४ ३१७ कपोलपाल्योगीवायां ४३९ २४५ के प्रति स्वयमावेशो २५२ १७४ कफ-मूत्र-मलप्रायं २७० १६५ कफविपुड्जल्लमल ३८७ ४०१ कबन्धास्ताण्डवं चक्रुः ६५६ ३३५ कम्बोजेषु वाल्हीकेषु करमुक्तयन्त्रमुक्तः १७७ ३८० करिराजकराकार ३५१ ४०० करोन्द्रकरकल्पोरु २३० २६३ करेणुकाधिरूढाभिः ७५ १५९ करोतीत्यन्तकालेऽपि ७६ २५८ करोम्येवं विनष्टे किं १९३ २३७ कर्कोटकः कार्दमकः ६३५ २०४ कर्कोटको विद्युज्जिह्वः ६३६ २०४ कर्णमर्माविद्भिरिव १४५ ३९४ कर्णिकारैः कणिकाभि ६१ ३६६ कर्बटानां मडम्बानां २९२ २२२ कर्म-काय-मनो-भाषा २६८ ३७३ . कर्मणः प्राक्तनस्यैव ५९ ३९१ कर्मणां स्थितिघातादी २५७ ३७२ कर्मध्वंसः शुभध्याना ४४० १९८ कर्माणि भवमूलानि ४५ २९७ कर्माहिपाशनिर्णाश २ १५७ कषकर्ष निषङ्गात् ता १७३ ३७० कलत्र त्रायमाणेन ४८४ २४६
क एते मामुपद्रोतुं २३० २२१ ककुभो द्योतयद् दूराद् ४१ २१५ कच्छूशोषज्वरश्वासा ३८५ ४०१ कञ्चित् स्मरसि भूनाथ ५१४ २४७ कञ्चिदप्यतिवाद्यैवं १० ३६४ कटाक्षमिव कालस्य ६७७ ३३५ कटिस्थकरवैशाख ४७८ १९९ कट्या हृदि च पृष्ठे च २१२ ३५० कणयेन त्रिशूलेन ३७ १८६ कणौ शिरसि सुस्तब्धौ ३७९ ३२६ कण्टकोच्छेदपरशो १९ २५६ कण्ठश्च लटभो नालं १८७ ३१९ कण्ठे हानीहाराद्रि २६९ २६४ कण्डूयद्भिः सैरिभेभ १२४ २३५ कतर: स्ववधायैव ६६२ ३३५ कतर: स्वामिनमपि ६६३ ३३५ कञ्चदपि लब्धेन २५ २५६ कथञ्चिद् बलभद्रेण ८९ ३७८ कथमत्र समायासी १६५ ३९४ कथं गम्यः कथं प्रार्थ्यः २८९ ३९८ कथं न कोऽपि व्रते वः १८५ २३७
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श्लोक नं. पृष्ठ ने. कलत्र-पुत्र-मित्राद्यः १३७ १६१ कलशा-शिनौ बाहू १४१ ३०५ कलाकलापकलनाद् १६ १६७ कलाकलापं सोऽध्यैष्ट ११४ ३१७ कला जग्राह सकलाः ६१ २७७ कलापिकलकण्ठादि ११५ १६० कल्पद्रुरिव पत्राणि ४०१ २४४ कल्पान्तकल्पे दुष्काले ३५ २५६ कल्याणकन्दलोभेद ७३ २७७ कल्याणकल्पनाकल्पो ५४० १८३ कल्याणकारणं दातुः ३०५ २६५ कल्याणगर्भ-जन्म १२४ २२९ कशाभिस्ताडयन्तोऽश्वान् ५२७ ३३० कशामुक्षिप्य चैकेन ९१ ३९२ कश्चिदुद्भाव्यतां तस्य २२७ ३५१ कषाय-नोकषायाणां १०५ ३०४ कषाया विषया योगाः ८४ ३०३ कषायोदयतस्तीत्र ९३३०४ कस्त्वं ? किमागतोऽसाति २७६ २४० कस्मैचिदन्यथैकस्मै ४५१ ३२८ कस्य तिष्ठस्यवष्टम्भाद् १६३ ३६१ कस्यापि मायिनोऽदोऽपि २३२ ३९६ कस्याश्चिद् योषितस्तत्र २३३ ३९७ काकतालीयन्यायेन ७ ३८९ काकोले चक्रिरे रोला ५६९ ३३२। काचखण्डेन स मणि ५३१ २४८ कातरोऽसीति सचिवं ५५६ ३३१ कानप्युन्मूलयन राज्ञः ८५२१६ कानप्युन्मूलयामास २०७ २२० काऽप्यपेक्षा मुमुक्षूणां ६४० २५१ काममर्थ च धर्म च २० ३६४ कामवर्षिणि लोकानां ३९१ १९७ कामाथी पादकण्टक ४ ३८७ काययोगे स्थितः सूक्ष्मे ६८० २५२ काये वयसि चित्ते च ३१० ३८५ कारवश्चानयजाश्चैव २९१ ३८४ कारागारात् पुराबद्धा २२९ ३२१ कारामोक्षादिना यच्छ २०० ३५० कार्मणेन च सा तेन २२ ३८९ कालक्रमेण पितरौ ८६५ २११ कालद्वये तदुपरि ६२२ २०३ कालमुखान् जोनकांश्च १६७ २१९
श्लोक नं. पृष्ठ न. कालं विनाऽस्तिकायाः स्युः २६५ ३७३ कालः सुरूपोऽथ पूर्ण ४०४ १७९ कालसेयेन च क्षीरं ५३२ २४८ कालादिण्टेन सद्योऽपि ५७ २५७ कालिका च तथोत्पन्ना १६१ २७४ कालिकेवांऽशुमद्विम्बं ११६ १७० काले च कृत्वाऽनशनं १४ ३७५ काले चासूत सा सूनु २० ३८७ काले त्वशीतला-ऽनुष्णे ४६० १९९ कालेन क्षपयित्वाऽऽयुः १२ २९६ कालेन गच्छता सोऽभू ९२९१ कालेन च त्रिदण्डित्वं ५० ३९० कालोदः पुष्करोदश्च ७४४ २०७ काश्चन प्रस्खलतीषु २१५ १९१ कांश्चित् क्रौञ्चनिषदना ८४ १५९ काश्चित् तत्कालमुद्वाह २१८ १९१ कांश्चित् ताासनान् कांश्चित्
८५ १६० कांश्चिदुत्कटिकासीनान् ८२ १५९ काश्चिद् ददत्यः कनक १४१ १७१ काश्चिद् देशान्तरादिष्टा २१७ १९१ किश्च त्वामयनापृच्छ १९० १६३ किञ्च पुत्रक्षयं श्रुत्वा ४६ २३३ किञ्च सम्भाव्यतेऽमुष्या १५९ २३० किञ्चाऽसौ मे पिता माता १४२ २३६ किञ्चिच्च सुकृत कृत्या १८ २२६ किञ्चित् कथयतां तेषां १५६ ३०६ किञ्चिदुन्नमितग्रीवः ३३९ २४२ किञ्चिदुन्नमितैकभ्रः २३१ २३९ किञ्चिदुन्मीलयन् नेत्रे ३७३ ३२५ किञ्चिद् विमृश्य तं शरं ७० २१६ किञ्चिन्नातः पर वाच्य १४५ ३१८ किन्तु नाऽद्यापि करुणा ३३२ २४२ किन्तु पातालगम्भीरा १५८ २३० किन्तु विज्ञपयाम्येकं ११० २७८ किन्त्वष्टापदतीर्थस्य १५० २३० किन्त्वसौ गृहवासस्थैः ९२ २७८ किन्नरैनलताभिः १६० १७१ किमनेन प्रभो! पृष्टं ८६० २११ किमन्यैरुत्सवैस्तासां ? २० २७५ किमन्योऽपीदृशः कोऽपि ३४२ ४०० किमस्मदधिकं हन्त १४३ ३४८
श्लोक न. पृष्ठ नं. किमाधिधिते कोऽपि २६ २७५ किमिन्द्रियाणां दमनैः ३३७ ३८६ किमुन्मत्तोऽथवा मत्तः १५० ३६९ किमेतत् तव पुत्राभ्यां १२६ ३६० किं कुलेन कुशीलस्य २६२ ३८३ किं तिरोधानविद्येह २६ २३२ किं त्वत्र संसारपथे १०० ३४७ कि नामाऽभ्रांलिहेनाऽपि १४६ १८९ किंनिमित्तमिहायातौ ३५५ ४०० किं पुनः स महाभाग २६३ १६५ किं मत्तेन प्रमत्तेना १२७ ३६८ किं मुधा सैन्यसहारे १४१ ३८० किं रागद्वेषसंकीण ३३९ ३८६ किं वा गन्धविहीनेन १४८ १८९ किं वा निझरहीनेन १४७ १८९ किं वा रत्नानि केनाऽपि ७५ २३४ किं वा रथादिकर्ताऽसि १२३८ २३९ किं वा वीणाप्रवीणोऽसि? २४१ २३९ किं विसृष्टास्त्वया नामी ८७७ ३४२ कियत्यपि गते काले २१६ ३२० किरीट-रत्न-मुक्काख १०३ २१७ किरीटं मूर्ध्नि सर्वस्य २६८ २६४ किल्बिषिकाश्चेति तेषु ७७१ २०८ कुकूलैरिव विस्तीर्ण: १२९ ३९३ कुङ्कमेन व्यधीयन्त ५४५ १८३ कुञ्जरः कुञ्जरेणेव ६८ ३७७ कुर-जराणां वाजिनां च २९६ २२२ कु-जराभ्यां पूर्णकुम्भ २१९ ३२० कुटिल-श्यामलः केशः ६० १८६ कुटुम्बिका इव वयं १७३ २१९ कुटुम्बिनः पत्तयो वा २४० २२१ कुट्टयित्वा रासभव ३२४ ३२४ कुण्ठापि यदि सोत्कण्ठा ८३ २७१ कुण्डलादिष्वलङ्कारे २२० १९१ कुण्डलीभूतनालाभान् २७० २६४ कुण्डले च दुकूले च २०८ २६२ कुतः सम्भाव्यते तेषां १६८ २३७ कुतो हेतोरियत्कालं ६६४ ३३५ कुत्र कुत्र न वाटव्यां ८६ ३४६ कुत्र कुत्र न वा देशे ८५ ३४६ कुत्र कुत्र न वा द्वीपे ८७ ३४६ कुन्तप्रोतोऽपि हुंकुर्वन् १६७ ३४९
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श्लोक नं. पृष्ठ नं. कुन्तं शक्ति शर्वलां च ५२ १८६ कुपिता भामिनी साऽथ ४५४ २४५ कुपितोऽथ हयग्रीवः ६८२ ३३६ कुभोजनेनाहरिव १० ३१३ कुमार दोषेणाऽऽत्मान' ३५१ ३२५ कुमार ! परित्रायस्व ११२ ३७८ कुमारभावे पूर्वाणां १२३ ३१० कुमारयोदुर्ललित ३३६ ३२४ कुमारस्यांपहरणं १०५ ३९२ कुमारावूचतूर्तात ३५८ ३२५ कुमारे कवचहरे १६१ १६२ कुमारैः सह ये जग्मु : ६५३ २५१ कुमारो मामपेत्येह १४९ ३७९ कुमुदं कौमुदीनाथे १९७. १६३ कुमुदानीन्दुभासेवा १३५ ३०५ कुम्भकारस्य तस्योप ५९३ २५० कुम्भः सनाभिः स्तनयोः २४ ३६४ कुम्भिकुम्भस्थलेगोच्चे ४०४ १९७ कुम्भेभ्यो निपतस्तेभ्यो ४४२ १८० कुम्भो भद्रासना-ऽऽदशौ ४६४ १८१ कुरवो गजपुरेण ६६८ २०५ कुराला सर्वविधिषु
४९ ३०२ कुरूणां मध्यभागेन ५७३ २४९ कुरुवंशनभोभानो २४१ ३९७ कुरुवंशसरोहंसा १५६ ३९४ कुर्वतां गीतनृत्यादि ३४३ ३५५ कुर्वन् कृत्तालीन् कांश्चित् ८७ २१६ कुर्वन्तिोऽथाऽष्टाह्निका १७७ २७४ कुर्वन्तो भीषणान् नादान् ६११ ३३३ कुलक्रमागताऽप्येषा २१३ १६३ कुलटेवाऽपवादेभ्यो २१५ १६३ कुलदेवतयाऽथोक्तं १०५ २३५ कुल राज्य पुरी चाऽत्रा ८९ २७२ कुलश्रीखि सा मूर्त्ता २१ ३५६ कुलार्यास्तु कुलकरः ६७५ २०५ कुलीनाः कृतिनः शूरा ७८ ३४६ कुलीनैः सचिवैरात्म २११ ३२० कुशास्त्रश्रवणं सङ्गो २०९ ३६२ कुष्ठादिव्याधिजा बाधा ११३ २७८ कुसुमामोदमत्तालि २४३ १९२ कूटषाङ्गुण्ययोगेन २८३ ३८४ कूटाः कूटतुलामाना २८५ ३८४
श्लोक न. पृष्ठ नं. कूष्माण्डदारमुदरा ५ २३२ कृतचर्चाश्चन्दनेन ४३८ १८० कृतमालाभिधं तत्र १४६ २१८ कृतषष्ठतपा माघ २५८ १९२ कृतषष्ठः पारणाय ३८३ ४०१ कृतस्नानाः कृतप्रायः ७३ २२८ कृतस्मितमिव स्मेर कृताङ्गराग आमुक्त १०७ २७२ कृताङ्गरागो भगवान् ६१ ३०९ कृतान्त इव सङ्घद्धो १४४ २३० कृतार्थ मद्य मे जन्म ३०६ ३५३ कृतार्थ मेऽभवज्जन्म १२२ ३७९ कृतार्थ यन्नर्थिवर्गान् १०६ ३६७ कृतार्था दर्शनेनापि ८९ २९३ कृतार्थीकृत्य भूयिष्ठः ५१९ २४७ कृतौ देहिको भ्रातुः ८९९ ३४३ कृत्रिमं जज्वलु: केऽपि ४५८ १८० कृपया पितृवत् तेषां २१२ २२० कृपाधनो धिनोति स्म १८८ १९० कृशश्च कुलिशस्येव ६६ १८७ कृशानुवर्षिणी नाग ५८४ ३३२ कृषि-सेवा-पाशुपाल्य ३४३ ३८६ केचिच्च ढोकयामासुः ५५८ १८४ केचिच्छाणैर्निवृष्यन्ते १०४ २८७ केचिदानन्दबहल ४५७ १८० केचिदास्फालयामासुः ३ २३३ केचिद् गजवरारूढा ७५ २२८ केन चाऽभ्र लिहमिह ९५ २२८ केनैष मुषितः ? कोऽयं ६५ २३३ केऽपि केऽपि कृतोऽप्येत्य १४३ २३६ केऽपि खेन समापेतु ५३० ३३० केऽपि चाचालयन् पाद ४५६ १८० केऽपि प्राकारश्रृङ्गाणि २२६ १९१ केऽपि स्नात्रविधि पेठुः १११ २२९ केऽप्यभित्रिभराञ्चक्रः ११० २२९ केऽप्यास्वादितकिम्पाका २ २३२ केऽप्युत्फुल्लकुपोलाऽऽस्या ४४८ १८० केयूर-कटकादीनि १३२ २१८ केवलज्ञानिनः पादान् ६०४ २५० केवलज्ञानिनस्तस्माद् ६०२ २५० केश-रोम-नख-श्मश्रु ४२४ १९८
श्लोक नं. पृष्ठ नं. केशाकेशि मुष्टामुष्टि २४ २२६ केशानुत्पाटयामास २५२ १६५ केशान् शक्रः समादाय १०१ ३१६ केषाञ्चित् पेतुरस्त्राणि ६३० ३३४ केसरी केसरभरे ११७ २५९ केसरीवेभयूथेषु १७३ ३४९ कैरपि द्विरदारूद्वैः ३०६ ३९९ कैश्चिदग्रस्थितैः स्वस्व ११३ ३४७ कैश्चिद् विज्ञप्यमानश्च १९५ १९० कोकिलाभिः कलालापो २८ ३७६ को गौरवी मेरुगिरौ? २७५ ३२२ कोटिरेका हिरण्यस्य १८५ १९. कोटिशचारणवरैः २४५ १७४ कोटीशतत्रय स्वर्ण २५९ २६४ कोटीश्वरो नरेन्द्रत्वं ३१४ ३८५ कोणराहन्यमानेषु १७० १९० कोदण्डनागसंयुक्त १८१ ३६१ कोदण्डोद्दण्डदोर्दण्डो २५ २८४ को दृष्टो विक्रमस्तस्य ६३५ ३३४ को नाम मे बलोत्कर्ष १७८ ३७० कोपाऽरुणकरालाऽक्षः ५४३ ३३१ कोपारुणेक्षणद्वन्द्वो १३४ ३६८ कोपिष्यामि मुहुः कस्मै ४३७ २४५ कोऽप्येकदा मया पूर्व २८७ ३९८ कोमलेन दुकूलेनो २३१ १६४ कौकुमेनागरागेण ५५२ १८३ कौङ्कमेनाङ्गरागेण ५७५ १८४ कौटिल्यपटवः पापा २८२ ३८४ कौटिल्यशङ्कुना क्लिष्ट ३०३ ३८५ कौतुकान्मिलिता व्योम्नि ३९८ ३२६ कौबेर-वानवासेषु ७२ ३४६ कौमारे पञ्चदशाब्द ५२ ३७५ कौमारे पञ्चदशाब्द २२७ ३६३ कौमारे पूर्वलक्षार्ध १५० ३०६ कौमारे पूर्वलक्षे द्वे १२० ३०० कौमारे पूर्वाणां लक्षाः १७३ २७४ कौमारेऽब्दलक्षे सार्धे ३६३ ३८६ कौमारेऽब्दसप्तशती ३०५ ३७४ कौमारेऽब्दसहस्राणि ५५ ३८८ कौमारेऽयुः पूर्वलक्षा २६१ २८३ कौमारे वर्षलक्षार्घ ४०२ ४०१
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श्लोक नं. पृष्ठ नं.
कौमारे सप्त लक्षाणि ३०१ ३७४ कौमारेऽस्य व्यब्दशती २६५ २८६ कोमारे स्वामिनी वर्ष ८६१ ३४१ कौशलं सर्वशस्त्रेषु कौसुम्भेनोत्तरी येण क्रथकैशिक सूपर
२१९ ३५१
क्रमादासादयामास
क्रमेण यवहरी क्रमेण तदन्येऽपि
२३८ ३२१ २६४ २६४
क्रमेण युगपचाि ५. १८५ क्रमेण सापस्तत् त ३६७ १७८ क्रीडत्रवधूका १७ ३४४ क्रीडदुत्तवेताल ३१८ १९४ क्रीडा घायतो भर्तुः २२४ २६२ क्रीयाsपि न ते मौन ८९४ ३४२ क्रीडयाऽपि प्रचलतो २४१ ३२१ क्रीडागिरिरय' तस्य ९८ २२८ क्रीडाघातमपि तयोः ११३ ३६८ क्रीडानिमित्तमधुना २९५ ३९९ क्रीडाभिस्तन चित्राभिः क्रीडार्थमागतेनेह क्रीडावापी स्मरस्येव
८७ ३९१
७८ २७७ १८९ ३१९
९ १८५
क्रीडाशुक - मयूरादी क्रीडाश्रान्तपुरस्त्रीणां क्रीडोद्यान - सरो- वापी क्रुध्द : सन्नार्य पुत्रोऽपि कुदः स्वसैन्यमन
६० ३६६ ९७ २७२ २५० ३९७
१७५ ३४९ यतः कार्यसिद्धि २३६ २८२ क्व च सा कुसुमामोद ११७ १६० कवि कुलनारीणां ५३९ १८२ विवचितं १४० २८८ गद्यर्थरिकाश्रेणि ६८७ ३३६ क्व तद्रूप ं क्व सा कान्तिः ३६४४०१ क्व रे ! विद्याधरा ! याथ ६३४ ३३४
५५१ १८२
७१ ३४६
८८ २१६
साकु विधान्त १९४१६० क्वाथान रोगीव सरितां १३२ ३९३ क्षण चुकोप बाणेन ग' तेन प्रहारेण
क्षगम
क्षणमात्रं प्रतीक्षस्वा
गादयस्थ देखिन् क्षणादानाययामासु
२५२ २२१ २६७ ३५२ २२४ १९१ ३३५ २४२
३३० २२४ २३७ १७४
१६
क्षणाद्दृष्ट
गन्न
क्षणाद् रम्यमरम्य च क्षगान्मेण्ड क्षणेनाऽपि मया तस्य
पायां क्षुधितोऽशेत
क्षमया मृदुभावेन
ने. पृष्ठ नं.
२१९ २३८ १२८ १६१
६७ ३१५ ४७९ ३४६ ८६६ २११
९४ ११.०
१७६ १६२
क्षमीभूतेषु पुत्रेषु क्षरन्मदैर्गजवर :
४१० १९७
शान्तिः शाशको वा ८० २७७ क्षारेतरसाम्राद १०६ २८७
क्षितेरसि त्वमाधार २१० १६३ क्षिप्तस्य तस्य खाद् भ्रश्य ३८० २६८ श्रीषाधिकर्माच ६८२ २५२ क्षीरकण्ठोऽस्य रे ! बाल ! ७१६३३७ क्षीरोदः किमुदीर्णोऽसि ८२० ३४० क्षीरोदात् त्रिदशैरम्भ ३२४ ३९९ क्षीरोदादिसमुद्रेभ्यो १८६ २६१ क्षीरोदे न्यस्य तान् केशान ६६ ३०९ क्षुधा पिपासा शीतोष्णा १२४ २८८ क्षुधार्त्ताः शक्तिसम्पन्न २७६ १६५ क्षेत्रया हि खनति ५६५ २५९ क्षेत्राः पञ्चदशसु ६६५ २०५ क्षेत्रे योजनमात्रे च ३३५ १९६ क्षेत्रे-सीप विमानोप ४५९ १९९ क्षेमङ्कर' क्षितिपते ९३ १६९ क्षेमा योग १४८ २७९ क्षोणीनाथ ! तवाsत्रैव ४१० २४४
Skyp
खड्गः खङ्गो धन्व धन्व दण्डः सदोर्दण्ड घातिनिधि
खुप-जरमध्यस्थ
३० २३२ ६४८ २३४ १२ ३४४ १४५ २७३ ३२९ १९५
४१ ३८८
खडीव स्वाम्यनासीनः ण्डारस्थं खण्डप्रपातया सेना ४२ ३८८ खनित्वा विदर त २२३ १७३ ऽस्मिन् २९८ ३२३ स्वामिनि हि २९९ ३२३ खलुक्त्वा यदि वाऽनल्पं ५१ ३४५ खिन्नखिन्नैमुच्यमानो ११९ ३९३
खे खेचरथस्त खेचरास्तितिरक
३९४ ३२६ १२५ २८८
लेटकानां महस्वाणि
पृष्ठ ने.
२९३२२२
गगने यानेन गङ्गाजलं तद्यशश्च गङ्गादिषुदिनीपु
४२९ १८०
गङ्गायाः पश्चिमे कूले २७७ २२२ छाप २७४३ ३१८ गच्छतस्तस्य सहसो ५६३ ३३२ गच्छ दूताधुनैवास्मान् २४० ३५१ गच्छन्न शुभाव १५२ ३९४ गच्छन्नह्नि द्वितीयेऽपि १७९ ३९५ गच्छन् मार्गे शार्ङ्गमाणि १७० ३६१ गच्छ मास्मद्वचो गोप्यं १६४ ३८० गच्छेगी राजा २४७ २२१ गच्छेस्तियन् मानो वा ५६ २५७ गच्छानय रणाय स्वं १५४ ३६९ गजदन्ताकृती मूर्ध्ना ५९० २०३ गजप्रभृतिकांस्तीर्थ ३३ ३७६ गजरत्न ! किमाप्तस्त्वं १८९ २३७ गजरत्नं गन्धवर गणनान्तेयुः
३३१ ४०० १३७ ३०५
गण्डयोरुपधानत्वं गण्डोपरि स्फोट इव
४२१ २४४ ६०३ २५०
गतकामो यथाकामं
५७ ३०३
३५० १७७
१६ ३५६
गतं दुःखेन विश्वस्या ८५ २९३ गतायां पूर्वपञ्चाशत् ५४ ३०३ गजात्यादिवेविय ४७३ १९९ गतीन्द्रिय-काय - योग २४८ ३७२ गतेऽथ तस्मिन्पः २४०४०० गते मा १० १८५ गतेषु तस्य देवस्या
६७ ३७७ गतेषु तेषु देवेषु २५३ ३६३ गतेषु वर्षलक्षेषु ५३ ३५७ गत्वा क्रमात् ते सन्नद्धा २७१ ३२२ गत्वा च दक्षिण रोधः २८ ३८७ गत्वा च शिविर स्नान ८१ २१६ १८५ ३९५ गत्वाऽदूरात् सप्तपर्ण गत्वा नन्दीश्वरद्वीपं ८३९ २१० गत्वा पदानि सप्ताष्टा ४४ १६८ गया वैमन्पाय गत्वाऽऽ सोमं ससुतं
९२७ २१२ १३८ ३६८
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लोक नं. पृष्ठ नं. ग्रहाः स्वोञ्च ययुः स्थानं १३५ २६० ग्रहेषूच्चस्थितेष्वृक्षे १२४ १७. ग्रामा-ऽऽकर-पुर-द्रोण ८३ २२८ ग्रामा-ऽऽकर प्रभृतिषु २११ १८१ ग्रोमाद्यनियतस्थायी २८४ १६६ ग्रामारशादिना किं वा ७६ २३४ ग्रामे ग्रामे चेक्षुवाटा ११ १५७ ग्रामेशैदुर्गपालैश्च २९८ २२३ ग्रीष्मातपपरिक्लिन्ना २९३ १६६ ग्रीष्मे सूर्योष्मभीष्मेऽपि १६.२६९ ग्रेवेयकैः शोभमाना १३४ १७१
श्लोक नं. पृष्ठ नं. गत्वा सपरिवारोऽपि १०७ ३७८ मत्वा स्नानगृहे स्नानं २९ २१४ गत्वोद्याने सविनयं ३७९ ४०१ पत्वोपनिन्ये तत्सर्व १७५ २१९ गत्वौको लोकमा य ६१ ३९१ गदामुद्गरदण्डाद्यैः ११२ ३५९ गक्ष-मुद्गर-दण्डादी २५८ ३५२ गन्धकार इवाऽऽयुक्तो २०० १९१ गन्धद्रव्याणि सर्वाणि १८८ २६१ गन्धद्रव्यैः सुरभिभिः २३० १७३ गन्धर्ववर्गसङ्गीतं २५३ २३९ गन्ध व्यन्तराश्चारु ५१९ २०० गन्धर्वाणां प्रभुर्गीत ५२३ २०१ गन्धर्वेषु च गायत्सु १७३ १९० गन्धर्वेषु मृदङ्गादि २३६ २६३ गन्धाम्बुवृष्टिरभवद् १३६ २६० गन्धांश्च चूर्णवासांश्च २० २१४ गन्धोदकेन सिषिचुः १११ १७० गन्धैधू पैश्च माल्यैश्च ५६२ २४९ गमितेषु परां शिक्षा ७५ २५८ गर्जन् गजपतिगौरः ११६ २५९ गर्भप्रभावाट् देव्यैवं १७७ २८० गर्भस्थितस्थ माताऽस्य ५७१ १८४ गर्भस्थे जननी तस्मिन् ४८ ३५७ गर्भस्थेऽस्मिन्जितं पित्रा ४७ ३६५ गर्भस्थेऽस्मिन् धर्मविधौ ४९ ३७६ गर्भस्थेऽस्मिन् मातुरासीत् ४९ २९७ गर्भस्थेऽस्मिन् सुपााभू ४८ २९२ गर्भावासनिवासोत्थ १६४ २८९ गलितं वर्धके ! किं ते १८८ २३७ गाढानुरागबन्धेन ३८१ ४०१ गायनीवत् केऽप्यगायन् ४५१ १८० गायन्तस्तेऽतिमधुर ८६९ ३४२ गायन्निवालिविरुतैः २१८ २८२ गारुडास्त्रमथो धन्व ७०२ ३३६ गारुडी रोहिणी चैव ५८२ ३३२ गिरिकन्दरवर्तीनि १८१ १९० गीताकर्णनवत् कौ ! १९ २३२ गीयमानोऽमरैः कैश्चिद् १९४ १९० गीर्वाणेन्द्राः सगीर्वाणा ३६३ ३५५ गुणद्रुनन्दन श्रीमत् १ २६९
श्लोक नं. पृष्ठ नं. गुणरत्नैरसंख्यातः ११ ३८७ गुणस्थानस्य चैतस्य ३४० १९५ गुणस्थानेषु यो यःस्यात् १०४ ३१० गुयानां शौर्य-गाम्भीर्य २४ ३१४ गुणानुरूपमकरो ९२५५ गुणोज्जवलादपि भ्रश्येद् २६४ ३८३ गुरुपादाम्बुजोपास्ति १५२ १८९ गुरुवागनुवादेन ३१० २४१ गुरोः खेदविनोदश्च ८३६ २१० गुरोरनुज्ञयकाकि १४८ ३१८ गुर्वाज्ञा हि कुलीनानां १८८ १६३ गुहाया मध्यतस्तस्या २७६ २२२ गूथाशिनीनां च गवां ३३९ ३५४ गृध्रादिच-चू-चरण ५८० २४९ गृहकर्तव्यमन्त्रेषु २२२ १९१ गृहं निजनिज जग्मुः २९० ३२३ गृहिणी-गृह-पुत्रादि ३३० ३५४ गृहीताचमनाः काश्चिद् २१९ १९१ गृहीत्वा पाणि-पादादौ ९१ २८७ गृहे गृहस्थमात्रस्या ३११ ३२३
गृहे गृहे पथि पथि २१६ २६२ • गहणीत गृहणीत हत २६८ ३९८
गृहणीयाः समये मद्वत् ६१३ २५० गृह्यतां राज्यमप्येतत् ८२ ३४६ गृह्यतां सर्वमप्येतद् १११ ३५९ गोमूत्रिकाक्रमेणाऽथ १८७ २१९ गोमेध-नरमेधा-ऽश्व ३२२ ३५४ गोरोचनाचूर्णकृतैः ८९ १६९ गोशीर्षचन्दनं दग्ध्वा ६० ३१५ गोशीर्षचन्दनरसैः ३१ २१४ गोशीर्षचन्दनरसैः ११५ २१९ गोशीर्षचन्दनरसैः ४६३ १८१ गोशीर्षचन्दनं सौ २५३ २२१ गोशीर्षचन्दनेनाऽथ २६७ २६४ गोशीर्षचन्दनैः श्यामा ३५ ३५७ गोशीर्षचन्दनैस्तस्या २०३ १६३ गोशीर्षेण व्यलिम्पंश्च १५५ २६० गोशुभाद्या गणभृतः ७८३ ३३९ गोस्तूप उदकामासः ६३१ २०४ गोस्तूप-शिवक-शङ्ख ६३२ २०४ गोस्तूपा-सुदर्शने अ ७३५ २०७
“घ” घण्टानादे च विश्रान्ते ३८७ १७८ घण्टानिर्घोष-सेनानी १६३ २६० घनसारागुरुप्राय १९६ १७२ घनसारा-गुरुसारं २४ २१४ धनागमे सिन्धुरिव ५३२ १८३ घनाम्भोधि-महावाता ५०१ २०० घनोदधि-घनवात ७६९ २०८ घनोदधिप्रतिष्ठानौ ७६८ २०८ धर्माम्भांस्यनिलेनेव ८२८ ३४. घत्तिव स्वेदवती ३२८ २२३ घातिक मक्षयात् तस्य ६६४ २५२ धूकघूत्कारपोरेषु ३१० १९४ घृतयोन्यादिकरणैः ३३६ ३५४ वृतोदः सद्यस्वथित ७४६ २०७ वृतोदस्य पयांसीव
चकार सविशेषां च ३३० ३२४ चक्र तवास्त्रसर्वस्वं २६९ ३५२ चक्रतुम्बाग्रघातेन १५८ ३६१ चक्र-दण्डा-ऽसयो ! यूयं १९० २३७ चक्रधरस्या ऋद्धया ७६७ ३३८ चक्रमायुधशालायाः १३६ २१८ चक्रमार्गानुगः सोऽथ २५ ३८७. चक्रवर्तिन् ! न्यायवर्तिन् ६२ २३३ चक्रवर्तिश्रियं त्यक्त्वा ३८९ ४०२ चक्रवर्ती त्यक्तसंगो २७८ ३८४ चक्रवत्येपि तत्काल २७९ ३८४
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१८
पृष्ठ नं.
श्लोक. न. . . . . पृष्ठ न. .. चक्रवर्त्यप्युवाचैवं.-६१२ २५०
चक्रवात्मसाच्चक्रे - २९:३८७ 'चक्र विक्रममाणाश्च । ४३ २१५
चक्राक्रान्तद्विषच्चक्रः .. ९९ ३६७ चक्रादिष्टेन मार्गेण २६४ २२२ चक्रारामा निषधोञ्चाः । ६४३ २०४ चक्रिण चरणाम्भोजे ५५७ २४८ चक्रिणा नैव चक्रेण ४५ ३४५ चक्रिणो भवनिर्वेदः ५२३ २४७ .चक्रित्वे तु त्र्यब्दलक्षी , ५६ ३८८ चक्रित्वे नवतिवर्ष ४०३ ४०२ चक्रिसैन्येऽथ सैन्यानां १ २३२ चक्रीवतो विषाणं च २९८ २४१
चक्रे चक्रिमुनेस्तस्य ६५४ २५१ . चक्रे च दिव्ये समव १९९ ३७०
चक्रे चर्मोपरिच्छत्र २२६ २२० चक्रे च वसुधारादि । ७१ ३०९ चक्रगानेन मुक्तेन १८१ ३८१ चक्रे दृढरथेनापि .... ४६ ३०८ चक्रे निर्वाणकल्याण ८६५ ३४२ चक्रे समवसृत्यग्रे : ३३० २६६ चक्रयप्युवाच तानेव' २४१ २२१ चक्षुष्मानपि चक्षुष्मान् . ७०.३५८ चचाल च हरिदेवैः १९० १९० चतस्त्र एत्य चित्राद्या ५१ ३१५ चतस्रो रुचकान्तस्था ५२ ३१५ चतुरङगुलकोत्कर्ष ५३ ३१५ चतुरङ्गुलमात्रेण १७६ १७२ चतुर विक्रममाणैः ११४ १८८ चतुरशीतिसहस्र ३०० १७६ चतुरशीतिः सहस्राः ३१३ १७६ चतुरिन्द्रियताभाजः ११८ २८८ चतुरोऽथ महास्वप्नान् ९४ ३५९ चतुगुणं महामूल्य ३३१ ३२४ चतुर्मानधर ! चतुः २९३ २६५ चतुर्थषष्ठमासादि . ४२ ३९० चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी ३५९ २४२ चतुर्दशपूर्वभृतां १८६ २९० चतुर्दशपूर्वभृतां . २१९ ३६२ चतुर्दशपूर्व भृतां ..
३५४ ३५५ चतुर्दशपूर्व भृतां ८५३ ३४१
श्लोक नं.
श्लोक ने. चतुर्दशपूर्विणां द्वे ... २५२ २८३ चरित्रेण पवित्रण ४० १५८ चतुर्दशमहारत्न .. २८८ २२२
चर्चा-कुसुम-वस्त्राद्यैः ३०२ १९४ -चतुर्दशसहस्राणि १६६ २७४
चमणा पूर्ववत् सिन्धु २४३ २२१ चतुर्धन्वशताक ७७. २९३
चर्वितोरसिजद्वन्द्व ३२ ३९० चतुर्धन्वशतोत्तुङ्गः २२७ २६३
चलतोश्चञ्चले चूले ... १४ १८५ चतुर्नवत्यग्रचितुः ५६५ २०२ चलत्काञ्चनताडको २०२ ३५० चतुःपञ्चाशत वर्ष ३५८ ३५५ चलन्तश्चलताडङ्का २१४ १९१ . चतुर्भिनिष्कुटर्गङ्गा २८६ २२२
चान्दनेनाङ्गरागेण ४८२ ३२९ चतुर्व'गे'ऽग्रणीर्मोक्षो २१९ ३८२
चापाचार्योंऽसि यदि वा २३४ २३९ चतुर्वणस्य संघस्य ९९ ३०४
, चापे सधाय नागास्त्र ६९७ ३३६ चतुर्वाद्य चतुवृत्ति ३१ १८५
चारणश्रमणैस्तानि १०३ २२९ चतुर्विशत्यङ्गहीनं - १२१ ३००
चारित्रचित्ररचनां २३३ ३८२ चतुःशतों योजनानां ६५७ २०५
चारित्रस्यापि संप्राप्ति २१० ३६२ चतुःषष्टया सहस्रश्च ४९ ३८८
चारीप्रचारचतुरौ ४७७ २४६ चतुःषष्टिरथैत्येन्द्रा १२४ २७३ चारुचक्रमणशक्त्या १२५ १६१ चतुःषष्टिः सहस्त्राणि ३५३ ३८६
चारुचूडामणिरुचि १३२ १७१ चतुषष्टिसहस्त्रः स .३८० १७८
चारवाद्य-गीत-नृत्त १९० २६१ चतुःषष्टिसहस्त्रोच्चाः ७२७ २०७
चिक्रीडुः केचिदागत्य ४० १८६ चतुःषष्टीन्द्रमुकुटो १२० २३५
चिक्षिपुधू पदहने ११२ २२९ चतुःसहस्त्री त्रिशती २९३ ३७४ चितान्तश्चक्रिरे देवा ६९४ २५३ चतुस्त्रि'शदतिशय ८४७ २२०
चित्रमञ्चशताकीर्ण २४३ १६४ चतुस्त्रिंशदतिशया २५६ २८३
चित्राङ्गहारकरण २७७ २६४ चन्दनद्रुममुन्मूल्य २०८ ३९६
चित्रायां कार्तिके कृष्ण ६० २८६ 'चन्दनस्थासकांस्तत्र १८ २१४ चिन्तयित्वा नैकधैवं ५२१ २४७ .' चन्दनेन स्वयं भूपः २०८ १६३ चिन्तयित्वेति किमिदं १७० २३७ चन्द्रकान्ताश्मनिःस्यन्दैः २४ २६९
चिन्तयित्वैवमुर्वीशः ३८. २५६ 'चन्द्रमौलिश्च विजय ५८६ ३३२
चिन्ता ममेव राज्ञोऽपि १९३ ३१९ चन्द्रवेगप्रभृतिभिः २८३ ३९८ चिरमभ्यक्त उन्मृष्टः ४२४ २४४ चन्द्रवेग-भानुवेगा . २६७ ३९८ चिरमित्यादिस सार ३७८ २४३ चन्द्रवेग-भानुवेगो २६२ ३९७
चिर जीव चिर नन्द १४२ २१८ चन्द्रशालास्थितो राजा ३२६ २४२ चिर तीव्र तपस्तप्त्वा १० ३५६ चन्द्राऽऽदित्यावसंख्यातौ ४१६ १७१ चिर व्रत पालयित्वा ९ ३८७ चन्द्रादीनां गतिजुषां ५४७ २०१ चिर व्रत पालयित्वा २० २६९ चन्द्राश्मबद्धः सोपानैः १५ ३४४ चिरवासभवस्नेहो २१४ १६३
चपलचपला लक्ष्मी: ८३४४ चिर विहृत्य कालच १२० २७८ ' चपेटाघटनमिव ११८ ३५९ । चिर व्यहार्षीश्छद्मस्थो २११ ३८२
चमराद्या गणभृतो २४३ २८२ चिर शक्रश्रिय भुक्त्वा ७४ ३९१ - चमूरुचक्रराक्रान्त ११६ ३९३ चिराद् वा बलिनाऽन्येन १५० २८९
चरितं की यिष्यामि २ ३९६ चिरान्नायेन भवता । ७६ २७१ चरित' श्रीसुपार्श्वस्य २ २९१ . चिराजितानि भूयांसि ८४० ३४१ चरिताथौं प्रचण्डौ ते ३९० २४३ चिरेण दिजयं कृत्वा ११० १६०
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श्लोक नं.
पृष्ठ नं.
५१ ३७६
चिरेप्सित पूरयितुं चिल्लाच मण्डलीभूय चूडामणि निष्कोरस्के १२२२१७
६९ २२८
१०७ १६०
चूत-चम्पक पुन्नाग चताङ्कुरा स्वादहृष्टः
पूर्ण स्था चेतसा चिन्तयित्वैवं चेतसा चिन्तयित्वैवं
११६ ३४७ ८१७ २०९ ४३ १६८
२५९ १७४
चेत् कारणानुकारीणि २४१ २८६
चैत्य-प्रतिश्रयाऽऽराम १२३ ३०५ चैत्य-प्रासादयादि २३९ २३९ चैत्य' सालभर जीक
९१ २२८
त्याचे बडो
२५ २७० ५३५ १८३
चैत्येषु जिनबिम्बानां
१४ २९१
२१३ २८१ २६० २८३ ४०१२६८ ५९९ २५० ८६ ३५८ च्युत्वा च लक्ष्मणादेव्याः २९ २९७ च्युत्वा च विजयपुरे
चैत्येषु तस्याद्दण्ड चैत्रस्य लेकादश्य चैत्रस्य सितनवभ्यां चैत्रस्य सितरचम्यां च्युत्वा च देवसदना च्युत्वा च भरतक्षेत्रे
१९० ३५० १२ २७६
२८ २९१
च्युत्वा दिवः सुरवर युवा भाइपदे कृष्णा युवा राधे कृष्णध च्युत्वा सुबलजीवोऽपि १६७ ३१८
२७ ३०७
Why? छत्र - चर्मान्तरे तस्थौ २२७ २२० छनो छत्रवृत्तोन्नतोष्णीषः २२८ २६३ छद्मस्थो व्यहरत् स्वामी १२० २७३
७८ २२८
दोपरि चय ३२९ २६६ छक्को ३०७ ३८५ छलयित्वा तावदमून् ५३० २४८ छादितमधिकावृन्द ३३ ३९० छायाभिकाङ्क्षिणः पि ९४ २८७ छिन्न-भिन्नशरीराणां ९८ २८७ छोटत्वा तदुदर १८१३९५
6699
ancer वस्तिर्यगू ४८१ १९९
श्लोक नं.
जगत्वस्य निःशेष जगतनाथस्व जगत्प्रतीक्ष्य ! त्वां यान्ति ४२८ जगत्स्वामी समं तत्र
जगदन्वमिदं जज्ञे जगदाधारहेतुतं
जगदीश ! तव श्रमः
6.
जगदुद्यम
जगदुर्मन्त्रिण जगदेकीकृत्य
जगद्गुरुमिति स्तुपा जगद्गुरोर्जगद्बन्धः जगाद्विलक्षण' किंवा
जगन्नाथ ! प्रशसामि
जगन्मोहामा यस्प जग्ध्वा सुगन्धिताम्बू जग्मुस्ततो निजनिजं जघन्यतः कोटिसङख्या अन्येनेान्या जयन
जजे तदानीमुराः जज्ञे तीर्थोच्छेद एवं
जज्ञे त्रिपृष्ठसैन्याना
जज्ञे हाहारवरतत्र
骂 नं.
८२३ २४०
४६ २८५ १९८ १२१ २९५
८४ ३०९
३१ ३०२
४१ ३०२
७० १६९
१९३ १६३
३१२ २४१
२७६ १९३
१८१ १७२
४७६ १८१ १९० २८१ २०५ २३८
९९ २९९
७०० २५३ ४३१ १९८
जन्माभिषेकवत
जन्माभिषेकवद् भतुः जम्बूदीप इह दीपे
जम्बूद्दीप परिक्षेपी
जम्बूद्वीप परिक्षेपी जम्बूद्वीपस्य भ
१९१३७०
१५१ ३४८
१२६ १७०
१६३ ३०६
७०१ ३३६
१७७ २३१
जटापटलभस्माङ्ग
३४२ ३५५
जटा मोजी शिला-मम २८६ २८४ जनन्यास्तत्र गर्भस्थे
१९६ २८१
जनयन्ती जनक्षोभ
१३६ ३६०
९७ १७०
जनान्तिकेन तत्रैव जन्तो: सर्वस्यस्य
जन्मतः पूर्वक्षेषु जन्मतः पूर्वस
४६५ १९९ ५५ २८६ २०१२८१ ५१ ३०२ ७१ ३५८
जन्मतः प्रभृति स्वामी जन्मतोऽपि भवोद्विग्नो जन्मतो वर्ष लक्षाणां
९१ ३१६
जन्मव्ययत्रो पनयां
१५४ २७४.
२७७ १९३
२६३ २६४ २२० २३८
२८९२४०
६१९२०३
२७५ १७५
लोकमै.
जम्बूद्वीपस्य भरते जम्बूदीपान्तरे मेरुः जम्बूदीपे च ये मेक जम्बूद्वीपे वि द्वीपे जय जीव चिर नन्द जप त्रिभुवनाचीश ! जयन्त्यजितनाथस्य
जयन् परीषहचमूः जयलक्ष्म्या इव प्राणान्
जय विद्याधरवधू
जय श्रीनाटिकानान्दी जयश्रीः सा द्वितीयेव
जये वाकुकुक्षीर
जर प्लवङ्गम इव
जरायुरक्तप्रभृति
जरा रुजा मृतिर्दास्यं
जराविवचितत्वा
जलस्थलसमुद्भूताः जानिशस्त्रादिभयं
जर्जह
जातरूपस्फटिकाङ्क जालन्धीनां
जातकयन्धीनां
जात वैक्रियलब्धीनां
जात कधीनां
जाता किपलब्धीनां जातिभेदान्नैकविधा
जातिलाभकु जातेनापि त्वयाऽस्मार्क जात्यजाम्बूनदच्छेद
जात्यादिमददुर्वृत्त
जानन भोगफल कर्म जानाति देव ! यदिह जानुदनीं पञ्चवर्ण जायते सर्वजघन्य वायानां राजपुत्रीणां
जायाया विजया देव्याः
जाया वध्वोस्तु विजया
जायां वधू च तदनु
जिगाय मागचे पूर्व जिघांसुरज्यमिदमे
पृष्ठ नं.
३५९, १७७ ५५४ २०१ ६४१ २०४ ५६६ २०२ २१९ १७३ ४९४ १८२
१ १५७ ६९२९३ १७४ ३७० १५७ ३९४ ६४ २९६
२५५ २९७ ३७ ३०८
७३ २३४
१३३ २६०
१३३ २८८
१४ ३८९
४७७ १८१
१२७ २८८
७०८ ३३६
५५८ २०२
११४३००
૪
२२१ ३६२ '
३५६ ३८६ '
३५६ ३५५
२५७ २८३
२५६ ३८३
६६ ३४६
४७१ १८१
३२८ ३५४ २३४ २६३ १३९ ३४८
१४३ २६०
७८५ २०८
२८९ २२२
२५७ १७४ ५३० १८३ ७० १६९
७६३ २३८
१७७३७०
Page #281
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________________
२०
श्लोक .
पृष्ठ नं.
डाहलेषु दशार्णेषु ७० ३४६ डिम्भानां दुनये दण्डो ३३९ ३२४
श्लोक नं. पृष्ठ नं जितशत्रुन रेन्द्रोऽय ७२ १८७ जितशत्रुरथ प्रीत ९४ १८७ जितशत्रुरपि स्माह ९. १८७ जित्वा भरतवर्षाध ९८ ३६७ जिनजन्माभिषेकाय १८२ ३६१ जिनजन्मावधिज्ञाना ३२ २९२ जिनजन्मावघेख़त्वो १६२ २६० जिनधम सरोह सः २२१ २३८ जिननाथ ! तव स्नात्र १८९ २८१ जिनप्रणीतो धर्मोऽय ९३१ २१३ जिनस्य मातापितरा ८६ ३१६ जिनादिष्टो न चेद् धर्म: ९१६ २१२ जिनास्तदुक्तं जीवो वा २९७ १६६ जिनेन्द्रं करतलेन २३१ १७४ जिनेन्द्र-जिनजनन्योः २०५ १७३ जिनेन्द्र-विजयादेव्यौ २३५ १७४ जिनेन्द्रस्य चतसृषु ४१ ३४५ जिनेश्वरमिति स्तुत्वा ४८ ३०२ जिष्णोरेव शचीख्य २५ ३१४ जिह्वामिवाहिराजस्य ६८६ ३३६ जीर्णवासःखण्डधारी ८६७ २११ जीवन्ति च म्रियन्ते च ५२५ २४७ जीवन्तोऽपि विमुक्तास्ते ३३८ ३८६ जीवन्नप्यदशां प्राप्तः १० २८४ जीवाऽजीवादिपदार्था ८७६ १११ जीवाजीवावाश्रवश्च २२३ ३७१ जीवानां पुद्गलानां च २७२ ३७३ जीवितं चरितार्थ नः १२७ २२९ जीवितव्य' विमुच्यैक ३१९ ३२४ जीवो नन्दिसुमित्रस्य जम्भकैज म्भभिच्छिष्ट जैत्ररथमथारुह्य २५२ ३५२ जैनप्रवचनेनेव २५५ १७४. जैनेन्द्रस्यापि धर्मस्य ३४८ ३५५ ज्ञातव्यो विजयादेव्याः १०४ १७० ज्ञातेऽवसान समये ४०४ ४०२ ज्ञात्वा च मोक्षमासन्नं ३५९ ३५५ ज्ञात्वा चासनकम्पेन १०७:३४७ ज्ञात्वा तु मोक्षसमय' ३५९ ३८६ ज्ञात्वाऽऽत्मनो मोक्षकालं ३९७ २६८ ज्ञात्वा त्रिपृष्ठमायान्त ३०८ ३२३
श्लोक नं पृष्ठ नं ज्ञात्वा निर्वाणमासन्नं २२४ ३६३ ज्ञात्वाऽहतोऽवतार च ४७ १६८ ज्ञात्वाऽर्हज्जन्म ते स्वैःस्वैः ४०७१७९ ज्ञात्वाऽवधिप्रयोगेण १४८ २१८ ज्ञानचारित्रयुक्तोऽस्मि २९६ १६६ ज्ञानत्रयधरः पूर्व ८२ २९८ ज्ञानत्रयधरे तत्रा ५१ २७० ज्ञानत्रयधरोऽपीशो ८८ ३१६ ज्ञानत्रयपरीतात्मा
२४८ २६३ ज्ञानदर्शनचारित्र १४३ २८८ ज्ञानदर्शनचारित्रा ९१७ २१२ ज्ञानदर्शनयोस्तद्वत् ८६ ३०४ ज्ञानदृष्टयावरणीये ७७९ ३३९ ज्ञान-दृष्टयावृती वेद्य २८२ ३७३ ज्ञानानामिव मूर्त्तानां २७७ २४० ज्ञानैस्त्रिभिश्चतुर्भिश्वा १९९ २६२ ज्ञानोपदेशलेशोऽपि २० ३०७ ज्ञेया सकामा यमिना ८३० ३४० ज्यायसो लाङ्गलादीनि ११५ ३६८ ज्यायान् वयो न सोऽस्माकं २३८ ३५१ ज्येष्ठशुद्धत्रयोदश्यां ६५ २९३ ज्येष्ठस्य शुद्धद्वादश्यां ३१ २९२ ज्येष्ठस्य शुद्धनवम्यां ३० ३४५ ज्येष्ठस्य षष्ठयां कृष्णायां ३१ ३१४ ज्योतिःशास्त्र यस्य मान २७५ ३७३ ज्योतिष्कव्यन्तराश्वायः ७७५ २०८ ज्योतिष्का मध्यम वप्र ३२४ २६६ ज्योतीरस सौगन्धिक १७० १७२ ज्योत्स्नागौरप्रभापूर ५० २७७ ज्योत्स्नायिते प्रभापूरे ४६ ३०२ ज्वरातैनाश्रित पित्रा ९९ ३७८ ज्वलज्ज्वालालिजिह्वाल १७८ ३८० ज्वलन्माणिक्यतेजस्कं २०५ १६३ ज्वालाजालकरालस्य ९२२ २१२ ज्वालाजालकरालास्या १९९ ३९५ ज्वालामालाकरालं तत् ५.२१४. ज्वालाशतैर्दाप्यमान ७१३ ३३७
तं गर्भ रत्नगर्भव ३१ २९७ तं तस्य पश्यतः पीता ६६ २७७ तञ्च कतऽिस्य कण्ठस्य ७४८ ३३८ तञ्च श्रुत्वा विश्वनन्दी १३८ ३१८ तच्छूलाया दक्षिणतो ३५ ३०२ तच्छुवा कुपितः शाङ्गः१०९ ३५९ तच्छुवा कुपिता देवी १२० ३१७ तच्छ्रुत्वा सम्भ्रमाद् विश्व १२५ ३१७ तज्ज्ञात्वाऽऽसनकम्पेना २१४ २८२ तडिद्दण्डमिवाऽकाण्डे ६९ २१६ ततः कारण्डवक्रौञ्च १४९ ३९४ ततः किराता इत्यूचुः २१४ २२०. ततः किरातास्ते भीताः २३६ २२१ ततः कुबेरस्तैः सार्ध ३२१ ३९९ ततः प्रकुपितश्चक्रे ७४७ ३३८ ततः प्रकुपितः सद्यः ८७९ ३४२ ततः प्रतस्थे पृथ्वीशः १०९ २१७ ततः प्रदक्षिणीकृत्य २६१ २६४ ततः प्रदक्षिणीकृत्य ८२८ २१० ततः प्रभृति तत्तीर्थ ५७६ २४९ ततः प्रभृति चाऽन्येऽपि १३६ २३६ ततः प्रमुदिता राजा ४५८ २४५ ततः प्रशान्तमोहश्च २५१ ३७२ ततः प्रववृते युद्ध' २७५ ३९८ ततः प्रसन्नो ज्वलनः ५६४ २५९ ततः पदानि सप्ताष्टा ४७० १८१ ततः पर पर्वतोऽस्ति ६५५ २०४ ततः पर योजनाना ६९२ २०६ ततः पर योजनाना ६९० २०६ ततः पर साऽनवद्य ८७५ २११ ततः प्राग्जन्मवैरेण ५३ ३९० ततः प्राणातिपातादि १६० १६२ ततः पुत्रश्च वित्त च १४७ २७९ ततः पुत्रोपनीत ख २३४ १६४ ततः. पुरन्दरादेशात् १०९ १७... ततश्च कर्मवैचित्र्यात् १०५ ३४७
झम्झानिलोल्बणैर्धारा झल्लरीवाद्यनादेन
३२६ १९५ ४८८ ३२९
Page #282
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________________
श्लोक नं. पृष्ठ नं. ततश्च कार्तिके मासि ३१६ २६६ ततश्च कुण्डलद्वीपः ७४१ २०७ ततश्चक्रधरस्तत्र ३६७ २२५ ततश्चक्रानुगश्चक्री १८६ २१९ ततश्चक्रानुगो गत्वा १४५ २१८ ततश्च चक्रिरे स्वं स्वं १७२ १७२ ततश्च जगृहुस्तीर्थ २२७ १७३ ततश्च जम्बूद्वीपाभि ४० १६८ ततश्च जम्बद्वीपेऽस्मिन् १५ ३१३ ततश्च तस्मिन् ध्यानाग्नौ ३४३ १९५ ततश्च तीर्थे तत्रैवो ८४२ २१० ततश्चतुर्विधः सङ्घः १२८ २७३ ततश्च तेषु कोऽप्येकः २७७ ३२२ ततश्च तौ विमानेन ३३३ २२४ ततश्च धरणादीनां ३९५ १७८ ततश्च नीतो नरके ततश्च पञ्चनवते ८१४ २०९ ततश्च पद्यैरुन्निद्र: १७३ ३१९ ततश्च पावनैर्नीरैः १० २१४ ततश्च पृथिवीं नाम १११ ३४७ ततश्च भक्तिभागिन्द्रः ४३५ १८० ततश्च भगवज्जन्म १९३ १७२ ततश्च महलादेवी १७२ २८० ततश्चषभनिर्वाणा ६८५ २५२ ततश्चरणचारिण्यो २१८ १७३ ततश्च वलितग्रीवो ५११ २४७ ततश्च ववले चक्री १०६ २१७ ततश्च विश्वसंहार ३६२ २४३ ततश्च शिविकारत्ना २५५ १९२ ततश्च स्वामिनं नत्वा ३८४ २६८ ततश्च स्वामिनः स्वामि २४३ १७४ ततश्च सङ्कतस्थाना ५२८ १८३ ततश्च सगरश्चक्री ५४० २४८ ततश्च साधयामास १६८ ३६१ ततश्चाऽदत्त वर्षेण १८६ १९० ततश्चाऽशनिवेगस्य २८२ ३९८ ततश्चैत्रस्य राकायां ६५ २८६ ततः शक्रः क्षणाच्छक्रान् ३३८ १७७ ततः शरोरकस्यापि १३१ १८९ ततः षड्योजनशता ६९४ २०६ ततस्त्वां शरणं प्राप्तो ११४ २३५
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
श्लोक नं. . पृष्ठ नं.. ततस्तद्रजनीशेषं ६६ १६९ ततो ग्रामपुरारण्या - २६५ १६५ ततस्तदनुरोधेन । ६४१ २५१ ततो धृतवरौ द्वीपा, ७०३ २०६ ततस्तनयलोभेन १०६ २३५ ततोऽङ्गुलिं गलत्पामा ३९७ ४०२ ततस्तातप्रसादेन ६० २२७ ततो जयजयारावः ३७१ १९६ ततस्ताः परिधाप्योभौ ५९ ३१५ ततो द्वादशयोजन्या ७५६ २०७ ततस्तामडुली स्वर्ण ३९८ ४०२ ततो द्विगुणद्विगुण ५८७ २०२ ततस्तावूचतुग्दिं ३६६ ४०१ ततो द्वितीयस्तस्याध्रि ४८२ २४६ ततस्तितीषुः संसार ६४ ३०९ ततो देवोपनीतानि ६४४ २५१ ततस्ते उपतस्थाते १५० २७९ ततो धनुषि सन्धाय ७०९ ३३७ ततस्तेनाऽग्निहोमेन २४० १७४ ततोऽन्यत्र ययौ स्वामी ११९ २७३ ततस्तो विप्ररूपेण ३४५ ४०० ततोऽन्यतो जग्मतुस्तौ ४३१ ३२७ ततः स्थानात् प्रभुरपि २९१ २७४ ततो नरशतोद्वाह्य २३७ १६४ ततः स्थानात् प्रभुरपि २९० ३६८ ततो नरेश्वरवरः १६३ १९० ततः स्थानात् प्रभुरपि ८५१ ३४१ ततो नवसु मासेषु ३७ २८५ ततः स्थानात् पुरग्रामा २१७ ३६२ ततो नवसु मासेषु ॥६२ २७१ ततः स्थानादपच्छेद्मा ६८ ३६६ ततो नवसु मासेषु ९५ ३५९ ततः स्थानादथ स्वामी १०७ ३१७ ततो नवसु मासेषु १२३ १७० ततः स्थानादथाऽन्यत्र ६८ ३५८ ततो नवसु मासेषु १३२ २५९ ततः स्थानादथान्यत्र ३५२.३५५
ततो नवसु मासेषु १८. २८० ततः स्थानादथान्यत्र ३५२ ३८६
ततो नवसु मासेषु २०६ ३५० ततः स्थानादथान्यत्र ६५८ २५१
ततो निजनिजं स्थान ६० १६८ ततः स्थानादथान्येषु १२९ ३४८ ।
ततो निववृते चक्री २९७ २२३ ततः स्थानान्निववृते ५८३ २४९
ततो निवृत्तो दध्यौ च १५६ ३१८
ततो निवृत्सो मघवा ३९ ३८८ ततः स्नात्वा कृतप्राय ४०२ १९७
ततोऽप्यन्यत्र गच्छन्ति ६३ १५९ ततः स्वाम्यथतिशय १६३ २७४
ततोऽप्यायुःक्षये व्युत्वा . ४४ ३९० ततः स कालयोगेन ५९६ २५०
ततोऽप्युपरि गव्यूत ७५७ २०७ ततः स गत्वा पितरौ ९७ २७८
ततोऽपररथारुढा १८० ३४९ ततः सगरमाहूय १४२ १८९
ततोऽपि जालकटका ६१४ २०३ ततः सनत्कुमारस्तं १६८ ३९४
ततोऽपि वारुणिवरी ७०२ २०६ तत: सनत्कुमारोऽपि ३९४ ४०२
ततो बकुलमतिर ततः समवसरण ३२० २६६
ततो बल: सप्तदशा ३६७ ३८६ ततः समवसरण ६६ ३०३
ततो बहलधूलीभि १९७ ३९५ ततः समवसरणा
। ततो मनोरमां नाम. १६१९२९८ ततः स साधयामास ३१२ ३९९
ततो मनोवत् स कथां ५०४. १८२ ततः सागरदत्तातो ६३३६६ ततः सिंहासन देव ३६९१९६
ततो महाविमानैः स्वैः १७५ १७२ ततः सिंहासने स्वस्मिन् ६१५ २५०
ततो मासेषु नवसु १०५ ३६७ ततः सूरप्रभा नाम ५९ ३०३
ततो युक्तमयुक्त च २९९.२४१ ततः सौधर्मकल्पेन्द्रः ४८७ १८१
ततो रथं वालयित्वा २५७ २२१ ततोऽकृतविवाहां मा २४३ ३९७
ततो राज-युवराजा ८२.१८७ तत' गतेषु कौमारे ५६ २९२ ततो रुण्डश्च मुण्डश्च ४८३ २४६
Page #283
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________________
...... प्रलोक नं., . “पृष्ठ नं. वतोऽरुणवरो द्वीप ७४० २०७ ततो रूपं परावर्त्य ५१६ २४७ ततोऽवनिपतिः स्नात्वा ३६२ ४०१ ततो वसुमतीनाथः २८ २१४ ततो विचित्रमुन्निद्र' १९५ १७२ ततो विगतगर्भाणि १५४ १७१ ततो विधायानशन ११ २९१ ततो विमलसूरीणां ११ २६९ ततो विरसमारह्य २१३ ३९६ ततो विलक्षः संक्रुद्धो ९१५ २१२ । ततो विवेकमाश्रित्य ८१० २०९ ततो विंशतियोजन्याः ५३१ २०१ ततोऽष्टयोजनशती ६९६ २०५ तत्कारणज्ञानकृते ३४७ १९५ तत्काल पालकारूढः ३६ ३७५ तत्कालमप्युपात्तेन २५३ १६५ तत्कालमवधिज्ञानाद् १४६ १७१ तत्कोपमुपलक्ष्येत्थ २५१ १७४ तत्क्षत्रियकुलाचार १२४ ३७९ तत् त्यक्तव्य कुटुम्बादि ६५ १५९ तत्तद्वैषयिकं सौरव्य ७३७५ तत् त्रिः प्रदक्षिणीचक्रुः २१७ १७३ तत्तीर्थजन्मा कुसुमो १८० २९० तत्तीर्थजन्मा त्वजितः १३८ ३०५ तत्तीर्थजन्मा मातङ्गो १९० २९४ तत्तीर्थभूः किन्नराख्य १९७ ३८१ तत्तीर्थभूः कुमाराख्यो २८६ ३५३ तत्तीर्थभूब्रह्मनामा १११ ३१० तत्तीर्थभूहरिद्यक्षो १०८ २९९ तत्तीर्थभूरीश्वराख्यो ७८४ ३३९ तत्तीर्थभूश्च पातालः २०० ३७० तत्तीर्थे तुम्बुरुर्नाम, २४६ २८३ तत्तीर्थे ऽभूत् षण्मुखाख्यो १७८ ३६१ तत् तु तुम्बाग्रघातेन २६६ ३५२ तत् प्रविश्य जयादेव्या ३६ ३४५ तत्प्रविश्योत्तरद्वारा ८१६ ३४० तत्प्रसादात् तश्चरित्र २ २७५ तत् प्रसीद शतं कन्या २९० ३९८ तत् प्रसीदाभिगच्छामो . ३०१ ३९९ तत्प्राभूतमुपादाय १०५ २१७ तत्प्राभृतमुपादाय १७४.२१९
लोक नं. . , . पृष्ठ नं. लोक नं. .. पृष्ठ नं. तत् पावयितुमात्मानं २७७. १७५ तत्र तेन विमानेन ३२९ १७७ तत् पृष्टवा सौविदल्लोऽपि १३ २७५. तत्र द्वयो रतिकरा ७३२ २०७ तत्प्रेषितं रथं चामु २६१ ३९७. तत्र दक्षिणपूर्वस्मिन् ३२७ १७६ तत्त्ववित् स्वयमेवाऽसि २०९ २३८ तत्र द्वादशकोदण्ड तत्त्वार्थो वाचि सर्वेषां ३२० ३५४ तत्र द्वारेण पूर्वेण २०६ ३७१ तत्त्वानुगा मतिर्ज्ञानं २२० ३८२ तत्र दामोदरो नाम ८६२ २११ तत्र कच्छमहाकच्छ ६०० २०३ तत्र देवैन देवश्च ४६ ३८८ तत्र काल विना सर्वे २६४ ३७३ तत्र नद्याः शीतोदायाः ५९३ २०३ तत्र किं श्रोत्रियोऽसि त्व २३३ २३९ तत्र नन्दोत्तरानन्दे १९९ १७३ तत्र क्रीडामयूरीभि २३ २६९
तत्र नाम्ना विन्ध्यशक्ति १३३ ३४४ तत्र कृत्वा समुद्धात ६८७ २५२ तत्र प्रजापतिनृपः २८१ ३२२ तत्र खेलायमानाढय २६ २७० तत्र प्रदक्षिणीकृत्य १९० ३६२ तत्र गन्धाम्बुवृष्टिं च ३५६ १९६ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य २११ ३७१ तत्र ग्रामेऽस्मि वास्तव्यो ९२ २३४ तत्र प्रदक्षिणीकृत्या २९२ ३५३ तत्र जम्वतले भतु १७५ ३६१ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य तत्र जम्बद्वीपेऽमुष्मिन् ५३६ २०१ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य तत्र जीवा द्विधा ज्ञेया २२४ ३७१ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य तत्र च्छत्रायमाणस्य ३३४ १९५ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य ६५१ २५१ तत्र चक्रे सुधान्धोभि ६७ ३६६ तत्र प्रदक्षिणीचक्रुः ६७६ २५२ तत्र च ज्वलनजटी ४१६ ३२७ तत्र प्रदक्षिणीचके ६२२ २५० तत्र च प्रविशन् विष्णुः १११ ३७८ तत्र प्रविश्य कृत्वा च २०३ ३८१ तत्र च भरतक्षेत्रे ५७९ २०२ . तत्र प्रविश्य प्रारद्वारा ७७ ३०९ तत्र च शीतोदा भिन्न ५९२ २०३ तत्र प्रविश्य प्रारद्वारा १८४ ३६१ तत्र च स्नपयामास १९१ ३९५ तत्र प्रविश्य प्रारद्वारा २१५ २८२ तत्र च स्वाऽन्यकुलयो १४९ २७९ तत्र पद्मागृहं पद्म ४ ३५६ तत्र च स्वामिसमव ७८९ ३३९ तत्र प्रागू देवरमणो ७०८ २०६ तत्र चाकण्ठमग्नानां २७ २७० तत्र पौषधशालायां ५५ २१५ तत्र चान्तश्चतुःशालं २२८ १७३ तत्र पौषधशालायां ९० २१६ तत्र चामलकस्थूल ४८ १६८ तत्र भाषितुमीदृक्षं ५०८ २४७ तत्र चाऽलब्धमध्यानि ९१५७ तत्र मध्येचतुःशालं २३२ १७४ तत्र चाष्टादशधनुः ७७ २९८ तत्र मुक्त्वा परीवार १३ २२६ तत्र चास्थाद् यथास्थान ७० २८६ तत्र मेघस्वरा क्रौञ्च ३९६ १७९ तत्र चासीत् पुरे राजा ५१ ३९० तत्र यस्या निवापादि ४६७ २४६ तत्र चडामणिचिहना ५०७ २०० तत्र रुद्रेण भट्रेण १७३ ३६१ तत्र चैको दधौ नाथं १६९ २६१ तत्र लाङ्गलिनाऽन्यैश्च १९६ ३८१ तत्र चैत्यानि चन्द्राश्म १२ ३५६ तत्र विक्रमयामास ३०४ २२३ तत्र चैत्येष्वहंदर्चा १६ ३६४ तत्र विद्याधरा विद्या ४७५ ३२९. तत्र चैत्येषु रत्नाश्म १४ ३४४
तत्र श्रमापनोदाय ३१० २२३. तत्र चोत्तरपूर्वस्मिन् ३६६ १७८ तत्रस्था देवता चैका ९२१ २१२ तत्र चोत्तीर्य तत्याज १०९ २७२ तत्रस्थोऽपि स उत्थाय, ६१८ २५० तत्र तस्थुर्ययास्थान ७९ ३०९, तत्र स्नानगृहे स्नात्वा ३४७ २२४
Page #284
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श्लोक नं. पृष्ठ नं.
श्लोक नं. पृष्ठ नं. श्लोक नं. .. पृष्ठ नं. तत्र स्मृत्वा निशावृत्त ८८० ३४२ तत्राऽऽसयंश्चतुःशाल २३६ १७४ तथापि शाश्वतम्मन्यः ६८ २५७ 'तत्र स्वागतिकमिव ८०४ ३४० तत्राऽऽसाञ्चक्रिरे स्वेषु ३१४ १७६ तथापि सप्ताहोरात्रान् ३२० २४१ तत्र सिंहनिषद्यायां. १०७ २२९ तत्राऽसिताक्षो यक्षः प्रा १९३ ३९५ तथा ब्राह्मणवाहेषु ७४ ३४६ तत्र सिंहासनासीनं २१२ १९१ तत्राऽऽसीज्जगदानन्दा - ४ २९१ तथा भजेस्त्रीन् पुमर्था २२६ १६४ तत्र सीमेन रामेण . १९५३७० तत्रासीद् वासव इवौ २० ३४४ तथाऽभूदुत्सवः प्राज्यो २३१ ३२१ तत्र सौधर्म ईशानः ७५१ २०७ तत्रासीद् विक्रमयशा २ ३८९ तथा मसारगल्लानां .. १७१ १७२ तत्र ह्यग्रहारे साधु ९०९ २१२ तत्रासीन्नृपतिर्भानु २१ ३७५ तथा सत्पुरुष-महा ५२२ २०१ तत्र हत्वा हयग्रीव ४५७ ३२८ तत्रासीनैः पथि पथि १३ १५७ तथा समाधौ परमे. १३६ २७३ तत्राङिपीठन्यस्ताडिघ्र . ११२ ३४७ तत्राऽसुराणां द्वाविन्द्रौ ५१० २०० तथाहि दूरे तिष्ठन्तु १११ २७८ तत्राऽच्युताद्या देवेन्द्रा १९८ १९१ तत्रिःप्रदक्षिणीकृत्य २५ २१४ तथा हि याग- होमादि ३३४ ३५४ तत्राऽच्युतादयोऽपीन्द्रा ७१ २७१ तन्निवारणरूपेण ६०१ २५० तथा हि स्वेच्छया जल्पन् ५५ २५७ तत्राअनाद्रौ पूर्वस्मिन् ५२२ १८२ तत्रेन्द्रियजयो नाम २१ ३१४ तथा हीक्ष्वाकुवंशादि ... ९४ ३४७ तत्राथ सम्भवजिना. ४०६ २६८ तन्द्रभ्यः सुरेभ्यश्च ४४५ १८० तथेति प्रत्यपद्यन्त ...४११ ३२७ तत्रादर्शमुखो मेष . ६९३ २०६ तत्रैकाकिन्योऽपि नायः १६ १५७ तथेति प्रतिपद्याऽऽज्ञां ४० २५६ तत्रादौ केसरियुवा २१८ ३२० तत्रत्य वेगातमुल २६२ १९३ तथेति प्रतिपद्यार्थ ३०६ ३२३ तत्रादौ गज ऊर्जस्वी ७५ १६९
तौव तिष्ठन् नृपति ४१५ २४४ तथेति प्रतिपेदानौ ___५७९ ३३२ तत्राऽधोभागमासाद्या ४८५ १९९ तत्रोच्चतरचैत्याग्र १९ २८४ तथेति प्रतिपेदानी तत्राधो राजत वप्र ७९२ ३३९ तत्रोद्यानेष्वरघट्ट १२७ २७९ तथेति प्रति पेदे स ५५५ २४८ तत्राधिज्य धनुः कृत्वा ११७ २१७ तत्रोपतापकः क्रोधः २२९ ३८२ तथेति प्रतिपेदे स. ८७४ ३४२ तत्रान्यदपि यत् कृत्य ७९८ ३३९ तत्रोपर्यु परि ग्राम ६१५७ तथैव धनदेहादि .१३७ १८९ तत्राऽनुगोकुल गावः १२ १५७
तत्रौको नागदन्तानां १९ ३७५ तथैव धनदेहादि २४० २८२ तत्राऽनुवेश्म दातारो ३० २७०
तत् सत्य यदि तातोऽसि ४५६ २४५ तथैव पूर्वसम्बद्ध ८३८ ३४१ तत्राप्यवरपौरुष्या २९० ३७४
तत् सांसारिकसम्बन्ध २४१ २८२ तथैव मानवी देवी ___७८६ ३३९ तत्राऽपराजितो नाम ४ २८४
तत्सूनुन वनवते ९७ २२८ तथैव यज्ञे विज्ञप्तः. २७२ २४० तत्राऽपरेयुः सगरो ३०३ २२३
• तथा किं नाकृथाः पुण्यं २४७ ३८३ तथैवाऽऽगत्य शक्रोऽपि ३३ २९२ तत्राऽपश्यञ्च समव ६५ २७७
तथा गीतयशोनामा . १७९ २६१ तथैवाश्रवरोधेन ८३६ ३४१ तत्राऽपाच्यां सराष्ट्राणि ६०८ २०३
तथा चतुर्दशपूर्व ३५४ ३८६ तथोत्पन्नाइडशा नाम २०२ ३७० तत्रापि चार्यदेशेषु ५५ १५९ तत्रापि दृष्टिमोहाख्य
तथोत्पन्नाऽच्युता नाम ३८२ २९० ४७१ १९९
तथा च स्तूयते वेश्या १५४ ३४९ तत्रायतनसङ्गीत
तथा च समवसृतं . २०९ ३७१ तथोत्पन्ना च कन्दर्पा १९९ ३८१ तत्रावल्लीबहला
तथोत्पन्ना त्वशोकेति ११३ ३१० . तथाऽणपन्निकादीनां १० १५७
४१२ १७९ तत्रावगाढो मेदिन्यां ५६८ २०२ . तथा देशविरत्यादौ
तथोत्पन्ना विदिताख्या १८० ३६१
१०५ ३१० तत्राऽवस्वापनी देव्या ५०९ १८२
तथा न मेघच्छायासु २१३ ३८२ तथोत्पन्ना महाकाली २४८ २८३ तत्रावासगृहेषूच्चै . २० २८४.
तथाप्यवश्यं त्रातव्यः ३७ २५६ तथोत्पन्ना श्यामवर्णा . २८८ ३५३ तत्रावासे प्रतिष्ठाने ८८७ ३४२
म. तथा प्रत्यगुरुचकादि . २०६ १७३ तथोत्पन्ना शान्तादेवी ११२ २९४ तत्राश्वसेनोऽश्वसेना
तथा पञ्च सहस्त्राणि २९४ ३७४ तथोत्पन्ना सुतारख्या १४० ३०५
१३४ २७३ . तथा परे न रज्यन्त
तथोदगरुचकर्शल . तत्राऽशक्यप्रतीकारे
२०९ १७३ ३५ २३३ तत्राशेषाः कला न्याय
३९ २९२ २२ १८५ तथापि त्वत्प्रभावेण
तथोपाये प्रवृत्तस्त्वं ३९७.१९७ - तत्राऽशोकतरोमूले ७७८ ३३९
तथापि तज्ज्ञाः प्रष्टव्याः .. ८५ १६९ . तथ्यां पथ्यां च तद्वाच ५५५ ३३१ ५. तत्राऽशोकतले भतु १९७ ३७० तथापि देवपादाय · १९४ १६३ । तदने चाभवन् पश्चा .. ३१९ १७६
तत्राऽशोकतले सिंहा ८५० २१० । तथापि प्राथ्यसे तात ८६ १८७ तदत्र वस्तुना येन । ११९३६८ तत्राष्टानामिन्द्राणीनां ३०११७६ तथापि वोऽनुरोधेन. २१९ २२० . तदत्र संहर रुष, ३१७३२४
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प्रलोक नं. पृष्ठ नं. तं दत्ता? नमस्कृत्य ११७ ३६८ तदद्य किं मे चक्राचे २०१ २३८ तदद्य दिष्टया दृष्टोऽयं ७१ २७७ ।। तदद्यास्मि गतक्लेशो ५१८ २४७ तदधस्ताद् धनवात ४९२ २०० तदन्तात् प्रतिनिवृत्य १६९ २१९ तदन्ते नैसर्पपाण्डू २७८ २२२ तदनु च्छत्र-भृङ्गार ३१७ १७६ तदनेन शरीरेण १०३ २९९ तदप्रप्त्या च भग्नाशः १०८ २३५ तदमी परिषद्यास्ते ३१३ २४१ तदमुष्य शरीरस्य ८१ २५८ तदलं ते विलम्बेन १८२ ३७० तदष्टमान्ते देवानां २११ २२० तदाकर्ण्य कुमारोऽपि १०९ २७८ तदाकर्ण्य परिक्रुद्धो ११६ ३५९ तदाकर्म्य वचः क्रुद्धो १६६ ३८० तदाकर्ण्य वचो विष्णु- ११३ ३७८ तदाकर्ण्य हयग्रीवो ५१७ ३३० तदागमनवार्ता च ६८ ६५९ तदा च ददृशे देव्या ४५ २७६ तदा च द्वारकां गत्वा १८७ ३६१ तदा च द्वारकापुर्या १०१ ३६७ तदा च दिक्कुमारीणां १३१ १७१ तदा च दिव्यभौ मैश्च २३६ १९२ तदा च मेरुशिखरात् ५२०. १८२ तदा च राज्ञोऽश्वपतिः ८८ ३९२ तदा च राजपुरुषा २९५ ३५३ तदा च राजपुरुषा- ८१२ ३४० तदा च वैजयन्तस्थो ३१ ३७६ तदा च वैतान्ढयगिरौ ३ २२६ तदा च स्वामिनिर्वाण- ६८८ २५२ तदा चामु पुण्यवशात् ८६ ३९५ तदा चारुप्रभृतीनां ३७४ २६७ तदा चाशनिवेगस्या २६४ ३९७ तदा चासनकम्पेन ३३ २९७ तदा चासीत् पुरे तस्मिन् ४ ३८९ तदाऽज्ञासीद्धयग्रीव- ४९५ ३२९ तदा ते जग्मतुश्म १७८ २८० तदा तेन तुरङ्गेणा- १७० ३९४ तदादि चाभूत् सभव ८० २९३
लोक नं. पृष्ठ नं. तद्दानान्तेऽभ्येत्य दीक्षा ११० ३४७ तदानी चक्रिणोऽत्य ६१६ २५० तदानी च सहलान- ३१४ २६६ तदानीं च सुधर्मायां ३३७ ४०० तदानी च सुमित्रोऽपि ८१३ २०९ तदानीमार्यपुत्राय २६५ ३९८ तदानीमेव सौधर्म २४४ १७४ तदानी लक्ष्मणादेवी ३० २९७ तदाऽऽपातकिरातानां २३५ २२१ तदा पितृणामस्थीनि ५८२ २४९ तदाऽभूतां दृशौ देव्याः १२९ २५९ तदाऽभूद् दुन्दुभे दो ३०६ २६५ तदा मुखे प्रविशत ३५ २८५ तदा युगपदिन्द्राणा ६७४ २५२ तदार्जवमहौषध्या २९९ ३८४ तदाविशालस्थालस्थ ८२४ २०९ तदा सोऽपि महास्वप्ना १०८ ३६७ तदा सुदर्शनादेवी १०४ ३६७ तदा ह्यहमितः स्थाना ४७१ २४६ तदाहि चण्डवेगस्य ३४४ ३२४ तदाहि देवता काऽपि ९३० २१३ तदित्याश्रवजम्मऽय १३४ ३०५ तदिन्द्रज्यालख्योऽयं ३७९ २४३ तदुत्तिष्ठ महावीर ६१९ ३३३ तदुत्तिष्ठ स्व निणेतुं १५६ २८० तदुद्यावेषु दृश्यन्ते १६ २९६ तदुपादाय ते सव ४३४ १८० तदूद्धर्व च सहस्रार ७६५ २०८ तदूद्धर्व जालकटको ६१३ २०३ तदूध दशयोजन्यां ५३० २०१ तदूवमण्डपं दिव्यं ३२३ ३९९ तदूत्व लान्तकः कल्प ७६४ २०८ त दृष्ट्वा नित्यपर्वाण ९३ २२८ तदेतत् तस्य हृदयं ४३३ २४५ तदेतन्मनसिकृत्या ९३४ २१३ तं देव्यपि निशाशेष ५९ २७१ तदेवं मानुषं क्षेत्र ६५३ २०४ तदेव वचनं सोऽपि ३९० ३२६ तदेव सम्प्रत्यपि मे ३० २२६ तदेवं सर्वलोकेऽपि २९६ ३८४ तदैव परमानन्द १६९ ३१९
श्लोक न. पृष्ठ न.. तदैवाऽऽसनकम्पेना, १७२ २६१ तदैवैशानकल्पेन्द्रो ३५३ १७७ तद्गीता चिप्तहृदयः ८७२ ३४२ तद् दर्पः परिहर्तव्यः ५४८ २४८ तद्दर्शनेन मे दुःख ८८७ २११ तद्देशनां समाकर्ण्य ४२९ ३२७ तद्भार्या तु स्वदुहित ४१४ २४४ तद् यदि त्वं स एवासि १४४ ३६९ तद् युष्माभिर्न भेतव्यम् १८३ १७२ तद्वचो बिभ्रती नित्यं ९२५ २१२ तद्वत् स्तुत्वा नमस्कृत्य ४८१ १८१ तद्वप्रमेखलासूच्च तद्विष्कम्भो योजनाना ५९१ २०३ तद्वाचमनुमन्याऽथ २८४ २२२ तद्वाचा विस्मय-क्षोभौ २८२ २४० तद्विक्रमस्य समभूद् १९ २९६ तद् विद्धि सिद्धमेवाऽर्थ ३७ २७६ तद् विप्रवचनं श्रृण्वन् २१२ २३८ तद् विमान समारुह्य ३८३ १७८ तद्विषाणोत्थितैस्तोयः ४२ ३४५ तनुवातास्त्वसङख्यानि ४९३ २०० तन्त्रप्रायाण्यनीकानि ७७४ २०८ तन्मध्ये लम्बमानोऽभू २९६ १७६ तत्रिपद्यनुसारेण ८१६ २०९ तन्मिथ्यात्वापसारेण ८८ ३०९ तप एकावलि रत्ना ३०२ १६६ तपश्चतुर्थ कदाचि ३२० १९४ तौं प्रणम्य पुरः स्थित्वा ५८७ २४९ तपस्यकृष्णद्वादश्यां ४१ ३१४ तपःस तीव्र तेपे च ७० ३७७ तपसेवांऽहसां राका १९४ १७२ त प्रान्तभृपति दृप्त १८० ३७९ तपांस्येकावली-रत्ना १८ २६९ तपोमाहोत्म्यलब्धासु ३९० ४०२ तपोऽष्टमासिकं याव ३२३ १९५ तप्तायस्तोमरश्रेणी १४३ २३० तप्यमानस्तपस्तीव्र . १२३१३ तमप्यालोक्य दोर्दण्ड ४२६ २४४ तमाज्ञया कुमारस्य ३२० ३२४ तमाल ताल-हिन्ताल १०६ १६० तमास्थानस्थमन्येयुः ३८२ २४३ तमिस्त्रकारिणी सिंह ५८३ ३३२
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... लाक नं. पृष्ठ नं. तमिस्त्रादक्षिणद्वार १७७ २१९ तमेव दर्शय निज ४०३ २४४ तमोभिरान्ध्यं जगत- २५८ १६५ तया कटिस्थया धात्र्यो १८४ ३१९ तया घोषण्याऽभ्येयुः ३८८ १७८ तया च देवतावाचा ११० २३५ तया च वार्तया तुष्टो ५३१ १८३ तया जघान तां शक्ति ६९० ३३६ तया देशनया प्रायो १५२ २७४ तया देशनया भतु: ७८२ ३३९ तया नृपगिरा म्लाय १८० १६२ तयाऽपि ददृशे राजा ३१६ २२३ तया सहवियुक्तस्य २० ३८९ तया साग्रहमित्युक्त ४५२ २४५ तयैव यात्रया विष्णु १९० ३८१ तयोः कण्ठे निबद्धाऽभा १२ १८५ तयोः कपोलौ बभतु ६१ १८६ तयोः कर्णान्तविश्रान्ते ११९ १७० तयोः प्राणतकल्पस्थः ७६६ २०८ तयोरच्युतवास्तव्य ७६७ २०८ तयोरन्तः शीताभिन्न ५९६ २०३ तयोरभूत् संप्रहारो २४९ ३५२ . तयोरस्ति च दुहिता ४४६ ३२८ तयोरारूढयोः प्रौढ २४२ ३२१ तयोरुरःस्थलमपि ६५ १८७ तयो यो: क्षितिभुजोः ४७३ ३२९ तयोर्लवणिमा ताहक १२० १७० तयोर्विवादवृत्तान्ता १६५ २८० तयोश्च क्रीडतोः स्वैर १३ १८५ तयोश्च बाहुशिखरौ ६४ १८६ तयोश्च रथनिर्घोषा ३७२ ३२५ तयोः श्रुती शुभावतें ६३ १८६ तयोः सहस्रमुत्सेधे ५९४ २०३ तं रङ्गभङ्गकर्तार २९१ ३२३ तले तरूणां प्रचुरः १२१ १६१ तव ऋद्धयाऽनया स्वामिन् २९९ ३९९ तव ज्ञानमिदं नाथ ! ८३ २९९ तव दर्शनमात्रेऽपि ८१९ ३४० ते वन्दितुमथाऽऽनन्दा ६९ १५९ त्व पश्चादिय का नु ५१० २४७ तव श्रेष्योऽस्मिदा सोऽस्मि ८४ २७१
श्लोक नं. पृष्ठ नं. तव वर्षाम्बुदस्येव ४५ ३७६ तव विश्वविदग्धस्य ३०३ २४१ तब स्वयम्प्रभा नाम ५०१ ३२९ तयाये भूमिलुठनै ३७ ३६५ तवाऽपविद्यामीक्षा २६३ २४० तवाशेषजगज्जिष्णो २६४ ३२१ तवाऽसिधारासोदर्य २९६ २६५ - विसृज्य ततो राजा २५५ २२१ तवेच्छां पूरयाम्येष १९० ३९५ तवेदं बकुलमति २८८ ३९८ तवेन्दुधामधवला २२१ २८२ तवोद्धय मूद्धर्व पुण्यर्द्धि २२५ २८२ तं शर हारकेयूर ७५ २१६ तस्याथ चक्रवर्तित्वा ३२७ ४०० तस्थुरछोयाकराः केचित् ४४६ १८० तस्थौ तत्रैव तच्चक्र ७२८ ३३७ तस्थौ सनत्कुमारस्य ३२६ ४०० तस्माच्च प्राणिनस्त्रातुं १३४ १६१ तस्माच्च शिबिकारत्नात् २८२ २६४ तस्माच्छवासापूर्णकण्ठात् १८० ३९५ तस्मादट्रेरिख प्रादु २१ ३०१ तस्मादुपाददे रुच्या १० ३७५ तस्मादेको बम्भ्रमीति २३६ २८२ तस्मिन् दृढरथो नाम १६ ३०७ तस्मिन् दृढरथो नाम ४ ३७५ तस्मिन्नपि महीनाथ २० २५६ तस्मिन्नवन्यास्तिलक १४ १५७ तस्मिन् भवे ममाऽभूस्त्वं २९ २२६ तस्मिन् मरकतैर्बद्धा १८ ३७५ तस्मिन् महीपती लक्ष्मी २७ २८५ तस्मिश्च गुणरत्नानां -७० ३९१ तस्मिश्च सत्रशालासु १५ ३०७ तस्मिन् श्रावकधर्मोऽभूत् १४ २५६ तस्मिन् शुभे दिने वारे ३६१ २२४ तस्य घोटककण्ठस्य ४०९ ३२७ तस्य च प्रथमः सूनुः १२१ २३५ तस्य चा ऽऽक्रान्त दिक्चक्र २५१ ३२१ तस्य चाऽऽचार्यवयस्य ९८ २५८ तस्य चाऽतिबलो नाम १२८ २३५ तस्य चाफ्ततोऽप्योष्ठौ ३९५ ३२६ तस्य चाऽवरजो धुर्यो १२३ २३५
श्लोक न. पृष्ठ न. तस्य चित चैत्य इव ११ २५५ तस्य जन्माभिषेकाय ३६० १७७ तस्य दानस्य पर्यन्ते ५५ ३६५ तस्य द्वे अपि ते भार्ये १४६ २७९ तस्य दोर्दण्डयोः कण्डू २४८ ३२१ तस्य न्यायः सुहृदभूद् ५२८४ तस्य नामाङ्कबाणेन २६ ३८७ तस्य पञ्चशतान्यास ३ ३८९ तस्य प्रभोर्भव्यजन २ २६९ तस्य पृथ्वीपतेः पृथ्वी २२ २९१ तस्य मार्गस्थितस्यैवै १४४ २७९ तस्य मूर्ध्नि धराधीशो २०६ १६३ तस्य लक्ष्मीश्च कीर्तिश्च ६३४४ तस्य वेश्माङ्गणभुवो ११३ १८८ तस्या उपर्येकमासीद् २९४ १७५ तस्या एव हि यामिन्या २१ १६७ तस्याः कर्णान्तगे नेत्रे ४२३ ३२७ तस्याग्रतो भूपतयः १९ ३०७ तस्या गुणचमू सर्वा २७ २९७ तस्यां गृहोर्श्वभूमीषु १५ ३६४ तस्यां च त्रिजगभर्तु २१६७ तस्यां च पुण्यलावण्य ४२ २७० तस्यां च वासागारेषु १७ २९६ तस्या जगत्याः पूर्वादि ६१५ २०३ तस्याऽऽज्ञया च सेनानी ३५५ १७७ तस्याऽऽज्ञा नगराऽरण्य २० ३०१ तस्याऽऽज्ञासाधिताशेष ३२ २७० तस्या दत्वाऽणुव्रतानि ८८० २११ तस्या दातुरुपादातु ४१७ ३२९ तस्यादेशाच्चमूनाथ: ३१ ३८८ तस्याऽऽदेशात् पत्त्यनीक ३८६ १७८ तस्याधो मणिपीठोव्या ७९७ ३३९ तस्याऽधो मणिभिर्बद्ध ३२८ २६६ तस्याऽन्तःपुरसम्भोग ४३ २२७ तस्याऽनुजन्मान इव २९७ १७६ तस्याऽनुजन्मा नृपते १२ १६७ तस्याऽनुपदमेवाऽथ ७ २२६ तस्यां पद्मोत्तराख्योऽभू ४ ३०७ तस्यां पद्मोत्तरो नाम ४ ३४४ तस्याप्रसादात् सदपि १४६ ३६९
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श्लोक नं.
पृष्ठ
नं.
.. श्लोक नं.
पृष्ठ नं.
तस्याः प्राहरिक इव २१९ १६४ तस्यापि कर्मणः सद्यः ३६२ ३२५ तस्यापि देशनाप्रान्ते १०७ २९९ तस्यां पुर्यामभून्नाम्ना ४ ३०१ तस्याः पूर्वोत्तरदिशि ८४९ २१० तस्या भ्रुवोश्च गत्यां च २६ २९७ तस्याभूत् परमं मित्र' ८५ ३९१ तस्याभूतामुभे पल्यौ ७६ ३७७ तस्याभूतामुमे पल्यौ १०२३६७ तस्यामटव्यामन्येद्यु १४८ ३९४ तस्यामनेकरत्नाढया १४ २९६ तस्यामस्ति समस्तानां ४ २६९ तस्यामात्भानुरूपायां ४७ २७० तस्यामासीत् समोयात ४ २५५ तस्यामासीत् सिंह इव १७ ३६४ तस्यामासीन्महाराजो ५ २६९ तस्यामासीन्महासेनः १८ २९६ तस्या मृगाङ्कवक्त्राया १८२३१९ तस्यां राज्यां तस्य राज्ञः ४१८ ३२७ तस्या राज्ञोऽपि च मिथो २९ ३१४ तस्याऽऽर्जवं च शीलं च ६ २८४ तस्या वक्त्र दन्तपत्र १८६ ३१९ तस्याप वक्षसि वक्षोजौ १८८ ३४८ तस्यावती वसुमती १०२ १८८ तस्या वदन निर्माणा १८२ ३४८ तस्या विषयवैराग्य ८७८ २११ तस्याः शरीरं कान्तेव ३१ २८५ तस्याः शीलं च रूपं च २३ २९१ तस्याश्च ताड्यमानाया २६७ १७५ तस्याश्च मूले विष्कम्भ ६१२ २०३ तस्याः सर्वाङ्गसौभाग्य ४२६ ३२७ तस्याऽऽसीन्मङ्गला नाम १३३ २७९ तस्याऽऽसील्लक्ष्मणा नाम २३ २९६ तस्यास्तत्रैव तिष्ठन्त्या ४२८ २४५ तस्येति वचसा शान्तः ४०७ ३२७ तस्यैकदास्त्रशालाया २३ ३८७ तस्यैव तीर्थनाथस्य २ ३७५ तस्यैवमाघोषणया २७९ १७५ तस्योदक्पूर्वककुभि ३३० १७७ तस्योपरिष्टादुल्लोचो २९५ १७६ ता अप्यूचुर्महाभाग २२० ३९६
ताः कृत्वा विदर भूमौ १५० २६० तां च श्रीद इवाऽयोध्या २१० ३२० ताडूयन्ते तालवृन्ताये ११९ २८८ ताडितः कुलिशेनेव १७१ २३७ तां तथावस्थितां ज्ञात्वा २४ २७५ तातन्यक्कारकारत ३०२ ३२३ तातपादैविना तात १८३ १६२ तातेन साधितेऽमुष्मिन् ५९ २२७ तातोपरोधादादाय २४४ २६३ तादृशीं स्वामिनोऽवस्थां १७५ २३७ तानि द्रव्याणि सर्वाणि ४३३ १८० तानि देवाऽसुर-नाग ७११ २०६ तोनि विद्याधराङ्गानि ४६६ २४६ तानि स्वयम्भूप्रत्यस्त्र १४८ ३६० तान् कुम्भान लोठयामास ४३९ १८० तान्यजानि न किं ते वा ! ४९९२४७ तान्यवाजीगणन् सर्वा ७२२२८ तान् स्वप्नान् विजयादेव्या ६८ १६९ तापनीयः पयस्कुम्भ १२० २५९ ताभिः समं रतिगृहे २२८ ३९६ ताभ्यां पर्यस्यमानानि २४३ ३२१ ताभ्यामधिष्ठिताभ्यर्णः १४२ ३०५ ताभ्यामधिष्ठिताभ्यो २९० ३५३ ताभ्यामपहृत द्रव्य ११५ ३५९ ताभ्याममुक्तसांनिध्य १८२ ३६१ ताभ्याममुक्तसान्निथ्यो ७८८ ३३९ ताभ्यामुपासिताभ्यो २०८ ३७०. तामभाषिष्ट भूपोऽपि ४४४ २४५ तामापतन्तं बाणेन ६७८ ३३५ तां दण्डेन समाकृष्य ५४२ २४८ तां दृष्टोद्यौवनां राजा तां देशनां स भगवा ९३७ २१३ तां धर्माग्निष्टिकां तेच ९१४ २१२ तां नवाम्भोजवदनां ३१२ २२३ तां निधाय यथास्थान २८० ३५३ तां प्रभोदेंशनां श्रुत्वा २४२ २८२ तां पितर्यददाने च ३२४ २२३ तां पिशाचीमिवोन्मत्तां ५६७ २४९ ताः पूजयन्ति सततं ७०१ २५३ तां प्रेक्ष्य विक्रमयशा ८ ३८९ ताम्बूलीबोटकभृतो १९ ३४४
... श्लोक ने. पृष्ठ न. ताम्बूली-लवली-द्राक्षा १०८ १६० तो विप्रवाचमाकर्ण्य १६१ २३६ तां विमुच्य यथास्थानं ७७१ ३३९ तांश्च दृष्टवा परे वीराः ६२७ ३३४ तांश्चिकित्सितुमीशो चेद् ३९६ ४०२ तांस्ताननुदिन नन्दा ८६ ३६७ तापनीयस्तु शिखरी ५७२ २०२ तारकः कोपतरल: २२१ ३५१ तारकस्य शिरस्तेन २७३ ३५२ तारकाऽथाग्रहीच्चर २५९ ३५२ तालवृन्तधरैः कैश्चित् ११८ ३४७ तालवृन्तानिलेनाऽम्बु १७९ २३७ तालानुसारैः प्रक्रान्त २८५ ३२२ तावत् सर्वोऽपि जानाति १४७ २३६ तावद् भुवोऽर्कसन्तापो २५७ १६५ तावद् वात्योदभूच्चण्डा ९८ ३९२ तावदेव हि दारिद्य ८५ २९९ तावदेव हि सन्तापो ८६ २९९ तावदेवान्धकाराणि ८४ २९९ तावेवं यावदासाते १४४ ३७९ ताश्च गन्धोदकैः पुष्पो २३३ १७४ तासां शब्देन घण्टानां २६९ १७५ तास्त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य १३८ २६० तितिक्षितुमदृक्ष ५५४ ३३१ तित्यक्षुरपि ससारं ५४ २८५ तिय मातिमपि प्राप्ता : १०० २८७ तिर्यग्जाते: पर बीज २९७ ३८४ तिर्यग्योनिभवाः शेषा २३६ ३७२ तिर्यग्लोकस्तु रुचक ४८३ १९९ तिर्यग्लोकस्य त्वधस्ता ४८४ १९९ तिर्य ग्लोकादितश्चोर्व ७५० २०७ तिलकैमुद्रया मन्त्रः २८४ ३८४ तिलोत्तमोर्वशीमेना . ३२० ३९९ तिष्ठ तात ! ब्रजिष्यावो ३५९ ३२५ तिष्ठ तिष्ठ कियत्कालं ४५३ २४५ तिष्ठ तिष्ठ भटम्मन्ये १७३ ३८० तिष्ठ तिष्ठाऽहिखे टत्व २९ २३२ तिष्ठन्ति चोत्तरश्रेण्या ४३९ ३२८ तिष्ठन्तौ विचरन्तौ च १४३ ३७९
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लोक नं. पृष्ठ नं. तिसृभिगुप्तिभिर्योगान् ९६ ३१० तिसृष्वाशासु तस्यास २८८ १७५ तीक्ष्णवक्त्रा महादंष्ट्रा २०१ ३९५ तीर्थकृज्जननीत्वेन २६ २९१ तीर्थकृत्तीर्थकृन्मात्रे १९७ १७३ तीर्थकृत्तीर्थकृन्मात्री ३३२ १७७ तीर्थकृत्यतिरूपं स ५०५ १८२ तीर्थकृन्मातर नत्वा ४३ ३१४ तीर्थङ्कर' करतले २४२ १७४ तीर्थ प्रवर्तय स्वामि ५४ ३७६ तीर्थनार्थ तीर्थतोय ३५ २९२ तीर्थाय नम इत्युक्त्वा ६८ ३०३ तीर्थाय नम इत्युक्त्वा ७८ २९३ तीर्थाय नम इत्युक्त्वा १८५ ३६१ तीर्थाय नम इत्युक्त्वा २१६ २८२ तीर्थाय नम इत्युच्चै- ७८ २९८ तीर्थाय नम इत्येव- ६८ २८६ तीर्थे तत्र समुत्पन्न- ३८५ २६८ तीर्थे तत्रैव चोत्पत्ना ३८७ २६८ तीर्थ यक्षेश्वरस्तत्र १५९ २७४ तीवानुरागाः सुरते ७९४ २०९ तुङ्गवृक्षाधिरूढांस्तौ ३६७ ३२५ तुङ्गैस्तुरङ्ग रङ्गभ्द्-ि ५९० ३३२ तुभ्यं दातुं निजाः कन्या ८० ३४६ तुम्बैः कक्षावनक्षिप्तै- ३०९ २४१ तुर्यज्ञानिनां द्वादश ३९३ २६८ तुर्य ज्ञानं प्रभोर्जज्ञे ६९ ३०९ तुरङ्गमः स पूर्णित्वा १८२ ३९५ तुरङ्गैः स्वर्णसन्नाहैः ७१ १५९ तुषैरिव स माणिक्यं १८८ ३५० तूर्यनादैर्दिशो भिन्दन् ५९३ ३३३ तूर्यप्रणादैर्ब धिरी- ८० २२८ तूष्णीकेषु ततोऽस्मासु ४९७ २४७ तृतीयवप्रमध्ये च ४३५ १९८ तृतीयवप्रमध्योा ३६८ १९६ ते कलाग्रहणं चक्रुः ४६ २२७ ते च भवनपतयो ५०६ २०० ते च भारतका जम्बू- ६६२ २०५ ते च विद्याधरा वाजि- ४१४ ३२७ ते च सिंहशरीरस्य ३९९ ३२६ तेचाऽऽभियोगिकाश्चन्द्रां-५४६ २०१
लोक नं. पृष्ठ नं. ते चाऽऽर्यनगर रूप- ६६६ २०५ तेजःकायत्वमाप्ताश्च १०७ २८७ तेजस्विनामशेषाणां ३४ १६८ तेजांसि जनसे राज्ञां ५ ३७५ तेजो भीम तदादाय ७४१ ३३८ ते ज्ञानदर्शनावार- ८७ ३०४ ते त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य १०८ ३४७ ते धौतश्वेतवसना- ८७ १६९ तेन चासनकम्पेन २४८ १७४ तेन चासनकम्पोऽयं २५८ १७४ तेन दुन्दुभिशब्देन ५५७ ३३१ तेन नाम्ना वयं भ्रान्ताः ५०१ २४७ तेन भग्नाः किरातास्ते २०८ २२० तेन शाम्यन्ति वैराणि ८५४ २१० तेन शैलप्रहारेण २१० ३९६ तेन स्वप्नविचारेण १२६ २५९ तेन स्वप्नविचारेण ४८ २७६ तेन स्वविषये मन्ये ५१२ ३३० ते नः सम्पश्यमानानां ५८ २३३ तेनापि दोर्बलेनातं १३२ ३६० तेनापितं पितुले खं ९१ ३७८ ते निजं दर्शयामासु- ४७ २२७ तेनेत्यभिहितः सख्या ३०२ ३९९ तेनैवमुक्तौ पितरौ ११५ २७८ तेनैवमुक्ताः सावनं ५४० ३३१ तेनोत्ततार तां सिन्धु' १६४ २१९ तेऽप्यभ्यधुः सुरा एवं २१६ २२० तेऽप्यूचुदेव ! तेजस्वी २७४ ३२२ तेऽप्यूचुदेव! हृष्टानां ७३२ ३३७ . तेभ्यश्च तपनीयस्य ४०१ १९७ तेभ्यो द्वादश रूप्यस्य २०७ ३८१ तेऽभवन्नाहवोत्ताला ६०५ ३३३ ते मन्त्रानार्यवेदोक्तान् ९२ १६९ तेऽधै क्षुद्रहिमवतः ६८५ २०५ तेषां श्वेडारवादन्य- २७० ३९८ तेषां कलकलं श्रुत्वा ५३१ ३३० तेषां च पक्षसूत्कार ७०४ ३३६ तेषां च मध्यादेकस्य ४४० ३२८ तेषामप्याज्ञया स्वे स्वे ३९९ १७९ तेषामस्माकमप्युच्चैः ८१ ३४६ तेषामुद्यानपालानां ६१९ २५०
लोक नं. पृष्ठ नं. तेषामेव स्वस्वभाषा- ३८६ १९६ तेषां वृषाणां शृङ्गेभ्यः ४८९ १८१ तेषां शभ्य उत्पेतु- १९५ २६१ तेषां शङ्गोद्गतैरन्ते- ७३ २१५ तेषां सगरपुत्राणां ५७८ २४९ तेषां सनह्यतामुच्चैः ५९७ ३३३ तेषु कालो महाकालो ६२६ २०४ तेषु धूपघटी दाम- ७१७ २०६ तेषु नद्याश्च शीताया- ५९७ २०३ तैर्दिश्युत्तरपूर्वस्या ४१९ १७९ तैरुक्षिप्ताऽम्बरतले २११ १९९ तरेवाश्रुजलातुः १६० ३६१ तैस्तैः पुरुषसिंहोऽपि ३६४ ३८६ तोरणानि प्रतिदिशं ७९१ ३३९ तोरणानुभयतश्च ३६४ १९६ तौ तदानीमपि महा- २६३ ३९७ तौ ददर्श मुहुर्वेश्मो- २० १८५ तौ सम्यत्तवोपदेशेन ९०८ २१२ तौ साक्षिणमुपाध्याय ८४ ३७७ त्यक्तराष्ट्रान् महाराष्ट्रान ११२ २१७ त्यक्तसङ्गास्तनुं त्यक्त्वा ८०४ २०९ त्यक्त्वा क्रीडां कुमारस्त- ९० ३९२ त्यक्त्वाऽङ्गमलवद् राज्यं ११४ २७२ त्यक्त्वा योजनसहस्त्र- ५०५ २०० त्यजन्त्येते न यावन्मां १२ २८४ त्याजयन् राज्यलिङ्गानि १११ २१७ व्यब्दोनान्यब्दलक्षाणि २९७ ३७४ त्र्यशीतिवर्षलश्येको ८८९ ३४२ त्रयस्त्रिंश-बायस्त्रिंशै ४३६ १८० त्रयोदश जिनेन्द्र ते ३२ ३५७ त्रयोदशाहतस्तस्य २ ३५६ त्रयोविंशतिरहन्तो ४५५ ३२८ त्रस्तान् स्वसैनिकान् दृष्टवा २५४ ३५२ त्रसा द्वित्रिचतुःप-चे २३१ ३७१ त्रातव्योऽयं मया देशो १२३ १८८ त्रिकालवेदी भगवान् ५८८ २४९ त्रिके त्रिके पथि पथि १८३ १९० त्रिखण्डभरतक्षेत्र २१६ ३८२ त्रिखण्ड भरतं स्वामी ५४७ ३३१ त्रिखण्डे भरते ह्यस्मिन् २९५ ३२३ त्रिगुप्तिः पञ्चसमिति १५ २८४
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श्लोक नं. पृष्ठ नं. त्रिगुप्तिः पञ्च सिमिति ३१३ २६६ त्रिजगभूषणं स्वामी ६४ २९३ त्रिजगद्विषयं ध्याने ३४१ १९५ त्रिजगन्नाथ ! नाथामि ३०० २६५ त्रिपृष्ठ इत्यभाषिष्ट ३०९ ३२३ त्रिपृष्ठं चेत्यभाषिष्ट ५०७ ३३० त्रिपृष्ठमुत्थितं दृष्टवा ७३८ ३३७ त्रिपृष्ठस्याब्दसाहस्त्राः ८८८ ३४२ त्रिभिर्यतैः समाक्रामन् ४८ १८६ त्रिमुखो दुरितारिश्च ३८९ २६८ त्रिवर्ग पालयामास २९ १५८ त्रिवर्गसाधनाशक्त ५० १५८ त्रिशत्यारणा-ऽच्युतयो ७७८ २०८ त्रिंशद् वर्षधरा देव ६५४ २०८ त्रिसन्ध्यं पूजयामास ३१० २६५ त्रिसहस्री शते द्वे च २९५ ३७४ त्रीन्द्रिपत्वेऽपि सम्प्राप्ते ११६ २८८ त्रैलोक्यचक्रिणो भ्राता ६६२ २५२ त्रैलोक्यप्रभवे पुण्य १ २५५ त्रैलोक्यप्रलयत्राण २४६ ३८३ त्रैलोक्ये क्षणमुद्दयोतो १८२ २८१ त्वत्प्रभावे भुवि भ्राम्य-३९० १९७ त्वत्प्रसादस्य सम्पर्का ४२ २९२ त्वत्प्रसादात् त्रुटन्माया २१६ ३७१ त्वत्पादपद्मयोभृङ्गी ८२४ ३४० त्वत्पादपद्मलीनेन ४७ ३७६ त्वत्पादपद्मशुश्रुषा ५०१ १८२ त्वत्पादपद्यामासाद्य ४२ ३५७ त्वत्पादावृतबः सर्वे ४२६ १९८ त्वत्पुत्रश्चेन्नियेतैक १३९ २३६ त्वत्पुरो लुठनभूया ७९ २७१ त्वत्साहाय्य विना सोऽरि ४८५ २४६ त्वद्दर्शनपवित्राणि ४२ ३०८ त्वद्दर्शनस्यास्य फल ५२ ३४५ त्वद्दर्शनसुखप्राप्त्या १८८ २८१ त्वदर्शनसुधापान १९७ ३६२ त्वद्दर्शनसुधासार ४९९ १८२ त्वद्देशनापयःपूरैः २१२ ३८२ त्वद्वक्त्रकान्तिज्योत्स्नासु ८९ २७१ त्वदास्यलासिनी नेत्रे ८२ २७१ त्वदुक्तं स्वामिने नैत १६० ३८०
. श्लोक नं. पृष्ठ नं. त्वंधन्याऽसि पवित्राऽसि १७९ १७२ त्वं भुवं स्फोटयित्वेवा ३१२ ३२३ त्वमद्याप्यनभिज्ञोऽसि १५९ ३८० त्वमसि क्षमापते ! विश्व १६४ २३७ त्वमस्त्रीलम्पटस्त्राण ३९८ २४४ त्वमासीरधुनवेह २६ ३८९ त्वय्यादर्शतलालीन ४७४ १८१ त्वय्याशा राज्यधरणे १४१ ३१८ त्वय्युच्चैः पुरुषसिंह १३२ ३७९ त्वया सह चिरात् प्रेम्णा ३३८ ३२४ त्वया सहोपसर्गाश्च १५५ १८९ त्वया हतं वज्रवेग २५८ ३९७ त्वयि च स्यन्दनारूढे ६२० ३३४ त्वयि दोषत्रयात् त्रातुं ४२२ १९८ त्वयेक्ष्वाकुकुलं नाथ! ८२२ ३४० त्वं हेलयाऽपि कर्माणि २८२ १९३ त्वां काम भक्तिकारीति १४३ ३६९ त्वादृशास्तु महात्मानो २१८ २३८ त्वामनन्तगुण स्तोतुं ३९ २९७ त्वामालोकयितुं त्वां च ३८ ३०८
लीक नं. पृष्ठ नं. दत्से समस्तकल्याणै- ४० २९२ दत्तास्थानः सुधर्माया- २४७ १७४ दत्त्वाऽपस्वापनी देव्याः ६८ २७१ दत्त्वाऽवस्वापिनी देव्याः ६५ ३१५ ददर्श कोटिपुरुषो ७६८ ३३८ ददर्श च तदा देवी ३० ३०२ ददर्श च महास्वप्नान् २८ ३६५ ददर्श सुखसुप्ता च १६८ ३१९ ददुश्च बलभद्राय ६२६ ३३४ ददौ च वार्षिकं दानं ५५ ३५७ ददौ च वार्षिकं दानं ५८ २८६ ददौ पदानि सप्ताऽष्टा ३५० १९५ दधद् वामौ च दोर्दण्डौ १११ २९४ दधार च तमुत्सङ्ग १५९ ३६१ दधिपर्णतले तत्र १९५ ३८१ दधिष्वेव प्रमथन- १०७ १८८ दध्याविति कुमारोऽपि ९५ २५८ दध्यौ चैवं विश्वभूति- १३२ ३१७ दध्यौ भगीरथश्चैव ५७९ २४९ दन्तघात-मदावस्था ३२ १८५ दन्तच्छदौ पराभूत- ३५० ४०० दन्तमैरावणस्येवो- ६९२ ३३६ दन्तावलश्चतुर्दन्तः १७०३१९ दन्तांशुज्योत्स्नया व्योम- ९७ १६० . दन्तिभिर्गन्धदन्तीव १३२ २३६ दन्तुराणि ततः कुम्भैः १५५ १७१ दम्पती पितरः पुत्राः २८९ ३८४ दम्भसंरभगर्भाणां ३२९ ३५४ दयावान् यदि वाऽसि त्वं ७४ ३०३ दर्दर-मलयभवै- ३६४ २२५ दर्शने धार्मिकाणां च १२५ ३०५ दर्शयन्तः पथि चल- ८५ २२८ दवाग्निनाऽप्यदाह्यासु १४२ ३९४ दशभिवर्षसहस्त्रः ३१३ ३९९ दशमो भवगवानहन् ५६ ३०८ दशयोजनसहस्त्रा- ७०७ २०६ दशार्णा मृत्तिकावत्या ६७१ २०५ दष्टोऽपि दंशैर्मशकैः २८० १६५ दहयते वा प्रदीप्तेन ६१ २५७ दाक्षिण्यं रक्षणभवं २१६ १६३ दाक्षिण्येन प्रभोः पित्रो- ५४ २९२
दक्षिण भरतस्याध ७६६ ३३८ दक्षिणभरतक्ष्मा ५०० ३२९ दक्षिणश्रेणिगा एते ४०५ १७९ दक्षिणस्यां दिश्यभूवन् ३०३ १७६ दक्षिणाभ्यां भुजाभ्यां तु ३८८ २६८ दक्षिणेतरबाहभ्यां २०३ ३७० दक्षिणे भरता हि २३६ ३५१ दक्षिणेनं कलधर ३८६ २६८ दक्षिणोऽपि भजस्तस्य ४८१ २४६ दण्डदारणमागे ण १६३ २३० दण्ड द्वितीयं दोदण्ड ६८९ ३३६ दण्डपद्मासनान् कांश्चित् ८६ १६० दण्डरत्नेन तेनाऽथ १६२ २३० दण्डेन दण्डभृदिव २१२ ३९६ दण्डेन शत्या शूलेन ३६ १८६ दत्तगुप्यद्गुरुमिवा- १०४ १६० दत्तहस्तः स पुत्रेण २२९ १६४ दत्त न किञ्चित् कस्मैचि- ७५ २८६.
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श्लोक न. पृष्ठ न. दानधर्म इवौचित्यात् २३ ३१४ दान' महाफल' सर्व १६० ३०६ दान-शील-तपो-भाव- ९२६९ दान-शील-तपो-भाव-४२१ १९८ दानस्य चोचित पात्र' १६१ ३०६ दानादिलब्धयो येन ४७५ १९९ दानान्ते विदधुर्दीक्षा- ५६ ३५७ दाने लाभे च वी ये च १३३ ३०५ दायमादाय दायादा- ८५ २३४ दायादेनाऽथ केनाऽपि ७७ २३४ दारितां चावनी प्रेक्ष्य १४१ २३० दारिद्य प्राणिनां ताव- २५९ १६५ दारुदार विदार्यन्ते ९२ २८७ दासीमपि न दास्यामि १५९ ३४९ दासीरिव समाकृष्य ३५ २७० दासेरै रिख याम्याध- १४० ३६८ दिक्कुमार्यः प्राग्रुचका- १४४ २६ दिक्कुमार्योऽपा ग्रुचकात् १४५ २६० दिक्कुमार्यः षट्पञ्चाश- ३५ ३७६ दिक्कुमार्यस्तत्र चक्रुः १८३ २८१ दिक्षु प्रभोश्चतसृषु ४८८ १८१ दिग्गजानां युवराजा ५५९ १८३ दिग्मुखप्रसृतैः शल- ४०५ १९७ दिग्यात्राया न्यवर्तिष्ट १६९ ३६१ दिग्यात्राया निवृत्तोऽथ २७८ ३५३ दिग्यात्राया निवृत्तोऽथ १९१ ३८१ दिने दिने वपुश्छाया १७१ ३१९ दिस दिने योजनिकैः ३०१ २२३ दिने द्वितीये विजय- २०८ २८१ दिनः कतिपयः प्राच्या ५० २१५ दिवोऽवतरदकमि ५०७ १८२ दिव्यघर्घरका रेजुः ११ १८५ दिव्यघण्टाचतुष्केण ५९ २१५ दिव्य च वसुधारादि ६७ २९८ दिव्य च सुमनोदाम- ३६५ २२५ दिव्यतल्याऽऽसनामो- २५१ १९२ दिव्यभोगावसाने च ८०८ २०९ दिव्य समभवत् तत्र ६२ ३७७ दिव्यसिंहासन भूयो ३७८ २६८ दिव्याङ्गरागनेपथ्य- ३८ २९७ दिव्याङ्गरागनेपथ्यदिव्याङ्गरागपूजादि- १९१ २६१
श्लोक नं. पृष्ठ नं. दिव्याङ्गरागलिप्ताङ्गो दिव्याङ्गरागैश्चर्चित्वा ३६ ३०८ दिव्यानामथ भौमानां २३८ १९२ दिव्यामृतरसास्वाद- ४७३ १८१ दिव्यास्त्रमिव युत्पारे १० ३०१ दिव्ये समवसरणे १९६ ३८१ दिव्ये समवसरणे १७७ ३६१ दिव्यविभूषणैर्वस्त्र- ४४ ३४५ दिशि दक्षिणपूर्वस्यां ३०२ १७६ दिशि याम्यप्रतीच्यां च ३०४ १७६ दिश्यैशान्यां स्थिताः कृत्वा १३९ २६० दिष्टया दृष्टोऽसि दोहप्त! ४७४ २४६ दिष्टया प्रवर्धसे देव ! ४७० २४६ दीक्षां जग्राह तत्पाश्र्वे ८३५६ दीक्षां दास्यन्ति तातस्य ६३९ २५१ दीक्षां सह त्वयाऽऽदास्ये १५४ १८९ दीनस्वर प्ररुदित ५६८ ३३२ दीना-नाथैकशरणा- १७ २५६ दीप्यमाने तपोवहनौ ८३४ ३४१ दीयमानां प्रभोभिक्षा २९८ १९४ दुःखगर्भे मोहगर्भ २७४ १९३ दुःखदावाग्निभीष्मेऽस्मिन् १३४ १८९ दुःखदावाग्निभीष्मेऽस्मिन् २३२ २८२ दुःख-शोक वधास्तापा- ८९ ३०४ दुःखहेतुषु वैराग्य २६९ १९३ दुःखानुबन्धिभिदु:खैः १२८ ३७९ दुःखाय स्वामिविरह १६१ १८९ दुग्धानि क्वाथसिद्धानि ४५ २५७ दुन्दुभिर्विश्वविश्वेश ! २२४ २८२ दुराचारस्य यत्कृत्य ५०२ २४७ दुर्गतिप्रपतत्प्राणि- ८९९ २१२ दुर्गाणि जितवैताढय ६ ३१३ दुर्जन निन्द्यमानः सन् १२ २६९ दुर्ज्ञानमेतदथवा २६२ ३२१ दुर्दमं दमयामास ३७ १५८ दुर्धावसङ्गपङ्काश्च २८३ १६५ दुनिर्णयोऽद्य चकित- १६० २८० दुर्भिक्षकाल सकल- ४७ २५७ दुर्वार रिणैरव ५६२ ३३१ दुर्विनीतो यद्यपि त्व २६० ३५२ दुर्विनीतो यया शक्त्या ३१३ ३२३
लोक नं. पृष्ठ नं. दुश्मनीव संसारे ६ ३५६ दुष्कर्माणि विलीयन्ते ८५५ २१० दुष्टानां शासके तस्मिन् २३ ३४४ दुःसहान् सहमानस्य ३८६ ४०१ दुस्तपं स तपस्तप्त्वा ६६३७७ दुस्तपं स तपस्तप्त्वा ४३ ३९० दूत इत्येष नो वध्यः ३१६ ३२३ दूतत्वेन न वध्योऽसि ५१५ ३३० दूतानां वाक्प्रप-चैक- १६३ ३८० दूतोऽद्राक्षीद् हयग्रीव ३४५ ३२४ दूतोऽप्यूचे पितृतुल्य १५८ ३८० दूरतोऽपि तदाकये ३५७ ४०० दूरदर्शनशक्त्या च १२७ १६१ दूरदूरादेत्य भूपैः १७६ २१९ दूरादहमपश्य च ९६ २३४ दूरे गत्वाऽथ सम्भूय २०९ २२० दूरे वा सम्पदः सन्तु १४७ ३६९ दूर्वाङ्करैः शिरोन्यस्तै- ८८ १६९ दृक्तारामेलकस्ताभ्या- ४८९ ३२९ दृक्सरस्योरन्तराले ६२ १८६ दृढीकृतस्कन्धहारः ४०३ १९७ दृप्तानां दर्पहरणो १३९ ३६८ दृश्यसे नित्यमपि यः ८७ २९९ दृष्टनष्टमिदं यद्वत् ३७७ २४३ दृष्टवाऽन्येषां विमान-स्त्री १५२ २८९ दृष्टवा परस्य महती १४९ २८९ दृष्टवा वंशत्रय पृष्ठे २३४ ३२१ दृष्टवा सगरराजस्य ९९ २१७ देवकन्योपमा राज- ७५ १८७ देवगत्या तथा सर्व १७४ १७२ देवताऽजितबला च ८४५ २१० देवताभिरिति स्वाधि- ११५ १७० देवतामिव तं नेमुः १३० २७९ देवताहै महामूल्यैः २१ २१४ देव ! त्वज्जन्मकल्याणे १८७ २८१ देव ! त्वदर्शनसुधा- २०३ २६२ देव ! त्वदर्शनेनाद्य १९२ ३६२ देवदूष्यं देवराजे २५७ १९२ देवदूष्याण्यदूष्याणि २०१ १९१ देव ! द्वारवतीभर्तु- २१८ ३५१ देव ! द्वासप्ततिः स्वप्नाः ९८ १७०
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लोक न. पृष्ठ नं. देवद्रपुष्पमालाच २५४ २२१ देव ! प्रसीदादिश मां १२४ ३५९ देवमहन्तमेवैक ८२६९ देवस्य कृतमालस्य १५२ २१८ देवस्यामितसैन्यस्या- ११० ३९२ देवा अपि तवाऽऽदेशं ११३ २३५ देवान् मेघमुखान् नाग- २१० २२० देवाय तीर्थनाथाय १२ २५५ देवाश्च जम्भकाःशका-२५४ २६३ देवाः सद्वेदनाः प्रायो- ७८८ २०८ देवास्तेषां विमानानां ३५७ १७७ देवी प्रबुद्धा तान् स्वप्नान् १२३ २५९ देवीभिर्दानवीभिश्च २०४ १९१ देवेन मेघवद् विश्व- ५१५ २४७ देवेनाऽपि पितृवचः १९५ १६३ देवेभ्यो दानवेभ्योऽपि ४१ ३७६ देवैश्च विदधे दिव्य- १२८ ३४४ देव : स-चार्यमाणेषु ८०२ ३४० देवैः सञ्चायमाणेषु १२५ २७३ देवः समवसरणे ७८१ ३३९ देवो जय जयेत्युक्तवा १५० २१८ देवोत्तरकुरुभ्यश्च ४३१ १८० देवोचरकुरुभ्यः प्रा- ५९८ २०३ देव्याः कुक्षाववर्धिष्ट ४९ २७६ देव्याः प्रमाणमादेश १०४ २३५ देव्याः स उदरे गर्भो १२८ २५९ देव्याः सुदर्शनायास्तु ४४ २७६ देशनां पूर्ण पौरुष्यां १५५ २७४ देशनान्ते च सगरो ६३२ २५१ देशनान्ते प्रभोः पाद- १०६ २९९ देशनाविरते तस्मिन् ८३८ २१० देशनाविरते नाथे १७८ २९० देशादिदर्शनौत्सुक्य ९५ ३०४ देशान्तरगति तस्य ८७० २११ देहप्रभाभिस्तिरयं ३३९ ४०० देहभाजां मनोवित्त २१३ ३७१ दहाद्या इन्द्रियग्राह्या ९७ २९४ देहिनां निवृतिद्वार- २१९ ३७१ दैवतानामायुधानां ५४५ २४८ देवस्येव न तस्याज्ञां ९० ३५८ देवेनाप्यभिभूतानां १५ ३५६
*लोक नं. पृष्ठ ने. दैत्यादिभ्योऽपि निर्भीका-२४४ ३२१ दोधूयमानचमरो २८१ २६४ दोा तदितराभ्यां च २०० ३८१ दोलाऽऽन्दोलनसंसक्त- ५८ ३६६ दोषधातुमलाकी ९६ २९९ दोषा रागद्वषमोहाः ४४४ १९८ दोष्मतस्तस्य संग्रामे १३ ३८७ द्वय विरुद्ध भगव- ६२८ २५१ द्वयोरपि गृहेऽभूवन् ४८१ ३२९ द्वयोरपि ततः श्रेण्योः ३९८ १७९ द्वयोरपि तयोः पीडा- १५३ २३६ द्वयोरपि महासैन्ये ४७१ ३२८ द्वयोरप्यग्रसैन्यानां १६५ ३४९ द्वयोरप्यनयोस्तुल्य ४४३ १९८ द्वयोरप्येक एवात्मा १५३ ३४९ द्वयग्रं शतं गणधराः ३७५ ३६७ द्रविडाश्च कुलक्षाश्च ६८२ २०५ द्रव्यगुणैः पर्ययै च ८१९२०९ द्राक् सुदर्शन भृतोऽन्त- ३६८ ३८६ द्वात्रिंशत्पात्रकं केऽपि ४५२ १८० द्वात्रिंशतान्तःपुरस्त्री- ८६६ ३४२ द्वात्रिंशताब्दशहरेः २८७ २२२ द्वात्रिंसतो जनपद- २९० २२२ द्वात्रिंशद्राजसहस्रा ३५७ २२४ द्वात्रिंशद् व्यन्तराधीशाः ६९ ३१५ द्वादश धातकीखण्डे ५३७ २०१ द्वादशयोजनायामा २८३ २२२ द्वाभ्यां दिनाभ्यां चात्रागा-१०५ ३७८ द्वारकायां तु सोमस्य १३० ३६८ द्वारपालोऽथ पप्रच्छ ६६ २३४ द्वारस्थौ द्वारपालेन ३४७ ४०० द्वारि भूपतयः सर्वे ८९३ ३४२ द्वारे द्वारेऽभवद् वापी ३६५ १९६ द्वावप्या पुत्रविद्या- २७६ ३९८ द्वासप्ततिः पुष्कराधे ५३८ २०१ द्वासप्तति योजनानि २५१ २२१ द्वासप्तति सहस्त्राणि ३५३ ३५५ द्वाःस्थेन कथितः पूर्व १४५ ३७९ द्वाःस्थेनापि निषिद्धस्त- २९६ ३२३ द्विजयादातुरत्राणा ४१ १५८ द्विगुण दण्डभेदं च १६५ २३० ।
लोक नं. पृष्ठ न.. द्विगुण-द्विगुण-नदी- ५८४ २०२ द्विचत्वारिंशतं वर्ष ९२ ३१६ द्विचत्वारिंशता भिक्षा- २६८ १६५ द्विचत्वारिंशत्सहस्त्र- ६२९ २०४ द्विजातिजातिसुलभं ७९ २३४ द्विजोऽपि कथयामास २८१ २४० द्वितीयदिवसे स्वामी ६१ २८६ द्वितीयपौरुषीप्रान्ते २४५ २८३ द्वितीयवप्रमध्ये तु ४३४ १९८ द्वितीयशुक्लध्यानान्ते १२२ २७३ द्वितीयशुक्लध्यानान्ते ७३ २९३ द्वितीयशुक्लध्यानान्ते ७३ २९८ द्वितीयस्मिन् दिने पुर्या ३०२ २६५ द्वितीयस्मिन् दिने स्वामी २८९ १९३ द्वितीयस्यां च पौरुष्यां ६५७ २५१ द्वितीयस्यां स पौरुष्या ३८३ २६८ द्वितीयं सप्तभिन्यून ६४९ २०४ द्वितीयः पृष्ठतः स्थित्वा ३४१ १७७ द्वितीयेऽहनि सिद्धार्थ- १०५ ३१६ द्वितीयेऽहन्ययोध्याया- ११६ २७३ द्वितीयेऽहिन धान्यकट- ६६ ३५८ द्वितीयेऽहिन रिष्टपुरे ७० ३०९ द्वितीयेऽहिन वर्धमान- ६६ ३६६ द्वितीयेऽह्नि श्वेतपुरे ६१ ३०३ द्वितीयेऽह्नि सौमनसे ६१ ३७७ द्विधाऽऽयम्लेच्छभेदात् ते ६६४ २०५ द्विपृष्ठवासुदेवोऽपि ३६४ ३५५ द्विपृष्ठस्य कुमारेऽब्द- ३६६ ३५५ द्विपृष्ठस्योपरिष्टाच्च २७४ ३५२ द्विवर्षोनां पञ्चदशा २२३ ३६३ दीन्द्रियत्वे च ताप्यन्ते ११४ २८८ द्वीन्द्रियाः कृमयः शङ्खा २३४ २७२ द्वीपस्य जम्बूद्वीपस्य - ७२ २१६ द्वीपा उल्कामुखो विद्यु- ६९७ २०६ द्वीपाऽम्भोधीनसङ्ख्याता ३२५ १७६ द्वीपेष्वधतृतीयेषु ७४३ २०७ द्युसत्कुमारकैर्वेला ४८ ३०८ द्युसन्नाथा जगन्नाथ- २६२ २६४ द्रुपत्रस्याऽप्यसहनान् ४९ २२७ द्रुमवद् दर्शयिष्यन्ति ३१४ २४१ द्वे च विद्याधरश्रेण्य २५५ ३२१
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श्लोक नं. पृष्ठ नं. ध्रुवं विपन्नो मे पुत्र १०० २३५
श्लोक नं. पृष्ठ नं द्वे द्वे नाग-यक्ष-भूत- ७१६ २०६ द्यौरिवाऽमरराजेन ८१ २३४
धनमित्रनरेन्द्रस्य ७५ ३५८ धनमित्रस्य जीवोऽपि ९० ३५८ धनमित्रोऽन्यदा रेमे ७६ ३५८ धनहीनः शतमेकं ३१३ ३८५ धनुर्धरवरोन्मुक्त- १६८ ३४९' धनुर्वेदमथाडन्येषा ३४ १८६ धनुषा फलकासिभ्यां ३५ १८६ धनुःशतत्रयोत्तुङ्गः १९८ २८१ धनुःशतद्वयोत्तुङ्ग ५३ २९२ धन्यास्तास्त्रिजगन्नाथ ! २९४ २६५ धन्यास्ते विषया ग्रामा २८७ १९३ धम्मिल्लान्तः काश्चिदर्ध- २२१ १९१ धरणेन्द्रो हरिवंणु ३९१ १७८ धरणो भूतानन्दश्च १७४ २६१ धर्मकृत्यानि कुर्वाणो धर्मग हिमवत १ ३७५ धर्मचकिंस्तव बचो- ८६ २९३ धर्मदेशनया भत्त १०४ २९९ धर्मध्याने भवेद् भावः ८०२ २०९ धर्मपुत्रीं च मां पश्यन् ४४९ २४५ धर्मप्ररोहबीजानि १६ २५६ धर्मप्रभावतः कल्प- ३११ ३५४ धर्ममर्थ च कामं च २२५ १६४ धर्महर्म्य दृढस्तम्भ ! ४० ३०२ धर्माधर्मोज्झिता म्लेच्छा ६८४ २०५ धर्माऽधमौ समासन्नौ २३५ २८२ धर्मायाऽचिन्तयन्नित्य ११ १६७ धर्माविबाधया तस्य १७ ३८७ धमैर्कमण्डपस्तम्भ ! १९२ २८१ धर्मो नरक-पाताल- ३१८ ३५४ धर्षयिष्यति यो दूत २६७ ३२२ धवलानुद्गृणन्तीषु २३७ २६३ धातकीखण्डक्षेत्रादि- ६४६ २०४ धातकीखण्डद्वीपस्य ६४४ २०४
धातकीखण्डद्वीपस्य ३ २५५ - धातकीखण्डद्वीपस्य ३२९१
धातकीखण्डद्वीपस्य ३२८४ - धातकीखण्डद्वीपस्य ३ २९६
श्लोक नं पृष्ठ नं धातकीखण्डद्वीपे प्रा- ३ ३५६ धातकीखण्डद्वीपे प्रा- ३ ३६४ घातकीखण्डद्वीपे प्रा- ३३७५ धातक्यां सेष्वाकाराणां ६४५ २०४ धात्र्यः शक्रकृताः पञ्च २२० २६२ धात्र्याः परित्राणमिव २०४ २३८ धात्रीजनाल्यमानौ
८३ ३७७ धात्रीपवित्रीकरण २२५५ धात्रीभिः पाल्यमानास्ते ४५ २२७ धात्रीभिर्धायमाणाव- ७१८५ धात्रीभिः पञ्चभिः शक्रा- ११८५ धात्रीभिरिन्द्रादिष्टाभि- १९७ २८१ धात्रीभिः शक्रादिष्टामि- ८७ ३१६ धात्रीभूय सुरस्त्रीभि- ४९ ३५७ धान्यानामेव निष्पेषः १०३ १८८ धान्याभावादजायन्त २४ २५६ धाराभिस्तेऽथ मुसल २२२ २२० धावद्भिः प्रस्खलभ्दिश्च १२ २१४ धावन्तमुल्ललन्त वा २१० ३५० धावन्तः स्फारत्कारा ६९८ ३३६ धिगू नः प्रमादिनी धन्या ४४ २९२ धीराणामपि सक्षोभ- ६३ २२७ धीरीभूय निरीक्षध्व १२९ ३६० धूपघटयः प्रतिद्वार' ३६६ १९६ धूमध्वजश्च निघूमो २२४ ३२० धूम शोकानलस्येवो- १८२ २३७ धृतस्त्वपुरुषैरत्रा- ३१७ २४१ धृत्वा दर्पण-भृङ्गार- ५० ३१५ धैय लज्जां विवेकं च १८३ २३७ ध्यातव्योऽयमुपास्योऽय- ८९३ २११ ध्याता ध्यान' तथा ध्येय १३७ २७३ ध्यानान्तरे तिष्ठतश्च ३१५ २६६ ध्यानकतानः सतत २९९ १६६ ध्यायन्ति परमात्मान' ४३ ३६५ घ्रियमाणस्थगिकोऽन्यैः ३०५ ३९९ ध्यायन्ननित्यतां नित्य ३७० २६७ ध्वनत्सु तूर्य वर्येषु २७६ २६४ ध्वनिताहिफगाघोर ५८७ ३३२ ध्वनिराकर्ण्य तां राजन् ! ३४० २४२ ध्वस्तान्धकारपटलः २८ १६७ ध्वंसमानो महाध्वान्तं २२० ३२० ध्वान्तध्वंसकृदुद्योत- १३४ २६०
" न इत्युदीर्य निभृत ७४ ३१६ न कदाप्यरति चक्रे २८२ १६५ न कल्पान्तरसाम्राज्य ४९ २८५ न कस्याप्युपरि स्वामी २४६ २६३ न किञ्चन सुखायेह ७९ २५८ न किं संतप्यते तेऽङ्ग १३६ ३७९ नकुलाक्षसूत्रयुक्त ७८५ ३३९ न कृतं सुकृत किश्चित् १५१ २८९ न केवलं रागमुक्त ४७५ १८१ न खल्वेकोरुका एव ६८८ २०५ नरबांच प्राणिनां प्राणा ३८२ ३२६ नखेषु-शोणाश्ममयी ४४ २७० नखैरिन्दुकलावन २४ १६७ नगरीणां विनीतेव ४५ २७० नगर्या बलिचञ्चायां ३८५ १७८ नगर्यामभवत् तस्यां २५ १५८ न गुणेष्वस्य दाक्षिण्य ३६० २६७ न च द्वीपाधिपः कोऽपि ९१ २५८ न च मन्त्रप्रयोगैर्य ५० ३४५ न चाऽपूरि मनोहारि ७३ २५८ न चास्त्रैरपरेन्द्राणां ४६ ३४५ न चेत् प्रदास्यते तद् वः २२९ ३५१ न चैतौ प्रतिभासेते २२० ३५१ न ज्वलत्यनलस्तिर्यग् ३१४ ३५४ न तथा त्रिजगन्नाथ ! ८० ३१६ न तथा भूषण नाथ ! ७९ ३१६ न तथा हृदयानन्द ३१५ २२३ न तृप्तोऽद्यापि दयिता ७२ २५८ नत्वा जिनेन्ट भूयोऽपि १९१ ३६२ नत्वा प्रदक्षिणापूर्व २११ १७३ नत्वा भगीरथोऽप्येव ६१० २५० नत्वा महेन्द्रसिंहोऽश्व १०३ ३९२ न दण्डनीतिं प्रायुक्त १११ १८८ नदीकरिहरीनूचे १२३ ३९३ नदी-नद-नदीनाथ २४५ २३९ नद्यादिवारितरण २५१ २३९ नद्यौ तु रक्ता-रक्तोदे ५८२ २०२ न द्वौ युगपदर्हन्तौ १०२ १७०
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लोक नं. पृष्ठ नं. न धर्षित प्रचण्डवेंगो ३२७ ३२४ ननामाऽऽलोकमात्रेऽपि १५ २१४ न निम्न नोन्नतं नापि १०१ ३९२ नन्दनस्येव सर्वस्वं ३०७ २६५ नन्दनात् तत्र चायाता २१६ ३९६ नन्दनोद्यानकल्यासु २३८ २६३ नन्दनोद्यानकूटस्था ४५ ३१४ नन्दामालोक्य तत्कालं ८४ ३६७ नन्दास्वामिन्यपि तदा २८ ३०८ नन्दिषेणा चाऽमोघा च ७२२ २०६ नन्दीश्वरद्दीपभिव ९२ २२८ नन्दीश्वरपरिक्षेपी ७३९ २०७ नन्दीश्वरे शाश्वताह ४६ ३६५ नन्दोत्तरकुरुर्देव ७३७ २०७ न परिस्खल्यते क्वापि ७१७ ३३७ न बोध्यसे स्वयम्बुद्धः ५९ २९३ नभश्चरा भूरिभेदा २९५ ३८४ नभश्वरै भूचरैश्व ५९२ ३३२ नभसि भ्रमयित्वा तद् २६५ ३५२ नभस्तः पततस्तस्या ८२९ २१० नभस्तल तिलकय १९३ १९० नभस्युभयेतो विद्या ६४४ ३३४ नभस्यकृष्णनवम्यां १४९३०६ नभस्यकृष्णसप्तम्यां ११९३०० न भूपाः खण्डयामासु २४ २८४ नमः श्री वासुपूज्याय १ ३४४ न मन्त्र-तन्त्र भैषज्य ३५५ २६७ नमः सुमतिनाथाय १ २७५ नमस्कृत्याऽनुजानीहि ३४० १७७ नमस्तीयिति गिरा ३७४ १९६ नमम्तीर्थायेति जल्प ३३३ २६६ नमस्तीर्थायेति बदन् ७८ ३०९ नमस्तीर्थायेति वदन् १२७ २७३ नमस्तुभ्य' जगन्मातः ! १७८ १७२ नमस्तुभ्यं पञ्चदशा ४० ३७६ नमस्ते कुक्षिणा रत्न ३३४ ९७७ न मे भोगफल कर्म १०२ ३४७ नमो भगवते तुभ्य १९८ २६२ नमो विमलनाथाय २३५६ न मनागप्युद्विविजे ९३ २६९ नय-प्रमाणससिद्ध ४४५ १९८
- लीक नं. पृष्ठ नं. न याति कतमा यानि ? ८४ २८६ न यावद् यात्यसौताव ३२८ ३२४ न यावद् यौवन याति ५२८ २४८ न ये नानाविधैः क्वाथै ४९ ३४५ नरकान्तानारीकान्ते ५८१ २०२ नरकावरपाताय ८६ ३०९ नरकेषूष्णशीतेषु ८८ २८७ न रथ: सारथिनापि ६८३ ३३६ नरेन्द्रः कृतवर्माऽपि ४७ ३५७ नरेश्वरोऽपि विनया ९१ १६० नरेषु सिंहः खल्वष ४०६ ३२६ नत कीवत् केऽप्यनृत्यन् ४५० १८० नयन्तो निशातासीन् ५२८ ३३० नमणाऽपि वियोगाग्नि २७ ३९० नर्मोक्तिभिर्विचित्राभि ४१ १८६ नवं कुलकलङ्क त २०७ ३२० नवीर्णादिरूपेण २७६ ३७३ न वक्तमपि जानाति १५९ २८० नवनवति योजन ५५५ २०२ नवभिर्यक्षसहस्त्रः २८२ २२२ नवमस्याहतस्तस्या २ ३०१ नवस्रोतःस्त्रवद्विस्त्र ९३ २९९ नवानारोपयनकांश्वित् ८६ २१६ नवा निरन्तरै रम्भा ४८ ३४५ नवापि निधयस्तत्र ४३ ३८८ नवीकृता प्रतिगृह ६४ १६९ नवीकुरु पुरोमेतां ५७ १६८ नवे नवेऽनवस्थानो ३१२ २६५ नवोढैव हि भार्येयं ७० २५८ नश्यन्नय रक्षणीयो १५० २३६ नश्वरेण शरीरेणा ८२ २५८ न श्रियो न कलत्राणि १३५ १६१ नष्टद्विपं हतयं २०४ २२० न सभायामासयितु ३०५ २४१ न समोऽस्य प्रतापेन ३३६ ४०० न सूनुन स्नुषा यस्या १७ २७५ न सेहे पर्वतानीकै १७६ ३४९ न स्वो न च परः कोऽपि ६३३ २५९ न हि केनापि कस्यापि ५३ २३३ नाऽकुप्यत् प्रणयेनाऽपि ४६ २७० नागराजे गते ज नुः १५७ २३०
श्लोक नं. पृष्ठ नं.. नांगलोकस्य सङक्षोभ १७० २३१. नागलोकोऽखिल उप १३८ २३०. नाग विद्युत्-सुपर्णा-ऽग्नि ३९२१७८ नागा-ऽङ्कशधरौ बाहू १६२ २७४ नाऽधयं किञ्चिदप्यूचे १०७ २५९ नाऽऽच्छिन्तकस्यचित्कोऽपि ८२ २३४ नाजीगणद् दुनिमित्ता १६० ३६९ नाटकप्रभृतिदश ८३६८ नाटया-5ट्टहास-सङ्गीता ८९५२१२ नाटयानीकेन गन्धर्वा ३२१ १७६ नाथं कदा नु भूयोऽपि २७८ १९३ नाथं भूयो नमस्कृत्य ३८३ १९६ नाथमेकोऽग्रहीच्छत्रम् ५०३ १८२ नाथेय घट्यमानाऽपि ६२७ २५१ नादत्त चानले क्षेप्तु २४ ३८९ नाऽऽधिच्याधीन दुःस्वप्नः २९ २७६ नानाकाराण्यगाराणि १५ २९६ नानाजलचराकीर्णो २२२ ३२० नानारत्ननिधानं सा १२३ २७९ नानारणजयोद्भूत ६३६ ३३४ नानाविधानलङ्कारान् २६७ २२२ नानाविधानि चैत्यानि ५१ ३८८ नानाविधाभिः क्रीडाभि ५३ २९७ नानाविधाभिः क्रीडाभिः ७७ १८७ नानोपायमृगयुभि २९४ ३८४ नान्दीपुरेण सन्दर्भा ६७० २०५ नान्यस्त्वत्तो विन्ध्यशक्ति १५२ ३४९ नाभिदघ्नो रथो यावत् ९२ ३१६ नाभीसनाभे पानां ३ १५७ नाऽभुक्त न बभाषे च २३ २७५ नाभूत् पराङ्मुखो जातु १७ ३५६ नाभेयस्य तपोनिष्ठां २६९ ३८३ नाम्ना गूढदन्तो धन ६९९ २०५ नाम्ना जलधिकल्लोलं ८९ ३९२ नाऽऽयाति पूर्व भवतो २३४ २८२ नारका अपि मोदन्ते ६२९ २५१ नारकाणामपि सुखं ३२ ३१४ नारकाणामपि सुखं १२७ १७० नारकायुर्निबध्याब्द ८८६ ३४२ नारकेभ्यो नाकसदा ४३ ३७६,
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श्लोक नं. पृष्ठ ने. नारदोऽप्यन्त्रवीदेवं १२० ३६८ । नियम्य तुरंगास्तत्र २५० २२१ नाराचैस्तद्बलैरर्घ १७८ ३४९ निरन्तरं निपतितै नारीष्वलुब्धमन्यश्चे ५०३ २४७ निरपेक्षः शरीरेऽपि ६३ ३७७ नाराषु रत्नभूता सा १४८ ३४८ निरपेक्षान् शरीरेऽपि ८७ १६० नाल क्षणमपि श्रोतुं १२१ ३७९ निरर्गलो लाङ्गले वा २३६ २३९ नाविर्भवन्ति यद् भूमौ ३८८ १९७ निरवद्यां मितां सर्व २६७ १६५ नाशेनैकस्य पुत्रस्य १५४ २३६ निरालम्बा निराधारा ३१५ ३५४ नाश्वग्रीवो दुनिमित्ता ५७० ३३२ निरास तेषां शस्त्राणि ५३५ ३३१ नासिकापेवसौरभ्याः ४१ २५६ निरास शरवृष्टीनां ६८४ ३३६ नास्ति यत्याश्रम इव ८७ २३४' निरीक्षन्ताममी भो भो ! ३४८ २४२ नाऽस्ति वासोऽशुभं चैत २८१ १६५ निरीक्षितुं रूपलक्ष्मी ६२४ २५० नाऽहं हस्तिबलं याचे ३९५२४३ निरीतयो निरातङ्का २४५ २६३ निःकषायमुदासीनं ३८२ ४०१
निरीहा निर्ममाः सन्तः १३२ १६१ निर्घोषेणातिघोरेण · १६६ ३६९
निरूपयिषू त्वद्र ३९९ ४०२ निध्नतः कण्टकीभूतान् ६ २९१
निर्गत्य चोत्तरद्वारा ८४८ ३४१ निघ्नन् परीषहचमू ७२ २८६ निर्गत्य नगराच्छैल ६३ ३९१ निज फलमदत्त्वाऽपि
निन्थो निर्ममोऽनीहः ३०९ १९४ निजसिंहासनासीन ३६८ २४३
निजंगाम गुहामध्यात् १९५ २१९ निजाधिकारिणमिव ३०५ ३२३ निर्जराकरणे बाह्या ८३९ ३४१ नितान्तं पूजनीयः स २९८ २६५
निर्जरां निजरां कुर्व ८४४ ३४१ नितान्तभीषणमितः २९९ ३५३
निर्ममत्वं शरीराद्या ८५ २७७ नितान्तमुग्धैः पितरौ ६ १८५
निर्ममत्वं स्वदेहेऽपि ९९ २७८ नितान्ताऽऽरक्तया कर १३५ ३.४८
निर्ममस्य निरीहस्य १४९ १८९ नित्यं नेत्रारविन्दाना २५० ३२१
निर्ममोऽपि कृपालुस्त्वं २९७ २६५ नित्यप्रमादिनस्तेषु २७० १७५
निर्माय चैत्यपूजां च ६२ ३९१ नित्यमेव हि धात्रीमिः १०१ ३५३
निर्ययौ सरसस्तस्मात् ३११ २२३ नित्यं विरक्तः कामेभ्यो. २७२ १९३
निर्यान्त्यौ गुहाप्राग्मित्तेः १७१ २१९ नित्यं विषयसंसक्तो ८८४ ३४२
निलक्षणो वीरमानी २०२ २२० नित्यान्धकारे प्रद्योतः ४४ २८५
निर्लज्जता चपलता २१७ १६३ नित्योद्युत्को निर्ममश्चा १०० २७८
निव्यूढः श्रावकधर्म १२ ३०१ निदधे च धनुर्मध्ये ६५ २१६
निर्वाणमहिमा भर्तुः २२६ ३६३ निदधे दक्षिणे कुम्भे १८५ २१९
निर्धाणसाधने हेतु ८० १८७ निदधे शिविर गङ्गा २६० २२१
निर्धापयितुमुद्दामो ५६ २३३ निदानं देवाबध्नामि ४५ २९२
निवृतेः संवृतद्वार १९३ २८१ निद्वापराजितं चैत २२९ ३९६
निविष्टः पुष्करस्याऽर्धे ६५६ २०५ निद्रायमाणेष्वस्मासु ८७३ ३४२
निवृत्तायां धनेच्छायां ३३५ ३८५ निधाय तत्र शिबिरं १३८ २१८
निवेश्य पैतृके राज्ये ३३४ २२४ निधीयते भवत्कण्ठे ४० ३६५
निसाकरः कराकर १७२ ३१९ निपेतुरुभयत्रापि २५० ३५२
निशातन्यायनिष्ठेन १७० १६२ निषेधितुं शक्यते चेत् ५४ २३३ निशुम्भं प्रस्थित श्रुत्वा १६७ ३८० निमित्तीकृत्य चाचार्य ११२ ३६८ निशुम्भ पुरुषसिंहौ १६८ ३८० निमित्तीकृत्य चाचार्य २१४ ३५१ निःशेषदोषमयाऽपि २१८ १६४
लोक नं. पृष्ठ नं. निःशेषभुवनकोश ८४ २९३ निश्चितच्यवनाश्चिहने १६५ २८९ निश्चिन्यानो हेयबुध्द्या ५० ३६५ निषण्णा श्चन्द्रशालायां ४९ २५७ निषधानेरुत्तरतो ५८९ २०३ निषादिनः सादिनश्च ९१६ १८८ निषिद्ध वज्रिणा मुष्टि १०२ ३१६ निष्कर्षोत्कर्षतः काल २८३ ३७३ निष्कलङ्का सत्यसंधा ७९ ३४६ निकुटानामशेषाणां १५७ २१८ निष्पत्रं च व्रहिवणं १९९ २३८ निसर्गर्मल्यजुषो २४ २९१ निसर्गमानोज्ञकभू २४ ३०२ निसर्गेणापि तौ रम्यौ ६८ १८७ निसर्गेणाऽपि राजन्त्यौ ११७ १७० निःसोमं निःसुप्रभं च १३६ ३६८ निहन्तव्यः सपुत्रोऽपि २२३ ३५१ निहन्तुमुद्यते ध्याये २५२ ३८३ नीचैर्गोत्रास्तव विप १३२ ३०५ नीत्वोभौ प्राक्चतुःशाले १५४ २६० नीरङ्गीच्छन्नवदना ३० २८५ नीरङ्गीषु कुलस्त्रीणां १९ १५७ नीरन्ध्रेणान्धकारेण २२१ २२० नीरुजामपि भज्यन्ते १६१ २८९ नीलपीताम्बरधरौ २१६ ३५१ नील-पीताम्बरधरौ २४० ३२१ नीलपीताम्बरौ ताल १११ ३६७ नील-पीतांशुकभृतौ १०४ ३५९ नीलस्तु निषधतुल्यो ५७० २०२ नीलीरक्तांशुकमयः ५० २५७ नीलोत्पलदल श्याम २३२ १६४ नृत्यन्तमिव कङ्केल्लि १०१ १६० नृ-तिर्यग्नारका-ऽमर्त्य ४७२ १९९ नृदेवं देववन्नत्वा ७२ १६९ नृपं ग्लानि प्रपेदानं ५९३ २४७ नृपतिः पर्षदासीनः ४१८ २४४ नृपतिश्चक्ररत्नस्य १९ २२४ नृपः प्रोवाच तौ कस्माद् ३६५ ४०१ नृपवागमताप्लाव ४०४ २४४ नृपस्तदनुगच्छंश्च १३७ २१८ नृपस्य तस्य मलय ७७ ३६६ नृपादेशादनुज्ञातो २२८ २३९ ।
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श्लोक नं.
नृपादेशेन सदशा २०२ १६३ नृपादेशेन सेनानीः २७३ २२२ नृपास्तारकगृह्यास्तु २७५ ३५२ नृपाः सहस्रं जगृहु २६६ १९३ नृपैलॊकैश्च तद्बाहु ७७० ३३९ नृपैश्व मेरकायत १६७ ३६१ नृपोऽपि मृत्युना तस्या २३ ३८९ नृपो महाबलस्तत्र ७० ३६६ नेदुर्मङ्गलतूर्याणि ५७६ १८४ नेपालेषु विदेहेषु स्वान् ६८ ३४६ नैमित्तिकसदस्यान् स्वान् ३३६ २४२ नैमित्तिकाः पुरो राज्ञो ९१ १६९ नैमित्तिकेन चैकेन ३२२ २२३ नैमित्तिकेन सम्भिन्न ४६८ ३२८ नैव क्षीरोदवेलाभि ४७ ३४५ नैसर्गिक्याऽपि वः शक्त्या ५७५ ३३२ नैसर्पप्रमुखास्ते च ५६ २२७ नोत्पद्यन्ते सप्तशती ६५९ २०५ नो वा शस्त्रं परित्यज्या ४७५ २४६ न्यक्कारी कर्णिकारेषु १२६ ३९३ न्यत्कारकारिणं भानोः १९६ २२० न्यषीदच्च यथास्थान २९४ ३५३ न्यस्यैक लस्तके हस्त ६७२ ३३५ न्यस्योा दक्षिणं जानु २६१ १७४ न्यास नाऽपहनुते कोऽपि ८३ २३४ न्यासीकृत्य कलत्र स्व ४९३ २४६ न्यासीकृत कलत्र मे ४९० २४६ न्यून यत्किञ्चिदप्यासी ५५ १८६ न्यून विंशतिपूर्वाणया १२४ २९५ न्यूनस्य विजयेऽपि स्या ५४९ ३३१ न्यूनेन विजये दैवात् ५५० ३३१
पञ्चत्रिंशति वर्षेषु ६६१ २०५ पत्रलेखनकण्डूति १८ २३२ पञ्चनवतियोजन- ६२० २०३ पत्रिणाच्छिददेकेन ६८१ ३३६ पञ्च निद्रा दर्शनानां ४६७ १९९ पत्रैर्मारकतैरासन् ३६३ १९६ पञ्चभिमुष्टिभिमूनो' २८५ २६५ पदफेनानि चिनानि १०० ३९२ पञ्चभिर्वासवादिष्ट ५८ ३४५ पदातिना रथस्थस्य ३८७ ३२६ पञ्चम्यां त्रीणि पञ्चोन ४९० २०० पदानि कतिचिद् दत्त्वा ८ २१४ पञ्चमः शूलपाणिः सन् ४८६ १८१ पदार्थग्रहणेऽकस्माद् १६३ २८९ पञ्चमूर्तीभूयेशानो ७२ २७१ पदार्थमिष्टमाकृष्य २५६ २३९ पञ्चयोजनशत्युच्च- ३७९ १७८ पदे पदे तोरणिनीं ३३८ २२४ पञ्च लक्षाणि कौमारे १२३ २९५ पदे पदे नाटकानि ५६६ १८९ पञ्च लक्षाणि वर्षाणां ५३ ३७६ पदे पदे वन-नदी १३५ ३९३ पञ्चवर्ण च सुमनो ७७ १६९ पद्भ्यां चचाल भूपालः ११ २१४ पञ्चवर्णप्रसूनस्रक् ११८ २५९ पद्मखण्डपुरे राज्ञः ६६ २९८ पञ्चवर्णमणिज्योतिः २२३ ३२० पद्मप्रभजिनेन्द्रस्य २ २८४ पञ्चवर्णा च पुष्पसक ५४ २७१ पद्मवर्ण ! पद्मचिहन ! ४७ २८५ पञ्चविंशतिलक्षाणि ४८९ २०० पद्मो राजाऽभवत् तस्यां ४ २९६ पञ्चाङ्गस्पृष्टभूपृष्ठः ८० २९८ पद्मशय्या दोहदोऽस्मिन् ५१ २८५ पञ्चाब्दलशोमतिवाह्य जन्मतः ५७३८८ पन्नगानिव पक्षोन्द्रो ११० २१७ पञ्चाहन्तः सीरिणः पञ्च ४०५ ४०२ पयःपूर्णाञ्जलिपुटा ४६३ २४६ पञ्चाशत्पूर्वसहस्री ५३ ३०८ पयोभिः पू“माणेषु १६९ २३१ पञ्चाशतः कुराज्यानाम् २९४ २२२ परचक्र इवाऽऽयाते १३९ २३० पञ्चेन्द्रियप्राणिवधो १०६ ३०४ परद्रव्यापहरण १०८ ३०४ पञ्चन्द्रिया जलचराः १२० २८८ परप्रत्यायनासारैः ३४० ३८६ पञ्चेन्द्रियाणां दौःशील्यं ४२९ १९८ परप्रसादशक्त्यादि- २६० ३८३ पञ्चव च सहस्राणि ८५५ ३४१ परमाधार्मिककृत ३१८ २६६ पटॅघनानेकपुटैः ५६९ १८४ परशोकाविष्करण ९८ ३०४ पट्वभ्यासाद रैः पूर्व २६८ १९३ परस्त्रीसोदर इति ४५५ २४५ पठतस्तत्र चान्येद्यु- ९४ २३४ परस्त्रीसोदरत्वं य ३९३ २४३ पणपूर्व क्रीडतश्च ५१ २९२ परस्परमसञ्चारा ५९९ २०३ पण्डितः किं कविः किं वा २२५ २३८ परस्पर स्नेहलौ ता- ८६ ३७७ पतत्तुहिनसम्भार ३२५ १९५ परस्य निन्दाऽवज्ञोप- १३० ३०५ पतद्भिः परिघैः शल्यै- १६९३४९ परसम्पत्प्रकर्षेणा १३१ २८८ पतित्वा पादयोश्चक्र २३७ २२१ पर स सारकान्तारे ८४ ३४६ पतिभक्त्या कवचिता १६५ ३१८ परागैर्दिव्यकपूर- २४८ १९२ पतिभक्तिरलङ्कार- ३० ३७६ पराङ्मुखश्च मलया- १२७ ३९३ पल्याः प्राणप्रिय पुत्र- ९३ २३४ पराजयेन तेनाथ ६९ ३७७ पत्नी तस्याभवन्नन्दा- ७६ ३६६ ... परात् परार्थ स्वार्थं वा २९० १६६। पत्युर्विपत्तौ यास्यन्ति १२३ ३७९ पराभूत्या तया हीणो- १८६ ३५० पत्युर्विपत्तौ वैधव्य ११७:३७८ परिखां पूरयित्वा च १६८ २३० पत्युरङ्गः समं वहनौ ४९५ २४७ परिखाम्भोधिपरिधि- १७ १५७ पत्युः सा हृदयेऽवात्सीत् १३४ २७९ परिखावलयेनोच्चैः १२ ३०७
""
पक्वबिम्बं द्विधाभूत १० ३८९ पक्षद्वयन शुद्धन २५ ३०२ पक्षं संज्वलनः प्रत्या- २२७ ३८२ पक्षोमः पीलिकाना- ११९ ३५९ पक्षमलैः कोमलै रूक्षे ११४ २२९ पङ्कजैरङ्कितो विश्वक् ३१ १६७ पच्यन्ते कुम्भकारायः १०३ २८७ पञ्चचत्वारिंशत्सङखयैः ६७० २५२
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
. श्लोक नं. पृष्ठ नं. परिग्रहाऽभिमानाभ्यां ७८४ २०८ परिग्रहाऽऽरम्भमग्ना ८९८ २१२ परिणामा निवर्तन्ते २५९ ३७२ परितरछादयन्नुर्वी- ४११ १९७ परितस्तत्परीवारो ३२३ ३२४ परितः पावयन् पादैः २०९ १९१ परितः सूतिकागार- ४४ ३१४ परितुष्टस्ततस्तेषां १०५ १७० परितो रचितोल्लोच ५० १६८ परिमातुमलम्भूष्णु २२ ३७५ परिवारसमेताभिः ३८१ १७८ परिवारेऽभवद् भत्त: १९० २९० परीषहानेवमन्या ३२७ १९५ परीषहोपसर्गाणां १०३ २७८ परेषामुपकाराय ३०५ ३५३ परैरप्युच्यमानेन १७३ ३९५ परोक्ष नरके दुःख १४७ २८९ पर्यङ्कस्थः काययोगे ६७८ २५२ पर्यटत्स्वामियशसां २९३ १९४ पर्य धाविष्ट वेगेन ९२३९२ पर्यन्तसामन्तमिव पर्यन्ते तस्य दानस्य ५८ ३०३ पर्याप्तयस्तु षडिमाः २२७ ३७१ पर्याप्त सम्पदा तन्मे १३६ १६१ पर्वतव्यतिकर ते १६२ ३४९ पर्वतायुर्भवेत्याशीः पर्वतायुर्भवेत्युच्चै- १५९ २६० पतायुभवेत्युच्चैः २४१ १७४ पर्वतारण्यदुर्गादि- ३२ १५८ पर्वतेभ्यश्च मलय- ४३२ १८० पर्वतोऽप्याजगामाभि- १६४ ३४९ पल्योपमस्थितीनां तु ७८६ २०८ पवक-पवकपती १८१ २६१ पवित्र धारयामास २४ ३४४ पवित्राणि पवित्राणि १९९ १६३ पवित्राः प्रादुरासंश्च ५७७ १८४ पवित्रितां स्वामिपादै- १९६ १९१ पशूपघाततः स्वर्गि- ३३५ ३५४ पश्चादप्यात्तया मोक्ष ९६ ३४७ पश्चादुपात्तदीक्षोऽपि ६६३ २५२ पश्चिमान्तहरिं हन्ता ६६७ ३३५ पश्चिमाशाकिरीटश्रीः ५३ २२७
लोक नं. पृष्ठ नं. पश्चिमाशाकृतोद्भास' ७६४ ३३८ पश्यतामपि भूपाना- ९५ ३९२ पश्यन् सखा ते निद्रान्ते २३० ३९६ पश्यैतत् पूर्यते सर्व ३५४ २४२ पाञ्चजन्यध्वनेस्तस्मात् १३९ ३६० पाञ्चजन्यस्य नादेन १७० ३६९ पाञ्चजन्याभिधं शङख ६२५ ३३४ पाटलाया अधो भत्त- २८३ ३५३ पाटलीखण्डनगरे ६७ २९३ पाटित व्रणपट्टाय २६१ २४० पाठ पाठच शास्त्राणि ४५ १८६ पाणि-पादा-धरदलै- ४२४ ३२७ पाणि-पादा-ऽधरेणाविः- २९ २८५ पाणिभ्यां चरणाभ्यां च १४ १६७ पाणिभ्यां जिनमादाय १५२ २६० पाणिर्गतागतं कुर्वन्- १४५ ३६० पाणिस्तदैव तूणीरे १४६ ३६० पाणी पादौ च रेजाते १४६ ३४८ पाणी पुष्प-गदायुक्तौ २८९ ३५३ पातव्या ज्वलनज्वाला १०६ २७८ पातालामिव दुष्पूरा ५३७ २४८ पात्रे दान तपः श्रद्धा ११५ ३०४ पाथसामिव पाथोधि- २४७ २३९ पादच्छाया सदा तस्य १९ ३५६ पादपीठलुठन्मूर्ध्नि ७७ २७१ पादपोपगमस्याऽथ ६७७ २५२ पादबद्धरणरण- २०३ ३५० पादातमतिविक्रान्त ५४४ २४८ पादान् प्रसार्य केऽप्यस्थुः ४ २३२ पादाभ्यां नह्यलञ्चक्रे ४१४ १९७ पादाहतिः खरेणेव ११७ ३५९ पानीयधारोद्गिरणान् ४४१ १८० पायादनन्तस्वामी वः १ ३६४ पारणेच्छुर्द्वितीयेऽहि ४३२ ३२७ पारदारिकदोषेण पारयामासतुर्ध्यान ५८८ ३३२ पारापतषणीवागात् १६१ ३६९ पारावार इवापारः ८२ २८६ पारिषद्यरयेत्यूचे १६१ २८० पार्थिवोऽरिन्दमाचार्य- १४४ १६१ पार्श्वतः सञ्चरिष्णुभ्यां ४०८ १९७
श्लोक न. पृष्ठ नं. पार्श्वतो वारनारीभि- २०७ १६६ पार्श्वतो वारनारीभिः २४६ १७४ पार्श्वयो रत्नसोपान- १६ ३७५ पावें मुनिवृषभ- १०९ ३१७ पाश्वे श्रवणसिंहषे- १३१ ३४८ पावकं पातयामासुः २३८ १७४ पाशन्ति भवकारायां १४४ ३१८ पाषाणैः खग्निविषाणो ११३ ३९२ पिङ्गकेशाः पिङ्गनेत्राः २०० ३९५ पिण्डः सर्वत्र दैधि ५४४ २०१ पितये मातरः पुत्रा २७ २५६ पितरो मातरो जाया २०७ २३८ पितरौ तत्र दुःखातौ ३०८ ३९९ पितुः पुमर्थ तुर्य यो ८५ १८७ पितुर्दाहज्वरोदन्ता- ९४ ३७८ पितुर्मातुायसश्च २११ ३५० पितुर्मातुः स्वसुर्धातु- १४१ २७३ पितुरम्लानवंशस्य ४४८ २४५ पितुरेवाज्ञया राज्य ९५ ३४७ पितृक्षयाऽर्थक्षयाभ्यां ८७१ २११ पितृभ्यां चन्द्रवेगेन
२६०३९७ पितृभ्यामुत्सवातृप्त्या २३३ २६३ पित्रव पृथिवीशेन ४६२ २४६ पिपासयाऽथाय पुत्रः १८३ ३९५ पिपासार्ताः पुनस्तप्त- ९३ २८७ पिपासितः पथिस्थोऽपि २७७ १६५ पिपीलिकास्तु तुद्यन्ते ११७ २८८ पिशाच-मुद्गल-प्रेत ३२० ३८५ पिशाचव्यन्तरास्तत्र ५१७ २०० पिशाचानां च भूतानां ४०३ १७९ पिशाचेभ्योऽप्यचकित- २०३ ३९६ पिहिताश्रवसरीणां १४ २८४ पीड्यमानस्य विश्वस्या-८२१ ३४० पीयूषनिःस्यन्दमिव ८२१ २०९ पुच्छाच्छोटनिनादेन ३८५ ३२६ पुच्छराच्छोटयन्तः मां ६०९ ३३२ पुण्डरीकमिव गङ्गा १९९ ३५० पुण्डरीकवती छत्रैः २५१ ३५२ पुण्डरीकाणि पद्मानि ४२६ १७९ पुण्यलावण्यभद्राङ्गा १६ ३८७ पुण्याकृष्टास्ततो देवा ६२४ ३३४
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोक नं.
पृष्ठ न.
पुष्यैः संसारिणं देव!
४५ २८५
२२९ २८२
पुण्योऽय दिवसः स्वामि- १९३३६२ पुत्रमाताऽप्युवाचैवं १५४ २८० पुत्र- मित्रादे पुत्ररत्ने समुत्पन्ने पुद्गानां परावतें पुद्गल्यः स्युःस्पर्श-रस- २६६३७३
१७७ ३१९
२०६ ३६२
पुनः प्रणम्य शिरसा
१३१ १६१
६४८ २५१
४१३ ३२७
७६२ ३३८
१२८ १८८
११७ २२९ ५४५ २०१
पुरस्कृत्येव मनसा
१५१ १७१
पुरस्य तस्य मूर्धन्ये ४७६ ३२२९ पुरा विरामण्या
९२३ २१२
३७ २२७
पुरीद्वयमिदं वत्स पुरीपरिसरेऽन्येद्युः
१०६ ३५९
पुरीपरिसरोयाना -
३५१ २४२
१३७ २८८
७७ ३७७
९३ ३७८
३५३ १९५
३५१ १७७
३७४ १७८
२८ २२६
३ ३०१
३ ३०७
३ ३१३
३ ३४४
पुष्पचकाि
४२ २१५ ४२३१७९ पदमकरो द्वार २२४ २३८ पुष्पदुर्वासनाथानि ५५४ १८३ पुष्पवर्षैः सुरैः शार्ङ्ग - १९० ३७० रे पुष्पाभरणरम्याभिपूजया जातगद्धस्ति
१८९ ३८१
१२१ ३४८ १५७ ३०६ १९५ ३६२
पूतास्तपाद संपर्काद् पूतिगन्ध तदालोक्य
३४ ३९०
पुनः पुनः प्रेक्ष्यमाण: पुनर्मातावित
पुनश्च पोतनपुराद् पुमानेषां च कार्येण
पुरतः स्वामिनिम्यानाम पुरा सिंहा दक्षिणतो
पुरीषसूकर: पूर्व
जीव पुरुषोऽप्यब्रवीदेव
पुरुहूतः समाहूता
रुहूतो मुहूर्तान्तः पुर्या चमरचचाय पुष्करद्वीपभरत
पुष्करवरही पायें पुष्करवरश्रीपाचे
करवरदीप
पुष्करवर डीपार्थे
पकराव काम्भोद
श्लोक
नं.
पृष्ठ नं.
पूरणीया ततोऽपश्यम् १६० २३० पूरयित्वाऽष्टापदाद्रि
५४१ २४८ पूरिता प्रथमा भूमि- ३५८ २४२ पूर्णकुम्भश्च सौवर्णः ५५ २७१
पूर्णकुम्भान् दधुः कश्चिन् २२९१९२ पूर्णकुम्भो गरीयांश्च पूर्णकुम्भो नवश्वेता
पूर्ण द्वितीय यां
पूर्ण द्वितीयां
३६
पूर्ण भद्रस्तथा माणि
पूर्ण मेचितरं पूर्णमेपात्मजस्तस्मात् पूर्णायामथ पोथ्यां
पूर्णायामथ पौरुष्यां
पूर्णायामादिपौरुष्यां
पूर्णायामादिपौरुष्यां
पूर्णायामादिपौरुध्यां
पूर्णायामादिपौरुध्यां
पूर्णायामादिपौरुष्यां
३७९ २६८
६५५ २५१
२१४ ३६२
२४४२८२
३५० ३८६
३५१ ३५५
८४६ ३४१
पूणे काले च विजया- ७८ ३७७ पूर्ण काले च सा देवी २२७३२० पूर्ण काले मात्रशुक्ल
२८ ३५६
पूर्णो वशिष्ठश्च द्वीप - ५१४२०० यासा ३७९ १९६ पूर्वराविशन् साधु- ३७८ १९६ पूर्वदारेण तमाथ ७६ २९३ ५५३ २०१
पूर्वपूर्व परिक्षेत्र
२५७ २८३ ११६ ३००
५६ २९८ २६२ २८३ ४०३ २६८ ५७२९८
३७ ३१४
७९ १६९
२१६ ३६२
१५८ २७४ १७७ २६१ ३२५ २२३
४ २२६
पूर्व लक्ष द्वादशाङ्गया
पूर्व
श्रमासोन सा
पूर्व
पूर्व'लक्ष' द्वादशाङ्गपूर्व लक्षा: कुमारत्वे पूर्वपदा पूर्ववत् सपरीवारा: पूर्व वज्ज्ञापयित्वा स्वं
२०० १७३
१९२ १७२ पूर्व सवयेमहिष्याद्यैः ३८९ १७८ पूर्वादिदिक्षु तत्रान्तः ६२३ २०४ पर्याय-प्रियालापी ११३ ३०४ पूर्वे मदीयाः सर्वेऽपि १९५ २३७ पूर्वेषां चेत् क्वचित् कश्चि- ३६४२६७ पूर्वोदितविधानेभ्यः
३४ २३३
लोक नं.
पूर्वोदयां दिशि तथा पृष्ठयमानो जनः सवो
पृथक् पृथक् पथेनैव पृथक पृथ] युत्प्रतियां पृथद्वाराणि चत्वार्यु पृथग्विध्येत
-
प्रकाशमुपनिन्युश्च
प्रकुप्याम्यपकारिभ्यप्रकृतिस्थित्यनुभाव
प्रकृष्टदेवतस्येव
पृष्ठ नं.
६८६२०५ १०७२१५
१४४ २३६
५२५ ३३० ७१० २०६
२१५ ३८२
पृथिव्या भूषण' साऽभूत् १५ १६७
२१ ३८७
पृथिव्यां वा पृथिव्यामेकम पृथ्वीदेव्या तदा स्वप्ने
२६१ ३२१ ७९ २९३
७ ३४४
पृथ्वी समुद्र-संध्यान पृष्ठेऽन्यसेो विन्यस्य ५५ ३९० पृष्ठे भामण्डलधर्म ३७७ १९६ पृष्ठेऽस्य डिनो न्यस्या ५४ ३९० पेठुः स्नात्रविधि केऽपि ४४७ १८० पैतृष्वसेयीमुद्रो
१५० ३१८ १२५ १८८
पोप्या अमी सेवका पौत्रराज्याभिषेकेणा
६१७ २५०
पौरगन्धर्ववनिता वीरान् समाहूय पौराङ्गनामृज्यमान
पोयां च द्वितीयायां पौलोम्येव महेन्द्रस्य पौष कृष्ण चतुर्दश्यां पोषणदस्यां पौषधान्ते रथारूढी पौषस्य कृष्णदास्या
प्रकम्पमान सर्वाङ्ग
-
५५० १८३ २०० ३२०
५७ ३७६
८३७ २१०
१३८ २७९
७५ ३०९
६४ २९८
२४९ २२१ ३२ २९७
८२ ३६६
११३ १७०
२४२ ३८३
२८१ ३७३
८५ २५८
प्रचण ७१५ ३३७ प्रच्युतप्राप्तात् सोऽपि १०४ ३५०... प्रचचाल जगन्नाथ २१३ १९१. प्रजहुर्युगपत् तस्मिन् ५३४ ३३१. प्रजानां यदि गोपस्त्व ं ७१ ३०३ प्रापनि ७७६ ३३९ प्रजापतिनृपस्य स्तः २७८ ३२२ प्रजापतिः समाहूय प्रणामपूरीप
३५५ ३२५
१०९ १८८
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोक
नं.
प्रजाः शशास धर्माय
प्रज्ञां प्रज्ञावतां पश्य
प्रणते च विपक्षे च
प्रणम्य नृपतिं भक्त्या
प्रणम्य स्वामिन भूयो प्रार्थनांच
प्रणयेष्येव कलहो प्रणेमतुः पितुः पादौ
प्रणेमुः स सर्वे प्रत्यक्ष विश्वकमेव प्रत्यग्द्वारेण प्रविश्या
पृष्ठ
नं.
३८ २७०
२९५ १६६
२२ ३१४
१७३ १६२ ८१७ ३४०
६१ २२७
१०८ १८८
४१२३२७ १७५ १९०
२४९ २३९ ३३८ २६६
३८१ १९६
५४६ १८३
१३४ २२९
५९ ३६६
१४६ ३९४
प्रत्यद्वारत्य भवने
प्रत्यकदली स्तम्भः
प्रत्यधर्मस्थानस्य
प्रत्यमरवाता
प्रत्यग्रपल्लवास्वाद
प्रत्यग्वर्ज प्रतिदिशं प्रत्यग्रे इव चलते प्रत्यधः कूपपानी ये प्रत्य-गृहमासंव प्रतपन्तमाममेकं तु प्रत्यभाषिष्ट साऽप्येयं २४६ ३९७ प्रवेद् द्वितीयोऽपि २५३ १२५
१५१ २६० ११ ३८९ ६१ ३५८ ५६४ १८४
५९० २४९
प्रत्यर्थिनः पार्थिवस्व
८७ २५८ १८ ३०७ ११२ ३०४
६४६ २५१
प्रत्यर्थिभ्यो बलादात्ता प्रत्यारपानपायत्यं प्रत्यापन प्रतिगृह प्रत्याहार्षमहं तस्माप्रत्युवाच निष्ठोऽपि प्रत्यूचे तारकोऽप्येवं प्रत्येकम-जनाद्रीणां प्रत्येकमासां योजन
३८९ २४३ ७५९ ३३८
प्रत्येकं च महानिकैः
२७० ३५२ ७२१ २०६ ७२४ २०६ १६५ १७२ प्रत्येकं च सामानिकी १६४ १७२ प्रत्येकं ते पुनः शीता- ५८५२०२ प्रत्येकं पूर्ववत् सर्व
प्रत्येकं महिषीभिस्ते
२१६ १७३ ४०११७९ २२६ १७३ ३६९ ३७३
प्रत्येकमेकं तन्मध्ये प्रत्येकमेकद्रव्याणि
२४३ ३७२
प्रत्येकं सप्त लक्षाश्च प्रत्येकाः साधारणाश्च २३० ३७१
३७
भगोक
नं.
प्रत्योकः प्रकृतोद्वाह
प्रतापः प्रसरस्तस्य
प्रतापेष्विव मूतेषु प्रताप कूठे शपथैः
प्रतिक्षण प्रभवन्त्या
प्रतिक्षणभवैदेहप्रतिमहो ! दैव प्रतिग्रामं प्रतिपुर प्रतिपक्षप्रहारेण
पृष्ठ
७७४ ३३९
१३१ २७९ १६६ १९०
२८८ ३८४
८४३ ३४१
४३८ १९८
१८४ १६२
३३३ १९५
७२९ ३३७
प्रतिपच्या महत्या त- २३३ ३५१ प्रतिपन्नः कदाऽस्माभिः १५२ प्रतिप्रसादादुद्भूता
३६९
११४ ३७८
प्रतिबुद्धः परिव्रज्या
८२ ३५८
६६५ ३३५
१२६ २७९
प्रतिमरे ! प्रतिरथ्यं रजःशान्ये ५६५ १८४ प्रतिलाभ्यमानः क्वचित् ३०४ १९४ प्रतिवासगृहं तत्र प्रतिवेश्म मणिस्तम्भप्रतिषेधविः सन प्रतीक्ष्यमाणः कुत्राऽपि प्रतीयेषोपायनानि
२२ २६९ ३८४ २४३ ३०५ १९४
५६२ १८४ ४३ १८६ ६७९ ३३५
प्रतीहार्य भवन् केचिन् प्रथमेनेव बाणेन प्रथमोपदेवोऽयं प्रथमो वासुदेवोऽयं प्रथमोऽस्त्यन्तरद्वीप
७५५ ३३८
४६५ ३२८
६८७ २०५
४८८ २४६
प्रयोतनो यो प्रदक्षिणात्रीपूर्व प्रदक्षिणीयमस्तो
२५४ १६५
४९२ ३२९
प्रदक्षिणोऽनुकुल
१२९ १७०
६६१ ३३५
प्रधर्षितश्चण्ड सिंहो प्रपुष्णन् लालयन् वृद्धिं
२६ १५८
प्रपेदे च द्वितीयेऽहिन
९५ ३७८
प्रवो वचनेश्वाद्र- ५९२२४९ प्रभावं तं तु सम्प्रेक्ष्य ९२६२१२ प्रभाभात् स्वामिनस्तस्य २० १६७ प्रभावात् स्वामिनः स्वामि-२३४२६६ प्रभासतीर्थाधिपतेः १२६ २१७ प्रभु नत्वा ततः शक्रो ११५ २७३ प्रभु प्रदक्षिणीकरण २०८ ३८१ प्रभुवतियो
५० ३००
C
न.
श्लोक नं.
प्रभु विलिप्य सम्पूज्य प्रमोश्व प्रतिरूपाणि
प्रमोश्व प्रतिविम्बानि
प्रमोस्तपा देशनया
प्रभोः समवसरणो
प्रभ्रं शयति वप्रांश्च
मानवदनेन्दुव
प्रमत्तश्चाप्रमत्तश्च
प्रमादपरिहारेण प्रतापपस्ते तु
७४ २७१
२९३ ३५३
६९ २८६
१०८ ३१०
४०० १९७ ५६६ २४९
७२ २३४
२५० ३७२
११८ २७८
६७५ २५२
११६ १६०
माना प्रलम्बा दारुणाः कृष्णाः ६९९ ३३६ प्रलयाय त्वयाऽऽख्यातः ३२७२४३ प्रव्रज्या केवलज्ञान८९ ३४७ १४१ १६१ ४४ २९७
प्रमन्या त्वादयत्ता
व्यापाररूपं ते
९३ २७८
यो धर्मराजस्व व्यापाने पूर्व
१२४ ३११
व्यापाने वर्ष
८६२ ३४१
प्रव्रज्यायां पूर्वलक्ष
४०४ २६८
१०४ २७८
१५१ २७४ २३५ ३८२ ३५६ २६७
२६८ ३२२
प्रवव्यायामुपात्तायां
प्रव्रज्या लक्षणोपाय प्रवर्धमानः क्रोधोऽयं
प्रवर्द्धमान पुरुष
प्रवासी निते
पृष्ठ
प्रवाह
जाग्या प्रविवेश दिपादः
न.
३८४ १७८
७७५ ३३९
प्रविश्य च यथाद्वार
७९ २९८ ८१० ३४०
प्रविश्य चोत्तरद्वारा
प्रविश्य पश्चिमद्वारा - ८०९ ३४० प्रविश्य प्राग्द्वाराऽर्हन्तं - ३३६ २६६ प्रविश्य पूर्वद्वारेण
३७३ १९६
प्रविश्य पूर्वद्वारेण
८०७ ३४०
प्रविश्य सूतिकागार प्रविश्योदीद्वारेण
प्रविश्यावाच्यद्वारेण प्रविशन्तं महात्मान
प्रविशन् हरिदासेन
प्रविष्ट' स्नेहयोगाच्च
प्रवृते दुःषमाकाले
प्रवेश नृपतिस्तस्य
१७७ १७२
३८२ १९६
८०८ ३४० २१४३९९
१४ २२६
९९ ३१०
१३३ २२९ ३८३ २४३.
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___ श्लोक नं. पृष्ठ नं... फाल्गुनस्थ सिताष्टम्यां ११३ २५९ फाल्गुनस्य सिताष्टम्यां १३१ २५९ फाल्गुनस्यामावास्यायां १२५ ३४८ फाल्गुनासितनवम्या २९ ३०२. फाल्गुनासितसप्तम्या ७४ २९८
श्लोक नं. पृष्ठ नं. श्लोक नं. पृष्ठ नं. प्रवेशितश्च महती १७८ ३९५ प्रान्ते सारस्वतादित्या ७६३ २०८ प्रशान्त क्षीणमोहादौ १०६ ३१० प्राप्तकालमिदं तावत् ३०३ ३२३ प्रशान्तकोपस्त्यक्तास्त्रः ८ २२६ प्राप्तः षण्णवतिग्राम- २९५ २२२ प्रस्खलच्चरणन्यासा १५९ २३६ प्राप्तेऽपि पुण्यतः स्वर्ग १५४ २८९ प्रसन्नचेताः सतत- ३७ २७० प्राप्त वसन्त सोऽन्येयुः ८६ ३९१ प्रसपत्कोपतिमिर. २१४ ३७१ ।। प्राप्तेषु पुण्यतः श्रद्धा २०३ ३६२ प्रसर्पन्तो गुणास्तस्य ३१ १५८
प्राप्तरथैरतृप्तस्या १५८ १६२ प्रससाद ककुप्चक्र- २२८ ३२० प्राप्याजप परमा बाधि ४५३ १९८ प्रसह्य स्ववशीचक्रे १४ ३८७ प्राप्याऽपि मद्गृहं वत्सा! २०० २३८ प्रसह्यापहृतमेक- ७१४ ३३७
प्राप्यापशान्तमाहत्व ३२२ ३८५ प्रसादपूर्व मालप्य १५१ २१८ प्राप मगावाते पाण्डु ७० २७१ प्रसीद विवरं देहि . १२ २३२
प्रायाश्च मिवादित्सु ७४० ३३८ प्रसूतिदुःख नो देव्या- १२५ १७०
प्रायाश्चत्तं यावृत्य ८७ २७७ प्रसूनदामभिर्दिव्यैः २०३ १९१
प्रायाश्चत्तं वैयावृत्त्य ८३३ ३४१ प्रसूनरसनिस्यन्द ११८ १६१
प्रायः सन्तोषनिष्ठोऽपि ९ ३०१ प्रहत्तु धावतस्तस्य २८१ ३९८ प्रार्थितो मम पिव २९१ ३९८ प्रहारान् वश्चयमानः ३२२ ३२४ प्राविशत् सूतिकाश्म- ३३१ १७७ प्राकू पुत्र पालयन्त्येषा १५५ २८० प्रावृषि क्षमारुहतले १७.२६९ प्राकार चोपरितन
प्रियङ्गमा-जरीपुर-ज ५६ ३७६ प्राकारभूता द्वीपस्य ६११ २०३ प्रियङ्गमूले ध्यानस्थ- २१२ २८१ प्राकारवलयेऽमुष्मि- ३५२ २४२ प्रियया पार्श्ववर्तिन्या ३९४ २४३ प्राकारे मध्यमे पूर्वो ३६७ १९३ प्रिये ! प्रिये ! देवि ! देवी ४४१ २४५ प्राग्मानेन विमानेन ३९० १७८ प्रिये ! बकुलमतिके ! १७५ ३९५ प्राग्विदेहोत्तरा येते ६०१ २०३ प्रीणयन्ती जनपदान् ६ २५५ प्राच्यरम्भागृहचतुः- ५८ ३१५ प्रीतः प्रजापतिनृपः ४६७ ३२८ प्राचीनाद्यास्तु सर्वेऽपि १०९ २८७ प्रेयसीभ्यां समं ताभ्यां १९६ ३५० प्राज्यराज्यबलेनाद्य- १५३ ३६९ । प्रेर्यमाणा महामात्र १६४ ३६९ प्राज्याभिराज्याधाराभि- ४६५ २४६ प्रौढप्रतापमार्तण्ड २५ ३७५ प्राणनाथपथे गन्तु- ४४३ २४५ प्रौढभल्लुकहिक्काभिः ११४ ३९२ प्राणप्रियाण्यप्यस्त्राणि १७६ २३७ प्लवङ्गम इवोत्पत्य ३६३ २४३ प्राणमच्च पितुः पादौ १०० ३७८ प्राणातिपातव्यावृत्ति ८३ २७७ प्राणातिपाते निःशङ्को ८८५ ३४२ प्राणाः ! शिवा वः पन्थानः १४२३२
फलप्राग्मारभाराव ११९ १६१ प्राणिनः प्रीणयन् कारा ४७ २९२
फलप्राग्भारभाराव २५२ १९२
फला-ऽङ्कशधरौ बाह १४४ ३१० प्राणेभ्यो वल्लभीभूतान् २२८ ३५१ प्रोणेशान् गृहणताऽस्माकं ११ २३२
फलानुध्यानवन्ध्योऽहं ३४९ २६७
फलेन तपसोऽमुष्य २१५ २६२ प्रातर्जितारिणा राज्ञा
८३ ३५८
फालाच्च्युत इव द्वीपी १८५ ३५० प्रातरीश्वरहामा ३० २५६
फाल्गुनश्यामभूतेष्टा ३३ ३४५ प्रातः समवसरण ३३२ २६६
फाल्गुनस्य कृष्णषष्ठयां ७४ २९३ प्रादुरासन् गरुत्मन्तो ७०३ ३३६ । फाल्गुनस्य त्रयोदश्यां १०० ३१६
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बद्धशांक इवाशोके १२५ ३९३. बद्धाः स्कन्धा बन्ध-शब्द २६७ ३७३ बद्धो-कं मरकत ः ५९ ३७७. बन्दिकोलाहस्लेपर्दा ७४ १५९ बन्दिकोलाहलेनोच्चैः २३९ १६४ बन्धवो नारदस्येव ५९९ ३३२ बन्धूनिवोच्चैःश्रवस: ५६० १८४ बबन्धुर्व्यन्तरास्तां च ३२१ २६६ बबन्धुस्तत्र पीठं ताः २२४ १७३ बभूव तस्य तनयो १२९ २३५ बभूव तस्य महिषी ४१७ ३२७ बभूव तस्य श्यामेति २० ३५६ बभूव तस्यामिक्ष्वाकु ३१ २७० बभूव तस्यामिक्ष्वाकु १०४ २५९ बभूव प्रतिवन' च ३२६ २६६ बभूव महिषी तस्या ११० २५९ बभूव सा भूचरीषु २३ ३५६ बभूवुग्रह-नक्षत्र २८६ २४० बलभद्रोऽपि पादोन ३६८ ३५५ बलवद्वातदोषेण ६२ २५७. बलवन्तोऽपि जरसि २६६ ३८३ बलवानथवा वैरी ७८ २३४ बलवीर्यो महावीर्यः १३० २३५ बल हस्त्यश्व-पादात ७ ३१३ बला नव वासुदेवा ४५६ ३२८ बलिभ्योऽपि बलितमा १२३ ३६८ बलीन्द्रोऽष्टाह्निकां चक्रे ५२७ १८२ बले द्वयोरुत्पतितैः ६५२ ३३५ बलेस्तस्य प्रभावेण ८३० २१० बलो नामाग्रजोऽयं मे ६६८ ३३५. बहवोऽपि विपद्यन्ते ५२ २३३ बहिः कथञ्चिद् यद्येतत् ३७३ ४०१ बहिरङ्गानिव जय ९९ १८८
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श्लोक नं. पृष्ठ नं. ब्रह्मदत्तनृपः पीठं ३०१ १९४ ब्रह्मलोकात् सुरा लोकान् ५३ ३६५ ब्रह्मलोकादिसर्वार्थ ७९२ २०८ ब्रह्माऽथ परमब्रह्म २०७ ३५० ब्राह्मणग्रामणीः सोऽथ ४८ २३३ ब्राह्मणानां गुरुर्वेदो ५३८ १८३
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श्लोक नं. पृष्ठ नं. वहिरन्तर्विपर्यासः ३८ ३९० बहुदासीपरीवार' ४० २१५ बड्वेताभ्यामपराद्ध ३३४ ३२४ बाणधेर्बाणमाकृष्य ६७६ ३३५ बाणवृष्टया बाणवृष्टिं १४३ ३६० बाणैरजय्यं ज्ञात्वाऽरि १४७ ३६० बाधामजनयद् देव्या १७९ २८० बाध्यमानोऽपि शीतेन २७८ १६५ बालकस्यापि सिंहस्य १५५ ३८० बालतपो-ऽग्नि-तोयादि ११६ ३०४ बालधार इवोत्सङ्गे ३४ २९२ बालिशोऽपीदृशं किंस्वित् ९३२ २१३ बालेनैकाकिनाऽनस्त्र ४०२ ३२६ बालोऽपि केसरी नेभान् ७२१ ३३७ बालोऽपि तव पुत्रोऽस्मि ८९ २५८ बालोऽपि सन्ध्यारक्षोभ्यः ७२२ ३३७ बालोऽसि तन्मया क्षान्तं ७१९ ३३७ बालोऽस्मीति स्म मा वादी ६०७ २५० बाल्यं क्रमेण लङियत्वा १८५ ३१९ बाल्ये मूत्र-पुरीषेण १३६ २८८ बाष्पेण लुप्तनयनः ८३ ३६६ बाहु-पाद-शिरो रुण्डं ४९४ २४७ बाहुभ्यां तरणीयोऽयं १०५ २७८ बाहुवीर्यमसामान्य ५४३ २४८ बाह ! कङ्कण-केयूरैः २१ २३२ बाह्यमाभ्यन्तर वाऽपि २७ २७५ बाह्यवेलाधारिणां तु ६३० २०४ बिभराञ्चक्रतुरुभौ ३४२ १७७ बिभर्ति गर्तान् मध्नाति ३४३ २४२ बिभ्रत् पाणी नकुलाऽक्ष १८१ २९० बिभ्रद् व्यात्ताननः पञ्चा ३८३ ३२६ बिभ्राणेन त्वया न्यासे ४०८ २४४ बीजपूरधरेणाऽभी ८४४ २१० बीजपूरा-ऽङ्कुशभृद्भ्यां ८४६ २१० बीजं मोक्षद्रमस्येव ४९६ १८२ बुद्धिसर्वस्वहरणैः ३८ ३५७ ब्रहि तात ! प्रसादं मे १३७ ३७९ बहिते वननागानां १२१ ३९३ बोधयन् भव्यभविनः ८४८ २१० बोध्येमानावाप्तजनैः १४२ ३७९ ब्रह्मदत्तनृपगृहा २९९ १९४
भक्तो बहुज्ञा दोष्मन्तो ४१ २३३ भक्तिनिध्नो जानुदध्नं ४६६ १८१ भक्तिमान् बलदेवोऽपि २१३ ३२० भक्तिरर्हत्सु सिद्धेषु १२६ ३०५ भक्त्यैकमपि यः पुष्पं ३८ ३६५ भक्षयाम्यहमङ्गारान् २५४ २३९ भ? याभक्ष्ये पेयापेये ३४६ ३५५ भगवत्स्थानमाहात्म्या ८३४ २१० भगवद्भगवन्मात्रो १८७ १७२ भगवन्तं ततो नत्वा १४० २६० भगवन्तं नमस्कृत्य ३९ २२७ भगवन्तं नमस्कृत्य १२९ २७३ भगवन्तं नमस्कृत्य ५२१ १८२ भगवन्तं नमस्कृत्य ८४१ २१० भगवन्तमिति स्तुत्वा ४३२ १९८ भगवन्नजितस्वामि २८० १९३ भगवन्नन्तरात्मा त्वं २८३ १९३ भगवन् भरतक्षेत्र २०४ २६२ भगवानजितेशोऽपि १७८ १९० भगवानप्रतिबद्ध . ३०३ १९४ भगवान् पारयामास ३०९ २६५ भगिनीवद् दुहितृवत् ८६ २३४ भगीरथमथोवाच ६०६ २५० भगीरथेन सामन्तैः ६५० २५१ भग्नकदन्तो दन्तीव २८० ३९८ भङ्गो युष्मद्वेश्मनां तु १५३ २३० भङ्ग या मास पुरीवर्ताः ६७२ २०५ भटो वप्रमिवाऽऽरुह्य ७४ ३०९ भद्र इत्यभिधां तस्य ९६ ३५९ भद्गशालमिवाऽऽयातं १०९ १६० भद्रशालात् पञ्चशत ५६२ २०२ भद्र-स्वयम्भुवौ प्रीत्या १०२ ३५९ भद्राऽपि स्त्रीशिरोरत्नं २१२ ३२०
श्लोक नं. भद्रा विशाला कुमुदा ७२३ २०६ भद्रासनेषु रम्येषु ९४ १६९ भद्रेति नाम्ना महिषी १६४ ३१८ भद्रे ! न कालहरण १७५ २८० भद्रे ! सनत्कुमारः कः २३८ ३९७ भद्रोऽपि सोदरविप भरतक्षेत्रगेहस्य ४४ ३०२ भरताधेऽत्र गङ्गातः १२५ ३६८ भरतार्धेश ! इति तु १२१ ३६८ भरतार्धेश्वरोऽस्मीति १२९ ३६८ भरतार्थोद्यानमधु १४२ ३६८ भरतावधिभूस्तम्भो ५५ २२७ भरतेऽचैव नगरे १ ३८७ भरतेऽधिष्ठिते ताभ्यां १३३ ३६८ भरतो नाम सौधर्म १२२ २३५ भरतोरुत्वे षड्विंशा ५८६ २०२ भर्ता ते भ्रातृवधको २५४ ३९७ भतु: प्रसादाद् भूयोऽपि १४५ ३६९ भतु : सहस्रयतिनां २६४ २८३ भतुस्तिया देशनया १७६ २९० भतु स्त्रिनवतिर्दत्ता १०५ २९९ भल्लूककर्णग्रहण ३१४ १९४ भवच्छासननिःश्रेणि ४३ ३५७ भवं तरिष्याम्यज्ञोऽपि १५३ १८९ भवता जन्तुमात्रेण ३२९ २४२ भवतीन्द्रियवैकल्यं ५२९ २४८ भवत्या तन्न भेतव्य २२२ १७३ भवत्याः सुलभा बोधि ९२४ २१२ भवत्वेवं तावदिति १७४ ३९५ भवद्भिरपि सर्वद्धर्या २७८ १७५ भवन्तो बिभराञ्चक्रः १४८ १६१ भवपार जिगमिषु: ५७ २८६ भवं भ्रान्त्वा चिरं सोऽथ ४९ ३९० भवस्य च्छेदनायाथ ९ २९६ भवः स्वयम्भूरमणी ६०८ २५० भवस्वरूप नृपतिः ११६ २३५ भवानपि करोत्वेवं ९८ ३४७ भविनां दृष्टमात्रो वा ४१ २९७ भविष्यत्कालदोषेण १५२ २३० भविष्यदद्भुतश्रीकैः ६० ३५७ भवे भवे भवदीयौ ८२५ ३४.
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श्लाक
नं.
पृष्ठ
नं.
भवेयुरार्जवजुषो ३०१ ३८४ भाग्योदयेन विश्वस्य २७६ १७५ भान्ति तत्रौकसां मुक्ता १५ ३०१ भामण्डलेन भ्राजिष्णुः ८०१ ३४० भार वोढ क्षमे पुत्रे १८९ १६३ भार्यान्यासे त्वयोपात्ते ४०९ २४४ भालगण्डस्थलेनाऽर्ध ९४ २७२ भावी ह्यहन्महावीरः २४५ ३८३ भाव्यं मयीव युष्माभिः १६२ १६२ भांश्चामराभ्यां श्रीखण्ड १६१ २१८ भाषार्या नाम ते शिष्ट ६७८ २०५ भासां चयैः परिवृतो २२३ २८२ भास्करेणेव गगने ८२ ३०९ भिक्षया लज्जमानः सन् २६ २५६ भिल्ला अन्ध्रा बुक्कसाश्च ६८१ २०५ भीतस्तेनाऽनिमित्तेन ९५ २३४ भीतानामभयदानात् ३९१ २४३ भीतेव वेपथुमती ३२९ २२४ भीरवः फेरव इव ६३१ ३३४ भुक्तमात्रो निजावासात् ११० ३७८ भुक्त तस्मिन् समुच्चख्ने ६० ३९१ भुक्त्वा भोगफल कर्मा १५८ १८९ भुजङ्ग-गृह-गोधाःस्युः ३१९ ३८५ भुजाना बहुधा भोगान् ८४ २२८ भु-जानो विविधान् भोगान् २४१ २६३ भुवनत्रितयाधार १४२ २७९ भुवनस्वामिन यत्नात् ३४५ १७७ भुवां रत्नप्रभादीनां ४९१ २०० भुवि गोदोहकरणाद् ३४१ ३५५ भुवि सवौषधीमय्यां ८८ २३४ भूचरा भूचरैः सार्ध ६४५ ३३४ भूतलालोकमात्रेण ३१६ १९४ भूतवादितः ऋन्दितो ५२६ २०१ भूतान्येतानि सत्त्वानि ६१४ ३३३ भूत्वाऽथ पञ्चधेशान १९३ २६१ भूपतिर्धारयामासो २१९ २६२ भूभजा पारिषद्मश्च ४६९ २४६ भूभजा राशिसौम्येन १०८ ३५९ भूभजा स्वस्य कार्पण्य २६९ २४० भूमिती दशयोजन्यां ६०७ २०३ भूमिपालैः पाल्यमान ७ २९६
लोक नं. पृष्ठ नं. श्लोक न. पृष्ठ नं. भूयः कुमारस्तं नत्वा ७४ २७७ . भ्रमद्भिर्मण्डलीभूय ३९ ३५७ भूयो नत्वा जगन्नाथं २९८ ३५३ भ्रमयित्वा चिरतर ७२५ ३३७ भूयो नत्वा जिनेन ते २१२ ३७१ भ्रमयित्वाऽथ तच्छाी २७२ ३५२ भूयोऽपि षष्ठभक्तान्ते ३८४ ४०१ भ्रश्यत्याधारशैथिल्याद् २११ १६३ भूयोऽपि सगरोऽपृच्छत् २० २२६ भ्रात्रगसंगादमृत १८६ ३७० भूयोऽपि स्वामिन नत्वा २०९ ३८१ भ्रान्त्वा दानप्रभावेण २६ २२६ भूयो बभाषे भूपाल ५०५ २४७ भ्राम्यतो विकृताकारान् २०२ ३९५. भूयो भूयो जगन्नाथ २१७ ३८२ भ्रामयन्तो मुद्गरांश्च ५२९ ३३० भूयो भूयोऽपि भूयान्नो ८४० २१० भ्राष्ट्र-कण्ड्-महाशूल ९७ २८७. भूयो भूयोऽपि शिवराट्र १०२ ३७८ भ्रवमुन्नमयन्नेका १५२ ३८० भूयो भूयोऽप्येवमुक्त्वा १११ ३९२ भूयो भूयो भगवन्तम् ३४८ १७७
भूयो भूयो भवत्पाद ८० २८६ मकराङ्का उदधयो ५०९ २०० - भूयो भूयो हयग्रीवो ६८० ३३६ मकराननसौवर्ण २३० १६४
भूयो महानिकु-जेषु १२० ३९३ मग्नं प्रदीपन इव ७०७ ३३६ भूषणानि विचित्राणि १७१ २१९ मग्नस्य पत्तनस्याऽस्या ३५६ २४२ भूषणोद्यानवाप्यादौ ३२१ ३८५ मघवा चक्रवर्ती ति ३८ ३८८ भृङ्गारान् दर्पणांश्चापि १८५ २६१ मङ्गलानि कुल स्त्रीषु ४८५ ३२९ भृत्यत्वेन प्रतीयेष ७९ २१६ मङ्गलानि जगुः काश्चिन् २३० १९२ भेजिरे भूभजः पत्ति ११० १८८ मङ्गल्यं गीतमारेभे ३२८ ४०० भेजे सिंहासन पूर्वा ८२२ २०९ मङ्गल्यपाणयो नायर्यो २३२ ३२१ भेदं गोस्वामिनः कृत्वा २३ २२६ मञ्चस्थरत्नपात्रीभिः ३४० २२४ भेदं विद्वान् न पीडयेत १०१ २९४ मञ्चे मञ्चे च गन्धर्व २४४ १६४ भोः ! किमेव समुद्विग्नो १०३ २३५ मर-जुघोषा चेति घण्टा ३९७ १७९ भोः कृत्यमूढाः! किं यूयं ४९ २३३ मा-जुस्वरां म-जुघोषां ४१४ १७९ भोगङ्करा भोगवती १६३ १७२ मणि-रत्नयुता हारा ५०८ १८२ भोगान् यथेच्छ भु-जानः ३६५ ३५५ मण्डकाः खण्डसम्मिश्रा ४३ २५७ भोगान् विचित्रान् भुञ्जीनः २४५२२१ मण्डपो नृपतेरेवं ५७३ १८४ भोगावत्यमरावत्यो २४ १५८ मण्डलाग्रमथाकृष्या २७९ ३९८ भोगेषूद्यत वैराग्यः ८ ३७५ मण्डलान्यालिखन् प्राग्वत् २७५ २२२ भोग्य कर्म क्षपयितु ५५ २९२ मतङ्गजेन मत्तेन ५८ २५७ भोग्यं कम क्षिपन् राज्ये २४७ २६३ मति-श्रुता-ऽवधिज्ञानैः ४७ १८६ भोग्यं कर्म निज जानन २०० २८१ मति-श्रुता-ऽवधि-मनः २८१ १९३ भोजनाद्यप्यकृत्वाऽस्थां १०२ २३५ मति-श्रुता-ऽवधि-मनः ४६६ १९९ भोज्यदानक्षमः सैन्ये ३६ २१५
मत्कृते कृतमन्नादि ३९ २५६ भोज्या-ङ्गराग-नेपथ्य ४७९ ३२९ मत्तकु-जरभग्नाव ११७ ३९३ भोज्येनालवणेनेव १४९ ३४८ मत्तेभ इव संक्रुद्धः १३४ ३६० भो भोः ! क्व वज्रवेगारि २७३ ३९८ मत्पुत्रोऽसि समर्थोऽसि २८७ १६३ भो भो ! गृहेऽत्र राजानो १४६ १६१ मत्प्रसत्तेस्त्वप्रसाद : ६२३ २५० भो भोः! श्रृण्वन्तु गीर्वाणाः २७४ १७५ मत्स्यादयो जलचरा २९३ ३८४ भो भोः सर्वेऽपि दोष्मन्तो २०१ २२० मदगन्धिसप्तपर्ण
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श्लोक नं. पृष्ठ नं. मदस्तदानीं करिण ५६५ ३३२ मदस्थानानि तस्याऽऽसन् १० २५५ मदीयभूमौ ग्रामेषु २०१ ३२० मदीयाः किङ्कराः सर्वे ११८ ३६८ मदीयेऽपि गृहे कालान् १३८ २३६ मदृशौ त्वन्मुखासक्ते ७८ २७१ मदोधुरैः कु-जरैर ५९१ ३३२ मद्बन्धोळपदमिमां ७३४ ३३७ मद्वियोगे पितृपादाः १६६ ३९४ । मधुरन्तर्भवत्कोपो १२४ ३६८ मधुरप्यभ्यधत्तैव १८८ ३७० मधुलिप्तासिधारामा ४६९ १९९ मधुव्रत इवाऽम्भोज १७ १८५ मध्यं चातिकृशं तस्याः १४५ ३४८ मध्यदेशे वत्सदेशे . ६७ ३४६ मध्यप्राकारगर्भोर्ध्या ७९६ ३३९ मध्यभागो मृगाराति ३५२ ४०० मध्यलोके जम्बूद्वीप ५५२ २०१ मध्यादमीषां स्वप्नानां १०१ १७० मध्येकृत्य हयग्रीव ५३९ ३३१ मध्ये च तस्य विष्कम्भा २९३ १७५ मध्ये च भरतस्याऽपा ६०५ २०३ मध्ये च योजनदश ६२१ २०३ मध्ये पुष्करिणीनां च ७२६ २०७ मध्येसुरसभं शक्रः ३६७ ४०१ मध्योत्सेधादमुष्मात् तु ४९४ २०० मनःप्रसाद-सन्तोषा ४६१ १९९ मनःपर्ययमुत्पेदे मनःपर्ययमुत्पेदे २८९ २६५ मनःपर्यायसंशं च ११३ २७२ मनःपर्यायिणां त्रीणि १८७ २९० मन पर्यायिणां पञ्च ३५५ ३८६ मनःपर्यायिसहस्राः ६६७ २५२ मनःपर्याययुक्तानां ३५५ ३५५ मनसा प्रागपि त्यक्तं ७२ ३५८ मनस्कृतेन सङ्घोप ६०० २५० मनुष्यक्षेत्रचन्द्रा-ऽर्क ५४९ २०१ मनुष्यत्वेऽनायदेशे १२८ २८८ मनोज्ञानिनामयुतं २५३ २८३ मनो-भाषा-कायबल २३७ ३७२ मनो-वचः-कायचेष्टाः १३० २७३
श्लोक नं. पृष्ठ नं. मनो-वचन-कायानां २७८ ३७३ मनो-वाक्कायकर्माणि ८० ३०३ मनो-वाक्कायवक्रत्वं ११७ ३०५ मन्त्र्यादयोऽपि ते स्वामि १७४ २३७ मन्त्रपाठावसाने च २७५ २४० मन्त्रबीजाक्षराण्यन्तः ५८० ३३२ मन्त्रयित्वेति ते सर्वे ४७ २३३ मन्त्रिणो मन्त्रयित्वाऽय २५ ३८९ मन्त्रिभिर्मन्त्रयमाणो ४६३ ३२८ मन्त्री बहुश्रुतोऽप्यूचे ४३८ ३२७ मन्दमन्दपदन्यासः २२ ३०७ मन्दं मन्दमथोत्साह ३९ २३३ मन्दं मन्दं मरालीव २२ ३५६ मन्दमन्दोल्यमानास्ते २९८ १७६ मन्दाकिनीव सरितां २१ ३०७ मन्दारदामवन्नित्य ४७२ १८१ मन्मनस्युज्वलादर्श १९४ २८१ मन्यसे य बलीयांस १२६ ३६८ मन्ये कन्यानिमित्तो नः ६१५ ३३३ मन्ये न संमतं राज्ञो १२२ ३५७ मन्ये प्रोन्मूलितान्यद्भिः ३४९ २४२ मन्ये मद्धर्षणोदन्तो ३४६ ३२४ मन्ये यथाऽयमारामो १२२ १६१ मम त्वद्दर्शनोद्भूता ८० २७१ मम त्वद्विरहे तस्मिन् ८८६ २११ ममाल्पपरिवारस्य १०९ ३९२ ममाऽसि माता तातो वा ४८७ २४६ ममौरसोऽयं तनयः १५३ २८० मयाऽद्य तु प्रमादोऽय १५० १६१ मया दिग्जययात्राया १५४ १६२ मया विषयसेवेयं १५३ १६२ मया सन्ध्यादिषागुण्य १५५ १६२ मयेव गृह्यतामेतत् ९३ २५८ मरोलयाना पीताङ्गी १०९ २९९ मरुता पङ्कजामोद १५० ३९४ मरुता सूतिकागार १८६ १७२ मर्यक्षेत्रस्थितप्राणि ६५ २९८ मर्यादां लङ्घते नाऽब्धि ४८९ २४६ मल्लिनाथः पूर्व भवे २९८ ३८४ मल्लिनेमिः पार्श्व इति १०३ ३४६ मषीलिप्तैरिवामन्द ५४१ ३३१
लोक नं. पृष्ठ नं. महतस्तस्य शाक्रस्य, २९९ १७६ महता चक्रिसैन्येन ५५८ २४८ महता तन्निदानेन १७२ ३८० महताऽपि निदेशेन ८६ २५८ महता सोऽपमानेन ४०० ३२६ महत् कुतूहलमहो ! ३२२ २४१ महत्तराभिः सामानि १९० १७२ महत्या प्रतिपत्या तं २८८ ३२३ महत् सत्त्व महद् धैर्य १०८ २७८ महर्द्धिवलयाकारो ३३ २२६ महर्षिः क्रोधसंयुक्तः २४९ ३८३ महागिरि-महारण्ये ३१५ १९४ महाघोषो जलप्रभो ३९४ १७८ महाटव्यामिवोद्याने ९०० ३४३ महातपाः शुभध्यानं १४ ३१३ महान्तमुत्सव चक्रे ८५ ३१६ महापक्षधरमिव ८९ २२८ महापद्मात् तु द्विगुण ५७५ २०२ महापुण्डरीको महा ५७६ २०२ महापुरे द्वितीयेऽह्नि १२७ ३४८ महापोतमिवाऽऽरोहत् २२५ २२० महाबलोऽपि रोगाद्यैः २६५ ३८३ महाबलौ बल-हरी ११६ ३६८ महाबलौ महाबाहू १३१ ३६८ महाबाहुर्बाहुबलिः १२५ २३५ महाभीमः किम्पुरुषो ४०६ १७९ महाभुजेन तेनोग्र ३३ २७० महामहिमसौभाग्य ८०५ २०९ महामुनीनामभ्यणे १३० १६१ महायाद इवेतश्च ३०० ३५३ महारत्नपरीवारा १६९ २३७ महारत्न महामूल्यैः ११ २९६ महारत्नानि सेनानी ३४४ २२४ महा_णि दुकूलानि ५५७ १८३ महावातस्य वलय ४९६ २०० महावाते च गव्यूत ४९८ २०० महाव्रतधरा धीरा ८९६ २१२ महाव्रतधरस्यास्य ३८० ४०१ महासत्त्व ! महाबुद्ध ! ९५ २७८ महासरः कूप-वापी ९१ २३४ महासरोभिः पीयूष ८८ २२८
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लोक नं. पृष्ठ नं. महाहिमवदद्रिस्तद् ५७० २०२ महाहिमवदद्रौ तु ५७४ २०२ महीकम्प-तडित्पात २४५ ३५१ महीं गामिव गोपाल: १५ ३८७ महीपतिः परिणम ५७ २१५ महीपतेः परिणम १३९ २१८ महीपतिर्महासेनो ४८ २९७ महीभृन्मौलिमुकुट ४ ३१३ महीयसाऽथोत्सवेन ७७ ३९१ महीयसामपि महान ७९ २८६ महीविवस्वतस्तस्य १८ ३५६ महेच्छस्य हि गर्भस्य ५३ २७६ महेन महता भ्रातुः ५८० १८४ महेन्द्रसिंहस्तदनु १६९ ३९४ महेन्द्रो लान्तकश्चापि ३७१ १७८ महेभभज्यमानदु ३१२ १९४ महेभेनेव कलभो १८२ ३५० महोत्साहस्य सतत ८९५ ३४३ महोपकारजनकं २९९ २६५ महोर्मय इवेतश्च ३०२ ३५३ महौजाः स महाबाहुः २४९ ३२१ मागधेश-प्रभासेश २५६ ३२१ माघकृष्णपञ्चदश्यां ७८० ३३९ माघशुक्लतृतीयायां माघशुक्लत्रयोदश्यां ६० ३७७ माघशुक्लद्वितीयायां २८४ ३५३ माघस्य कृष्णद्वादश्यां २९ ३०८ माघस्य शुक्लचतुर्थ्या ६५ ३५८ माघस्य शुक्लद्वादश्या ११० २७२ माघस्य षष्ठयां कृष्णायां ३४ २८५ माणिक्यकपिशीष च ७९४ ३३९ मणिक्यचूडावलयः १३६ १७१ मातरच कुमाराणां १७२ २३७ मातर्मातस्त्वमपि मां ११९ ३७९ मातर्वयमधोलोक १८२ १७२ मातस्त्वमेका धन्याऽसि ३३५ १७७ माताऽसौ मे पिता चाऽसौ ६१ १५९ मातुः कृते दक्षिणस्यां २.९३२. मातुलिङ्ग-मुद्गरभृत् ११२ ३१. मातुलिङ्गाऽकुशधरौ: २४९ २८३ मातुजग्धान्न-पानोत्थ ९५ २९९
श्लोक नं. पृष्ठ न. मा त्रिपृष्ठो माञ्चलोवा ५३३ ३३१ मानवा अपि ते धन्या २०५ २६२ मानाद् बाहुबलिबद्धो २७७ ३८४ मानुषत्वमवाप्याऽपि २५१ २६३ मानुषोत्तरनामा च ६६० २०५ मानुषोत्तरपरतः ७०१ २०५ मानुषोत्तरपरतो ५४८ २०१ मानुषोत्तरसीमस्थ १९० २१९ मानुष्यकेऽपि सम्प्राप्ते २५६ १६५ मानुष्यमा देशच २०२ ३६२ मानेन भूतेनेवात्ताः २१५ ३७१ मामापतन्तं सम्प्रेक्ष्य ९९ २३५ मायाजयादार्जव वाह ८७ २७७ मायानैमित्तिकः सोऽपि ३६६ २४३ मायाप्रयोगसदृशे ५२२ २४७ मायामोहा-ऽन्धतमस ४५१ १९८ मार्गकृष्णघष्टयां मूले ६० ३०३ मार्गभ्रान्ता वयमिह ६१३ ३१३ मार्गशीर्षस्य राकायां २८४ २६५ मागशीषे च कृष्णका १९२ २९० मार्गान्तरालो सतत १०० १६० मार्गेणोत्तरपूर्वेण २५९ २२१ मारियूनामभ्यणे ६८ २७७ मार्तण्डमण्डलं केतु ६४ २२७ मार्तण्डमण्डलं दीप ३६ ३१४ मार्दवं नाम मृदुता २७४ ३८४ माष्टि विलेपन पूजां ४९२ १८१ मालव-कैशिकीमुख्य २२० २८२ मालामङ्कटकेनेव ५७२ २४९ मलिनीभूतवासस्का १८० २३७ माल्यवानन्तराले च ६१८ २०३ मां विना क्रीडसि कय २९ ३९. मासमेकं तथा स्थित्वा ८५९ ३४१ मांसलुब्धः शाकुनिकः १२६ २८८ मास स्थित्वा शुचिकृष्ण २२५ ३६३ मासादिकाश्च प्रतिमा १०१ २७८ मासान्ते वतभवोप २५९ २८३ मासान्ते चाषाढशुक्ल ३६० ३५५ मासान्ते चैत्रविशद २९९ ३७४ मासान्ते ज्येष्ठविंशद ३६० ३८६ मासान्ते वैशाखकृष्ण १२२३१०
श्लोक नं. पृष्ठ नं. मासान्ते सम्भवस्वामी ४.. २६८ मासोपवासादारम्य ३०३ १६६ मा स्म कश्चिदतिक्रामत् ३०० १९४ मा स्म अदवं पुनर्यय १५६ २३० मा स्म शोकं कृथास्तेन १४५ २३६ मितसारपरीवारो ११२ ३९२ मित्रेणाऽऽमन्त्रितः कुम्भ ५९५ २५० मियः संसृजतोस्तस्य १३४ ३४८ मिथ्यात्वमाऽऽशान्तिजिने १६४३०६ मिथ्यात्वस्यानुदयेऽन २५३ ३७२ मिथ्यात्वाशीविषो लोके ८७ ३०९ मिथ्याशामुलूकानां १९६ ३६२ मिथ्यादृशां युगान्तार्कः ४१८ १९७ मिथ्यादृष्टिभिराम्नातो ९०१ २१२ मिथ्यादृष्टिरविरति २८४ ३७३ मिथ्यादृष्टिर्भवेन्मिथ्या २५२ ३७२ मिथ्यादृष्टिः सास्वादन २४९ ३७२ मिलन्तः केचिदन्योऽन्य ६४९ ३३५ मुकुट कुण्डले हार २०२ १९१ मुकुलीकुरुते नेत्रा १७६ ३९५ मुक्तं चेन्मुच्यसे प्राणैः ७१८ ३३७ मुक्ता एकस्वभावाः स्युः २२५ ३७१ मुक्तामयानि सर्वात २०४ १६३ मुक्तोऽपि नाऽहं यास्यामि ३३४ २४२ मुक्तोऽपि भरतक्षेत्र १३१ २२९ मुक्त्वाऽपि चक्र नष्टव्य १५४ ३६० मुखचन्द्रमसा रेजे ४२२ ३२७ मखे प्रविशतस्तीर्थ २७ ३५६ मुखे प्रविशतः स्वस्मिन् ७५ ३९१ मुच्यते च भवेऽत्रैव २९६ १९४ मुञ्च मुञ्च त्वमप्येतत् ७४६ ३३८ मुञ्च मुञ्च त्वमप्येतद् २७१ ३५२ मञ्च मञ्चाथवा चक्र १५५ ३६. मुश्च मञ्चेति वदतो १८ ३८१ मुचाऽद्यापि व्रतं वत्स ! १४२ २१८ मुदितैः खेचरैः पुष्प ७४९ ३३८ मुद्गरेषु मल्लवते ६९ ३४६ मुनीनामनशनिना १९३ २९० मुनीनामपरेषां तु ६९१ २५२ मुनोनामप्यपापानां १४८ २७४
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लाक नं. पृष्ठ नं. मोक्षकालमथाऽऽसन्नं १९१ २९० मोक्षकाल विदित्वा स्वं ८५८ ३४१ मोक्षकालेऽथ सम्प्राप्ते १२१ ३१० मोमूत्र्यते स्म तत्काल ५६६ ३३२ मोहान्धकारतरणिं ८० १५९ मोहेन तिमिरेणेव ३७ ३५७ मौक्तिकस्वस्तिकाकीण ७७२ ३३९ मौखर्या-ऽऽक्रोशौ सौभाग्यो १२१३०५ मौनेन तस्थौ स प्रायः २७२ १६५ म्लेच्छानां दण्डमादाय २४४ २२१ म्लेच्छा मडम्ब-नगर १७० २१९ म्लेच्छास्तु शाका यवनाः ६७९ २०५
श्लोक नं. पृष्ठ नं. । मुमुदे मेदिनी सर्वा ९५ १८७ मुमोच च मधुश्चक्र' १८४ ३७० मुमोच तत्र भगवान् २८३ २६४ मुमोच तारकोऽपीषु २५७ ३५२ मष्टिना शक्यते धतु" ५५ २३३ मुहुः कुरुबकाऽशोक २४५ १९२ मुहुर्मुहुरुदैक्षिष्ट २१८ २६२ मुहूर्तमपि न स्थातु. १५८ ३४९ मूढोपायाः सैनिकास्ते १०२ ३९२ मूर्यो ममूषु रेकः स ५२१ ३३० मूर्च्छया पुण्डरीकाक्षो १८६ ३८१ मूर्छाविरामे भूयोऽपि १०१ २३५ मूत्यै कयाऽग्रहीन्नाथ ३७ ३४५ मूर्धाभिषिक्तमूर्धन्यो ४०७ १९७ मूधर्ना नमन्ति तरव ४३० १९८ मूधिन चित्रातपं घोरं १३७ ३९३ मृगया-द्यत-पानानि २२३ १६४ मृगयासक्तचित्तैस्तु १२३ २८८ मृगाक्षीं तत्र सोऽद्राक्षी ७९ ३६६ मृगाङ्कमभ्रलेखेवा ३२ ३४५ मृगेन्द्रासनमारूढे २२२ २८२ मृगेष्विव मृगेन्द्रस्य १०५ २५९ मृज्जला-ऽनल-वातांशु १०२ २९९ मृज्यमानपदाम्भोजः ३०८ १९४ मृत्योरिवावसपैतैः ७०० ३३६ मृत्वा कालक्रमाच्चण्ड ९२ ३६७ मृत्वा च कुम्भकृज्जीवः ५९८ २५० मृत्वा त्रिदण्डिकः सोऽपि ६६ ३९१ मृदित्वा शास्त्रसर्वस्व ३३० ३८५ मेघङ्करा मेघवती १८९ १७२ मेघानामिव वायूनां १२५ २२९ मेघा बभूवुर्नभसि २३ २५६ मेदिनी छादयन्नश्व १९२ ३८१ मेरकोऽप्यब्रवीन्मुञ्च १६४ ३६१ मेरोर्योजनषट्शत्या ६४८ २०४ मेरोरिव महत्त्वेना १८ २९१ मेरोरुत्तरतो नील ५९५ २०३ मेवन्त:स्तनाकार ४८२ १९९ मैत्री चिरभवां लुप्त्वा १६३ ३४९ मैत्रीपवित्रपात्राय ३९८ १९७ मैन्यादिवासितं चेतः ८१ ३०३
य एव छेकताभाजा १२४ १६१ यः कर्मपुद्गलादान ८५ ३०३ यः कर्मपुद्गलादान . ९२ ३१० यकृच्छकृन्मलश्लेष्म ३७ ३९. यक्षोऽपि शैलमुत्क्षिप्य २०९ ३९६ यक्षोऽहमिह वास्तव्यो १८८ ३९५ यच्चक्रे तत् कुमाराभ्यां ३४९ २२५ यच्च तीव्र तपःकर्म । ३४२ ३८६ यच्चान्यत् कोशसर्वस्वं ११६ ३७८ यजनैजनैः शास्त्रा ६७६ २०५ यतिलिङ्गमुपादाय ८५ ३५८ यत् कन्यानां त्वमुचितो २२६ ३९६ यत् किञ्चिदन्यदपि ६९९ २५३ यत् व पत्रलता साऽर्क ११३ १६० यत् क्षीयते च दुर्भिक्ष ३९३ १९७ यत् त्वं पुरुषरत्नस्य १८० १७२ यत् प्रातस्तन्न मध्याहे २०८ २३८ यत् संतोषवतां सौख्यं ३४४ ३८६ यत्र पादौ पदं धत्त ४२० १९८ यत्र यत्र बभजाहि ५७७ २४९ यत्र यत्र स्वाीिी सा २४ ३५६ यत्रान्यत्वं शरीरस्य ९४ २९४ यथाकामम थाऽर्थिभ्यः ५७ २७६ यथाकाममथार्थिभ्यः ६४५ २५१ यथाकाममविश्रान्त २८१ २२२ येथाकामं ददौ सोऽर्था २३० ३२१ यथा क्रीडासु बालानां १५१ ३६९ यथा चतुष्पथस्थस्य ९८ ३१० यथा चैकस्तरन् सिन्धु २३९ २८२
श्लोक नं. पृष्ठ नं. यथा तथा वा महतां ५१७ २४७ यथा तस्याऽतुला शक्तिः ३६ १५८ यथा दिदृक्षुः स्वामी स्वं ४६८ १९९ यथाद्वार प्रविविशुः १८६ ३६१ यथा नृणां चक्रवर्ती ३३२ ३८५ यथा नैसर्गिक धैर्य २१३ २३८ यथापात्र विनीतेन ५४९ २४८ यथाप्रवृत्तिकरणाद् २०८ ३६२ यथा प्राप्तेऽपि सौराज्ये ४५५ १९९ यथाऽभूदप्रतिच्छन्द २७ ३१४ यथा मत्युप्रतीकार १४६ २७३ यथा यथा देहभाजो २१७ ३७१ यथार्थमभिधायेति ३७० ४०१ यथा वा मेघसंघाताः ८४२ ३४१ यथा वा यानपात्रस्य १०१ ३१. यथा वा सरसि क्वापि १०० ३१० यथास्थान प्रविश्यास्थात् २०५ ३८१ यथास्थानमथान्यानि २४ ३८७ यथास्थानमथान्येऽपि ६९३०३ यथा हि पिहितद्वार ८३५ ३४१ यथेन्द्रो वर्ण यामास ३५४ ४०० यथैकः स पतिः पृथ्व्याः ५२ ३८८ यथैव सरसस्तोयं ८३७ ३४१ यथैवैकस्तरन् सिन्धु १३६ १८९ यथैवोपचितो दोषः ८४१ ३४१ यदर्जितं बहुक्लेशैः ३६७ २६७ यदर्थ वञ्चनोपाय १३६ ३१७ यदात्थ तदमिथ्या चेत् १३५ ३६८ यदा मरुन्नरेन्द्रश्रीः २७१ १९३ यदि गृह्णाति गृह्णातु १६९ १६२ यदि त्वमनुजानासि ३९३ ४०२ यदि त्व निर्ममस्तत्किं ७२ ३०३ यदि वा पित्तदोषेण ६३ २५७ यदि वा स्वयमागत्य ७० २३४ यदि शान्तस्वभावस्त्वं ७६ ३०३ यदि षष्टिसहस्त्रा वः ५० २३३ यद्गर्भस्थेऽत्र सम्भूत २१७ २६२ यद् दुखं भवसम्बन्धि १३५ १८९ यद् दुःख भवसम्बन्धि २३८ २८२ यद्देहस्यापि दानेन ७६ २८६ दरकषायाणां २५८ ३७२
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श्लोक नं. पृष्ठ नं.
श्लोक न. पृष्ठ नं.
श्लोक नं. पृष्ठ नं..
योज्यमानैः खण्डयमानैः ९६ ३७८ यो देह-धन-बन्धुभ्यो ९५ २९४ योनियन्त्राद् विनिष्कामन् १३५ २८८ योनिलक्षमहावत ४४ १५८ योऽपि धर्मप्रतीकारो १५० २७४ यो यद् ययाचे तत् तस्मै १८४ १९० यो येनार्थी स तद् द्रव्य २५७ २६४ यो वैराग्यशमीपत्र २३४ ३८२ यौवनं पवनोडूत ४६ १५८ यौवनं विभवो रूपं २१२ १६३ यौवनश्रीरपि गिरि ५२७ २४८ यौवनश्रीरवर्धिष्ट १९२ ३१९ यौवने कामिनीभिये ३६६ २६७ यौवने विषयेभ्योऽसौ ५२ १५८ यौवनैश्वर्य-रूपादि ८० २७७ यौवराज्ये च सगर ९६ १८७
यद् यद् दुःखं नारकेषु ४५२ १९८ युवराज ! ततो राज्यं १५९ १८९ यद्यपि त्वं विपक्षोऽसि २६२ ३५२ युवाभ्यामत्र कर्तव्यो ५७८ ३३२ यद्यप्येते महास्वप्नाः ८४ १६९ युष्मत्पितुः स्मरन् भक्तिं १४७ ३७९ यद्यात्मान विजानीया ३५७ २६७ युष्मदानन्दहेतोश्च ४८० २४६ यापेक्षापरोऽसि त्वं ७५ ३०३
युष्मदर्शनतोऽस्माभिः १२३ २२९ यद्योजनप्रमाणेऽपि . ३८५ १९६ युष्मद्ध्वा वैजयन्त्या यद्वा गदायुधज्ञोऽसि २३५ २३९ युष्मद्विश्वासतोऽशङ्ग १९२ २३७ यद्वा वाग्गेयकारोऽसि ? २४२ २३९ युष्मन्मन्त्रबलेनैषा १४७ १६१ यद्वाऽश्वहृदयज्ञोऽसि २३७ २३९ युष्माकं चक्रवर्तित्वा ३५० २२४ यन्मूर्ध्नः पश्चिमे भागे ३९४ १९७ युष्माकं पूर्वजन्मानो १६४ १६२ यमौकस्तोरणमिव ३८१ ३२६ युष्माकं स्वामिनमपि ५९ २३३ ययावन्येारुद्यान ८ २७५
युष्मान् नष्टान् विनष्टान् वा २७ २३२ ययुश्च मेरुशिरसि ३७० १७८
युष्मान् विना गतान् नोऽद्य २८ २३२ ययौ च क्वचिदप्यम्भ ३६४ २४३ यूका-मत्कुण-मत्काट २३५३७२ ययौ तस्याश्च मिथ्यात्वं ८७४ २११ यूय महात्मनः कस्य २१९ ३९६ यशसा विशदेनोच्चैः ५ १६७ य चारुचाराचतुर ४२ ३६५ यशो-ऽनुरागैयुगपद् २६ २८५ ये तु देहा-ऽऽत्मनोभेंद १०० २९४ यशोराशिपयोराशि २२३०१ ये तु रागादिभिर्दोषैः ३३३ ३५४ यस्य वारिलवेनाऽपि ३४१ २४२ ये त्वां त्रिभुवनाधीश ! ४९७ १८२ यस्याश्चैताः स्नुषीभूय १६ २७५
येन येन ह्यपायेन ९३ ३१० याचकेषु ववर्षाऽर्थ १८ २५६ ।
येनैव तपसा त्रुटयेत् २७० ३८३ याचकोऽसि गृहाणार्थ २६४ २४०
येऽमुष्मिन् भरतक्षेत्रे ५६९ २४९ याचितं दास्यते वाऽथ २३० ३५१
ये मेरुदण्डसात् कतु ३६२ २६७ यातना-रुक्शरीरा-ऽऽयु: ५०३ २००
ये वर्णयन्त्येकदाऽपि ४१ ३६५ यात्यसौ यात्यसावश्वः ९७ ३९२
येषामर्थे च पापानि १२९ १८८ यात्रारम्भेण तेनैव २७६ ३५३
येऽसिमात्रोपकरणाः १४७ २७३ यादृग् मायाप्रयोगोऽस्य ५२० २४७
ये स्त्री-शस्त्रा-ऽशसूत्रादि ८९४ २११
यैः परः प्रेरितः करैः २४४ ३८३ या देवे देवताबुद्धिः ८९० २११ याम्याईभरतक्षेत्र
११ ३७५ ७७ ३४६
योगस्य मातरमिव यामिन्या पश्चिमे यामे २१७ ३२०
योगस्याऽष्टाङ्गता नूनं १३२ २७३ यामिन्याः पश्चिमे यामे ८७६ ३४२
योगादिष्वाश्रवद्वार १०२ ३१० यावज्जीवितमस्नान १०२ २७८
योगिनः परमात्मान २५३३२१ यावत् किञ्चिद् ययौ तावद् ३०९ २२३
योगी ध्यानामृतमिव ४८ ३६५ यावत् कुमार स्वे राज्ये १३८ १६१ योजनसहस्रदनों १३६ २३० यावत् सशोकः परिष ४६८ २४६ योजनानां पञ्चविंशि ४०० १७९ यावन्तः सागरी यस्य ७८७ २०८ योजनानामेकादश ५३४ २०१ युक्त एवाऽऽग्रहो वत्स ! १५७ १८९ योजनानां सप्तशता ६९५ २०५ युगपद्बाणवर्षेण १७२ ३४९ .. योजनानां सप्तशती ६५८ २०५ युध्यन्ते स्म द्वयोः सैन्या: १६९ ३८०
योजनानां सहस्र तु ७३१ २०७ युध्यध्वं माऽथवा यूयं ६३८ ३३४ योजनानि द्वादशाब्धे ६८ २१६ युद्धवा चिरेण भग्नेषु २७२ ३९८ योजनान्तरितान्येक १८८ २१९
रक्षसेव हतां तेन ८८ ३६७ रक्षार्थ शालिवापानां २७० ३२२ रक्षोभिरिव जीमूतैः १३३ ३९३ रक्षो-विद्याधरादीनां ४४५ २४५ रङ्क: करङ्कसङ्काशैः ३३ २५६ रचिता-जलयश्चैव ७५७ ३३८ रजत जातरूपं च ४०५ २४४ रजोवृष्टिरसृग्वृष्टिः ५६७ ३३२ र-जवश्वाऽऽसहस्रार ७५९ २०८ रटककरालेपु ३११ १९४ रणकौतुकवीक्षिण्यः २१४ ३९६ रणतूर्याण्यवाद्यन्त ५९५ ३३२ रणपार जिगमिषु १४७ ३६० रणश्रीकेलिसंगीत ६७३ ३३५ रणसोत्कण्ठयोरुच्चैः रतिन' रतिमन्वाप २६ ३०२ रतिसागरमग्नस्य ८६८ ३४२ रतिसागरमध्याव १५७ १६२ रतेरिव निधानानि १७३ २९० रत्नकाञ्चनरूप्याणि २३६ १६४ रत्नताडङ्क-केयूर ५४८ १८३ रत्नपीठं विकृत्यान्तः ३२३ २६६ रत्नपुर-जश्च सर्वस्व ३९ ३१४
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"लोक नं. पृष्ठ नं.
रत्नपुर-जो मणिगणः १२२ २५९ रत्नप्रभातलादूद्धव ५२९ २०१ रत्नप्रभाभुवोऽधोऽधः ४८८ २०० रत्नप्रभाया उपरि ५१५ २०० रत्नप्रभायाः प्रथमे ५२४ २०१ रत्नप्रभाया मेदिन्याः ४९५ २०० रत्नप्रभाया वलय - ४९७ २०० रत्नभित्तिषु गेहेषु १३ २९१ रत्नमय्यो युताः स्वस्व ७१५ २०६ रत्न-वैडूर्य-वज्राणां १६९ १७२ रत्नशर्करावालुका ४८६ १९९ रत्नसिंहासन' रत्न ३४९ १९५ रत्नसिंहासनस्थस्य ८१ ३१६ रत्नसिंहासनस्थानि , २०४ ३८१ रत्नसिंहासनांसीना ८०६ ३४० रत्नसिंहासने पूर्वा ३११ १७६ रत्नसिंहासनोत्सङ्गे ३५२ १७७ रत्नस्तम्भ इवोन्मष्ट ३० २१४ रत्नस्तम्भैः श्रीकरेणो २८४ १७५ रत्नस्वर्णमयैर्दिव्यैः रत्नाकरस्य सर्वस्वे ६२ १६८ रत्नाकरो रत्नशैलो २२० १७३ रत्नादिव्यवहारेषु २५० २३९ रत्नानि ववृषुः केऽपि ४५३ १८० रत्नाभरणसम्भारा ५५६ १८३ रत्नालङ्कार-वासांसि २७१ २२२ रत्नावकरवाहीनि १९ ३१४ रत्नाश्मभूमिसान्ते २२२ २६२ रत्ने च मणिकाकिण्यौ ३९ २१५ रत्नैः स्वगै धनैर्धान्यैः ५८ १६८ स्थ-द्विप-ध्वजाग्रस्थ ४४ २१५ रथमात्रपरीवारौ ३७५ ३२५ रथं रथ्यान् सारथिं च १७९ ३४९ रथं सांग्रामिक रामो ६२२ ३३४ रथः सारथिनेवाऽद्य ५०० १८२ रथस्थो व्योमयानेन ६४० ३३४ रथिना बलभद्रेण १६९ ३६९ रथिभिः सादिभिः सारैः २८० ३२२ रमणीयो मङ्गलवा ६०२ २०३ रममाणस्तया सार्ध ७ २७५ । रम्भास्तम्भाविवोरू च १३ ३८९
रम्भोर्वशीप्रभृतिभिः ३२९ ४०० रम्याणि वज्रवेदीभिः १५८ १७१ रम्याश्च स्तूप-प्रतिमा ७२० २०६ रलरोलैरविरलैः ३४ २५६ रसवी विपाकज्ञः ९७ ३७८ रसातलद्वारमिव ३७४ ३२५ रसा-ऽसृग-मांस-मेदोऽस्थि १२ २९९ रहस्य न हि जानन्ति ३०६ २४१ राकानिशाकर इव २११ २३८ राक्षसद्वीप इत्यस्ति ३२ २२६ राक्षसद्वीपराज्येन ४० २२७ राक्षसानां पुनर्भीमो ५२१ २०१ राक्षसास्तु खट्वाङ्गका ५१८ २०० राग-द्वेषादयश्चेतो ७८ २५८ रागादिषु नृशंसेन ७७ २८६ रागाद् द्वेषात् तथा मोहात् ३३२३५४ राजजके जागरूको १५ २५६ राजते राजतैस्तत्र १२२ २७९ राजन्ते तत्र चैत्येषु २० १५८ राजन्नीशविश्वास्य ४०७ २४४ राजन् ! प्राग्जन्मसंस्कारा १४० १६१ राजन् श्वेतातपत्रेण २३८ १६४ राजन् ! सभायां भवतः ३०१ २४१ राजभिर्बद्धमुकुटः १५८ ३६९ राजभिर्बद्धमुकुटैः ३३३ ४०० राज वेश्मनि लोकानां १७३ २३७ राजवेश्माङ्गणे प्राप ५४२ १८३ राजश्छत्रेण शिरसि ६२ २१५ राजसिंहनृपः सोऽपि ७२ ३७७ राजा केसरियूनाऽथ २६९ ३२२ राजाज्ञया दत्तपृष्ठ ५८ ३९१ राजाऽथ भवनिर्विण्णः २४२ २६३ .राजादन-नागरग २४९ १९२ राजा दाहज्वरार्ताऽपि १३० ३७९ राजानते नमस्कृत्य १६० २३६ राजान राजसभ्यांश्च ३७५ २४३ राजानोऽन्येऽपि शुशुचु १५४ ३८० राजा पद्मरथो नाम ४ ३६४ राजाऽपि कृतदीक्षाभि ९७ २५८ राजाऽपि दध्यो विप्रोऽय १६६ २३७ राजाऽपि व्याजहाराथ १७५३१९
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राजाऽपि व्याजहारव ९० २५८ राजाऽपि व्याजहावं ४५७ २४५ राजाऽपि संशयच्छेदो ३२५ २४१ राजाऽपि स्थापयामास २१५ ३२०. राजाऽपि स्वानुवाचैव ३१९ २४१. राजाऽप्युवाच चाटूक्ति २७६ ३२२ राजाऽप्युवाचाऽमी स्वप्ना ८३ १६९ राजाप्यूचे देवि ! देवी ५२ २७६ राजाऽप्यूचे विक्रमी ते ४७ २७६ राजाऽप्यूचे व्यवस्थेय १२२ ३१७ राजाऽप्यूचे व्रज स्वैर ४१२ २४४ राजा भागवतत्वेन ५७ ३९१ राजा मुइते मङ्गल्ये ३३ २१५ राजा राज्ये निवेश्यैव २०९ १६३ राजा विजयसेनोऽपि ४१ २७६ राजीभवति नाथाऽहं १५१ १८९ राजेव रमते विश्व १२१ ३१७ राज्ञस्तद्भववैराग्य ९३ १६० राजस्तावमलीलग्ना १८ १८५ राज्ञश्च त्यक्तपानान्न ३० ३९० राज्ञः सनत्कुमारस्य ६४३ ४०० राज्ञः सन्तप्तमप्यङ्ग ४७ ३०८ राज्ञा जितारिणा साक्षात् २३५ २६३ राज्ञा निमन्त्रितस्तेन ५२ ३९० राज्ञा निर्दिष्टः सुदिने २३ १८५ राज्ञाऽपि विदधे प्रातः ८८ २७२ राज्ञा पृष्टः स आचख्यौ ३४७ ३२४ राज्ञा भ्रसंज्ञयो पृष्टा २८३ २४० राज्ञा महोत्सवश्चक्रे ५८ २७६ राज्ञां मुकुटबद्धानां ४०६ १९७ राज्ञां मुकुटबद्धानां २५७ ३२१ राज्ञा मुमुचिरे तेन ५३४ १८३ राज्ञा सद्यः समाहूय २२६ ३२० राज्ञा सविस्मय देव्या १६७ २८० राज्ञा स्ववचनं पृष्टः २६३ ३२२ राज्ञी भाषामुत्तर च १६८ २८० राज्ञी राजैवमाश्वास्य ३८ २७६ राशी स्वप्नानुसारेण ५९ २७६ राजे विज्ञायष्यामि ३४० ३२४ राशैव साग्रहं पृष्टः २६६ ३२१ राज्ञो वेश्मागणं जज्ञे ५६१ १८४
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श्लोक नं. पृष्ठ नं. रूपेण लवणिम्ना च २८ ३४५ रुपेणाप्रतिरूप त्वां ४३ २८५ रुपेणाप्रतिरूपेण ८० ३९१ रोधोरन्ध्रेषु पाताल १०८ ३९२ रोमाञ्चितमिवोदञ्च १०२ १६० रौद्रध्यान मिथ्यात्वाऽन १०७ ३०४ रौद्रेभ्योऽपि हि रौद्रेषु ३१९ १९४
श्लाकन. पृष्ठ नं. राज्ञोऽष्टमे परिणम १४७ २१८ राज्य च पालयन् सार्धा ५६ २८६ राज्य पुत्राः कलत्राणि '१५० १८९ राज्यभार गृहाणे १७९ १६२ राज्यमुत्सृज्य निष्टयूत १६५ १६२ राज्य रुजमिवान्येद्युः ६ ३८७ राज्य रुजमिवोत्सृज्य ११ ३१३ राज्य वा चक्रभृत्त्ववा २०४ ३६२ राज्यश्रीभुवनस्तम्भान् ८२ ३९१ राज्य सनतकुमारस्य ३११ ३९९ राज्यस्य विकलाङ्गत्वं ८ ३१३ राज्यादप्यति ८८ १८७ राज्ये तु नवलक्ष्यष्टा ३६६ ३८६ राज्ये त्वदीये ये केऽपि २३५ ३५१ राज्ये त्वेकोनषष्टयाब्द २३२ ३६३ राज्येऽपि न्यायनिष्ठस्य २८५ १९३ राज्येऽब्दानामर्थकोन ३०६ ३७४ राज्ये सप्तत्यब्दलक्षी ३६७ ३५५ राधकृष्णचतुर्दश्यां ६४ ३६६ राधकृष्णचतुर्दश्यां १९८ ३७० राधकृष्णत्रयोदश्यां राधशुक्लत्रयोदश्यां राधावेधं शब्दवेध ५० १८६ राम-त्रिपृष्ठ-ज्वलन ६४३ ३३४ रामोऽपि प्रेरयन् रथ्यान् ६५९ ३३५ राहुवखे ८८४ २११ रिक्तहस्तो न कुर्वीत २२९ २३९ रुग-जरा-मरणग्रस्ता १३२ २८८ रुचकद्वीपमध्यस्थाः ३१ ३०८ रुचकद्वीपमध्यस्थाः २१५ १७३ रुचकस्य च पौरस्त्या ४८ ३१५ रुचिराणि मणिस्तम्भैः १५६ १७१ रुचिरो रत्नपुञ्जश्च ५६ २७१ रुजामेव निग्रहश्चा १०६ १८८ रुजा लुम्पति कायस्य ३७४ ४०१ रुध्यते वाऽपि विद्रध्या ६६ २५७ रूप लवणिमा कान्तिः ३७६ ४०१ स्प-लावण्य-सौभाग्य १३६ २७९ रूपवत्या अभूत् तस्याः २४ ३०७ रूपस्याप्रतिरूपस्य ६९ ०७७ स्पे चाप्रतिरूपेऽपि ११८ १८८
लक्षद्वयी श्रावकाणां ३५७ ३८६ लक्ष मुनीनां साध्वीनां ११६३१० लक्ष मुनीनां साध्वीनां ६६६ २५२ लक्षयोजनदीर्घाणि ७२५ २०७ लक्षयोजनमुत्सेधे ११९ २३५ लक्षयोजनविस्तीर्ण २८७ १७५ लक्षाध लान्तके शुक्रे ७७७ २०८ लक्ष्मीदेव्या निपतद्भ्यां ७० १५९ लघीयांसौ गरीयांसौ १५० ३८० लज्जा सहचरी तस्याः २९ ३७६ लज्जितः सहवासिभ्यो ८६९ २११ लतानामिव धात्रीणा ५१ २९७ लब्धसंज्ञः क्षणाच्छाी २६८ ३५२ लब्धसंज्ञः क्षणाद् रामः ७३१ ३३७ लब्धसज्ञः क्षणेनापि ८९७ ३४३ लब्धस ज्ञो विधूयादि २११ ३९६ लब्धे मानुष्यके स्वर्ग १४५ २८९ ललाटन्तपतपना ३२४ १९५ ललाटपट्टः पर्यस्ता ३४९ ४०० ललाटस्था-जलील्लाटान् ११३ २१७ लवणोद इवाम्भोधि २१० २३८ लवणोदपरिक्षेपी ६४० २०४ लवणोदे पयोराशौ ३१ २२६ लवणोदोऽथ कालोदः ७४७ २०७ लवलीपुष्पलवन ५८ ३७७ लामुललाङ्गलाऽऽपात ६०७ ३३३ लाल्यमोनः स धात्रीभिः ६० २७७ लाल्यमानः स धात्रीभी २३५ ३२१ लाल्यमानो झुधात्रीमिः ५२ २८५ लावण्यपूरमसम २४ २९६ लावण्यमङ्गे कुचयोः १३० २५९ लावण्यसलिलं वक्र २५ २९१
श्लोक न. पृष्ठ नं लावण्यामृतवल्लीभिः . ३०९ १७६ लिखितो नूल्लिखितो नु १६२ २३६ लिपिज्ञलेखको वा कि २४४ २३९ लिलेखाऽष्टौ मङ्गलानि २२ २१४ लीलया पातितेष्वेषु २२५ २६२ लीलयाऽपि महास्थाम्न ९६ ३६७ लीलया षड्जबहला १८ ३४४ लीलयैव महाप्राज्ञः २३७ ३२१ लीलयैव महोजस्कः २८ १५८ लीलाकमलवद् वोटु १६८ १६२ लीलानिर्भिन्नमत्तेभा ४०४ ३२६ लीलावनमिव श्रीणां ११४ २६८ लूतया भक्ष्यते वाऽथ ६४ २५७ लोकत्रयेऽपि युगपद् ६४ २७१ लोकपालाश्च चत्वारो ५०७ २४७ लोकपालाश्च तस्यापि ५२५ १८२ लोकपुस्कूपरसम ७६२ २०८ लोकाकाशप्रदेशस्था २७४ ३७३ लोकाक्रान्तेऽर्कभास्पृष्टे २६६ १६५ लोकाग्रस्येव सोपान ६७२ २५२ लोकान्तिकेषु देवेषु १०४ २७२ लोकैः क्वचित् क्रियमाण ३०६ १९४ लोकमन्त्रबलाकृष्टः २४६ १६४ लोकोत्तरचमत्कार ३५६ ४०० लोकोत्तरचमत्कार ४७८ १८१ लोकोऽप्यूचे भवद्भूमौ २०२ ३२० लोभसागरमुल ३३१ ३८५ लोभस्त्यक्तो यदि तदा ३२९ ३८५ लोभाद् प्रामादिसीमान ३२४ ३८५ लोभाभिधः संपराय २६० ३७३
"ay
वक्रस्येन्दुः प्रतिनिधिः ३३ ३६४ वक्षःस्थललुलद्धाराः ७७ २२८ वक्षःस्थले शैलशिला ७२६ ३३७ वक्षोगावद्य वां हारो २० २३२ वङ्गाः पुनस्ताम्रलिप्त्या ६६७ २०५ वचनातिशयः पञ्च २५० २८३ वज्रनाभगुरोः पाद १० ३४४ वज्रनिर्घोषवद् घोर ६७५ ३३५
वज्रनिर्मितनाभीक ३ २१४
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४७
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
लोक नं. पृष्ठ नं.
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
- वज्र वज्राकरोर्वीव १२७ २५९ वजसवर्मितमिवा ७८ १५९ वज्रसारेषु देहेषु ३५३ ३६७ वज्राकरशिलासार ६९४ ३३६ वज्रानल इवोज्ज्वाल: १७५ २३१ वज्रासनजुष: कांश्चित् ८३ १५९ वटा-ऽश्वत्था-ऽऽमलक्यादि ३४० ३५५ वण्ठेरिव महेभ्यानां २४४ १९२ वत्स ! तेषामप्यपत्यै ६०९ २५० . वत्सगन्ते समेत्येन्द्रः ९५ ३१६ वत्सौ ! सर्वेऽपि नः पूर्वे ७९ १८७ वदन्ती साऽतिविशदैः ३२ २८५ वदन् “नमस्तीर्थाय" इ ८०५ ३४० वधायोपस्थितेऽन्यस्मिन् २५१ ३८३ वनदेव्यो दास्य इव ११४ १७० वनस्पतित्व दशधा ११० २८७ वनात् सौमनसात् षटूत्रिं ५६४ २०२ वनानि भद्रशालादी ५१३ १८२ वन्दामहे पद्मवर्ण १ २८४ वन्दित्वा स्वामिनमथ ६५ ३६६ वन्दे ध्वस्तमहामोह १२९६ वन्दे श्रीपुष्पदन्तस्य १३०१ वपुर्देवाधिदेवस्य २६६ २६४ वपु-यौवन-लक्ष्मीणां ९३१३ वपुर्लावण्यसरित १८८ ३१९ वपुषा तदनेनाऽद्य ८३ २५८ वपुष्मतीव राज्यश्रीः ९२७५ वन द्वितीय ज्योतिष्काः ३६० १९६ वो वप्रे च चत्वारि ३६२ १९६ वगैस्त्रिभिश्चतुरः ७६ ३०९ वप्रो वलयितस्तत्र २९ २७० क्यौं तेन पराभूता २१५ २२० वयसो दुर्वयस्याऽस्य २९५ २४१ वयस्यप्रायाः पाषद्या ७७३ २०८ वय हि रुचकद्वीप २२१ १७३ वरचिन्ताशल्यभृतो २२३ ३९६ वरदामकुमारस्य ९७ २१७ वरदामकुमारस्य १०८ २१७ वरदामाधिपोऽथैव १०४ २१७
वरदेन मुद्गरिणा ८४३ २१० - वर मृगादयोऽरण्ये ३३ २७६
वराको मुच्यतामेष ३३० २४२ वराको मेरकः कोऽय ११० ३५९ वरिष्ठवनिताचार १८ ३१४ वयोमानं यथा लोके ३५८ ४०१ वर्तमाना अतीतत्वं २७७ ३७३ वद्धनीया हस्तिनोऽमी १२४ १८८ वर्धमाने क्रमाद् गर्भे ३६ २८५ वर्षलक्षद्वय साध ३५८ ३८६ वर्षलक्षद्वये साधे ५२ ३७६ वर्षलक्षाः पञ्चदश ५२ ३६५ वलित्वा पुनरध्यास्य १५२ १७१ वलाया चकृषे सोऽश्वः ९३ ३९२ वल्गां सामर्षमाकृष्य ३०७ २२३ वल्लकीमिव को वा मा ४३६ २४५ ववन्दिरे तेभरत १२९ २२९ ववर्ष बाणैः पाषाणे ६४१ ३३४ ववृषुः पञ्चवर्णानि ११२ १७० ववृषुः प्रावृषीवाब्दा ७११ ३३७ ववृषुस्त्रिदशाः सार्ध २९० १९३ वसन्तसमयेनेव ४१ ३०८ वसन्ति योजनशते ५१६ २०० वसुधाया वसून्युच्चैः १० १६७ वसुधारादीनि पञ्चा २०९ २८१ वसुधारा पुष्पवृष्टिः ११७ २७३ वसुधां शासतस्तस्य ९ १६७ वसुपूज्य-जयादेव्यौ ६५ ३४६ वसुपूज्य-जयादेव्यौ वसुपूज्यनृपोऽप्येव ९० ३४७ वस्त्रालङ्करणैः कल्प १०७ १७० वस्त्रेण देवदूष्येण ४६१ १८१ वस्त्रश्चित्रैमहामूल्यैः १०१ २१७ वह्निप्रवेशादस्माभिः ४९६ २४७ वामात्रेण न त तावत् ३०१ ३२३ वाच उत्फुल्लगल्लानां ३०७ २४१ वाचस्पतिमतिर्वाचा ३८० २४३ वाच्यश्च वाचिकामिदं ४१० ३२७ वाजिभिः स्वर्णसन्नाहैः ४०९ १९७ वातान्दोलितवल्लीव ६६ २२७ वातेन तेन महता ५२ २५७ वात्येव तृण्याः कर्षन्ती ५७५ २४९ वाद्यमानेषु मङ्गल्य , २०० १६३ वामेन भुजदण्डेन ७६९ ३३८
वामेनोत्पाटयामास १७१ ३६१ वामैनकुलफलका २०१३७० वामैः सनकुलचक्र १७९ ३६१ वामैस्तु नकुलपद्मा १९८ ३८१ वामौ च कामुकधरा १८३ २९० वामौ च धारयन् बाहु १६० २७४ वामौ च नकुलधनुः २८७ ३५३ वामौ च बिभ्रती पाणी ७८७ ३३९ वामौ तु नकुल-कुन्त १३९ ३०५ वामौ फलक-परशु. ११० २९९ वामौ बाहु गदाधार २४७ २८३ वायुकायत्वमप्याप्ता १०८२८७ वायुवृतन्य शजला ६२५ २०४ वायुरिवाप्रतिबद्धो ९०७ ३४३ वायुरिवाऽप्रतिबद्धो ३३० १९५ वायूत्क्षिप्तमध्यमिश्रा ६२८ २०४ वायोः पुर इवौजस्वी ८९ ३५८ वायोर्वेश्मप्रवेशादि ३४४ २४२ वारणाऽश्वादियानानां ७ ३६४ वारुणोदश्चित्रपान ७४५ २०७ वार्येव कुञ्जरबरो ८५६ २१० वासवादिषु देवेषु २ २२६ वाससा देवदूष्येण ३६ ३६५ वाससा देवदूष्येण ३६३ २२५ वाससा दवदूष्येण १९९ १९१ वासागारेषु कूजन्ति १६ २९१ वासागारे सभायां वा ४७ ३०२ वासान् सुरादयस्तेषु ३७७ २६८ वासांसि देवदूष्याणि ३६६ २२५ वासुपूज्यकुमारोऽपि ९९ ३४७ वासुपूज्यकुमारोऽपि ८३ ३४६ वासोभिः कल्पवृक्षेभ्यः ६३ १६८ वाह्याल्यां भ्रमिमानीय ४८ २२७ विकटभ्रकुटीभङ्ग ५१० ३३० विक्टां कण्टकितरु ११८ ३९३ विकटोत्कटदन्तानि ६०६ ३३३ विकस्वरनवश्वेत ३० १६७ विकस्वराणि तिष्ठन्ति ५७७ २०२ विकासिकुसुमामोदा २६ १६७ विकिरन्त्या रुचीः काश्चिद् १४० १७१ विकृतस्फाटिकमहा ३५ ३६५
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४८
श्लोक न. पृष्ठ न..
श्लोक नं. पृष्ठ नं. विकृतानि विमानानि ४११ १७९ विकृत्याऽभ्राणि तद्वेश्म १४२ २६० विक्रमेण नयत् साध्य ३५ २७६ विक्रीणीते स्म चणक २९ २५६ विख्यातो भारते वर्षे १५५ २१८ विचक्रे स्फाटिकानुक्ष्ण ७३ २७१ विचित्रखड्ग-फलक ४१६ २४४ विचित्रचारीकरणा २८३ ३२२ विचित्रचौर्य-हदि ४ २७५ विचित्ररचनाकल्य ३४१ ४०१ विचित्ररत्नालङ्कारा २३४ १७४ विचित्रवस्त्रनेपथ्य १५३ ३९४ विचित्रवस्त्रनेपथ्या विचित्रसन्दर्भविधौ २५० १९२ विचित्रस्वर्णमाणिक्य २ २१४ विचित्रहर्म्यप्रासाद १४ ३५६ विचित्रमिभिर्दिव्यैः ३६ ३५७ विचित्रश्चक्रिरे तत्र ५७१ १८४ विचिन्त्यैवं म्लानमुखी २१ २७५ विचेरुः क्रीडया पृथ्व्या २२ ३४४ विजय वैजयन्तं च ७५५ २०७ विजयस्व जगच्चक्षुः २१० ३८१ विजयावरजोऽप्यूचे २६१ ३५२ विजयावैजयन्त्यौ च १०८ १७० विजयास्वामिनी प्रात ६७ १६९ विजयी तत्र विजय ५२७५ विजयेनान्वीयमानो २५५ ३५२ विजहार च षण्मासां ६३ २८६ विजहार ततोऽन्यत्र ११४ २९४ विम्भित तावदेव ४४ ३७६ विजेतुकामो नृपती २६ ३७५ विज्ञप्तो मङ्गलादेव्या १६४ २८० विज्ञाप्यैवं तस्थिवांस ६३७ २५१ विज्ञायाऽऽसनकम्पेन ६६ २७१ वितर्कयामि भगवन् ! २८६ १९३ विदधात्युभयाधीने १७३ २८० विदधानः परपुर ३९ १५८ विदधुः पुष्पवृष्टिं चा ४७ ३१५ विदधुर्गन्धवृष्टिं च ५१५ १८२ विदधुर्वसुधारादि ६२ ३०३ विदधुर्वसुधारादि
६८ २९३
- लोक नं. पृष्ठ नं. विदधे विबुधैस्तत्र ६७ ३५८ विदधेऽष्टाह्निकां तस्य २६ २१४ विदधे सिन्धुदेव्याश्च १३५ २१८ विदन् भोगफल क्रर्मा ५५ २९८ विदर वज्ररत्नस्त ५४ ३१५ विदर्भाद्या गणभृतः १०७२९४ विदर्भ'ऽपि गणधरे १०९ २९४ विदाञ्चकार तत् सर्व ३२५ ३२४ विदाञ्चकाराऽवधिना १३० २१८ विद्रावयत तान् गत्वा ५२३ ३३० विदिग्रुचकवास्तव्याः २१२ १७३ विदेशे द्वादशाब्दानि १२ २२६ विदेहास्तु मिथिलया ६६९ २०५ विद्याधरकुमाराणां ४५० ३२८ विद्याधरकुमारश्च २४६ १९२ विद्याधरपतिस्तत्र ३२० २२३ विद्याधरपतेश्चाप २७८ ३९८ विद्याधरबलच्छन्न २५९ ३९७ विद्याधरमहाराज्या २८४ ३९८ विद्याधरांवलासोको ९० २२८ विद्याधराणामन्योऽन्य ६४६ ३३४ विद्याधराणां मायेय ६१७ ३३३ विद्याधरान् धराधीशः २७२ २२२ विद्याधराश्च ज्वलन ६२३ ३३४ विद्याधरेन्द्रमापृच्छ ४७८ ३२९ विद्याधरगतोत्साह ५७१.३३२ विद्याधर्यो रममाणाः १५ २९१ विद्याबलाद् दोर्बलाच्च ५३७ ३३१ विद्या विना हयग्रीवा ५७७ ३३२ विद्युत्प्रभकुमारस्यो ४४७ ३२८ विद्यते सवितृद्वीपा ६३८ २०४ विधाय च निवापादि १३९ ३७९ विधाय देशनामेव २६४ १६५ विधाय लस्तकन्यस्तै ९५ २१६ विधायाऽष्टाह्निकां तस्या १८१२१९ विधिवदमरनाथाः १५३ ३०६ विधुरस्तुरगः सोऽपि ३०८ २२३ विनथश्रुतीलानां २५५ ३८३ विना कुमारानभ्येत्य ४२ २३३ विनाऽचलन त्रिपृष्ठो २४५ ३२१ विना मिषमकाण्डेऽपि २२५ ३५१
विना सैन्य यदायातः ३९२ ३२६ बिनीतामध्यतश्चक्री ६४९ २५१ विनीतायाः परिसरे ३०२ २२३ विनीतायां महापुर्या १४८ १७१ विनीतायां महापुर्या ४१ १६८ विनीतेनेव भृत्येन ९७ ३१६ विनेतरि दुराचारा १०८ २५९. विनेन्दुमिव कौमुद्या ४५० २४५ विनोदै विविधैस्तत्र ९० ३७८ विन्ध्यशक्तिर्भवे भ्रान्त्वा १८९ ३५०. विन्यस्य दक्षिण जानु ४५ १६८ विपद्य च हयग्रीवः ७५२ ३३८ विपन्नमपि मे पुत्र ११५ २३५ विपाकः फलमाम्नातः ४५७ १९९ विपुलागणिनीगाढ ९२८ २१२ विपेदे हरिदासोऽपि १७ २२६ विप्र-क्षत्रिय-विट्-शूद्र २३२ २३९. विप्रयोगः प्रियजनैः ११४ २७८ विप्रवेषमुपादाय २७१ २४० विप्रोऽपि प्रत्युवाचैव ३३१ २४२ विभिन्नकर्मायुक्ताभिः २०१ ३५० विभोर्विहरतोऽभूवन् ३९१ २६८ विमलस्वच्छपयसा . १३ ३६४ विमलस्वामिनिर्वाण ३०३ ३७४ विमानकिङ्किणीकाणैः ३४१ २२४ विमानं पुष्पक नाम ३६४ १७८ विमानमानिभिर्ह म्य: ५२ २१५ विमानमिव देवेन १४ २१४ विमानलक्षास्तन्नादो ३५६ १७७ विमानानां शत त्वेक ७७९ २०८ विमानानि समारुह्य १६७ १७२ विमानिभिर्दत्तमार्गा ६८८ ३३६ विमान रचयन्नाशाः १९१ १९० विमानैर्भासुरैः कुन् ३०३ ३९९. विमुक्तकल्पनाजाल २७१ १६५ विमुक्तकुन्तला नाना ५८५ ३३२ विमच्याऽस्थीनि दग्धेषु ६९६ २५३ विमुञ्चत प्रतिभय ७६० ३३८ विमञ्चत हयग्रीव ७५४ ३३८ विमश्यैवं तदा दूता ३५४ ३२५.
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श्लोक नं. पृष्ठ नं.
विमृश्येवं ब्रह्मलोकात्
विमृश्यैव समुत्थाया
५७ ३०८ १५० १७१ ३६९ ३२५
विरचय्य महाम्यूह विरचय्ये स्तुतिमिति
७८ ३०३
२५५ ३७२
विरताचिरतस्तु स्यात् विरावरताना विरते देशनातोऽस्मिन् १७९२९०
१०४ ३०४
विरामः सर्व दोषाणां
२३ ३०१ १२९३१७ ४४२ २४५ १० २३२
४१ २७० १८६ २८१
३७ २९२ १९१ १६३
९८ २९९
विलेपनाथ' मासतः विवाहार्थम कार्ये तां
४८० ३२९
विविधाः प्रतिभाः कुर्व ७१२९३
विरुद्धादर्शनाद् विश्व विलम्बेनाऽय पर्याप्त
विलापोऽन्तःपुरस्त्रीणां विलासमन्दया गया विलिप्य पूजयित्वा च विलिप्य पूजयित्वा च तीनाथां मां
विविधाभिषरः
विविधाभिग्रहधरः
विविधाभिमधरः
विविधाभिग्रहप विविधाभिस्तीम विविधाभिग्रहो दान्तो विवेकदर्पणोन्मार्ष्टि १९८ ३६२ विवेकशाने राग्य २७० १९३ विवेकिन् ! भवता मुहान् १४९२३६ विवेक्यप्यविवेकीव ८९१ ३४२ विंशतिस्थानकानां च ११९ २७८ विंशतेः स्थानकानां च १९ २६९ विंशतेः स्थानकानां च १०० २५८
५७ २९२
समभिका विशदाच्छादनास्तीर्णे
५४ १६८ १३७ २७९
विशदे रूप लावण्ये विशाखनन्दिनी विशाखनन्दिने यान्तं
१२७ ३१७
१५२ ३१८
विशाखनन्दिनो रोषः
१५३ ३१८ विशासनन्दी की ११६ २१७ विशालनन्दी मध्येऽस्ती १३१ ३१७ विशाखनन्दी हसित्वा विशाखभूतेर्भार्यार्या
१५४ ३१८ ११२ ३१७
२१० २८१
७३ ३५८
७२ ३०९
१४९ ३१८
१० ३०७
१० २९६
४९
लोक नं. पृष्ठ नं.
१५५ ३१८ २३२ १६४
८०६ २०९
९ ३४४ १११३१७
विशाखनन्दिनं दृष्ट्वा
निर्मले स्वच्छे
विशिष्टवीर्य बोधादय' विश्लेषण कन्नोऽपि विश्वनन्दनरेन्द्रस्या विश्वनाथ ! त्वदीयस्य
४५ ३०२
स
१०३ ३१६
विश्वभूतिरथावोच १४३ ३१८ विश्वभूतिरिति नाम ११३ ३१७ विश्वभूतिश्च मासात १५१ ३१८ विश्वमप्युत्तारयसि ६३४ २५१ विश्वस्य कण्टकोद्धारात् ३९२ २४३ विश्वस्याप्यनुकूलश्चेत् ७३३०३ विश्वस्याप्यत इव ७८ १६९ विश्वासेनाल्पकेनाऽपि ४०६ २४४ विषण्णास्तत्र च स्थित्वा ४० २३३ विषयाणां विमुलोऽसि
७५ २७७
विषयेषु निरीहोsपि
९६ २७२
विषयेषु निरीहोऽपि
५१ ३०८
१३३ २७३
विषयेषु विरांग विषयेष्वतिरज्यन्ते विषयैः कषायराग विषवेगैरिवाऽम्भोभिः विषाणिन महिषवत् विषे हन्यमानोऽपि विष्णुश्रिया रममाणे विष्णुस्तेन प्रहारेण विष्णोस्तमूर्जितं शब्द विश्व परिवृतः पौर विसूत्रितान्धकाच विनितामिल:
१६१ २८९ २२० ३७१ ३६० २४३ ३१५ २४१ २८८ १६६ २१ ३८९ १८५ ३७०
३७८ ३२५ ८२०२१०
११९२५९
विशुन्य हांसबरो
३५ १५८ २६३ २२२ २६८ २२२
विसृज्य तं च सगरः विसृज्य सप्रसाद तां विसृज्याऽन्येद्युरास्थानीं १२१ १८८
४३५ ३२७
विस्तारिणी करस्पर्शाद् ३८ २१५
विस्तारेऽधः सप्तर
७९९ २०९ बिलब्धीभव तद् राजन् ! ३४१३२४ विहरन्नन्यदा नाथः १२१२७३ विहरन् भावान् भूयः बिहरा
७२.२९८
भूयः ७२ २९३
नं. पृष्ठ नं. मिहरन स्वामिना सार्थ ६५९ २५१ बिहारलीलामुद्याने विहितानरानो नृत्या
६ ३६४
१०२२५९ ७०५ ३३६
वीक्षापन्नः पन्नगास्त्र
२०७ १९१
२२८ ३८२
वीज्यमानोऽमरैश्वारु
वीतराग-पति-आद
वीतरागे ते
तोऽसि चेद् रागः
वीर्यदोर्दण्डाः वृतिभिर्वरशाखीव
वृथैव राम्पसम्पत्तिः वृद्धिं शाखे इव तरो वृद्ध प्रयोचितः सोऽय
वृष: कुतीर्थिक यात्र वेत्रासनसमोऽधस्तान् वेत्रिणा दर्शिते स्थाने वेदशास्त्रपराधीन वेदादिशास्त्रविज्ञेषु वेपमानपुर्भीम
वेलम्बः प्रभञ्जनश्च बेसबलोचि
वेश्मद्वारे सवेदान
वेश्मनां युष्मदीयानां
वेश्मा सोरणस्याथः
देवादीनामलङ्कार
वैक्रियलब्धिसहस्रा
कहला
वैक्रियलब्धा सहस्रा
वैक्रियेण समुद्घाते वैतादयगिरिदुर्गस्थ
वैतादय-जगतीवाल
वैतादयदक्षिणश्रेणि वैतादपति
वैतादयपर्वतश्रेणि
वैतायाद्रिकुमारच
वैतादपाद्रिकुमारस्य
९० ३०४ ७० ३०३ २४४ ३५१ ३३१ १९५
३० २७६ ४ १८५ ८९८ २४३
७७ ३१६
४७९ १९९
२३० २३९
३२१ ३५४
२४८ २३९
५१८ ३३० १७५ २६१
२९२ १९४ ३५५ २४२ १४९ २३० ४८४ ३२९
१२२ ३०५
३९४ २६८
१८८ २९०
६६९ २५२
२५४ २८३
१८४ १७२
११२ २३५
४९१ २४६
१४१ ३६८
४० ३८८
२७० २२२
५४ २२७
१४४ २१८
बैतायाद्रिकुमारोऽपि
१४० २१८
वैतालिकैरनुत्ता :
५७८ १८४
वैतालिकः स्तूयमानो ५६१ ३३१
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१.
श्लोक नं. पृष्ठ ने. वैदग्ध्यरमणीयाभी २४. २६३ वैमानिकानां स्वर्गस्थ ९४ २२८ वैयावृत्य समाधि च ४८ २५७ वैरिणीमिव भिन्नक्ष्मां ५७१ २४९ वैरिवामः स वामेन २७९ ३५३ वैशाखसि तचतुर्ध्या ५० २७६ वैशाखसितनवम्यां २०६ २८१ वैशाखस्य सिताष्टम्यां १७२ २७४ व्यक्त च शंसत्यधुना १६७ २३७ व्यथ्यन्ते लवणाऽचाम्ल १०२ २८७ ध्यधुभूषणवृष्टिं च ५१२ १८२ व्यन्तरादिकुयोनिस्था २९२ ३८४ व्यन्तराष्टनिकायानां ४१३ १७९ व्यन्तरेषु ज्योतिष्केषु २१० २६२ व्यर सीदादिपौरुष्या २८९ ३७४ व्यलिप्यन्त क्वचिल्लोकाः ५४३ १८३ व्याघ्रण भश्यते वाऽपि ५९ २५७ च्याजहार कृतव्याज ५०० २४७ व्याजहार प्रतिहार १८० ३७० व्याजहार प्रतीहारः ६७ २३४ व्याजहार ब्राह्मणोऽपि ९०६ २१२ व्यापिप्रज्ञस्त्वत्प्रभावात् ४० २९७ व्यावर्तध्वमिदं वो हि ६३७ ३३४ व्योमापि व्यानशे भक्तः २३१ १९२ व्रतानि निरतीचारा ९३०७ व्रते छद्मस्थभावेऽगाद् ६८४ २५२ व्रतोत्सुकोऽपि तद्वाचं ९३ १८७
"श" शक-केकय-वोक्काण ७५ ३४६ शक्तस्य पुंसो विनयः ५५० २४८ शक्तीः प्रचिक्षिपुः केऽपि ६५० ३३५ शक्तनापि सता तेनो ५५४ २४८ शक्रःचक्रेऽङ्गसस्कार १७६ २७४ शक्रधन्वेन मेघेन १८३ ३८१ शक्रन्यस्तं देवदूष्यां ६५ ३०९ शक्रः प्रतीष्य चिकुरा १११ २७२ शक्रः प्रभोश्चतसृषु १९४ ३६१ शक्रवत् सोऽपि सन्त्यज्य ३५४ १७७ शक्रवद वर्मनोदीचा ३६९ १७८ शक्रसमितकाङ्गुष्ठ
श्लोक नं. पृष्ठ नं. शक्रसङक्रमिता ष्ठ ५७ ३४५ शक्रसङक्रमितसुधां ९० २७२ शक्रसिंहासनस्योच्चैः ३०५ १७६ शक्रस्तवेन वन्दित्वा ११९ २२९ शक्रस्तवेन वन्दित्वा २६२ १७४ शक्रस्तवेन वन्दित्वा ४९३ १८१ शक्रस्तान् स्वामिनः केशा २८६ २६५ शक्रः स्वामिगृहान्मेरो ४६ ३५७ शक्रावर्तिनं नाथं १८४ २८१ शक्रादिभिर्घतच्छत्र ५७ ३६६ शक्रादिष्टवैश्रवण ५१० १८२ शक्रादेशात् कुबेरेण शक्रादेशेन कपूर ६९५ २५३ शक्राधस्तत्र समव १८३ ३६१ शक्राद्यैस्तत्र समव २९१ ३५३ शक्राद्यैस्तत्र समव २०५ ३७१ शक्रेण वर्णितं यादृक् ३६८ ४०१ शक्रेशानाविव दिवो १३२ ३६८ शक्रेशानी स्वामिदंष्ट्र ६९७ २५३ शक्रोत्सङ्गस्थित नार्थ ४० २८५ शक्रोत्सान्निजोत्सङ्ग ४८४ १८१ शक्रोपि पालकारुढ , ३५ ३४५ शक्रोप्यशंसदेतेन ३४१ ४०० शक्रोऽप्युपेत्य तत्राशु ३२ ३०८ शक्रो विमानादुत्तीर्य ६७ २७१ शङ्का काढा विचिकित्सा ९०५२१२ शङ्खः कुमद-नलिने ६०३ २०३ शङ्खरत्न पाञ्चजन्य ६२८ ३३४ शङ्खादयो निखन्यन्ते ११५ २८८ शवापूर्य माणेषु १६९ १९० शतपाकादिभिस्तैले ५७ ३१५ शतयोजन्यायतानि ७०९ २०६ शतानि चाष्टपञ्चाशद् ११९३१० शतानि पञ्चपञ्चाशत् २२० ३६२ शतानि सप्ततिरय ११८ ३१० शताशीतिः सावधोनां ११३ ३०. शब्दमश्रुतपूर्व ते ६४ २३३ शब्द-रूप-रस-स्पर्श ४२५ १९८ शब्दशास्वादिशास्त्राणि २४ १८५ शब्दादेव पदार्थानां ४४२१९८ शमरूपं पयः प्राज्य २३२ ३८२
श्लोक नं. पृष्ठ नं. शम-संवेग-निदा ९.३ २१२ शमोऽद्भुतोद्भुतं रूपं ६३० २५१ शयनासननिक्षेपा २७४ १६५ शयानया रात्रिशेषे ११५ २५९ शय्यानुषं सतिगृहे १६० २६० शय्यापालं तमेकान्ते ८८२ ३४२ शय्यापालोऽपि तान् गीत ८७५ ३४२ शय्यापालोऽपि पञ्चत्व ८८३ ३४२ शरदभ्रमिवाऽऽवयं १७१ ३१९ शरद्यपामिव तदा १२८ १७० शरभोत्पिष्टदन्तीन्द्र शरीरमन्तरुत्पन्नः ३७२ ४०१ शरीर-यौवन-धन ३७१ २६७ शरीर श्रथते नाऽऽशा ३७५ ४०१ शरीरेण सुगुप्तेन ८३ ३०३ शकरावलयमान ४९९ २०. शल्यैः प्रववृषुः केचिद् ६५१ ३३५ शशंस प्रभुरप्येव ८५३ २१० शशास लीलया स्वामी १०० २७२ शशी चिर' भव भ्रान्त्वा २५ २२६ शस्त्राऽग्नि-विष-मन्त्रा-ऽम्बु २१८ २२० शस्त्राणां प्राक् प्रयुक्तानां ७२३ ३३७ शस्त्राशस्त्रिकथाश्चित्रा ८६ २२८ शस्त्राशस्त्रिकथां श्रुत्वा ९७ ३६७ शास्त्रशस्त्रिप्रवृत्तानां ६०२ ३३३ शाखा कल्पद्रुमस्येव २९ १६७ शातकुम्भमयेः स्तम्भैः ४९ १६८ शान्ते चौघस्वराघोषे ३७७ १७८ शान्ते तस्मिन् महाघोषा ३५८ १७७ शान्ते नादे च घण्टानां ४०८ १७९ शान्ते सुघोषानि?षे २७३ १७५ शारीणामेव हनन १०५ १८८ शारीरान् मानसानेव' २९८ १६६ शार पाणेरुरः पीठं १५७ ३६१ शाङ्ग पाणेश्चतुर्थस्य ११० ३६७ शाङ्ग भृद् धैर्य मादाय १३८ ३७९ शाङ्गमारोपयामास ६७४ ३३५ शाङ्गिणो वाचिकेनोच्चैः १५६ ३६९ शाश्वतानामत्यधुना. १४६ २३० शाश्वताह त्यतिमान १०४ ३१६ शाश्वताह प्रतिमानां २१४ २६२
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लोक नं. पृष्ठ नं. शाश्वताईत्यतिमानां २८५ ३९८ शिक्षोपदेशालापान ये २३२ ३७१ शिबिकातः समुत्तीर्य ६३ २९८ शिबिकात: समुत्तीर्य ६४ ३५८ शिबिकातः समुत्तीय ९९ ३१६ शिबिकातः समुत्तीर्य २४८ १६४ शिबिकातस्तदोत्तीय १२३ ३४८ शिरसः पश्चिमे भागे ३३५ २६६ शिरसोऽत्रोटयन् केपि ७२३२ शिरस्यञ्जलिमुत्तंस ४६० १८. शिरांस्यमुञ्चन् हुङ्कारान् ६५७ ३३५ शिरीषसुकुमारस्य २६ ३१४ शिलां कोटिनरोत्पाट्यां१९३ ३७० शिलां तां न्यस्य तत्रैव १७२ ३६१ शिल्पार्याः स्वल्पसावध ६७७ २०५ शिव यियासुरायासीः ४३ ३०२ शिवराजोऽप्युवाचैवं १०३ ३७८ शिवः सुतकरस्पर्शाद् १०१ ३७८ शिवेन मृदुशीतेन १८५ १७२ शिशिरे ब्राह्मणोऽन्येयुः ९१२ २१२ शिशुत्वसरितः पारं ५४ २९७ शिश्रिये सोऽरिभिरपि १३६ ३४८ शीतमुद्यानवापीमिः २० ३७५ शीताप्लवगैः पुजी ६२ ३५८ शीतात्तेषु किरातेषु १४३ ३९४ शीर्णेषु जानुदध्नेषु १४४ ३९४ शीलबते सातिचारे ११० ३.४ शुक्र-शोणितसम्भूतो ९४ २९९ शुक्लध्याने चतुर्थे च ६८१ २५२ शुण्डादण्डैस्तृणपूल ६०८ ३३३ शुद्धद्वादश्यां राधस्यो २६ ३५६ शुद्धपृथ्वी-पाव-वन ५५७ २०२ शुभहस्तु भट्टिन्या ९३६ २१३ शुद्धभट्टोऽपि तत्काल ९०७ २१२ शद्धभट्टोऽध्यभाषिष्ट ८८८ २१९ शुद्धभट्टोऽभिधानेन ८६३ २११ शुद्धस्फटिकसङ्काशः २६२ २४० शुद्धया महत्या शक्त्या च १३२ २७८ शुभध्यानयरः स्वायुः १७ २८४ शुभस्त्राङ्गना-माल ४५८ १९९ शुभानां कर्मणामद्य ४२ २९७
लोक नं. पृष्ठ नं. शुभाजनाय निर्मिध्य ८२ ३०३ शुभाशुभायां शय्यायां २८६ १६६ शुभेषु ग्रहनक्षत्र २०८ ३५० शुभेऽहनि नरेन्द्रोऽथ ५६८ १८४ शुभेऽहनि शुभे चन्द्र १७८ ३१९ शुशुभे स महाबाहुः ९५ ३६७ शुश्राव देशनां तस्माद् ९२ १६० । शश्राव देशनां तस्माद् ९०४ ३४३ शूलपाणिरथेशान ३६२ १७७ शूभ्रषमाणः पितर २१४ ३२० शङ्खलिताम्भोदमिव १०५ १६० भनाटकादिरचना ५३ २१५ शङ्गाटेषु चतुष्केषु १८२ १९० शेवलालीव रोमाव १२ ३८९ शेषाः स्पर्श ख्य-शब्द ७९५ २०९ शैलस्तु विकटापाती ६१७ २०३ शैलेशीध्यानमास्थाय १७१ २७४ शैलेषु दधिमुखेषु ७२९ २०७ शैशव व्यतिचक्राम ४९ ३६५ शैशव व्यतिचक्राम ५२ २९२ शैशव व्यत्यलचिष्ट ४९ ३०८ शोका-ऽमर्ष-विषादेा १४८ २८९ शोचन्ति स्वजनानन्तं १४२ २७३ शोभाविशेष जनयं १२२ ३४८ शोभितः कीर्ति-वीर्याभ्यां १३१ २३६ शोभिताः स्वप्रभापूर्णा १३३ १७१ शोषयन्तोऽशेषतोया २२२५६ शौच सयमस शुद्धि ८४ २७७ श्मशानस्थानवती नि २५५ २६४ श्यामीकृतनभांस्यम्भः २१ १५८ श्रद्दधाति श्रियः पश्यन् ३१ २७६ श्रमणानां सहस्रण ६७३ २५२ श्राद्धानामाऽच्युत मिथ्या ७९१ २०८ श्रावकाणामुभे लक्षे १८९ २९० श्रावकाणामुभे लक्षे २२२ ३६२ श्रावकाणाममै लक्षे २५५ २८३ श्रावकाणामुभे लक्षे ३५७ ३५५ श्रावकाणां पुनलक्ष २९६ ३७४ श्रावकैर्विपुलश्रीकैः ५८९२४९ आवकोऽसीति परतो ९१३ २१२ श्रावणस्याथ शुक्लायां १४. २७९
श्लोक नं. पृष्ठ नं. श्रावणासिलसप्तम्यां
२७ ३६५ श्राविकाणां चतुलक्ष्य १२. ३१० श्राविकाणां पञ्चलक्षी ११९२९४ श्राविकाणां पञ्चलक्षी १६८२७४ श्रियं स्वभावचपला २४ ३७५ श्रियो मूर्त्यन्तराणीव ७४ १८७ श्रीकाविणाऽपि भवता २२० १६४ श्रीखण्डमप्यनादाया १०९ ३७८ श्रीचन्द्रप्रभनिर्वाणात् १५२ ३०६ श्रीधर्मतीर्थकृत्तीथे ३१. ३९९ श्रीधर्मस्वामिनस्तेषां ३६१ ३८६ श्रीपद्मप्रभनिर्वाणात् १२५ २९५ श्रीपृथिव्याविव साक्षात् ९२ ३५८ श्रीमच्छीतलनाथस्य ८६४ ३४२ श्रीमतोऽनन्तनाथस्य २ ३६४ श्रीमद्गणधरेन्द्राणां २७२ ३८३ श्रीमद्भिन् पसामन्तैः २४० १६४ श्रीमानजितनाथोऽपि ३९ १८६ श्रीमानजितनाथोऽपि ९७ १८७ श्रीमान् सर्वो जनस्तत्र २२ २८४ श्रीयमाणः षोडशभिः ४८ ३८८ श्रीवासुपूज्यनिर्वाणाद् २२८ ३६३ श्रीवासुपूज्यवचन ३६९ ३५५ श्रीवीरश्चरमश्चाहन् १०४ ३४७ श्रीशीतलजिनेन्द्रस्य १३०७ श्रीशीतलस्य मुनिभिः १२६ ३११ श्रीश्रेयांसजिनेन्द्रस्य २ ३१३ श्रीश्रेयांसप्रभोः पादाः १ ३१३ श्रीसुपार्श्वजिनेन्द्रस्य १२९१ श्रीहीधतिकीर्तिबुद्धि ५७८ २०० श्रुतसागरनामाऽथ ४४९ ३२८ श्रुत्वा कुमारमायान्तं १२७ ३१७ श्रुत्वा च देशनां भतु: ८१२ २०९ श्रुत्वा च मूर्छितो विष्णुः १३४ ३७९ श्रुत्वा तां देशनां भतु: ३७३ २६७ श्रुत्वा त्रिभुवनैश्वर्य २६३ ३८३ श्रुत्वा पुरुषसिंहोऽपि ९१ २७८ श्रुत्वा भगीरथोऽप्येवं ६१४ २५. श्रुत्वा लोकाच्छिवराज १४६ ३७९ श्रुत्वा सुदर्शना तच्च १५ २७५ श्रुत्वेति मुदितो विप्रः ८५८ २१०
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श्लोक नं. पृष्ठ नं.
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
श्लोक नं. पृष्ठ नं. श्रुत्वैव देशनां भतु : २१४ ३६२ षोडश पूर्ण कलशा ७१८२०६ . श्रुत्वैवं देशनां भतु: ३४९ ३८६ षोडशयोजनायामा ७१२ २०६ श्रेणिद्वयाधिपत्यं चा ७६५ ३३८ श्रेणिप्रश्रेणिका अष्टा ३४५ २२४ श्रेयांसप्रभुनिर्वाणाद् । ३६२ ३५५ स आगच्छन्नथ पथि ५८४ २४९ श्रेयांसस्वामिपादानां ९०२ ३४३ स आघाट शिला स्तम्भी २५४ ३२१ श्रेयांसोऽथ प्रभुयॊम ७९९ ३३९ स उपायै श्चतुर्भिश्च ७२६९ श्रेयोबुद्धयाध्वरहत ३३८ ३५४ स एकस्मिन् दिने स्वस्या श्रोतव्या घोषणाऽवश्य २७२ १७५
२२३ २३८ श्रोत्रियः श्वपचः स्वामी ८३ २८६ . स एवमद्वैत सुख ३१२ १६६ श्रीतादर्थाद् व्रजन शब्द ३३६ १९५ स एवमुक्तः पुरुषो १५५ ३६१ श्वेतच्छत्र-ध्वजस्तम्भ ३२२ २६६
एवं जगति न्याय ५११३३० श्वेतरश्मिमिव प्राची १७६ ३१९
स एव भवनिर्विणः ७ ३५६ *वेतवर्णश्चतुर्दन्तः ५३ २७१ स एव राजधर्मस्थः ४२ १५८ श्वेतातपायूरा । १९ २९१ स एष मत्पतेः पादो ४२९ २४५ श्वेताम्बरधरः स्रग्वी ३६३ १७८ स एष योगसाम्राज्य ३९५ १९७ ""
स क्रमेण तमिस्राया १९४ २१९
सकलत्रः समित्रचा ३०७ ३९९ षट्खण्डभरतक्षेत्र २०२ २३८ सकलान्तःपुरस्त्रैण ६ २७५ षटखण्डमरिषड्वर्ग ५७ २२७ सकलाऽपि श्लाघनीया २०१ २६२ षट्त्रिंशच्च तृतीयं तु ५५९ २०२ संकल्पयोनिनाऽनेन ४० ३९० षट्पञ्चाशद् दिक्कुमार्यः ३३ ३०२ सकषायतया जीवः २८० ३७३ षट्पञ्चाशद् दिक्कुमार्यः ३९ २८५
स काल गमयन्नृद्धया २९८ ३९९ षट्पञ्चाशद् दिक्कुमार्यः ६५ २७१ सकुरण्टकेन श्वेता २०६ १९१ षटपुनर्विकलाक्षेषु २४४ ३७२ स कुर्वन् गर्जितमिव २१ ३४४ षट्षष्टिश्च सहस्त्राणि ५४० २९१ सकृष्णवण : पञ्चाय ७३ ३७७ षट्सप्ततिगणधर ८४९ ३४१
स केसरियुवा चेत्यं ३९१ ३२६ षड योजनानि भूमध्य ३५ २२७ सखा ते ताभिरप्यैक्षि २१७ ३९६ षड योजनानि सक्रोशा ६०६ २०३
सरव्येव पवमानेन १४० ३९३ षडविंशतिसहलान ८६३ ३४१
सगत्वोपतमिस' च १७८.२१९ षष्टिधन्वोन्नतः स्वामी ५० ३५७ षष्टिं वत्सरलक्षाणि
सगरनृपे चरित्रे ७०२ २५३ २३० ३६३
सगरः शिबिर गत्वा १२५ २१७ षष्टिः षट च सहस्राणि २९२ ३७४
सगरश्चक्रभृदथ षष्टिसहस्त्रसङ्ख्यास्ते १५५ २३६
सगरः सर्वमत्येभ्यः ६९ १८७ षष्टिं सहस्रान् सगरात् १७८ २३१
सगर सोऽपहृत्वाऽप्वः ३०६ २२३ षष्ठा-ष्टमादिनिरतो १४७ ३१८
सगरस्तु यथाकाल षष्ठेन प्रतिमास्थस्य ६४ २८६
सगरस्य नरेन्द्रस्य ६१ २३३ षष्ठयां सितायां पौषस्य १७६ ३६१ सगरानुजीविनोऽपि २३४ १९२ षानुण्यादासनगुणो ५५२ ३३१ सगरेणोपनीतेऽय ८३३ २१० पाण्येन स घटखण्डया १६१ ३१८ सगरो गजमारुह्य २७४ २२२ मगुण्योपायशक्त्यादि २९ १८५ सगरोऽपि सभूपालः २७९ १९३
सगरोऽपि सरस्तीरे ३१८ २२३ सगरोऽष्टममक्तस्य ९१ २१६ संक्रन्दनो विचक्रे च ३०८ १७६ सङ्क्रान्ततारकारत्न १६ ३१५ सङ्क्षिपन् सङ्क्षिपन्नेवं ३२८ १७६ सङिक्षप्त इव वैताढयः ३३ ३१४ सङ्गमा बान्धवादीनां ५२६ २४७ सङ्गीतकस्य सञ्जज्ञे २८९ ३२३ सङ्गीतकानि गन्धर्व २३३ १९२ सङ्गीतकर्नाटकैश्च ३४८ २२४ सङ्गीतरङ्गभङ्ग त्व. ३१० ३२३ सङ्घसमृद्धं तं दृष्टवा ५९१ २४९ सङ्घ समाधिजनन १२८ ३०५ सङ्घोऽपि भगवांस्तत्र ८२ २९३ सङ्घोऽप्यस्थाद् यथा स्थानं २१७२८२ सचक्री पालयामास ३३५ ४०० स च त्रिजगदाकीणो ४८० १९९ स चात्र भरते पृथ्ची ९३ ३६७ सचित्तः संवृतः शीत २४२ ३७२ - सजल जलदुर्गस्थ ८८ २५८ सजातासनकम्पाः षट ३४ ३४५ स जित्वाऽपि द्विषोऽशेषा ५ ३६४ सज्ञात्म पितर पश्चात् १६ २२६ सञ्चरभिर्गजैस्तत्र १८ १५७ सञ्जातमध्यच्छिद्र च ६५ २२७ सजाताऽऽसनकम्पेन १४५ १७१ सञ्जज्ञिरे समन्ताच्च १३० १७० सततं चिन्तयामास . १९ १८५ स तपो दुस्तपं तेपे १८७ ३५० स तमिस्रा गुहाद्वारे ३० ३८८ स तमेवाऽन्यदा भूप ३८५ २४३ सतां प्रतिष्ठा कल्पद्रः १७ २९१ सतीनां सीमभूताऽभूत् २८ २८५ सतीसत्यापनां कृत्वा ४६४ २४६ स तु ग्रामजनो मृत्वा ५९७ २५० सतोरणा चतुर्द्वारा ७९५ ३३९ संतोषयुक्तस्य यते ३३३ ३८५ संतोषसिद्धौ संसिद्धाः ३३६ ३८३ सत्पुरुषामिधानश्च १७८ २६१ सत्यन चेन्मम क्वः ३१८ २४१ सत्यं येषां शरीरादौ ९९ २९४ सत्रिपृष्ठाऽचलं सामि ५४५ ३३१
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श्लोक नं. पृष्ठ नं. स त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य ५ २२६ स त्रिः प्रदक्षिणीचक्रे १६७ २६१ स त्रिशब्द्वर्ष लक्षायुः ९४ ३६७ स त्रिंशद्वर्षलक्षायुः ३०४ ३७४ स ददौ दानशीलोऽपि ३८ १५८ स दध्यौ चेत्यहो ! जम्बू २५६ १७४ सदशश्वेतवसनां. ४८६ ३२९ सदसद्गुणशंसा च १३१ ३०५ सदस्या न्यकतास्ते य ३७३ २४३ सदा त्रिपृष्ठः पावस्थां ८७० ३४२ सदाऽहंदादेशसुधा' १४८ २३६ सदा विरक्तः ससारा ६५ ३७७ सदा स चैत्यपूजासु ५३, ३८८ सदा सन्निहितैदो पै. ६७ २५७ स दूतः सत्वरं गत्वा ४९९ ३२९ स दृढ वसुधां दधे ३४ २७० सदैव हि प्रमत्तानां २०० २६२ सदैवोदच्यमानाऽपि १२९ २७९ सदोषमपि दीप्तेन ८३१ ३४० सद्गुरोः पादपद्मान्ते २४३ २६३ सद्दर्शनेन मिथ्यात्व' ९७ ३१० सध्दूपधूमपल्लीभि १६ ३४४ सद्भक्तया परमात्मेव २७ ३४५ सद्यः पुरादिनिर्माणा ३७ २१५ सद्यश्छित्वा करोपात्तैः ६५३ ३३५ सद्यश्छिन्नैः परिकरे ६५५ ३३५ सद्यः समवसरण २०२ ३८१ सद्यः सिंहासन' हित्वा ८१३ ३४० सद्यः सैन्यानि सेनान्यः २४३ ३५१ सद्यो जग्राह दीक्षां च ९०५ ३४३ सद्यो नट इवाऽलोकं ८० २३४ सद्यो निर्वाणदावाग्नि १३० ३९३ सद्योऽपि कामविधुरा ३१७ २२३ सद्यो रोमाचितवपुः २६४ १०५ सद्यो वक्रा-ऽतिचाराभ्यां ३८ २८५ सद्यो वकिरत्नेन १९३ २१९ सद्यो विमानान्यारुह्य २८० १७५ स धनुर्दिशतीकं तु . १२६ २७३ सधर्मचारिणी चाऽऽसी १३ १६७ सधर्मचारिणी तस्य ४४४ ३२८ - सधर्मचारिणी तस्या २१ ३६४स
श्लोक नं. पृष्ठ नं. स धात्री खेदयामास २२१ २६२ सनत्कुमार इत्युक्त १७२ ३९४ सनत्कुमारकुमार १६३ ३९४ सनत्कुमार कौरव्य २३५ ३९७ सनत्कुमार त्रिदशा ३३० ४०० सनत्कुमारमालोक्य ३४८ ४०० सनत्कुमार-माहेन्द्रा ७६१ २०८ सनत्कुमार विज्ञप्य ३२५ ३९९ सनत्कुमारः षटखण्ड ३१७ ३९९ सनत्कुमारस्य रूप २६८ ३८३ सनत्कुमार स्चे राज्ये ३०९ ३९९ सनत्कुमारानुज्ञातो ३२२ ३९९ सनत्कुमारो ब्रह्मा च ३६८ १७८ सनत्कुमारो हर्षाश्रु १६४ ३९४ स नरेषूत्तमो राजा १७ १६७ स नित्य भगवत्पाद ६६१ २५२ स नैमित्तिक इत्यूचे ४५४ ३२८ सन्त भूत भविष्यन्त २७९ २४० सन्तापिनस्तपनांशु १०३ १६० सन्त्यशीतौ योजनेषु ५२५ २०१ सन्ध्या सहोदयं याति ४४७ २४५ सन्निहितः समानश्च ५२७ २०१ स पञ्च समितीस्तिस्रो ६६० २५२ सपर्याणानपर्याणान् ४९ १८६ सपल्लवा इव लताः सपाण्डुरध्वजच्छत्र ५८ २१५ सपादकटकं पाद ४२३ २४४ सपादयोजनशत ३६ २२७ सपितृभ्रातर नव्य १२० ३५९ सा पित्रोरुपरोधेन ५१ ३५७ स प्रीतः सपरीवारः ३०७ ३२३ संपूर्ण चक्रिसामग्रया ४५ ३८८ संपूर्णे समये साऽपि ९९ ३५९ संपूर्णे समये साऽपि १०९ ३६७ सप्तधातुमये देहे २६७ ३८३ सप्तधा प्रक्षरद्दान ४५ २१५ . सप्तभिश्चानीकनाथैः ३८२ १७८ सप्तमे दिवसे जात ५८१ ३३२ सप्रदक्षिणयामास १६५ २६१
प्रधानपरीवारः ४७० ३२८
"लोक नं. पृष्ठ नं. सप्रमोदं ततः पित्रा ११६ २७८ स प्रयाणैरविच्छिन्नैः २४६ ३५२ स प्रसूतो जगन्नाथो १६९ २८० संप्राप्तबोधयो जीवा २१३ ३६२ स बालो बलभद्रण . २३६ ३२१ स ब्रह्म-विजयाऽनीक २४७ ३५२ सभां विसृज्य राजाऽथ २७९३२२ सभ्याः सभाया भवतो ३०२ २४९ समं कुलक्रमेणैव .. ३०४ २४१ समक्ष सर्वसङ्घस्य ६५२ २५१ समग्रविद्यावैदुष्यो ३०४ ३८५ समें नृपसहस्रण ६८ ३०९ 'स मनोरथमागेण २४२ ३९७ समं भगीरयेनाऽथ ६२० २५. समं भ्रात्रा भवोद्विग्नो ७८ १८७ समं महेन्द्रसिंहेन ३९७ २९९ समं मुनिसहस्रेण समं मुनिसहस्रण १७० २७४ समं मुनिसहस्रेण ३९८ २६८ समये साधयिष्यामि ५८ १५९ समयेऽसूत सा सूनु ७६ ३९१ स मर्यादां समुल्लङ्घय ३४२ २४२ समस्तदेशप्रवर १६८ २१९ समस्तम्लेच्छभाषाज्ञः १५६ २१८ समस्तलोकाकाशेऽपि ८५ २८७ समं सुदर्शनेन त्वं १२५ ३७९ स महत्यपि साम्राज्ये ६ ३७५ स महर्षिगणेनापि १७ ३०७ समाहारा सुप्रदत्ता २०३ १७३ समाकृष्याऽपि पातालाद् ६ २२६ समागधवरदाम १९२ ३७० समागध-वरदाम- २७७ ३५३ समागमाः सापगमाः ३६९ २६७ समानचतुरस्रण समापतन्तं तमपि समापतन्तं साटो ४७२ २४६ समापतन्तं हस्तेन १९६ ३९५ समापतन्तो युगपत् ३४९ १७७ समायाहि महातन्द्रे ! १५ २३२ समाश्वास्य च तां सद्यः २५२ ३९७ समिद्भिः पिप्पलादीना ४९९ ३२९
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श्लोक नं. पृष्ठ नं.
स मिधीकृत्य गोशीर्ष २३९ १७४
स मुक्ताशेषनेपथ्य
५६ २१५
३५२ १९५
समुत्थाय व्यपक्रम्य समुत्पत्य मिलन्ति स्म ४९० १८१
३५८ २६७
९० २८७
३३६ २२४
३५३ २२४
७५ ३६६
८५ ३६७
७८ ३६६
८७ ३६७
२२ ३८७
१९४३७०
२४० ३७२ ३५५ २२४
७ १५७
९ २८४
समुत्पद्य समुत्पद्य समुत्पन्ना घटीयन्त्रे समुद्दिश्य विनीतांच समुद्रतीर्थ हृदिनी समुद्रदत्त इत्यासी समुद्रदय दत्तक
समुद्रदत्तस्तं प्रीत्या
समुद्रदत्ते विश्वस्से
समुद्रवसनां सोऽनु
समुद्रेणापि दत्तार्थ समूर्तिनोनारकाम्य समृगेन्द्रासन तंत्र सम्पदो निर्विशेषाणां सम्पदो यौवन रूपं सम्प्राप्तयौवन यौव सम्पूर्णकोटिवर्षां सम्पूर्ण पात्रम्भाभि सम्पूर्णमण्डलत्वेना संपूर्ण सैन्यः कतिभि सम्बन्धानात्मनो जन्तु सम्भवस्याभिनिर्वाणा
४२० ३२७ १५८ ३१८ २४२ १६४
२७ १६७ ५७२ ३३२ १०३ २९४ १७५ २७४
सम्भावनायाः प्रभुणा ४५ २३३ सम्भ्रमात् पादचारेण २२३ १९१ सम्भूय गच्छतस्तत्र २४१ १९२ सम्मान्यते स्म च क्वापि ५४४ १८३ सम्मेताहिं ततो गत्वा १४८ ३०६ सम्यक्त्वभाजः कस्याश्वि ९२९२१२ सम्यक्त्व मिथ्यात्वयोगा २५४ ३७२ सम्यक प्रमाणशास्त्राणि २७ १८५ सम्यक् श्रावकघम स ८ ३०१ सम्यकू श्रावकघम सा ४३० ३२७ संयतानि न चाऽक्षाणि १३१ २७३ ३१० ३५४
संयमः सूनृतं शौचं
संयमः सूरतं शौच
सयोगिकेवली पाति
नरकपिशीर्ष च सरागसंयमी देश
८२ २७७
२६२ ३७३
७९३ २३९
८८ ३०४
५४
श्लोक नं. पृष्ठ न
११४ ३०४ ९०२ २१२
३६ २७०
८२ २२८
१०६ २५९
२९१ १६६
३२७ २२३
७५ ३१६
२७३ ३७३
१३७ २३६
२३८ ३७२
१७१ २८०
राग संयमो देश सोऽपि हि देवचे स राज्ञामाहृतैर्दण्डे सरित्पुत्रा इव सरित् स रेजे राजभी राजा
स रोगेभ्यो नोद्विविजे
सरोवरे तया चेह
सर्वव्यापक श्रेष्ठ
सर्वस्वा
सर्वङ्कषः पिशुनवत्
सर्वजीयेषु देहा
सर्वज्ञमाता भवती सर्वज्ञशिष्यगणभृ सर्वसिद्धि देवाचा
सर्वज्ञो जितरागादि सर्वज्ञो भगवान् स्वामी
सर्वतः कुलशैलेभ्यो सर्वत्र मार्दवं कुर्या
२८७२४०
९१ ३०४ ८९२२११ ३४ १५८
४३० १८०
२७६ ३८४ १२४ ३९३
८ २९६ ७४ २८६ ३०८ १६६
सर्वसु सर्वथा दुःखलेशस्या सर्वथा निर्जिगीषेण सर्वदा निःप्रतीकारः सर्व दिग्विजयश्रीणाम् सर्व धान्यानि शाकांच सर्वेऽन्येऽप्यासन कम्पा सर्व पुरुषार्थचौरे सर्वपूर्वां साथ
८३ २१६ २२८ २२१ ३५४ १९६ २५३ ३८३ ३९२ २६८
३२८ २४२
सर्वसत्वात् सर्वमन्यदिदं तस्मा १०४ ३०० योगनिरोधेन ११८ ३०० सर्वरत्नमयादेव ७१३२०६ सर्वरत्ना रत्नसञ्च ७३६ २०७ सर्व यस्तासु देवाः ७३८ २०७ सर्वलक्षणसम्पूर्णा १८१ ३१९ विद्याधरैश्वर्य ४५८ ३२८ सर्व व्यसनानि २२२ २३८ सर्वशक्त्या विन्ध्यशक्ति १८१ ३४९ सर्वाः कुचाभ्यां वृत्ताभ्यां १४२ १७१ सर्वाङ्गमप्यकुरित सर्वाङ्गीण तिलकित सर्वाङ्गीण सुखप
.८१ ३६६
1
२८३ १७५ १९२ ३९५
श्लोक नं. पृष्ठ नं..
२१२२६२
३८४ १९६ ८९७ २१२.
सर्वाणि धात्रीकर्माणि सर्वात्मना जेतुकामी ७८ ३५८ सर्वात्मनाऽपि सज्जित्ला २२२ ३५१ सर्वाभिमुख्यतो नाथ सर्वाणि सर्व सर्वाभिसारिभिभूवै सर्वां व्ययम्पूरेण सर्वावस्थास सायन्ते सर्व जीवा व्यवहाय सर्वेन्द्रियानिकर
३७६ ३२५
१४४ १७१ ११२२८७२४१३७२
सर्वेऽपि वनस्पतयः
सबै भाषा सर्वजीतैः सर्वेषां कर्मणा शेषे सर्वेषां मन्त्रिणां मन्त्र सपना
श्रवाणां यो सर्वात्मनाऽन्येषु
सबै सर्वाभिसारेग सर्वेरपि छुरीस्थानैः सर्वोत्कृष्टायुषस्तार सर्वोपवनीहार
सव धीरसनीय सलीलचरणन्यासं
सवत्सरान्ते चलिता संपदा अमदारा संवर्तपुरा
स वाहनविधिं चाश्व
स विचक्रे पिशाचांय
स विद्यादुर्मदो दोषमा
स विद्याधर सामन्तः
स विद्रुमवितानोऽधि
स विनीतो विनीतेश
विहीनेन
स विवेक भोग्नः सं विंशतिस्थानकेभ्यः सविषादं जगादेव
२५४ ३८३
११३ २८७ २०५ २६२ २०७ ३६२ ४५२ ३२८
९१ ३१०
२७९ ३७३
७८ २८६
५४४ ३३१. ५३ १८६ ५४३ २०१
३५ २१५
३० १८५
१७२ १६२ ६० २९८ १०३ ३१० ६२९ ३३४
३३ १८६
१९८३९५ ५७६ ३३२
४६९ ३२८ १६० २१८ १२३ २१७
६ ३०१ १० २६९. १६ २८४
३६० ३२५ ५६० ३३१
१०७ ३१०
७२ ३६६
संवीत सदशश्वेत संवृतः संवरेणैवं
वृषभान्ज सम्यान ३५११९५ स व्रतं पालयस्तीक्ष्ण १० २९९ संशयान् नाथ ! हरसे ६२५ २५०.
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________________
लोक नं. पृष्ठ नं.
स शातिभोजनस्येव
५१४ ३३० ११३ २९४
-स शूला - Sभयदो बाहू संशोष्यन्ते निपिष्यन्ते १११ २८७ संश्लेष्यन्ते च शात्मल्यो ९५२८७ स सप्ततिधनुस्तुङ्गः ६४ २४६
स सप्ततिधनुस्तुङ्गः १९१ ३५०
स समितिप्राप्तनो
७३८७
२६० १७४
ससम्भ्रमः शतमखो संभ्रान्तस्तमित्यूचे
ख सम्यकू पालयन् मूल स सर्व नरदेवानी
स साधितानेक विद्य
संसार गत पतना
सारतरोपाय
बीजभूतानां स सारवास वैराग्य
संसारसरितो राग सारसामग सौंसारसागरेऽमुष्मिन् संसार सिन्धुतरणे सारसुखमूढेन संसारस्य स्वभायोऽयं
९२३७८
९०६ २४३
७ १६७
४३७ ३२७
६३५ २५१
७७ २७७
८ २९ ३४०
७१ ३६६
२१८ ३७१
१४४ २८९
३०८ ३५३ ८१ २७७
६३६ २५१ १४१ २३६
सांसारिकमहादुःख
९ ३७५ संसारिणचतुर्भेदाः ८६ २८७ संधारिणो द्विधा जीवाः २२६ २७१
सारे पिके सर्व
सारे दुःखाग्नि सारे श्रीमतां सर्व
९० ३१० १४३ २७३ ९८ १६० सारे विषयास्वाद २४९ २६३ ससारोऽयमिवानि १३९ २७३ स साकचत्वारिंशद् सिंह इस शौ
८४ ३९१
१६२ ३१८
स स्थिरमा भूपते
२७४ २४०
९६ २८७
स्मार्य मांगो सस्यतौ कृषौ यद्वत् ३४९ ३५५ स स्वामी मन्नियो मन्त्र ५ ३१३ सहकारा करास्वादा २५३ १९२ सहकाराचानमिव २६० २३९ सहजाता अपि क्वाऽपि ५१ २३३. सहमानो व्यथामेवं
६५. ३९१
सहस्रनयनो नाम
३२१ २२३
सहल पूर्विणां साधे सहस्र पूर्व सा
सहस्र मुनयस्तेऽपि सहस्र' मुनयस्तेऽपि
सहसयोजनां चोले
सहस्रयोजनायाम
सहलयोजनाचाऽन्ये
५५
सहस्रयोजनीमान
सहसयोजनोसेधः
४०२ २६८
६८६ २५२
१३७ २३०
५७३ २०२
६२७ २०४
६२४ २०४
३१८ १७६ २६२ २२१ १४४३६० २६१ १९३ ११६ २९४
सहसा भूयो ७३ ३०९ सहस्राराद् दिवच्युत्वा १०७ ३६७ सहस्रारा - ssनत-प्राण ७५२ २०७ सहस्रारो महाशुको
१७३ २६१
शेष द्वादशसु ६३७ २०४ सेहसः सैमिना ३९५ २६८ सहाऽचलेन पुत्रेण महानन्देन भ्रमतुः संहार - विद्यद्वियोगा
२०८ ३२० २१ १८५ ६६२ २०५ ६५० २०४ ७४ ३१६ २४० ३९७
९६ १६९
सहाधपञ्चपञ्चाश संहत्य स्वारिकादे सातपूरनाथस्य साक्षात् स्वप्नफलमिवा साद तीर्थकरी साक्षेपमिति कल्पतो सा गीते कलकण्ठीव साप
९१ १८७ ४७६ २४६ १४७ ३४८ ३८७ १९६ ८१ ३९१
साझानि वान्दशास्त्रागि सा च धर्मार्थकामानां
२३ १५८
२६ ३४४ २६५ १७५
सा जाहनवीव गम्भीरा सादर शिरमाssदाय सादरः सोदर मिथ ६९ २३४ सादिनां राजपुत्राणां ९४ ३९२ साघुत्रिलक्षी साध्वी षड् १६४ २७४ साधुसाध्यीनां साधु सायीम
११५ २९४ १४३ ३०५ साधु साध्विति सोदर्यैः १६१२३० साधु साध्वित्यमात्यंत- २२१ ३५१
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
१४४ ३०५
१६५ २७४
सहस्र रत्नकुम्भानां
सहस्रशः शरकरे :
सहस्राक्षः क्षणेनाऽपि
सहस्राणि नव पुनः
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
१०३ ३०४ ८५२ ३४१ २५१ २८३ १८५ २९०
साधूनां गर्हणा धर्मो साधूनां चतुरशीतिसाधूनां त्रीणि लक्षाणि साधूनां त्रीणि लक्षाणि
साधूनां दशसाहस्पा साध्वीशुभूषया
सान्तःपुरः स चिक्रीडो
११५ ३१७.
३४६ २२४ ११९ ३१७ सान्तः पुरस्तदाऽऽ रुह्य ३५६ २२४ सान्निध्यकारि देवानां २३१ २२१ सान्निध्यभावां देवानां ३४३ २२४ साऽपि सप्त महास्वप्नान् ९८ ३५९ सा भूयो भूपतिं स्माSSह ४४६ २४५ सामन्ताऽमात्यसेनानी
४७७ ३२९ सामानि सहसैस्तु ४१० १७९ सामानिकाः पारिश्याः ३४४ १७७ सामानिकाश्चेन्द्रसेमा ः ७७२२०८ सामान्यस्यापि पुरतो
२९४२४०
९९२५९
यत् परित्रज्यासायमारगवीथीषु
सान्तःपुर परीवारः सान्तःपुरोऽपि हि सदो -
कुमारः किं सायाहन्यजितस्वामी सारमत्र हि संसारे सार नाचलस्येव
९९२२८
८७९२११
१३ ३०७
२४० २३९ २५९ १९३
७६ २७७ ८१ १६९
५४ ३५७
सारस्वतप्रभृतयो सार्थक चेपसार्धद्विषष्टि सहस्रसार्धधन्वत्रिशत्युच्चो साधन्यदिशत्युत्रः
६७ २८६ ५६३ २०२
९३ २७२
५३ २८५
सार्धा द्वादश रूप्यस्य २१० ३७१ सार्धा द्वादशरूप्यस्य २९६ ३५३ साधी साधूनां ११२ ३०० सार्धानि षट् सहस्राणि ८५४ ३४१ सार्धाः षट्त्रिंशतं पूर्व- १०१ २७२ साल काणां ११६ २०० सार्प गामतानेय- २७७ ३९८ साईच्यानि मानि सांवत्सरिक दानान्ते सांवत्सरिकदानान्ते सांवत्सरिक दानान्ते
१७ ३७५ ६१ २९३
१०६ २७२ २६० २६४
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________________
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
श्लोक न. पृष्ठ नं
लोकनं. पृष्ठ नं. सावा योगमखिलं २८८ २६५ सावशेषाणि कर्माणि १०१ ३४७ सावहित्थमथाऽऽस्थानी २७२ ३२२ साशङ्कन हि विश्वा सो २२६ ३५१ साश्चर्यैर्वीक्ष्यमाणौ तौ १६१ ३९४ सा स्थलाम्भोरुहाणीव २५ २९७ सा स्व धन्धोःस्वतुल्यस्टा १५५ ३४९ साहित्यव ल्लीकुसुमैः २६ १८५ साहित्य शास्त्र सर्वस्य २५ १८५ सितपक्ष इव स्वल्प १५९ २१८ सिद्धालब्धिरपि व्याधि ४०० ४०२ सिद्धार्था नामतः सांहि २७१ २६४ सिद्धार्था नाम शुद्धान्त ४० २७० सिद्धार्था स्वामिनीकुक्षौ ६० २७९ सिद्धार्था स्वामिनी सनु ६३ २७१ सिद्धार्थी स्वामिनी सभ ६१ २७१ सिद्धिं सर्वार्थ सिद्धं च ३ १६७ सिद्धेनेव विवेकाक्षं ४० ३५७ सिद्धेषु गुरुषु बहु ३०० १६६ सिन्धुतीरादथ स्तम्भा १६५ २१९ सिन्धुदेवीं च मनसि १२९ २१७ सिन्धुदेवीव गङ्गाऽपि २६१ २२१ सिन्धुदेवींसद्मनश्च १२८ २१७ सिन्धुरस्कन्धमारूढ ७६ १५९ सिन्धोश्व निष्कुट प्रत्य ३७ ३८८ सिंहनाद हयग्रीव ७३० ३३७ सिंहनादादिव मृगा २५३ ३५२ सिंहलकान् बर्बरकां १६६ २१९ सिंहवध-चण्डसिंह ५५१ ३३१ सिंहसानं पादपीठं ७ २९४ सिंहासनं पादुके च ३१९ ३९९ सिंहासनप्रकम्पोऽभूत् ३७ १६८ सिंहासन निषण्णस्य ६४२ २५१ सिंहासनात् समुत्थाया ८३१ २१० सिंहसानादथोत्थाय २२८ १६४ सिंहासने च आसित्वा ९ २१४ सिंहासनेऽभ्या सितस्य २८१ ३५३ सिंहासने निषद्याथ १४५ १६१ . सिंहेन निहतानेक ३६६ ३२५ । सुकुमारतयाऽगस्य १८४ ३९५ सुकुमारा मर्मराला ४४ २५७ सक्ष्मेण काययोगेन ६७९ २५२ ।।
सुखं वैषयिकं ताभि ६३ २७७ सुखसुप्ता तदानींच ११८ ३५० सुखसुप्ता तदा भद्रा १९ ३८७ सुखसुप्ता तु सा देवी ५२ २७० सुखसुप्ता निशाशेषे २९ २९२ सुखाभासविमूढस्य ८० २५८ सुखित्वे कामललितै १४१ २८८ सुखिन परसौख्येन १५२ २७९ सुखे दुःखे भवे मोक्षे २७३ १९३ सुगन्धि मुखनिःश्वास २३ ३०७ सुगन्धि सुमनोदाम ३५ ३९४ सुगन्ध्युदकवणेण ४२७ १९८ सुग्रीवनृपतेस्तस्या २७ ३०२ सुग्रीवो नाम समभूद् १९ ३०१ सुघोषोऽथ महाघोषः ५१३ २०० सुजाता सौमनसा चा ७३४ २०७ सुत सकरलक्ष्माण' २९ ३५७ सुदर्शनाऽपि निःश्वस्ये २८ २७५ सुदुर्लभं दूरभन्थे ४४७ १९८ सुदेवत्व-भोगभूमि ४६२ १९९ सुधर्मा परिषद्भव्या २६६ १०५ सुधाकुण्डसदृक्षासु २३९ २६३ सुनिष्क्रमप्रवेशानि १४ ३६४ सुपर्णा गरुडचिह्ना । ५०८ २०० सुपार्श्व स्वामि निर्वाण १२२ ३०० सुपाश्च स्वाम्यपि ततो ६० २९३ सुप्तमेकफणे पञ्च ३० २९२ सुप्ता सप्त महास्वप्नान् २०५ ३५० सुप्रतिष्ठाकृतिलों को ८०० २०९ सुप्रभः पञ्चपञ्चाश ३०७ ३७४ सुमतिस्वामिनिर्वाणा १९६ २९० सुमनोगर्भधम्मिल्लाः ५४७ १८३ सुमित्रस्याऽप गृहिणी ६५ १६९ सुमित्रोऽप्यभ्यधादेव ८७ १८७ सुमेरावमराधीश ३८ ३४५ सुरत्व सामानिकत्व २६१ १६५ सुरसञ्चार्य माणेषु ३७२ १९६ सुराणामसुराणां च ५५१ २४८ सुरापाणसम प्राशा ४७० ९९९ . सुराष्ट्रान नांष्ट्रवत् क्रयन् १९४२१७ सुरा-ऽसुरकुमा रैश्व ९१ २७२
सुरासुरनराधीशा १२६ ३४८ सुरासुरनराधीशैः ५८ ३५७ सुरासुरनरेन्द्राणां १९७ ३२० सुरा-ऽसुर-नरेन्द्राणां २८६ ३७४ सुरा-सुर नरेन्द्राणां ६७ ३०९ सुरा-ऽसुरनरैमूर्ध्नि ८१ २९८ सुरा-ऽसुर-नरैरेव २४२ १९२ सुरा-ऽसुर-नरैः सर्वै २३९ १९२ सुरा-ऽसुर-नृकुमारैः ८९ ३१६ सुराऽसुरनृणामाशु २८७ २६५ सुराऽ सुर नृणां शक्र ११२ २७२ सुरा-ऽसुरसहस्रणां ६३ ३०९ सुरा-ऽसुराणामधिप ३९९ २६८ सुरा-ऽसुरेन्द्रवद् भक्त्या २६५ २६४ सुरा-ऽसुरेन्द्राः सद्योऽपि ७५ २९३ सुरा-ऽसुरेन्द्राः सद्योऽपि ७५ २९८ सुरा-ऽसुरेन्द्राः समव ६६ २८६ सुरा-ऽसुरेन्द्राः सर्वेऽपि ३९९ २६६ सुरा-ऽसुरैरप्यजय्या १३५ २३६ सुरूपोऽप्रतिरूपश्च ५२० २०० सुरै जयजयाराव १७० २६१ सुरैः सञ्चार्य माणानि ७६ २९८ सुरैः सञ्चायमाणेषु ३३१ २६६ सुलक्षणाऽप्याचचक्षे ८८३ २११ सुलक्षणाऽप्युवाचैच ८८९ २११ सुलक्षणाया द्वौ पुत्रौ १४ २७५ सुलक्षणा-शुद्धभट्टौ ८६४ २११ सुलभ भूमिसाम्राज्य १९६ ३१९ सुलेश्या ग्रह-नक्षत्र ५५० २०१ सुवर्णधपघटिका ५१ १६८ सुवर्णवर्ण क्रौञ्चाङ्क १८१ २८० सुवर्णादि प्रतिच्छन्द ११८ ३०५ सुवत्सक-विशालौ च ५२८ २०१ सुविधिः पुष्पदन्तश्वे ५० ३०२ सुविधिस्वामिनिर्वाणाद् १२५ ३११ सुविधिस्वामिनिर्वाणद् १५४ ३०६ सुव्यक्तगीतो द्वारेण २८४ ३२२ सुव्रताद्या णणाभृतो १७७ २९० सुस्पर्शः सुप्रभः पञ्च २९९ १७५ सुस्वादून्यन्न-पानानि ९७ २९९
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________________
लोक नं. पह नं.
पृथीभिरग्निवर्णाभिः
१३४ २८८
विकाश्मनस्तस्य २२५ १७३
सतिकावेश्मनस्तस्य
५५ ३१५
२०५ १९१
बृतैरिव स्तूयमानः सत्कारिपचमुखर
६७ २१६ ४०६४०२
सत्रात् भात् किञ्चिदुदीरितं सुनोगिता स्वाशा
सरिपादान् नमस्कृत्य
१८६ १६३
१३९ ३१८
९० १६०
३१६ ३५४
६१ २१५
सरिवर्थोऽप्युपमुख
सर्या - चन्द्रमसावेतौ
सेनया हस्त्यश्वरथ
सेनादेव्याः क्षणात् पार्श्वे २०७२६२
सेनाधिपति सामन्त सेनानीः सगरादेशाद् सेनापति महामात्य २८२ ३२२ सेनापति पतिः ३५९ २२४ सेनापते ! क्व तेजाच्छ १८७ सेनान्या दण्डन सेनान्या दण्डररनेन
२३७
४८ २१५
सेनान्या साधयामास
२४ २३२ २८५ २२२
३२ ३८८
४४ ३८८ देवाः ११८ ३१७ सेवाकर्षण वाणिज्य १३९ २८८ सेव्यमानः सदा ताभ्यां २०१ ३८१ सेव्यमानोऽपि गन्धर्वे ५ २९६ १०३ ३५९ १४६ ३०५
सेहिरे न तयोः पाद कोनत्रिंशत्सहसा सैनिक रणशौण्डीर: १५९ ३६९ सैन्यकेतुस्थितैः सिंहः ५९८ २३२ सैन्यप्राग्भारभारेण १९७ २२० सन्यान् सस्थापयामास १४० १६० सैन्येन चरण १६२ २१८ सोऽचिन्तयच्च धिगिदं ३७९४०१ सोऽन्तस्ततोऽन्येषु ८१ ३५८ सोऽय विद्युतसेन्य १७७ ३४९ सोऽथ विद्याधरो गत्वा ४६० ३२८ सोऽथ सकमयामासा २९९ २६२ मेदियौ ते ६७ २७७ सोदमिव दीक्षाया
२६४ १९३
सोऽनुमान्य नियाजासे ३३२ २२४ खेऽनुमेने पुमान् राज २०४ २२३ सोप्या
१३ २१४
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
१९२ ३५० १०५ २२९
वचिज्ञानात् ३७५ १७८
१२० २१७
सोऽन्ते पितुः प्राप सोपानभूतानि पदा सोऽपि
सोऽपि तं पण
सोऽपि द्वितीयप
सोऽपि पूर्ण सोऽनुप सोचे द्वारकानाथ
सोऽप्रमत्तस तो यः सोड्याच्यां वरदामाने सोमवा सोऽभूत् प्रत्यर्थिनां यु
सोऽभूत् सर्व कलापूर्ण सोऽभ्येत्य राजे समानि सोऽभ्युत्थाय जगन्नाथं सोऽमास्तविन्यस्त सोऽयं सीमन्तरचना ४२७ २४४ सोऽस्तु रमाकारी ५५३ ३३१ सोच्योरिव ६ १६७ सोऽवदत् क्षमाद्यामा १५७ ३६९ सोऽशीतिधनुरु २४७ ३२१ सोऽसि सोऽसि नासि नासि ४१७ २४४ सोऽखपाणिः कृपालु १०९२५९ सोsस्तु मित्रममित्रोवा १५७ ३८० सौचम कल्पादारभ्य ७८२ २०८ सोच कचिपति सोचमाचिपति atra देवलोकस्यो सौधमिव भूमिष्ठं सोच शाखिनः पाक सोर्मेन्द्रः पूर्वजन्म सोमेन्द्रः सोमेन्द्रस्य चत्वारो सोचमानकल्प तु सोधेषु वलभी १२४ २७९ सौन्दयेन स्वकीयेन १२३ १६१ सोवितं ३४६ २४२ सोम्मापयष्णवती ५ ३८९ ०५४ २०७
३९ ३६५
३४ ३०२
३२३ १०६
३२६ १७६ ५१७ १८२
३१५ ३९९
२६० १९३ ५२३ १८२
७६० २०८
४२० १७९ १७४१९०
सोमनस प्रीतिकर
यता राना सवस्तिहर
८५० ३४१
६७ ३९१
३०८ ३७४
२३४ ३५१ २५६ ३७२ २७ ३८७
१०२२१७ २० २१९ २८ १८६ १४१ २१८ ३०३ २६५ १६ २१४
सोविदले क स्वावलम्बश्रवणो
नं. पृष्ठ नं.
३३१ २२४
२२९ १६३
५४ २१५:
२२४२२० ११५ २१७
१०७ २१७ ८० ३६६
स्कन्धावार चक्रभृतः
स्कन्धावारप्रमाणेन
स्वन्यावारमधिष्ठाय
स्कन्धावारमुपेत्याऽथ ताकत इव स्तम्बेरमानुकारीणि १५७ १७१ स्तम्भनुगुण महिथायैः २७३ १६५ स्तम्भे स्तम्भे च कदली ५७० १८४ श्री क्षेत्रपादियो ३८९ १९७ स्त्रीणां विवादो निर्णेतु १६६२८० स्त्री- पुसानङ्गसेवाग्राः श्रीसने तदुपादाय
१०२३०४ ३३५ २२४ १४९२१८
७४ २२८
४७ २९७
शस्त्रेणापि चेत् कामो १९३९० स्तुत्वेति तूष्णीं प्राप्तेषु १०७३५३ स्तुत्वेति प्रभुमीशाना स्तुत्वेति सत्सु तूष्णींके २०० ३६२ स्तुत्वेति स्वामिनं राजा २८८१९३ स्वत्वेति स्वामिनं शको ४८ ३७६ स्तुत्वैवं कृतमौनेषु २२१ ३७१ स्तुत्य नाथमादाय स्तु पञ्चधा भूत्वे स्तुत्वैवं पञ्चधाभूये
५० २८५ २०६ २६२ ८५ २७१
स्तुत्वैवं प्रभुमादान
४६ २९२
स्तुत्वैव किरते श स्तुत्त्वैव' बिरते शक्रे स्तुत्य विरते शक्रे ३५० २६७
१३८ २७३ २२७२८२
स्तुत्वैवमादिभिः श्लोकः ५०२ १८२
६२ २९८ ४४ १८६ १२२२८८
श्रीनयोग्य तिलक स्त्रीरत्नवज रत्नानि
स्तूयमानो गीयमानः स्थगीवायभवन् केचि
स्थलचारिषु चोत्पन्ना स्थविरभावकान् धर्म १५५ ३०६ स्थानात् ततश्च भगवान् ३११ २६५ स्थाने स्थाने तोरणानि २३१ ३२१ स्थाने स्थाने नागराणां १८० २६४ स्थाने स्थाने नागरी ६४० १५१ स्थास्यामो वयमत्रैव १४२ १६१ स्थितोऽत्र वृषभस्वामी १०४ २२९
Page #319
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श्लोक नं. पृष्ठ नं.
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
स्थित्वा सिंहासने रूप्य ८१४ ३४० स्थिरः सुमेरुवत् स्वामी २९३. २४० स्थैर्य प्रभावना भक्तिः ९०४ २१२ स्नपयाम्यथ चर्चामि ? ७६ ३१६ स्नात्राङ्गरागनेपथ्या ४४ ३६५ स्नानगन्धोदकैस्तैश्च ११३ २२९ स्नानपीठं तदारुह्य ३६० २२४ स्नानागार हयग्रीवो ५५८ ३३१ स्निग्धाञ्जनद्युतिवपुः ८७ ३५८ स्नेहात् पुरुषसिंहोऽपि ८८ ३७८ स्पर्शन रसनं घ्राण २३३ ३७१ स्फुलिरुङ्गल्बणैः सोल्का ६९१ ३३६ स्मरन् पञ्चपरमेष्ठि ३०५ १६६ स्मरन् स्वप्रतिपन्नं च ३४८ २२५ स्मरन् स्वां मातर पश्य १२९ ३७९ स्मरेषुजातवैधुर्य १९४ ३१९ स्मित्वोवाच त्रिपृष्ठोऽपि ७२० ३३७ स्मृतमात्रोपस्थित त १७९ ३८० स्मेरकोकनदोद्दाम ३१३ २२३ स्मेराणि जानुदनानि ३५८ १९६ स्यन्दनान्यन्यदपि यत् १७२ २१९ स्याच्छैशवे मातृमुख १३८ २८८ स्याद्वादवादप्रासाद १२१ २२९ स्याद्वादवादोपन्यास २८ १८५ स्युः कषायाः क्रोध-मान २२६ ३८२ स्युरेकाक्ष-विकलाक्ष २२८ ३७१ स्यूतानीवाऽत्मना नित्यं ४३ . ३०८ स्यूते च स्वगुणैः स्वान्ते २५. ३०७ स्वकञ्चकान्-कञ्चकिनः १७७ २३७ स्वच्छन्दं क्रीडतोऽन्येा २५९ ३२२ स्वच्छन्दं विचरन्तौ तौ ८ १८५ स्वच्छस्वादुजलास्तत्र ८ १५७ स्वच्छ-स्वादुपयःपूर्णः . २२१ ३२० स्वच्छे तोये तोयजेषु' १३८ ३९३ स्वजनानामुपरोधात् १०३ ३४३ स्व ज्ञापयित्वा कृत्वा च ४६ ३१५ स्वं ज्ञापयित्वा स्वामिन्यै २०११७३ स्वतः सुगन्धयो गन्ध : १०० २९९ स्वतोऽन्यतश्च सर्वाभ्यो ३५२२६७ स्वदारमात्रसन्तोपो....१०१ :३०४ स्वधम तद्धन इन......३२६.२२३
स्वनामश्रवणात् केयं २३७ ३९७ स्वपाणिपङ्कजानुष्ठे २१८५ स्वपुरीवद्धनापूर्ण ३३२४०० स्वप्नानां त्रिंशतस्तेषां ९९ १७० स्वप्ने स्वयम्प्रभाधौता ४१९ ३२७ स्व' बान्धवमिवाऽभीष्टं १४३ २१८ स्वबुद्धया रचितान्यन्य २७१ ३८३ स्वमित्र तत्र चापश्य १२२ ३९३ स्व मोक्षकालज्ञात्वाऽय २९८ ३७४ स्वं मोक्षकालं ज्ञात्वाऽथ २५८ २८३ स्वय कृतां तां शिविका २७३ २६४ स्वयकृतैः कर्मपाशैः ५३ १५८ स्वयं कृपालुना सोऽथ ७४ २३४ स्वय' गन्तुं प्रवृत्तेषु २७१ ३७३ स्वयम्प्रभा त्रिपृष्ठश्च ४९० ३२९ स्वयम्प्रभाऽपि सम्प्राप्य ४२१ ३२० स्वयम्प्रभायां जज्ञाते ८६७ ३४२ स्वयम्बुद्धो बोधितश्च २०३ २८१ स्वयं बुद्धोऽसि भगव १३९ १८९ स्वय भयपरीणामः ९. ३०४ स्वयम्भुवः कुमारत्वे २३१ ३६३ स्वयम्भुवश्चोपरिष्टा १६६ ३६१ स्वयम्भूः पूरयामास १३८ ३६० स्वयम्भूरपि चैश्वर्य २२९ ३६३ स्वयम्भूरप्युवाचैवं १५२ ३६० स्वयम्भूरमणाम्भोधि ५५१ २०१ स्वयम्भूरिति तस्यापि १०० ३५९ स्वयम्भूः सह भद्रण १८९३६१ स्वय विश्लिष्टकपाटे ३५.३८८ स्वयं समन्तात् सामन्तै ७३ १५९ स्वय संवाहिकीभूय २२९ १७३ स्वय स्त्रीलम्पटः कोऽपि ३९७ २४३ स्वरलसर्वस्वमिव ३४ १६८ स्वराष्ट्र-परराष्ट्रेभ्यो ३९२ १९७ स्वरूप-परस्पाभ्यां . ४४९१९८ स्वरूपेणोर्वशी-रम्भा १४१.३४८ स्वर्गराज्येऽपि न भ्राजे । ४२ ३०२ स्वर्ग पुरन्दरेणेव ६३ २३३ स्वर्ण दानं रौप्यदान १५९ ३०६ स्वर्ण प्रभागौरमपि ११८:१७० स्वर्णरत्नमयास्तत्र ,२२ :१५८
स्वर्ण-रत्नशिलास्तोमै ३५७ १९६ स्वर्णरत्नोपलस्तां च ७९.३३९ स्वर्ण राशिभिरुत्तङ्गः ६१ १६८ स्वरूप्यरत्नमया ४२१ १७९ स्वर्णशैलशितोरस्कः ९५ २७२ स्वर्णानामेव सन्तापः १.४ १८८ स्वल्पेष्वप्यपराधेषु ३२७ ३५४ स्ववेश्मननयनायोप ३०७ १९४ स्वशासनमिवावन्या ५ ३५६ स्वसुतायाः पतिरभूत् २०६ ३२० स्वसूनोहरिदासस्य ११ २२६ स्वसैन्य चक्रिसेनानीः २०५ २२० स्वस्त्यस्तु तुभ्य तुभ्यं च २६८ २४० स्वस्य लोकद्वयोच्छित्यै २३७ ३८२ स्वस्य व्यापादकं ज्ञात्वा १४ २२६ स्वस्वप्रमाणसंस्थान १०२ २२९ स्वस्वभद्रासनासीना ३५८ २२४ स्व स्वस्थान जग्मुरिन्द्राः ४.७२६८ स्वस्तिकन्यस्त मुक्तासु २१ २८४ स्वाख्यातः खलु धर्मोऽय ३०९३५४ स्वाधीन राज्यमुत्सृज्य ३३४ ३८५ स्वाधीने मय्यपि सदा २५ २७५ स्वाधीने मुक्तिमार्गेऽपि ४५४ १९९ स्वान्यासनान्यलञ्चक्रुः ३१२ १७६ स्वान्ववायसरोहंसी २५ ३४४ स्वाभाविकी हि ऋजुता ३०६ ३८५ स्वामिनः कृतषष्ठस्यो ३१७ २६६ स्वामिनः केवलज्ञान ३४८ १९५ स्वामिन देवदूष्येण ३४ ३५७ स्वामिन पश्यतां दूराद् ३४७ १७७ स्वामिनः प्रतिरूपाणि ८१ २९३ स्वामिनः प्रतिरूपाणि २०८ ३७१ स्वामिनः प्रतिरूपाणि ३७५ १९६ स्वामिनः प्रथमे कोपे १२३ ३५९ स्वामिन शीतलमथ ८० ३०९ स्वामिनः स्वच्छलावण्य १९९ २८१ स्वामिनः स्वामिमातुश्च ३० ३५७ स्वामिनः स्वामि मातुश्च १५८ २६० स्वामिनः स्वामिमातुश्व ११४ १७३ स्वामिनः स्वामिशिष्याणां ३०.३७४ स्वामिना न वय त्यक्ता १७७.१९०
Page #320
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________________
लोक न. पृष्ठ न
लोक नं. पृष्ठ नं. स्वामिनाऽयं दीयमान २७० २४. स्वामिनीसदनात् पांसु ११. १७० स्वामिनो ददती द्रव्य १०५ २७२ स्वामिनो देशनान्ते च १०८.२.९४ स्वामिन् ! किं करवाणीति १२८ ३१७ स्वामिन् ! दशमतीर्थेश ३९ ३०८ स्वामिन्नमीषां स्वप्नानां १७४ ३१९ स्वामिन्नस्माभिरशाना २३८ २२१ स्वामिन्निहैव भरत ३१९ २२३ स्वामिन् ! पीयूषगण्डूष १९९ ३६२ स्वामिन्या विजयादेव्याः ५२ १६८ स्वामिन् ! बतायाऽयमपि ६११ २५० स्वामिन् ! विमानाद् विजयात्
४१५ १८२ स्वामिपर्षदि तस्यां तं ८३५ २१. स्वामिपादाम्बुजाभ्यणे १६१ २६. स्वामिरूपानुपरूपाणि ३७६ १९६ स्वामिश्चतुर्थतीर्थेश ७५ २७१ स्वामिसङ्गात् तदम्भोऽगात्
४४० १८० स्वामिसूतिगृहाच्छको ८४ ३१६ स्वामिहात् ततः शक्रो ८७ २७२ स्वामी कोटि साष्टलक्षां २५८ २६४ स्वामी दिव्ये च सभव २८५ ३५३ स्वामी भवविरक्तोऽय ९३ ३१६ स्वामी भवविरक्तोऽपि ५३ ३०२ स्वामी वः सकुटुम्बाना ५०२ ३२९ स्वाभ्यग्रे तत्र चोत्क्षिप्त ८४७ ३४१ स्वाम्यङ्ग वासयामास ६९० २५२ स्वाम्यङिघ्र पीठमध्यास्य ३८२६२६८ स्वाम्यङिध्रपीठमध्यास्य ६५६ २५१ स्वाम्यध्रिपीठस्थो वज्र १५७ २७४ स्वाम्यागमनशंसिभ्य १८८ ३६१ स्वाम्यूचे दानशीलस्त्व २१ २२६ स्वाराज्यसम्भवामेतां ८२ ३१६ स्वेच्छाविहारश्रद्धाऽपि १९६ २३७ स्वेशप्रबोधपिशुनो ७३९ ३३७
हयग्रीवस्य सैन्येऽपि हयग्रीवाङ्ग सस्कार ७५१ ३३८ हयग्रीवाज्ञया. तत्र ४०८ ३२७ हयग्रीवोऽपि सम्पश्यः . ६६०, ३३५ हयग्रीवोऽप्युवाचैव २६५ ३२१ हयानां हेषमाणानां ७१ २२८ हरिद्धरिकान्तानद्यौ ५८० २०२ हरिरुत्तारयामासा ४६९ १८१ हरिः स्वदेशसीमान्ते ५९४ ३३३ हरेरुरसि तुम्बाप १८५ ३८१ हरेः सिंहासनस्थस्य ३१६ १७६ हर्ष-शोकविमूढेन २०८ १९१ हर्षान्नराश्च नार्यश्च ५७४ १८४ हर्षाश्रुधारया तुल्य १५९ ३९४ हलादिशस्त्रः पाट्यन्ते १०१ २८७ हंसरोमाञ्चितैस्तूल ५७२ १८४ हस्तन्यस्तकपोलाः के ८ २३२ हस्तिरत्न समारुह्य १८४ २१९ हस्तेनौजायमानेन १२६ १६१ हस्तेऽर्हन्त गृहीत्वाऽर्हन् ५६ ३१५ हस्त्यश्वसाधनाध्यक्ष १६८ १९० हस्त्यश्वाद्याददे पश्चात् ११४.३५९ हहा ! स्त्रीगर्भनरके १७१२८९ हहा हा ! जठरागार १७२ २९० हहो ! किमिदमित्युच्चैः ५३५.२४८ हहो ! गन्तव्यमस्माभिः १५३ १७१ हा केशपाश ! मुञ्चाऽद्य १७ २३२ हा ! दुःस्थिता भ्रातरो मे ६९ २५७ हा नाथ नाथ ! देवेन २४९ ३९७ हा! नाथाऽहमनाथाऽस्मि ४३४ २४५ हा प्राणेश ! प्रभो! देव!१५३ २८९ हा प्रिय! स्तबकीभूत ४३८ २४५ हा प्रिया ! हा विमानानि १६६ २८९ हार-केयूर-ताडक २३५१६४ हारच शशिमालांच ३१८ ३९९ हा रत्नघटिता स्तम्भाः १६८ २८९ हा! रलसोपानचिताः १६९ २८९ हास-शोक-ष-हर्षा ३२५ ३८५ हा स्वामिपुत्राः क गताः २५. २३२ हा हतोऽस्म्युग्रविधिना ८९६ ३४३ हित्वा कषायान् मलबत् २८४ १९३ हिमं सात हेमन्ते ७. २७७
लोक नं. पृष्ठ न. हिमाचलकुमारस्य २५८ २२१ हिमाद्रोषधीभद्र १८७ २६१ हिमान्याऽप्यपराभूतः ६८ २९८ हिरण्य-स्वणारत्नानां ५११ १८२ हिंसका अप्युपकृता १३५ २७३ हिंसादीनामेकतमो १५९ १६२ हिंसा-ऽनृत-स्तेयाऽब्रह्म १२० ३०५ हिंसेव सर्वपापानां ३१६ ३८५ ही! स्याद् युगान्तः को ह्येव
३२३ २४१ हुतारान इवाऽऽहुत्या ५४२ ३३१ हृत्वाऽवस्वापनी देव्या ५४ ३४५ हृदय कुट्टयन्तः स्वं १७८ २३७ हृदयस्थेन शल्येने . ८९ ३६७ हृदयस्थो विदित्वाऽस्मान् २५२ ३२१ हृदयेन समं विश्व १५७ २८९ हुदिनीनाथ-हुदिनी ३४ ३०८ दृष्टः प्रदक्षिणीकृत्य ३१० १७६ हृष्टा तैदोहदैः पूर्णः ५६ २७६ हृष्टो नैमित्तिकं राजा ४५९ ३२८ हे कुमाराः ! क्यूय स्थ १८४ २३७ हेतुरासनकम्पस्य २५३ १७४ हे पारिजात! मन्दार! १७० २८९ हेमद्युती सार्धचतुः ५८ १८६ हेमन्ते हिमगहनाः १५२६९ हेमरत्नमयांश्चैव १८४ २६१ हेरम्बा इव नागास्यैः ६५४ ३३५ हे वत्सा ! हेतुना केन २१३ २२० हेषां विदधिरे केऽपि ४५५ १८० हेषितैबु हितैर्बन्दि ३०० २२३ हेमनेन निशीथेन ६९ २९८ हैमाः कुम्भाः प्रभासन्ते १३ ३५६ हैरण्यवतरवते ५६७ २०२
परिशिष्टं द्वितीयम् ॥ (द्वितीयतृतीयचतुर्थपर्वगत. विशेषनामसचिः)॥
अक्ष (यक्षः)
६७ ३९१ अग्नि (भवनपतिनिकायः ३९२ १७८ अग्नि (लोकान्तिकः) ७६३ २०८ अग्निकुमारः ५१२ २.. अग्निकुमारकः ६९४ २५३ अग्निजटी
४६२३२८
हन्त ! पुत्रादि यस्याल्प १५२ २३६ हन्यमानैर्दीर्यमाणैः ३७० ३२५ हयकर्णा गनक ६८३ २०५
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________________
-
लोक नं. पृष्ठ नं.
लाक नं. पृष्ठ नं.
लाक नं. पृष्ठ नं. ५३८ ३३१
१७.३४७
अग्निमाणवः (इन्द्रः)
७६५ ३३८ ३९३. १७८
अनिलभुः
७२ १८७ ७६ १८७ २५४ १९२
अग्निशर्मा अग्निशिखः (इन्द्रः)
अग्निशिखा अङ्गः
अच्युतः (द्वादशः कल्प:) ७५२ २०७
७५९ २०८
७६७ २०८ अच्युतः (इन्द्रः) ७६७ २०८
७७८ २०८ ७८९ २०८ ७९१ २०८ १८९ २६१ २६३ २६४ ३०१ २६५ ७१ २७१ ४० २८५ १२६ २९५ ३९ ३४५ ८४ ३५८
१७४ २६१
४९ ३९० ३९१ १७८ १७४ २६१ ५१२ २०० ५७४ २४९ ७५१ ३३८ ६६६ २०५ १७८ ३१९ १८० ३१९ २०९ ३२० २१० ३२० २१४ ३२० २३५ ३२१ २४१ ३२१ २४५ ३२१ ३०८ ३२३ ३७१ ३२५ ३७७ ३२५ ३८६ ३२६ ४०८ ३२७ ५३३ ३३१ ६३५ ३३४
अङ्गदेशः अचलः (बलदेवः)
अच्युतकल्पः अच्युतनाथ ४८० १८१ अच्युतपतिः ४७. १८१
१९१ २६१ अच्युता (शासनदेवी) १८२ २९. अच्युतेन्द्रः ४३४ १८०
३२३ १९५ १६४ २३७ २०५ २३८ ६१६ २५० ६७२ २५२
६८५ २५२ अजितबलो (शासनदेवी) ८४५ २१. अजितस्वामी
२ १५७ २ १८५ २२ १८५ ४० १८६ ५४ १८६ ७३ १८७ ८३ १८७ ९४ १८७ ९६ १८७ १०९ १८८ ११५ १८८ १४० १८९ १५६ १८९ १७४ १९० २५९ १९३ २८० १९३ ४३६ १९८ १०८ २२९ १४७ २३०
६८ २३४ ६१७ २५० ६६५ २५२
४०५ २६८ भजितेश
४५ १८६ ७० १८७ १७८ १९०
४९२ १८१ १७२ २६१ १८३ २६१ १९० २६१ २७२ २६४
७७६ ३३९ ८९० ३४२ ९.८ ३४३
अचलानुजः
७०९ ३३७ ७५६ ३३८ ८१४ ३४०
अजमुख (सेल्छजातिः) ६८२ २०५ अजित (जिनः) १०३ १७०
५७९ १८४
१३८ ३०५ अजितजिनेश्वरः १२२६ अजितनाथ
___३९ १८६ ... ९७. १८७
अच्युतः (इन्द्रः)
३७१ १७८ ४६२ १७१ ४६३ १८१ ४६७ १८१
Page #322
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________________
प्रलोक नं. पृष्ठ नं.
अपचन (गिरिः)
अनिवृत्तिबादर अनुत्तरः
लोक नं. पृष्ठ नं. ३३७ १९५
७.१८७ ७६७ २०८ ७७९ २०८ ७८१ २०८
होक नं. पृष्ठनं. अपाग्भरतवर्ष
२४१ २२१ १५९ ३१८ २६.३२२ १९२ ३७०
७४ ३७७ अपागुरुचक:
१४५ २६० अपाच्यरुचकशैल
२०२ १७३ अपायविचयध्यान ४५६ १९९ अपूर्वकरण (गुणस्थानम्) ३३५ १९५
अप्रतिरूपः (व्यन्तरेन्द्रः) ४०५ १७९
५२० २०० अप्रमत्तसंयत (गुणस्थानम्)
अजना (शक्रपत्नी) ७३४ २०७ अम्जनागिरिः अञ्जनाचलः
५२६ १८२
५२७ १८२ अ-जनाद्रि ५२२ १८२
५२४ १८२ ७२१ २०६
२४० ३२१ अणपन्निक (व्यन्तरदेवनिकायः) .
४१२ १७९ अतिकायः (व्यन्तरेन्द्रः) ४०४ १७९
५२२ २०१
१७८ २६१ अतिपाण्डुकम्बला (मेरौ शिला)
३५१ १७७ ४८३ १८१ १७१ २६१ ३३ २९२ ३५ २९७ ३८ ३४५ ३१ ३५७ ३२ ३६५
१६७ ३९८ १३९ ३४८
७३ ३५८ अनुत्तरक्मिान (कल्पातीतदेवलोकः)
३०६ १६६ अनुराधा
२९ २९७ ३० २९७ ३१ २९७ ३२ २९७ ४७ २९७
७४ २९८ अन्तरद्वीपः
६८४ २०५
६८७ २०५ अन्तरद्वीपजः ६८४ २०५ अन्तरायक
७७९ ३३९ अन्तरायकर्म ४७५ १९९
१३३ ३०५ अन्ध्रः (म्लेच्छजातिः) ६८१ २०५
११० २१७ अन्ध्र (देशः) ७० ३४६ अपरविदेह
६०४ २०३
अप्सराः (ईशानपत्नी) ७३५ २०७ अब्धिः
६०८ २५० अब्धिकुमारः
५१३ २०० अभयकरा (शित्रिका) २०५ २८१ अभिनन्दन
१ २६९ ८९ २७२ ९२ २७२ ९९ २७२ १०१ २७२
१२८ २३५
'अतिबल: अतिभूतिः अनग्न (कल्पद्रुमः) अनन्तजित्
१७५ २७४
२६३ २८३ अभीचि (नक्षत्रम्) ५० २७०
६२ २७१ ११० २७२ १२२ २७३
५३५ २०१ अमरपतिः (नृपः) १ ३८७
१८ ३८७ अमरपुरी अमराचलः (मेरुः) ११९ २३५ अमरावती (स्वर्गनगरी) २४ १५८
५१२ १८२
२९९ ३७४ ३०२ ३७४
२३६४
६४ ३७७ ५९८ २०३
६०२२०३ अपराजितम् (अनुत्तरविमानम्)
६१५ २०३ ७५५ २०७
३३ २८५ अपराजित
४२८४ अपराजिता (दिक्कुमारी) १९९ १७३ अपराजिता (पुष्करिणी) ७२३ २०६ अपस्वापनिका (निद्रा) १६८ २६१
६८ २७१ अपस्वापनी
८६ २७२
अनन्तनाथः
२०१३७०
२२१ ३७१ अनन्तस्वामी
१३६४ २०३ ३७० ३०३ ३७४
३६२ ३८६ अनिन्दिता (दिक्कुमारी) १६३ १७२
४५ ३८८ अमला (ईशानपत्नी) : ७३५ २०७ अमितः (इन्द्रः) ३९१ १७८
५१४ २००
१७६ २६१ अमितवाहनः (इन्द्रः) ३९४ १७८
५४ ३४५
Page #323
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________________
नं. पृष्ठ नं.
५१४ २००
१७६ २६१ अमोघा (पुष्करिणी) ७२२ २०६ अम्बुधि: (विजयायाः स्वप्नः ११)
३२ १६८
अम्बुधिः (वैजयन्त्याः स्वप्नः) ८० १६९
अम्मका
अम्मादेवी अयोध्या
अरिष्टा (नगरी)
अरुण ( लोकान्तिक)
अरुणद्वीप:
अरुणप्रभः
७६ ३७७
८० ३७७
१२० ३७९
१७४ १७२
अरपाक ( म्लेच्छजातिः ) ६८०२०५
९ २९१
अरिदमन अरिन्दमसूरिः ( राजर्षिः) ६७ १५९
८१ १५९
८९ १६०
१३१ १६१
१४४ १६१
२७५ १७५ २३५ १९२
३८ २३३
३९ २३३
२१ २६९
११६ २७३
१४८ २७९
२१० ३२०
२४७ १६४
२६४ १६५
३ ३६४
१९६ ३८१
३५० ३८६
७६३ २०८
७३९ २०७
६३५ २०४
६३६ २०४
अरुणवर : (द्वीप: सागरश्च) ७४०२०७ अरुणाभासः (अब्धिः ) ७३९ २०७
अरुणाभास ( द्वीपसमुद्रौ ) ७४० २०७ अर्ककीर्तिः
४१८ ३२७
४४८ ३२८
अर्चि (प) ७३४ २०७
अर्थशास्त्र'
अर्धभरत'
६२
अर्श्वभारत
अर्बुद (देशः)
अलका (देवपूः) अलकापति (कुबेरः)
6 नं. पृष्ठ नं.
२९ १८५
१९२३५०
१३१ ३६०
१६६ ३३८
४६५ ३२८
७३ ३४६
अवधिज्ञान
३२० २२३
६४ १६९
अलघुपराक्रमः (ईशानसेनानीः )
३५५ १७७
३७१ १७८
अलम्बुसा (दिक्कुमारी) २१० १७३
१४७ २६० ४९ ३१५
अल्पवातः (तनुवातः ) ५०१ २०० अवधि (ज्ञानम् )
३७ १६८ ३८५ १७८
३९४ १७८
३४७ १९५
१३० २१८
१४० २१८
१४८ २१८
१३७ २६०
१६२ २६०
२११ ३६२
३०९ १६६
३८ १६८
३५३ १७७
३७५ १७८
१८९१९०
३४८ १९५
७८३ २०८
१७२ २६१
३९२ २६८
१६४ २७४
२५२ २८३
१८६ २९०
११६२९४
२९३ ३७४
३५४ ३८६
३१४३९९
अवधिज्ञान अबन्तिः अवशिष्ठः (इन्द्रः) अवसर्पिणी (कालः)
अवस्वापनी (निद्रा)
३३७ १७७ ५०९ १८२ ८३ ३१६
अवस्वापिनी
अव्याबाध (लोकान्तिक) ७६३ २०८
२४७ ३९७
अशनिवेगः
२५८ ३९७
२६४ ३९७
२६८ ३९८
२७२ ३९८
अशुभनाम (कर्म) अशोकः (वृक्षः)
श्लोक नं. पृष्ठ नं
१४३ ३०५ ९०. २३४
१७६ २६१. ४२ १६८
१४९ १७१
१८१ १७२
२५७ १७४
१२५ २५९.
अशोकपादपः
२७९३९८
२८२ ३९८
१२३ ३०५
२४५ १९२
७२५ २०७
११३ ३१०
२९२ ३५३
१६९ २८०
२१८ २८२
७७८ ३३९
२९१ ३५३ १८३ ३६१ २०२३८१ अश्मक (देशः) ७० ३४६ अवकण्ठः (अश्वग्रीवः ) ७४८ ३३८ अश्वकन्धर ६५८ ३३५ अश्वकर्ण (अन्तरद्वीपः ) ६९५ २०६ अश्वगल (अश्वग्रीवः ) ६१४ ३३३ अन्यग्रीवः
"
२४६ ३२१ २५९ ३२२ ३२७ ३२४
३३६ ३२४
३४३ ३२४
३५८ ३२५.
३६४ ३२५
४३७ ३२७.
४५३ ३२८.
४६८ ३२८.
Page #324
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________________
लोक नं. पृष्ठ नं.
..
कोक नं. पृष्ट नं.
५.२ ३२९ ५०७ ३३.
५३० ३३१ ५३४ ३३१ ५७० ३३२ ५७३ ३३२
६०३ ३३३ अश्वपुर
७५ ३७७ १६६ ३८० १९२ ३८१
२०१ ३८१ अश्वबिन्दु (निमित्तशः) २६२ ३२२ अश्वभद्र (ग्रामः) ९१ २३४ अश्वमुखः (अन्तरद्वीपः) ६९४ २०६ अश्वरत्नम्
३४ २१५
१८९ २३७ अश्वसेनः
९६ ३९२ १०३ ३९२ १११ ३९२ ३०९ ३९९
आमाषिकः (अन्तरदीपः)६८९ २०५ आमर्षः (लब्धिः) ३८७ ४०१ आम्रकुन्जासन (योगासनम्)८५ १६० आयुः (कर्म) आरण (एकादशःकल्पः) ७५२ २०७
७६६ २०८ ७७८ २०८
१९१ २६१ आरणाऽच्युतकल्प ४३५ १८. आरणाऽच्युतकल्पेन्द्रः ४६५ १८१ आर्यवेद
९२१६९
२७४२४. आर्षभिः (भरतः) १४० ३४८ आवर्तः (विजयः) ६०० २०३ आवर्तकः (देशः) ७३ ३४६ आवलिः (परिव्रानकः) २१ २२६
२२ २२६ २४ २२६
२५ २२६ आहारकशरीर ७१ १८७
अष्टापदगिरिः ११३ २२८
१२६ २२८
१५७ २३० अष्टापदतीर्थ १५० २३० आपदशैलः
२९ २७० अष्टापदाद्रि १६५ २३०
१६७ २३० ५३६ २४८ ५४१ २४८ ५५९ २४८
५६४ २४९ असिः (रत्नम्) १९० २३७ असिताक्षः (देव:) १९३ ३९५ असिरन
३३ २१५
२०६ २२० अहि (व्यन्तरनिकायः) ४०३ १७९ अहिच्छत्र (नगरम्) ६६८ २०५
“आ” आग्नेय (अस्त्रम्) ७.५ ३३६ आग्नेयबाण आचामाम्लवर्धमान (तपः) ३४१ ४०० आज्ञाविचय ४४९ १९८ आदर्श (मङ्गलम्) ४६४ १८१ आदर्शमुखः (अन्तरद्वीपः) ६९३ २०६ आदिजिनेश्वरः १०७ २२९ आदित्य (इन्द्रः) ४१६ १७९ आदित्य (लोकान्तिक) ७६३ २०८ आदित्यम् (नवमं ग्रैवेयकम्)७५४ २०७ आदित्ययशाः (भरतपुत्रः) १२६ २३५
१२७ २३५ 'आनत (नवमकल्पः) - ७५२ २०७
७६५ २०८ ७९५ २०९ १०२ २५९
११३ २५९ आनन्दः (गणधरः) १०९ ३१०
११०.३१० आनन्दकरी (नगरी) ६९ ३५८ -आनन्दा (दिक्कुमारी) १९९ १७३ . आपात (किरातजातिः) २०० २२०
२३५ २२१ ३६ ३८८
अश्वसेनभूः (सनत्कुमारः) २७९ ३९८ - अश्वसेनसूः , १७४ ३९५
आश्वसेनिः
२५७ ३९७ २८३ ३९८ ५६१ २४९
• अष्टम (तपः)
अष्टमङ्गली
इक्ष्वाकु (वंशः)
१४८ १७१ ६७४ २०५ १०४ २५९
३१ २७० १२८ २७९
२०३४४
१५३ ३८. इक्ष्वाकुकुल ८२२ ३४. इश्वाकुवंश
४ १६७ ९४ ३४७
१२ ३६४ इक्षुवर (द्वीप-समुद्रौ) ७०३ २०६
६३७ २०४ ११६ २७३ ११९ २७३
- अष्टमभक्तः
अष्टाधिकरणीग्रन्थः (अष्टापदः
१८१ २१९ ११७ २२९ ५७. २४९ २७८ २४०
इन्दुद्वीपः ।
...८७ २२८
९८ २२८
१०५ २२९ १३०. २२९
२९ २३२ ५३३ २४८ ५.३८ २४८
"इलादेवी (दिक्कुमारी) २०७ १७३ 'ईष्वाकारः (पर्वतः) ६४३ २०५
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
ईशानः (इन्द्रः )
ईशानकल्प
( द्वितीयकल्पः ) ७५१
ईशान कल्पाधिपतिः
ईशानपतिः
ईशानाशः
लोक नं. पृष्ठ नं.
ईशानाधिपतिः
ईशानेन्द्रः
ईश्वरः
३६२ १७७
३७२ १७८
७३२ २०७
उच्चैर्गो (कर्म)
उद्र ( म्लेच्छजातिः ) उत्कटिका ( योगासनम् ) उपदेशः)
उत्तरकुरुक्षेत्रम्
२०७
१७३ २६१
१९३ २६१
२०६ २६२
७६० २०८
७३५ २०८
४० ३४५
३७ ३०२
३६ २९२
३२ ३५७
३९ ३७६
३४ ३६५
५२४ १८२
३७ २९७
५२७ २०१
१८० २६१
७८४ ३३९
२३६ ३५१
ईश्वर: पाताळ) ६२३ २०४
"-g"
उचालन (योगासनम्) उम्र: ( उग्रकुलीना आर्याः)
७२ २७१
८५ २७१
१८५ २८१
४१ २८५
४७ २९७
४५ ३४५
८६ १६०
६७४ २०५
१३२ ३०५
६७९ २०५ ८२ १५९
६८ ३४६
५९६ २०३
६५४ २०४
उत्तरकुरूः (इन्द्राच्या नगरी) ७३७ २०७
उत्तरभद्रपदा
उदयाचल
उदयादि
उन्मझा
उत्तरानन्दा (दिक्कुमारी) १९९१७३
उदकसीमक : (पर्वतः )
६३१२०४
उदकाभासः (पर्वतः )
उदगुरुचक
उमादेवी
उर्वशी
६४
ऊर्ध्वश्चक (गिरिः)
क्षमालिनी ऋषभ (प्रथमनिनः )
ऋषभकुडाह
ऋषभध्वजः
ऋषभस्वामी
लोक नं. पृष्ठ नं.
३६० ३५५
२६ ३५६
२८ ३५६
१७६ ३६१
रूपमस्वामी
२०४ ३५०
२०५ ३५०
१४१ ३४८
१४७ ३४८
३२० ३९९
३२९ ४००
उल्कामुखः (अन्तरद्वीपः ) ६९७ २०६
उष्ट्रासन (योगासनम्)
८४ १५९
६३१ २०४
२०९ १७३
२०८ १६३
५८५ २४९
-33
१९१२१९
१९२२१९
२७५ २२२
३४ ३८८
१८८ १७२
५८६ ३३२
१०३ १७०
५२५ १८२
९६ २२८
६८५ २५२
३८ ३८८
२५५ २२१
४५४ ३२८
९४ ३४७
२ १६७
५६ १६८
९८ १८७
९९ २२८
ऋषभा (शाश्वतप्रतिमा) ७१४२०६
५२७ २०१ १७९२६१
५२७ २०१
१७९ २६१
पाल (इन्द्रः)
ऋषिवादितः (ध्वन्तरनिकायः)
एकावलि (तपः )
एकावली
एकोरुक (दीप.)
श्लोक नं. पृष्ठ नं..
१०० २२८.
१०१ २२९.
११९२२९.
१२० २३५
१६४ २३७
१९४ २३७
५५३ २४८
एकनासा (दिक्कुमारी) २०७ १७३
एकत्वतम् (शुक्लध्यानम्)
ऐरायणः
ऐखत
ऐरावत
ऐशान ( इन्द्रः )
ऐशान (कल्पः )
पेशानकल्प
ऐशानकल्येन्द्रः ऐशानपतिः
ऐशानमुरेश्वरः
५२५ २०१
३४० १९५
३०२ १६६
१८ २६९
१२ ३०१
६८७ २०५
६८८ २०५
४२ ३६५
५६७ २०२
६६ ३९१
४२८ १७९ ७४३ २०७ ३ २५५ ३ ३६४
७६० २०८
७७६ २०८
७८९ २०८
७९३ २०९
४८३ १८१
३.३९ ४००
३५३ १७७
३.६१ १७७
३६५ १७८.
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
लोक नं. पृष्ठ नः
"ओ" ओघस्वरा (चमरस्य घण्टा) ३७६ १७८
३७७ १७८
ककुमान् (वैजयन्त्याःस्वप्नः २)
कच्छ
६०० २०३
काञ्चनम् काञ्चनाचल (मेरुः) ३७३ १७८ कामधेनुः
४०१ २४४ काम्पील्य (पुरी) ६६८ २०५
११ ३५६ कायाः (म्लेच्छजातिः) ६७९ २०५ कायोत्सर्ग (योगासनम्) ८६ १६० कार्दमक (पर्वतः) ६३५ २०४ काल: (व्यन्तरेन्द्रः) ४०४ १७९
५१९ २०० १७६ २६१
२७८ २२२ कालमुख (म्लेच्छजातिः) १६७ २१९ कालराक्षसिधा (विद्या) ५८५ ३३२ कालिका (देवी). १६१ २७४ कालिन्दी कालोदः (समुद्रः) ५३७ २०१
६४३ २०४ ६४४ २०४ ७४४ २०७
७४७ २०७ काशिदेशः १२ २९१ काशी
६६७ २०५ कासी (देशः) ५७४ २४९ किन्नर (व्यन्तरनिकायः) ४०३ १७९ किन्नरः (व्यन्तरेन्द्रः) ४०४ १७९
५१८ २०० ५२१ २०१ १७७ २६१
१९७ ३८१ किम्पुरुष (न्यन्तरनिकायः) ४०३ १७९
५१८ २०० ५२१ २०१ ५२२ २०१
१७७ २६१ किम्पुरुषः (व्यन्तरेन्द्रः) ४०६ १७९ किरात
६८२ २०५ कीर्तिवीय (भरतसन्ताने नृपः)
१३१ २३६ कीर्तिसाधु
३६८ ३८६ कुञ्च (म्लेच्छजातिः) ६८१ २०५
लोक नं. पृष्ठ नं. कुणालक (देशः) ६७१ २०५ कुण्डलद्वीपः ७४१ २०७ कुण्डलोदः (समुद्रः) ७४१ २०७ कुन्तल (देशः) ७० ३४६ कुबेरः
१०५ २७२ ५८ २८६ ५४. ३६५ ३१५ ३९९ ३१९ ३९९ ३२१ ३९९ ३२५ ३९९ ३३१ ४००
३३२ ४०० कुमार (यक्षः) २८६ ३५३ कुमुद्ः (विजयः) ६०३ २०३ कुमुदा (पुष्करिणी) ७२३ २०६ कुम्भः (मङ्गलम्) ४६४ १८१ कुरु (युगलिकक्षेत्रम्) १३ १५७
५९६ २०३ ६५४ २०४ ६६८ २०५ ६७४ २०५ ५७३ २४९
कच्छदेश
१६८ २१९ कच्छवान् (विजयः) ६.० २०३ कच्छ (विजयः) ३ ३१३ कनकावलि (तपः). ३०२ १६६ कन्दर्पा (देवी) १९९ ३८१ कपालीकरण (योगासनम्) ८५ १६० कफ (कफौषधिः) ३८७ ४०१ कमला (लक्ष्मीः, विजयायाः स्वप्नः ४)
२५ १६७ कमलालया
११७ २५९ कम्बोजः (देशः) करी (स्वप्नः) ५३ २७१ करुण (वृक्षप्रकारः) २४९ १९२ कर्कोटकः (पर्वतः) ६३५ २०४
६३६ २०४ कर्णप्रावरणः (अन्तरद्वीपः)६९५ २०६ कार्य
६७६ २०५ कलिङ्गः
६६७ २०५
६८ ३४६ कल्पद्रमः
१७० २८९ कश्मीरकः
७५ ३४६ काकन्दी
१४ ३०१ काकिणी (रत्नम्) ३९ २१५
२५६ २२१ २७५ २२२ १९० २३७ ३३ ३८८
३८ ३८८ काञ्चनपुर
२८ २२६
१ ३८९ काञ्चनपुरी
६६७ २०५
कुरुजाङ्गलदेश ६८ ३९१ कुरुबकः (वृक्षः) २४५ १९२ कुरुवंशः
३१६ ३९९
३४३ ४०० कुरुवंश
२४१ ३९७ कुलक्ष (म्लेच्छजातिः) ६८२ २०५ कुलाचल
२१६ २३८ कुलार्य
६७५ २०५ कुलूत (देशः)
७५ ३४६ कुशार्तक (देशः) ६६८ २०५ कुसुमः (यक्षः) १८० २९० कूरगडक
२४९ ३८३ कूष्माण्डः (व्यन्तरनिकायः)
५२६ २०१ कृतमाल (देवः) १४६ २१८
१४८ २१८ १५२ २१८
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
१७८ २१९ ५४ २२७ ३०.३८८
२९४ ३७४
कृतवर्मा (नृपः)
१५ ३५६
.. लोक नं. पृष्ठ नं. कौवेर (देशः) ७२ ३४६ कौशाम्बी
८४८ २१. १८ २८४
७४ ३६६ कौशाम्बीपुरी ६६९ २०५ कौस्तुभः (मणिः) ६२५ ३३४ क्रय (देंशः) ७१ ३४६ ऋन्दितः (इन्द्रः) ५२६ २०१ क्रौञ्चक (म्लेच्छजातिः) ६८१ २०५ क्रौञ्चनिघदन (योगासनम् ) ८४ १५९ क्रौञ्चस्वरा (घण्टा) ३९६ १७८ क्षपकश्रेणि:
२१२ २८१
७४ २९८ कृपाणस्तम्भनी (विद्या) ५८२ ३३२ कृशानुवर्षिगी , ५८४ ३३२ कृष्णः (त्रिपृष्ठः) २४१ ३२१ कृष्णराजी (इन्द्राण्या नगरी)
७३७ २०७ कृष्णा (इन्द्राण्या नगरी) ७३७ २०७ केकय (देशः) ७५ ३४६ केतक (देशः) ६७२ २०५ केतकीद्रुमः २४३ १९२ केयूप (पातालकलशः) ६२३ २०४ केरल (देशः) ७१ ३४६ केवलम् (ज्ञानम्) २८९ २६५
३१७ २६६ ३९६ २६८ २५७ २८३ १२० २९५
केबलज्ञानम्
६५ २८६
७४ २९३ केवलज्ञानी
११७ २९४ केवलम् (ज्ञानम्) ३४४ १९५
२१३ २८१
७४ २९८ ७८० ३३९ १९८ ३७० १९५ ३८१
२७७ ३८४ केशवः (त्रिपृष्ठः) ३७१ ३२५
६७८ ३३५ ८७९ ३४२ १८६ ३७०
२१८ ३८२ केसरी (हृदः) ५७५ २०२ केसरिपुङ्गवः (जिनमातु: स्वप्नः)
३४ ३१४ केसरो , ,,११७२५९ कैकय (म्लेच्छजातिः) ६८२ २०५ कैटभ (मधुनृपस्य भ्राता) १०० ३६७ कैलाशः (पर्वतः) -६३५ २०४
६३६ २०४ कैशिक (देशः) ७१ ३४६ कोटिशिला कोटीवर्ष (नगरी) ६७२ २०५ कोल्लाद्रि (देशः) ७२ ३४६ कोशल (देशः) ५७३ २४९ कोसल: , ६६७ २०५
केवलज्ञान
८५७३४१
९२३४७ ३५८ ३५६ १०० १८८ ३४८ १९५ ६६४ २५२ ३१९ २६६ १२३ २७३ १६६ २७४ २५३ २८३ १८७ २९०
१ २९१ ४१ २९२
लोणमोह (गुणस्थानम्) ३३९ १९५ क्षीरनिधिः (क्षीरसमुद्रः) १०१ ३१६ क्षीरनीरधिः
२६ २७० क्षीरमहोदधिः १२१ २५९ क्षीरवर (द्वीप-समुद्रौ) ७०२ २०६ क्षीरोदः
२६१ १९३ १८६ २६१ २८६ २६५ २८७ २६५ .१११ २७२
२१५ ३५१
३२४ ३९९ क्षीरोदधिः
१७ ३४४ क्षीरोदसागर
४२४ १७९ क्षुद्रहिमवान् (पर्वतः) ५७३ २०२
६१६ २०३
६८५ २०५ क्षुद्रहिमवत्कुमार २४८ २२१
२५१ २२१ क्षुद्रहिमगिरि २३७ १७४
२४७ २२१
२४९ २२१ क्षुद्रहिमाचलकुमारकः २५२ २२१ क्षेत्रार्य
६६५ २०५ क्षेमा (नगरी) क्षेमपुरी
३ २५५ ३ २९१
कौङ्कण (कुङ्कणदेशीय) ११२ २१७
७१ ३४६ कौबेरीवति (दंशः) ७६ ३४६ कौमोदकी (गदा) ६२४ ३३४.
६८९ २३६
८९३४७ २८४ ३५३
३३१ ३५४
कौलाचार्य
खण्डप्रपाता
४१ ३८८
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रलोक नं. पृष्ठ ने.
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
२६४ २२२ २६५ २२२ २७३ २२२
१६२ २३० गङ्गासागरः (तीर्थम्) ५७६ २४९ गजः (विजयायाः स्वप्नः१) २२ १६७ गजः (वैजयन्त्याः स्वप्नः१) ७५ १६९ गजकर्णः (अन्तद्वीपः) ६८३ २०५
४२ ३८८ खस (म्लेच्छजातिः) ६८० २०५ खासिक
६८० २०५
गजपतिः (जिनमातुःस्वप्नः)
""
गगनवल्लभपुर
३१९ २२३ ३३३ २२४ १७ १६७
लोक नं. पृष्ठ नं. गृहाधिपः (रत्नम्) ३६ २१५
____३५९ २२४ गोकर्ण: (अन्तरद्वीपः) ६९१ २०६ गोड (म्लेच्छ जातिः) ६७९ २०५ गोत्रकर्म . " ४७४ १९९ गोदोहिकासन (योगासनम् ) ८२ १५९ गोमूत्रिकाक्रम १८७ २१९ गोशीषचन्दन २०३ १६३
२३१ १६४ २३७ १७४ ४६३ १८१
३१२१४ २५३ २२१ ११५ २२९ ४३८ २४५ ६४३ २५१ ६८९ २५२ ६९२ २५२ ६९३ २५२ १५५ २६० १५७ २६०
गजपुर
६६८ २०५ गजमुखः (अन्तरद्वीपः) ६८२ २०५
६९३ २०६ गजरत्नम्
३३ २१५ १८९ २३७
३२ ३८८
३३१ ४०० गणिपिटक
४४७ १९८ गन्धमादन (पर्वतः) ५९५ २०३ गन्धर्व (व्यन्तरनिकायः) ४०३ १७९
गङ्गा
गङ्गा (देवी)
१०८ १७० ४२९ १८० ५७९ २०२ ५८३ २०२ २९ २१४ ५० २१५ २५९ २२१ २६० २२१ २६१ २२१ २६३ २२२ २७७ २२२ २८० २२२
५३ २२७ १६० २३० १६५ २३० १६७ २३० ५७५ २४९
३५ ३५७
गङ्गा (नदी)
५२३ २.१ गन्धापाती (पर्वतः) ६१७ २०३ गन्धिला (विजयः) ६०४ २०३ गन्धिलावती
६०४२०३ गरुडध्वजः (त्रिपृष्ठः) ७०२ ३३६ गर्दतोय (लोकान्तिक) ७६३ २०८ गाङ्ग (निष्कुट) २६९ २२२
४४ ३८८ गारुडास्त्रम्
७०२ ३३६ गारुडी (विद्या) ५८२ ३३२ गीतयशा (व्यन्तरेन्द्रः) १७९ २६१ गीतयशा
४०६ १७९ गीतरतिः ४०४ १७९
१७८ २६१ गुणमञ्जरी
१४१ ३४८ १५० ३४८ १५४ ३४९ १५७ ३४९ १५९ ३४९
१८३ ३५० गुणवती गुणस्थान गूढदन्तः (अन्तरद्वीपः) ६९९ २०६
५७८ २४९ १२८ २५९
६ २६९ ४७१ ३२८ ५५८ ३३१ १९५ ३५०
५२३६५
१८६३८१ गोशुभ (गणधरः) ७८३ ३३९
८४९ ३४१ गोस्तूप (पर्वत) ६३१ २०४ गोस्तूपा (पुष्करिणी) ७२२ २०६ गोस्तूपा (ईशानपत्नी) ७३५ २०७ गौड (देशः)
६७ ३४६ गौतमद्वीपः ६३८ २०४ ग्रीष्म
१३२ ३९३ वेषक
७० १८७ ७६७ २०८ ७७८ २०८ ७७९ २०८ ७९१ २०८ ७९६ २०९ ८०४ २.९
३९ ३८८ ४३ ३८८
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
मटोक नं. पृष्ठ नं.
१५५ ३६०
, श्लोक नं. पृष्ठ नं.
१७ २८४ .३३ २८५ २११ ३६२ - ९ ३८७
१५८ ३६१
१६८ ३६१ १७६ ३७० १८२ ३७० १८६ ३७० १८८ ३७० १८९ ३७०
घनदन्तकः (अन्तरद्वीपः) ६९९ २०६ धनवात (वायुविशेषः) १४८ १६१
४८० १९९ ४९२ २०० ७६९ २०८
२७५ २६४ घनवातः
४९३ २०० घन गहन (नृपः) ४ २२६
७ २२६
३९ २२७ घनाब्धिः (घनोदधिः) ४९१ २००
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
२७ २१४ २८ २१४ १९० २३७
२०१ २३८ चक्रधरः
७६७ ३३८ चक्रमारणी (विद्या) ५८४ ३३२ चक्रम्
४३ २१५ ८४ २१६ १०६ २१७ १२७ २१७ १३६ २१८ १४५ २१८ १८६ २१९ १९९ २२० २४६ २२१ २४७ २२१ २६४ २२२ ७१२ ३३७ ७२४ ३३७ ७२५ ३३७ ७२६ ३३७ ७२७ ३३७
घनाम्भोधि (उदधिविशेषः) १४८ १६१
४८० १९९ ४९४ २०० ४९५ २०० ५०१ २००
५०२ २०० घनोदधि
७६८ २०८
७६९ २०८ घृतवर (द्वीप-समुद्रौ) ७०३ २०६ घृतोदः
७४५ २०७ घोटककण्ठ (अश्वग्रीवः) ४०९ ३२७ घोरघोषिणी (विद्या) ५८७ ३३२
१९९ ३७० १८१ ३८१ १८२ ३८१ १८३ ३८१ १८७ ३८१ १८८ ३८१ २.२ ३८१ २१ ३८७ २५ ३८७ २८१ ३९८ ३११ २९९ ३१२३९९ ३६७ ४०१ ४०० १९७
२५९२२१ १२९७ २२३ १७७ ३१९ २३ ३८७ ११ २१४ १५ २१४ १९ २१४ २१ २१४ २६ २१४ ४७ २१५
७४० ३३८ ७४२ ३३८
चक्ररत्न
.
:.
चक्ररत्नम्
चक्र
९३७ २१३
२१४ ६ २१४ ८ २१४ ९ २१४ १४ २१४ १७ २१४ २० २१४ २५ २१४
७४६ ३३८ ७४७ ३३८ ७४८ ३३८ ७६२ ३३८ १९२ ३५० २५९ ३५२ २६३ ३५२ २६४ ३५२ २६८ ३५२ २६९ ३५२ २७० ३५२ २७२ ३५२ २८१ ३५३ १५४ ३६०
१०९ २१७ चञ्चुक (म्लेच्छजातिः) ६८१ २०५ चण्डदीधितिमण्डलम् (निनमातुः स्वप्नः)
११९ २५९ चण्डवेगः
२६७ ३२२
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
चण्डशोसन : (नृपः)
चण्ड सिंह: चन्दनगोधा
चन्द्र (इन्द्रः) चन्द्रप्रभः (जिनः)
चन्द्रप्रभप्रभुः
चन्द्रयशाः (राना) चन्द्रवेग
नं. पृष्ठ नं.
२७९ ३२२
२८६ ३२३
३०५ ३२३
३०६ ३२३
३२७ ३२४
३३७ ३२४
३४४ ३२४
७७ ३६६
८४ ३६७
९२ ३६७
६६१ ३३५
१३ २३२
४१६ १७९
१ २९६
२ २९६
४९ २९७
१११ ३००
१२१ ३००
१२२ ३००
१५२ ३०६
६३ ३०९
१११ ३००
५८६ ३३२
२४० ३९७
२६० ३९७
२६२३९७
२६३ ३९७
२६७ ३९८
२८३ ३९८
२८६ ३९८
चन्द्रा (देवी)
२८८ ३५३ चन्द्राङ्क (चन्द्रलान्छन) ३२२९७ -चन्द्रानना (पुरी) १३ २९६ चन्द्रानना ( शाश्वतप्रतिमा) ७१४२०६ चन्द्रिका (गदा) चमर (इन्द्रः)
६२६ ३३४ ३७४ १७८
३७७ १७८
४०२ १७९
५१०२००
६९७ २५३ १७३ २६१
चमरचचा ( चमरेन्द्रनगरी )
चमरेन्द्रः
६९
लोक नं. पृष्ठ नं.
२४३ २८२ ४८० ३२९
३७४ १७८
३७८ १७८
५२६ १८२
चम्पक ( दधिमुखाद्रिः ) ७२५ २०७
चम्पा
६६६ २०५
चर्मरत्न
चामरः ( प्रातिहार्यम् ) चारित्रमोहनीय (कर्म)
चारु ( गणधर : )
१३ ३४४ ३५९ ३५५ १९१ २३७
३१ ३८८
१६०२१८
१६३.२१९
१७४२१९
३८ २१५
२२३ २२०
२२५ २२०
२२६ २२०
२२७ २२०
२४३ २२१
३६९ १९६ ४७१ १९९
९३ ३०४
१०५ ३०४
३७४ २६७
३८२ २६८
""
चित्तरक्षगुरु: ( मुनिः ) चित्रकनका (दिक्कुमारी) २१२ चित्रकूट
१० ३६४
१७३
५९३ २०३
५९७ २०३
चित्रगुप्ता (दिक्कुमारी) २०३ १७३
चित्रा (दिक्कुमारी )
२१२ १७३
१४८ २६०
३४ २८५
३७ २८५
६० २८६
४८७ ३२९ ५१४ १८२
चिमाङ्ग (कल्पदुः) चिन्तामणिः
१८८१९०
चीन ( म्लेच्छजातिः) ६८१ २०५ चूत दधिमुखाद्रि
७२५ २०७
चेदि (देशः ) स्पतयः
चैपम
चेत्पपादप
चैत्यवृष्टः
चौड (देशः )
छत्र (रत्नम् )
छत्रत्रयम्
छत्रत्रयी
छत्रत्रितय
छत्ररत्नम्
कन. पृष्ठ नं.
६७० २०५
३२७ २६६
३६८ १९६
३३२ २६६
२१५ २८२
६७ २८६
७० २९३ ७७ २९८ ७९६ ३३९ १८४ ३६१
२०५ ३७१
जगतीजालकटक
कान्नन्दगुरुः
जगन्नन्दन
जनार्दन (वासुदेव)
२०६ ३७१
३७३ १९६
१२६ २७३
जन्मकल्याण
८०४३४०
२०३३८१
७१ ३४६
१९१ २३७
३६९ १९६
२२५ २८२
३२९ २६६
३८ २१५
२२७ २२०
छन्नदशदिक् (विद्या) ५८५ ३३२
२२५ २२०
२२६ २२०
नगती ( जम्बूद्वीपस्थ ) ६११ २०३
६१५ २०३
१५ २९१
१० ३०१
४२७ ३२७
७३७ ३३७
७६२ ३३८
८७२ ३४२
१८९ ३७०
२०० २६२
४४ २९२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
लोक नं. पृष्ठ नं.
प्रलोक नं. पृष्ठ नं..
जम्बूदीप
जाह्नवी
१० ३८७ ६८ ३९१ ६६३. २०५
३८४ १७८ १६७ २३०. १८१ ३१९. २६ ३४४
जम्बुद्वीप्य जम्बू (वृक्षः) जयनृपः
६६ ३५८
जाह्नवीदेवी
२८५ २२२ जितशत्रु: (अजितस्वामिनः पिता)
जयन्तम् (अनुत्तरविमानम्)
६१५ २०३
७५५ २०७ जयन्ता (पुष्करिणी) ७२३ २०६ जयन्ती (दिक्कुमारी) १९९ १७३
२५ ३४४
४६ १६८
जया
३२ ३४५
जयादेवी
४० १६८ १४७ १७१ २५६ १७४ २७५ १७५ ३२८ १७६ ३५९ १७७ ५३२ २०१ ५३६ २०१ ५५२ २०१ ५५४ २०१ ५६६ २०२ ६११ २०३ ६१९ २०३ ६४१ २०४ ६४२ २०४ ७४८ २०७ ३९ २१५ ७२ २१६ १०० २१७ २२० २३८ २८९ २४० १०३ २५९
३ २६९ २१ २६९ १२१ २७८ १८२८४ १२ २९१ २७ २९१
३६ ३४५ ५३ ३४५
जलकान्त (इन्द्रः)
जलप्रभः (इन्द्रः)
१४८ १७१ २५६ १७४ २७५ १७५ ३५९ १७७. ५०४ १८२ ५१० १८२ ५२१ १८२ ५३० १८३ ५५६. १८३. २८ १८५ ७२ १८७. ७८ १८७. ९. १८७ ९४ १८७. ९७ १८७. ९८ १८७. १०४ २५९. २१५ २६२ २३५ २६३ २४३ २६३
४४ ३९० ५२३९..
६५ ३४६ ३९१ १७८ ५१३ २०० १७५ २६१ ३९४ १७८ ५१३ २०० १७५ २६१ ३८७ ४०१
४४ २२७ १२९ २२८ १३५ २२८ १४८ २३० १५७ २३० १६१ २३० १६२ २३० १६७ २३० ५९९ २५० १५५ २३० ६६८ २०५
७६ ३४६ ६७४ २०५ ६१३ २०३ ६१४ २०३
जल्ल (जल्लौषधिः) जह्नु
जितारि
१३ ३४४ १३२ ३४८
जिनधर्मः (अष्ठिपुत्रः)
जहूनुकुमारः जाङ्गल (देशः)
६२ ३९१
७४ ३५८ १२ ३६४ ६९ ३६६ ७४ ३६६ १५ ३७५ ६४ ३७७
जात्यार्य
जालकटकः
जुम्भकाः (देवाः)
५१० १८२ ५५८ १८३.
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________________
पलोकनं. पृष्ठ नं.
प्रलोक नं. पृष्ठ नं.
। लोक न. पृष्ठ नं.
१८६ २३७ १९३ २३७ ५६० २४९ ५६१ २४९ ५६३ २४९ ५६८ २४९ ६०० २५० ६७४ २०५
८७ ३०४ ७७९ ३३९ ४६५ १९९
८५ ३०३ ४६७ १९९
शात (वंशः) ज्ञान-दर्शनावारकर्म ज्ञान-दृष्टयावरणीय ज्ञानावरणकर्म ज्ञानावरणीय ज्ञानावृतिः
टङ्कण (देशः)
१६६ २१९
डाहल (देशः) ७० ३४६ डोम्बिलिक (म्लेच्छनातिः) ६८० २०५
२५४ २६३ १०५ २७२
५८ २८६ जोनक (म्लेच्छजातिः) १६७ २१९ ज्योतिः (देवनिक्रायः) ३८१ १९६
८०९ ३४० ज्योतिर्माला. ४४६ ३२८
४४८ ३२८ ज्योतिर्लोकः ५३१ २०१ ज्योतिश्चक्रम् ५३३ २०१ ज्योतिष्कः
३६० १९६ ५२९ २०१ ५३१ २०१ २१० २६१ ३२४ २६६ ३३७ २६६ ३३८ २६६ ७९३ ३३९
८०८ ३४० ज्वलनजटी. ४१६ ३२७
४६१ ३२८ ४६८ ३२८ ४७६ ३२९ ४८३ ३२९ ४९६ ३२९ ४९९ ३२९ ५०४ ३३० ५२१ ३३० ५३१ ३३० ५३५ ३३१ ५३७ ३३१ ५७४ ३३१ ५७९ ३३२ ५८९ ३३२ ६२३ ३३४ ६४३ ३३४ ६६२ ३३५
७७६ ३३९ ज्वलनंप्रमः
१४० २३० १४४ २३० १७० २३७
ताम्रलिप्त (देशः). ६८ ३४६ ताम्रलिप्ती (नगरी) ६६७ २०५ तारकः (राजपुत्रः) १९० ३५०
२१६१५५१ २१७३५१ २२१ ३५१ २३१ ३५१ २३४ ३५१ २४१ ३५१ २४२ ३५१ २४५ ३५१ २५३ ३५२ २५४ ३५२ २५६ ३५२ २५७ ३५२ २५८ ३५२ २५९ ३५२ २६४ ३५२ २७० ३५२ २७३ ३५२ २७४ ३५२
२७५ ३५२ ताासन (योगासनम्) ८५ १६० तिङ्गिच्छ (द्रहः) ५७५ २०२ तिया जम्भक (देवनातिः) १७९ १९० तिर्यगायुबः
१.८ ३०४ तिलोत्तमा (अप्सराः) २३६ २६३
३२६ ३९९ तीक्ष्णशूलिनी (विद्या) ५८५ ३३२ तीर्थकृन्नाम (कर्म) २ ३०१ तीर्थकृन्नामकर्म १९ २६९
११९ २७८ १६ २८४ १० २९१ ११ २९६ ११ ३४४
तक्षक (नागः)
६९४ ३३६
तनुवात (वायुविशेषः) १४८ १६१
४८० १९९ ४९३ २००
४९८ २०० तनुवायुः
४९६ २०० तपनः (सूर्यः, वैजयन्त्याः स्वप्नः ७)
७८ १६९ तमःप्रभा (नरकची) ३६४ ३५५
३०४ ३७४ तमिस्रकारिणी (विद्या) ५८३ ३३२ तमिस्रा (गुहा) २९ ३८७ तमिस्रा
१४५ २१८ १७८ २१९ १८६ २१९ १९४ २१९ २७३ २२२ ५४ २२७ २४ २९१
तुम्बुरु (यक्षः)
२४६ २८३ ३२८ ४०० ६८२ २०५
ताम्रपर्णी
तुरग (म्लेच्लजातिः)
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक नं. पृष्ठ नं.
श्लाक नं. पृष्ठ ने
श्लोक नं. पृष्ठ न..
६१५ ३३३ ६१६ ३३३ ६२१ ३३४ ६२४ ३३४ ६२८ ३३४ ६३५ ३३४ ६४१ ३३४ ६४३ ३३४ ६५८.३३५ ६५९ ३३५ ६६६ ३३५ ६८० ३३६ ६८४ ३३६ ६८८ ३३६
तुषित (लोकान्तिक) ७६३ २०८ तोयधारा (दिक्कुमारी) १६३ १७२ तोतलः (देशः) ६७ ३४६ त्रसनाडी
७९७२०९ त्रिकलिङ्ग (देशः) १११ ३१७ त्रिकूटाद्रि
३२ २२६
५५९ २४८ त्रिखण्डभरतक्षेत्र
२१६ ३८२ त्रिपृष्ठः (वासुदेवः) २३४ ३२१
२३५ ३२१ २४५ ३२१ २८१ ३२२ २९१ ३२३ २९४ ३२३ ३०० ३२३ ३०८ ३२३ ३०९३२३ ३१४ २२३ ३४४ ३२४ ३६३ ३२५ ३८६ ३२६ ३८९ ३२६ ४०५ ३२६ ४११ ३२७ ४१४ ३२७ ४५७ ३२८ ४६४ ३२८ ४६६ ३२८ ४८३ ३२९ ४८७ ३२९ ४९० ३२९ ५०४ ३३०
७२० ३३७ ७३६ ३३७ ७३८ ३३७ ७५४ ३३८ ७५९ ३३८ ७६१ ३३८ ७७० ३३९ ७७६ ३३९ ८१२३४. ८६६ ३४२ ८७० ३४२ ८७७ ३४२ ८८६ ३४२ ८८८ ३४२ ३८५ २६८ ३८९ २६८
दण्डक (देशः) दण्डपदमासन (योगासनम्) ८६ १६० दण्डरत्ने
१८१ २१९
१३६ २३.. - १४५ २३०.
१६१ २३.. १६२ २३०. ५३६ २४८. ५५६ २४८ ५५७ २४८ ५७१ २४९.
३२ ३८८ दण्डरत्नम्
३४ २१५.
४८ २१५ दण्डपीर्य : (भरतवंशे नृपः) १३३ २३६ दण्डासन. (योगासनम्) ८३ १५९ दत्तः (गणधरः)
१०६ २९९ दधिपर्ण (वृक्षः) १९५ ३८१ दधिमुखाद्रि
५२३ १८२ ५२५१८२ ५२६ १८२ ५२७ १८२ ७२६ २०७.
७२९ २०७दर्दर (पर्वतः) ३६४ २२५ ददुर (गिरिः) ४३२ १८० दर्शनावरणीय ४६७ १९९ दशार्ण (देशः) ६७१ २०५
७० ३४६ दशेरक (देश:) ७३ ३४६ दाडिम (वृक्षः) २५३ १९२. दामोदरः (ब्राह्मणः) ८६२ २११ दिक् (भवनपतिनिकायः) ३९२ १७८. दिक्कुमारः ५०९ २..
५१४ २०० दिनमणिः (सूर्यः, विजयायाः स्वप्नः ७)
२८ १६७. दिव्यकामिनी (विद्या) ५८३ ३३२ दिव्यध्वनिः २२० २८२ दीक्षाकल्याणक ६७१ २५२
त्रिमुख (यक्षः)
त्रिवण (देशः)
५०७ ३३० ५१० ३३. ५३३ ३३१ ५४५ ३३१ ५८९ ३३२ ५९६ ३३३
दक्ष (भूतानन्दसेनानीः) ३९५ १७८ दक्षिणभरतक्ष्मार्धम् ५०० ३२९ दक्षिणापथः २७८ ३२० दक्षिणावर्तशङ्ख २५५ १६५ दण्डः (रत्नम्) १९० २३७
५४२ २४८ ५६७ २४९
Page #334
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________________
...
लोक नं. पृष्ठ नं.
६४ २९३ १२४ ३४८ ३४ ३५७
Tih
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
२६४ २६४ दुन्दुभिः (प्रातिहार्यम्) २९२ १९४
३३५ २६६
२२४ २८२ दुन्दुभिनादः ३७७ १९६ दुरितारि (देवी) ३८७ २६८
३८९ २६८ दुःषमसुषमा (चतुर्थोऽरः) ३ १५७ दुःषमाकाल १३३ २२९ दृढरथः
२५ ३०७ ४६ ३०८
लोक नं. पृष्ठ नं.
२४१ ३५.१ २४७ ३५२ २५२ ३५२ २५४ ३५२ २५९ ३५२ २६४ ३५२ २६५ ३५२ २७४ ३५२ २९८ ३५३ ३५० ३५५ ३६४ ३५५
द्वीप (भवनपतिनिकायः) ३९२ १७८
२७६ १९३
५०९ २०० द्वीपकुमारः
धनद (कुबेरः)
धनमित्र:
३१८ ३९९ देवरमणः (अञ्जनादिः) ७०८ २०६ देवोत्तरकुरु (क्षेत्रम्) ४३१ १८०
५९८ २०३
७४३ २०७ द्रमिल (देशः) ७१ ३४६ द्रविड (म्लेच्छजातिः) ६८२ २०५
११० २१७ द्रुमः (चमरसेनानी:) ३७६ १७८ द्वारका
२८० ३५३ २९० ३५३
९१ ३५८ १२५ ३६० १३५ ३६० १८७ ३६१ १०१ ३६७ १३० ३६८
१३६ ३६८ द्वारवती
६६९ २०५ २१८ ३५१ २३२ ३५१ १७२ ३६१ १८२ ३६१
२०४ ३७० द्वितीयशुक्लध्यान ३१४ २६६
१२२ २७३
७३ २९३ ७७८ ३३९
२८३ ३५३ द्विपृष्ठः (वासुदेवः) २०८ ३५०
२१३ ३५० २३२ ३५१ २३७ ३५१
दृष्टिमोहः (दर्शनमोहनीयकर्म)
४७१ १९९
९२ ३०४ दृष्टयावृतिः ४६८ १९९ देवकुरुः (इन्द्राण्या नगरी)
५९० २०३ ६५४ २०४
७३७ २०७ देवच्छन्द
३६७ १९६ ६५० २५१ ३२६ २६५ ३८१ २६८ १०९ २७२ १२७ २७३ १५६ २७४
८४८ ३४१ देवच्छन्दक:
७९५ ३३९ देवदत्तः देवदूष्य (दिव्यवस्त्रम्) २०१ १९१
२५७ १९२ २६१ २४० १५४ २६० १५५ २६०
२६६ २६४ . २८३ २६४ १०९ २७२
५६ १६८ १७९१९० ३२२ ३९९ ७४ ३५८ ७५ ३५८ ७६ ३५८ ७९ ३५८
धनिष्ठा (नक्षत्रम्) ८५९ ३४१ धनुर्वेदः
२४८ २३९ धरः (पद्मप्रभस्वामिनः पिता)
२३ २८४ धरण (इन्द्रः) ३९५ १७८
५१० २००
१७४ २६१ धरणेन्द्रः (इन्द्रः) ३९१ १७८ धरित्रीदरिणी (विद्या) ५८४ ३३२ धर्मः (जिनवरः) १९४ ३८१
२१८ ३८२ धर्मघोषाचार्यः ९०३ ३४३ धर्मचक्र
३७७ १९६ ९३७ २१३
३३० २६६ धर्मध्यान
४७६ १९९
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--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मनाथः
धर्मलाभः
धर्मलाभाशीः
धर्म सिंहः
घातकीखण्ड:
धर्मस्वामी
घातकी धातकीखण्डद्वीप)
घातकीखण्डद्वीप:
(इन्द्रः)
धान्यकटपुर धारिणी
लोक नं. पृष्ठ नं.
१ ३७५
१९८ ३८१
२१० ३८१
३५२ ३८१
३६२ ३८१
७३ २७७
९० १६०
६१ ३७७
६२ ३७७
३६१ ३८६
नन्दकम् (खड्गम् ) नन्दन (यनम्)
६४१ २०४
६४२ २०४
६४७ २०४
७४९ २०७
५३७ २०१
६४० २०४
६५ २१६
३ २५५
३ २८४
३ २९१
३ २९६
११२ ३१७
धूमध्वजः (वैजयन्स्थाः स्वप्नः १४ )
८१ १६९
ध्रुवः (तारा)
ध्वजः (जिनमातुः स्वप्नः )
३ ३५६
३ ३६४
३ ३७५
५२७ २०१ १७९ २६१
६६ ३५८
५३३ २०१
५४ २७१
३६ ३१४
ध्वनिताहिकमा (विद्या) ५८७ ३३२
"न"
६२५ ३३४
७६ १५९
१८८ १७२
नन्दनपुर
नन्दनृपः
७४
६७३३३५
३५ ३५७
८७ ३९१
२१६ ३९६
८६ ३५८
१०५ ३१६
१०६ ३१७
नन्दनोद्यान
४५ ३१४
नन्दपुरी
६९ ३६६
नन्दा (दिक्कुमारी)
१९९ १७३
नन्दा (पुष्करिणी)
७२२ २०६
नन्दा ( इन्द्राण्या नगरी) ७३७ २०७
२७ ३०७
२९ ३०८
४५ ३०८
४७ ३०८
७६ ३६६
७९ ३६६
८४ ३६७
८६ ३६७
८७ ३६७
९० ३६७
नन्दा (शीतत्यजनमाता) २८ ३०८ नन्दोषा ३९६ १७८ नन्दिवर्धना (दिक्कुमारी) १९९१७३ नन्दिवर्धना (पुष्करिणी) ७२२२०६ नन्दिषेण
नन्दिषेणा (पुष्करिणी)
नन्दिसुमित्र: (नृपः )
नन्दिस्वरा ( घण्टा )
नन्दीश्वर ( द्वीप :)
नं. पृष्ठ नं.
४३१ १८०
५६२ २०२
४३४ २४५
२३८ २६३
१६५ २८९
११५ ३१७
१३ २७५
४ २९१
२७ २९१
२८ २९१ ७२२२०६
६९ ३५८
९३ ३५८
३९६ १७८
५९ १६८
नन्दीश्वर (समुद्रः )
लोक नं. पृष्ठ नं.
नन्यायत' (मसम्
नभोगा
३६९ १७८
३७२ १७८
२८३ १७८
३९० १७८
५२० १८२
कान्ता (नदी) निगुल्मः (राजा)
५२१ १८२
२७६ १९३
७०३ २०६
७३९ २०७
७३९ २०७
६९९ २५३
१६४ २६०
२६४ २८३
१३७ ३०५ ४६ ३६५ २८५ ३९८
नन्दीश्वरद्वीप
८३९ २१०
९२ २२८
नन्दोत्तरा ( पुष्करिणी) ७२२२०६
नन्दोत्तरा ( इन्द्राण्या नगरी)
२१३ २६२
१७७ २७४
४८ ३१५
४६४ १८१
४०७ १९७
५८१ २०२
४ ३१३
३० ३१४ नलिन (बिजयः ) ६०३ २०३ निवान् (विजयः) ६०३ २०३ नवमिका (दिनकुमारी) २०७ १७३ नमी (ईशानपत्नी) ७३५ २०७ नाग ( भवनपति निकायः) ३९२ १७८ ३९७ १७९ ३९८ १७९
५०७ २००
७३७ २०७ १४४ २६०
५१० २००
१३७ २३०
१३९ २३०
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
५६८ २४९
५६० २४९
५६१ २४९
५६२ २४९
६२९ २०४
१७५ २३१
४ ३८९
२३ ३८९
४८ ३९०
३२१ ३९९
२४९ १९२
१३८ २३०
१४० २३०
१५६ २३०
नागवासिनी (विद्या) ५८४ ३३२
६९७ ३३६
१४४ २३०
२६६ २२२
नागकुमारः
नायकुमारक:
नागदत्तः
नागपुर नागरङ्गः (वृक्षः)
नागत्येकः
नागास्त्रम्
नागेन्द्र:
नामा: (देवः )
नाट मालक (देव)
नानात्वश्रुत वीचारम् (शुकूलध्यानम् )
३३६ १९५ नानारूपिणी (विद्या) ५८५ ३३२ नान्दीपुर
६७० २०५
२६९ ३८३
४७३ १९९
११६ ३६८
१२० ३६८
१२४ ३६८
१२८ ३६८
५८१ २०२
नारीकान्ता (नदी) नाशिक (देश:) ७१ ३४६ नित्योद्योतः (अम्जनाद्रिः) ७०८ २०६ निमग्ना (नदी) १९१२१९ १९२ २१९ २७५ २२२
धूमो विभावसुः (जिनमातुः स्वप्नः १४)
१२२ २५९ ५६ २७१
३९ ३१४
नामेप
नामकर्म
नारदः
५५ २२७
४१ ३८८
२६५ २२२
७५
लोक ने पृष्ठ नं.
निधूमपानकः (विजयायाःस्वनः १४)
३५ १६९
३९ ३१४
७२ ३७७
१४४३७९
निघू' मानल:
निशुम्भ (नृपः)
निषेध (पर्वतः ) M
निषषाद्रिः
निषधा
नीचैर्गोत्र (कर्म) नील (पर्वत)
नीलगिरिः
नीलाञ्जना
१४६ ३७९
१५४ ३८०
१६५ ३८०
सर्प (निधिः १)
१६६ ३८०
१६७ ३८०
१६८ ३८०
१७८ ३८०
१७९ ३८०
१८४ ३८१
१८७ ३८१
१८८ ३८१
५६८ २०२
५७०२०२
५७१ २०२
५७५ २०२
६४३ २०४
५८९ २०३
६१७ २०३
१३१ ३०५
५६८ २०२
५७१ २०२
६१८ २०३
५९५ २०३
२४६ ३२१
५४२ ३३१
नीलाञ्जनादेवी
४३६ ३२७
५७५ २०२
नीलाद्रि नेपाल: (देशः)
६८ ३४६
नेमिः (जिनः ) १०३ ३४७ नैगमेषी ( इन्द्रसेनापतिः) २५१ १७४ २६४ १७५
३६८ १७८
२७८ २२२
५६ २२७
४३ ३८८
३१२ ३९९
पचरक (लेतिः) ६७९ २०५ पञ्चप्रज्ञप्तिः (व्यन्तरनिकायः)
५२५ २०१ पञ्चानन (सिंह, वैजयन्त्याः स्वप्नः ३)
७६ १६९ ३२९ १९५
पञ्चानयुवा (सिंह, विजयायाः स्वप्नः ३ )
पचाल (देश:)
पदस्थ (ध्याननाम)
२४ १६७ ६६८ २०५. ७५ ३४६ १ ३११ ५७६ २०२ ५७३ २०२ ५७७ २०२
मदम (इदः)
६०२ २०३
१२० २५९
२०८ २८१
लोक न. पृष्ठ न.
पद्मप्रभः
पद्मखण्ड र
पद्मचिह्नम् (मलयच्छनम्)
पद्मप्रभ प्रभुः
पद्मसेनः
२०९२८१
३८ २८५
१ २८४
२ २८४
५१ २८५
१८३ २९०
१२५ २९५
६५ २८६
१९५ २९०
१९६२९०
२८ २९७
पद्मभूपतिः पद्मवती ( दिक्कुमारी) २०७१७३ पद्मसर : (स्वप्नः १०)
पद्मरथः
४ २९६ -
६६ २९८
७९ १६९ ३७ ३१४
४ ३५६
२५ ३५६
४ ३६४
२६ ३६५
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
लोक नं. प्रष्ट
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
पवक (व्यन्तरेन्द्रः) पवकपति:,, पवकाधिपः,, पवनवेगः
२८१२६१ १८१२६१ ५२८ २०१ १३० ३४८
पद्मदः
४२९ १८० २५३.२२१ २५ २९१
३७ ३१४ पद्मद
. ५७४ २०२ पद्मा (शक्रपत्नी) ७३४ २०७
१२८४ पद्माकरः (विजयायाः स्वप्नः १०).
पाञ्चजन्य (शङ्खः)
६२५ ३३४ ६२८ ३३४ २५२ ३५२ २५३ ३५२ १३८ ३६०
५१९.२०० पिहिताश्रवसरिः १४ २८४ पुण्डरीक इद: ५७६ २०२ पुण्डरीका (दिक्कुमारी) २१० १७३ पुण्डरीकिणिका (पुष्करिणी)
७२३ २०६ पुण्डरीकिणी
१०८ ३१७ पुण्ड (देशः)
६८ ३४६ पुनर्मत्स्य (देशः) ६७० २०५ पुनव सुनृपः . ७० ३०९
पद्मावती . ६०२ २०३ पद्मासन (योगासनम्) ८२ १५९ पद्मोत्तर
. ४ ३०.७
२६ ३०७ २७ ३०७
४ ३४४ २९ ३४५ ६९६ ३३६
पन्नगास्त्रम्
पयस्कुम्भः (जिनमातुः स्वप्नः ९)
१२० २५९ पयोमुच् (स्तनितकुमारनिकाय)
३२० २६६ पर्यङ्कासन (योगासनम्) ८४ १५९ पर्वतः (नृपः) १४० ३४८
१५१ ३४८ १६३ ३४९ १६४ ३४९ १७६ ३४९
१५० ३४८ पर्वतकः
१६२ ३४९
१७० ३६९ १७१ ३८०
३५० ४०० पाटला (वृक्षः) २८३ ३५३ पाटलीखण्डनगर पाण्डक (वनम्) ४३१ १८०
६५१ २०४ पाण्डु (निधिः२) २७८ २२२ पाण्डयः (देशः) ७१ ३४६ पाताल (यक्षः) २०० ३७० पाताललङ्का
३६ २२७ पादपोपगम (अनशनम्) ६७३ २५२
६७७ २५२ पापा (नगरी) ६७१ २०५ पारस (म्लेच्छजातिः) ६८० २०५ पारिजात (टुमः) १७० २८९ पाव (जिन:) १०३ ३४७ पालकम् (विमानम्) २८१ १७५
३२४ १७६ १६४ २६. ६६.२७१ ६३ ३१५
पुरुषवृषभ (नृपः)
..७७ ३७७ पुरुषसिंहः
९१ २७८ ११७ २७८ १३९ २७९ १२४ ३१७
८२ ३७७ -८८ ३७८ १३२ ३७९ १५२ ३८० १६८.३८० १८२ ३८१ १८४ ३४१ २०६ ३८१
३६४ ३८६ पुरुषोत्तमः (वासुदेवः) ११० ३६७
१३० ३६८ १४९ ३६९ १५५ ३६९
१७७ ३४९ १८१ ३४९ १८२ ३५० १८५ ३५०
१८६ ३५० पर्वतभूपतिः २०४.३५० पर्वनिशाकरः (स्वप्नः) ३५ ३१४ पवक (व्यन्तरनिकायः) ५२६ २०१
(व्यन्तरेन्द्रः) ५२८ २०१
पिङ्गनेत्रा
५८६ ३३२ पिङ्गलः (निधिः ३) २७८ २२२ प्रियङ्ग (वृक्षः) . २१२ २८१ पिशाच (व्यन्तरनिकायः) ४०३ १७९
४०८ १७९ ४१२ १७९
२०९ ३७१
२११ ३७१ पुरोधोरत्नम् .३५ २१५
३५९ २२४ पुरोहितरत्न १८७ २३७ पुलिन्द (म्लेच्छातिः) ६८१ २०५
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोक नं. पृष्ठ नं.
४९८ ३२९ ५३० ३३० ५७४ ३३२ ७६१ ३३८ ७६२ ३३८ ७७१ ३३९
७८८ ३३९
प्रजापतिः (राजा)
पुष्करावर्तक
लोक नं. पृष्ठ नं.
श्लोक नं. पृष्ठ नं. "पुष्कर (द्वीपः) ७०१ २०६ पूर्ण: (इन्द्रः) ३९१ १७८ पुष्करद्वीपः । २८ २२६
५१४ २०० पुष्करवरद्वीप
१७६ २६१ पूर्ण कुम्भः (विजयायाः स्वप्नः ९) ३ ३४४
३० १६७ पुष्कराधम् (द्वीपः) ५३८ २०१ पूर्णकुम्भः (स्वप्नः ९)
६४५ २०४ ६४६ २०४ ६४७ २०४
३७ ३१४ पूर्ण भद्रः (व्यन्तरेन्द्रः) ४०४ १७९ ६५६ २०५
५२० २०० ७०१ २०६
१७७ २६१ ७४९ २०७
पूर्ण मेघः (नृपः) ३२३ २२३ पुष्करावर्तः (मेघविशेषः) ६२९ ३३४
३२४ २२३ २६४ ३९७
३२५ २२३ ४२ २१५
. ३ २२६ ३४१ २४२
.४ २२६ 'पुष्करोद (समुद्रः) ४२७ १७९
९ २२६ ७४४ २०७
१८ २२६ पुष्करोदकः (उदधिः) ७०१ २०६
१९ २२६ पुष्कलः (विजयः) ६०० २०३
पूर्व रुचकाद्रिः १९८ १७३ ३ ३०१
पूर्वाषाढा (नक्षत्रम्) २९ ३०८ पुष्कलावती (विजयः) ६०० २०३ ३ २७५
१२२ ३१०.
पूर्वाषाढा पुष्यकम् (विमानम्) २३७ १६४
पृथिवी (दिक्कुमारी) २०७ १७३ ३६४ १७८
१११ ३४७ पुष्पकरण्डक (उद्यानम्) ११५ ३१७
९२ ३५८ १२१ ३१७
९७ ३५९ ...पृथ्वी (सुपावजिनमाता) २२ २९१
१४२ ३१८ पुष्पदाम (विजयायाः स्वप्नः ५)
२८ २९१ २६ १६७
२९ २९२ पुष्पनृपः ६२ ३०३
७९ २९३ पुष्पमाला (दिक्कुमारी) १६३ १७२
पृथ्वीपुर
१३०३४८ पुष्पस्रक् (स्वप्नः ५) ५४ २७१ पुष्पोत्तर (विमानम्) ११ ३६४
१५९ ३१८ पुष्य (नक्षत्रम्) ६०३७७
२१३ ३२० १९५ ३८१
२८० ३२२ ३२ ३७६
३०७ ३२३ ३६० ३८६
४७५ ३२९
२९९ ३७४ २०६ ३२० २७८ ३२२ २७९ ३२२ २८१ ३२२ २८७ ३२३ ३०५ ३२३ ३०६ ३२३ ३२५ ३२४ ३४२ ३२४ ३४८ ३२५ ३५० ३२५ ३५४ ३२५ ३५५ ३२५ ३६० ३२५ ४१३. ३२७ .४५९ ३२८ ४६० ३२८ ४६४ ३२८ ४६७ ३२८ ४६८ ३२८ ४७० ३२८ ४७४ ३२९ ४७८ ३२९ ४७९ ३२९ ५२१ ३३० ५४५ ३३१ ५८९ ३३२
पृथ्वोदेवी
पोतन पर
.
59.
.
प्राप्तिका (विद्या) प्रतिरूपकः (इन्द्रः)
२६५ ३९८ १७६ २६१
.
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८
लोक नं. पृष्ठ नं.
श्लोक नं. पृष्ठ न
श्लोक नं. पृष्ठ न..
प्राणतः (इन्द्रः)
७६५ २०८ ७६६ २०८ ७६६ २०८ १२ ३४४
प्रियङ्गः (वृक्षः) ११० ३१७ प्रियाल (वृक्षः) १२१ २७३ प्रीतिकरम् (अष्टमं प्रैवेयकविमानम्)
७५४ २०७ प्लक्षशाखी (वृक्षः) ७३ ३०९ प्लवगलाम्छनम्
६३ २७१
१३२ २३६ • बलानुज (वासुदेवः) ४९३ ३२९.
५७४ ३३२ ६७१ ३३५.
६९० ३३६ बलाहका (दिक्कुमारी) १८९ १७२ बलिः (इन्द्रः) ३८५ १७८
३८७ १७८ ४०२ १७९ ५१० २०० ६९७ २५३ १७३ २६१ ४८. ३२९.
फलग्रन्थः
२७८ २४०
प्रतिष्ठः (नृपः) १७ २९१
४८ २९२ प्रत्यग्रुचक
१४६ २६० प्रत्यग्रुचकाद्रि प्रभङ्करा (नगरी) ४४२ ३२८ प्रभञ्जनः (इन्द्रः)
५१२ २०० ६२६ २०४
१७५ २६१ प्रभाकरा (शक्रपत्नी) ७३४ २०७ प्रभास
११५ २१७ १२४ २१७ ७६४ ३३८ २७७ ३५३ ११८ ३६८
१९२ ३७० प्रभासतीर्थाधिपति १२६ २१७ प्रभासतीश ११८ २१७ प्रभाससुर
११९ २१७ प्रभासाधिपति
५३ २२७
२७ ३८७ प्रभासेश
२५६ ३२१
५७४ २४९ प्रसनस्रक (स्वप्न: ५) ११८ २५९ प्राग्ज्योतिष (देशः) ६७ ३४६ प्रामुचक
१४४ २६० प्राग्विदेह ५९८ २०३
६०१ २०३
३ २६९ ३ २७५ ३ २८४ ३ २९१ ३ २९६ ३ ३४४
बकुलः (वृक्षः) २४५ १९२ बकुलमतिः (सनत्कुमारस्य पत्नी)
१७७ ३९५ २८८ ३९८
७६ ३५८
८५ ३५८ बलिचञ्चा (बलीन्द्रनगरी) ३८५ १७८ बलिभूपतिः
८३ ३५८ बलीन्द्रः
५२७ १८२ बहुश्रुतः (मन्त्री) ४३८ ३२७. बाहुबलिः
१०३ २२९ १२५ २३५
२७७३८४ बुक्कस (म्लेच्छजातिः) ६८१ २०५ ब्रह्मा (इन्द्रः) ७७६ २०८
प्रयाग
ब्रह्मदत्तः
२८९ १९३
बकुलमतिका १७५ ३९५ बन्धमोचनी (विद्या) ५८४ ३३२ बबरक (द्वीपः) १६६ २१९ बबर (म्लेच्छजातिः) ६७९ २०५ बलभद्रः (भरतवंशे नृपः) १२९ २३५ बलभद्रः (बलदेवः) १७५ ३१८
२३६ ३२१ २३८ ३२१ ६२६ ३३४ ७२९ ३३७ ७४१ ३३८ ८४५ ३४१ ९०१ ३४३ ३६८ ३५५ १३० ३६०
२९९ १९४ ३०० १९४
३०१ १९४ ब्रह्म (यक्षः) ब्रह्मभूपतिः २०० ३५०
२२३ ३५१
२२४ ३५१ ब्रह्मलोकः (पञ्चमकल्पः) १४० १८९
७५१ २०७ ७६२ २०८ ७९० २०८ ७९२ २०८ ७९९ २०९
प्राजापत्य (त्रिपृष्ठः) प्राणतः (इन्द्रः) ,, (दशमकल्पः)
६१२ ३३३ ३६८ १७८ ७५२ २०७
१८५ ३७० २१० ३७१
८९ ३७८ बलवीर्य (भरतवंशे नृपः) १३० २३५
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
ब्रह्मस्थल (पुरम) ब्रह्मा (इन्द्रः )
ब्रह्मोत्तर (देश:) : ब्राह्मणवाह: (,, )
भगीरथः
মইমর
नं. पृष्ठ नं.
५८ २९२
५७ ३०८
५९ ३०९
६१ २८६
३६८ १७८
७६२ २०८
१९४ ३५०
१९६ ३५०
२०७ ३५१
२३२ ३५१
२८१ ३५३
६९ ३४६
७४ ३४६
५४० २४८
५५५ २४८
५५७ २४८
५५८ २४८
५५९ २४८
५६० २४८
५६१ २४९
५६३ २४९
५७० २४९
५७२ २४९
५७५ २४९
५७६ २४९
५७७ २४९
५७९ २४९
५८३ २४९
५८७ २४९
५९९ २५०
६०२२५०
६०४ २५०
६१० २५०
६०६ २५०
६१४ २५०
६१५ २५०
• ६२० २५० ६३८ २५१
喃
भङ्गी (नगरी)
भद्र
७९
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
६४२ २५१
६५० २५१
६५१
२५१
६५८ २५१
भरणी ( नक्षत्रम् )
भरतः (चकी) भरत (क्षेत्रम् )
६७२ २०५
९६ ३५९
भद्रादेवी
भद्रासन योगासनम्) भद्रासन ( मङ्गलम् )
भद्रिल
भडिलपुर
१०२ ३५९
१२५ ३६०
१७३
३६१
२३३ ३६३
भद्रशालम् (मेरी वनम् ) १०९ १५०
१८९ ३६१
१९० ३६२
२१६ ३६२
भद्रसेन ( धरणेन्द्रसेनानीः ) ३९५
भद्रा (दिक्कुमारी)
भद्रा (पुष्करिणी)
४३१ १८०
५१३ १८२
५६१ २०२
५६२ २०२
६४९ २०४
१८७ २६१
१७८
२०७ १७३
७२३ २०६
१६४ ३१८
१९२३१९
२०७ ३२०
२१२ ३२०
१६ ३८७
१८ ३८७
१९३८७
१८० ३१९
१९३ ३१९ ८३ १५९
४६४ १८१
६६९ २०५
११ ३०७
३ ३७५
५३५ २०१
१०३ १७०
१ १६७
भरत क्षेत्र
नं. पृष्ठ नं.
१०४ १७०
२७५ १७५
३२८ १७६
३५९ १७७
४२८ १७९
६०५ २०३
७४३ २०७
७२ २१६
७८ २१६
९७ २२८
१०५ २२९
२२९ २२९
१५१ २३०
६३ २३३
८१ २३४
१२२ २३५
१२६ २३५
२२० २३८
१२१ २७८
१८ २८४
७६६ ३३८
३ ३५६
७४ ३६६
९३ ३६७
१३३ ३६८
३ ३७५
७२ ३७७
७५ ३७७
१ ३८७ १० ३८७ ६८ ३९१
५७९ २०२
१५७ २१८
३१९ २२३ २८ २२६
९७ २२८
१३१ २२९
२०२२३८
३८१ २४३
२०४२६२
२९४२६५
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक नं. पृष्ठ नं.
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
.'
लोक नं. पृष्ठ नं.
४४ ३०२ ७५५ ३३८ ७७ ३४६
. ५२१ २०१
२७ २२६
१७७ २२६ भीरुभीषिणी (विद्या) ५८७ ३३२. भुवनक्षोभणी (विद्या) ५८२ ३३२ भूत (व्यन्तरनिकायः) ४०३ १७९.
भरतचक्री भरतभूषण भरतवर्ष भरतवर्षा भरत (क्षेत्रम्) भरत ,
८६ ३५८ ९१ ३५८ १९५ ३६२ ३१२ ३९९ १३१ २२९
७४ ३५८ ४८३ २४६
९८ ३६७ १३१ २२९
५४ २२७ ५५ २२७ २१ २६९
भरतार्थ (क्षेत्रम्)
५०६ २०० ३३७ २६६
८०८ ३४० भवनाधिपः
५०७ २००
७९२ ३३९ भवनाधिपतिः ८०९ ३४० भवनेश
३८१ १९६ ३२३ २६६
३३८ २६६ भानुभूपतिः
४९ ३७६ भानुवेगः
२२० ३९६ २२४ ३९६ २६० ३९७ २६२ ३९७ २६३ ३९७ .
२६७ ३९८ भामण्डल (प्रातिहार्यम्) ३७७ १९६
३३५ २६६ भारत (भरतक्षेत्रसत्क) २५६ १७४
५६६ २०२ ६६५ २०५ १०० २१७ १५५ २१८ १८६ २२२ ३४९ २२४ ९६ २२८ १२ २९१ १५ ३७५
३१७ ३९९ भारतक (भरतक्षेत्रसत्क) ६६३ २०५ भावनः (वणिक)
१० २२६ ११ २२६ १२ २२६ १३ २२६ १५ २२६
१८ २२६ भाषार्य
६७८ २०५ भासां चयः (भामण्डलम्) २२३ २८२ भिल्ल (म्लेच्छजातिः) ६८१ २०५ मीमः (व्यन्तरेन्द्रः) ४०४ १७९
५२० २०... भूतवादित , ५२६ २०१ भूता (ईशानपत्नी) - ७३४ २०७. भूतानन्दः (इन्द्रः)
३९५ १७८ ५१० २००
१७४ २६१ भूतावतंसिका (ईशानपत्नी)
७३४ २०७. भृकृटी (यक्षः) १०९ २९९. भोगङ्करा (दिक्कुमारी) १६३ १७२
१३७ २६०
३३ ३०२ भोगमालिनी (दिक्कुमारी)
१६३ १७२ भोगवती (दिक्कुमारो) १६३ १७२ भोगावती (पातालपुरी) २४ १५८.
४ २९६
१४० २१८ १३४ २३६
१३ ३४४ १३२ ३४८ १३९ ३४८ १९२३५० २३६ ३५१ २७६ ३५३
८८ ३५८ १६८ ३६१ १६९ ३६१ ११८ ३६८ १२१ ३६८ १२५ ३६८ १२९ ३६८ १४२ ३६८
१ ३८९. भोज (कुलविशेषः भोगकुल)
६७४ २०५ भ्रमररुत (म्लेच्छजातिः) ६८१ २०५.
१९० ३८१ १०० २२८
मकरन्दः (उद्यानम्) ८६ ३९१ मकरसाङक्रान्ति मकराङ्क (मकरलाञ्छान) ३२ ३०२
६६६ २०५. ५७४ २४९ ७६७ ३३८ १७० ३६१
मगध
भरतेश्वरः भवनपति
५०५ २००
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
८१
मथुरा
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
६७१ २०५ १४९ ३१८ १५० ३१८ ११६ ३६८ १४२ ३६८ १५५ ३६९
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
१९३ ३७०
१९१३८१ मघवा (चक्री)
३६ ३८८ ३८ ३८८
४५ ३८८ मघा (नक्षत्रम्)
२०६ २८१
२१३ २८१ मघा
१४० २७९ मङ्गलवान् (विजयः) ६०२ २०३ मङ्गला (सुमतिप्रभुमाता) १३३ २७९
१४२ २७९
१८३ २८१
- १९५ २८१ मङ्गलादेवी , १४० २७९
१४१ २७९ १६४ २८० १७२ २८०
१८१ २८० मङ्गलावती (विजयः) ३ २६९
१६८ ३६९ १७० ३६९ १७१ ३६९ १७६ ३७० १७७ ३७० १८३ ३७० १८४ ३७० १८६ ३७० १८८ ३७० ३९६ १७८ १३४ ३६८
६७ ३४६ ५५२ २०१ २६४ १९३ २८९ २६५ १६५ २७४ ६६ २९३
मधुरस्वरा (घण्टा) मधुराजः मध्यदेशः मध्यलोकः मनःपर्य यः (ज्ञानम्)
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
४५ २७०
२२ ३६४ मन्दार (कल्पवृक्षः) १७० २८९ मयूरग्रीवा (राजा) २४६ ३२१
४३६ ३२७ ५४१ ३३१
६७३ ३३५ मरीचिः (वीरजीवः) ११२ ३१७ मरुद् (लोकान्तिक) ७६३ २०८ मल (लब्धिः ) ३८७ ४०१ मलय (अद्रिः) ३६४ २२५ मलयः (गिरिः) ४० १५८
४३२ १८० ६६९ २०५ ४०७ २४४ ६८ ३४६
७७ ३६६ मलयभूनाथ:
७७ ३६६ मलय
१२७ ३९३ मल्लवत (देशः) ६९ ३४६ मल्लिः (जिनः) मल्लिनाथः
२९८ ३८४ महाकच्छ (विजयः) ६०० २०३ महाकायः (व्यन्तरेन्द्रः) ४०६ १७९
५२२ २०१
१७८ २६१ महाकाल: (व्यन्तरेन्द्रः) ४०५ १७९
५१९ २०० महाकाल (निधिः ७) २७८ २२२
१७६ २६१ महाकाली (देवी) २४८ २८३ महाकन्दितः (व्यन्तरनिकायः) ।
५२६ २०१ महागजः (स्वप्नः) ३३ ३१४ महाघोषः (इन्द्रः) ३९४ १७८
५१३ २०० महाघोषा (ईशानघण्टा) ३५५ १७७
३५८ १७७ ३७१ १७८ ४६८ १८१ १७५ २६१
मङ्गलावत: ६०० २०३ मजुघोषा (घण्टा) ३९७ १७८
४०७ १७९
४१४ १७९ म-जुस्वरा (घण्टा) ३९६ १७८
४०७ १७९
४१४ १७९ मणि (रत्नम) ३९ २१५
२७४ २२२ १८५ २१९ २२६ २२० १९० २३७
३३ ३८८ मण्यन (कल्पद्रुमः) ५१२ १८२ मति-श्रुता-ऽवधिज्ञान ४७ १८६ मति-श्रुता-ऽवधि-मनः पर्यय
२८१ १९३ मति-श्रुता-ऽवधि-मनःपर्यायाः केवल
४६६ १९९ मत्स्यः (मङ्गलम्) ४६४ १८१
३५५ ३५५
२९३ ३७४ मनःपर्यय , ११३ २७२
२०७ २८१ मनःपर्ययी १८७ २९० मनोज्ञानम्
२५३ २८३ मनोरमम् (तृतीयं ग्रेवेयक) ७५३ २०७ मनोरमा (शिबिका) ६१ २९८ मनोहरा , ६२ २९३ मन्दरः (मेरुः) १७७ ३६१
२१५ ३६२ मन्दराचल (मेरुः) ४५६ १८० मन्दाकिनी (गङ्गा) १५ २३२
५५९ २४८ ५७१ २४९
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२
श्लोक नं. पृष्ठ नं. महाद्रुमः (बलीन्द्रसेनानीः) ३८६ १७८ महाध्वजः (वैजयन्त्याः स्वप्नः ८)
७८ १६९
११९ २५९ महापद्मः (हृदः) ५७४ २०२
५७५ २०२ ५७६ २०२
६०२ २०३ महापद्मः (निधि:५) २७८ २२२
लोक नं. पृष्ठ नं.
१७३ २६१ १५८ ३१८
२१६ ३२० महाश्वेत (इन्द्रः) ५२८ २०१
१८० २६१ महासरः (स्वप्नः) १२० २५९
५५ २७० महासेन
१८ २९६
४८ २९७ महाहिमवान् (गिरिः) ५६८ २०२
५७० २०२ ५७१ २०२ ५७४ २०२ ६१६ २०३
६१७ २०३ महाहदः
५७३ २०२ महिषाङ्क (महिषला-छन:)
महापुर
श्लोक नं. पृष्ठ नं. मागध (तीर्थम्) ४२८ १७९
२८० २२२ ७६३ ३३८ २७७ ३५३ २७८ ३५३ १९८ ३६८ १९२ ३७०
२७ ३८७ मागधकुमारकः ७६ २१६ मागधक्षेत्रम्
५० २१५ मागधती
७६ २१६ २५ ३८७
२६ ३८७ मागधतीर्थकुमारः ५५ २१५
६८ २१६ मागधतीर्थाधिपति ८२ २१६ मागधतीथे श ६७ २१६ मागधपति
६९ २१६ ७७ २१६
५२ २२७ 'मागधाधिपति मागधेश
२५६ ३२१ माणव (निधिः ८) २७८ २२२ माणवक
७०० २५३ माणवस्तम्भ (देवस्तम्भः) ४०७ २६८ माणिभद्रः (व्यन्तरेन्द्रः) ४०५ १७९
५२० २००
१७७ २६१ मातङ्ग (यक्षः) ११० २९४ मानवी (देवी) ७८६ ३३९ मानसम् (सरः) ३८८ १७८
६५३ २०४
१८८ ३९५ मानससरः
महीमण्डल (नगरी) महेन्द्रः (इन्द्रः)
१३८७ ३७१ १७८ ७२ १८७ ६८ २९३
२८ ३०२ महापुण्डरीकः (ह्दः) ५७६ २०२
१२७ ३४८ महापुरो महापुरुषः (व्यन्तरेन्द्रः) ४०६ १७९
५२२ २०१
१७८ २६१ महाबलः
४९ २७० ७० ३६६
१०३ ३६७ महाभीमः (न्यन्तरेन्द्रः) ४०६ १७९
५२१ २०१
१७७ २६१ महामेरुः
६४८ २०४ महामेरुगिरिः ६५२ २०४ महायक्षः (शासनदेवः) ८४२ २१० महाराष्ट्र
११२ २१७
७० ३४६ महाण व (स्वप्नः) ३८ ३१४ महालक्ष्मीः , ३४ ३१४ महावत्सः (विजयः) ६०१ २०३ महावप्रः
६०३ २०३ महावात (धनवातः) ५०१ २०० महाविदेह (क्षेत्रम्) ५८. २०२
७४३ २०७ महावीरः
२४५ ३८३ महाशिला
७६८ ३३८
२७८ ३५३ महाशुक्रः (कल्पः) ७६४ २०८
महेन्द्रसिंहः
१०३ ३९२ ११२ ३९२ १४७ ३९४
१६३ ३९४ १६४ ३९४ १६७ ३९४ १७५ ३९५
मानुषायुः (कर्म) मानुषोत्तर (पर्वतः)
२९८ ३९९
३०९ ३९९ महेश्वरः
५२७ २०१
१८० २६१ महोरग (व्यन्तरनिकायः) ५१८ २००
५२२ २०१ महौषस्वरा (बलीन्द्रघण्टा) ३८६ १७८
११३ ३.४ ५४८ २.१ ६५५ २०४ ६६० २०५ ६६१ २०५ ७०१ २०६
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोक नं. पृष्ठ न.
१६६ ३६१ १६७ ३६१
२२ १५८ १०९ १६.
३७० १७८ ३८४ १७८ ३९० १७८ ४०२ १७९ ४११ १७९ ४१६ १७९
लोक नं. पृष्ठ ने.
१९० २१९ मारीचि (राजदूतः) ४५९ ३२८ माण्डः (स्वप्नः) ५४ २७९ मात्तण्डमण्डलम् , मालव (म्लेच्छजातिः) ६८१ २०५
२२० २८२ मालूरतरु माल्यवान् (गिरिः) ५९५ २०३
६१८ २०३ मासपुरीवर्त (देश:) ६७२ २०५ माहेन्द्र (कल्पः) ७५१ २०७
७५८ २०७ ७६१ २०८ ७७६ २०८
१७२ २६१ माहेश्वरी (नगरी) २०९ ३२० मिथिला
६६९ २०५ मिश्रकेशी (दिक्कुमारी) २१० १७३ मुद्गर (देशः) मुनिचन्द्रमुनिः २३३ ३६३ मुनिवृषभर्षिः १०९ ३१७ मुरुण्ड (म्लेच्छजाति:) ६७९ २०५ मुरल: (देशः) ७० ३४६ मुशलपाणिः (बलदेवः) ३१४ ३२३ मुशली ,
८९६ ३४३
१५९ ३६१ मुसलपाणिः । ८१६ ३४० मूल (नक्षत्रम्) २९ ३०२
६० ३०३ ६५ ३०३ १४९ ३०६ १२२ २९५ ३२ ३०२ ६८ ३४६
५३५ २०१ मृगशिरः (नक्षत्रम्) १३२ २५९
२८४ २६५ ३१६ २६६
४०१ २६८ मृगावती
१८२ ३१९ १९२ ३१९
प्रलोक नं. पृष्ठ नं.
२०३ ३२०
२१५ ३२० मृगेन्द्रासनम् (प्रातिहाय म्)
२२२ २८२ मृत्तिकावती (नगरी) ६७१ २०५ मेघ (भवनपतिनिकायः) ३९२ १७८
१२९ २७९ मेघकुमारक: मेघङ्करा (दिक्कुमारी) १८९ १७२
१४१ २०६ मेघमालिनी ,
१८९ १७२
४४४ ३२८ मेघमुख (देवजातिः) २१० २२०
२१२ २२० २२९ २२१ २३४ २२१
२३५ २२१ मेघवतो (दिक्कुमारी) १८९ १७२ मेघवदन (नागदेवाः) २२० २२०
मेघवन (नृपः) ४४३ ३२८ ' मेघवाहन
२५ २२६
२७ २२६ मेघस्वरा (घण्टो) मेरकः (अर्धचक्री) ८८ ३५८
१०८ ३५९ ११० ३५९ ११५ ३५९
५५४ २०१ ५६१ २०३ ६४१ २०४ ६४७ २०४ ६४८ २०४ ६५३ २०४ ७०७ २०६ १७० २६१ १८२ २६१ २२७ २६३ ३६२ २६७ १०६ २७८ १८ २९१ ३३ २९२ ३४ २९७ ४६ ३५७ ५९० २०३ २७५ ३२२ २१३ २६२
८७ २७२ ६४९ २.४ ३४५ १७७
मेरु
मूल
"
१२५ ३६० १३३ ३६०
मेरुगिरिः १३४ ३६० १३६ ३६० १३९ ३६० . मेरु १४० ३६०
मेरुशैल १४७ ३६० १४९ ३६० १५० ३६०
३६० १७७ ५३२ २०१
१६१ ३६१
१६५ ३६१
मे
६४५ २०४
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनं.प्र नं.
६६२ २०५
मेषमुखः (अन्तरद्वीपः ) ६९३२०६
६९७ २०६
मेषसङ्क्रान्तिः
५१ ३०२
मैत्र (नक्षत्रनाम ) ६४ २९८ मोहनीय (कर्म)
४७० १९९
७७९ ३३९
यक्ष (व्यन्तरनिकायः )
"य"
७८४ ३३९
यकदम (गन्धद्रव्यम्) २४३ १६४
९८ २९९
دو
नमक (गिरिः)
यमुना
:
यक्षराट् (कुबेरः)
यक्षेश्वर यथाप्रवृत्तिकरण (अध्यवसायः )
यमन (देश) यवनद्वीप
यवनाः (लेखा)
यश (गणभरः)
यशोधरा (दिक्कुमारी )
यशोमती (वैजयन्ती)
याम्यभारत
युगन्धरगुरुः
यूपक (पाताल)
४०३ १७९
५१७ २००
५२० २००
१०८ २९९
6673)
५९६ २५०
६७ ३९१
१५९ २७४
२०८ ३६२ ५९७ २०३
६० १८६
४७१ ३२८
७४ ३४६
१६६ २१९
६७९ २०५
१९९ ३७० २०३ १७३
६५ १६९
४० १६८ १४७ १७१ ९ २९६ ६२३ २०४.
रक्षस (व्यन्तरनिकायः) ४०३ १७९
रजनीकर (स्वप्नः)
रतिकर (पर्वत)
११८ २५९
५४ २७१
३२७ १७६
३६६ १७८
३६९ १७८
लोकने. पृष्ठ मे.
३७२ १७८
३८३ १७८
३९० १७८
७२८ २०७
७२९ २०७
७३० २०७
७३२ २०७
रतिवल्लभ
२९ २२६
रत्नपुर-ज: (विजयायाः स्वप्नः १३ ) ३४ १६७ रत्नपुनः वैजयन्त्याः स्वप्नः १३ ) ८१ १६९ १२२ २५९
३९ ३१४
२४६ ३२१
४३६ ३२७
१५ ३७५
४४ ३९०
५० ३९०
४८८ २००
४९१ २००
४९५ २००
४९७ २००
रतिकराद्रि
रत्नपुर
८४
रत्नप्रभा (पृथ्वी)
५०४ २००
५१५ २००
५२४ २०१
५२९ २०१
२२७ २२०
रत्नमयध्वजः (विजयायाः स्वप्नः ८ )
२९ १६७
धानुका धूमतमः प्रभाः महातमःप्रभा ४८६१९९ नशा (इन्द्राच्या नगरी)
७३६ २०७ ४ २६९
३ २९६
३ ३४४ रत्ना (इन्द्राया नगरी) ७३५ २०७ रत्नाचल (रोहणाद्रिः)
३५४ २२४
रत्नादि
२३८ २६३
रत्नावलि (तपः)
सनोच्या (इन्द्राया नगरी )
रथनूपुर (नगरी)
रथनूपुर चक्रवाल रथावत': (गिरिः)
स्थायी गरे रन्धवासिनी (विद्या)
रमणीयः (विजयः )
रम्भकः परिव्राजकः )
रम्भा ( अप्सराः)
रम्य (विजयः) रम्यक (वर्षम् )
राक्षसा
राक्षसी (विद्या)
लोक नं. पृष्ठ न.
३०२ १६६
१८ २६९
राजगृह
७३५ २०७
३२३ २२३
४१५ ३२७
रम्यवान् (विजयः)
६०१ २०३
राक्षस (व्यन्तरनिकायः ) ५२१ २०१ राक्षसदीपः
३२ २२६ ३९ २२७
४० २२७
४० २२७
३८ २२७
राधा
राधावेध
५३९३३१
५७२ ३३२
५९४ ३३३
७३६ ३३७ ५८३ ३३२
६०२ २०३
७०८ २०६
३ २९१
२१ २२६
२६ २२६
२३६ २६३
१४१ ३४८
३२९ ४००
६०१ २०३
५६६ २०२
५८१ २०२
६०१ २०३
४० २२७
६६६ २०५
११० ३१७ राजन्य ( जात्या प्रकारः) ६७४२०५ राजसिंह :
६८ ३७७ ७० ३७७ राजोदन ( वृक्षः ) २४९ १९२ राधा (विशाखा नक्षत्रम् ) ६५ २९३.
२८ २९१ ५० १८६
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोक नं. पृष्ठ नं. राम (अचलबलदेवः) ६४३ ३३४
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
३९ २२७
Tillah!
७३१ ३३७
७३३ ३३७ रामरक्षिता (इन्द्रोण्या नगरी)
७३७ २०७ रामा (इन्द्राण्या नगरी) ७३७ २०७ रामा (सुविधिजिनमाता) २३ ३०१
२९ ३०२
४८ ३०२ रावण:
६९२ ३३६ रिपुप्रतिशत्रुः १६० ३१८
१९४ ३१९
२२९ ३२१ रिष्ट (लोकान्तिक) ७६३ २०८ रिष्टपुर
७०३०९ रुक्मी
५६८ २०२ ५७१ २०२ ५७६ २०२ ६१७ २०३
६१८ २०३ रुचक (निमलप्रदेशः) ४८१ १९९
४८२ १९९
४८३ १९९ रुचकः (समुद्रः) ७४१ २०७ रुचक (द्वीप:) ३० ३६५
१४९ २६० रुचकद्वीप
२१५ १७३ २२१ १७३ ७४१ २०७
३१ ३०८ रुद्र (नृपतिः ) ९१ ३५८
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
१३५ ३६०
१७३ ३६१ रूपकावती (दिक्कुमारी) २१५ १.७३ रूपस्थ (ध्यानम्)
१६२ ३९४ रूपा (दिक्कुमारी) २१५ १७३
१४९ २६० रूपांशिका (हिक्कुमारी) २१५ १७३ रूप्यकूला (नदी) ५८१ २०२ रेवती (नक्षत्रम्) २७ ३६५
६४ ३६६
१९८ ३७० रोमक (म्लेच्छजातिः) ६८० २०५ रोहणाद्रि
४०१ २४४ रोहिणिऋक्ष
२५८ १९२ रोहिणी (नक्षत्रम्) १९ १६७
१२४ १७० ३४४ १९५ १११ २५९
४५ २७०
५८२ ३३२ रोहिणी (ईशानपत्मी) ७३५ २०७ रोहिता (नदी) ५७९ २०२ रोहितांशो (नदी) ५७९ २०२
लवण (समुद्रः) ६४३ २०४
१९५ ३५०
२१५ ३५१ लवणाणव
२८९ २४० लवणोद
५३६ २०१ ६२२ २०३ ६४० २०४ ६९६ २०६
३१ २२६
२१० २३८ लवणोदधि
६३९ २०४ ६८६ २०५ ६९८ २०६ ७४४ २०७ ७४७ २०७
११६ २१७ लागली (बल:) ७३८ ३३७
८९७ ३४३
३५० ३५५ लाङ्गलिक (अन्तरद्वीपः) ६८९ २०५ लाट (देशः) ६७२ २०५
। ११३ २१७ लान्तकः (इन्द्रः) ३७१ १७८ लान्तकः (सप्तमकल्पः) ७५१ २०७
७६४ २०८ ७७७ २०८
१७३ २६१ लावणक (लवणसमुद्रसत्क) ६६३ २०५ लोकान्तिकः २५२ २६३ लोहश्रृङ्खला (विद्या) ५८४ ३३२
रौद्रः (स्वयम्भूनामवासुदेवः)
१३६ ३६०
लकुस (म्लेच्छजातिः) ६८० २०५ लक्ष्मणा (चन्द्रप्रभजिनमाता)
२३ २९६ २९ २९७ ३० २९७ । ३१ २९७
४७ २९७ लक्ष्मीदेवी
७. १५९
२७ २८५ लक्ष्मीवती (दिक्कुमारी) २०३ १७३
३४ २२७
१०० ३५९ १२१ ३५९ १२२ ३५९ १२३ ३५९ १२५ ३६०
बङ्ग (देशः) ६६७ २०५ वचनपेशला (विद्या) ५८६ ३३२ वज्रऋषभनाराच (संहननम्) ५७ १८६ बज्रदत्तर्षिः बज्रनाभः
१५२ २७४
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६
अलोकनं. पृष्ठ नं.
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
लोक न. पृष्ठ नं.
बाजिग्रीवः ,
४१४ ३२७
१५७ २७४ वज्रनाभगुरुः
१. ३४४ वज्रम्
१६२ २३० २१७ २३८ १६९ २६१ ३८४ ३२६
४५ ३४५
१७८ ३८० वज्रवेग
२४७ ३९७ २५० ३९७ २५३ ३९७
२५८ ३९७ वज्रासन (योगासनम्) ८३ १५९ वटतरुः (वृक्षः) ६४ २८६ वडवामुख (पातालकलशः) ६२३ २०४ वत्स (विजयः-क्षेत्रम्) ४ १५७
६६९ २०५
३ २८४
१८ २८४ वत्सकः (विजयः) ६०१ २०३ वत्सदेशः वरसमित्रा (दिक्कुमारी) १८९ १७२ वनमाला (त्रिपृष्ठस्य माला) ६२५ ३३४ वप्रः (विजया) ६०३ २०३ वप्रकाञ्चनम् (धनाथदीक्षोपवनम्)
१९४ ३८१ वप्रावती (विजयः) ६०३ २०३ वरदामा (देवः) ७६३ ३३८
२७७ ३५३ ११८ ३६८
१९२ ३७० बरदामकुमार
९७ २१७
१०८ २१७ वरदामपतिः
७६ २१७ ..१०८ २१७ १२६ २१७
.५२ २२७ वरदामा
९० २१६
२७ ३८७ वरदामाधिप
१०४ २१७
वरदामाधिपतिः २५६ ३२१ बराह (सुविधिजिनस्याद्यगणधरः)
१३६ ३०५ वरुण (देशः) ६७० २०५ व कि (रत्नम्)
१८८ २३७ वकि
३७ २१५ ५४ २१५ ३५९ २२४
३४ ३८८ वर्धकिरत्न
१९३ २१९ वर्धमानः (मङ्गलम्) ४६४ १८१ वर्धमानपुर
६६ ३६६ वर्धमाना (शाश्वतप्रतिमा) ७१४ २०६ वर्ष धराद्रिः ५६७ २०२ वल्गुः (विजयः) ६०४ २०३ वल्गुलिकासन (योगासनम्)
८३ १५९ वशिष्ठः (इन्द्रः) ३९४ १७८
५१४ २०० वसुः (इन्द्राण्या नगरी) ७३६ २०७ वसुधारा
३०६ २६५ वसुन्धरा (दिक्कुमारी) २०३ १७३ वसुन्धरा (इन्द्राण्या नगरी)
७३६ २०७ वसुपूज्य (वासुपूज्यजिनपिता)
२० ३४४ २६ ३४४ ५५ ३४४ ५६ ३४४ २७ ३४५ ६५ ३४६
वाजिरत्नम् (अश्वरत्नम्) २०५ २२० वानवास (देशः) ७२ ३४६ वानायुज ,
७५ ३४६ वायु (भवनपतिनिकायः) ३९२ १७८
३३० १९५
५०८ २०० वायुकुमारः
५१२ २००
३२० २६६ वायुकुमारका ३५५ १९६
५१२ २००
६९४ २५३ वायुवेगः
४१४ ३२७वाराणसी
६६७ २०५
१२ २९१ वारिशोपिणी (विद्या) ५८४ ३३२ वारिषेणा (दिक्कुमारी) १८९ १७२ वारिषेणा (शाश्वतप्रतिमा) ७१४ २०६ वारुण (नक्षत्रम्)
१२५ ३४८ वारुणास्त्रम्
७०९ ३३७ वारुणिवर (द्वीप-समुद्रौ) ७०२ २०६ वारुणी (दिक्कुमारी) २१० १७३ वारुणोदः
७४५ २०७ वाल्हीक (देशः) ७६ ३४६ वासुपूज्यः (जिनः)
१ ३४४ ५६ ३४५ ६५ ३४६ २८२ ३५३ ३०७ ३५३. ३६२ ३५५
वसुभागा (इन्द्राण्या नगरी)
२२८ ३६३
वसुमित्रिका (इन्द्राण्या नगरी)
७३६ २०७ वह्नि (वहिनकुमारदेवजातिः)
५०८ २०० वह्निजटी
६२१ ३३४ वाजिकन्धरः (अश्वग्रीवः) ६९६ ३३६
वासुपूज्यकुमारः वासुपूज्यजिनेन्द्रः २८७ ३५३ विकटापाती (पर्वतः) ६१७ २०३. विक्रमयशाः (नृपः)
७ ३८९. ८३८९.
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
८७
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
श्लोक नं. पृष्ठ न
श्लोक नं. पृष्ठ न.
६९ ३५८
१८ १६७ २१ १६७ ३६ १६८ ४१ १६८ ५२ १६८
विदेह
६८ १६९
१०४ २६९ १०८ १६९ १०९ १७०
१६ ३८९
३४ ३९० विचित्रकूट (पर्वतः) ५९३ २०३
५९७ २०३ विचित्रा (दिक्कुमारी) १६३ १७२ विजय (अनुत्तरविमानम्) ३०६ १६६ विजय (विमानम्) १८ १६७
३९ १६८ ६१५ २०३ ७५५ २०७ २० २६९
४९ २७० १८० २८९ २०० ३५० २१२ ३५० २१३ ३५० २३२ ३५१ २४७ ३५२ २५५ ३५२ २६१ ३५२ २६७ ३५२ २८१ ३५३ २९६ ३५३ २९८ ३५३ ३६९ ३५५
विदेहक्षेत्रम्
५८७ २०२ विद्युत् (भवनपतिनिकायः)
३९२ १७८
५०७ २०० विद्युत्कुमारः ५११ २०० विद्युज्जिह्वः (अन्तरद्वीपः) ६३६ २०४
६९७ २०६ विद्युद्दन्तः (अन्परद्वोपः) ६९७ २०६ विद्युद्दष्ट्रः (नृपः) २८ २२६ विद्युत्प्रभः (गिरिः) ५८९ २०३
(नृपः) ४४५ ३२८ विभात (इन्द्रः) १७९ २६१
५२७ २०१ ६५ २७७
७२ २७७ विनयनन्दनः
९४ २७८ विनयन्धरसरिः ३७९ ४०१ विनीता (पुरी)
विधातृका,
४६ १६८
११६ १७० - १२४ १७० १४६ १७१ १४८ १७१ १९२ १७२ २४२ १७४ २७५ १७५ ३३३ १७७ ३५९ १७७ ५०५ १८२
५०९ १८२ विजया (राज्ञी) ७६ ३७७
७७ ३७७
७८ ३७७ विजय (त्रिपृष्टपुत्रः) ८६७ ३४२ विदर्भ (देशः)
१०७ २९४ १०८ २९४ १०९ २९४
७० ३४६ बिदिता (शासनदेवता) १८० ३६१ विदिचक (गिरिः) २१२ १७३
१४८ २६० विदेह
५६६ २०२ ६०४ २०३ ६६९ २०५ ६७४ २.५ ६८ ३४६
३४४ ४००
३९१ ४०२ विजयपुर
२०८ २८१
१९. ३५० विनयमङ्गला (विद्या) ५८६ ३३२ विजयसूरिः
३६९ ३५५ विजयसेन
५ २७५ ७ २७५ ४१ २७६
६३ २७७ विजया (दिक्कुमारी
५३० १८३ विजया (पुष्करिणी) ७२३ २०६ विजयादेवी (अमितनाथमाता) १३ १६७
२५६ १७४ ३२८ १७६ ३५९ १७७ ५०४ १८२ १९७ १९१ २१३ १९१
५४ २१५ ३०१ २२३ ३०२ २२३ ३३६ २२४
६० २३३ ६४९ २५१ ४५ २७.
। १२१ २७८
विनीतानगरी
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
विनीतेशः (सगरः)
विश्व
विन्ध्यपुर
विन्ध्यशक्तिः (नृपः )
नं. पृष्ठ नं.
१२३ २१७
५७४ २४९
१३२ ३४८
१८४ ३५०
१३३ ३४८
१५२ ३४९
१५४ ३४९
१५७ ३४९
१५९ ३४९
१६१ ३४९
१६३ ३४९
१७४ ३४९
१७५ ३४९
१७६ ३४९
विमलकीर्तिः
१८० ३४९
१८१ ३४९
१८२ ३५०
१८९ ३५० विन्ध्यस्थली (विन्ध्वाटवी) ६१३३३३ विन्ध्याद्रि १८५ ३८१ १३३ ३४८
विपाकविचय (धर्म ध्यानम् )
विपुलवाहनः (नृपः )
विपुला (वणिनी)
१८३ ३५०
१८४ ३५०
१८७ ३५०
४७६ १९९
४ २५५ ११२ २५९
८७२ २११
८७३ २११
८८६ २११
विपु
विभावसु (जिनमातुः स्वप्नः १४ )
९२८ २१२
३८७ ४०१
विमल (विमलवाहनोऽजितनीयः)
१२२ २५९
५६ २७१
१८ १६७
४८ ३५७
८४ २५८
९७ २५८
विमलनाथ
८८
विमलप्रभा (शिका)
विमलप्रभुः
विमलसूरिः विमलस्वामी
रोनं.. पृष्ठ नं.
१७४ ३६१
विमलवाहनः (नृपः अजितस्वामिजीवः )
२५ १५८
२२७ १६४
२४७ १६४
९ ३७५
११ २६९
१ ३५६
१८१ ३६१ ९८ ३१६
५६ ३५७
६३ ३५८
६६ ३५८
विलासभूपतिः
विशासनन्दी
२०० ३६२ २१७ ३६२
२२८ ३६३
३०३ ३७४
विमान (विजपायाः स्वप्नः १२ )
३३ १६८
१०९ ३१७
१६७ ३१८
विमानम् (वैजयनथाः स्वप्नः १२ )
८०१६९
१२१२५९
१३९ २७९
विमानवरम् (स्वप्नः १२) २८ २१४
विमुक्तकुन्तला (विद्या) ५८५ ३३२
विराटदेश:
५९६ २५०
विराटविषय
.५९७ २५०
९३ ३६७
११० ३१७
१११ ३१७
११६ ३१७
११७ ३१७
१३० ३१७
१३१ ३१७
१५० ३१८
१५१ ३१८
१५२ ३१८
१५३ ३१८
विशाखभूतिः
निशाला (नक्षत्रम्)
निशा (इन्द्रः) विद्यालक
विशाला (पुष्करिणी)
विश्वकर्मा
विनन्दी
विश्वभूतिः
श्लोक न. पृष्ठ न.
१५४ ३१८
१५५ ३१८
१११ ३१७
११२ ३१७
३१ २९२
७४ २९३
५२८ २०१.
१८० २६१
७२३ २०६
२४९ २३९
११० ३१७.
१३८ ३१८
१३९ ३१८
विष्णुः
११३ ३१७
११६ ३१७
११७ ३१७.
११८ ३१७
१२१ ३१७
१२५ ३१७
१२६ ३१७
१२८ ३१७
१२९ ३१७
१३० ३१७.
१३२ ३१७
१३४ ३१७
१३७ ३१८
१३९३१८
१४३ ३१८
१४६ ३१८
१४९ ३१८.
१५१ ३१८
१५२ ३१८
१५३ ३१८
१५४३१८
१५५ ३१८
१५६ ३१८
१५८ ३१८
२१६ ३२०
२५ ३१४
३१ ३१४
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
L
विष्णुदेवी
विष्णुराजः
वीतभयम्
वीरजिनः
लोक नं. पृष्ठ नं.
२१७ ३२० ३७८ ३२५
३८७ ३२६ वेणुदेवः (इन्द्रः)
४०३ ३२६
२४ ३८९
२५ ३८९
३४ ३९०
४० ३१४
४१ ३१४
४७ ३१५
२० ३१४
८५ ३१६
६७१ २०५
२६९ ३८३ वीरासन ( योगासनम् ) ८२ १५९ वृत्तवैतादयपर्वतः ६१६ २०३ वृष (जिनमातुः स्वप्नः २ )
११६ २५९
५३ २७१
३३ ३१४
५१६ ३३०
६७५ ३३५
७१२ ३३७
७२७ ३३७
७२८ ३३७
८७१ ३४२
२८० ३५३
२८१ ३५३
८८ ३५८
१६८ ३६९
१८५ ३७०
१९५३७० ५ ३८९
वृषभ: (विजयायाः स्वप्नः २ )
२३ १६७
७२ ३६६
पृथभर्षिः
वृषभस्वामी
१०४ २२९ वेगाभिगामिनी (विद्या) ५८२ १३२ वेणुदारी (इन्द्र) ३९३ १७८
वेदमीयकर्म
वैद्यकर्म
वेलम्ब (इन्द्रः)
वेलाधारीन्द्रपर्वत
८९
श्लोक नं.
बैंकियसमुद्रात वैजयन्तम् (विमानम् )
पृष्ठ नं.
५११ २०० वैतादय
१७४ २६१
३९१ १७८
५११ २००
१७४२६१
८८३ ३४२
४६९ १९९
३९१ १७८
वैकुण्ठ (वासुदेवः सः)
५१२ २००
१७५ २६१
६३१ २०४
६३५ २०४
७४७ ३३८
१३९ २६०
६१५ २०३
१२० २७८
१३९ २७९
१२ २९६
२८ २९७
१३ ३०१
२८ ३०२
४३ ३०२
३१ ३७६
३४४ ४००
३९१ ४०२
वैजयन्तम् (अनुत्तरविगानम्)
७५५ २०७
वैजयन्त
५० २९७ वैजयन्ता (पुष्करिणी) ७२३ २०६ वैजयन्ती (सुमित्र - भार्या ) ६५
१६९
६७ १६९
७४ १६९
१०४ १७०
१०८ १७०
११६ १७०
वैजयन्ती ( दिक्कुमारी ) १९९ १७३
५२९ १८३
५३० १८३
वैतरणी (नरकभूमौ नदी) ९३ २८७
वैताढपकुमार
वैतादयश्रेणिः
वैतादयगिरिः
वैतादयपर्वतः
बेताचाहि
वैतादचादिकुमार
तापादिकुमारका
वैमानिक
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
६१ १६८
४३० १८० ६१० २०३
१३७ २१८
१६७ २१९
२७० २२२
३१९ २२३
३३३ २२४
९० २२८
४९१ २४६
३३ ३१४
७७ ३४६
८८ ३५८
१२५ ३६८
१४१ ३६८
४२ ३८८
२८३ ३९३
१३८ २१८
७६४ ३३८
१५७ ३९४
३ २२६
११२ २३५
८६ २९३
२८ २२६
२५४ ३२१
२८ ३८७
४० ३८८
६०५ २०३
२५५ ३२१
२९७ ३९९
५४ २२७
१३९ २१८
१४० २१८
१४४२१८
२९ ३८७
३६१ १९६
३८२ १९६
२७२ २६४ ३९ २६६
८०७ ३४० ८१० ३४०
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
४८४ १८१ ५०३ १८२ ५०७ १८२ ५१. १८२ १८९ १९०
श्लोक न. पृष्ठ न.
१२९ २७३ १३८ २७३ १८२ २८१ १८३ २८१ १८४ २८१ २८५ २८१ १८६ २८१ २२७ २८२ ४० २८५ ४१ २८५ ५० २८५ ८१ २८६
श्लोक नं. पृष्ठ नं. चैरिमोहिनी (विद्या) ५८३ ३३२ वैराट (नगरी) ६७० २०५ वैश्रवण (धनदः) ५१० १८२ वैषाणिक (अन्तरद्वीपः) २५४ २६३
६८९ २०५ वोक्काण (देशः) ७५ ३४६ च्यन्तर (देवजातिः) २०५ १९१
३६८ १९६ ३७५ १९६ ३८१ १९६ ५१६ २०० ५१९ २००
७८ २२८ २१० २६२ ३२१ २६६ ३२४ २६६ ३३७ २६६ ३३८ २६६ ८०८ ३४० ८०९ ३४०
२०४ ३८१ व्यन्तरामर
७९६ ३३९ ७९८ ३३९
८०६ ३४० व्याघ्रमुखः (अन्तरद्वीपः) ६९४ २०६ व्योमचारिणी (विद्या) ५८२ ३३२ ....
"
४६ २९२ ४९ २९२
७९ २९३
३८३ १९६ ७३२ २०७ ७६० २०८ ३४२ २२४ ३५८ २२४ ५५८ २४८ ६८९ २५२ १६४ २६० १६८ २६१ २६९ २६१ १७० २६१ १९३ २६१ १९४ २६१ १९७ २६२ २२० २६२ २३५ २६३ २५४ २६३ २८६ २६५ २९२ २६५ ३०१ २६५ ३४१ २६६ ३५० २६७ ३७६ २६७ - ६६ २७१
६७ २७१ ६९ २७१
३५ ३४५ ४० ३४५
२९१ ३५३ २९७ ३५३ २९८ ३५३ ३१ ३५६ ३३ ३५७
शक (देशः). शक्रः
२८३ ३६१
७३ २७१ ७४ २७१
४६ ३६५
७५ ३४६ ४६ १६८ ५२ १६८ ५६ १६८ २४७ १७४ २८० १७५ ३०७ १७६ ३२० १७६ ३६९ १७८ ३७० १७८
८७ २७२ १०५ २७२ १११ २७२ ११२ २७२ २१५. २७३
१३२ ३६८ २०५ ३७१ २२१ ३७१ २९. ३७४ २०२ ३८१
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
.. श्लोक नं. पृष्ठ नं.
११२ ३५९
प्रलोक नं. पृष्ठ नं.
२०९ ३८१ २१८ ३८२ ३५१ ३८६ ३६१ ३८६ २८५ ३९८
शशी (वैजयन्त्याः स्वप्नः ६)
शिरीष (वृक्षः) शिवः (नृपः)
३२५ ३९९ ३३५ ४०० ३३७ ४०० ३४० ४.० ३४१ ४०० ३६७ ४०१ ३६८ ४०१
३१६ ३९९ शक्रध्वज (इन्द्रध्वजः) ३७७ १९६ शक्रस्तव
१५१ १७१ २६२ १७४ ४९३ १८१ ६१८ २२.
२१ २२६ २३ २२६ २४ २२६
२५ २२६ शकुलीकण कः (भन्तरद्वीपः)
६९१ २०६ शाक (म्लेच्छजातिः) ६७९ २०५ शान्तादेवी (शासनदेवता)
११२ २९४ शान्तिजिन १६४ ३०६ शान्तिजिनेश १६४. ३०६ शाङ्गपाणि (वासुदेवः) ६७४ ३३५
८६७ ३४२ २६१ ३५२
श्लोक नं. पृष्ठ न.
५७२ २०२ ५७६ २०२ ६१७ २०३ ७०० २०६ ७२ २९३ ७५ ३७७ ७९ ३७७ ८७ ३७७ १०१३७८ १०२ ३७८ १०३ ३७८ १०६ ३७८ १२२ ३७९ १३३ ३७९
शिवा (शक्रपत्नी) ७३४ २०७ शीतधामा (इन्दुः, विजयायाः स्वप्न : ६)
२७ १६७ शीतल (जिनः) १६३ ३०६
शाङ्गभृत् ,
४७ ३०८ ८० ३०९ १२६ ३११ ८६४ ३४२ ५२ ३०८
शीतलनाथः शीतलप्रभुः
शाङ्गम् (धनुः)
८१५ ३४० ८८३ ३४२ १६० ३६१ १६५ ३६१ १९२ ३७० ६२४ ३३४ ६७४ ३३५ २५५ ३५२ ७१२ ३३७ ७४९ ३३८ ८७४ ३४२ २७३ ३५२
शाम (वासुदेवः)
शक्रेशानौ (इन्द्रौ) ६९७ २५३ शङ्खः (विजयः) ६०३ २०३
६३१ २०४ शङ्खक (निधि ९) २७८ २२२ शङ्खपुर
४ २७५ शची
११ २७५ २५ ३१५
२३ ३५६ शतभिषग् (नक्षत्रम्) ३० ३४५
२८४ ३५३ शबर (म्लेच्छजातिः) ६७९ २०५ शब्दवेध (बाणविद्याविशेषः)
५० १८६ शब्दापाती (पर्वतः) ६१६ २०३ शम्बर (देवविशेषः) ३६७ २४३ शम्भव (तृतीयजिनः) २१७ २६२ शर्करा (द्वितीयनरकभूमिः) ।
४९७ २.० शशिसौम्य (नृपः) १०८ ३५९
७२ ३०९ ११५ २१० १२४ ३११ १२५ ३११
शीतलस्वामी
शीता (नदी)
१७२ ३६९ १८४ ३७० १९३ ३८१
२०९ ३८१ शालिग्राम: (अग्रहारः, ग्रामः)
८६१ २११ शिखरी (
पतः) ५६८ २०२
- ७५ ३०९ ५८० २०२ ५८४ २०२ ५८५ २०२ ५९६ २०३ ५९७ २०३ ५८० २.२ ५८४ २०२ ५८५ २०२
शीतोदा (नदी)
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक नं. पृष्ठ नं.
. श्लोक नं. पृष्ठ न.
लोक नं. पृष्ठ नं.
श्रुतज्ञान श्रुतसागरः (मन्त्री) श्रेयांसः (जिनः)
८२ ३०३ ४४९ ३२८ ८६ ३१६ ९२ ३१६
श्रावस्ती
६७२ २०५ १०३ २५९ २५६ २६४ २५७ २६४ २८१ २६४ ७४ ३५८ १० ३८७
४५ ३८८ श्रीः (वैजयन्त्याः स्वप्नः ४)
श्रीः (दिक्कुमारी)
२१० १७३
७९९ ३३९ ८२६ ३४०
९७३४७ श्रेयांसप्रभुः ३६२ ३५५ श्रेयांसमुनिः श्रेयांसस्वामी ७८५ ३३२
८६४ ३४२
९०२ ३४३ श्रेष्ठदन्तकः (अन्तरद्वीपः) ६९९ २०६ श्वेतः (इन्द्रः) १८० २६१ श्वेतपुर
६१ ३०३ श्वेतवी (नगरी) ६७२ २०५
२१ ३८९ २४ ३८९ २५ ३८९
५९२ २०३
५९३ २०३ शुक्तिमती (नगरी) ६७० २०५ शुक्रः (इन्द्रः) ३६८ १७८ शुक्र (अष्टमकल्पः) ७५१ २०७
७७७ २०८
३० ३१४ शुक्लध्यान
३४० १९५ शची (शक्रपत्नी) ७३४ २०७ शुद्धदन्तः (अन्तरद्वीपः) ६९९ २०६ शुद्धभट्टः (दामोदरतनयः) ८६३ २११
८८१ २११ ८८८ २११ ९०७ २१२
९३६ २१३ शुभनाम (कम) १२५ ३०५ शेष (शेषनागः) १२३ २७९ शेषवती (दिक्कुमारी) २०३ १७३ शैलेशी (ध्यानम्) ४०० २६८ शैलेशीध्यान १०० १८८
६८१ २५२ १७१ २७४ २५९ २८३
८५९ ३४१ शैवि (शिवनृपपुत्र) १५८ ३८० शौर्य (नगरम्) ६६८ २०५ श्यामा (विमलजिनमाता) २० ३५६
(२६ ३५६ २७ ३५६ २९ ३५७
४५ ३५७ श्यामानन्दन (विमलजिनः) ३५ ३५७ श्येनलाञ्छनः (अनन्तजिनः)
२९ ३६५ श्रवण (नक्षत्रम्) ४१ ३१४
१०० ३१६ ११९ ३००
३१ ३०४
७८० ३३९ श्रवणसिंहर्षिः
१३१ ३४८
षड़जकैशिकी (ग्रामरागः) १८ ३४४ षण्मुखः (यक्षः) १७८ ३६१
श्रीद (कुबेरः)
२१० ३२० श्रीदेवी
२५ २९१ श्रीधरभूपतिः १९० ३५० श्रीधम तीर्थ कृत् ३१० ३९९ श्रीनाभिसूनुः ३२७ ४०० श्रीपतिः (त्रिपृष्ठः) ७७५ ३३९ श्रीपद्मप्रभः १२५ २९५ श्रीपुष्पदन्तः
५० ३०२ श्रीमती (राज्ञी) १९० ३५० श्रीवत्स (मङ्गलम्) ४६४ १८१ श्रीवत्साङ्क (शीतलजिनः) २९ ३०८ श्रीविजयः (त्रिपृष्ठपुत्रः) ८६७ ३४२ श्रीवीरः
१०४ ३४७ श्रीशीतलजिनेन्द्रः १३०७ श्री श्रेयांसजिनेन्द्रः २ ३१३ श्रीश्रेयांसप्रभुः श्रीसम्भवजिनेन्द्रः १ २५५ श्रीसुपाव:
२ २९१ ४८ २९२
१२४ २९५ श्रीसुपावजिनेन्द्रः १२९१ श्री ही धृति-कीर्ति-बुदि-लक्ष्मीः (देव्यः)
५७८ २०२
संगमः (देवः) ३३९ ४०० संभवाचाय: १८६ ३५० संवरः
३१ २७० संवरनृपः
९९ २७२ संवत (वातविशेषः) ६२९ ३३४
१३९ २६० संवर्तक , १८४ १७२
६२६ ३३४
४३ ३१४ संस्थानविचय (धम ध्यानम्)
सिंहक' (अन्तरद्वीपः) ६९५ २०६ सिंहवासिनी (विद्या) ५८३ ३३२ सिंहनिःक्रीडितम् (तपः) ३०२ १६६ सिंहनिषद्या (जिनप्रासादः) १०० २२८
१०७ २२८ सिंहपुर
१५ ३३१
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________________
श्लोकनं. पृष्ठ नं.
सिंहमुखः (अन्तरद्वीपः) ६९४ २०६ सिंहल (देशः) ७२ ३४६ सिंहलक (द्वीपः) १६६ २१९ सिंहसेन (गणधरः) ८१४ २०९
८३३ २१० ८४७ २१० १७ ३६४
सिंहासन (प्रातिहाय म्) ३६९ १९६
सकामनिजरा ३७७ ४०१ - सगरः (चक्री) १०३ १७०
५८० १८४
१ १८५ ३ १८५ २३ १८५ २४ १८५ २८ १८५ ४५ १८६ ४६ १८६ ५५ १८६ ६९ १८७ ७७ १८७
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
८१३ २०९ ८२५ २०९ ८२९ २१० ८३३ २१० ८४१ २१०
१ २१४ ६ २१४
७ २१४ १४ २१४ २९ २१४ ५४ २१५ ६३ २१५ ७० २१६ ७२ २१६ ७४ २१६ ८० २१६ ८८ २१६ ९१ २१६ ९२ २१६ ९९ २१७ १०० २१७ १०८ २१७ १२० २१७ १२१ २१७ १२५ २१७ १४० २१८ १४३ २१८ १५२ २१८ १५३ २१८ १७५ २१९ १७६ २१९ १८३ २१९ १९५ २१९ १९९ २२० २१७ २२० २३० २२१ २३६ २२१ २४४ २२१ २५४ २२१ २५६ २२१
लोक न. पृष्ठ नं.
२५८ २२१ ३६८ २२२ २७० २२२ २७४ २२२ २८५ २२२ २८७ २२२ ३०१ २२३ ३०३ २२३ ३०६ २२३ ३०७ २२३ ३१८ २२३ ३३५ २२४ ३४८ २२४ ३४९ २२४
२ २२६ ९ २२६ २० २२६ ५१ २२७ ४१ २२७ १२८ २२९ १३७ २३० १४१ २३० १४४ २३० १७८ २३१
६१ २३३ १८४ २३७ ५२४ २४७ ५३४ २४८ ५४० २४८ ५५६ २४८ ६०६ २५० ६१५ २५० ६२० २५० ६३२ २५१ ६३७ २५१ ६४१ २५१ ६४२ २५१ ६४३ २५१ ६४५ २५१ ६५० २५१
१४२ १८९ १४३ १८९
१६२ १८९ १६३ १९० १७४ १९० १७५ १९० १९८ १९१ २०८ १९१ २३४ १९२ २७९ १९३ ४०३ १९७ ४०८ १९७ ४१२ १९७ ४१३ १९७ ४१५ १९७ ४१७ १९७
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
६५३ २५१ ६५९ २५१ ६८७ २५२ ७०२ २५३ ३९९ १९७
सप्तपर्ण तरुः समानक (इन्द्रः) समरकेसरी (नृपः) समवसरण
श्लोक नं. पृष्ठ न.
१८५ ३९५ १७९ २६१
८६ ३५८ ३७० १९६
सगरचक्री
५३३ २४८ सगरज
१७१ २३१ सगरपुत्र सतेरा (दिक्कुमारी) सत्पुरुषः (व्यन्तरेन्द्रः) ४०४ १७९
५२२ २०१
१७८ २६१ सद्वैद्य (शातावेदनीयम्) ८८ ३०४
८९ ३०४ सनत्कुमारः (इन्द्रः) ३६८ १७८ , (तृतीयकल्पः) ७५१ २०७
७५८ २०७ ७६१ २०८
७७६ २०८ (इन्द्रः) १७३ २६१ (कल्पः) ५७ ३८८
४३ ३९० (चक्री) २६८ ३८३
लोक नं. पृष्ठ नं.
१६९ ३९४ १७२ ३९४ २३५ ३९७ २३८ ३९७ २४१ ३९७ २४५ ३९७ २८८ ३९८ २९६ ३९९. ३०० ३९९ ३०७ ३९९ ३०९ ३९९ ३११ ३९९ ३१७ ३९९ ३१९ ३९९ ३२१ ३९९ ३२२ ३९९ ३२५ ३९९ ३२६ ४०० ३३० ४०० ३३१ ४०० ३४३ ४०० ३४६ ४०० ३४८ ४०० ३५५ ४०० ३५९ ४०१ ३८९ ४०२
३९४ ४०२ सनत्कुमार (कल्पः) ४०० ४०२
४०४ ४०२ सन्तान (कल्पवृक्षः) १७० २८९ सन्दर्भ (देश:) ६७० २०५ सन्ध्यावली (राजकन्या) २५३ ३९७
२६५ ३९८ सन्निहित (इन्द्रः) ५२७ २०१
१७९ २६१ सप्तच्छद (वृक्षः) २५८ १९२ सप्तच्छदक (दधिमुखादिः)
७३५ २०७ सप्तच्छदतरुः
४१५ १९७ ४१६ १९७ ४३३ १९८
४ २२६
७ २२६ ६२० २५० ३२० २६६ १२३ २७३ १२५ २७३. ६६ २८६ ७५ २९३ ८० २९३ ७५ २९८ ७८१ ३३९ ७८९ ३३९ ८०३ ३४०. ८१५ ३४० २८५ ३५३. २९१ ३५३ २९६ ३५३१७७ ३६१ १८३ ३६१ १८९ ३६१
८७ ३९१ ११७ ३९३ १२१ ३९३ १४७ ३९४ १५३ ३९४
२०५ ३७१ २१० ३७१ १९६ ३८१ २०२ ३८१
२०७ ३८१ समान (इन्द्रः) ५२७ २०१ समानचतुरस्र (सस्थानम्) ५७ १८६ समाहारा (दिक्कुमारी) १४५ २६..
२०३ १७३
४८ ३१५ समुद्धात (केवलिसमुद्घातः)
६८७ २५२
१५८ ३९४
१६३ ३९४ १६४ ३९४
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
श्लोक नं. पृट नं.
-समुद्रदत्तः
७८ ३६६ ७९ ३६६ ८५ ३६७ ८७ ३६७
१०६ ३६७ समुद्रविजय
११ ३८७ २१ ३८७
२२ ३८७ सम्भव
२ २५५
२१७२६२ सम्भजिनः
४०६ २६८ सम्भवप्रभुः
३९८ २६८ ४०४ २६८
४०५ २६८ सम्भवस्वामी २४० २६३
२४२ २६३ २४४ २६३ २४५ २६३ २६५ २६४ ३१५ २६६ ३५० २६७ ४०० २६८
१७५२७४ सम्भिन्नश्रोताः (नैमित्तिकः)
४५२ ३२८
४६४ ३२८ सम्भूतमुनिः १३७ ३१८ सम्मेत (शैल:) ६७२ २५२
८५८ ३४१
३५९ ३८६ सम्मेतगिरिः ६७५ २५२ सम्मेतपर्वत १२० २९५
११६ ३०० सम्मेतशलशिखरम् ३९७ २६८ सम्मेताद्रि
६७१ २५२ १६९ २७४ २५८ २८३ १९१ २९० १४८ ३०६ २२४ ३६३
..६३ २९३
७२ २९३ ६३ २९८ ७२ २९८ ७७७ ३३९
५८ ३५७ १७४ ३६१
५७ ३६६
१९६ ३७० सहस्रारः (इन्द्रः) ३७१ १७८ .., . (कल्पः) ७५२ २०७
७५९ २०८ ७६५ २०८ ७७७ २०८
७९० २०८ (इन्द्रः) १७३ २६१
१० ३५६ ७३ ३६६ ९१ ३६७
. . श्लोक नं. पृष्ठ नं.
२९८३७४ सरस्वत् (भवनपतिनिकायः) ३९२ १७८ सरस्वती
१५६ २१८
२४९ २३९ सरस्वतीदेवी १६ १६७ सरिन्नाथ (समुद्रः, जिनमातुःस्वप्न : ११)
५५ २७० सर्व गुप्तः सर्वप्रभा (दिक्कुमारी) ११० १७३ सर्व भद्रम् (चतुर्थ ग्रेवेयकम्)
७५३ २०७ सर्वरत्नकः (निधिः ४) २७८ २२२ सर्वरत्ना (इन्द्राण्या नगरी) :
७३६ २०७ सर्वार्थ (अनुत्तरविमानाम्)
७८२ २०८ सर्वार्थसिद्ध , ७९२ २०८ सर्वार्थसिद्धम् . ३ १६.७ सर्वार्थसिद्धिकम् ,, ७५५ २०७ सवितृदोपः ६३८ २०४ सहकारः (आम्रवृक्षः) २५३ १९२ सहदेवी
७३ ३९१ सहस्रदृक् (सुलोचनपुत्रः) ३ २२६ सहस्रनयनः , ३२१ २२३
३२६ २२३ ३३१ २२४
३३४ २२४ सहस्राक्ष
७ २२६ २० २२६ २५ २२६ २६ २२६
सहस्रक्षण (नृपः) साकेत (नगरी)
साकेत . साकेतनगरम्
१०७ ३६७
७७ ३७७ ३३३ २२४ ८४१ २१० १३९३४८ ६६७ २०५
१२२६ ६०४ २५० २४० ३९७ ३३५ २२४ १५१ ३४८ ५६ ३६६
साकेतपुरनाथः साकेतपुरम्
सागरदत्तः
सहस्राम्रवण
२४२ १९२
सारस्वत (लोकान्तिक) १३८ १४९
७६३ २०८
४११ १९७ ३१४ २६६ १२१ २७३ २०५ २८१ २११ २८१ ५९ २८६ ६३ २८६
सालतरुः ३१४ २६६ सिद्धताडनिका (विद्या) ५८६ ३३२ सिद्धभट्ट (ब्राह्मणः) ८६३ २११ सिद्धार्थ पुर १०५ ३१६ सिद्धार्या (शिबिका) २७१ २६४
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोक नं. पृष्ठ न.
श्लोक नं. पृष्ठ नं. सिद्धार्था (अभिनन्दनजिनमाता)
४० २७०
६. २७१
सिद्धिक्षेत्र सिद्धिशिला सिन्धु (नदी)
६३ २७१ ६२१ २५० ७५६ २०७ १०८ १७. ५७९ २०२ ५८३ २०२ ६७१ २०५ १२७ २१७ १६२ २१८ १६३ २१९ १६५ २१९ १७४ २१९ १९१ २१९ ५३ २२७
६ २६९ ७४ ३४६
श्लोक नं. पृष्ठ न सुग्रीनृपतिः
२७ ३०२ सुघोष (इन्द्रः) ३९१ १७८
५१३ २०० सुघोषा (घण्टा) २६६ १७५
२७१ १७५ २७३ १७५ ३६८ १७८ ४०५ १९७
१७५ २६१ सुजाता (शक्रपत्नी) ७३४ २०७ सुतारा
१०४ ३०५ सुदन (मुनिः) ८१ ३५८ सुदर्शनः (नृपः) ७९ ३७७
१२५ ३७९ २०७ ३८१ २०९३८१
३६८ ३८६ सुदर्शनम् (प्रथम प्रवेयकम)
७५३ २०७
१३७ ३४८
३३७ ४०० सुनन्दः
१२८ ३४८ सुनन्दनृपः
१२७ ३४८ सुनन्दा (पुष्करिणी) ७२२२०६
९४ ३४७. २४० ३९७
२५६ ३९७ सुनेत्र (नृपः)
९ २२६
१९ २२६ सुन्दरी (राज्ञी) ८६ ३५८ सुपर्ण (भवनपतिनिकायः) ३९२ १७८
५०८ २०..
५११ २०० सुपद्मः (विजयः) ६०२ २०३ सुपाश्व (जिनः) २ २९१
४८ २९२ सुपाश्वजिनेन्द्रः सुपाश्व स्वामी
६० २९३
७४ २९३ १११ २९४ १२५ २९५
१२२ ३०० सुप्रदत्ता (दिक्कुमारी) २०३ १७३ सुप्रबुद्धम् (द्वितीय अवेयकम्)
७५३ २०७. सुप्रबुद्धा (दिक्कुमारी) २०३ १७३ सुप्रभ (नृपपुत्रः)
२३० ३६८
३१ ३८८
३७ ३८८ सिन्धुदेवी १२८ २१८
१२९ २१८ १३५ २१८
२६१ २२१ सिन्धुनदी
२०९ २२. २४२ २२१ २४३ २२१ २६९ २२२
२८६ २२२ सिन्धुनिष्कुटम् १५३ २२१ सीता (महानदी) , (दिक्कुमारी) २०७ १७३
१०२ ३६७
१०७ ३६७ सुकन्छ
६०० २.३ सुकेशा (सुलोचनतनया) ३२१ २२३
सुदना (पुष्करिणी) ७२२ २०६ सुदर्शना (पुण्डरीकिणी-वापी)
७२२ २०६ ,, (ईशानपत्नी) ७३५ २०७ ,, (सुमतिजिनमाता) ६ २७५
९ २७५ ११ २७५ १२ २७५ १४ २७५ १५ २७५ २१ २७५
२८ २७५ (राज्ञी)
१०२ ३६७ १०३ ३६७ १०४ ३६७ १०५ ३६७
७०० २५३ सुधर्मा (देवसभा) २४७ १७४
२६६ १७५ " (चमरसभा) ३७४ १७८
सुप्रभा (शिबिका)
, (राज्ञी)
२८८ ३७४ ३०७ ३७४ २०९ १९१ ९२ ३५८
९४ ३५९
सुध
सुबल:
१०८ २१७ १६७ ३१८
९३ २२८ २१५ २३८
सुबुद्धिः
सुग्रीव
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--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
सुभद्रा
सुमेरु
१९७ ३५० १९८ ३५०
सुभोगा (दिक्कुमारी) १६३ १७२
८७३ २११ ८८३ २११ ८८९ २११ १३ २७५
१४ २७५ सुलोचनः (विद्याधरराजः) ३२० २२३
३२५ २२३ १८ २२६
सुमङ्गला
९४ ३४७
सुमतिः (जिनः)
३६७ १७८ ४३१ १८० ३२९ १९५ ५५७ २०२ ५९ २१५ ३२ २२६ ९८ २२८ ११७ २३५ २९३ २४० १८३ २८१
३८ २४५ २९७ ३९९
१९६ २८१ २०३ २८१ २५७ २८३ ४४१ ३२८
सुवत्सः (विजयः)
६०१ २०३
सुमतिनाथः
सुमतिप्रभुः
१ २७५ २२७ २८२ २५६ २८३ २६२ २८३
सुयशा (अनन्तजिनमाता) २१ ३६४।
२७ ३६५
सुवत्सकः (इन्द्रः) ५२८ २०१
१८० २६१ सुवत्सा (दिक्कुमारी) १८९ १७२ सुवप्रः (विजयः) ६०३ सुवल्गुः (विजयः) ६०४ २०३
२९ ३६०
सुमतिस्वामी
२६३ २८३
१९६ २९०
सुविधिः
५० ३०२
सुयशोदेवी , ४५ ३६५ सुरादेवी (दिक्कुमारी) २०७ १७३ सुराष्ट्र
११४ २१७
सुमनः (षष्ठ वेयकम्) ७५३ २०७
सुविधिप्रभुः
५५ ३०३
सुमनसः (जिनप्रातिहा म्)
२१९ २८२
सुविधिस्वामी
१९३ ३५० २४० ३९७
७८ ३०३ १५१ ३०६ १५१ ३०६ १५४ ३०६ १२५ ३११ वेयकम्) ७५३ २०७
सुराष्ट्रक
सुमनोदाम (वैजयन्त्याः स्वप्नः ५)
७७ १६९
३५ ३१४ सुमित्रः (सगरस्य पिता) ६५ १६९
८७ १८७ ९३ १८७ ८१३ २०९
६६९ २०५
सुरूपः (न्यन्तरेन्द्रः)
४०४ १७९ ५२० २००
सुविशालम् (पञ्चम
---
१७६ २६१
सुव्रत (पद्मप्रभस्य गणधरः)
१७७ २९० १७८ २९०
सुव्रता
२७ ३७६
सुमित्रविजयः
६७ १६९ ७१ १६९
७२१६९ सुमेघा (दिक्कुमारी) १८९ १७२
सुरूपा (दिक्कुमारी) २१५ १७३ सुरेन्द्रदत्तः . ३०२ २६५
३०९ २६५
३१० २६५ सुलक्षणा (शुद्धभट्टपत्नी) ८६३ २११
८७१ २११
सुव्रताचार्य:
७२ ३५८
सुव्रतादेवी
३४ ३७६
Page #359
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________________
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
४८ ३७६ ३२ ३७६
श्लोक नं. पृष्ठ नं. सोपाश्रयासन (योगासनम्) ८६ १६०
सौधम कल्पेन्द्रः
सोम (नृपः)
लोक नं. पृष्ठ नं.
४८२ १८५ ४८७ १८१ १९६ २६२ ७१ २८६ ८३ २९३
सुश्रुतः (मन्त्री)
४३५ ३२७ ४३६ ३२७
सुसीमा (नगरी)
१०१ ३६७ १०६ ३६७ १३० ३६८ १३७ ३६८ १३८ ३६८ १६१ ३६९ १९५३७०
सौधर्म पतिः (शक्रः)
३३६ १७७
१४ १५७
३ २८४ २८ २८५ ३४ २८५ ३५ २८५ ५० २८५
सौधर्माधिपतिः
३४६ १९५
सौधर्मेन्द्रः
सुस्थित (देवः)
६३८ २०४
सोमदत्तः
६६ २९८ सोमदेवः
६१ २८६ सोमा (ब्राह्मणी) ८६२ २११ सौत्रामणो (दिक्कुमारी) २१२ १७३
५२१ १८२ ५२३ १८२ २६० १९३ ३७ २९२ ३६ ३६५ ३१५ ३९९ ३४२ ४००
सुस्वरा (घण्टा)
३९६ १७८
सूकरलक्ष्मा (विमलजिनः) २९ ३५७
सौदामनी (नाटकम्)
३३७ ४००
सौधर्मेश
३७ ३०२
सौधर्मेशानः
सूक्ष्मः (वासुपूज्यगणधरः) २८५ ३५३
३५१ ३५५ सूक्ष्मसंपराय (दशमंगुणस्थानम्)
३३८ १९५ सूरनन्दनः
२१२ १९१
सौधर्मशानकल्प
७५८ २०७
सौनन्द (मुसलम्) .
६२६ ३३४
सरप्रभा
सौमनस (वनम्)
सरसेन (देशः)
६७१ २०५
सौधर्म (प्रथमः कल्पः) २४५ १७४
२७४ १७५ ३२३ १७६ ३२४ १७६ ५१७ १८२ ७५१ २०७ ७६० २०८ ७६५ २०८ ७७५ २०८ ७८२ २०८ ७९२ २०८ १२२ २३५ ३४ २९७
४३१ १८० ५६४ २०२ ५८९ २०३ ६५० २०४
सार (देश:)
७१ ३४६
५३० २०१
सर्य: (ग्रहः) सर्याचन्द्रमसौ (इन्द्रौ)
१८१ २६१
सेना (संभवजिनमाता) ११२ २५९
सौमनसम् (सप्तम अवेयकम्)
७५४ २०७
सेनादेवी
११० २५९ ११५ २५९
३६६ ४०१
सौमनसा (शक्रपत्नी) ७३४ २०७ सौमित्रिः (सगरः) २५ १८५ सौवीर (देशः) ६७१ २०५ स्तनित (भवनपतिनिकायः)
२०७ २६२
सौधर्म कल्पः
२६९ १७५ ३४ ३०२
सेनापतिरत्नम्
सौधर्म कल्पाविपतिः
३५९ २२४
५०८ २००
३१ ३६५
Page #360
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________________
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
लोक नं. पृष्ठ नं.
५१३ २००
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
१४८ ३६० १५० ३६० १५२ ३६०
• स्त्रीरत्नम्
हंसस्वरा (घण्टा)
३९६ १७८
हंसासन (योगासनम्)
८४ १५९
३२२ २२३ ३३२ २२४ ३३५ २२४ ३४६ २२४ ३५४ २२४ ४३ २२७ ७४ २२८
ह्यकण्ठः (अश्वग्रीवः) ५९६ ३३३
६३९ ३३४ ७४७ ३३८
हयकन्धर
,
१६६ ३६१ १६७ ३६१ १६९ ३६१ . १७३ ३६१ १८८ ३६१ १८९ ३६१ १९० ३२६ २१४ ३६२ २२९ ३६३ २३१ ३६३
स्थामशुम्भनी (विद्या) ५८२ ३३२ स्वयम्प्रभः (अञ्जनादिः) ७०८ २०६
९७ २५८
६२९ ३३४ ६७६ ३३५ ६९२ ३३६ ७०५ ३३६ ७२० ३३७
mm"
यकर्ण (म्लेच्छजातिः) ६८३ २०५
यकर्णकः (अन्तरदीपः) ६९१ २०६
२६५ ३२२
स्वयम्भूरमणः (उदधिः) ५५१ २०१
५५३ २०१ ७४२ २०७ ७४४ २०७
स्वयम्प्रभा (त्रिपृष्ठभार्या) ४२१ ३२७
४२८ ३२७ ४३३ ३२७ ४३८ ३२७ ४४७ ३२८ ४६१ ३२८ ४८६ ३२९ ४८७ ३२९ ४९० ३२९ ४९३ ३२९ ५०१ ३२९ ५१४ ३३. ६६२ ३३५ ६६७ ३३५ ८६७ ३४२
७४७ २०७
१२३ २३५ ६०८ २५० १९१ २८१ ८२७ ३४०
हयग्रीवः (अश्वग्रीवः)
२९४ ३२३ २९७ ३२३ २९८ ३२३ ३.२ ३२३ ३४५ ३२४ ३५२ ३२५ ३५६ ३२५ ४०८ ३२७ ४५७ ३२८ ४९५ ३२९ ५०० ३२९ ५१५ ३३० ५१७ ३३० ५३२ ३३० ५३९ ३३१ ५४० ३३१ ५५८ ३३१ ५६२ ३३१
स्वर्ण'कूला (नदी)
५८१ २०२
स्वणशैल (मेरुः)
३५१ ४००
-स्वयम्भूः (वासुदेवः)
स्वर्णाद्रि ,
३९ २८५
स्वस्तिक (मङ्गलम्)
४६४ १८१
१०० ३५९ १०२ ३५९ १२५ ३६. १२८ ३६० १३५ ३६० १३८ ३६० १४० ३६०
स्वस्तिकाङ्क (सुपार्श्वनाथ:)३१ २९२
स्वस्तिकासन (योगासनम्) ८५ १६.
स्वाति (नक्षत्रम्)
५३५ २०१
Page #361
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________________
लोक न. पृष्ठ नं.
श्लोक नं. पृष्ठ नं.
अलोक नं. पृष्ठ नं.
३३२ ४००
४०० ३२६ ४८५ ३२९ ४८६ ३२९ ४९४ ३२९ ६८१ ३३६
५६४ ३३२ ५७६ ३३२ ५७७ ३३२ ६३३ ३३४ ६३८ ३३४ ६४. ३३४ ६६० ३३५ ६७१ ३३५ ६७२ ३३५
हस्तिमुखः (अन्तरद्वीपः) ६९४ २०६ हस्तिरत्न
१८४ २१९ हास (इन्द्रः) ५२८ २०१
१८० २६१ ९४ ३०४
७१० ३३७
हासरतिः (इन्द्रः)
.
हासा (दिक्कुमारी) हाहा (गन्धर्व:) हिमवदद्रि हिमवान् (गिरिः)
५२८ २०१ १८० २६१ २१० १७३ २३५ २६३
९५ २२८ ५६८ २०२ ५७२ २०२ ५६९ २०२
६२६९
६८० ३३६ ६८२ ३३६ ६८३ ३३६ ६८५ ३३६ ६९४ ३३६ ७०८ ३३६ ७१. ३३७ ७२४ ३३७ ७३० ३३७ ७३२ ३३७ ७३५ ३३७ ७४४ ३३८ ७५० ३३८ ७५१ ३३८ ७५२ ३३८ ७५४ ३३८ ७५६ ३३८
७६५ ३३८ ८४५ ३४१ १७२ ३६१ २१. ३७१
३७ ३७६ हरिकान्ता (नदी) ५८० २०२ हरिचन्दन (कल्पवृक्षः) १७० २८९ हरित् (नदी) ५८० २०२ हरिदासः (वणिक्पुत्रः) १४ २२६
१७ २२६
१८ २२६ हरिपुर
७२ ३७७ हरिवर्ष (क्षेत्रम्) ५६६ २०२ हरिवर्षक ५८. २०२ हरिवाहनः (नृपः)
हिमाचल
२०६ १९१ हिमाचलकुमार (देवः) २५८ २२१ हिमाचलकुमारक ५५ २२७
३७ ३८८
हिमाद्रि
१८७ २६१
हरिशिखः (इन्द्रः) हरिसहः ,
३९३ १७८ ५११ २०० १७४ २६१
हुण्डोवसर्पिणी हृण (म्लेच्छजातिः)
यमुखः (अन्तरद्वीपः) ६८२ २०५
हलायुध (बलदेवः) ८९१ ३४२ हस्त (नक्षत्रम्) ३३१ १९५ हस्तिक (अन्तरद्वीपः) ६९५ २०६ हस्तिनापुर ५७३ २४९
६८ ३९१ ३०१ ३९९ ३०७ ३९९ ३.१३ ३९९ ३३१ ४००
हूहूः (गन्धर्व:) हृषीकेश (वासुदेवः) हैमवत् (क्षेत्रम्) हैमवतम्
६८० २०५
७५ ३४६ २३५ २६३ ७३९ ३३७. ५७९ २०२ ५६६ २०२
हरिः (इन्द्रः)
३९१ १७८ ५११ २००
हैरण्यवत् (क्षेत्रम्)
६७४ २०५
५६७ २०२ ५८१ २०२ २१० १७३
१७४ २६१
हीः (दिक्कुमारी)
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________________
तृतीय परिशिष्टम् ॥
हेमचन्द्र-वचनामृतम् ।। द्वितीये पवेणि प्रथमः सर्गः ॥
चिकित्स्यते हि निपुणे-रङ्गोद्भवमपि व्रणम् ॥२७॥ जन्मान्तरानुधावीनि, कर्माणि ऋणवन्नृणाम् ॥६०॥ स्वार्थभ्रशो हि मूर्खता ॥६५॥ ... निश्चिते कार्य, नालसन्ति मनीषिणः ॥१४३।। चक्षुष्मानपि किं कुर्या-दन्धकारे प्रसृत्वरे ॥१५१॥ बालेऽपि हि सुते हन्त !, सिंही स्वपिति निर्भरम् ।।१८९|| गुर्वाज्ञाकरण सर्व-गुणेभ्यो ह्यतिरिच्यते ॥१९४॥ तिष्ठन्त्येकत्र नर्षयः ॥२६४॥
द्वितीयः सर्गः ॥ महापुमांसो गर्भस्था, अपि लोकोपकारिणः ॥१०६॥ सर्व हि शुभमेव स्या-ज्जन्मतोऽपि शुभात्मनाम् ॥१३०॥ देवतानां जन्मसिद्धाः, खलु वैक्रियलब्धयः ॥१७२॥ जायते घृष्यमाणाद्धि, दहनश्चन्दनादपि ॥२३८॥ निष्पद्यन्ते सुमनसां, मनसा हीष्टसिद्धयः ॥३०७॥ एकधाऽनेकधा च स्युः, कामरूपा दिवौकसः ॥३३८॥ तापनीये ह्यलङ्कारे, सुतरां द्योतते मणिः ॥४४०।। सर्वसाधारणी वृष्टि-रिदस्योद्यतस्य हि ॥५३६।।
तृतीयः सर्गः ॥
न केसरिकिशोराणा, पञ्जरे जात्ववस्थितिः ॥७॥ वयो गौण महात्मनाम् ॥८॥ यथाव्याधि हि भेषजम् ॥७६॥ विनयी हि लघुभ्राता, पुत्रादप्यतिरिच्यते ॥८६॥ कोऽल्पहेतोबहु त्यजेत् १ ॥८७|| राज्यादप्यतिसाम्राज्या-च्चक्रवर्तिपदादपि । देवत्वादपि विदुषां, गुरुसेवा गरीयसी ॥८८॥ भावतोऽपि यतिर्यतिः ॥१०॥ सतां ह्यलध्या गुर्वाज्ञा, मर्यादोदन्वतामिव ॥९३।। दासन्ति ह्यन्यमणयः, सर्वे चिन्तामणेः पुरः ॥११०।। पूज्यैरभक्तोऽपि शिशुः, शिष्यते, न तु हीयते ॥१४५।। गोपुच्छलग्नो हि तरे-न्नदी गोपालबालकः ॥१५३|| ० ० ० बलवत्, स्वाम्यवज्ञाभयं सताम् ।।३४९।। ० ० ० ऽऽवश्यकविधि-द्य लडध्यो महतामपि ॥३७३|| निर्धनस्य सुभिक्षेऽपि, दुर्भिक्ष पारिपार्श्विकम् ॥८६६।। प्रायः प्रावृष ऊध्र्व' न, तिष्ठन्त्येकत्र सयताः ।।८८०॥ धर्म धर्मापदेष्टारः, साक्षिमात्र शुभात्मनाम् ॥९०७||
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-स्वर्णीस्यातां सिद्धरसात्, सीसक - त्रपुणी अपि ।९०८||
चतुर्थः सर्गः ॥
देवतीवन्ति पदाजीविनः ||८||
000 0
०
पादचारेणोपस्थानं, पूजातोऽप्यतिरिष्यते ॥११॥ स्वाधिकार प्रमादित्वं भीतये अधिकारिणाम् ॥१३॥ प्रयान्ति तमस्थाने, भूषणान्यपि भूष्यताम् ॥१२॥
१०२
,
o
• स्वामिदत्त - माहात्म्याः खलु सेबकाः ॥८२॥ • भक्तेष्वीशा हि प्रतिपत्तिदाः ॥१०८॥
०
महात्मनां महर्द्धांना मुसा हि पदे पदे ॥१३५॥
О o ० ०
कृत्यं महान्तो न त्यजन्ति हि ।। १४६ ।। सेवनीयामिमां हि देवैरपि नरैरिव ।। १५०॥
कृष्टाश्य इवाऽऽयान्ति, शक्तया शक्तिमतां श्रियः ॥ १७५ ॥ • प्रायस्तपोमया हि देवताः ॥१७८॥
प्रणिपातापानी हि. कोपाटोपो महात्मनाम् ||२३९॥
० o
नास्ति, विदेशः कोऽपि दोष्मताम् ।।२४५ ।। तुष्यन्ति हि महीयांस, सेवामय्या गिराऽपि हि ।। २७२ || अनुत्सुकानां शक्तानां डीपूर्वाः प्रवृत्तयः ॥२८७॥ महात्मानः प्रणयिनां प्रणयं स्वण्डयन्ति न ॥ ३५१ ॥
००
पञ्चमः सर्गः
: 11
उत्कण्ठा हि बलीयसी ॥ १३ ॥ महत्म्याभाऽन्यस्याऽपि न मुधा किं पुनस्तुकाम् ||३१|| तज्ज्ञानामपि हि नृणां प्रमाण भक्तिमता ॥७२॥ आरमैन हि तत्सभा ॥७४॥
О ०.
• सामवागम्भः, कोपाग्नेः शमन सताम् ।। १५५॥ नीवते यत्र तत्राम्मो, रजपुमानित्र ।। १६३ ।। लोके स्यादनुकम्पायै, सागसामपि निग्रहः || १७७||
षष्ठः सर्गः ।।
॥१२॥
अभ्रादपि पतितानां शरण' धरणी सहलाता अपि कापि नियन्ते पृथक पृथक पृथग्नाता अपि कापि, विपद्यन्ते सहेव हि ॥१५॥ महवोऽपि विपद्यन्ते विपद्यन्तेऽत्यका अपि ।
सर्वेषामपि जीवानां यन्मृत्युः पारिपार्श्विकः ॥५२॥ कालो हि दुरतिक्रमः ॥ १२६ ।।
पितुर्मातुश्च तुल्यं हि दुःखं सुतवियोगजम् ॥१७२|| यत्राss कृतिस्तत्र गुणा, इत्यर्भा अप्यधीयते ॥२२६॥ ज्ञानस्य प्रत्ययः फलम् ॥ २८० ॥
न मायिनामृजनां चाऽजयं शाश्वतवैरिवत् ॥ ३८३ ॥ नारीपरिभवं राजन् ! सहन्ते पशवोऽपि न ॥ ३८९ ॥
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________________
चन्दनास्पदमेको हि, मलयः सानुमानिह । ४०७॥ विमृश्य हि विधातव्य-मल्पीयोऽपि प्रयोजनम् ।।४५३॥ नातं दधु' कक्षमग्नि-विना वायु ज्वलन्नपि ॥४८५॥ न हि प्रमाणे प्रत्यक्षे, प्रमाणान्तरकल्पना ॥५०९।। अदर्शितपथ याति, पयो बन्धवदुत्पथे ॥५४२॥ गुणप्रकर्षों विनया-दशक्तस्यापि जायते ॥५४९॥ निसर्गेण विनीतस्य, शिक्षा सद्भित्तिचित्रवत् ॥५५५।। सोऽध्वा यो महदाश्रितः ।।५८२।। तुल्या. भूस्तुल्यकर्मणाम् ॥५९७ ॥
अथ तृतीयं पर्व । तत्र प्रथमः सर्गः ॥
विवेकिनां विवेकस्य, फलं यौचित्यवर्तनम् ।।९।। नदीवन्न नदीभतु-रुत्सेकाय धनागमः ॥१०॥ दुर्लङ्घा भवितन्येता ॥२०॥ पात्रोपकारे प्रथम, महतां यदुपक्रमः ॥३७॥
सरस्या हि सरोजानि, विशिष्यन्ते शरत्क्षणे ।।१२९॥ - पङ्कज पहनमपि, याति पहिलतां न हि ।।२९५||
द्वितीयः सर्गः ।।
सरिदम्भोभिरम्भोधिः, किं माद्यति मनागपि ? ॥३६॥ • • • कुलस्त्रियः । पतिव्रतात्वे व्रतव-दनीचारस्य भीरवः ॥४६॥
तृतीय सर्गः ॥ प्रतिमायाः प्रभावोऽधि-ठातृदेवोचितः खलु ॥५३॥ हिमं सोत हेमन्ते, ग्रीष्मे च तपनातपः । मझावातोऽपि वर्षासु, न पुनयो वने स्मरः ।।७.॥ यौवनैश्वर्यस्पादि-मदस्थानानि शान्तये । मान्त्रिकस्येव भूतानि पदातित्वाय, साधनात् ॥८॥ गृहबासो हि संसार-तरोर्दोहदमुत्तमम् ॥९२॥ दैवस्थ विषमा गतिः ॥१४५॥ कः परयसनेऽर्तिमान् ? ॥१५१॥ राशा दृष्टः कुष्टो वा निर्णयो पुनर्भवः ॥१५६॥ स्त्रीण विवादो निणेतुं, स्त्रीभिरेव हि युज्यते ॥१६६॥ कोकिलायाः खल्वपत्य, काक्या पुष्टोऽपि कोकिलः ॥१७६॥
चतुर्थः सर्गः ॥
बाल्य मूत्र-पुरीण, यौवने रतचेष्टितैः । वार्थके श्वास-कासाद्य-चनो जातु न लज्जते ॥१३६॥ पुरीषसूकरः पूर्व', ततो मदनगर्दभः । जराजरद्गवः पश्चात्, कदाऽपि न पुमान् पुमान् ॥१३७॥ स्थाशवे मातृमुख-स्तारुण्ये तरुणीमुखः । वृद्धभावे सुतमुखो, मूर्यो नान्तमुखः कचित् ॥१३८॥
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शिष्या गुरूणां कूपाना-माहावा इव तरिक्रयाः ॥१७८॥
पञ्चमः सर्गः ॥. स्यन्दन्ते चन्द्रकान्ता हि, चन्द्रकान्तिप्रभावतः ॥३९॥. अपि त्रिलोकनाथानां, मान्यं हि पितृशासनम् ॥५४॥ ० ० ० भगवन्तो हि, कर्मच्छेदाय तत्वराः ॥५५॥
षष्ठः सर्गः ॥
० ० ० धीमानसारात् सारमुद्धरेत् ॥१०३॥
सप्तमः सर्गः ॥
भात्यद्रौ न तथा रत्न-मङ्घिकटके यथा ॥४२॥ निक्षदेशे क्रियते, हरण्डस्यापि वेदिका ॥१६२॥
अष्टमः सगः ॥
विहा यसो महत्त्वे हि नोपमान भवेत् परम् ॥२४॥
अथ चतुर्थ पर्व । तत्र प्रथमः सर्गः ॥
प्रष्टुमर्हो न सामान्य-जनो हि स्वप्नमुत्तमम् ॥१७४॥ श्रेयान् स देशो नो यत्र, श्रयन्ते दुर्जनोक्तयः ॥२०८॥ यादशस्तादृशो वाऽपि, पूजनीयः पिता सताम् ॥२१३॥ ० ० ० न पूज्यचरितं, चर्चयन्ति मनीषिणः ॥२१४॥ विसंवादो न धीमताम् ॥२२६॥ न ह्याप्ताश्चाद्वभाषिणः ॥२६५॥ बलिनो यद् बलिभ्योऽपि, बहुरत्ना हि भूरियम् ॥३७६॥ स्वामिनि व्यग्रचित्ते हि, नाऽवकाशः कलावताम् ॥२९॥ न श्वाऽप्यास्कन्द्यते यस्मात्, स्वामिनः किं पुनः पुमान् ? ॥२९६॥ दूतदृष्टयनुसारेण, प्रवर्तन्ते हि भूभुजः ॥२९८॥ खप्रशंसेवाऽन्यनिन्दा, सतां लज्जाकरी खलु ॥३०१॥ राजवद् राजपुत्रोऽपि, मान्यो राजानुजीविनाम् ॥३०४॥ न चपेटा शगालेषु, क्रोशत्स्वपि मृगद्विषः ॥३१५॥ दन्तिनां दन्तघातस्य, स्थान नैरण्डपादपः ॥३१७॥ दूता हि प्रतिरूपाणि, प्रभूणां संचरन्त्यमी ॥३२७॥ यत उत्तिष्ठति शिखी, निर्वाप्यस्तत एव हि ।।३२८॥ कवल: शक्यते क्षेप्तु, नाक्रष्टु हस्तिनो मुखात् ॥३४०॥ इङ्गितज्ञा हि सेवकाः ॥३४६॥ उग्राणां स्वामिनामग्रे कोऽन्यथा वक्तुमीश्वरः १ ॥३४७॥.. प्रमाद्यन्ति शुभात्मानो, न हि ज्ञात्वा मनागपि ॥४३॥ सर्वस्याऽभ्यागतो गुरुः ।।४७०॥ रत्नं रत्नाकरे हि यत् ॥४९६॥ दूतो हि प्रथमो नये ॥४९७॥
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१०५
कन्यादानं सकृत् खलु ||५०४ ।।
० o
● भृत्यानां प्रमाणे स्वामिशासनम् ||५०९॥ माजरपूनः पुरतः किं दुग्धमवशिष्यते १ ||५.१२ ॥ स्वपक्षे हि विपक्षस्थे, स्वादमर्शो विशेषतः ||५.३४।। का मलाया हरिणय हरेः करिविदारिणः १५४९॥ मन्यावन्तर्मधुनीव, चेतनाऽस्तु कुतो नृणाम् ? ॥५५५॥ प्रेमाऽस्थानेपि भीप्रदम् ||५७५ ॥
पुण्याकृष्ट स्वयं सर्वं किं किं न स्यान्महात्मनाम् ? ।।५८८ ॥ ००० सर्पवर्ष हि, सर्पो जानाति नाऽपरः ।।६१७।। श्रीच्छिदेनपि धीतस्य श्वेतवाससः ।।६३६ ॥ बालोऽपि केसरी नेमान्महतीऽपि पलायते ।
महतो
कि सत्तालोऽपसर्पति ॥ ७२१ ।। क्षत्रियाणां क्रमो ह्येष युद्ध स्वाम्याज्ञया खलु ।।७५९|| फलन्ति हि महात्मानः सेविताः कल्पवृक्षवत् ॥ ७६५ ॥ मतिमन्तोऽप्रमादेनायुक्तेभ्यो ऽप्यतिशेरते ।। ७९८ ।। महतामन्तकालो हि पर्वणे न पुनः शुचे ||८६५॥ विषयाक्षिप्तमनसा, गलेद्धि स्वामिशासनम् ||८७५॥ दुशासनं हुआ शासनानां महीभुजाम् ॥८८॥ अनुष्ठाने प्रवर्तन्ते ज्ञात्वा स्वल महाशयाः ॥ ९०५ ॥ द्वितीयः सर्गः ॥
कस्तृप्येदमृतस्य हि ? ॥ ६६ ॥
प्राणान् रक्षेद्धनैरपि ।। १३६ ।।
राशां भवन्ति दूता हि वास्तवादिनः ॥१६० ।।
शूराणां भिगमनं सुहृदीवाऽसुहृद्यपि ॥ १६४॥
तस्य श्रीर्यस्य विक्रमः ॥१८३॥
संजायते व्याधिरिव द्विषन् विषमुपेक्षितः ॥ २२३॥ सर्वोऽपि सापराधो हि छलमन्विष्यते यदा ॥ २३०॥ जीवन्, नरो भद्राणि पश्यति ॥ २६९ ॥
तृतीयः सर्गः ॥
00 ०
o
० मान्या, पित्राज्ञा धर्हतामपि ॥५२॥ द्यतान्धानां कुतो मतिः ॥ ७८ ॥
क्षत्रियाणां गुणो ह्येष, परस्त्रीहरण' हठात् ॥ ११४॥ विपरीता मतिः पुंसां भवेद् देवे पराङ्मुखे ॥ ११९ ॥ हन्यते न खलु याऽपि स्वामिनी ।। १२६ ।।
वीरभोग्या हि भूरियम् ॥ १२९ ॥
न हि केसरिबूत्कार, श्रुत्वा तिष्ठन्ति वारणाः ॥१३९॥ काकानां तस्कराणां च नश्यतां का ननु या १ ।।१५२। नाभूत् पत्युः कल् या सा स्यानुपपतेः कथम् ॥१६४॥
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जन्ययात्रा हि सेवाऽभूत्, परमन्यतरो वरः ॥१६७॥
चतुर्थः सर्गः ।। स्पृशन्नपि गजो हन्ति, जिघ्रन्नपि च पन्नगः ॥११३॥ बन्द्यर्थवादः सर्वोऽपि, किं यथार्थीभवेत् क्वचित् ? ॥१२१॥ अर्थलोभादथिजनैः स्तूयमानेन धीमता । लज्जितव्यं प्रत्युतापि प्रत्येतव्यं न जातुचित् ।।१२२।। बलिभ्योऽपि वलितमा, महद्भ्योऽपि महत्तमाः । दृश्यन्ते ह्यत्र जगति, बहुरत्ना वसुन्धरा ॥१२३॥ ओजायन्तेऽनोजसोऽपि, दूताः स्वाम्बोजसा खलु ॥१३८॥ आदत्ते ह्यम्बु यद्भानु: पुनरुज्झति भूरि तत् ॥१४५॥ श्रियः स्वामिनि रुष्टे हि, न तिष्ठन्ति भयादिव ॥१४॥ किं रम्भोन्मूलने स्थाम-वर्णनं वरदन्तिनः १ ॥१७८॥ तमांसि हन्ति प्रौढानि, बालोऽपि हि दिवाकरः ॥१८॥ तेजः प्रमाण वीराणां, तेजसां कीदृशं बयः १ ॥१८१॥ न्यालोऽपि गरल मुक्तवा शाम्येन्न पुनरन्यथा ॥१८२॥
.. पञ्चमः सर्गः ।। इहस्य दर्शनेनापि शं स्यात् स्पशेन किं पुनः १ ॥१.१॥ सर्वार्थसाधकः काय-श्चलत्येष हि भोजनात् ॥१.७॥ नदीमभ्यस्थितानां हि, किं करोति दवानलः ? ॥१४९॥ रसान्तरेण हि रसो बाध्यते बलवानपि ॥१५॥ बालकस्यापि सिंहस्य, को हि देशं प्रयच्छति ? । प्रवर्धयति तं को वो ? कुतस्तस्य पराभवः ? ॥१५५॥ सहस्रधा हि फलति, व्यवसायो महात्मनाम् ॥१९॥ तरवोऽपि निधि प्राप्य, पादैः प्रच्छादयन्ति यत् ॥३१७॥ अङ्गुल्या पिहिते कर्णे, शन्दाद्वैतं हि नम्भते ॥३३५॥ भणी पिधाने पिहितं, नभु विश्वं चराचरम् ।।३३६॥
सप्तमः सर्गः ॥ हस्त्यश्वे राजपुत्राणां, कौतुकं सर्वतोऽधिकम् ॥९॥ इन्दोः क्षीरार्णवाज्जन्म मूल्ऽपि ह्यनुमीयते ॥२२५॥ रत्नं स्वर्णे हि योज्यते ॥२२६।। बलिभ्योऽपि छल बलिः ॥२२९।। स्वलोभः कस्य नोपरि ! ॥२५४॥ भर्तृ गृह्या हि योषितः ।।२६५॥ धत्रिया हि रणप्रियाः ॥२६६।। विक्रान्तो हि श्रियां पदम् ।।२८२॥ याच्आ ह्यमोघा महता-ममोघ च ऋषेर्वचः ॥२९॥ मिथ्या न खलु भाषन्ते, महात्मानः कदाचन ॥३५४॥ • ० ० . मानां, क्षणिकं सर्वमेव हि ॥३६॥
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१.७
त्रिपरिशलाकापुरुषचरिते द्वितीये विभागे शुद्धिपत्रम् ।।
पत्राक
पक्ति
शुद्ध
१७३
पाल
१७४
अशुद्ध राज्यसम्पल्लतोतद्भः अपाच्यरुचील. सुरा-२ सुर० मिथ्यादुष्कृत शक्रस्यै शक्रदेश्यदेशे नभस्थिता माला बिद्याधरा
राज्यसम्पल्लतोद्भूत. अपाच्यरुचकशैल. सुरा-ऽसुर० मिथ्या दुष्कृत. शक्रस्ये शक्रदेश्य ! देशे नभःस्थिता मालाविद्याधरा
२०७
लूतया
लूतया
२१८ २२८ २५७ २६१ २६२ २६९
पूर्णोऽवशिष्ट सूत्रामा सुन्दरी
२८७
पच्यते
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३४४ ३४७ ३५६ ३६. ३६१
फलादानं तीर्थकृन्नाम कर्म ० जपमाल
तच्च कर्त्ता तीर्थकृन्नाम कर्म प्रदीयमानाघ तीर्थ कृन्नाम कम अशेषद् द्विष ८ जन्यं-युद्धम्
.
रिप्पण्यां २
३६४ ३६६ ३६८ ३७३
पूर्णो वसिष्ट. सुत्रामा सुन्दरः (१) पच्यन्ते फालादान तीर्थकृन्नामकर्म • जपमाला तच्चकर्ता तीर्थकृन्नामकम प्रदीयमानार्थ तीकृन्नामकम अशेषद्विष. ८ जन्य 'जान' इति भाषाणाम् । वरयात्रा । तीर्थ कृन्नामकम सुन्दरा यथार्थीभवेत् स्यान्मोहस्योपशमे बद्धाः स्कन्धा बन्ध० ज्ञानावृत्यादिरष्टधा देशनातो जानन्नन्द्रीमपि तीर्थकृन्नामकर्म अतिपाण्डुकम्बलायां • रिवोन्मरुबकं तस्याभूतामुमे पल्यौ . नावतप्तेनकुलस्थितम् नेपथ्यसमुदायाः पैशुन्य भ्यामलीकुरुतेतमाम अहो ! शैक्षा इवाश्रौषु.
तीर्थकृन्नाम कम सुन्दरी यथार्थी भवेत् स्यान्मोहस्योमशमे बद्धाः स्कन्धा गन्ध• ज्ञानावृत्त्यादिरष्टधा देशेनातो नानन्द्रीमपि तीर्थकृन्नाम कर्म अपि पाण्डुकम्बलायां • रिवोन्मरुचकं तस्याभूतामु पल्यौमे • नावपप्ते नकुलस्थितम् नेपथ्यसमुद्रदायाः पैशून्य ध्यमलीकुरुतेतमाम अहो ! शैक्षा चाौषु.
३७४ ३७५
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३७८ ३७८ ३८. ३८२ ३८५
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१०८
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असन्तुष्टास्तृणायते । असन्तुष्टास्तृणायन्ते ३८८
खण्डप्रपाताद् द्वारस्थं खण्डप्रपाताद्वारस्थं इत्याख्या ख्यातः इत्याख्याख्यातः
सर्व त्राप्रेक्ष्य सहृद सर्वत्राप्रेक्ष्य सुहृद० परिशिष्टे पृ. १० (कोलम ३) पं. ३९ तः पश्चात् उदयक्षयक्षयोप० ४६३ ३९९
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________________ માજિક, ધાર્મિક જોઈ શકાઢ રીતે પ્રતિ ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિત यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न कुत्रचित् // જે અહી છે તે અન્ય સ્થળે છે, જે અહીં નથી તે ક્યાંય નથી.” ઉપરનાં વચન મહાભારત માટે લખાયેલાં છે. તે જ વચન ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિતને સારી રીતે લાગુ પડે છે. ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિત એટલે જૈન સંપ્રદાયના સિદ્ધાંતો, કથાનકે, ઈતિહાસ, પૌરાણિક કથાઓ, તત્ત્વજ્ઞાનને સર્વસંગ્રહ, આખા ગ્રંથનું કદ 36000 લેાક ઉપરાંત પ્રમાણનું થવા જાય છે. આ મહાસાગર સમાન વિશાલ ગ્રંથની રચના શ્રી હેમચંદ્રાચાર્યે તેમની ઉત્તરાવસ્થામાં કરી હતી. શ્રી હેમચંદ્રાચાર્યની સુધાર્ષિણી વાણીનાં ગૌરવ અને મીઠાશ એ મહાકાવ્યમાં આપણે અનુભવી શકીએ છીએ. સમકાલીન સામાજિક, ધાર્મિક અને વિચારગત પ્રણાલિકાના. પ્રતિબિંબ એ વિશાલ, ગ્રંથમાં ઘણે સ્થળે આપણે જોઈ શકીએ છીએ. એ રીતે તે ગુજરાતને તે કાલને સમાજ અને તેનું માનસ તેમાં નિગૂઢ રીતે પ્રતિબિંબિત થયા છે. આ દૃષ્ટિએ ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિતનું મહત્ત્વ હેમચંદ્રાચાર્યની કૃતિઓમાં વિશિષ્ટ પ્રકારનું છે. થાશ્રયમાં જેટલું વૈવિધ્ય તેમનાથી સાધી શકાયું છે તેના કરતાં અનેક પ્રકારે ચઢિયાતું વૈવિધ્ય આ ગ્રંથમાં દૃષ્ટિગોચર થાય છે. | ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિતમાં 63 શલાકા પુરુષ”માં ચરિતોનું આલેખન કરવામાં આવ્યું છે. “શલાકા પુરુષ” એટલે તે પ્રભાવક પુરુષ જેમના મોક્ષ વિષે સંદેહ નથી. આ ત્રેસઠ શલાકા પુરુષમાં ૨૪–તીર્થ"કર, 12 ચક્રવર્તી, 9 વાસુદેવ, 9 બળદેવ, તથા 9 પ્રતિવાસુદેવનો સમાવેશ થાય છે. | કાવ્યની અને શબ્દશાસ્ત્રની દષ્ટિએ તો આ કાવ્યની વાત જ શી કરવી ? તેમાં પ્રસાદ છે, ક૯પના છે. શબ્દનું માધુર્ય છે, સરળતા છતાંય ગૌરવ છે. આ નાના પ્રકરણમાં આ બધુય બતાવવા માટે શી રીતે અવતરણો આપવા. ? જિજ્ઞાસુને તે મૂળગ્રંથ જોવા માટે જ ભલામણ કરવી રહી. એક પરિશીલન કરનાર કહે છે કે “એ ગ્રંથ આખાય સાદ્યત વાંચવામાં આવે તે સંસ્કૃતભાષાના આખા કેશને અભ્યાસ થઈ જાય તેવી તેની ગોઠવણ છે? | ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિતનું આખુંય અવકન અને પરિશીલન એ નાના પ્રકરણને વિષય ન જ થઈ શકે. 36000 લેકના અગાધ કાવ્યશક્તિ અને વ્યુત્પત્તિથી ભરેલા ગ્રંથનું પ્રસ્તુત પરિશીલન અત્યંત 95 છે. આખાય ગ્રંથનું સમગ્ર પરીક્ષણ તે એક વિસ્તૃત મહાનિબંધનો વિષય બની શકે. હેમચંદ્રાચાર્યનું કલિકાલસર્વજ્ઞનું બિરૂદ આ એક ગ્રંથ પણ સિદ્ધ કરી શકે એ એ વિશાળ, ગંભીર, સર્વદશી છે. એક દિશાસૂચક પ્રકાશશલાકાથી વધારે તે કયાંથી આ નાનું લખાણ આપી શકે ? કાલિદાસના શબ્દોમાં “દસ્તર સમદ્રને તરાપા”થી ઓળંગવા માટે આશા સેવતા હેમસારસ્વતના ઉપાસકના પ્રયત્ન કરતાં આ પ્રકરણમાં વધારે હોઈ પણ શુ શકે ? - મધુસુદન મેદી (“હમસમીક્ષા” માંથી સભાર ઉર્ધ્વત) www.jainelibrary.com